उस रात किसी बड़ी किताब का भव्य विमोचन समारोह था. यूँ भी हिन्दी में किताबों के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके लेखक के बड़े या छोटे होने से होता है और लेखक के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके संपर्कों के आधार पर.
बड़े लेखक की बड़ी किताब का विमोचन हो तो विमोचनकर्ता का बड़ा होना भी जाहिर सी बात है. अतः इस समारोह के विमोचनकर्ता भी बहुत बड़े और नामी साहित्यकार थे. वह इतना अच्छा लिखते हैं कि वर्षों से इसी चक्कर में कुछ लिखा ही नहीं (शायद भीतर ही भीतर यह भय सताता हो कि कहीं कमतर न आंक लिए जाये) मगर फिर भी, नाम तो चल ही रहा है.
अधिकतर अच्छा लिखने वालों के साथ यही विडंबना है कि वो इतना उत्कृष्ट लिखते हैं, इतना अच्छा लिखते हैं कि कुछ लिख ही नहीं पाते. बरसों बरस बीत जाते हैं उनका अच्छा लिखा पढ़ने को. बस, उनसे दूसरों के बारे में सुनने और पढ़ने के लिए यही मिलता चला जाता है कि फलाने ने अच्छा लिखा और ढिकाने ने खराब. सलाह भी उन्हीं की ओर से लगातार बरसती है कि अच्छा लिखने की कोशिश होना चाहिये साहित्य को धनी बनाने के लिए. वे बिना अपना योगदान देखे, हर वक्त दुखी नजर आते हैं कि आजकल अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और यह चिन्ता का विषय है.
मंचासीन श्रृद्धास्पद विभूतियों में एक तो लेखक स्वयं, फिर मुख्य अतिथी की आसंदी को सुशोभित करते ’सुकलम सम्मान’, २००८ से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार, कविमना, उपन्यासकार, आलोचक माननीय श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री, किताब के प्रकाशक एवं कार्यक्रम के संचालक स्थानीय साहित्यकार एवं कवि श्री विराट स्तंभी जी.
सस्वर सरस्वती पूजन, माल्यार्पण आदि के बाद संचालक महोदय ने माईक संभाला और मुख्य अतिथि का परिचय प्रदान करते हुए स्तुति गान में ऐसा रमे कि यह कह कर मुस्कराने लगे कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री पुरुष नहीं हैं.
इतना कह वह मौन हो गये और मुस्कराते हुए मंच से लोगों के हावभाव देखते रहे. पूरे हॉल में इस सनसनीखेज खुलासे की वजह से सन्नाटा छा गया. सब छिपी आँख एक दूसरे को देखने लगे. संपूर्ण मंच भी असहज सा नजर आने लगा तब श्री विराट स्तंभी जी आगे बोले कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री जी पुरुष नहीं, महापुरुष हैं. तब जाकर सभागृह में जान लौटी. श्री विराट स्तंभी जी के इस बयान से उनके सहज हास्य बोध का परिचय मिला जबकि कर्म एवं नाम से वह वीर रस हेतु प्रख्यात हैं. पूरे सभागृह में करतल ध्वनि की गुंजार उठ खड़ी हुई.
विचार आया कि यदि दो वाक्यों के बीच मौन के दौरान बिजली महारानी की कोप दृष्टि पड़ जाती, तब क्या होता?
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए श्री विराट स्तंभी जी नें अन्य बातों के अलावा यह भी बताया कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री एक व्यक्ति नहीं, अपने आप में संपूर्ण संस्था हैं.
संस्था का नाम सुनते ही मेरी रीढ़ की हड्ड़ी में न जाने क्यूँ एक अरसे से एक सुरसुरी सी दौड़ जाती है. एक चित्र खींच आता है मानस पटल पर किसी संस्था का, जिसे अपने पापों, घोटालों को अंजाम देने के लिए सबसे मुफीद और पावन उपाय मान व्यक्ति, व्यक्ति न रह संस्था में बदल जाता है. फिर गोपनीय वार्षिक बैठक, बेनामी पदाधिकरी और स्वयंभू अध्यक्ष की आसंदी पर विराजमान स्वयं वह.
देश में आजतक जितना संस्थाओं के नाम पर घोटालों को अंजाम दिया गया है, उतना शायद ही कहीं और हुआ हो किन्तु फिर भी यह प्रचलन हर जगह और खास तौर पर ऐसे समारोहों में मुख्य अतिथि के लिए लगातार देखने मिलता रहता है कि वह व्यक्ति नहीं, एक संस्था हो गये हैं.
शायद संस्था ही वह वजह हो जिससे उनका स्टेटस बिना बरसों तक लिखे भी बहुत ऊँचा लिखने वाले का बरकरार रहा आया हो, कौन जाने? संस्था के भीतर की बात जानना तो सरकारी ऑडीटर के लिए भी टेढ़ी खीर ही रहा है अतः भीतर जाने की बजाय वो बाहर के बाहर पैसे लेकर निपटारा करना सदा से सरल उपाय मानता रहा है. यह पुराणों में भी संस्था और ऑडीटर दोनों के लिए ही सहूलियत का मार्ग माना गया है.
खैर, समारोह बहुत भव्य रहा. उतना ही भव्य मुख्य अतिथि का उदबोधन जिसमें उन्होंने पुनः साहित्य और लेखन के गिरते स्तर पर गहरी चिन्ता जतलाई और इस पुस्तक को इस दिशा में सुधार लाने का एक ऐतिहासिक कदम निरुपित किया.
इस कार्यक्रम के बाद एक और वरिष्ट साहित्यकार की श्रद्धांजलि सभा में जाना था. वहाँ भी श्रद्धांजलियों के दौर में अनेक संदेशों में मृतात्मा को एक व्यक्ति नहीं, युग बताया गया और उनके अवसान को एक युग का पटाक्षेप.
एक युग के भीतर समाप्त होते अनेक युग, हर वरिष्ठ, हर गरिष्ठ के प्रस्थान के साथ एक युग का पटाक्षेप, और एक ऐसे रिक्त का निर्माण, जिसकी भरपाई कभी संभव नहीं. शुरु से आजतक ऐसे रिक्त स्थानों की जिनकी भरपाई संभव न थी, एक एक बिन्दी के आकार का भी गिन लें तो शीघ्र ही, या कौन जाने पूर्व में ही, शायद ही कोई स्थान बचे जो रिक्त न हो.
कैसी ये भीषण त्रासदि न गरीब बचे, न अमीर
भाषा संवेदनशीलता इन्सानियत सब जाते रहे....
एक उम्मीद थी जिनसे लिखेंगे शोकगीत इनपर उनका भी यूँ गुजर जाना
एक युग की समाप्ति नहीं तो और क्या है?
-समीर लाल ’समीर’
<< आज उड़न तश्तरी के ५ साल पूरे हुए. इस बीच आपसे प्राप्त स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए हृदय से आभारी. कृपया अपना स्नेह बनाये रखें>>
टेबल लेम्प की फीकी रोशनी. सामने टेबल पर एक काँच का गिलास और उसमें बची दो घूँट स्कॉच. उसी टेबल पर छितराये कुछ कोरे कागज, एक पेन्सिल और बगैर जिल्द वाली कोई पुरानी शेरो शायरी की किताब.
मुझे बाँसुरी बजाना नहीं आता..वरना बहुत पहले तुम्हें सम्मोहित करने को धुन छेड़ चुका होता. मलाल बहुत से हैं मेरे जीवन में, उनमें से एक यह भी है.
हाथ मसलता हूँ आपस में और फिर...
पैंसिल उठाकर उसको मानिंद बाँसुरी लगा लेता हूँ अपने ओठों से और जाने क्यूँ, कुछ धुन छेड़ देने को जी चाहता है.
फिर मन हार, कागज पर कुछ लकीरें खींच, आड़ी तिरछी- उसमें तुम्हें खोजता हूँ.
पानी लेने रसोई तक जाना होगा. उदासी आलस बन गई.
ऐसे ही नीट स्कॉच गले से उतार लेता हूँ और अहसासता हूँ उतरते उस आग के गोले को- हलक से पेट की गहराई तक.
आँख में जलन उतर आती है एक चमकीली लाल डोरी के साथ. एक छोटी सी बूँद बह निकली आंसू की-मानो तुम्हारी याद जिसे वो चमकीली डोरी बाँध के न रख पाई.
ओंठों को गोल कर-एक भरपूर कोशिश- सीटी बजा कोई दिली धुन निकालने की.
बस, एक फुसफुसाहट-कोरी हवा की.
आज फिर एक नाकामी हाथ लगी!!!
यूँ ही तमाम होगी एक दिन- ये याद, ये इन्तजार की घड़ी और मेरी जिन्दगी!!!
परिवर्तन सृष्टि का नियम है और यह निरन्तर जारी रहता है. जिन्दगी में अगर आगे बढ़ना है तो परिवर्तन के साथ कदमताल मिला कर इसे आत्मसात करना होगा.जो अपनी झूठी मान प्रतिष्ठा के चलते उपजे अहंकारवश या उम्रजनित अक्षमताओं की दुहाई देते हुए मजबूरीवश ऐसा नहीं कर पाते, उन्हें अपने पीछे छूट जाने का एवं अस्तित्व को बचाये रखने का भय घेर लेता है. अक्सर जीवन के उस पड़ाव में समय भी कम बचा होने का अहसास होता है अतः नई चीज सीखकर उसे आत्मसात करने की रुचि और उत्साह भी नहीं बचा रहता. यही पीड़ा और खीज असह्य हो कुंठा का रुप धारण कर विरोध के रुप में चिंघाड़ती है जिसकी बुनियाद खोखली होती है और स्वर तीव्र.
किन्तु ऐसे में भी बहुतेरे आत्म संतोषी विरोध का स्वर न उठा अपने आपको अतीत की यादों में कैद कर जीवन गुजार देते हैं. यूँ भी अतीत की यादें स्वभावतः रुमानियत का एक मखमली लिहाफ ओढ़े सुकून का अहसास देती हैं और निरुद्देश्य जीवन को खुश होने का एक मौका हाथ लग जाता है भले ही और कुछ हासिल हो न हो. ऐसे लोग ही गाहे बगाहे कहते पाये जाते हैं कि हमारा समय गोल्डन समय था, अब तो जमाने को न जाने क्या हो गया है और भविष्य गर्त में जाता नजर आता है. ऐसे स्वभाव के हर कल ने सदियों से भविष्य को गर्त में ही जाते देखा है. उम्र के इस पड़ाव में यह पीढ़ियाँ भूल चुकी होती हैं कि कभी वह भी ऐसे ही किसी परिवर्तन के वाहक थे जिसे उनके पूर्वज गर्त में जाना कहते कहते इस धरा से सिधार गये.
इस तरह से अपने अस्तित्व को परिवर्तन की आँधी से बचाने के लिए अतीत रुपी खम्भे को पकड़े रहना या विरोध में चिल्ला उठना मात्र उन्हें आत्म संतुष्टी देता है किन्तु परिवर्तन होकर रहता है. न कभी समय रुका है और न कभी परिवर्तन की बयार- युग बदलते हैं. विरोध पीढ़ियों की विदाई के साथ रुखसत होता जाता है और जन्म लेता रहता है एक नया विरोध, एक नई पीढ़ी का, एक नये परिवर्तन के लिए, जिसका स्वागत कर रही होती है एक नई पीढ़ी, बहुत उम्मीदों के साथ.
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत तो हो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं. वह उस रुकन को नेस्तनाबूत करने की तैयारी कर रहा होता है, जिसे हम ठहराव मान भ्रमित होते है. यह भ्रम भी क्षणिक ही होता है और देखते देखते ढह जाता है वह रुकन का कारण और प्रयास, वह खो देता है अपना अस्तित्व और फिर बह निकलता है नदिया का प्रवाह अपनी मंजिल की ओर किसी सागर मे मिल उसका हिस्सा बन जाने के लिए या नये प्रवाह/ परिवर्तन को एक स्पेस/यथोचित प्रदान करने के लिए.
आज अभिव्यक्ति के माध्यमों में होते परिवर्तनों और प्रिन्ट/ अन्तर्जाल के बीच छिड़ी जंग देख बस यूँ ही इन विचारों ने शब्द रुप लिया. आज किताबों में उपलब्ध हिन्दी साहित्य को अन्तर्जाल पर लाने का एक भागीरथी प्रयास अपना आगाज़ कर चुका है.नया अन्तर्जाल और किताबों में समानान्तर दर्ज होता चल रहा है.
कुछ स्वभाविक उम्रजनित, अक्षमताओं जनित एवं अहमजनित विरोध भी अन्तर्जाल की ओर आने की दिशा में रहा है मगर जैसा कि पहले कह चुका हूँ कि वही तो हर परिवर्तन का स्वभाव है और वो पीढ़ी विशेष के प्रस्थान के साथ ही प्रस्थित होगा. उसका कोई विशेष प्रभाव भी नहीं होना है मात्र चर्चा के अलावा. चर्चा अवश्य आवश्यक एवं आकर्षक होती है क्यूँकि उसमें विशिष्ट व्यक्ति की स्टेटस की विशिष्टता होती है न कि विचारों की.
