शनिवार, सितंबर 26, 2020

आजकल मैं समय लिख रहा हूँ

 


वे उन दिनों कम ही निकल रहे थे घर से। जब कभी दिखते भी तो हाथ में एक डायरी और कलम जरूर लिए रहते। मैंने दो तीन बार उनसे जानना चाहा कि आजकल कहाँ रहते हैं और यह डायरी और कलम साथ में लेकर चलने का क्या राज है? हर बार वह अजीब सा मुँह बनाकर कहते कि ‘बस ऐसे ही, तुम नहीं समझोगे।‘

मैं इस विचारधारा का घोर समर्थक रहा हूँ की जब व्यक्ति स्वयं की ही हरकत समझ नहीं पाता तब ही दूसरे के पूछने पर कहता है कि तुम नहीं समझोगे। ऐसा मैं आज अपने चारों ओर देख रहा हूँ। कुछ लोगों ने तो इसी के चलते पूछने पर ही पाबंदी लगा दी है ताकि यह भी न कहना पड़े कि ‘तुम नहीं समझोगे?’

खैर, एक दो दिन बाद फिर वह चौक पर नजर आए। वैसे ही  हाथ में डायरी और कलम थामें। आज खुद उन्होंने आगे बढ़ कर प्रणाम किया। ऐसा वो प्रायः तभी करते हैं जब उनको आपसे कोई काम निकलवाना हो जैसे  हमारे नेता चुनाव के दौरान करते हैं। बाकी समय तो वो मान कर चलते हैं कि ‘तुम नहीं समझोगे।’ इससे पहले कि वो कुछ कहते, हमने फिर वही प्रश्न दोहराया। कहने लगे कि चलो, उस चाय की दुकान पर बैठ कर बताते हैं। चाय नाश्ता भी हो जायेगा और चाय पर चर्चा भी।

चाय नाश्ता आते ही वह चर्चारत हुए। कहने लगे कि ‘आजकल मैं समय लिख रहा हूँ’ समझे? मेरे कानों में महाभारत टीवी सीरियल का ‘मैं समय हूँ’ गूँज उठा पूरे शंखनाद के साथ। मैंने पूछा कि वो महाभारत वाले समय की आत्मकथा लिख रहे हैं क्या? मुस्कराते हुए कहने लगे- मैं जानता था कि तुम नहीं समझोगे। चलो तुमको इसे सरल शब्दों में समझाता हूँ।

एकदम से मुझे पुनः ख्याल आया कि मैं इस विचारधारा का भी घोर समर्थक रहा हूँ कि जब कोई अपनी ही कही किसी बात को सरल शब्दों में समझाने की पेशकश करे, तो यह तय है कि सरल शब्द पहले कही गई बात से भी अधिक कठिन होने वाले हैँ अन्यथा तो वो पहली बार में ही अपनी बात सरल शब्दों में कर लेते और मामला यहाँ तक न पहुंचता।

नेताओ को मंचों से अपने प्रस्तावित विधेयकों को आम जनता को सरल शब्दों में समझाते देखने और सुनने के घोर अनुभव के बाद ही मैं उपरोक्त विचारधारा का समर्थक हुआ हूँ।

वह सरल शब्दों में बोले कि दरअसल मैं भविष्य का इतिहास लिख रहा हूँ।

अब वह मेरे चेहरे पर उभरे प्रश्न चिन्ह को मुस्कराते हुए पढ़ रहे थे। कहने लगे कि एक चाय और मंगाओ, मैं तुम्हें विस्तार से समझाता हूँ। हालांकि मैं उस विचारधारा का भी घोर समर्थक रहा हूँ जिसमें इंसान सामने वाले को विस्तार से समझाने के लिए इतना आमादा हो जाता है कि सामने वाला समझने पर हो जाये।

