शनिवार, सितंबर 29, 2018

डीलरशिप क्यूँ बदल गई, इस पर सब चुप हैं



चुनाव में हार जीत का निर्धारण मुद्दे करते हैं. हर चुनाव के पहले न जाने कैसे एक ऐसा मुद्दा फूट पड़ता है जो चुनाव की दिशा निर्धारित कर देता है. अच्छी खासी चलती सरकार न जाने क्यूँ एकाएक पांचवे साल में विपक्ष को एक ऐसा मुद्दा दे देती है कि खुद का बना बनाया मजबूत किला नेस्तनाबूत हो जाता है?
इधर देखने में आ रहा है कि मुद्दे भी ऐसे आने लगे हैं मानों की चुनाव नहीं, युद्ध होने जा रहा हो. होता तो खैर युद्ध ही है आजकल. कहाँ वो भाईचारा देखने में आता है अब, जहाँ चुनावी द्वन्द चुनाव तक ही सीमित रहती थी. अब तो वो चुनाव के बाद भी पूरे पाँच साल व्यक्तिगत द्वन्द और दुश्मनी सी बन जाती है. विपक्ष के लिए वो कहावत तो मानो दुनिया भूल ही गई है कि वो एक अच्छी सरकार का पथ प्रदर्शक होता है. निन्दक नियरे राखिये को भूल भाल कर निन्दक को देशद्रोही ठहरा कर पाकिस्तान भेज दिजिये की बात कहने का जमाना आ गया है.
युद्ध से समानता की बात चली तो याद आया कि हाल ही में जबरदस्त चुनाव लड़ा गया बोफोर्स तोप से. तोप ऐसा मुद्दा बनी कि न जाने किस किस तरह से दागी गई और पूरी जमी जमाई सरकार औंधे मूँह गिर पड़ी. दागने वाले सरकार बना कर बैठ गये.
अब नया मुद्दा आया है. अबकी बार जेट विमान से बम बर्षा की जायेगी. रोफेल विमान उड़ान भरने को तैयार हैं २०१९ के चुनावी संग्राम में. निश्चित ही हवाई बमबारी भारी पड़ने वाली है. हवा हवाई का अपना वजन होता है. हारेगा कौन और जीतेगा कौन- यह तो नहीं पता! किन्तु इतना जरुर ज्ञात है कि युद्ध के बाद जिस तरह दोंनों देश पुनः अपने आप में मशगूल होकर पुर्नस्थापित हो ही जाते हैं किन्तु हारती मानवता है. मरते इन्सान हैं चाहें जिस देश के हों. दोनों देश के बच्चे अपना पिता हारते हैं. दोनों देश की माँयें अपने बेटे हारती हैं. दोनों देश की बेटियाँ अपना सुहाग हारती हैं. दोनों देश अपने बेटे हारते हैं. दोनों अपने नागरिक हारते हैं. फिर भी विजेता सोचता है कि हम जीत गये. क्या जीते और किस जीत का जश्न?...क्या हारे और किस हार का गम? शायद दोनों ही देश न बता पायें..सच तो ये है कि दोनों ही हारे हैं. जीता कोई ऐसा अहम है जिस अहम की कोई माईने नहीं..कोई औकात नहीं...कोई वजह नहीं.
वही हाल चुनावी संग्राम का है. यहाँ हारने वाला इन्सान बस आम जनता है बाकी सब युद्ध का सा ही हाल है. जाने कौन जीतता है? बस मुखौटा बदल जाता है, बाकी तो खून और अरमान आमजन के बहे. उसकी किस को कोई फिकर नहीं.
घंसु जैसे आमजन तो कहते पाये गये कि इस बार चुनाव में तो राईफल चलेगी? तिवारी जी उसे समझा रहे हैं कि राईफल नहीं, रैफल है.
घंसु जानना चाह रहा है कि तो यह रैफल क्या है?
तिवारी जी बता रहे है कि रैफल एक तरह का जुँआ है जिसमें सब खिलाड़ियों को एक टिकिट बांट दी जाती है, और उसी टिकिट का दूसरा हिस्सा एक डब्बे में डालकर ड्रा निकाला जाता है और जिसका टिकिट निकलता है वो विजेता घोषित हो जाता है. उसे जीता माना जाता है.
एकाएक एक अन्य ज्ञानी अवतरित हुए और कहने लगे कि आप क्या बात करते हैं? रोफेल तो युद्धक विमान की डील है जिसमें वो विमान खरीदे जा रहे हैं जो युद्ध में उडाये जायेंगे. हल्ला बस इसलिये मच रहा है कि दाम तीन गुना करके मुनाफा मित्र का दुगुना करने की जुगत हल्ला मचवा गई है.
डील में क्या मुनाफा है और क्या भागीदारी..वो अलग बात है. कोई कहता है मारुति ८०० के बदले ऑडी के दाम में फर्क तो होना ही है मगर डीलरशिप क्यूँ बदल गई, इस पर सब चुप हैं.
गाड़ी के मॉडल बदलने से डीलरशीप बद दें...तो सरकार की रहनुमाई से पार्टी भी बदले ..का सफर तय करना है.
फैसला जनता के हाथ में है..देखो वो क्या कहती है २०१९ में!!
बस एक मुहावरा याद आता है!!...
नाऊ भाई नाऊ भाई कितने बाल?
सरकार!! सब्र रखिये बस दो हाथ आगे ह!! 
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार सितम्बर २९, २०१८ में:


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शनिवार, सितंबर 22, 2018

भजन में वजन है इसीलिए आज तक टिका हुआ है


भजन की शुरुवात कहाँ से हुई यह तो पता नहीं मगर हुई प्रभु वंदना के लिए थी. यह किसी देवी या देवता की प्रशंसा में गाया जाने वाला गीत है. मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास, रसखान आदि के भजन आदिकाल से प्रचलित रहे हैं.
पहले गांव शहरों में लोग मंडली बनाकर रात रात भर भजन किया करते थे. भक्ति भाव ही प्रमुख भाव होता था. कभी प्रभु के प्रति अपना धन्यवाद प्रेषित करने के लिए तो कभी प्रभु से अपने लिए कुछ मांगने के लिए तो कभी यूँ ही आनन्दपूर्वक. सभी में भजन का इस्तेमाल होता. जैसे आजकल रैली के माध्यम से ही मांग भी की जाती है, विरोध भी किया जाता है और धन्यवाद भी दिया जाता है.
एक दौर आया और फिल्मी भजनों का सिलसिला चल पड़ा. एक से एक भजन गाये गये फिल्मों में जो फिल्मों के परदे से होते हुए मंदिरों और मंडलियों में प्रवेश कर गये. एक से एक धुन पर भजन गाये जाने लगे. जो फिल्मों में आते उनके लिए तो संगीतकार धुन तैयार करते मगर जो पुराने औए अन्य भजन थे उसे लोग किसी भी फिल्मी धुन में ढाल कर गाने लगे. मुद्दा तो प्रभु को रिझाने का ही था.
रिझाने का हाल तो यह रहता है कि हम इन्सानों को इसमे महारत हासिल है और इस हेतु न जाने कितनी तिकड़म हम कर गुजरना जानते हैं. आमजन प्रभु को रिझाने के लिए भजन गाये तो नेता आमजन को रिझाने के लिए जुमले सुनाते हैं. एक भक्ति भाव का पुट इसमें भी रहता ही है.
प्रभु को भी तभी तक रिझाया जाता है जब तक काम सध न जाये तो आमजन कोई प्रभु से बड़े तो नहीं है. नेता भी उनको तभी तक रिझाते हैं जब तक की वोट न पड़ जाये.
फिर भजन का व्यवसायीकरण शुरु हुआ. बड़ी बड़ी ऑर्केस्ट्रा की तर्ज पर भजन मंडली और जगराता कम्पनियाँ और गायक गायिकायें रातों रात छा गये. लाखों रुपये लेकर भजन गाने आते और जगराता कराते. तरह तरह के म्यूजिकल इन्सट्रूमेन्टस बजते, डिस्को भजन तक आ गये. सब बदलती दुनिया है. हर बात के तरीके बदलते रहते हैं. अब तो चुनाव लड़वाने के लिए बड़ी बड़ी कंपनियाँ ठेके लेती है. एक से बढ़कर एक चुनावी चाणक्य मोटी रकम लेकर चुनाव की रणनिति तय करते हैं. परिवर्तन ही संसार का नियम है.
इसी परिवर्तन के नियम तहत हाल ही में बाजार में तूफान खड़ा हो गया. एक प्रसिद्ध भजन गायक का बरसों से भजन गाना ऐसा फला कि अच्छे अच्छे युवा दांतों तले ऊंगली दबा बैठे. बुजुर्गों को भजन में खोया विश्वास वापस जागा. एक उम्मीद की किरण नहीं बल्कि पूरा सूरज ही उग आया. ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन की तर्ज पर भजन गायक जो कि ६२ पार है, की आधी से भी कम उम्र की सुन्दर बाला के साथ कॉमन लॉ में रहने की बात जग जाहिर हुई. वो भी तब जब इस गायक को पूर्व में तीन पत्नियाँ तलाक देकर अलग हो चुकी हैं. अच्छे अच्छे हिम्मत छोड़ बैठें, निराशा और हताशा में जान गवां बैठें मगर ईश भक्ति और भजन की ही ताकत है कि बंदा न तो हताश हो रहा है और न ही ईश्वर के प्रसाद की स्पलाई बंद हो रही है.
एकाएक समाज में नई जागृति आई है. जिसने जीवन भर भजन न गाया वो भी ललायित है कि कैसे भजन सीखा जाये और गाया जाये. भगवान में खोया विश्वास भी पुनः जाग उठा है.
ऐसे ही चमत्कार खोई और बुझती आस्थाओं को पुनः जगा जाता है फिर एक लम्बे समय तक ढाक के वही तीन पात. ऐसा ही चमत्कार दिल्ली के मफलर मैन लेकर आये थे मगर ढाक के तीन पात थोड़ा जल्दी ही हो गया. ५६ इंच का सीना भी ४ साल में ही घट कर ३६ से भी कम का रह गया. मगर एक बार को तो हवा बना ही गये.
उम्मीद तो यही है कि भजन की ताकत बरकरार रहे और भले ही कॉमन लॉ में रहें मगर कुछ समय को तो टिके ही रहें.
शायद यही भजन में वजन है और आदि काल से आजतक टिका हुआ है.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार सितम्बर २२, २०१८ में:


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रविवार, सितंबर 16, 2018

आँख खुली रखना जागना नहीं है, जागरुक होना जागना है.


जिस तरह हर पर्व की एक अलग पहचान होती है, वैसे ही चुनाव की भी है. यह लोकतंत्र का एक बड़ा पर्व है. बताते हैं इस दौरान पूर्व चयनित नेता नगर वापस लौटता है. उसके भीतर का पिछले चुनाव जीतने के बाद से मर चुका इंसान पुनः अगली जीत तक के लिए जीवित हो जाता है. वह एकाएक जेड सुरक्षा से निकल आम जनता के बीच एकदम सुरक्षित महसूस करने लगता है. वह पुनः संवेदनशील हो जाता है और आम जनता की समस्याओं पर उसकी आँख की अश्रुग्रंथी पुनः झिरने लगती है, मानो पाँच से सूखे पड़े कुँए में एकाएक झिर फिर से खुल गई हो.
जो नेता पिछला चुनाव हार गये थे या जो इस बार गुंडई का राजमार्ग पार कर नेतागीरी में उतरे हैं,वो भी सफेद कुर्ता पायजामा पहन कर बगुलाभगत की तरह सजधज कर आम जनता के बीच हाथ जोड़ कर चले आते हैं. फिर होड़ लगती है कि कौन आमजनता को कितना बेवकूफ बना सकता है?
इस पर्व में हर जाति धर्म को लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. अमीरों और अभिजात्य वर्ग का तो रुपया ही सब कुछ होता है अतः वो धर्म और जाति के बंधन से मुक्त इस पर्व पर वो पिकनिक मनाने निकल जाते हैं. उनकी जगह उनका रुपया इस उत्सव में उनकी हाजिरी लगता है और बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. जाति धर्म गरीबों के हिस्से की जागीर है जो उन्हें डराने से लेकर बांटने तक के लिए काम आता है. नेता जाति और धर्म के नाम पर क्या खेल खिलाना है और क्या खेल खेलना है, बखूबी जानते हैं. यह चुनावी पर्व इस खेल का पाँच साला ओलम्पिक का सा महत्व रखता है.
जिस तरह भयंकर मधुमेह की बीमारी से पीड़ित व्यक्ति मात्र मिठाई का नाम सुनकर उसके स्वाद को अहसास कर प्रसन्न हो लेता है. वो यह भली प्रकार जानता है कि अब यह मिठाई उसके नसीब में नहीं. वैसे ही गरीब आम जनता के लिए भी चुनाव के वक्त नेताओं के किये वादे कुछ देर को ही सही, एक प्रसन्नता की अनुभूति तो दे ही जाते हैं. अच्छे दिन, बैंक में रुपया, नौकरियों का अंबार, किसानों की सरकार आदि ऐसी ही कुछ मिठाईयों के नाम हैं, जो ये नेता इन्हें चुनाव के दौरान सुनाते हैं. नेता उन गरीबो में आस जगा देता है, जो उनके लिए अगले पाँच सालों के इन्तजार को झेल जाने का संबल बन जाता है.
