रविवार, जून 21, 2015

योगा दिवस: सब पूर्ण स्वस्थ हैं!!

साहेब की थाली में दो सूखी रोटी और पालक का साग उनके स्वास्थय के प्रति सजगता दिखाती है. वो बड़े गौरव के साथ अपना ५६ इंची सीना ताने अपने रईस दोस्तों के बीच अपनी डाइट बताते है. अपना एक्सर्साईज रुटीन बधारते हैं. नित प्रति दिन ऐसी साइकिल (एक्सर्साईज बाईक) चलाने का दावा करते है जो जाती तो कहीं नहीं मगर मीटर में दिखाती है कि पूरे पाँच किमी चली है याने अगर १०० दिन की बात करें तो ५०० किमी चली- मानो साइकिल न हुई, सरकार हो गई हो. हुआ गया कुछ हो या न हो, १०० दिन में ५०० किमी का रिपोर्ट कार्ड लहराया जा रहा है हर तरफ. काश!! ५०० किमी की जगह, दिल्ली से ५० किमी दूर तक भी निकल लिए होते सही में साईकिल चलाते और कुछ जमीनी हकीकत का जायजा ले लेते तो शायद कुछ किसान आत्म हत्या करने से बच जाते. शायद महिनों से रुकी तनख्वाह की बाट जोते किसी नगर निगम के कर्मचारी के परिवार को कुछ आशा की किरण दिख जाती.

लेकिन हमारे नेताओं की आदत में है, आपदाओं और विपदाओं का हवाई निरक्षण करना और उसके आधार पर बने जमीनी विकास के रिपोर्ट कार्ड को हवा में लहरा लहरा कर जनता को बहलाना. आकाश से देखने का फायदा ये होता है कि कीचड़ में उगी घास भी हरियाली नजर आती है. मुश्किल तो उसकी है जिसे उस कीचड़ के दलदल से होकर गुजरना होता है. लेकिन उसकी किसे फिकर- कीचड़ में उसके कपड़े खराब हों या वो दलदल में फंस कर दम तोड़ दे- ये सब उसकी परेशानी है. हमारा रिपोर्ट कार्ड तो दिखा रहा है कि चहु ओर हरियाली ही हरियाली है. हरित क्रान्ति के इतिहास में पहली बार इतना हरा अध्याय.

खैर, बात चल रही थी एक्सर्साईज रुटीन की- तो यदि आप योग को योगा कह दें तो ये तुरंत वैसा ही स्टेटस सिंबल बन जाता है जैसे मानों आम आदमी की थाली से उचक कर दो सूखी रोटी और पालक का साग साहब की थाली में शोभायमान होने लगा हो और जब साहब की थाली में आया है तो बखाना भी जायेगा और जब बखाना जायेगा तो रिपोर्ट कार्ड में भी आयेगा.

गांवों में अस्पताल हो या न हो और अगर अस्पताल हो भी तो उसमें डॉक्टर का अता पता लापता हो मगर इससे क्या फरक पड़ता है. बेवजह हल्ला मचाते हो फालतू का मुद्दा उठा कर. चलो, तैयार हो जाओ इस समस्या के समाधान के लिए- २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योगा दिवस के दिन सब साथ में योगा करो. योगा में अगर भगवान का नाम न लेना हो मत लेना, अल्लाह का ले लेना, ईशु का ले लेना - क्या फरक पड़ता है मोटापा कम होने में अगर पाव दो पाव का अंतर रह भी गया इस वजह से तो. जब सब सूर्य नमस्कार कर रहे हों तो तुम सूर्य ग्रहण की कल्पना करते हुए चाँद सलाम कर लेना, लिटिल स्टार मान कर ट्विंकल ट्विंकल हैलो कर लेना- आँख तो मूँदी ही रहना है.

जो मन करे सो करना- बस इतना ध्यान रखना कि अब आगे से बीमारी के लिए अस्पताल और डॉक्टर की मांग उठाना मना है क्यूँकि रिपोर्ट कार्ड दिखा रहा होगा कि भारत में सब योगा कर रहे हैं और सब पूर्ण स्वस्थ है!!