उन्होंने अबकी बार विस्तार से समझाना शुरू किया। अपनी डायरी खोल कर दिखाई। पहले दो पन्नों में अपना नाम, पावन जन्म स्थल, जन्म तिथि, परिवार, बचपन से कुशाग्र बुद्धि के मालिक एवं कुछ उनके शौर्य के किस्से एवं बहादुर  होने का परिचय, प्रारंभिक शिक्षा आदि का विवरण, घर से भाग जाने का विस्तृत वृतांत, फिर एकाएक ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ वाले हिस्से में शीर्षक के बाद एक पैराग्राफ की खाली जगह, फिर प्रारंभिक संघर्ष गाथा जिसमें साइकिल चलाना सीखने से लेकर उसी साइकिल से शहर तक चले आने, जिसे उन्होंने देशाटन का नाम दिया, की कथा। फिर कुछ खाली पंक्तियों के बाद नया शीर्षक ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ के बाद पूरी कोरी डायरी।

दो लिखित और ९८ अलिखित पन्नों की डायरी को जब उन्होंने विस्तार से समझाया, तब निश्चित ही मेरी  मंदबुद्दि के बावजूद उसमें कुछ प्रश्न कौंधे कि यह ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ और ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ वाले हिस्से खाली क्यूँ हैँ?

वे पुनः मुस्कराये कि तुम नहीं समझे न? मुझे मालूम था कि ‘तुम नहीं समझोगे।’ यह ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ वाला हिस्सा तो चुनाव जीतते ही भर जायेगा। बस, जरा पावर हाथ आने दो। बाकी सब सेट है।

मैंने कहा कि चलिए वो तो मान भी लें लेकिन ‘उपलब्धियां एवं गौरव’? उसका क्या – आज तक तो आपने ऐसा कोई काम किया नहीं है जिसे उपलब्धियां एवं गौरव गिना जा सके। ले दे कर मोहल्ले के जिस मकान में आप किराये पर रहते थे, उसके अहाते में आपने वृक्षारोपण समारोह कर बरसों पहले एक फल का पेड़ लगाया था। पेड़ जब बड़ा हुआ तब लोगों को पता लगा कि पेड़ तो बबूल का था और उसकी जड़ें भी विकास करते हुए इतनी विकसित हो गई कि अहाते की दीवार ढहा गईं और फल के नाम पर कांटे ही कांटे। यह ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ वाला डायरी का हिस्सा तो कोरा का कोरा ही रह जाने वाला है।

चाय नाश्ता कर लेने के बाद दूसरी चाय भी अब खत्म हो चुकी थी अतः वे पुनः मुस्कराये और बोले ‘तुम नहीं समझोगे।’

दरअसल एक बार चुनाव जीत कर मुझे कुर्सी पर काबिज तो हो जाने दो फिर तो मेरे चाहने वाले इस हिस्से को खुद ही लिख लिख कर इतना भर डालेंगे कि इतने पन्ने भी कम पड़ जायेंगे। इसके लिए मुझे कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।

वाकई वो कितना सही कह रहे थे और मैं मूर्ख समझ ही नहीं पाया। ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ वाला हिस्सा तो चुनाव जीतते ही भर गया और ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ वाले पन्नों पर पन्ने भरते चले जा रहे हैं और उनको कुछ करने की जरूरत भी नहीं पड़ रही है।

-समीर लाल ‘समीर’


भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर २७,२०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/55240664


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शनिवार, सितंबर 19, 2020

सकारात्मकता ही सफलता की कुंजी है।

 


कहते हैं आज के इस कोविड काल में सकारात्मकता ही सफलता की कुंजी है। सकारात्मक सोच एवं सुरक्षात्मक उपाय अपनाते रहें तो शायद इस काल का पार कर जाएं।

