एक दिन दफ्तर से लौटते वक्त स्टेशन से निकलने के लिये सीढ़ी उतर रहा था थोड़ा सा तेजी से चलते हुए. आगे एक बच्चा अपनी मम्मी का हाथ पकड़े हँसते हुए उतर रहा था. मैने माँ और बेटे को ओवर टेक करते हुए दो तीन सीढ़ी पार कर ली. तभी पीछे से बच्चे की आवाज सुनाई दी. "मॉम, आई लॉस्ट" (माँ, मैं हार गया). उसकी माँ ने उसे समझाया कि बेटा, वो आपसे बहुत बड़े हैं, इसलिये आगे चले गये. आप भी जब उतने बड़े हो जाओगे तो ऐसे ही चल पाओगे.
मैं रुक गया. मैने हाँफने का अभिनय किया. बच्चे की माँ की तरफ देखा. एक खूबसूरत महिला थी. बालक कुछ ३ साल के आसपास का. फिर मैने बच्चे की ओर मुखातिब होकर कहा, "अरे, मैं तो थक गया और आप जीत गये. स्लो एंड स्टडी विन्स द रेस." बच्चा खूब खुश हो गया. मुझे भी बहुत खुशी हुई बच्चे में आत्म विश्वास लौटता देख. उसकी मम्मी भी मुस्कराई. मैं भी मुस्कराया.
मैं नहीं चाहता था कि उसे इस छोटी सी बात से कुछ दुख पहुँचे जिससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता मगर उसका यही दुख आगे चल कर एक कुंठा बन सकता था जो और गहरा होकर एक कभी न निकलने वाली ग्रंथी का रुप ले लेता. इसी तरह की बातें कि वो हमसे ज्यादा सामर्थवान है चाहे पैसे से, उम्र से, ताकत से, बुद्धि से, पावर से, इसलिये हम कुछ नहीं कर सकते, एक कुंठा और फिर ग्रंथी का रुप लेकर कितने ही लोगों में विद्यमान है.
वैसे लगता है उसकी माँ मेरे पूरे भाव नहीं समझ पाई या कई लोग शर्म के मारे कम बोलते हैं. अपनी फिलिंग्स नहीं कह पाते या समझी होगी कि कोई बीमार आदमी है, पता नहीं वरना तो इतने ऊँची विचारधारा के व्यक्ति से मिलने का गर्व उसके चेहरे पर छलक आता. शायद आभारवश कॉफी पर चलने को भी कहती अहसान उतारने को. सामने ही तो थी कॉफी शॉप. साथ बैठते थोड़ी देर तो बच्चे को खरगोश, कछुये की कहानी भी सुना देता और उसकी मम्मी को भी बच्चों के मनोबल बढ़ाने के कुछ गुर बताता.
शायद पैसे न रहे हों. अरे, एक बार कह देती तो क्या मैं न पेमेन्ट कर देता कॉफी का. आखिर लगता ही कितना मगर वही शर्मीलापन आड़े आ गया होगा.
मैने धीरे से देख लिया था कि वो अँगूठी भी नहीं पहने थी यानि उसके पति से या तो संबंध विच्छेद हो गया होगा या ये भी हो सकता है, उसने इससे शादी से ही मना कर दिया हो. कुछ भी तो संभव है. मैं सोचने लगा कि बेचारी की अभी उम्र ही क्या है. कैसे काटेगी सामने पड़ी पहाड़ जैसी जिंदगी. आँख भर आई मेरी.
माना कि साथ बच्चा है तो जब तक बच्चा है तभी तक. बड़ा हुआ नहीं कि समझो अपनी दुनिया में मस्त और यह बेचारी अकेली बच रहेगी. शायद इसी से मानसिक स्थितियाँ सामान्य न हों और भूल गई हो कॉफी के लिये कहना. जबकि यदि कॉफी के लिये कहती तो दो पल बैठ लेते. वैसे भी मुझे घर ही तो जाना था, कुछ देर बाद चला जाता. घर कोई भागे थोड़ी न जा रहा है. एक दुखिया का अगर कुछ दर्द कम होता है तो यह तो इन्सानियत का तकाजा है. मैं क्यूँ पीछे हटने लगा.वो अपना दर्द सुना लेती, दो बूँद आंसू बहा लेती मेरे कंधे पर सर रख कर. कहते हैं दर्द बांटने से हल्का हो जाता है. मुझे क्या फर्क पड़ना था. मेरा कंधा कोई शक्कर की डली तो है नहीं कि उसके दो बूँद आंसू से गल जाता. यूँ भी मेरा कंधा कर क्या रहा था सिवाय कमीज संभालने के, किसी के काम ही आ लेता. मैं भी साहनभूति के दो शब्द कह लेता, मुझे भी हल्का लगता. इस तरह विचारों की उधेड़ बून में तो न रहता.
खैर, बाद में समझ आया होगा तो बहुत दुख हुआ होगा उसे या अपने शर्मीले स्वभाव को कोस रही होगी, मगर मुझे इन सब से क्या? मैं तो सीधे घर लौट आया. अरे, एक पत्नी है, दो जवान लड़के हैं. मैं क्यूँ पड़ने लगा उसकी झंझटों के विचार में. वो जाने और उसका बच्चा. मैने तो अपना कर्तव्य निभा दिया, बस्स!!
मैं भी कहाँ बचपन की बात बताते बताते कहाँ पहुँच गया, यही होता है जब विचारों की उधेड़ बून में रहो!!