रजिया का बाप मरा, आसिफ की ऐशयह मुहावरा हमारे कालेज के दिनों में हमारे मोहल्ले से ही हमारी कोख से जन्मा था. आसिफ, हमारे बाल सखा और रजिया उनके पड़ोस में रहने वाली सुन्दर कन्या. यूँ तो आसिफ का पड़ोसी होने के कारण उनके घर आना जाना था मगर उनके मन में उपजे रजिया के प्रति प्रेम को वो मात्र हम दोस्तों के बीच ही बखान कर पाते थे. रजिया को छूना तो दूर, कभी सीधे नजर मिला कर बात भी न कर पाते, मन में चोर जो था. मगर अरमान ऐसे कि रजिया के नाम पर किसी से भी लड़ जायें. रजिया रोजा रखे, दुबले ये हों टाईप.
एक रोज रजिया के अब्बू गुजर गये.
वो क्या गुजरे मानो आसिफ की लाटरी ही लग गई. खूब गले लगा लगा कर चुप कराया रजिया को. जितनी बार उसकी सिसकी फूटे वो आसिफ का कँधा सेवा में हाजिर पाये. आँसू पोछे गये, बालों को सहला कर ढाढस बंधाया गया गोया कि जितना संभव था, उससे भी ज्यादा आसिफ मियाँ ने मौके का फायदा उठाया. वहाँ साथ में रोयें और दोस्तों के बीच आँख दबा दबा कर हंसते हुए किस्से सुनाये. हालात ये हो गये कि दिन गुजरने के साथ उनके परिवार का मय रजिया के रोना बंद हो गया तो भी आसिफ मियाँ उनके घर जाकर अब्बू का किस्सा छेड याद में स्वयं रोने लगें. रजिया और उसकी अम्मा को भी मजबूरी में रोना पड़े और फिर आसिफ मियाँ को चुप कराने का मौका मिले.
कुल कथा का सार कि जब लोगों को मौका मिलता है, वो अपने मन की कर ही लेते हैं.
दो दिन पहले
हमने पोस्ट लिखी कि हम थके हैं, दुखी हैं और कुछ पढ़कर अपने लेखन में कुछ सु्धार लाने के आकांक्षी. बस, मानो कि मौका हाथ लगा लोगों के. बहुतो ने क्या अधिकतर ने तो वाकई बहुत दुख जताया, मान मनोहार किया. सो तो खैर रजिया के यहाँ भी बहुतों नें किया था वाकई दुख व्यक्त.
मगर कुछ ऐसे दुख व्यक्त किये कि
समझ ही नहीं आया कि मना रहे हैं, समझा रहे हैं, कविता लिख रहे हैं, धमका रहे हैं, डांट रहे हैं कि लतिया रहे हैं. कुछ की टोन तो ऐसी भी रही कि ठीक है, ठीक है-रो गा के जल्दी फुरसत हो लो. हम आते हैं अभी तुम्हारे लिए ड्रिक बनाकर (वो भी हमारी पसंदीदा-स्क्रू ड्राइवर- ऐसा प्रलोभन कि ज्यादा देर रोना भी भारी लगने लगा).
मास्साब पंकज भाई भी मौका ताड़े और इतने दिनों से जज्ब दिल की बात कह गये कि हमारे यहाँ का सबसे
होशियार (शरारत में) छात्र और उधर हमारी
छोटी बहना विनिता मनाते हुए कह रही हैं कि बुरा मत मानना मगर आप सत्या फिल्म के
कल्लू मामा के जैसे दिखते हो-लो, एक तो हम पहले ही बुरा माने बैठे हैं तो सोचा होगा कि मान भी जायें तो क्या-एक दिन और नहीं लिखेंगे. मुर्दे पे क्या नौ मन माटी और क्या दस मन माटी. इतना हक तो बनता ही है छोटी बहन का. सही है, तुम्हें तो हक हईये है.