शुरुवात में तो दिन दिन भर बैठ कर यही देखते थे टीवी पर की कितने और मरे? हर बढ़ते आंकड़े के साथ दिल की धड़कन बढ़ती जाती। जितनी बार वो टीवी पर विज्ञापन आते कि हाथ साबुन से २० सेकेंड तक धोते जाओ, उतनी बार उठाकर हाथ धोने जाते। फिर सीएनएन ने बताया की जितनी देर मे दो बार हैप्पी बर्थ सांग  गाओगे, २० सेकेंड पूरे हो जायेगे। देखते देखते धुलते धुलते हाथ बाकी के शरीर से गोरा हो गया और कंठ हैप्पी बर्थडे गाने में माहिर मगर करोना का भय टिका रहा यथावत।

विशेषज्ञों ने सलाह दी कि टीवी दिन में एकबार १० मिनट के लिए देखो वो भी सिर्फ यह देखने के लिए कि सरकार का कोई नया आदेश तो नहीं आया जो आपको पालन करना है। टीवी देखना बंद कर दिया। हाथ धोना बंद नहीं किया अतः भय मानस पर छाया रहा। अब हैप्पी बर्थ डे याने तुम जिओ हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार गाते हुए लगता कि करोना उससे अपने लिए गाया मान कर दिन प्रति दिन विस्तार प्राप्त कर रहा है। आखिर दुनिया भर में उसे याद करके कितने सारे लोग हाथ धोते हुए यही गा रहे है तो दुआओं का असर तो होना ही था। जब गुडडु ये गाना १ साल की उम्र से सुनते आज ८० के होकर चुस्त दुरुस्त हैं तो भला करोना का क्या बिगड़ना है। यही सोच कर अब गाना बिना गाए हाथ धोने लगे हैं।

टीवी पर समाचार देखने की आदत तो शराब पीने की लत से भी ज्यादा खराब बताई गई है। शराब और गांजे की आदत तो छुड़वाई जा सकती है। मगर टीवी पर समाचार देखने का चस्का ऐसा होता है कि बिना देखे जीवन नीरस लगने लगता है। दरअसल दूरदर्शन वाले समाचारों में वो नशा न था जो आजकल वालों में हैं। धूमधड़ाके के साथ ऐसा लगता है समाचार नहीं, कोई फिल्म देख रहे हैं जिसकी एकदम मस्त पटकथा लिखी गई है, सटीक डॉयलॉग लिखे गए हैं और जैसा निर्देशक ने चाहा है वैसा ही मनभावन अभिनय किया गया है अपने फाइनेंसर का पूरा ध्यान रखते हुए। हर समाचार रूपी फिल्म का उद्देश्य मात्र इतना की फाइनेंसर को किसी न किसी रूप से फायदा मिलता रहे। फाइनेंसर आका होता है। उसे नाराज नहीं किया जा सकता। इतिहास गवाह है की जिसने भी उसे नाराज किया है, उसकी दुकान सिमट गई है।

खैर टीवी का नशा छुड़ाने के लिए सोशल मीडिया का हाथ थामा तो पाया की यह तो गाँजा छुड़ाने के लिए चरस पीने लगे। व्हाट्सअप्प, ट्वीटर, फेसबुक, ईमेल जहाँ जाओ, वहाँ करोना पसरा पड़ा है। कोई इलाज बता रहा है तो कोई इसे लाइलाज बता रहा है। कुछ बुद्धत्व को प्राप्त लोग इसे बीमारी मानने को ही तैयार नहीं और इसे अफवाह बता कर निकल जा रहे हैं।  कोई घर पर हैन्ड सेनेटाइज़र बता रहा है तो कोई इम्यूनिटी बढ़ाने का तरीका मगर ले देकर बात करोना की ही हो रही है और हम अभी भी हाथ धो धो कर करोना भगाने में लगे हैं और वो दिमाग पर चढ़ अपनी विकास यात्रा में लगा है।

लगने लगा की कहां चले जाएं जहाँ इसकी कोई बात न हो। कोई जिक्र ही न आए और यह हमारे सिर से उतरे। कहते हैं न कि उदण्ड बच्चे की बदमाशी बंद करवानी हो तो उसे इग्नोर करो। उसकी बात ही न करो। थोडी देर में अपनी उपेक्षा देख कर वो बदमाशी करना बंद कर देगा।