मुझे न जाने क्यूँ ऐसा लगता है कि मेरा यह विचार कुछ विमर्श मांगता है.
भाई समीर लाल ’समीर’ की पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ पर बात करने के पूर्व उनके बारे में बताना भी आवश्यक है क्योंकि कृति और कृतिकार एक तरह से संतान और जनक जैसे होते हैं. जनक का प्रभाव अपनी संतान पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है. अड़तालीस वर्षीय भाई समीर जी पैदा तो हुए थे रतलाम में, परन्तु अध्ययन एवं संस्कार उन्होंने संस्कारधानी में प्राप्त किये. आप म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्यपालक निदेशक इंजी पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं. चार्टर्ड एकाउंटेंसी भारत में एवं मेनेजमेंट एकाउंटेंसी अमेरीका से की. सन १९९९ के बाद आप कनाडा के ओंटारियो में निवास करने लगे. कनाडा के एक प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाहकार होने के साथ साथ आप टेक्नोलाजी पर नियमित लेखन करते हैं.
आपका एक लघुकथा संग्रह ’मोहे बेटवा न कीजो’ के साथ ही वर्ष २००९ में चर्चित एवं लोकप्रिय काव्य संग्रह ’बिखरे मोती’ भी हिन्दी साहित्य धरोहर में शामिल हो चुके है. इसमें गीत, छंदमुक्त कविताएँ, गज़लें, मुक्तक एवं क्षणिकाएँ समाहित हैं. एक ही पुस्तक में पाँच विधाओं की ये अनूठी पुस्तक भाई समीर के चिन्तन का प्रमाणिक दस्तावेज की तरह है.
हिन्दी और हिन्दुस्तान से दूर समन्दर पार कनाडा में अपनों की कमी का अहसास आज भी समीर जी को कचोटता है. इसी कसक ने समीर जी को पहले ई-कविता के याहू ग्रुप से जोड़ा और बाद में ब्लाग्स के आने पर आप अपने हिन्दी ब्लॉग ’उड़न तश्तरी’ के माध्यम से संपूर्ण विश्व के चहेते बने हुए हैं. ब्लागरों के बादशाह समीर भाई के ब्लॉग को विश्व का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग सम्मान भी प्राप्त हो चुका है. आप विश्व के शीर्षस्थ ब्लागर हैं. ब्लॉग पर आपकी जादुई कलम की पूरी दुनिया कायल है. इसके साथ ही टोरंटो कनाडा एवं अमेरीका से निकलने वाली पत्रिका ’हिन्दी चेतना’ के आप नियमित व्यंग्यकार हैं. आप कनाडा में हिन्दी रायटर्स गिल्ड एवं अन्य संस्थाओं के शताधिक सदस्यों के साथ
मासिक कथा एवं काव्य गोष्ठियों सहित अन्य कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.
अब हम बात करते हैं ’देख लूँ तो चलूँ’ कृति की. वरिष्ठ साहित्यकार एवं ब्लागर श्री पंकज सुबीर जी के शिवना प्रकाशन सीहोर, मध्य प्रदेश, भारत से प्रकाशित यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ चौदह उपखण्डों में लिखी संस्मरणात्मक, वैचारिक, तात्कालिक अन्तर्द्वन्द्व की अभिव्यक्तियों का संग्रह है. लेखक ने विवरणात्मक शैली को अपनाकर सामाजिक सरोकार, विषमताएँ, सामाजिक, धार्मिक, व्यक्तिगत, प्रशासनिक कठनाईयों का चित्रण करते हुए पाठकों के साथ तादात्म्य बैठाने में सफलता प्राप्त की है.
मित्र के गृह-प्रवेश की पूजा में अपने घर से ११० किलोमीटर दूर कनाडा की ओंटारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला ही ’देख लूँ तो चलूँ’ है. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल-पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से, पाठक पाठक से सीधा वैचारिक सेतु बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही हैं.
कृति का पहला उपखण्ड मांट्रियल की पूर्वयात्रा से प्रारम्भ होता है जिसमें उनकी सहधर्मिणी साथ होती हैं परन्तु यह यात्रा उन्हें अकेले ही करना पड़ रही है. बस यहीं से उनकी विचार यात्रा भी शुरु होती है. यात्रा के दौरान आये विचारों को श्रृंखलाबद्ध कर समीर जी ने पाठकों के साथ सीधा सम्बन्ध बनाया है. कहीं वे सिगरेट पीती महिला को सिगरेट पीने से रोकना चाहते हैं तो कहीं कनाडा में बसे पुरोहित के तौर तरीके बताते हैं. गाँव का चित्रण, फर्राटे भरती गाडियाँ अथवा ट्रेफिक नियमों की बातें जो भी सामने आया, उसको पाठकों के समक्ष चिन्तन हेतु रखा गया है. अप्रवासी भारतीयों के एकत्र होते ही बस भारत की बातें करना और जड़ से जुड़े रहने की लालसा प्रमुख मुद्दा होता है. परन्तु समीर जी इसे घड़ियाली आँसू करार देते हुए कहते हैं कि इसके लिए बहुत बड़ा जिगरा चाहिये.
अगले क्रम में लेखक की बाल सुलभ संवेदनायें जागृत होती हैं और हाई-वे पर बच्चों द्वारा कॉफी सर्व करने पर भारत और कनाडा में बेतुका फर्क पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं. भारतीय बच्चों का काम करना बालशोषण और कनेडियन बच्चों का काम करना पर्सनालिटी डेवेलपमेंट कहा जाता है. उनका मानना है कि बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात भला कैसे पर्सनालिटी डेवेलपमेंट हो सकती है. आगे आप महिलाओं के तथाकथित फिगर कान्सियसनेस को महत्व नहीं देते तो कहीं वे अमेरीका को देश के बजाय कन्सल्टेंट कहना ज्यादा उपयुक्त मानते हैं क्योंकि वह अपनी छोड़ दूसरों को सलाह देता है. इसके पश्चात ’देख लूँ तो चलूँ’ का ऐसा उपखण्ड आता है जिसमें समीर जी पर हरिशंकर परसाई जी की छाप प्रतीत होती है क्योंकि उन्हीं ने कहीं बताया है कि बचपन में अध्ययन के दौरान उनके हाथों पुरस्कार ग्रहण किया था और उनका स्पर्श आज भी वे महसूस करते हैं.
भारत से कनाडा की यात्रा के वक्त फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में एक दिन सपत्नीक रुकने पर भाषाई अनभिज्ञता के चलते अन्तरराष्ट्रीय समलैंगिक महोत्सव में शामिल होने का व्यंग्यात्मक वृतांत बड़ा रोचक बन पड़ा है. आपका ध्यान साधू संतो के ढोंग पर भी जाता है. धन की जीवन में कोई महत्ता न बतलाने वाले यही साधु इसी सलाह या प्रवचन के लाखों रुपये स्वयं बतौर फीस ले लेते हैं. आगे अप्रवासी भारतीयों के माँ बाप की भौतिक एवं मानसिक परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण है जो माँ-बाप अपने बेटों को अपना पेट काट कर विदेश भेजते हैं उन बेटों की मानसिकता किस कदर गिर जाती है. ऐसा अक्सर देखने मिलता है.
’देख लूँ तो चलूँ’ का दसवाँ उपखण्ड तो आध्यात्मिक चिन्तन जैसा है जिसमें आर्ट ऑफ लिविंग के स्थान पर आर्ट ऑफ डायिंग की सिफारिश की गई है क्योंकि अधेड़ावस्था के पश्चात जीने की कला अधिकांश लोग सीख ही लेते हैं. यह उम्र तो आर्ट ऑफ डायिंग सीखने की होती है कि हम अपनी जवाबदारियों को पूरा करते हुए खुशी खुशी किस तरह इस दुनिया से कूच करें. महात्माओं द्वारा मुक्ति के लिए ’चाहविहीन’ होने की बात भी समीर जी की समझ के परे है क्योंकि मुक्ति का मार्ग पाना भी तो चाह ही है फिर कोई चाह विहीन कैसे हो सकता है? आगे फिर दिल को छू जाने वाला मार्मिक प्रसंग है, जब घर के पेड़ पर टाँगे गए ’बर्ड फीडर’ से पक्षियों को दाने खिलाकर समीर जी आत्म संतुष्टि को प्राप्त करते हैं परन्तु जब एक दिन बिल्ली द्वारा एक पक्षी को अपना शिकार बना लेने वाली मनहूस घड़ी आती है तो इसके लिए लेखक कहीं न कहीं स्वयं को दोषी मानता है और अपराध बोध से ग्रसित जाता है. ड्रायविंग में हार जीत को लेखक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि एक जीतता है तो दूसरा उसके भी आगे होता है या पीछे वाले के पीछे भी कोई होता है. स्तरहीन राजनीति और नेताओं की तुलना कुत्तों से करने पर भी समीर जी नहीं चूकते. तेरहवें खंड में लेखक के अनुसार मित्र के घर पर गृहप्रवेश की पूजा के दौरान अंग्रेजी अनुवाद और अंग्रेज परिवारों की उपस्थिति, पुरोहित और यजमान के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होती. लंच के दौरान अंग्रेज परिवारों को भारतीय रेसिपी बनाने का तरीका बताना प्रवासी अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं. अंग्रेज के माथे पर तिलक लगाना या उनके द्वारा नमस्ते कहना हमें फक्र महसूस कराता है परन्तु क्या हमने कभी सोचा कि क्या वे भी ऐसा ही सोचते हैं? समीर जी के ऐसे कई तर्क दिल के अंतिम छोर तक उद्द्वेलित करते हैं.
अंत में लेखक अपने साहित्य लेखन की वर्तनी की त्रुटियाँ खोजने वाली, वाक्य विन्यास की गल्तियों को सुधार कर ईमेल करने वाली किसी मित्र के बारे में बताते हैं कि वह मुझे नहीं, मेरी लेखनी को पसंद करती है. वह मुझसे कभी रू-ब-रू मिल नहीं सकी किन्तु मुझे आज भी याद आई.
इस तरह हम देखते हैं कि समीर जी अपनी बात कहीं से भी शुरू करें, बखूबी अपना संदेश पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम हैं. ‘देख लूँ तो चलूँ’ उनके बहुआयामी लेखन का नमूना कहा जा सकता है. दस्तावेजों की उनसे सदा अपेक्षा रहेगी. इन्सानियत, प्रेम, भाईचारा, संवेदनशीलता के साथ-साथ एक विराट दायरे वाली सख्शियत का प्रतिनिधित्व करते हुए भाई समीर अपने लेखन से स्वयं आकाशीय नक्षत्रों जैसे शीर्षस्थ एवं प्रकाशवान बनें.
आप संस्कारधानी जबलपुर का नाम भी दुनिया में रौशन करेंगे, इसी आशा एवं विश्वास के साथ ...
बहुत कुछ दर्ज किया है इस अन्तर्जाल (इंटरनेट) पर इन बीते वर्षों में और अभी भी करता ही चला जा रहा हूँ. मैं रहूँ, न रहूँ -यह उपस्थित रहेगा सदियों तक. किसी न किसी रुप में. शायद फिर मिटा भी दिया जायें, कौन जानता है.
कभी मनचाहे तो कभी अनचाहे, उभर ही आयेंगे मेरे दर्ज विचार किसी न किसी स्क्रीन पर. तब भी देख सकोगी तुम इसे और वो भी मुझे देख सकेंगे जो मुझे देख खुश होंगे. अनजान और न चाहने वाले नजर अंदाज कर निकल जाने वालों की संख्या तब भी ज्यादा होगी मगर जब आज इस बात की परवाह नहीं की तो तब के लिए क्या करना. मतलब तो अपनों से है, तुम से है.
बस, यही सोचता हूँ अन्तर्जाल पर देख तो लोगी, पढ़ भी लोगी मगर वो अपनेपन का अहसास, वो महक, वो भार और भावुक हो मेरे लिखे को अपने सीने से चिपका मेरे होने को अहसासना और फिर नम आँखों धीरे से मुस्कराना और फिर छाती पर उसे रखे रखे ही सो जाना-जैसा मैं अक्सर करता हूँ अपने दादा जी की किताब को सलीके से सहलाते हुए, वो शायद न कर पाओ!!
इसी उधेड़बून में अन्तर्जाल से अपनी ही कृतियाँ लेकर किताबें छपवा ली हैं कुछ जस की तस तो कुछ एक अलग अंदाज में और कुछ प्रतियाँ रख छोड़ी हैं उस हल्की नीली लोहे की अलमारी में बंद करके ताकि वक्त की दीमक उन्हें चाट न जाये.
तुम्हारी अल्मारी की चाबी जतन से रखने की आदत मुझे तसल्ली देती है!!!!!!!
