हे प्रभु, ये तेरी माया.
इधर कुछ दिनों से हमारा रक्तचाप अरहर हो गया है. कहाँ तक बढ़ेगा, कुछ कहना ही मुश्किल. अगर अपने डॉक्टर को आम जनता मान लूँ तो उसकी पहुँच के बाहर. वैसे भी इस बिमारी को राजसी बिमारी का नाम दिया गया है तो ऐसी लक्ज़री उठाते लगभग हफ्ता बीतने जा रहा है. कभी लगता है कि अरहर नहीं सेन्सेक्स सा हो गया है. इस क्षण उपर, उस क्षण नीचे. नीचे आने लगता है, एक आशा बनती है कि खटाक से उपर. नमक न खाओ, टेंशन में न आओ, आराम करो, कम्प्यूटर पर न बैठो और इतने निवेश का नतीजा? फिर ढ़ाक के तीन पात..शाम तक बाजार बंद और सारा निवेश मिट्टी और कल सब ठीक हो जायेगा, इस आशा में फिर सोकर एक रात और गुजार ली.
मित्र मिलने आये. किसी तरह दरवाजा खोला. उनको बताया कि यार!! बड़ी कमजोरी लग रही है. वो ठहाका लगाते लगाते रह गये. बोले, देखकर तो नहीं लगता.
मोटे लोगों के साथ यही खराबी है कि कितनी भी कमजोरी लगे, कोई मानने ही तैयार नहीं. कोई दुबला पतला हो तो जरा सा मूँह लटका ले और सबकी सहानुभूति बटोर ले और हम सच्ची के कमजोर, बीबी तक नहीं मान रही. कहती है कि चाय बनाने से बचने का अच्छा बहाना निकाला है, अब बताओ!
ये मोटापा एक बार नहीं, न जाने कितनी बार फजिहत कराता है.
एक तो जिसे देखो, सलाह का बस्ता टांगे सामने आ खड़ा होता है कि भाई साहब, कुछ करिये. बढ़िया जगह रहते हैं, सामने झील है. फर्स्ट क्लास टहलते हुए निकल जाया करिये. दो घंटे टहलिए और फिर देखिये. अब क्या कहें, दो घंटा टहलें तो सोच कर ही लगता है कि फिर देखेंगे क्या? क्या बच रहेगा कुछ भी. दो घंटा तो क्या, दो मिनट में हफाई छूट जाती है, दो घंटे होने के पहले तो निश्चित ही खुद ही छूट लेंगे. फिर तुम देखना, हम तो उपलब्ध न होंगे.
दुकान में पैन्ट देखने जाओ तो कहता है कि इस साईज की तो न मिल पायेगी. कमर नप जाये तो लम्बाई ऐसी कि मानों सर से फुल पैन्ट पहनेंगे और लम्बाई नप जाये तो एक ही पैर में पूरे फुल पैन्ट की कमर समाप्त. वो ही हाल कमीज का है. जो मिलती है, पहन लेते हैं तो भारत में मित्र कहते हैं कि हाफ शर्ट पहने हो कि तीन चौथाई? इतनी लम्बी रहती है क्या कहीं हाफ स्लीव? अब क्या बतायें, कि वाकई वाली हाफ स्लीव में तो पेट खुला देख और भी खराब लगेगा, उससे बेहतर कि स्लीव ही लम्बी दिखे.
ट्रेन में रिजर्वेशन न हो तो किसी से कह कर बैठ भी नहीं सकते कि भाई जी, जरा खिसकना तो..जरा क्या पूरा खिसके तो शायद बाजू वाली सीट वाले को जरा खिसकना पड़े.
एक शायर कह गये:
करेला और उस पर से नीम चढ़ा.
अब हमारे साथ यह नीम ईश्वर की महान देन - हमारा रंग.
बचपन में नजर न लगे (क्यूट तो थे ही :)) तो अम्मा ठिठोना लगा देती थी काजल का.. फिर भी मोहल्ले वाले कहें कि इसे ठिठोना लगा दिया करो, कहीं नजर न खा जाये. अब क्या बतायें, ठिठोना तो लगाये घूम रहे हैं मगर हमारे रंग में ऐसा ब्लैंड हुआ कि दिख तक नहीं रहा.
कार्यालय का हमारा साथी, साथ में एक ही प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है. करते करते थक गये. रात में दो दो बजे तक काम करें और फिर सुबह ५ बजे से. उसकी आँख के नीचे काले गढ्ढे देखकर बॉस घबरा गया और उसे छुट्टी देकर घर भेज दिया. पड़े हमें भी रहे होंगे काले गढ्ढे, मगर दिखें तब न बॉस छुट्टी दे तो जुटे रहे प्रोजेक्ट निपटाने में. कौन मानें कि हम भी थक गये हैं. सब सोचते होंगे कि मौका निकाल कर नींद मार लेता होगा. ये भी रुप की ही उपज होगी कि कोई सीधा सादा मानने तैयार ही नहीं.
हर तरफ से चोट खाये आपको कविता सुनाने चले आये हैं कि कम से कम आप लोग तो मुझे समझोगे. यूँ ही ख्याल आया कि मेरा जीवन तो खुली किताब है, फिर क्यूँ लोग मुझे नहीं समझ पा रहे (कविता जरा दूसरे मूड की कभी किसी मोड़ पर लिखी होगी, बस सुनाने का मन हो आया) :

मेरी जिन्दगी
छोटी छोटी
खट्टी मीठी
कहानियों की
एक किताब
...
बस, बिकाऊ नहीं है
एक ही कॉपी है
वो भी
हस्त लिखित.
...
अपनी
किताबों के
मामले में
मैं थोड़ा पजेसिव हूँ.
...
मेरी लायब्रेरी
के
कायदे
तो
जानती हो न?
...
ले जाओ
जतन से पढ़ना
फिर
वापस करने की
जिम्मेदारी
भी तुम्हारी है.
..
-समीर लाल ’समीर’
नोट:
१. इसी बल्ड प्रेशर के चलते बहुत नेट पर भी आना नहीं हो रहा अतः अधिकतर जगह टिप्पणी न कर पाने के लिए क्षमाप्रार्थी.
२. जन्म दिवस पर आप सबकी बधाई और शुभकामनाओं का हृदय से आभार.