मगर वैसी कौन सी जगह है? क्या देखूँ -क्या सुनूँ? कुछ नहीं समझ आता- जित देखूँ तित लाल की तर्ज पर हर तरफ करोना की बात – कारोना मय वातावरण।

तब एकाएक एक ईश्वर का भेजा कोई दूत मुझे मन की बात सुनने की सलाह दे गया। तब जा कर इस बैचेन दिल को करार आया। न करोना की कोई बात, न आंकडे और न इससे होने वाले नुकसानों की कोई बात। अहा!! कोई तो ऐसी जगह मिली। आराम से बैठो- देशी कुत्तों की प्रजातियाँ जानो। मोर को दाना खिलाओ। सब सुनो बस करोना को छोड़ कर। ऐसे शुद्ध वातावरण और करोना मुक्त स्थल आज बचे कहाँ हैं।

आज फिर हमने अपने आपको विश्व गुरु साबित कर दिया। मैं करोना भय से मुक्त हुआ। आपको भी भय मुक्त होना है तो मन की बात सुनो।

गौतम बुद्ध भी कहा करते थे की जब बाहर बहुत कोलाहल हो तो मन की बात सुनना चाहिए। आज जाकर उनकी बात का गूढ़ अर्थ समझ आया।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर २०,२०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/55078867


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शनिवार, सितंबर 12, 2020

कबूतर उड़ाने का शौक एक बार लग जाए तो फिर जाता नहीं।

 


तिवारी जी को कबूतर उड़ाने के शौक था। एक शाम कबूतर उड़ाते हुए उनके मन ने भी उड़ान भर ली और तिवारी जी राजनीति में उतर आए।

इंसान में सीखने की ललक हो तो कहीं से भी ज्ञान ग्रहण कर लेता है। तिवारी जी ने भी कबूतरों से पैतरेबाजी के गुर सीख लिये थे। उन्हीं को अंजाम देते हुए वे शीघ्र सरपंच हो गए।

सरपंच का चुनाव जीतने के लिए तिवारी जी के दिखाए गए सब्ज बाग ऐसे थे कि उनका लगना तो दूर, उनके तो बीज भी शायद चांद पर भी न मिलें। अतः गांव वालों को बहलाने के लिए तिवारी जी ने ‘गाँव की बात, सरपंच के साथ’ कार्यक्रम की घोषणा की। इस कार्यक्रम को तिवारी जी ने ‘बात’ का नाम तो दिया मगर था असल में घोषणा का मंच। घोषणा स्वभावतः जबाबदेही से मुक्त होती हैं एवं नई घोषणा पुरानी घोषणा एवं वादों को स्मृति धुमिल कर देती हैं। एक मंझा हुआ नेता घोषणा के इस स्वभाव से भली भांति परिचित होता है।

घोषणा की गई कि गाँव कों चारों तरफ से ऊंची ऊंची दीवार से घेर दिया जायेगा। इससे गाँव पड़ोसी गाँवों से सुरक्षित हो जायेगा। मगर उससे भी गहरी बात जो गाँव वाले सोच भी नहीं सकते वो यह बताई गई कि जो बारिश का पानी बह कर पड़ोस के गाँवों में चला जाता है, वो गाँव की जमीन में समाहित हो जायेगा और गर्मी में बोरवेल को अच्छा जलस्तर मिलेगा। यह ज्ञान उन्होंने पर्यावरण पर अखबार में छपे एक आलेख को पढ़कर अर्जित किया था। अध्ययन की अपनी महत्ता है भले ही अखबार का ही क्यूँ न हो।