आस में जिन्दा रखने की ताकत है. आस संजीवनी है. शायद इसीलिए वो माँ बाप जिनके बच्चे विदेशों में जा बसे हैं, लम्बा जीते हैं क्यूँकि उन बुजुर्गों में एक बार उनके वापस आने की आस बाकी रहती है, जो जहाँ एक ओर उनके आँसू गिरवाती है तो दूसरी तरफ उनके जिन्दा बने रहने की वजह बनती है.
अदालतों के फैसले का एक लम्बा सिलसिला भी उन कैदियों में वो ही आस भर देता होगा कि शायद अगली पेशी में छूट जायें और देखते देखते आजीवन कारावास के १४ साल इसी आस और इन्तजार के खेल में बीत जाते होंगे. वरना तो अगर अदालत पहले दिन ही फैसला दे दे और फिर बिना किसी आस के उन चाहरदिवारियों के बीच १४ साल काटने हों तो शायद एक साल में ही वो कैदी दम तोड़ दे. मुझे लगता है अदालतों में लगता एक लम्बा समय, छोटी अदालत से बड़ी अदालत का सफर एक अभिशाप नहीं, ऐसे लोगों के लिए वरदान ही है. इसे जारी रहना चाहिये.
घंसू को चुनाव बहुत पसंद हैं. वह समस्त राजनितिक दलों पर समदृष्टि रखता है. वह दलगत राजनिती से ऊबर चुका है. वह हर दल की रैली और चुनावी सभा में जाता है. वह हर दल के जिन्दाबाद का नारा उठाता है. उसे इस हेतु नोट मिलते है. दारु, गोस्त, पकोड़े, समोसे, पूरी, सब्जी, जलेबी आदि उसका पेट भरते हैं. देने वाला नेता हिन्दु है कि मुसलमान, पाने वाला तो उसका पेट ही है जिसे भरना उसके जिन्दा रहने के लिए जरुरी है.
नोट वोट की तरह ही छुआछूत से परे होता है. हिन्दु दे तो, मुसलमान दे तो,वह नोट ही रहता है. दरगाह वाला नोट घूमते फिरते मंदिर में चढ़ जाता है और मंदिर वाला दरगाह में. घंसु भी नोट के बदले वोट और हर प्रत्याशी के लिए पोस्टर चिपकाने से लेकर बैनर लगाने तक का काम करता है. चुनाव के दौरान ही उसकी कोशिश होती है कि आने वाले समय के लिए भी कुछ रकम सहेज ले.
सहेज कर तो खैर वो बैनर का कपड़ा बचा कर अपने कफन के लिए भी रख लेता है. उसे पता है कि अगर अगले चुनाव के पहले वो मर गया तो ये नेता नहीं लौटने वाले उसके कफन का इन्तजाम करने. इनका अपनापन चुनाव तक ही सीमित है.
इतना समझदार तो खैर हर आमजन है मगर ऐसी समझदारी किस काम की कि आप खुद ही सामने वाले के लिए मखमल की शेरवानी का इन्तजाम करवा कर खुद के लिए कफन सहेजो.
समझ सको तो जागो. आँख खुली रखना जागना नहीं है, जागरुक होना जागना है.  
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार सितम्बर १६, २०१८ में:


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शनिवार, सितंबर 08, 2018

तेल में आग और रुपये पर पानी


तिवारी जी का पुराना बकाया है घंसू पर. आज जब तिवारी जी ने पुनः तकादा किया तो घंसू भड़क उठे. उधार का व्यवहार ही यह है कि जब अपना ही पैसा वापस मांगो तो भीखमंगे से बत्तर नजर आते हो.
क्या मतलब है तिवारी जी आपका? कोई भागे जा रहे हैं क्या?
तिवारी जी भी गुस्से में आ गये बोले कि भाग तो नहीं रहे मगर रुपया भी तो वापस नहीं कर रहे हो? चार साल हो गये. दो महिना में लौटा देंगे बोल कर लिया था. हर चीज की एक हद होती है. रकम भी छोटी मोटी तो है नहीं, पूरे ५० हजार हैं. वो तो भला मानो कि हम ब्याज नहीं लगा रहे! किसी किसान से पूछ कर देखो कि सरकार कैसे ऋण देती है और कैसे ब्याज वसूलती है? हमारी जगह सरकार से कर्जा लिए होते तो अब तक किसी पेड़ में टंगे मिलते आत्म हत्या करके.
घंसू थोड़ा सकते में आ गये मगर रुपये तो हैं नहीं लौटाने को, तो कुछ न कुछ तो माहौल खींचना ही पड़ेगा. ये घंसू ने मौजूदा सरकार से खूब सीख लिया है पिछले चार सालों में. अतः घंसू ने पैंतरा बदला और बोले कि तिवारी जी आप तो पढ़े लिखे हैं. आप समझदार हैं. ऐसा बोल देने से सामने वाला बेवकूफ बनने को तैयार हो जाता है, यह घंसू जानता है. वो आगे बोला - देखिये रुपये की हालत? कितना गिर गया है. फिर इसके चलते पैट्रोल और डीज़ल के भाव में भी आग लगी है. थोड़ा बाजार संभल जाने दिजिये. रुपया मजबूत हो जाने दिजिये, लौटा देंगे आपका पैसा.
तिवारी भड़क गये कि क्या सोच कर लिये थे उधार? और फिर रुपये के गिरने से तुम्हारा क्या लेना देना? कोई डॉलर में कर्जा लौटाने की सोच रहे हो क्या हमारा? पैट्रोल में आग लगे या पानी, तुम तो अपनी साईकिल में घूमते हो, तुम्हारा क्या बनना बिगड़ना है इससे? जबरदस्ती की बहानेबाजी करते हो. कभी तेल में आग तो कभी रुपये पर पानी.
’कमजोर इन्सान पर तो सब जोर चलाते हैं’ घंसू रुँआसे से हुए बोल रहे हैं. साहेब भी तो चार साल पहले बोले थे कि १५ लाख सबके खाते में डलवा देंगे, उनसे क्यूँ नहीं कुछ कहते आप? वो ही आ जाते तो हम आप का कर्जा आपके मूँह पर दे मारते. हमें भी कोई अच्छा नहीं लगता है कर्जा अपने उपर रख कर.
आजकल तो वैसे भी अपनी गल्ती का ठीकरा दूसरे के सर पर फोड़ने का फैशन चल पड़ा है. रुपया गिरा तो १० साल पहले की नीतियों का दोष. पैट्रोल के दाम बढ़े तो पुरानी सरकार के कर्जे की वजह से. काला धन नहीं आया तो २० साल पहले के किसी नियम की वजह से. नोटबंदी फेल हो गई तो पुरानी सरकार की अदूरदर्शीता से. जी एस टी, दलित कानून सब पुरानी सरकार के कारण. हिन्दु मुस्लिम तो नेहरु की गल्ती. तो फिर ये जो सरकार आई इसने क्या किया, इसका कोई हिसाब है क्या? कि सिर्फ पुरानी फिल्मों को चलता देखते रहे? और ये पता करते रहे कि पिछले ७० साल में क्या गलत हुआ? उसमें खुद के भी ५ साल गिना गये वो पता ही नहीं. तिवारी जी चिल्ला रहे हैं.
और घंसू, तुम सुनो!! ये सब सरकारी चोचले, इसकी गल्ति उसकी गल्ति वाले इन राजनितिज्ञों के लिए छोड़ दो. ये इनको ही सुहाते हैं. हम तुम साधारण लोग हैं, इनके चक्कर में हम भी लड़ बैठेंगे. फिर न हम आपस में बात करेंगे और न ही आपस में मदद.
तुम कोशिश करके जब सुविधा हो मेरा पैसा लौटा देना मगर इनका जामा पहन कर मानवता से मानव का विश्वास मत डिगाना. ५०,००० रुपये बहुत कम कीमत है मानवता को दांव पर लगाने के लिए.
-समीर लाल ’समीर’    
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार सितम्बर ०९, २०१८ में:

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मंगलवार, सितंबर 04, 2018

देखना बस इतना है कि क्या क्या ऊबर होगा?


कल एक दफ्तर के मित्र के नये फ्लैट पर जाना हुआ. नया खरीदा है. जवान बालक है और कुछ साल पहले ही कैरियर की शुरुआत की है. फ्लैट देखकर मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म के मुन्नाभाई हास्टल का कमरा देख सर्किट का डॉयलॉग याद आ गया...ये क्या भाई!! अभी तो कमरे में घुसे ही हैं और कमरा खतम!
३०० स्क्वायर फीट का फ्लैट. वाटर फ्रन्ट पर. एक कमरा. वाशरुम और एक दीवाल पर चिपका मार्डन किचन. दफ्तर के एकदम नजदीक. दाम सुना तो याद आ गया बहुत पहले एक बार खुद का ठगा जाना हालांकि ठगे तो कई बार गये हैं. एक बार देश में एक नये शहर में एक होटल में ठहरे थे. रात खाली थी तो सोचा कि नौ से बारह फिल्म देख ली जाये उमराव जान. अखबार में देखा कि किस थियेटर में लगी है. होटल से बाहर आये. ऑटो वाले को बताया थियेटर का नाम और उसने एक घंटे में पहुँचा दिया थियेटर ४०० रुपये लेकर उस जमाने में. फिल्म देखकर निकले और एक ऑटो वाले से कहा कि फलाना होटल जाना है, चलोगे. वो बोला वो सामने मोड़ पर ही तो है आपका होटाल, क्यूँ ऑटो कर रहे हैं? नजर उठा कर देखा तो वाकई १० कदम पर होटल था. पहले वाला ऑटो वाला सारी दुनिया घुमा कर होटल के पास में ही छोड़ गया और हम जान ही न पाये. आज जब इस फ्लैट का साईज और दाम सुना तो न जाने क्यूँ मेरे मन में हजारों प्रश्न उठ आये. उत्सुकता रोक पाने की मददा भी बढ़ती उम्र के साथ कम होती जाती है.
पूछ बैठे कि पार्किंग भी है क्या साथ में? मित्र कहने लगे कि कार ही नहीं है तो पार्किंग किस लिए चाहिए? मैने कहा मगर कभी अगर भविष्य में खरीदो तो कहाँ खड़ी करोगे? वो कहने लगा कि क्यूँ खरीदूँगा भविष्य में भी कार? दफ्तर बाजू में है. कहीं अगर जाना भी पड़ा तो ऊबर बुला लेता हूँ. आखिर जरुरत ही क्या है कार रखने की? पार्किंग, इन्श्युरेंस, मैन्टेनेंस की कौन झंझट उठाये और फिर कार तो हर बीतते दिन के साथ, चलाओ या खड़ी हो पार्किंग में, दाम में कम ही होती जायेगी. बेकार इन्वेस्टमेन्ट है जी. बात ठीक सी भी लगती है. खुद ही बेवकूफ से नजर आये जो खुद के लिए एक और बीबी के लिए एक कार लिए बैठे हैं.