मेरी कहानी लिखती नहीं, ऊग आती है खुद ब खुद, एक जंगली झाड़ी सी. न खाद की दरकार और न पानी की जरुरत. वो बढ़ चलती है अनगढ़ सी, दिशा विहिन हवा के साथ, हवा के रंग में और कहानी का नायक, नायक नहीं महा नायक, स्वयं एक कहानी जैसे उसके पात्र, सब अपने अपने आप में पूरी एक कहानी.
मेरी कहानी- बढ़ती है हवा के साथ, झूमती है, लहलहाती है और
फिर... चढ़ना शुरु कर अमरबेल की तरह न जाने कैसे एकाएक खत्म हो जाती है अहसास कराती कि कोई अमर नहीं होता. कहानी भी नहीं.
पूरे ८५ दिन याने लगभग तीन माह भारत में रह जब कनाडा वापस आने को ट्रेन में बैठा तो लगा कि क्या क्या सोच कर आया था और कितना कम पड़ गया समय. सोचा था कि १० दिनों को केरल भी घूम आयेंगे इस बार, वो भी रह गया. समय ऐसा पंख लगा कर उड़ा कि कुछ पता ही नहीं लगा.
लगता था जैसे कल ही आये हों और आज वापस चल दिये. कितने सारे मित्रों से कितनी सारी बातें करनी थी. कितने ही रिश्ते नातेदारों से मिलने का दिल था.कितने ही शहरों में पहुँचने की नाकाम कोशिश. बस, यूँ ही कुछ कारण बनते गये, दिन बीतते रहे और आज वापसी. सब आधा अधूरा सा, छूटा हुआ.
अब न जाने कब आना हो फिर से? यदि कुछ विशिष्ट कारण न हो जाये तो साल भर के पहले तो क्या आना होगा.
मन उदास होने लगता है. सोचता हूँ, अगली बार ज्यादा दिन के लिए आऊँगा और जरा ज्यादा व्यस्थित कार्यक्रम बना कर. केरल घूमने का कार्यक्रम तो निश्चित ही शामिल रहेगा.
भारी मन से एक नजर रेल की खिड़की के बाहर देखता हूँ. रेल भाग रही है और कितना कुछ पीछे छूटा जा रहा है.
सामने की सीट पर नजर पड़ती है. लगभग ३४/३५ वर्ष का एक दुबला पतला युवक, अपनी पत्नी के साथ बैठा है एकदम शांत. चेहरे पर कोई भाव नहीं. उसकी पत्नी की आँखों के नीचे पड़े काले गोले उसके परेशान होने की गवाही दे रहे हैं.
बात चलती है.
दोनों एक रोज पहले ही बम्बई से लौटे हैं. महैर में रुक माँ शारदा देवी के दर्शन करके अब अपने घर आगरा लौट रहे हैं. टाटा मेमोरियल में पति का ईलाज चल रहा था. केंसर अंतिम स्टेज में है. डॉक्टर कहता है कि ज्यादा से ज्यादा ३० दिन के मेहमान है. घर ले जाओ.
मैं एक गहरी सांस छोड़ता हूँ-बस, ३० दिन. क्या कुछ करने की सोचता होगा इन ३० दिनों में वो. कितने कुछ अरमान साथ लिये जायेगा और फिर उसे तो अगली बार की तसल्ली भी नहीं.....
एक बार फिर भारी मन से खिड़की के बाहर नजर गड़ा देता हूँ. हल्का अँधेरा घिर आया है. वीरान सा पड़ा रेलवे का ’एबेन्डन्ड सिग्नल केबिन’ सामने से गुजर जाता है और जागते है कुछ उजड़े से ख्यालात मेरे जेहन में, बस यूँ ही दम तोड़ देने को.
रात आसमान में अपनी उजली चादर बिछाता चाँद...
झाड़ियों की झुरमुट में अँधेरों को हराने की नाकाम कोशिश में जुटे जुगनुओं की जगमगाहट
कहीं दूर से आती मालगाड़ी की सीटी का कर्णभेदी हुँकार
नजदीक के खेत की कच्ची झोपड़ी से उठती एक बुढिया की सूखी खाँसी की खंखार..
चूल्हे से ओस में भीगी लकड़ियों के जलने से उठते धुँए की घुटन और उस पर अलमुनियम की ढक्कन वाली केतली में चढ़ी काली कॉफी का कड़वा घूँट भरते हुए
पटरी किनारे उस निर्जन वीरान रेलवे के ’एबेन्डन्ड सिग्नल केबिन’ में एक रात गुजारुँ
ये हैं हमारा जबलपुरिया तोताराम. बढ़िया सीटी बजाता है, मिट्ठू बोल लेता है, फोन की घंटी हू ब हू वैसे ही बजाता है जैसे सचमुच फोन आया हो. जब घर के लोग फोन उठाने भागते है तो बस तोताराम की खुशी देखते ही बनती है कि क्या बेवकूफ बनाया. मैंने जब इसका नाम भोलाराम रखा था तो पत्नी ने बताया कि यह तोता नहीं तोती है. उसकी बहन के यहाँ रहता है, उसकी बहन ने ही उसको बताया है.
अब देखकर हम क्या पहचान पाते कि तोता है कि तोती जब आजकल लड़के लड़कियों में भेद कर पाना ही मुश्किल हो चला है. सुबह हो, दोपहर हो या शाम, लड़के हों या लड़कियाँ. चेहरा पूरा गमछे/स्कार्फ से ढँका, जींस, टी शर्ट और उपर से एप्रोन. स्पोर्टस शूज़ और दस्ताने. सर टोपी से ढका. सब मोटरसाईकिल भी चलाते हैं, स्कूटी भी..भला कोई कैसे पहचानें?
समझ नहीं आता ये सब क्यूँ आखिर? धूप भी नहीं तो भी गमछानुमा कपड़ा लपेटे हैं जैसे कि कॉलेज नहीं, डकैती डालने जा रहे हों कि कोई पहचान न ले.
मित्र की बिटिया से इस विषय में जानना चाहा तो कहती है कि डस्ट और पल्यूशन से स्किन खराब हो जाती है इसलिए ब्यूटी केयर का यह तरीका है.
ऐसी कैसे ब्यूटी की केयर जिसे कोई देख ही न पाये. एक जुमला है beauty lies in the eye of the beholder याने सुन्दरता आपमें नहीं होती देखने वाले की नजरों में होती है .अब जहाँ नज़र दौड़ाओ वहीं गमझा लपेटा चेहरा दिखे तो कैसी ब्यूटी और किसकी नज़र. अब निर्भर करता है कि गमछा कितना सुन्दर है. पैकिंग खुले और अंदर से क्या निकले, कोई गारंटी नहीं.
गारंटी का जमाना रहा नहीं तो भी जीना तो है इसी जमाने में अत: संतोष करने और कोसने को, दोनों के लिए ही पुरानी पीढ़ी अनेक उपाय दे गई है. संतोष करना हो और जिसकी बहु सुन्दर न निकले, तो कहता नज़र आयेगा कि सुन्दरता को चाटना है क्या? वो तो सूरज की रोशनी सी है, दो पल की मेहमान. सुबह आई, शाम चली. काम तो सीरत और संस्कार ही आने हैं. कोसना हो तो कहते नजर आयेगा कि न सूरत, न शक्ल और नखरे ऐसे कि गमछा लपेट कर स्कूटर में फुर्र इधर और फुर्र उधर. घर के काम धाम से तो दूर दूर तक कोई मतलब नहीं.
इसका ठीक उल्टा अगर सुन्दर आ जाये तो कोसने और संतोष करने का इसका ठीक विपरीत डायलॉग रेडीमेड तैयार है.
अब सुन्दरता अगर सूरज की रोशनी ही मान ली जाये तो भी जरा उनसे पूछ कर देखो तो उस ध्रुव के उस भाग में रहते हैं, जहाँ सूरज छः माह तक निकलता ही नहीं, एक किरण के लिए क्या तड़पन होती है, मैने जानता हूँ और उस पर से जब टीवी में दूसरे देश में सूरज निकलते तस्वीर दिखती है तो सांप लोट जाता है जिगर पर.
एक अनुपात में सब कुछ हो तो ही बेहतर.
ना अति बरखा ना अति धूप।
ना अति बकता ना अति चूप।।
जाने बात कहाँ की कहाँ चली गई. बात चली थी जबलपुरिया तोताराम से. एक वाकया याद आया कि मेरे मित्र के पिता जी को बहुत शौक था कि ऐसा तोता पालें जो बोलता हो. सलाहकारों के इस देश में आप विचार तो करके देखो, सलाह देने वाले हजार हाजिर हो जाते हैं. किसी ने बताया कि जिस मिट्ठू के गले में लाल रंग का छल्ला बना हो, उसे लालमन तोता कहते है, वो बोलता है. वही खरीदियेगा.
बस, फिर क्या था. हमारे मित्र के पिता जी एक दिन एक ठेले वाले सेखरीद लाये लाल रंग के छल्ले वाला लालमन तोता ३०० रुपये का और साथ में ८०० रुपये का पिंजरा और जाने क्या क्या.
फिर रोज उसको सिखाये-बेटा बोलो, राम राम!! वो बोलने को बिलकुल भी न तैयार. हफ्ते भर बाद उसे नहलाया गया तो लाल छल्ला गुम. वो ठेले वाला पेन्ट करके बेच गया था. ठगे से बेचारे लालमन की जगह साधारण तोता लिए बैठे रहे और मृत्युपर्यंत उनकी आँखें उस ठेले वाले को खोजती रहीं.
कई बार विचार आता है कि ऐसा ही कुछ स्नान अपने नेताओं को करवाने का इन्तजाम चुनाव के पहले होना चाहिये ताकि पता तो चले कि सच के लालमन हैं कि रंगे हुए.
फिर लगता है कि सब किस्मत की बात है. अब इसे ही देखो-ये मेरा भोलाराम न तो तोता है और न लालमन फिर भी बोल लेता है मगर खाने में शौक काजू बदाम का ही है नेताओं टाईप क्या किया जाये.
नोट:
यह शायद भारत से अंतिम पोस्ट इस बार के लिए. २ को जबलपुर से और ४ को भारत से प्रस्थान. अब कनाडा पहुँच कर फिर लिखते हैं भारत यात्रा के कुछ रोचक किस्से और भी बहुत कुछ जो पिछले दिनों देखा, अहसासा, जेहन में दर्ज किया मगर समयाभाव में लिखा नहीं.
देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में शिक्षविद मनीषी एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे का उदबोधन:
भाई समीर लाल जी ’समीर’ के सद्य प्रकाशित ग्रंथ ’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी को सुशोभित कर रहे परम सम्मानीय श्रद्धास्पद प्रोफेसर ज्ञानरंजन जी, भाई समीर लाल जी की जो लाली है, उस लाली के केन्द्र बिन्दु वो लाली जहाँ से आती है फूल सब देखते हैं लेकिन फूल का मूल जिससे वो आभा चमक है उसके मूल परम सम्मानीय श्री पी.के.लाल साहब, आज के इस कार्यक्रम को संचालित कर रहे, यहाँ के युवाओं के चेतना केन्द्र हमारे परम प्रिय भाई गिरीश बिल्लोरे जी, आज के इस कार्यक्रम के एक और केन्द्र बिन्दु बिल्लोरे जी के सहयोगी भाई गिरीश जी के सहयोगी डॉ विजय तिवारी जी और लाल साहब की इस विचार यात्रा की जो साधना है उस साधना की केन्द्र बिन्दु माननीय साधना जी, माननीय अलिनि श्रीवास्तव जी, यहाँ पर विराजमान माननीय श्री श्रवण दीपावरे जी, श्री श्याम गुप्ता जी, श्री लाल साहब के बचपन के मित्र श्री कथूरिया जी, श्री द्वारका गुप्त जी, श्री गुलुश स्वामी जी, बवाल जी और माननीय मुख्य अतिथि जी के बोलने के बाद जो स्वयं अपने आप में आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतने प्रामाणिक पुरुषार्थ के स्वयं प्रतीक हों, जो एक व्यक्ति के रुप में नहीं एक संस्था के रुप में विराजमान हों और जिनका मंगल आशीष मिल जाये, उनके कुछ कहने के बाद कुछ शेष नहीं रहता है. जहाँ उनकी उपस्थिति हो वहाँ निश्चित रुप से हम सबको गौरव होता है कि उनके साथ हमें कुछ क्षण बिताने का अवसर मिले. उनका साहचर्य प्रेरणादायी होता है वहाँ उनकी उपस्थिति में जिनके हम आशीर्वदा है जिनसे आशीष प्राप्त करते हैं उनके सामने कुछ कहना बहुत कठिन स्थिति है किन्तु भाई समीर लाल जी ने समय के सीने पर अपनी सोच से सत्य की जो सड़क बनाई है उसकी स्तुति के लिए मुझे उपस्थित होना ही था और यह मेरा धर्म भी है और कर्तव्य भी है इसलिए मैं उपस्थित हूँ.
ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है.