भव्य शिलान्यास का आयोजन हुआ। बताया गया कि ऐसी दीवार से घिरा दुनिया का यह पहला गाँव होगा। हम इस क्षेत्र में विश्व गुरु कहलाएंगे। तुरंत गाँव वालों को काम पर लगा दिया गया। उत्साहित गाँव वाले यह भी न जान पाये कि वह पड़ोस के गाँव से असुरक्षित कब थे। उन्हें तो बस अब इस बात की धुन थी कि गाँव का पानी गाँव के बाहर न जाए। पूरा गाँव दीवार से घेर दिया गया। सरपंच जी को हर कार्य में उत्सव मनाने की आदत थी। अतः दीवार बन जाने पर उसके लोकार्पण का मेगा उत्सव मनाने का कार्यक्रम रखा गया जिसमें शहर से नाना प्रकार के व्यंजन मंगा कर ग्रमीणों में वितरित करने की बात तय पाई गई।

शहर से व्यंजन लाए जाने की बात पर एकाएक यह पता चला कि गांव तो अति उत्साह में चारों तरफ से दीवार से घेर दिया गया है, अब शहर जायेंगे कैसे? बात सरपंच जी तक पहुंचाई गई। सरपंच जी गुणों की खान हैं, इस बात का परिचय देते हुए उन्होंने इसे योजना की भूल न बताते हुए, ग्रामीणों की मूर्खता बताया। बताया गया कि दीवार के साथ दोनों तरफ से सीढ़ी बनाने जैसा सामान्य बुद्धि वाला काम भी अगर सरपंच जी ही बताएंगे तो फिर विकास की अगली योजना पर विचार कब करेंगे?

लोकार्पण कार्यक्रम स्थगित कर सीढ़ी बनाई गई और धूमधाम से लोकार्पण हुआ।

मौसम आया तो बारिश हुई। पानी गिरता और धरती में समा जाता। ‘गाँव की बात, सरपंच के साथ’ में इसे विश्व स्तरीय उपलब्धि बताया गया और सभी गाँव वासियों को ताली पीट कर और दिया जला कर इस उपलब्धि का समारोह मनाने की घोषणा की गई। गाँव हर्षोल्लास में डूबा ताली बजाता रहा, दीपक जगमग जलाता रहा। बारिश थी कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी।

दीवारों से घिरा गाँव जल निकास के आभाव में जब कमर तक पानी में डूबने लगा तब लोग चिंतित हुए। कुछ दिन सबको घरों में बंद रहने की घोषणा की गई और किसी आदि कालीन कुनबे की साल में सात दिन घर में बंद रहने की प्रथा के फायदे बताए गए। लोग घरों में बंद हो गए और सरपंच गाँव के सबसे ऊंचे टीले वाले अपने घर में कबूतरों को दाना खिलाने में मगन रहा।

धीरे धीरे गांव जलाशय में तब्दील होने लगा। मगर काबिल सरपंच पुनः ‘गाँव की बात, सरपंच के साथ’ में नई घोषणा के साथ अवतरित हुए। उन्होंने इसे आपदा में अवसर खोजने का वक्त बताया और कहा कि इस पानी में क्यूँ न मछली पाल ली जाएं और बारिश रुकते ही उन्हें शहर ले जाकर बेचा जाए? इस आय और व्यापार के नए अवसर से गाँव आत्म निर्भरता की ओर अग्रसर होगा।

शहर से मछली के बीज बुलवा कर गाँव रुपी जलाशय में छोड़ दिए गए। घर पानी में डूबते रहे और मछलियाँ बड़ी होती रहीं। गाँववासी घर की छतों पर बैठे अपनी अपनी बंसी जलाशय में डाले मछली फसने का इन्तजार करते रहे।

सरपंच कबूतरों को दाना खिला कर न जाने कब शहर जाकर मछलियों के बाजार और व्यापार की संभावनाओं पर गोष्ठियों में व्यस्त हो गए।

देखते देखते गाँव मय गाँववासियों के जलमग्न हो गया।

सरपंच जी ने शहर में पत्रकारों से चर्चा करते हुए इसे ईश्वर का कहर बताया और अपनी संवेदनाएं प्रकट की।