इससे अच्छे दिन की और क्या कल्पना कर सकते हो, बुड़बक!!

बात करते हो!!

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-समीर लाल ’समीर’

२१ जून २०१५ अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस पर दैनिक जनसंदेश में प्रकाशित

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शनिवार, जून 20, 2015

अन्तरराष्ट्रीय स्तर के होने की योग्यता

बहुत सूक्ष्म अध्ययन एवं शोध के बाद लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि यदि आपके नाम के अन्त में आ की मात्रा लगाने के बाद भी नाम आप ही का बोध कराये तो आप अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हो सकते हैं.

जैसे उदाहरण के तौर पर लेखक का नाम समीर है. यदि आपको समीर नाम सुनाई या दिखाई पड़े तो आपकी नजरों के आगे मेरी तस्वीर उभरती है, शायद कविता पढ़ते हुए या आपकी रचनाओं पर दाद देते हुए मगर जैसे ही मेरे नाम के अंत में आ की मात्रा लगा दी जाती है याने समीरा तो आपकी आँखों के आगे फिल्मों वाली समीरा रेड्डी की तस्वीर उभर आती है बीच पर गीत गुनगुनाते. समीर और समीरा- एकदम दो विपरीत ध्रुव. अतः समीर नाम अन्तरराष्ट्रीय स्तर का होने की पात्रता नहीं रखता.

अब दूसरा उदाहरण लें. नरेन्द्र- सुनते ही आँखो के सामने ५६ इंच का सीना तन गया न और कान में गूँजा- मितरों......!!! अब अगर आप इस नाम के अन्त में आ की मात्रा लगा दें याने कि नरेन्द्रा – तब भी आँख के आगे वही ५६ इंच की सीना और कान में..मितरों..!!!!! याने की इनमें अन्तरराष्ट्रीय हो जाने की योग्यता है और हो ही रहे हैं. राष्ट्र में तो होते ही कब हैं? अधिकतर अन्तर्राष्ट्र में ही बने रहते हैं. मित्र भी अन्तरराष्ट्रीय- जैसे बराक!! वरना तो किस की हिम्मत कि ओबामा साहब को बराक पुकारे. इसके लिए तो ५६ इंच के सीने के साथ साथ अन्तरराष्ट्रीय होना भी जरुरी है. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जहाँ जाते हैं वहीं नाम का डंका बज रहा होता है.

इनसे जब अरविन्द, राहुल टक्कर लेते हैं तो ये क्यूँ नहीं सोचते कि उनके नाम में अन्तरराष्ट्रीय होने की योग्यता नहीं है तो वो क्या होंगे. बेवजह टकराते हैं. अरविन्दा और राहुला- न जाने कोई होगा भी या नहीं कहीं पर इस नाम का तो तस्वीर क्या खाक उभरेगी भला?

एकदम ताजा ताजा- योग और योगा. योग कहो तो बाबा रामदेव गुलाटी खाते नजर आयें और कान में आवाज गूँजे- करत की विद्या है. करने से होता है- करो करो. और आ की मात्रा लगा कर योगा कह दो तो भी बाबा राम देव ही नजर आयें गुलाटी लगाते और कान में वही- करत की विद्या है. करने से होता है- करो करो.

और फिर ये तो संपूर्ण योग्यता वाले हैं- योग और योगा, राम और रामा और देव और देवा. ’समरथ को नहीं दोष गोसाईं’

Yoga

अब तो मान जाओ इनका लोहा.

मितरों!! चलो करो- आज अन्तरराष्ट्रीय योग (योगा) दिवस है. करो करो- करने से होता है.

-समीर लाल ’समीर’

चित्र साभार: इन्टरनेट

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रविवार, जून 07, 2015

परदे के उस पार!!

मंच प्रस्तुति-

नगर की एक नौटंकी मे...

