शनिवार, अगस्त 25, 2018

विश्व स्तरीय साहित्यकार



सुन्दरियाँ चाहे वो मोहल्ला सुन्दरी हो, या शहर या प्रदेश या राष्ट्रीय या विश्व सुन्दरी, उनके अन्दर उनकी प्राथमिक योग्यता याने सुन्दरता निश्चित ही होती है. वो सुन्दर होती हैं. सुन्दरियों में भी अधिकतम सुन्दरी विश्व सुन्दरी बन जाती है, मगर मोहल्ला स्तर वाली सुन्दरी भी सुन्दर तो होती है.
यही हाल अन्य क्षेत्रों में अक्सर देखने में आता है. जैसे की पहलवान, मुक्केबाज, धावक, तैराक आदि. सभी किसी भी स्तर के हों मगर होते अपने क्षेत्र के उस स्तर पर धुरंधर ही हैं. ऐसा कभी नहीं होगा कि पहलवान जी राज्य स्तर पर खेलते हैं मगर कभी अखाड़े में नहीं उतरे हैं.
नेतागिरी में भी चुने हुए नेताओं में भी यही देखने को आता है, जिस स्तर पर भी जीत कर आये हों, नेतागिरी के प्राथमिक गुण जैसे मक्कारी, भ्रष्ट मानसिकता आदि तो कम से कम होते ही हैं. इसके बिना कैसा नेता? दो चार अपवाद हो सकते हैं मगर सच कहें तो चार भी ज्यादा कह गए भावुकता में आकर. नेतागिरी में तो कई ऐसे गुणधारी भी नेता बनने की होड़ में हैं जिन्हें कोई पूछ नहीं रहा है. तो उसी प्राथमिक गुणधर्मिता के आधार पर गुंडागिरी में नाम रोशन किये हैं. वैसे तो बहुत महीन रेखा है दोनों क्षेत्रों के बीच और इस पार से उस पार आना जाना लगा ही रहता है. कभी कभी कोई जगा जाए तो मालूम पड़ता है जैसे कि एकाएक मालूम चले अरे, ४० लाख घुस आये बंगलादेश से और हमारे बीच बैठे हैं. फिर सब शांत और फिर आना जाना जारी.
मगर इन सब से भिन्न हिंदी साहित्यकारी, जिसमें लहलहाने और जगमगाने के लिए न तो प्रदेश, न राष्ट्र और न ही विश्व स्तर पर आपको साहित्य रचने की आवश्यकता है. एक बड़े ऊँचे साहित्यकार(विश्व स्तरीय) से चर्चा के दौरान जब मैंने कहा कि मै बहुत मेहनत कर रहा हूँ. हर सप्ताह अखबारों में लिख रहा हूँ. नियमित पत्र पत्रिकाओं में आलेख आ रहे हैं. किताब भी लिख चुका हूँ और एक अन्य किताब भी जल्द ला रहा हूँ. अब आप बतायें कि क्या किया जाये एवं और कितनी मेहनत करूं कि आपकी तरह विश्व स्तरीय न सही, प्रदेश स्तरीय साहित्यकार ही कहला जाऊँ?
वे बड़ी अजीब सी निगाह से मुझे बड़ी देर तक देखते रहे फिर एकाएक बोले; अगर तुम अपना समय लिखने पढ़ने में ऐसे ही लगाते रहे तो नाम कब कमाओगे? बिना नाम कमाए भी कोई स्तरीय हो सकता है क्या?
स्तरीय साहित्यकार कोई अपने लेखन से बनता है क्या भला?
अरे, कुछ मित्रता बनाओ और सम्मान वगैरह अर्जित करो. इसी मित्रता से तरह तरह के पुरूस्कार से नवाजे जाओ. विभिन्न साहित्यिक सम्मेलनों में शिरकत करो. इन कार्यक्रमों में मुख्य अथिति एवं अध्यक्ष बनो. फिर भले ही तुम अपना खुद कुछ भी न लिखो मगर दूसरे के लिखे पर अपने विचार लिखो, बोलो और उसकी बेहतरी के लिए सुझाव दो, तब जाकर एक लंबे समय में स्तरीय कहला पाओगे. ऐसे लिखते रहे तो सिवाय समय खर्चने के कुछ भी हासिल न होगा.
एक बार शहर, प्रदेश और देश में पहचान बना लो तो विश्व स्तर पर तो एक दो विश्व हिंदी सम्मेलन में इन्हीं सब परिचयों के चलते या तो बुलावा बुलवाने का इंतजाम कर लो या खुद ही चले जाओ तो भी बिल्ला वगैरह तो मिल ही जाता है. फिर किसे मालूम की बुलवाए गए हो या खुद आ गए हो. सब पहचान और नेट्वर्किंग की बात है. विश्व हिंदी सम्मेलन में शिरकत अपने आप तुमको विश्व स्तरीय बना देगी, वरना तो कौन सा हिंदी साहित्यकार विश्व स्तर पर पढ़ा जा रहा है जो वो स्तर हासिल हो.
जो विश्व स्तर पर अपना स्थान बना गए उनके समय न तो विश्व हिंदी सम्मलेन होते थे और न ही स्थान बनाने की हाथापाई. तब वे वाकई लिखा करते थे.
वैसे स्तर हासिल करने का एक नया तरीका और भी है की पहले कोशिश करो की बुलावा मिले विश्व हिंदी सम्मलेन में आने का और न मिलने पर, उस सम्मेलन को ही दौ कौड़ी का ठहरा देने वाला आलेख लिख मारो तो भी सारे न बुलाये गए आपको सम्मानित कर ही डालते हैं और अगली बार बुलाये जाने की संभावनाएं भी बलवती हो जाती हैं.
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में अगस्त २६, २०१८ में:

http://epaper.subahsavere.news/1790548/SUBAH-SAVERE-BHOPAL/26-august-2018#page/8/2

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शनिवार, अगस्त 18, 2018

सिद्धान्त गुजरे जमाने की बात है



डिस्काउन्ट का अपना वैसा ही आकर्षण है, जैसा किसी सेलीब्रेटी का. प्रोडक्ट की कितनी उपयोगिता है, कितनी गुणवत्ता है, सब गौंण हो जाता है, जब उस पर डिस्काउन्ट की घोषणा होती है. डिस्काउन्ट रुपी पुष्परस ग्राहक रुपी मधुमख्खियों को अपनी और आकर्षित करता है झुंड के झुंड में.
जैसे विदेशों में कभी सलमान, कभी कटरीना, कभी शाहरुख आदि अपना कार्यक्रम देते हैं तो क्या कार्यक्रम है, इस बात से ज्यादा उनका नाम भीड़ खींचता है. उन्हें तो स्टेज पर आकर उछलना कूदना है. गाना कोई और गायेगा. फिर भी नाम उनका शो. क्यूँकि उनके नाम में भीड़ जुटाने की ताकत है.
वही डिस्काउन्ट का हाल है. दुकान के बाहर बस इतना बोर्ड लगाने की जरुरत है कि भारी डिस्काउन्ट और फिर देखो, कैसे भीड़ खिंची चली आती है. दुकान के बाहर डिस्काउन्ट और सेल का बोर्ड दुकान में भीड़ बढ़ाने का सफल मंत्र है.
आप दुकान के बाहर बोर्ड लगा कर देखो कि हम बार्गेन नहीं करते, न तो गुणवत्ता से, न ही दाम से. यकीन जानिये, कुछ गिने चुने सिरफिरे भी अगर दुकान पर फटक जायें तो. मगर डिस्काउन्ट और सेल का बोर्ड सबको आकर्षित करता है.
मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह रहा है कि जब कहीं डिस्काउन्ट लगता है तो पत्नी सिर्फ डिस्काउन्ट को सलामी देने के लिए जो कुछ खरीद कर लाती है, वो शायद अगर डिस्काउन्ट न लगता तो न तो उसकी जरुरत थी और न ही खरीदा जाता.
डिस्काउन्ट का स्वभाव है कि वो आपको वो माल बेच लेता है जिसकी आपको जरुरत भी नहीं है. मने अगर ३०% डिस्काउन्ट पर आप वो सामान ले आये जिसे आप बिना डिस्काउन्ट के शायद न खरीदते, तो आप ७०% बेकार में खर्च कर आये हैं.
उस रोज एक ऐसे मित्र कार के चार टायर रिक्शे पर लाद कर लाते मिले जिनके पास कार ही नहीं है. पूछने पर पता चला कि ४०% डिस्काउन्ट चल रहा था सो खरीद लाये. आगे पीछे कार तो खरीदना है ही. देखते हैं कब कार पर डिस्काउन्ट लगता है.
इधर दर्जी के यहाँ डिस्काउन्ट लगा तो हमने भी लगे हाथ बंद गले का सूट सिलवा ही लिया और उस पर सुनहरे तार से लाईन लाईन अपना नाम भी कढ़वा लिये हैं. क्या पता कल को प्रधान मंत्री बन जायें तब कहाँ सिलवाने जायेंगे? कौन जाने तब डिस्काउन्ट मिले न मिले. डिस्काउन्ट का ऐसा उपयोग हमारी दूर दृष्टि और पक्के इरादे का ध्योतक है, जो कि हमारे देश चलाने के लिए सुपात्र होने को साफ दर्शाता है.