आजकल तिवारी जी अपने शहर वाले मकान से कबूतर उड़ा रहे हैं। कहते हैं कि कबूतर उड़ाने का शौक एक बार लग जाए तो फिर जाता नहीं।

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर १३,२०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/54909214


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रविवार, सितंबर 06, 2020

तरक्की की राह पर दौड़ने के आशय।

 



यहाँ कनाडा में हम साल में दो बार समय के साथ छेड़छाड़ करते हैं जिसे डे लाईट सेविंग के नाम से जाना जाता है. एक तो मार्च के दूसरे रविवार को समय घड़ी में एक घंटा आगे बढ़ा देते हैं और नवम्बर के पहले रविवार को उसे एक घंटे पीछे कर देते हैं. ऐसा सूरज की रोशनी के अधिकतम उपयोग हेतु किया जाता है.

नवम्बर में जब एक घंटा पीछे घड़ी करते हैं तब ऑफिस से लौटते वक्त पूरा अँधेरा घिर आता है, जो एक दिन पहले तक रोशनी में होता था. यह दिन कनाडा में वो दिन होता है जब सबसे ज्यादा दुर्घटनायें पैदल सड़क क्रास करते लोगों की कार से टकराने से होती है. कार चालको की आँखे पहले दिन उस वक्त लौटते हुए अँधेरे से अभयस्त नहीं हुई होती है और न ही एक दिन में अधिक सतर्कता बरतने की आदत लौटी होती है. बरफ में इससे ज्यादा खतरनाक हालात रहते हैं मगर लोग सतर्क होते हैं और उन्हें मालूम होता है कार फिसल सकती है.

उस दिन घड़ी पीछे करके जब स्टेशन पर कार पार्क करके प्लेटफार्म की तरफ बढ़ा तो क्षेत्र के एम पी (सांसद), एम एल ए, पार्षद और साथ में एरिया के पुलिस अधिकारी लोगों को शाम को सतर्क रह कर कार चलाने और सड़क पार करने का निवेदन करते हुए कॉफी के साथ रिफ्लेक्टर बाँट रहे थे जो अँधेरे में चमकता है. अपने कोट, बैग, गाड़ी पर रिफ्लेक्टर लगा लेने से एक उम्मीद होती है कि अँधेरे में सड़क पार करते पैदल चल रहे व्यक्ति पर कार चालक की नजर आसानी से पड़ जायेगी.

मैं रिफ्लेक्टर अपने बैग पर लगा कर प्लेटफार्म पर आकर अपनी ट्रेन का इन्तजार करने लगा. सामने हाई वे पर ११०/१२० किमी तेज रफ्तार भागती गाड़ियों से दफ्तर पहुँचने की जल्दी में जाते लोग. मैं सोचने लगा कि इस विकसित देश में इतनी तेजी से गाड़ी दौड़ा कर कहाँ और आगे जाने की जल्दी है इन लोगों को. थोड़ा आराम से भी जाओ तो भी विकसित हो ही, क्या फरक पड़ जायेगा और कितना विकसित होना चाहते हो? मगर नहीं, शायद मेरी सोच गलत हो..शायद यही समय की पाबंदी और सदुपयोग इनको विकसित बना गया होगा और ये अब भी विकास की यात्रा पर सतत अग्रसर हैं. अच्छा लगता है ऐसी रफ्तार से कदमताल मिलाना.

ट्रेन अभी भी नहीं आई है और मैं इन्तजार में खड़ा हूँ और मेरे विचार सामने भागती गाड़ियों के साथ भाग रहे हैं. भागते विचार में आती है पिछली भारत यात्रा.