प्रिय
ई-गुरु राजीव ने एक ही बार में मनुहार, अपना ब्लॉग खोलने का एजेंडा, फ्यूचर प्लान, शिकायत कि आपने आज तक हमें टिप्पणी नहीं दी, धमकी, सौगंध सब एक ही टिप्पणी में: अपनी टिप्पणी का समापन कुछ इस
हृदय स्पर्शी अंदाज में किया-आप एक भीषण योद्धा की तलवार ( लेखनी ) छीन रहे हैं और कुछ नहीं. अब जब तक आप की टिपण्णी के दर्शन मैं अपने ब्लॉग पर नहीं कर लूँगा, महादेव की सौगंध मैं एक शब्द भी नहीं लिखूंगा.
अलग सा भाई टिप्पणी किये और फिर उसे पोस्ट बना कर लाये-मनुहार जैसा कि बहुतों ने किया
घुड़की के अंदाज में-आप ऐसा कैसा कर सकते हैं?
यही तो स्नेह है.बालक
आदित्य यानि हमारा
प्यारा सा बबुआ, उसने तो
रुला ही दिया कि मैं आपको बहुत मिस करुँगा. वहीं
बेजी ने ऐसा लताड़ा कि हमारी तो घिघ्घी ही बंध गई.
पुराने योद्धा निश्चिंत थे तो ज्यादा इन्टरेस्ट नहीं लिये. इस टंकी पर उतरते चढ़ते हमारे संग संग उन्होंने कईयों को देखा है. इसे फैशन में लाने का और बाद में अपने नाम कॉपी राइट करा ले जाने का सेहरा
अनुज सागर चन्द्र नहार के सर है.
एक जमाने में वो हर छठे छः मासे टंकी पर चढ़ा करते थे. फिर हम सब चिट्ठाकार
फुरसतिया जी समेत जाकर उनकी मान मनुव्वल करके उतारा करते थे. बाद में तो उनका ऐसा रियाज बना कि जब तब दौड़ कर टंकी पर चढ़ जाते और जब कोई न भी मनाता तो भी खुद ही उतर आते कि मैं जानता हूँ, आप लोग आने ही वाले थे. कुछ ऐसे ही रास्तों पर
महाशक्ति ने भी अपने जोहर दिखाये थे. फिर धीरे धीरे यह टंकी चढन कार्यक्रम फैशन से जाता रहा और आज
हमारा कृत्य पुराने दिनों को याद बस करा गया.
अभ्यस्त
फुरसतिया जी अमिताभ स्टाईल बैठे चाय पीते रहे, कहे बबुआ का मनोना चल रहा है, परसों
चिट्ठाचर्चा करेंगे, वो बिल्कुल निश्चिंत थे कि परसों तक तो हम टंकी से उतर ही आयेंगे वरना वो
लेपटॉप टंकी पर भिजवा देते कि पहले
चिट्ठाचर्चा लिख लो फिर जो मन आये सो करो, गुरुदेव
राकेश खंडेलवाल भी पुराने हैं, कहे कि मुझे पता है लौट कर फिर आओगे, तो
पंकज बैंगाणी ’नो कमेन्ट’ कह कर अकर्मण्यता की पूर्व स्थिति को प्राप्त भये. सब अनुभव के सीखे हैं.
नवांगतुक
वीनस केसरी बेचारे भागते रहे हमारे और
मास्साब पंकज सुबीर जी के चिट्ठे के बीच, टिप्पणियां गिनते और कहते कि अब तक नहीं माने. सोच रहे होंगे कि
कितना बड़ा पेट है., आखिर कब भरेगा.किसी ने
वीर कहा तो किसी ने हाथी- हाथी अपनी मस्त चाल चलता है, भले ही... कितना भी भौंके. अतः आप चलते रहें. सेकेंड हाफ से हमारा साबका नहीं किन्तु पहला हिस्सा तो हमारे लिये ही कहा है न!!