आपकी आज्ञा हो तो ज्वेल्स हैनरी का एक कथन मुझे स्मरण आ रहा है ’यदि समझना चाहते हो कि परिवर्तन क्या है, सामाजिक परिवर्तन क्या है, और अपना आत्मगत परिवर्तन क्या है, तो अपने समय और समाज के बारे में एक किताब लिखो’ ऐसा ज्वेल्स हैनरी ने कहा. ये पुस्तक इस बात का प्रमाण है कि कितनी सच्चाई के साथ और कितनी जीवंतता के साथ और कितनी आत्मीयता के साथ समीर लाल ने अपने समय को, अपने समाज को, अपनी जड़ों को, जिगरा के साथ देखने का साहस संजोया है.
ये कृति कनाडा से भारत को देख रही है या भारत की दृष्टि से कनाडा को देख रही है विशेषकर कनाडा में बसे प्रवासी भारतीयों को, ये दो बिन्दु हैं. कनाडा में रहकर भी वो अपने भारत को एक एक घटनाओं में देख रहे हैं चाहे वो ट्रेफिक पुलिस वाला हो, चाहे वो पुरोहित की बात हो, चाहे वो साधु संत की बात हो, और चाहे कुछ भी हो बहुत बेबाकी से और बहुत ईमानदारी के साथ जिसमें कल्पना भी है, जिसमें विचार भी है, और जैसा अभी संकेत किया माननीय ज्ञानरंजन जी ने कि ये केवल एक उपन्यासिका भर नहीं है, कभी कभी लेखक जो सोच कर लिखता है जैसा कि भाई गुलुश जी ने कहा था कि ५ घंटे साढ़े ५ घंटे में लेकिन ये साढ़े ५ घंटे नहीं हैं साढ़े ५ घंटे में जो मंथन हुआ है उसमें पूरा का पूरा उनके बाल्य काल से लेकर अब तक का और बल्कि कहें आगे वाले समय में भी, आने वाले समय को वर्तमान में अवस्थित होकर देखने की चेष्टा की है कि आने वाले समय में समाज का क्या रुप बन सकता है उसकी ओर भी उन्होंने संकेत दिया है तो वो समय की सीमा का अतिक्रमण भी है, और उसी तरीके से विधागत संक्रमण भी है, जिसमें आप देखते हैं कि वह संस्मरणीय है, वह उपन्यास भी है, वह कहीं यात्रा वृतांत भी है और कहीं रिपोर्ताज जैसा भी है कि रिपोर्टिंग वो कर रहे हैं एक एक घटना की तो ये सारी चीजें बिल्कुल वो दिखाई देती हैं और आरंभ में ही जब वो कहते हैं कि (प्रमोद तिवारी जी की पंक्तियाँ)
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
तो जब वो बात कहते हैं तो उनके पगों के द्वारा वो नाप लेते हैं जैसे कभी बामन ने तीन डग में नापा था ऐसा कभी लगता है कि एक डग इनका भारत में है, और एक चरण उनका कनाडा में है और तीसरा चरण जो विचार का चरण है उस तीसरे चरण .......इन तीन चरणों से वो नाप लेते हैं निश्चित रुप से जब वो बूढ़े बरगद की याद करते हैं जब वो मिट्टी के घरोंदों की याद करते हैं, जब वो जलते हुए चूल्हे की याद करते हैं और उन चूल्हों पर बनने वाले सौंधे महक से भरे हुए पराठों की याद करते हैं तो निश्चित रुप से लगता है कि उड़न तश्तरी जिसनें भी यह नाम दिया हो उन्होंने स्वयं चुना होगा तो निश्चित रुप से वो उड़न तश्तरी है जो इस लोक से जैसे कनाडा से इधर और इधर से उधर तक और तीसरी चीज जो दिखाई नहीं देती दृष्यमान नहीं है तीसरी बराबर यह है और प्रवासी भारतीयों की पीड़ा झलक उठती है जब वो, क्यूँकि मूलतः वो कवि भी हैं तो जब परदेश पर वो लिखते हैं दो लाईन पढ़ना चाहता हूँ
परदेस, देखता हूँ तुम्हारी हालत,
पढ़ता हूँ कागज पर,
उड़ेली हुई तुम्हारी वेदना,
जड़ से दूर जाने की...
तो जड़ से दूर हो जाने की जो वेदना है परदेश में जाकर बराबर वो देखते हैं और जितने भी सारी चीजें हैं चाहे वो वीक एण्ड का चोचला हो, जो उन्हें व्यथित करता है, वीक एण्ड आप लोग अपने घर में, अपने मित्रों के साथ क्यूँ नहीं मनाना चाहते, क्या थकान मिटाने के लिए अपनों से जाना दूर है, या बूढ़े माता पिता को लेकर के बड़े प्रसन्न होते हैं कि हमारे बेटे ने विदेश में हमें बुलाया है लेकिन बुलाया इसलिए है कि उसे वहाँ नौकरों का आभाव है और उसी लिए अपने बूढ़े माता पिता को वो नौकरों के स्थापन्न रुप में वो बुला रहे हैं तो कितनी मार्मिकता के साथ, जैसा अभी सम्मानीय ज्ञान जी ने कहा कि इसके अंदर केवल व्यंग्य भर नहीं है जो अन्तर्वेदना है और जो त्रासदी की बात उन्होंने की थी वो त्रासदी कम से कम आगे जाकर के वो प्रकट होना चाहिये- त्रासदी की बात वो बहुत बड़ी बात है.
निश्चित रुप से मैं एक बात उल्लेख करना चाहूँगा जो कृतिकार ने अंत में कही है कि मैं लिखता तो हूँ मगर मेरी कमजोरी है कि मैं पूर्ण विराम लगाना भूल जाता हूँ. मुझे लगता है कि यह उनकी सहजोरी है कमजोरी नहीं है कि पूर्ण विराम लगाना भूल जाते हैं यह कृति में पूर्ण विराम नहीं है. आप पूर्ण विराम लगाना ऐसे ही भूलते रहिये ताकि कम से कम वो वाक्य पूरा नहीं होगा क्य़ूँकि जो कथ्य है जो भाव है जो आप कहना चाहते हैं वो आगे भी गतिमान रहेगा, मैं समीर लाल जी अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ और इस उत्तम आयोजन के लिए, इस वैचारिक यात्रा के लिए आयोजकों को बधाई देता हूँ और मुझे इतना सम्मान दिया कि सम्मानीय ज्ञान जी, सम्मानीय श्री पी. के. लाल साहब के साथ बैठ कर उनके साहचर्य का मुझे सुख दिया है वो वर्णनातीत है आप सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए आप सबके श्रीचरणों में अपना नम्र प्रमाण निवेदित करता हूँ. धन्यवाद.
सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अग्रणी कथाकार और पहल के यशस्वी संपादक श्री ज्ञानरंजन जी के मुख्य आथित्य एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ हरि शंकर दुबे की अध्यक्षता में समीर लाल ’समीर’ के उपन्यास ’देख लूँ तो चलूँ’ का विमोचन हुआ. विमोचन समारोह की विस्तृत रपट एवं चित्र यहाँ क्लिक करके देखें.
आज आपके समक्ष इस अवसर पर श्री ज्ञान रंजन का अभिभाषण:
भाई समीर लाल और उपस्थित मेरे मित्रों
मुझे खुशी है कि समीर लाल के परिचय और उनकी कृति के बहाने मुझे कुछ टूटी फूटी बातें कहने का अवसर मिला. हमारे पास समय नहीं था. यह आयोजन सपाटे से तय हुआ. आप सब समीर लाल के प्रति अपनी चमकीली आत्मीयता के कारण एकत्र हुए हैं. मैने भी जल्दबाजी में ये बातें इसलिए तैयार कर लीं कि कहीं यह गलत संदेश न जाये कि मैं उम्रदराज, सुस्त और लद्धड़ हूँ. मैं समीर लाल का स्वागत करता हूँ पर अपनी बातें भी उसमें कहूँगा.
मैने उपन्यास या नावलेट को शीघ्रता मे लगभग चलते चलते पढ़ा है. इसलिए कुछ चीजें छूटी होंगी-अगर गंभीर आंकलन न किया जा सके तो यह लेखक के प्रति किंचित अन्याय भी हो सकता है. मेरे पास कुछ थोड़ी सी बातें हैं जो आप सब लोगों की प्रतिक्रिया और टिप्पणियों को जोड़कर मूल्यवान धारणा बन सकती हैं. अन्ततः किसी भी कृति के बारे में समवेत स्वर ही स्वीकृत होता है. हमारी चर्चा एक प्रकार की शुरुआत है. इसलिए इसको मेरा क ख ग घ ही माना जाये.
छोटे उपन्यासों की एक जबरदस्त दुनिया है. द ओल्ड मैन एण्ड द सी, कैचर ऑन द राईड, सेटिंग सन, नो लांगर ह्यूमन, त्यागपत्र, निर्मला, सूरज का सातवां घोड़ा आदि. एक वृहत सूची भी संसार के छोटे उपन्यासों की बन सकती है. छोटे उपन्यासों की शुरुआत भी बड़ी दिलचस्प है. स्माल इज़ ब्यूटीफुल एक ऐसा मुहावरा या जुमला है. विश्व की छोटी वैज्ञानिक कारीगरियों और सृजन के छोटे आकारों को वाणी देता हुआ लेकिन समाज, सौंदर्य और इतिहास के विशाल दौरों में एक कारण यह भी था कि वार एण्ड पीस, यूलिसिस और बाकज़ाक के बड़े उपन्यासों ने जो धूम मचाई उसके आगे बड़े आकार के अनेक उपन्यास सर पटक पटक मरते रहे. ये स्थितियाँ छोटे उपन्यासों की उपज के लिए बहुत सहज थीं. हिन्दी में गोदान, कब तक पुकारुँ, शेखर एक जीवनी, बूँद और समुद्र, मुझे चाँद चाहिये के बाद पिछले एक दशक में ५० से अधिक असफल बड़े उपन्यास लिखे गये. और अब छोटे उपन्यासों की रचने की पृष्टभूमि बन गई है. छोटा हो या बड़ा, सच यह है कि वर्तमान दुनिया में उपन्यासों का वैभव लगातार बढ़ रहा है. यह एक अनिवार्य और जबरदस्त विधा बन गई है.पहले इसे महाकाव्य कहा जाता था. अब उपन्यास जातीय जीवन का एक गंभीर आख्यान बन चुका है. समीर लाल ने इसी उपन्यास का प्रथम स्पर्श किया है, उनकी यात्रा को देखना दिलचस्प होगा.
समीर लाल, एक बड़े और निर्माता ब्लॉगर के रुप में जाने जाते हैं. मेरा इस दुनिया से परिचय कम है. रुचि भी कम है. मैं इस नई दुनिया को हूबहू और जस का तस स्वीकार नहीं करता. अगर विचारधारा के अंत को स्वीकार भी कर लें, तो भी विचार कल्पना, अन्वेषण, कविता, सौंदर्य, इतिहास की दुनिया की एक डिज़ाइन हमारे पास है. यह हमारा मानक है, हमारी स्लेट भरी हुई है.
मेरे लिए काबुल के खंडहरों के बीच एक छोटी सी बची हुई किताब की दुकान आज भी रोमांचकारी है. मेरे लिए यह भी एक रोमांचकारी खबर है कि अपना नया काम करने के लिए विख्यात लेखक मारक्वेज़ ने अपना पुराना टाइपराईटर निकाल लिया है. कहना यह है कि समीर लाल ने जब यह उपन्यास लिखा, या अपनी कविताएं तो उन्हें एक ऐसे संसार में आना पड़ा जो न तो समाप्त हुआ है, न खस्ताहाल है, न उसकी विदाई हो रही है. इस किताब का, जो नावलेट की शक्ल में लिखा गया है, इसके शब्दों का, इसकी लिपि के छापे का संसार में कोई विकल्प नहीं है. यहां बतायें कि ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते. मुझे लगता है कि ब्लॉग एक नया अखबार है जो अखबारों की पतनशील चुप्पी, उसकी विचारहीनता, उसकी स्थानीयता, सनसनी और बाजारु तालमेल के खिलाफ हमारी क्षतिपूर्ति करता है, या कर सकता है. ब्लॉग इसके अलावा तेज है, तत्पर है, नूतन है, सूचनापरक है, निजी तरफदारियों का परिचय देता है पर वह भी कंज्यूम होता है. उसमें लिपि का अंत है, उसको स्पर्श नहीं किया जा सकता. किताबों में एक भार है-मेरा च्वायस एक किताब है, इसलिए मैंने देख लूँ तो चलूँ को उम्मीदों से उठा लिया है. किताब में अमूर्तता नहीं है, उसका कागज बोलता है, फड़फड़ाता है, उसमें चित्रकार का आमुख है, उसमें मशीन है, स्याही है, लेखक का ऐसा श्रम है जो यांत्रिक नहीं है.