फिर मैने उससे पूछा कि इस किचन में खाना कैसे बनाते हो? वो बोला कि खाना कौन बनाता है? ऊबर किचन को ऑर्डर करो, एकदम घर का बना खाना पहुँचा कर जाता है. हर रोज मनपसंद की डिश बताओ. खाना किस लिए बनाना? मैने पूछा कि यह तो बड़ा मंहगा पड़ता होगा? दो घंटा खाना बनाने पर खर्च करने की बजाये अगर दो घंटा कोई कमाई का कार्य करो तो १५ मिनट की कमाई में खाना कवर हो जायेगा. मुझे फिर पहले वाली बेवकूफ होने की फीलिंग आई.
तब हमने पूछा कि अगर मेहमान आयें तो कहाँ बैठाओगे, कहाँ खिलाओगे और कहाँ सुलाओगे? अब वो हंसने लगा..क्या बात करते हैं आप? मेहमान अब कहाँ आते हैं? जो अगर आ भी जायेगा पुराने ख्याल वाला कोई तो उसके लिए एयर बी ऎन्ड बी है न! खाना किसी रेस्टॉरेन्ट में मिल कर खा लेंगे, वहीं बैठ लेंगे और बतिया लेंगे. आखिर बतियाने को कुछ खास होता भी कहाँ है, सारी बातचीत तो व्हाटसएप पर होती ही रहती है लगातार.एक बार फिर..वही फीलिंग.
फिर भी एक प्रश्न तो बचा ही था कि कल को शादी होगी तब? वो कहने लगा कि शादी किसलिए? लिव ईन की बात चल रही है. डबल बैड तो लगा ही है. वो भी ऊबर से खाना मंगाती है. कैरियर उसके लिए भी बहुत मायने रखता है. शादी और बच्चे वच्चे करने में हम दोनों का कोई विश्वास नहीं है. आगे चलकर किसी चैरिटी के माध्यम से किसी बच्चे की पढ़ाई और रख रखाव स्पॉन्सर कर देंगे. वे स्पाँन्सर्ड बच्चे से बात कराते रहते हैं. बच्चे से चिट्ठी भी भिजवाते हैं और तस्वीरें भी भेजते रहते हैं. लगता ही नहीं कि अपना बच्चा नहीं है.
अरे, मगर माँ बाप तो आ ही सकते हैं न तुम्हारे पास? न न!! वो तो मस्त हैं फाईव स्टार टाईप सारी लक्जरी वाले ओल्ड एज होम में. घर बेच कर वो खुद वहाँ शिफ्ट हो गये हैं. उन्होंने तो मुझे १८ साल का होते ही अलग कर दिया था कि अब खुद को संभालो. मगर वो बहुत बढ़िया लोग हैं इसलिए अक्सर संडे वगैरह को मौका निकाल कर हम कहीं साथ में लंच वगैरह कर लेते हैं. फैमली बाईन्डिग तो है ही न!!
फिर पता चला ऊबर स्कूल, जहां से मन हो- लाग ऑन करो. पिछली बार के आगे पढ़ाई शुरु.
मुझे एकाएक लगा कि मैं कितने पुराने जमाने का बुढ़ा सा इन्सान हूँ. जमाना बदल रहा है. कल को ऊबर घर होंगे, ऊबर बीबीयाँ होंगी, ऊबर माँ बाप होंगे, ऊबर बच्चे होंगे, ऊबर दोस्त. जिस शहर गये, वहाँ अलग मगर उपलब्ध.
ये ऊबर युग अनोखा युग है और अनोखा होगा. देखना बस इतना है कि क्या क्या ऊबर होगा?
ऊबर अहसास, ऊबर मोहब्बत, ऊबर रिश्तों का युग दरवाजा खटखटा रहा है.
स्वागत करने के तैयार रहो.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार सितम्बर ०२, २०१८ में:


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