हमारे नेता इस व्यवहार को जानते हैं. वे अपने वादे इसी डिस्काउन्ट की तर्ज पर बेचते हैं. जितना बड़ा डिस्काउन्ट याने कि वादे जितने चमकदार, उतनी भीड़, उतने वोट.
वो दिन दूर नहीं, दूर तो क्या होना शुरु हो ही गया है, जब डिस्काउन्ट के चलते लोग हनीमून ऑफ सीजन में डिस्काउन्ट पर मना आयेंगे, फिर शादी मुहर्त देखकर होती रहेगी. वरना तो शादी के मौसम में पहाड़ भी लूटते हैं.
वैसे डिस्काउन्ट का एक अन्य आयाम भी है जिसे निगेटिव डिस्काउन्ट कहते हैं. जिस तरह एकाऊन्टिंग में निगेटिव प्राफिट मतलब लॉस होता है. मगर जिस तरह हार हताशा के बदले अगर सीख बन जाये, लेसन लर्न्ड बन जाये तो हार हार नहीं होती, जिन्दगी की सीख और आने वाली जीत होती है.
निगेटिव डिस्काउन्ट मतलब कि प्रिमियम..याने कि पावरफुल लोगों को निगेटिव डिस्काउन्ट दो और अपना मतलब साधो. वही तो डिस्काउन्ट देने का हेतु है.
प्रिमियम मतलब कि घूस...मौका देखो और निगेटिव डिस्काउन्ट से समझौता करो.
आज का वक्त डिस्काउन्ट का है. फिक्स प्राईज़ की दुकान अब नहीं चलती.
सिद्धान्त गुजरे जमाने की बात है और समझौता आज के ज़ज्बात हैं.    
इसे समझना होगा...
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अगस्त १९, २०१८ के अंक में:



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रविवार, अगस्त 12, 2018

स्वतंत्रता के दायरे समझो, मायने नहीं...