आईये यह देखते हैं कि सृजन के छोटे से दायरे में समीर लाल का उपन्यास-देख लूँ तो चलूँ किस तरह एक आधुनिक बिम्ब बनाता है. मुझे समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं. यह उपन्यास मुझे उपन्यास और ट्रेवेलॉग का मिलाजुला रुप लगता है. एक तरह की यात्रा हाईवे पर इसमें होती है. छोटी छोटी मोटर यान से यात्रा. और इसी के मध्य उधेड़बुन, मानसिक टीकाएं, विचार और आलोचना, प्रतिक्रियाएं जो गंतव्य तक चलती रहती हैं. साथ साथ स्थानीय चित्र हैं, जीवन की झलकियाँ हैं. गंतव्य में एक लीक पर समाप्त होने वाला धार्मिक पाखंड कर्मकांड है, पारिवारिक भी है या मित्रवती. यह भारत देश में भी आम दृष्य है और परदेस में भी एक सिकुड़ा हुआ खानापूरी करने वाला प्रपंच. अब इसी के इर्द गिर्द यात्रा में उपजते विचार हैं, व्यंग्य हैं- यह एक सर्वसाधारण हिन्दु प्रवासी दृष्य है. प्रवासी भारतीय की, विशेष रुप से जो पश्चिमी संसार में हैं, उनकी यह राम कथा है. वह उथलपुथल होती निर्माण और संघार की नई संस्कृति, सागर में अपनी डोंगी न डालकर, मुख्यधाराओं में न शामिल होकर एक झूठे, समय बहलाऊ, चलताऊ जीवन की रामकथा में शामिल होता रहता है. एक विशाल वैज्ञानिक जगमगाते, स्पंदित फलक के बीच जिन्दगी की सारी ऊष्मा जर्जर वर्णाश्रम धर्म के कर्मकांड में डूब जाती है वर्णाश्रम का व्याकरण और भाषा की शुद्धता भी जहाँ फूहड़ बन गई है.
देख लूँ तो चलूँ में इसको लेकर नायक ऊबा हुआ है. हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का. इस चलते चलते पन में आगे के भेद, जो बड़े सारे भेद हैं, खोजने का प्रयास होना है. धरती का आधा चन्द्रमा तो सुन्दर है, उसकी तरफ प्रवासी नहीं जाता. देख लूँ तो चलूँ का मतलब ही है चलते चलते. इस ट्रेवलॉग रुपी उपन्यासिका में हमें आधुनिक संसार की कदम कदम पर झलक मिलती है. ५० वर्ष पहले महान ब्रिटिश कवि और एनकाउन्टर के संपादक स्टीफन स्पेंडर ने कहा था कि आधुनिकता धाराशाही हो रही है- माडर्न मूवमेंट हैज़ फेल्ड. भारत में ही देखें, बंगाल, केरल, तामिलनाडु, कर्नाटक, उत्तरपूर्व, महाराष्ट्र और गुजरात में क्लैसिकल और आधुनिकता का एक धीर संतुलन है. जीवन में, कविता में, साहित्य में.यही दृष्य यूरोप में है. समीर लाल भी अपनी जड़ों से प्यार करते हैं पर ऐसा करते हुए लगता है कि जड़ें गांठ की तरह कड़ी और धूसरित हो रही हैं. हमारा देश भी वही हो रहा है धीरे धीरे जैसा प्रवासी का प्रवासी स्थलों पर लगता है. भूमंडल खौफनाक बदलाव से गुजर रहा हो. हममें धर्म, भाषा, शिल्प, विशेष पहचानें सब गर्क हो रही हैं. इसलिए राम कथा, सत्यनारायण कथा का एक व्यंग्यार्थ इस नावलेट में झलकता है.
समीर लाल ने अपनी यात्रा में एक जगह लिखा है- हमसफरों का रिश्ता! भारत में भी अब रिश्ता हमसफरों के रिश्ते में बदल रहा है. फर्क इतना ही है कि कोई आगे है कोई पीछे. मेरा अनुमान है कि प्रवासी भारतीय विदेश में जिन चीजों को बचाते हैं वो दकियानूस और सतही हैं. वो जो सीखते है वो मात्र मेनरिज़्म है, बलात सीखी हुई दैनिक चीजें. वो संस्कृति प्यार का स्थायी तत्व नहीं है. हमारे देश को पैसा, रोजगार, समृद्धि तो चाहिये पर उससे कहीं ज्यादा दूसरी चीजें चाहिये. इस बात को समीर लाल अच्छी तरह जानते हैं इसलिए वे लिखते हैं हर बार भारत छोड़ने के बाद कुछ दिन असहज रहता हूँ पर फिर मानव हूँ अपनी दुनिया में रम जाता हूँ. इसमें एक ही शब्द पर मुझे आपत्ति है और वह है मानव. मानव को मजबूर मानना इसलिए उसी दुनिया में रम जाना, एक कमजोर घोषणा है और अधूरी भी. प्रवासी की ट्रेजड़ी यह है कि प्रवास को स्थायित्व में नहीं बदल पाता और इस प्रकार अपने देश में भी एक विश्रंख्ल प्राणी ही रह जाता है. इसका कारण यह है कि उसकी वृहत्तर सांसारिक या देशीय चिन्तायें नहीं है. उसकी चिन्ता तालमेल की है यह दो नावों का या कितनी ही नावों का तालमेल है जो अंततः असंभव है. उपन्यास में ऊब और निरर्थकता के पर्याप्त संकेत हैं. निर्मल वर्मा जो स्वयं कभी काफी समय यूरोप में रहे कहते हैं कि प्रवासी कई बार लम्बा जीवन टूरिस्ट की तरह बिताते हैं. वे दो देशों, अपने और प्रवासित की मुख्यधारा के बीच जबरदस्त द्वंद में तो रहते हैं पर निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाते. इसलिए अपनी अधेड़ा अवस्था तक आते आते अपने देश प्रेम, परिवार प्रेम और व्यस्क बच्चों के बीच उखड़े हुए लगते हैं. स्वयं उपन्यास में समीर लाल ने लिखा है कि बहुत जिगरा लगता है जड़ों से जुड़ने में. समीर लाल सत्य के साथ हैं, उन्होंने प्रवास में रहते हुए भी इस सत्य की खोज की है जबकि वहीं अनेक कवि प्रवासी दिवस पर फूहड़, निस्तेज, झूठी कविताएं सुनाते हैं मंच पर. ये दृश्य ही समीर लाल के मजबूत शब्द और वाक्य हैं, इनके आगे एक ऐसी राह है जिसमें अगला उपन्यास लिखा जा सकता है और जिसमें व्यंग्य कम होगा और त्रासदी ज्यादा. उपन्यास का उत्तरार्ध क्रमशः गमगीनी में बदलता है, उसमें शोक आता है, उस पर अभी मैं विचार नहीं कर पा रहा हूँ कभी आगे.
मेरे लिए अभी बहुत संक्षेप में, आग्रह यह है समीर लाल का स्वागत होना चाहिए. उन्होंने मुख्य बिंदु पकड़ लिया है. उनके नैरेशन में एक बेचैनी है जो कला की जरुरी शर्त है.
यह अच्छी बात है कि अनेक देशों में, प्रवासी भारतीय लिखने की तरफ मुड़ रहे हैं. अंग्रेजी के जबरदस्त वर्चस्व के बीच वे अपनी भाषा को बचा रहे हैं, उसे समृद्ध कर रहे हैं, ऐसे अनुभवों से जो सिर्फ प्रवासियों के पास ही है. यह हमारी भाषा के वर्तमान का एक नया पहलू है. प्रवासी शीत के पक्षियों की तरह लौट रहे हैं. उनमें पहचान की तड़प पैदा हुई है लेकिन गंभीर और शानदार वापसी तभी होगी जब वे डूबते हुए भारत के गणतंत्र और संस्कृतिक बहुलता की वृहत्तर चिंताएं करेंगे. रामकथा, वर्णाश्रम धर्म और सिकुड़ते हुए सुरक्षा कवच से उन्हें बाहर आना होगा.
समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.
अंत में मैं आपको एक सुखद उदाहरण भी देना चाहूँगा. पं. मदन मोहन मालवीय के पोते, मेरे सहपाठी और मित्र लक्ष्मीधर मालवीय ५० साल से जापान में हैं. वे बड़े निबंधकार, आलोचक, कथाकार और फोटोग्राफर हैं. वहां रहते हुए उन्होंने इलाहाबाद की गलियों, उसमें बोली जाने वाली बोली को कभी नहीं भुलाया. वे मुहावरे और बोलियों वाली भाषा का उपयोग करते हैं, लिखते हैं. बड़े लेखक हैं, उनकी किताबें दिल्ली के प्रकाशकों से आई हैं. वे रिसर्चर भी हैं. जापानी पत्नी को हिन्दी सिखाई, अपने बच्चों को हिन्दी सिखाई, और वे धारा प्रवाह बोलते हैं. जापानी, अंग्रेजी, संस्कृत में मर्मज्ञ होने के बावजूद हिन्दी स्वीकार की. आज भी हमारी टेलीफोन पर बातें अवधी में होती हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी भाषा की रक्षा जीवन और संस्कृति की रक्षा होती है.
समीर लाल को दोबारा मैं कोट करना चाहूँगा कि ’बड़ा जिगरा चाहिए जड़ से जुड़े रहने में’.
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पुस्तक के प्रकाशक:
शिवना प्रकाशन पी सी लैब, सम्राट काम्पलेक्स बेसमेंट बस स्टैंड सीहोर --466001 (म प्र)
सेठ बनारसी दास शहर के गणमान्य नागरिक एवं प्रतिष्ठित व्यापारी हैं. अगले विधान सभा चुनाव में सत्ताधारी पार्टी का टिकिट पाने के लिए तरह तरह के आयोजन कर बड़े बड़े नेताओं को आमंत्रित करते रहते हैं.
मुख्य मंत्री अपनी एक दिवसीय यात्रा पर शहर आने वाले हैं. बनारसी दास जानते हैं कि हल्के फुल्के आयोजन के लिए मुख्य मंत्री समय देंगे नहीं.
बहुत सोच विचार कर एक ऐसा प्रयोजन बनाना है कि मुख्य मंत्री घर आने से मना न कर सकें.
तुरंत याद आया पिताजी अभी-अभी गुजरे है .....बस, पिता जी की पुण्य तिथी का आयोजन कर डाला. मुख्य मंत्री आये, श्रृद्धांजलि दी. समाज में सेठ जी का रुतबा दुगना हो गया.
पिता जी को गांव में गुजरे वैसे भी ७ महिने तो बीत ही चुके थे.
सरकारी घर मिला हुआ था पिता जी को, पहाड़ के उपर बनी कॉलोनी में- अधिकारियों की कॉलोनी थी- ओहदे की मर्यादा को चिन्हित करती, वरना कितने ही अधिकारी उसमें ऐसे थे कि कर्मों से झोपड़ी में रखने के काबिल भी नहीं, रहना तो दूर की बात होती. मजदूरों और मातहतों का खून चूसना उन्हें उर्जावान बनाता था.
वो अपने पद के नशे में यह भूल ही चुके थे कि कभी उन्हें सेवानिवृत भी होना है. खैर, सेवा के नाम पर तो वो यूँ भी कलंक ही थे तो निवृत भला क्या होते लेकिन एक परम्परा है, जब साथ सारे अधिकार भी पैकेज डील में जाते रहते हैं. खुद तो खैर औपचारिक रुप से सेवानिवृत होने के साथ ही शहर में कहीं आकर बस जाते मगर बहुत समय लगता उन्हें, जब वो वाकई उस पहाड़ वाली कॉलोनी से अपनी अधिकारिक मानसिकता उतार पाते. जिनका जीवन भर खून पी कर जिन्दा रहे, उन्हीं से रक्त दान की आशा करते. कुछ छोड़ा हो तो दान मिले. खाली खजाने से कोई क्या लुटाये.
उसी पहाड़ पर उन्हीं अधिकारियों के बच्चे, हम सब भरी दोपहरिया में निकल लकड़ियाँ और झाड़ियाँ बीन कर चट्टानों के बीच छोटी छोटी झोपड़ियाँ बनाते और उसी की छाया में बैठ घर घर खेलते. अपने घर से टिफिन में लाया खाना खाते मिल बाँट कर और उस झोपड़ी को अपना खुद का घर होने जैसा अहसासते. मालूम तो था कि शाम होने के पहले घर लौट जाना है या अगर ज्यादा गरमी लगी तो शाम से कोई वादा तो है नहीं कि तुम्हारे आने तक रुकेंगे ही, और होता भी तो वादा निभाता कौन है? फिर रात तो गर्मी में कूलर और सर्दी में हीटर में सोकर कटेगी (आखिर अधिकारी के बेटे जो ठहरे) तो झोपड़ी की गर्मी/सर्दी की तकलीफ का कोई अहसास ही नहीं होता. घर से बना बनाया खाना और बस लगता कि काश इसी में रह जायें.
वातानुकूलित ड्राईंगरुम में बैठकर गरीबी उन्मूलन पर भाषण देने और शोध करने जैसा आनन्द मिला करता था उन झोपड़ियों में बैठ कर.
पहाड़ों पर तफरीह के लिए घूमने जाना और पहाड़ों की दुश्वारियों को झेलते हुए पहाड़ों पर जीवन यापन करना दो अलग अलग बातें हैं, दो अलग अलग अहसास जिन्दगी के.
सुनते हैं आजकल युवराज ऐसे ही कुछ अहसास रहे हैं शासन की बागडोर संभालने के पहले.
काश!! दुश्वारियाँ, परेशानियाँ और दर्द बिना झेले अहसासी जा सकती.
भरी रसोई में ही उपवास भी धार्मिक कहलाता है वरना तो फक्कड़ हाली को कौन पूछता है. न कोई पुण्य मिलता है, न ही पुण्य प्राप्ति की आशा उन दो रोटियों की उम्मीद में.
भगवान भी कैसे भेदभाव करता है-शौकिया भूखा रहने वालों को पुण्य और मजबूरीवश भूखा रहने वालों को अगले दिन फिर भूख झेलने की सजा.
कहने को
बहुत कुछ है
मगर लंगड़े हालात ऐसे
कि
जुबान लड़खड़ा जाती है...
और
बैसाखी मुहैया कराने को
सक्षम हाथ
कहते हैं
मैं
नशे में हूँ!!
-समीर लाल ’समीर’
नोट:जब यह पोस्ट आयेगी, तब मैं देहरादून के रास्ते में रहूँगा. शायद देहरादून ९ तारीख की रात पहुँच कमेंट अप्रूव कर पाऊँ अगर कनेक्शन मिला तो..वरना तो भगवान भरोसे देश चल रहा है तो हम तो चल ही जायेंगे. :)
देहरादून और नजदीकी ब्लॉगर अगर मिलना और संपर्क करना चाहें तो नम्बर ०८८८ ९३७ ६९३७…
मुझे नहीं, वो मेरी लेखनी पसंद करती है. मुझे तो वो कभी मिली ही नहीं और ये भी नहीं जानता कि कभी मिलेगी भी या नहीं? बस जितना जानती है मुझे, वो मेरे लेखन से ही. कभी ईमेल से थोड़ी बात चीत या कभी चैट पर हाय हैल्लो बस.
मगर उसे लगता है कि वो मुझे जानती है सदियों से. एक अधिकार से अपनी बात कहती है. मुझे भी अच्छा लगता है उसका यह अधिकार भाव.
पूछती कि तुम कौन से स्कूल से पढ़े हो, क्या वहाँ पूर्ण विराम लगाना नहीं सिखाया? तुम्हारे किसी भी वाक्य का अंत पूर्ण विराम से होता ही नही ’।’ ..हमेशा ’.’ या इनकी लड़ी ’....’ लगा कर वाक्य समाप्त करते हो. शायद उसने मजाक किया होगा मेरी गलती की तरफ मेरा ध्यान खींचने को.
ऐसा नहीं कि मैं पूर्ण विराम लगाना जानता नहीं मगर न जाने क्यूँ मुझे पूर्ण विराम लगाना पसंद नहीं. न जिन्दगी की किसी बात मे और न ही उसके प्रतिबिम्ब अपने लेखन में. मुझे हमेशा लगता है अभी सब कुछ जारी है. पूर्ण विराम अभी आया नहीं है और शायद मेरी जैसी सोच वालों के लिए पूर्ण विराम कभी आता भी नहीं..कम से कम खुद से लगाने को तो नहीं. जब लगेगा तो मैं जानने के लिए हूँगा नहीं.
कहाँ कुछ रुकता है? कहाँ कुछ खत्म होता है? मेरा हमेशा मानना रहा है कि - जब सब कुछ खत्म हो जाता प्रतीत होता है तब भी कुछ तो रहता है. एक रास्ता..बस, जरुरत होती है उसे खोज निकालने की चाह की, एक कोशिश की.
मैं उसे बताता अपनी सोच और फिर मजाक करता कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा हूँ न, इसलिए पूर्ण विराम लगाना नहीं सीखा..वो खिलखिला कर हँसती. उसे तो पहले ही बता चुका था कि सरकारी हिन्दी स्कूल से पढ़ा हूँ.
वो खोजती मेरी वर्तनी की त्रुटियाँ, वाक्य विन्यास की गलतियाँ और लाल रंग से उन्हें सुधार कर ईमेल से भेजती. मैं उसे मास्टरनी बुलाता तब वो पूछती कि लाल रंग से सुधारना अच्छा नहीं लगता क्या...जबकि उसका इस तरह मेरी गलतियाँ सुधारना मुझे अच्छा लगता और मुझे बस यूँ ही उसे मास्टरनी पुकारना बहुत भाता.
बातों से ही अहसासता कि वो जिन्दगी को थाम कर जीती है, बिना किसी हलचल के और मैं बहा कर.
मुझे एक कंकड़ फेंक उस थमे तलाब में हलचल पैदा करने का क्या हक, जबकि वो कभी मेरा बहाव नहीं रोकती.
अकसर जेब से कंकड़ हाथ में लेता फिर जाने क्या सोच कर रुक जाता फेंकने से..और रम जाता अपने बहाव में.
आज दिनांक ०२/१२/२०१० को एकाएक दोपहर में फोन बजा. ललित शर्मा, अवधिया जी(दोनों रायपुर से), विजय सप्पत्ति जी(हैदराबाद से) बवाल एवं महेन्द्र मिश्र जी की अगुवाई में भेड़ाघाट की संगमरमरी वादियों की सैर पर गये हुए थे और मैं पारिवारिक परियोजनों में उलझा घर पर ही था. पता चला डॉ महेश सिन्हा जी (रायपुर) का फोन है. वो भी एक विवाह समारोह में सम्मलित होने जबलपुर आये हैं और आज ही वापस जा रहे हैं. विवाह एक तारीख को था इसलिए वह जबलपुर में होते हुए भी कार्यशाला में नहीं आ सके. बाद में मिलने पर ज्ञात हुआ कि वह हमारे मित्र की बिटिया की शादी में ही आये हैं जिसमें हम कार्यशाला की वजह से न जा सके. अजब संयोग है. घर से मात्र १ किमी की दूरी पर ठहरे महेश जी से फिर आज शाम सुखद मुलाकात हुई. उनके सारे रिश्तेदार जो जबलपुर में हैं, सभी हमारे पारिवारिक मित्र निकले और जहाँ जिस परिवार में विवाह किया है, वह परिवार भी हमारे अर्सों से मित्र है.
गये थे मिलने डॉ महेश सिन्हा से मिलने और जाने कितने बिछुड़े हुए पुराने पुराने साथियों से मुलाकात हो गई. बहुत आनन्द आया, उसी अवसर पर बतौर सबूत एक तस्वीर खिंचवा ली गई है, वो पेश है:
कल दिनांक ०१/१२/२०१० को जबलपुर हिन्दी ब्लागर्स कार्यशाला का आयोजन होटल सूर्या के कांफ़्रेंस हाल में सायं ६ बजे से किया गया. कार्यशाला के मुख्य अतिथि श्री विजय सत्पथी, हैदराबाद एवं विशिष्ठ अतिथि श्री ललित शर्मा, रायपुर एवं श्री जी के अवधिया, रायपुर रहे. साथ ही जबलपुर से राजेश पाठक, महेंद्र मिश्रा जी, गिरीश बिल्लोरे जी, कार्टूनिस्ट राजेश डूबे जी,बवाल जी,पंकज गुलुस, डाक्टर विजय तिवारी’किसलय’, श्री अरुण निगम, विवेकरंजन श्रीवास्तव, सलिल समाधिया, सार्थक पाठक, प्रेम फ़रुख्खाबादी (सपत्नीक), आनंद कृष्ण ,संजू तिवारी आदि इस कार्यशाला में शामिल हुए. अनेकों पत्रकार एवं प्रेस फोटोग्राफर्स भी इस मौके पर उपस्थित थे.
इसी अवसर पर हिन्दी ब्लॉगिंग में आचार संहिता, हिन्दी ब्लॉगिंग के प्रचार एवं प्रसार के लिए आवश्यक कदम एवं अन्य विषयों पर लोगों ने अपने विचार प्रकट गये जिसकी अधिकारिक रिपोर्ट समारोह के अधिकृत प्रवक्ता श्री गिरीश बिल्लोरे जी द्वारा शीघ्र जारी की जावेगी .
उसी अवसर के कार्यक्रम प्रारंभ होने के पूर्व के कुछ चित्र:
राजेश डुबे जी (कार्टूनिस्ट) द्वारा बनाया गया मेरा चित्र: :)
अक्षरम हिंदी संसार और प्रवासी टुडे से जुडे अनिल जोशी जी एवं अविनाश वाचस्पति जी जिस दिन मैं दिल्ली पहुँचा, उसके अगले दिन ही आकर मिले. बहुत देर चर्चा हुई, चाय के दौर चले और तय पाया कि सभी ब्लॉगर मित्र कनाट प्लेस में मुलाकात करेंगे. १३ तारीख को शाम ३ बजे मिलना तय पाया.
१३ तारीख को सतीश सक्सेना जी का फोन आया और उन्होंने मुझे अपने साथ चलने का ऑफर दिया. अंधा क्या चाहे, दो आँख. मैं तुरंत तैयार हो गया मगर जब बाद में पता चला कि वह मुझे लेने नोयडा से दिल्ली विश्व विद्यालय नार्थ कैम्पस तक आये हैं और उसकी दूरी और ट्रेफिक को जाना तो लगा कि काश!! मैं खुद से चला जाता तो उन्हें इतना परेशान न होना पड़ता.
कनाट प्लेस जैन मंदिर सभागर में बहुत बड़ी तादाद में ब्लॉगर मित्र पधारे थे, सभी के नाम आप विभिन्न रिपोर्टों में पढ़ ही चुके हैं उन सबके साथ साथ वहाँ प्रसिद्ध व्यंग्यकार मान. प्रेम जनमजेय जी को पाकर मन प्रफुल्लित हो उठा. फिर पाया कि वहाँ मीडिया रिसर्च स्कॉलर श्री सुधीर जी के साथ अनेक बच्चे मीडिया शिक्षार्थी ब्लॉगिंग के विषय में कुछ जानने समझने आए हैं. बहुत अद्भुत नजारा था सब का मिलना. इन्हीं शिक्षार्थियों में एक छात्रा रिया नागपाल जिसने हिंदी ब्लॉगिंग को ही शोध के विषय के रूप में चुना है, से मुलाकात हुई और उसने मुझे याद दिलाया कि एक बार वह मेरा इसी विषय पर कनाडा से साक्षात्कार ले चुकी है. बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर.
लगभग सभी ब्लॉगर मित्रों को मैं तुरंत पहचान गया. राजीव तनेजा (संजू तनेजा जी से फोन पर बात हुई थी पहले), मोहिन्दर जी और सुनिता शानु जी से तो पहले भी मिला था बस, रतन सिंह जी बिना पगड़ी के पहचान नहीं आये और अजय कुमार झा को देख लगा जैसे कोई कालेज के फर्स्ट ईयर का छात्र है, जबरदस्त मेन्टेनेन्स के लिए वो बधाई के पात्र हैं. शहनवाज से भी एक दिन पूर्व फोन पर चर्चा हुई और वहाँ इस उर्जावान युवा मिलना से बहुत अच्छा लगा. श्री तारकेश्वर गिरि जी ,श्री नीरज जाट जी (पहले चैट पर आवाज तो सुन ही चुका था इनकी, बस दर्शन बाकी थे) , श्री अरुण सी रॉय जी, श्री एम वर्मा जी, श्री सुरेश यादव जी (आप विशेष तौर पर मिलने के लिए एक दिन रुके रहे दिल्ली में) , श्री निर्मल वैद्य जी , श्री अरविन्द चतुर्वेदी जी, एलोवेरा वाले राम बाबू सिंह जी, डॉ वेद व्यथित जी, मयंक सक्सेना (बाद में मयंक ने टीवी के लिए इन्टरव्यू भी लिया), कनिष्क कश्यप (बहुत व्यस्तता के बीच पधारे), दीपक बाबा, भतीजे पद्म सिंह , श्री राजीव तनेजा जी ,श्री कौशल मिश्र , पुरबिया जी, नवीन चंद्र जोशी जी, ,पंकज नारायण जी , सुश्री अपूर्वा बजाज सुश्री प्रतिभा कुशवाहा , आदि से मिलना अद्भुत रहा.
डॉ दराल सा: अपने पिता जी की तबीयत बहुत खराब होने के बावजूद भी समय निकाल कर मिलने आये.
रचना जी ने अपनी माता जी की कविताओं की पुस्तक सस्नेह भेंट की और चूँकि अगले दिन मुझे जबलपुर के लिए रवाना होना था तो बड़ी बहन का फर्ज निभाते हुए रास्ते में खाने के लिए बिस्कुट का पैकेट भी दिया. वाकई, रास्ते में काम आया चाय के साथ खाने में.
मुझे इस बात की कतई उम्मीद न थी कि वहाँ पहुँच कर चर्चा के अलावा भाषण जैसा कुछ देकर अपने विचार रखने होंगे अतः सबसे मिलने के उत्साह में कुछ तैयारी तो की नहीं थी. मेरे पहले श्री प्रेम जनमजेय जी ने और फिर बालेन्दु दधीची जी ने अपने विचार रखे. बालेन्दु जी पूरी तैयारी में थे. पाईण्ट बना कर लाये थे और बहुत सार्थक आंकड़े प्रस्तुत किये. साथ ही ब्लॉगर्स पर आधारित एक बेहतरीन कविता भी सुनाई. उनकी तैयारी देख कर मैं घबराया कि अब मैं क्या बोलूँगा मगर जब नम्बर आया तो बस, बिना तैयारी शुरु हो गये जैसे जैसे विचार मन में आते गये, कहते चले गये. मित्रों नें अपनी जिज्ञासाएँ भी प्रकट की और मैने हर संभव प्रयत्न किया कि उसका निवारण हो सके. भाषण खतम होते ही सबने ताली बजाकर मामला ही ठप्प कर दिया कि बहुत देर हो रही है, अशोक चक्रधर जी के कार्यक्रम में जाना है तो मुझे कविता झिलाने का समय ही नहीं मिला, वरना सोचा था कि गाकर सुनाऊँगा. :) खैर, फिर कभी सही. वरना बालेन्दु जी कविता सुना जायें और हमारी सुने बिना निकल जायें, यह कैसे संभव है. बस, समय का खेल है. उनको तो पक्का दो तीन सुनानी है खूब लम्बी लम्बी.
मैं सभी मित्रों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर मुझे समय प्रदान किया एवं श्री अविनाश वाचस्पति, श्री अनिल जोशी जी का इस विराट आयोजन के लिए विशेष आभार.
आयोजन की समाप्ति पर फिर वापस छोड़ने भी सतीश सक्सेना जी गये तो लगा कि कितना दुष्कर कार्य वह मित्रतावश मुस्कराते हुए कर गये. लौटते वक्त सतीश भाई ने डीनर का ऑफर भी दिया लेकिन तब तक भारत के हिसाब से पेट एडजस्ट नहीं हो पाया था तो जुबान की मांग के बावजूद भी मना करना पड़ा. अगली बार के लिए ड्यू है सतीश भाई. इस दौरान भाई विनोद पाण्डे भी साथ थे और मौके का फायदा उठाते हुए विनोद जी ने रास्ते में ही दो गज़लें भी सुना डाली. वैसे थी बहुत बेहतरीन. मैं जब तक माहौल बनाता कि बदला लिया जाये, तब तक शायद सतीश भाई भाँप गये और उन्होंने स्पीड बढ़ा कर यूनिवर्सिटी पहुँचा कर उतार दिया. ये नाईंसाफी है, एक न एक दिन घेर कर सुनाऊँगा जरुर.
आशा करता हूँ हम सभी मित्र समय समय पर ऐसे आयोजन कर हिन्दी ब्लॉगिंग को समृद्ध करते रहेंगे. अनेक शुभकामनाएँ.
कहते हैं, मुसीबत कैसी भी हो, जब आनी होती है-आती है और टल जाती है-लेकिन जाते जाते अपने निशान छोड़ जाती है.
इन निशानियों को बचपन से देखता आ रहा हूँ और खास तौर पर तब से-जब से गेस्ट हाऊसेस(विश्राम गॄहों और होटलों में ठहरने लगा. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? कचरे का डब्बा बाजू में पड़ा है. नाली सामने है. लेकिन नहीं, हर चीज डब्बे मे डाल दी जायेगी या नाली में बहा देंगे पर बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा. यूँ भी मुझे तो बिन्दी लगानी नहीं है तो मुझे क्या? मगर एकाध बार बीच आईने पर चिपकी बिन्दी पर अपना माथा सेट करके देखा तो है, जस्ट उत्सुकतावश. देखकर बढ़िया लगा था. फोटो नहीं खींच पाया वरना दिखलाता.
यही तो मानव स्वभाव है कि जिस गली जाना नहीं, उसका भी अता पता जानने की बेताबी.
मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है, तो वैसे ही यह निशान भी. श्रृंगार, शिल्पा ब्राण्ड की छोटी छोटी बिन्दी से लेकर सुरेखा और सिंदुर ब्राण्ड की बड़ी बिन्दियाँ. सब का अंतिम मुकाम- माथे से उतर कर आईने पर.
कुछ बड़ी साईज़ की मुसीबतें, बतौर निशानी, अक्सर बालों में फंसाने वाली चिमटी भी बिस्तर के साईड टेबल पर या बाथरुम के आईने के सामने वाली प्लेट पर छोड़ दी जाती हैं. इस निशानी की मुझे बड़ी तलाश रहती है. नये जमाने की लड़कियाँ तो अब वो चिमटी लगाती नहीं, अब तो प्लास्टिक और प्लेट वाली चुटपुट फैशनेबल हेयरक्लिपस का जमाना आ गया मगर कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?
औजार के नाम पर एक और औजार जिसे मैं बहुत मिस करता हूँ वो है पुराने स्वरूप वाला टूथब्रश ... नये जमाने के कारण बदला टूथब्रश का स्वरुप. आजकल के कोलगेटिया फेशनेबल टूथब्रशों में वो बात कहाँ? आजकल के टूथब्रश तो मानो बस टूथ ब्रश ही करने आये हों, और किसी काम के नहीं. स्पेशलाईजेशन और विशेष योग्यताओं के इस जमाने में जो हाल नये कर्मचारियों का है, वो ही इस ब्रश का. हरफनमौलाओं का जमाना तो लगता है बीते समय की बात हो, फिर चाहे फील्ड कोई सा भी क्यूँ न हो.
बचपन में जो टूथब्रश लाते थे, उसके पीछे एक छेद हुआ करता था जिसमें जीभी (टंग क्लीनर) बांध कर रखी जाती थी. ब्रश के संपूर्ण इस्तेमाल के बाद, यानि जब वह दांत साफ करने लायक न रह जाये तो उसके ब्रश वाले हिस्से से पीतल या ब्रासो की मूर्तियों की घिसाई ..फिर इन सारे इस्तेमालों आदि के हो जाने के उपरान्त जहाँ ब्रश के स्थान पर मात्र ठूंठ बचे रह जाते थे, ब्रश वाला हिस्सा तोड़कर उसे पायजामें में नाड़ा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. नाड़ा डालने के लिए उससे सटीक और सुविधाजनक औजार भी मैने और कोई नहीं देखा.
जिस भी होटल या गेस्ट हाऊस के बाथरुम के या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर मुझे बिन्दी चिपकी नजर आती है, मेरी नजर तुरंत बाथरुम के आईने के सामने की पट्टी पर और बिस्तर के बाजू की टेबल पर या उसके पहले ड्राअर के भीतर जा कर उस चिमटी को तलाशती है जो कभी किसी महिला के केशों का सहारा थी, उसे हवा के थपेड़ों में भी सजाया संवारा रखती थी. खैर, सहारा देने वालों की, जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात मगर उसके दिखते ही मेरे कानों में एक गुलाबी खुजली सी होने लगती है.
बदलते वक्त के साथ और भी कितने बदलाव यह पीढ़ी अपने दृष्टाभाव से सहेजे साथ लिये चली जायेगी, जिसका आने वाली पीढ़ियों को भान भी न होगा.
अब न तो दाढ़ी बनाने की वो टोपाज़ की ब्लेड आती है जिसे चार दिशाओं से बदल बदल कर इस्तेमाल किया जाता था और फिर दाढ़ी बनाने की सक्षमता खो देने के बाद उसी से नाखून और पैन्सिल बनाई जाती थी. आज जिलेट और एक्सेल की ब्लेडस ने जहाँ उन पुरानी ब्लेडों को प्रचलन के बाहर किया , वहीं स्टाईलिश नेलकटर और पेन्सिल शार्पनर का बाजार उनकी याद भी नहीं आने देता है. तब ऐसे में आने वाली पीढ़ी क्यों इन्हें इनके मुख्य उपयोगों और अन्य उपयोगों के लिए याद करे, उसकी जरुरत भी नहीं शेष रह जाती है.
फिर मुझे याद आता है वह समय, जब नारियल की जटाओं और राख से घिस घिस कर बरतन मांजे जाते थे. आज गैस के चूल्हे में न तो खाना पकने के बाद राख बचती है और न ही स्पन्ज, ब्रश के साथ विम और डिश क्लीनिंग लिक्विड के जमाने में उनकी जरुरत. स्वभाविक है उन वस्तुओं को भूला दिया जाना.
सब भूला दिया जाता है. हम खुद ही भूल बैठे हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे जबकि आज भी कितने ही लोगों की हरकतों में उन जीन्स का प्राचुर्य है. तो यह सारे औजार भी भूला ही दिये जायेंगे, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.
अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.
अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.
ब्लॉगिंग अगर इंडस्ट्री है तो मैने गलत चुन ली. अफसोस होता है कभी कभी. कभी कभी कहना बहुत मर्यादित वक्तव्य है सिर्फ इसलिए क्यूँकि मैं इसका हिस्सा हूँ. न होता तो कहता ‘हमेशा’.
मैं बचपन से यह गलती करता रहा हूँ मगर फितरत ऐसी कि बार बार ऐसी ही गलती कर बैठता हूँ. यही फितरत मुझे एक अच्छा भारतीय इन्सान बनाती है. मानो गलती से कुछ सीखने को तैयार ही नहीं. हर बार वो ही गलती दोहराये जा रहे हैं और कोस रहे हैं दूसरों को.
सबसे पहले सी ए(चार्टड एकाउंटेन्ट- सनधि लेखापाल) बना, एक ऐसी इन्डस्ट्री सलाहकारों की जिसमें आपकी सलाह की पूछ ही तब हो जब बाल सफेद हो जायें. जब प्रेक्टिस करता था तो हर वक्त लगता था कि जल्दी बाल सफेद हों तो प्रेक्टिस चमके और जम कर चमके..मगर सफेद भी ऐसे हों कि सिर्फ साईड साईड से कलम पर (फैशन कॉन्शस तो था ही शुरु से. रुप रंग तो अपने हाथ में होता नहीं मगर सजना संवरना तो खुद को ही पड़ता है वरना तो रुप रंग भी धक्का खाता नजर आये, खाता ही है-आपने भी अनुभव किया होगा.)
फिर राजनीति में हाथ आजमाया. यूथ कांग्रेस ज्वाईन की. शायद कारण था कि जब नेहरु जी मरे तब मैं एक बरस का भी न था. शायद दूध पीने के लिए भूख के मारे रो रहा हूँगा और घर वालों ने समझा कि नेहरु जी के मरने की खबर जानकर रो रहा है तो तब से ही कांग्रेसी होने का ठप्पा लग गया. अब घर वालों को झुठलाना तो हमारी भारतीय संस्कृति नहीं सिखाती तो कांग्रेसी ही बन गये और अब तक निभाये जा रहे हैं.
जब आस पास नजर घुमाता हूँ तब पाता हूँ कि ९० प्रतिशत से ज्यादा किसी भी राजनैतिक पार्टी में इसी तरह की किसी ऊलजलूल वजहों से हैं, कोई पहचान से, तो कोई जुगाड़ से तो कोई विकल्प के आभाव में. बहुत मुश्किल से ऐसे नेता दिखेंगे जो किसी पार्टी में उस पार्टी की मान्यताओं और राजनैतिक विचारों की वजह से हैं. तभी तो मौका देख देख कर पार्टियाँ बदलते रहते हैं.
जब यूथ कांग्रेस ज्वाईन की तो ज्वाईन करने के बाद, फिर वही पाया कि लड़कों की कौन सुने? युवा पाले जाते हैं राजनीति में ताकि शांति भंग न करें मगर सुने नहीं जाते. शांति भंग न करें का तात्पर्य यह कतई न लगायें कि बिल्कुल शांति भंग न करें बल्कि इसे ऐसा समझे कि अपने मन से किसी तरह की कोई शांति भंग न करें यानि की सिर्फ वहीं शांति भंग करें जो सफेद बाल वाले तथाकथित वरिष्ट चाहते हों जटिल मुद्दों से आमजन का ध्यान भटकाने के लिए.
राजनैतिक पार्टी में भी सुनवाई के लिए फिर बालों में सफेदी जरुरी है भले ही दिमाग युवाओं से भी गया गुजरा हो. देश की छोड़ कोई सी भी चिन्ता पालो मगर बाल सफेद रहें. ज्यादा सफलता चाहिये तो घुटना भी रिप्लेसमेन्ट लायक कर लो. खुद चल पाओ या नहीं, मगर देश चलाने लायक मान लिए जाओगे. ये बात फिर सिर्फ एक पार्टी में नहीं, सभी पार्टियों में है. राजनीति तो राजनीति है, पार्टियाँ तो सिर्फ मन का बहलाव है मतदातओं के लिए. वो ही आज इस पार्टी में, तो कल उस में. फिर भी जीते जा रहा है. ऐसे कितने ही नेता हैं जो हर जीती पार्टी के साथ जीते. बात टाईमिंग की है और टाईम मैनेजमेन्ट की. मगर यही टाईम मैनेजमेन्ट तो ब्लॉगिंग में दगाबाज बनकर उभरा.
खैर, यह सब तो जैसे तैसे समय के साथ पार हो ही गया. होना ही था, इस पर इंसानी जोर कहाँ? समय कहाँ रुकता है? एक नियमित गति से चलता जाता है. यह तो आप पर है कि उससे तेज भाग लो, या धीरे चलो या फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो समय के भाग जाने की दुहाई देते. आधे से ज्यादा लोग इसी कोसने में जिन्दगी गुजारे दे रहे हैं और इसी मे संतोष प्राप्त कर रहे हैं. आश्चर्य यह है कि वो इसके बावजूद भी खुश हैं.
फिर न जाने किस मनहूस घड़ी में शौक जागा ब्लॉगिंग का, वो भी हिन्दी में. पुरानी दो उम्मीदों के चलते नाजुक उमर में ही बाल तो सफेद कर बैठे थे. पत्नी की लाख लानत पर भी रंगने को कतई तैयार नहीं हुए हैं आज तक.
जैसे ही सन २००६ में लिखना शुरु किया तो पहले लोग आये कि वाह समीर, क्या लिखते हो. अच्छा लगा. तारीफ किसे बुरी लगती है. जानकारी के अनुसार, मात्र १०० लोग थे उस वक्त इस जगत में जो हिन्दी में लिखते थे अपना ब्लॉग और उनमें से एक हम भी.
फिर देखते देखते एक और नई खेप आई, समीर जी वाली..तुम से आप हो लिये. अच्छा लगा. कारवां तो बढ़ना ही था वरना शायर गलत हो जाते जो कहते हैं कि लोग खुद जुड़ते रहे और कारवां बनता गया, वो तो फिर नाकाबिले बर्दाश्त गुजरता:
लोग बढ़े, स्वभाविक है, बढ़ना ही था. जो भी होता है उसे बढ़ना ही है. वरना तो होना ही एक दिन खो जयेगा. नये लोग आये और आदरणीय कहने लगे, श्रेद्धेय, मठाधीष, गुरुवर, प्रणाम, चरण स्पर्श और न जाने क्या क्या-सब सहते रहे, अच्छा लगता रहा. कोई और रास्ता भी न था.
फिर समय के साथ चच्चा, अंकल और मामा का दौर लिए नवयुवा आये. नवयुवाओं के साथ लफड़ा ये है कि उनकी उम्र की कोई रेन्ज नहीं होती. कितने नेता तो मरते दम तक युवा नेता रहे. मानो असमय गुजर गये मात्र ८५ साल की अवस्था में.
सारी राजनीतिक पार्टियाँ ऐसी ही युवा शक्तियों से पटी पड़ी हैं जिनकी युवा अवस्था उनके गुजरने के पूर्व गुजरने का नाम ही नहीं लेती.
चुप रहना कई बार क्या, हमेशा ही, जुर्म बढ़वाते जाता है... मगर फिर भी लोग मजबूरीवश चुप रहते हैं.सबकी अपनी अपनी मजबूरी होती है और अपने अपने आसमान. कहते हैं कि प्रतिकार आवश्यक है अक्सर. मगर वो आदत रही नहीं, आप तो जानते हैं, तो देखते देखते धीरे से दद्दा, नाना जी कहलाने लगे और वरिष्ट एवं बुजुर्ग बन बैठे.
५० पार की उम्र वाले भी चरण स्पर्श कह करके जाने लगे, कोई दादा जी, कोई नाना जी, कोई बाबू जी, कोई बाउ जी, तो कोई परम श्रद्धेय तो कोई नतमस्तक कह कर बढ़ जाता और हम अपना सा मूँह लिये टपते रहते. क्या करते?
सोचता हूँ कि काश, फिल्म इन्डस्ट्री में होता तो इस उम्र में तो सलमान की जगह मैं बिग बास का संचालन कर रहा होता. युवाओं का आईकान, जाने कितनों का स्वप्नकुमार और रातों की नींद, तन्हाई का साथी और दीवारों पर टंगी तस्वीर. आहें भर रहे होते लोग मेरे नाम पर मेरी इस बाली उम्र में और यहाँ..चार साल की ब्लॉगिंग में जिस स्पीड से उम्र बढ़ी है, इस रफ्तार से कदमताल मिलाने के लिए महामानव होना जरुरी लग रहा है और मैं, चुपचाप बैठा निठल्लों की तरह कह रहा हूँ कि समय बहुत तेज भाग रहा है.
केशव तो खैर बिना ब्लॉगिंग ही ऐसे लफड़े में फंस गये थे, और तब मजबूरी में उन्हें लिखना पड़ा:
केशव केसन अस करी जस अरिहूं न कराहिं, चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जांहि।
यही गति रही तो वो दिन दूर नहीं जब जीते जी लोग स्वर्गवासी कहने लग जायेंगे... कहना ही तो है-हैं कि नहीं इससे तो पहले भी कहाँ मतलब रखा किसी ने.
इन्हीं सब के मद्देनजर अब तो कई बार मन करता है कि किसी नजदीकी कब्रिस्तान में ही जाकर बिस्तर लगा कर सो जाऊँ. क्या पता नींद खुले न खुले. तब इन चहेतों की इच्छा भी रह जायेगी और यदि भूले से नींद खुल गई तो अगली रचना रच देंगे उसी अनुभव पर. आज तक तो किसी ने लिखा नहीं है कब्रिस्तान में सोने का अनुभव या कब्रिस्तान का यात्रा वृतांत. नयापन मिलेगा लोगों को. कुछ और लोग आकर चरण स्पर्श कर जायेंगे भावी स्वर्गवासी के.
किसी वाकई वाले बुजुर्ग से पूछा तो उसने कहा कि चुप रहना ही बेहतर है, साहित्यजगत की यही रीत है (हालांकि ब्लॉगिंग को वो वाले साहित्यकार साहित्य मानते नहीं हैं फिर भी दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है कि तर्ज पर मान लेते हैं). बस, संतुष्ट हूँ इस रीत का पालन कर कि शायद हिन्दी साहित्य जगत का हिस्सा कहलाया जाऊँ.
एक उम्मीद ही तो है...एक उम्मीद के सहारे ही तो पूरा भारत जिये जा रहा है, तब इसे मैं पाल बैठा तो क्या बुराई है??
नोट: जब यह पोस्ट छपेगी, तब तक भारत पहुँच चुका हूँगा. जल्दी ही बात चीत/मुलाकात होती है.
आप एक ईमेल भेजो-दीपावली शुभ और बदले में पाओ २० ईमेल शुभकामना संदेश- साथ में खुले आम ५० लोग फारवर्ड लिस्ट में और फिर उनके शुभकामना संदेश. ऑर्कुट से लेकर चिरकुट तक-हर तरफ दीपावली धमाका.
ब्लॉग पोस्टों पर जो लोग साल भर यही सोचते रह गये कि क्या लिखें, वो भी लिख गये. शुभ दीपावली. जो ज्यादा होशियार थे, उन्होंने साथ में तस्वीर भी लगाई-किसी नें लक्ष्मी गणेश, किसी ने लड्डू, किसी ने दीपक, जिसकी जैसी श्रृद्धा बन पाई. किसी ने पूजन विधी, किसी ने भजन, तो किसी ने भोजन परोसा. ज्यादा टेक्निकल लोगों ने जलते हुए दीपक की तस्वीर, घूमती हुई चकरी भी लगा डाली.
जो स्वयं खुद ही लक्ष्मी जी की सवारी बन जाने की संपूर्ण योग्यता रखते हैं, वह भी उन्हें अन्य स्थानों पर पहुँचाने की बजाय स्वयं अपने घर में निमंत्रित करने हेतु आँख मूँदे पूजा करते नजर आये.
कमेंट में भी दनादन पटाखे फोड़े गये. सबने अपने अपने हिसाब से बेहिसाब कॉपी पेस्ट करने का सुख प्राप्त किया. जो बरस भर कमेंट करने के लिए एक अदद अच्छी पोस्ट की तलाश में थे अन्यथा मूँह सिले बैठे रहना पसंद करते थे ताकि उनके श्रेष्ठ होने पर प्रश्न चिन्ह न लग जाये, वे भी एकाएक मुखर हो उठे और कमेंट करने निकल पड़े. मुक्तक, कविता, गद्य हर फार्मेट में कमेंट किये गये. पोस्ट में कुछ भी लिखा हो, देना दिवाली की बधाई ही है, यही उद्देश्य चहुं ओर जोर मारता रहा. मैं स्वयं यही स्व-रचित मंत्र उच्चारता रहा, हर कमेंट, हर ईमेल में:
सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ, दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ.. दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
-समीर लाल 'समीर'
कुल मिला कर दीपावली शुभ रही. आनन्द आया. अभी तक खुमार उतार पर ही है बुझा नहीं है. फुलझड़ियाँ चल ही रही हैं यहाँ वहाँ. ईमेल भी आये जा रही हैं. एक ही व्यक्ति से कई कई बार. लोग त्यौहार की खुशी में बार बार भूल जा रहे हैं कि पाँच बार पहले ही बधाई दे चुके हैं. आशा की जा रही है कि यह कार्यक्रम ग्यारस तक चलता रहेगा.
तब तक ओबामा भी भारत से चले जायेंगे. बहुत सारे मामले इसी मामले से ठंडे पड़ जायेंगे. दिवाली बीत चुके दिन बीत गये होंगे. रावण का भी बर्निंग सेन्शेसन खत्म हो चुका होगा और वह फिर मूँह उठा तैयार खड़े हो जायेगा और राम चन्द्र जी एक बरस के लिए पुनः विश्राम हेतु वन चले जायेंगे. १४ बरस बहुत होते हैं किसी भी बात की लत लग जाने को. एक बार वन में आराम करने की आदत पड़ जाये तो महल कहाँ सुहाता है?
तब तक हम भी भारत पहुँच चुके होंगे, फिर इत्मिनान से पोस्ट लिखेंगे. भारत पहुँचने तक अब कम से कम हमारी कोई पोस्ट नहीं आयेगी. बहुत चैन की सांस लेने के जरुरत नहीं है, बुधवार को तो पहुँच जायेंगे, अगली पोस्ट वैसे भी गुरुवार को ही ड्यू है.
अब उस समय तक आप मास्साब पंकज सुबीर जी द्वारा आयोजित दीपावली तरही मुशायरा में मेरी प्रस्तुत गज़ल पढ़िये.
जलते रहें दीपक सदा काईम रहे ये रोशनी बोलो वचन ऐसे सदा घुलने लगे ज्यूँ चाशनी
ऐसा नहीं हर सांप के दांतों में हो विष ही भरा कुछ एक ने ऐसा डसा ये ज़ात ही विषधर बनी
सम्मान का होने लगे सौदा किसी जब देश में तब जान लो, उस देश की है आ गई अंतिम घड़ी
किस काम की औलाद जो लेटी रहे आराम से और भूख से दो वक्त की, घर से निकल कर मां लड़ी
(CWG स्पेशल) सब लूटकर बन तो गये सरताज आखिरकार तुम लेकिन खबर तो विश्व के अखबार हर इक में छपी
कुछ रोज पहले किशोर दिवसे जी का एक आलेख पढ़ रहा था जिसका शीर्षक देख लगा कि इस पर तो पूरी गज़ल की बनती है, तो बस प्रस्तुत है एकदम ताजी गज़ल दीपावली पर खास आपके लिए:
लाखों रावण गली गली हैं, इतने राम कहाँ से लाऊं?
चीर हरण जो रोक सकेगा वो घनश्याम कहाँ से लाऊँ?
बापू सा जो पूजा जाये प्यारा नाम कहाँ से लाऊँ
श्रद्धा से खुद शीश नवा दूँ अब वो धाम कहाँ से लाऊँ?
उम्र के दीप में कम हुआ तेल और मैं अपने ही घर में बना दिया गया मंदिर की मूरत
उनका स्वार्थ मेरा खुश रहना भोग लगाया जाता रहा मेरा भक्तों की इच्छानुसार नियमित स्नान,ध्यान,वन्दना और फूलों का श्रंगार प्रतिमा देखती है बिना पलक झपके मुस्कुराते हुए सौम्य शान्त मुद्रा अवाक मैं घर का पूज्य पीपल का पेड़....
-समीर लाल ’समीर’
आज आखर कलश पर भी मेरी दो रचनाएँ प्रकाशित हैं और एक गज़ल मेरे मन की पर अर्चना चावजी द्वारा गाई.
आप हिन्दी में लिखते हैं. आप हिन्दी पढ़ते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है. एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.