यह यात्रा कुछ वर्ष पूर्व उस युग में हुई थी जब एटीएम में एवं लोगों की जेबों में में रुपये हुआ करते थे और लोग गाडियों, रिक्शों, बसों, मोटर साईकिलों पर सवार सड़क जाम में आड़ी तिरछी कतार लगाये खड़े घंटो व्यतित कर दे रहे थे अपने गन्तव्य तक पहुँचने के लिए. वह युग आज के युग से बहुत अलग था. आज वही लोग एटीएम की कतार में खड़े हैं. एटीएम और जेब से रुपये नदारत हैं और गन्तव्य रुपये निकलवाने की छाँव में कहीं खो गया है. मगर दोनों ही युगों की समानता इस जुमले में बरकरार रहीं कि अच्छे दिन आने वाले हैं और भारत विकास की यात्रा पर है.

स्वभावतः यात्रा गति माँगती है गन्तव्य की दिशा में. लम्बे ठहराव की परिणिति दुर्गंधयुक्त अंत है. चाहे वो पानी का हो, जीवन का हो या विचारों का हो.लम्बी यात्रा में विश्राम हेतु ठहराव सुखद है किन्तु सतत ठहराव का भाव दुर्गंध युक्त प्रदुषित माहौल के सिवाय कुछ भी नहीं देता.

विकास यात्रा पर अग्रसित होने का दावा करने वाले देश के हालात उस युग में भी ट्रेफिक जाम रुपी ठहराव के चलते यूँ थे कि जब मैं अपने मित्र के घर से, जहाँ में रुका हुआ था, अपना कुछ जरुरी काम निपटाने बैंक जाने को तैयार हुआ, जो कि उनके घर से दो किमी की दूरी पर था, तो मित्र ने कहा कि ड्राईवर आ गया है उसके साथ गाड़ी में चले जाओ. बैंक बंद होने में मात्र एक घंटे का समय था और मुझे उसी शाम दिल्ली से वापस निकलना था. मेरे पास यह विकल्प न था कि अगर आज न जा पाये तो कल चले जायेंगे. अतः पिछले तीन दिनों के अनुभव के आधार पर मैने मित्र से कहा कि भई, मैं पैदल चले जाता हूँ और आप गाड़ी और ड्राईवर बैक भेज दो. लौटते वक्त उसके साथ आ जाऊँगा. मित्र मुस्कराये तो मगर मना न कर पाये. उनको तो दिल्ली का मुझसे ज्यादा अनुभव था.

मैं विकास की ओर बढ़ते मेरे देश की राजधानी की मुख्य सड़क पर धुँए से जलती आँख और धूल से खांसते हुए पैदल बैंक जाकर काम करा कर जब पैदल ही लौट रहा था तो मित्र के घर के पास ही मात्र एक मोड़ दूर उनकी गाड़ी में ड्राईवर को ट्रैफिक से जूझते देख उसे फोन किया कि जब मौका लगे, गाड़ी मोड़ कर घर चले आना.. मैं वापस पैदल ही पहुँच रहा हूँ. 

घर जाकर ठंडे पानी से स्नान कर आराम से बैठे नीबू का शरबत पीकर खत्म किया ही था कि ड्राईवर वापस गाड़ी लेकर मुस्कराते हुए हाजिर पूछ रहा था कि साहेब, शाम एयरपोर्ट कब छोड़ना है?

मन आया कि कह दूँ कि फ्लाईट तो रात दो बजे हैं मगर चलो, अभी दोपहर चार बजे ही निकल पड़ते हैं...इन्तजार यहाँ करने से बेहतर है कि एयरपोर्ट पर कर लेंगे कम से कम फ्लाईट तो न मिस होगी.

विचारों में विकासशील और विकसित देशों के बीच की दूरी नापते नापते ट्रेन आ गई और मैं फिर वही, दफ्तर पहुँच कर विकसित को और विकसित कर देने के राह पर चल पड़ा.

आंकलन ही तो है वरना मुझे भी यहाँ क्यूँ होना चाहिये?

वो विकासशील देश भी तो मेरा योगदान मांगता है.

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर ०६,२०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/54741372

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