चक्रवर्ती सम्राट अशोक!!

परदा गिरा और सम्राट अशोक भागा चेंज रुम की तरफ..

कपड़े बदले और लग गया लाईन में..

आज का मेहताना मिले तो खरीदे बीमार बीबी की दवा

और

बच्ची के लिए ..क्या?

सोचा और सर झटकार दिया..

न! उतना सारा पैसा थोड़ी न मिलेगा!

गुड़िया अगली बार!!

जब एक जंग और जीतेगा...

चक्रवर्ती सम्राट अशोक!!

और गिरेगा परदा...

तब!

-समीर लाल ’समीर’

 

उपरोक्त लघुकथा को ’गागर मे सागर’  लघु कथा ग्रुप के ’परदा’ विषय पर आयोजित प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ और विशेषज्ञों के आंकलन और अन्य जानकारी के लिए कृप्या नीचे दिये लिंक पर जायें:

 

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लिंक

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मंगलवार, जून 02, 2015

हम भारतीयों का डी एन ए!!

नजर की पहचान थी उससे यही कोई तीन चार बरसों की. सिर्फ दफ्तर आते जाते हुए ट्रेन में पड़ोस के डिब्बे में उसे चढ़ते उतरते देखता था और नजर मिल जाती थी. लबों के हाथ कभी इतने नहीं बढ़े कि कोई मुस्कराहट उस तक पहुँचा दें और उसके लबों के तो मानो हाथ थे ही नहीं. भाव विहीन चेहरा.

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हाँ, एक बार झुंझलाहट देखी थी उसके चेहरे पर..मगर वो भी मुझे लेकर नहीं..ट्रेन के देर से आने की वजह से. कनाडा में ट्रेन का लेट होना यदा कदा ही होता है अतः सभी चेहरे झुंझलाये से थे उस दिन तो उसका चेहरा फिर भीड़ के चेहरे सा ही दिखा. मेरा चेहरा सामान्य था बिना झुंझलाये. मैने उस दिन भी उसकी नजरों से वैसे ही नजर मिलाई थी जैसे हर रोज. उसे पक्का आश्चर्य हुआ होगा मेरा चेहरा देखकर कि मानो ट्रेन के देर से आने का मुझ पर कोई असर हुआ ही न हो.

उसे क्या पता कि ट्रेन का इस तरह, न जाने कितने दिनों बाद, ४५ मिनट देर से आना मुझे मेरे देश की यादों में वापस ले गया था..मुझे लगा कि मैं अपने शहर के स्टेशन पर खड़ा उस ट्रेन का इन्तजार कर रहा हूँ जो लेट है अनिश्चित काल के लिए. लेट आने वाली ट्रेन का इन्तजार खुशी खुशी करना और किसी भी तरह की समस्या के वक्त के साथ गुजर जाने पर विश्वास कर स्थितियों से समझौता कर लेना मेरे भारतीय होने की वजह से मेरे डी एन ए में है.

यही डी एन ए तो है जो आज तीन चार बरस बीत जाने बाद भी मुझे अपने लबों के हाथो के कद बढ़ जाने की उम्मीद हर रोज सुबह शाम रहती है..जो शायद उसके लबों पर एक मुस्कान ला दें कभी और वो मुझसे पूछे ..कैसे हो आप? और मैं उससे कह सकूँ..कि तुमने पूछा तो अब बेहतर महसूस कर रहा हूँ मैं!

ये इन्तजार अनिश्चित कालिन भी हो तो क्या और सतत बना भी रह जाये तो क्या..इन्तजार और वक्त के साथ समझौता कर लेना तो हम भारतीयों के डी एन ए में है...कर ही रहे हैं अच्छे दिनों के आने का इन्तजार!!

कुछ हर्फ मेरे उतरे ही नहीं, जीवन के कोरे पन्नों पर.

ये दुनिया वाले अजब से हैं, उसको भी गज़ल बुलाते हैं..

-समीर लाल ’समीर’

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