हम साल भर पाप करते ही इसलिए हैं ताकि सालाना गंगा स्नान में उन्हें धोकर गंगा माई हमको पुण्य प्रदान करे. पाप न करेंगे तो गंगा माई धोएगी क्या? पुण्य प्राप्त करना है तो पाप करो. यही हमारा सिध्द नियम है.
वही हाल स्वर्ग पहुँचने का मार्ग दिखाने वाले बाबाओं के आश्रम का है. आश्रम में ऐसे ऐसे निकृष्ट धतकरम होते हैं कि उन्हें देख जान कर अगर नरक भी पहुँच जाओगे तो लगेगा वाकई अगर कोई जगह स्वर्ग है तो वो यही है.
जितना पाप इन पावन नदियों के तट पर और इन सिद्ध बाबाओं के घर पर होता है, उसके सामने सब कुछ पुण्य ही नजर आएगा.
हम उत्सवधर्मी इसी तर्ज पर हर बरस रावण बनाते ही इसलिए हैं ताकि उसे मार सकें. उसका दहन कर सकें. फिर सब तालियाँ बजा कर नाचें कि रावण मारा गया. पाप पर पुण्य की विजय हुई. अंधेरों पर उजाले की विजय हुई भले ही दो दिन से बिजली न आई हो और सारा शहर अँधेरे में डूबा हो. अंधेरों पर उजाले के विजय जुलूसों में जेबकतरों की पौ बारह हो लेती है. रावण तो जाने कब का मारा गया. अब तो गली गली रावण का पुतला बना कर उसे मारने वाले खुद ही रावण से बदतर कृत्यों में लिप्त है. गली गली सीताओं का अपहरण हो रहा है. अब बचाने को कोई हनुमान तो दूर, थाने में रिपोर्ट लिखने को हवलदार भी तैयार नहीं. कानून बनाने वाले इन रावणों के आका हैं और कुछ तो खुद ही रावण को भी शर्मसार करने में जुटे हैं. यही आका सबसे जोरशोर से राजधानी में दशहरे पर तीर चलाते हैं नकली रावण को मारने. जनता ताली पीटती है कि रावण मारा गया. इस तरह जनता को गुमराह कर असली रावण फिर साल भर के लिए मस्ती काटने को निकल पड़ता है. पाप का घड़ा सिर्फ मुहावरे में भरता है. असल में तो अब पाप का घड़ा बनाने वाले हों या क़ानून बनाने वाले, उसमें सुराख की समुचित व्यवस्था बना कर रखते हैं. पाप करते चलो, सुराख उसे कभी भरने न देगा.
साल भर कबूतरों को पकड़ कर पिंजड़े में बंद किया ही इसलिए जाता है ताकि स्वतंत्रता दिवस पर हर शहर, राजधानी से मंत्री जी लोग उन्हें उड़ा कर आजाद करें और जनता ताली पीटे कि देखो देखो, वो आजाद हो गए. आजादी का उत्सव मन गया. झंडा लहर गया. नेता जी के भाषण हो गये. आजादी के गीत बज गए. मिठाई बाँट दी गई. तमाशा खत्म. अब घर जाओ, अगले साल फिर आना.
हर मूंह में माइक घुसा कर प्रश्न पूछने वाला ये मीडिया कभी इन कबूतरों से अपना जाना पहचाना प्रश्न क्यूँ नहीं पूछता है कि हे कबूतर जी, आपको आजाद होकर कैसा लग रहा है? अब आप उड़कर कहाँ जायेंगे,क्या कमाएंगे, क्या खायेंगे?
कबूतर भी आम जनता की तरह वैसा ही मूक और निरीह प्राणी है, जिसे अपनी नियति पता है. वो हर मुसीबत में आँख मींच कर राम नाम जपने लगता है और हर दशा को प्रभु की मरजी मान कर इत्मीनान धर लेता है. उसके लिए ‘स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’ मात्र एक वैसा ही आजादी के समय का नारा है, जैसा आज ‘गरीबी हटाओ, फलाने को जिताओ’ जो १०० रुपये की एवज में वो हर चुनावी सभा में लगाता है. यह चुनावों के महापर्व पर उसकी कमाई का साधन है. सच सोच है कि हकीकत में अगर गरीबी हट जाए तो अगले चुनाव में नारे कौन लगाएगा? और स्वतंत्रता अगर सबको दे दें तो अगले साल स्वतंत्रता दिवस पर आजाद किसे करेंगे?
इन आजाद किए गए कबूतरों में कुछ कबूतर तो बार बार पकडे जाने के इतना अभ्यस्त हो गए हैं कि नेता जी के आजाद करते ही कुछ देर में उड़ कर खुद ही फिर से पिंजड़े में आकर बैठ जाते हैं. कबूतरों का एक वर्ग ऐसा भी होता है जो कुछ देर उड़ने के बाद नजदीक के पेड़ो में बैठकर, बहेलिओं के आने का इंतज़ार करने लगता है. जैसे ही बहेलिया आता है, यह आत्मसमर्पण कर देते हैं. कुछ के लिए बहेलिओं को जाल बिछाना पड़ता है मगर आखिरकार कैद में आ ही जाते हैं.
एक छोटा सा उत्साही युवा कबूतरों का वर्ग ऐसा भी होता है, जो इस आजादी को असल आजादी मान कर, नेता जी के भाषण पर भरोसा करते हुए, खुले आसमान में ऊँची स्वच्छंद उड़ान भर देता है. उसे क्या पता कि उस उंचाई पर इन्हीं के पाले बाज़ उसके आने का इंतज़ार कर रहे हैं. बाजों को भी तो उत्सव की दावत उड़ाना है.
इसीलिए बुजुर्ग कबूतर युवा कबूतरों को समझाते पाये जाते हैं कि साल में एक दफा थोड़ी देर के लिए ही सही, अगर आजाद उड़ान भरना चाहते हो, तो इनकी गुलामी को अपनी नियति मानकर चुपचाप पिंजड़े में बंद रहना सीख लो, वरना ये धरती पर दिखते जरुर हैं, इनके हाथ आसमान तक जाते हैं. यहाँ ये नेता और वहां बाज कहलाते हैं. ऊँचा उड़ोगे तो बाज का शिकार बन जान गंवाने के सिवाय कुछ हाथ न आयेगा.
स्वतंत्रता के दायरे समझो, मायने नहीं. तभी इस स्वतंत्रता के उत्सव का मजा आयेगा वरना तो कौन आजाद है भला?
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में अगस्त १२, २०१८ में:


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शनिवार, अगस्त 04, 2018

अगले चुनाव में वापसी के लिए वापसी ही मुख्य मुद्दा



लड़की रईस परिवार की और लड़का नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय परिवार का. मोहब्बत में पड़ लड़की लड़का शादी की जिद्द ले बैठे. रईस पिता के रईसी चोचले. लड़के को घर जमाई बनाना है मगर सीधे कहेंगे तो कौन मानेगा भला? वो भी तो अपने पिता की इकलौती संतान है. अतः लड़के के पिता को फरमान भेजा गया कि क्या आपका घर इस काबिल है कि हमारी बेटी वहाँ आरामपूर्वक रह पायेगी? लड़के का पिता भी बेटे के प्यार में अपमान झेलने को मजबूर रहा. उसने खबर भिजवाई कि जी, एकदम फिट व्यवस्था है. बहु के लिए कमरे में टीवी लगवा दिया है और कमरे से जुड़ा बाथरुम भी बनवा दिया है जिसमें वेस्टर्न स्टाईल टॉयलेट भी लगवा दिया है. गरीब का बोला सच भी रईस की नजर में झूठ ही होता है. अतः रईस ने कहा कि तस्वीरें दिखाओ. बहरहाल, एक बार अपमान झेल लो तो आप बार बार अपमान झेलने को बाध्य हो जाते हैं. अतः तस्वीरें खिचवाई गई अलग अलग कोणों से और भिजवाई गई. मगर बात मान लेने के लिए तस्वीर मंगवाई गई हो तब तो मानें. इधर तो मामला ही दूसरा था.
अतः कहा गया कि तस्वीर से पता नहीं चल रहा है कि आपके घर में नेचुरल लाईट आती भी है कि नहीं. एक विडिओ बना कर लाओ जिसमें घर की गली के मोड़ से घर में घुसने और कमरे तक जाने का और टायलेट का स्पष्ट चित्र हो. इस मांग का उद्देश्य मात्र इतना है कि या तो परेशान होकर लड़के वाले खुद ही कह दें कि आप अपनी लड़की अपनी रईसों की बिरादरी में ब्याह दो या फिर कह दें कि हमसे इससे ज्यादा न हो पायेगा. अगर आपको नहीं पसंद आ रहा है तो हमारा लड़का ही आपके यहाँ आकर घरजमाई बन कर रह लेगा. बेटी रईस की है. नाजो नखरों में पली है, पिता उसे भला कैसे मना करे तो यह पैतरा काम आ जायेगा.
फिलहाल तो विडिओ का इन्तजार है मगर यह भी तय है विडिओ भी भला क्या तसल्ली करा पायेगा? फिर फरमान आयेगा कि आपके यहाँ एसी नहीं है. दिन रात एसी मकान और कारों में बंद रहने वाली लड़की के लिए नेचुरल लाईट की मांग, यह बात अपने आप में अचंभित करती है. वो भी तब जब बिजली कम्पनी की लाईट सिरे से नदारत है- घंटे भर भी आ जाये तो बहुत. फिर जनरेटर या इन्वर्टर से एक मध्यमवर्गीय परिवार में पंखा भी चल जाये तो जन्नत माना जाता हौ. यूँ भी महानगर के घोर प्रदुषण में कौन भला चाहेगा कि नेचुरल रोशनी और हवा में रहा जाये. होना तो यूँ चाहिये कि ऑक्सीजन मास्क है कि नहीं, वह पता किया जाना चाहिये. पता तो यह  करना चाहिये कि घर पूरी तरह से सील बंद है कि नहीं ताकि बाहर का प्रदुषण घर में न घुसे.
शायद विडिओ बनाया जा रहा है, पेश किया जायेगा मगर साथ ही साथ रईस के घर में यह तैयारी भी चल रही है कि अगला कदम क्या होगा? जल्दबाजी में भले और कुछ न सोच पायें तो भी कम से कम समय खरीदने के लिए इतना तो कह ही सकते हैं कि हम यह चाहते हैं कि आप बरातियों का स्वागत पान पराग से करें, क्या आपके पास इसका बजट और इन्तजाम है, कृपया सबूत भेजें.
यही हाल देश से कर्जा ले भागे देश के दामाद भूपू सांसद दारुकिंग का है. रुपया बोलता है तो सुना था मगर रुपया पोण्ड में भी बोलता है, यह अब जाना. रईस रुपये में हो, पोण्ड में हो या डॉलर में, रईस तो रईस ही होता है और उसके चोचले हर जगह एक से होते हैं.
नागरिक हमारा, कर्जा खाया वो हमारा, सारा जीवन जिस देश में गुजारा वो हमारा और अब जब जेल जाने का समय आया तो फैसला तुम्हारा? तुम हमसे पूछ रहे हो कि उसे कहाँ रखोगे? क्या खिलाओगे? कैसे स्वागत करोगे?
हर बात में झूठ बोलने के आदी हम, इस केस में क्यूँ सच्ची तस्वीर और विडिओ लेकर उस विदेशी कोर्ट में घिघिया रहे हैं. हजार फोटोशॉप करके देश को गुमराह करने वाले आज एक फोटोशॉप ऐसी नहीं कर पा रहे हैं कि वो विदेशी कोर्ट गुमराह हो कर ही सही, हमारे अपराधी को जो हमारे देश का नागरिक है, उसे हमें हमारी न्यायिक प्रक्रिया से गुजारने के हमें सौंप दें. अरे, भेज दो ताज होटल की तस्वीर और बता तो उसे आर्थर रोड़ जेल. चुनाव जीतने के लिए ऐसी हरकत कर सकते हो मगर अपराधी को लाने के लिए नहीं?
जरुर कुछ न कुछ तो बात है कि आज हम फोटोशॉप न कर वही तस्वीर भेज रहे हैं जो सही के हालात हैं. डिजिटल और स्मार्ट इंडिया की यह कैसी तस्वीर कि एक विदेशी कोर्ट आपको आपका नागरिक सौंपने को तैयार नहीं डिजिटल इंडिया में ले जाने के लिए?
एक बार हिम्मत दिखा कर कहो तो कि घर मेरा, नाच भी मेरा है, तुम कौन हो कहने वाले कि आंगन टेढ़ा है?
मगर अगर हम यह हिम्मत दिखायेंगे तो कहीं कुछ राज ऐसे न खुल जायें कि हिम्मत का दिवाला निकल जाये!! एन्टीगुआ ने तो बता ही दिया कि कैसे भारत से उन्हें क्लीयरेन्स दिया गया ऐसी ही दूसरे कर्जा खाकर भागे नागरिक के लिए जो अब एन्टीगुआ का नागरिक बन गया है.
ऐसे में यही मुफीद है कि भूल जाओ वो हमारा नागरिक है फिलहाल तो उनका मेहमान है जो अब वापस नहीं आने वाला. ये वही वाला काला धन है जिसे सब जानते हैं कि देश का है मगर विदेश में हैं और लाख दावों के बावजूद भी वापस नहीं आने वाला. वापस से खैर भारत में आ बसे गैर नागरिक भी नहीं जाने वाले. दिखावे के लिए दो पाँच हजार घुसपैठिये इधर उधर कर भी देंगे तो भी चुनाव के लिए एक मस्त मुद्दा तो मिल ही गया है.
अगले चुनाव में वापसी के लिए वापसी ही मुख्य मुद्दा बन कर रह जायेगा – चाहे काला धन की हो, काले धनधारी की हो या घुसपैठियों की हो.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अगस्त ५, २०१८ के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/30913506

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