पंगेबाज ईमेल के जरिये सारी दुनिया से पंगा लेने तैयार खड़े नजर आये और कहने लगे, बस दुख का कारण बता दो बाकि हम देख लेंगे. बहुत स्नेही जीव हैं!!! धार्मिक तो खैर हैं ही!!
एक दो तो इतने भावुक हो उठे लिखते लिखते ऐसा लिख गये कि
हमें लगा अपना ही शोक संदेश पढ़ रहा हूँ. घबरा सा गया मैं.
भाई अरविन्द मिश्रा तो ऐसा सटपिटियाये कि कहने लगे आगे से जितनी कविता सुनाओगे, बिना कुछ बोले सुना करुँगा, बस वापस आ जाओ. हमें लगा
ये तो एक उपलब्धि ही कहलाई.अनेकों ईमेल मिले, कोशिश की कि जितना बन पाये, जबाब दे दूँ, फिर भी कितने अब भी पेन्डिंग है. सभी का आभार.
वैसे दो एक ईमेल ऐसे भी रहे कि क्या कहें. कहते हैं अच्छा ही हुआ कि
आप खुद ही हट गये वरना तो हटाने के क्रेन बुलवाना पड़ती. यह आभास आपकी फोटो देख कर हो रहा है.
इन सबके साथ आज जब
मां भवानी ने फटकारा, पुचकारा, प्यार जताया तब तो कुछ सोचने को शेष रहा ही नहीं.
मां भवानी, क्षमा करना, आपको दुखी किया बेवजह.
कल मेरे
अनुज शिव मिश्र जी के ससुर साहब का निधन हो गया. ऐसी दुखद घड़ी में भी वो समय निकाल कर मनुहार करने आये ईमेल द्वारा,
कैसे रुकता वापस आने से भाई.ऐसा अपार स्नेह, ऐसा प्रेम, ऐसा मनुहार-आँख भर भर आती है, गला रुँध जाता है, शब्द अटक जाते हैं-क्या कहूँ.
सभी तो आये-सच कहूँ तो भले ही एक वाकया पृष्ट भूमि बन गया मगर वाकई एक दो दिन का आराम चाहता था,
अनुराग भाई और अन्य मित्र समझ भी रहे थे, सो हो गया. किसी से भी कोई शिकायत नहीं, कोई गुस्सा नहीं.
सभी तो अपने हैं.ऐसा ही स्नेह बनाये रखिये. सफर पर पुनः हाजिर होता हूँ आप सबके साथ.
सभी का बहुत आभार.
बेहतरीन मुक्तक भी मिले मान मुन्नव्वल में:
रवि कान्त ने मास्साब की पोस्ट पर कहा:
उड़न तश्तरी के उड़ने का हुआ है क्या असर देखो
चरागें लेके ढूँढे हर गली औ हर शहर देखो
गजल की रूह व्याकुल है रदीफ़ो काफ़िया हैरां
गुरू मायूस बैठे हैं हुई है नम नजर देखो
मास्साब पंकज जी ने कहा:
हमें आवाज देकर के चले हो तुम कहां साहिब
चलो हम साथ चलते हैं चले हो तुम जहां साहिब
यहां तनहाई सूनापन अकेलापन बहुत होगा,
करेगा कौन मेहफिल को हमारी अब जवां साहिब.
राकेश खंडेलवाल जी मेरी पोस्ट पर :
जानता हू लौट कर वापिस पुन: आ जाओगे तुम
क्योंकि यह विश्वास मेरा है, तुम्हें लौटा सकेगा
चाह कर भी राम क्या पथ मोड़ पाये थे शिला से
है पठन संकल्प मेरा जो तुम्हें प्रेरित करेगा
छोड़ सकती लेखनी क्या उंगलियों का साथ बोलो
या जुदा परछाई होती है कभी अपने बदन से
शब्द चाहे बोलिये कुछ और जो चाहे लिखें भी
धार इक बहती रहेगी, नित तुम्हारी इस कलम से
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एक और
ग्रेंड केनियन की फोटो:
