न जाने क्यूँ?
अब एक घुटन का अहसास होता है जब अपने आसपास की दुनिया देखता हूँ.
अपने बिल्कुल करीब, अपने ही लोगों के बीच.
किस तरह से इन्सान ही इन्सान के साथ व्यवहार कर रहा है. पहले मुझे यह एहसास शायद नहीं होता था. शायद मैं भी ऐसा ही करता रहा हूँ, याद नहीं. किन्तु मुझे यह तो जरुर याद है कि मैने हमेशा ही अपने आप को दूसरे की जगह भी रख कर देखा है. इतनी क्षमता मुझमें हमेशा ही रही है और मुझे इस बात का गर्व है.
हर बात पर अपने मातहतों और नौकरों को डाँटना, फटकारना और चार लोगों के बीच उनकी बेईज्जती करके खुद को बेहतर साबित करना, यह कैसी मानसिकता है? मैं समझ नहीं पाता. बस, मैं उस निरिह मजबूर इन्सान की आँखों को पढ़ने का प्रयास करता हूँ, जो तुम्हारा घरेलु नौकर है.
कितनी वेदना दिखती है और कितनी मजबूरी. शायद वो प्रतिकार करने की क्षमता भी खो चुका है और इस फटकार को उसने अपनी नियति मान लिया है. तभी तो वह क्षण भर में पूर्ववत हो जाता है और काम में तल्लीन और मैं उदासी और घुटन के माहौल से घंटों जूझ कर उबर पाता हूँ. ऐसा मुझे लगता है कि उबर गया मगर शायद यह सच नहीं..मैं खुद को झुठलाता भी तो हूँ.
तुम खुद की भूल को उसके मत्थे मढ़कर कितना खुश हो लेते हो. देखता हूँ तबियत तुम्हारी खराब है, दूध तुमको पीना है और समय पर न देने के लिये वह डाँट खाता है कि तुम्हें कुछ याद नहीं रहता. माना कि सत्तर आदेशों के बीच उसके दिमाग से यह और कोई अन्य बात उतर गई होगी मगर तुम्हारी तो खुद की तबीयत है, तुम कैसे भूल गये? और जिस वक्त वो भूला तब भी वह तुम्हारे ही किसी अन्य आदेश का पालन कर रहा होता है. एक बार फिर से कह कर तो देखो. जब भूले तो बस याद दिला दो. उसका तो काम ही सेवा करना है. फिर डांट कैसी और फटकार कैसी?
मगर इससे तुम्हारा अहम सम्मानित होता है. तुम अपने आप को कुछ उँचा समझने लगते हो इस पतनशील व्यवहार को अपनाकर. जब तुम और तुम्हारा परिवार सारा दिन बैठे बैठे आदेश पारित कर रहे होते हैं तब वह दो पांवों पर दौड़ दौड़ कर उन्हें निष्पादित कर रहा होता है मगर फिर भी उसके आराम करने की घड़ियाँ तुम्हारे आराम करने के समय से मेल खाना चाहिये अन्यथा वो आलसी एवं कामचोर कहलायेगा. घबरा जाता हूँ ऐसे माहौल से.
मगर यही तो माहौल है सब तरफ.फिर कहाँ जाऊँ? क्या बार बार लोगों को याद दिलाऊँ कि जिसे तुम बैल की तरह खदेड़ रहे हो वो भी तुम्हारी ही तरह एक इन्सान है. माना कि तुम उसे पैसा देते हो, खाना देते हो तो क्या तुमने उसे खरीद लिया है? क्या उसे पशु मानने का अधिकार प्राप्त कर लिया है? क्या उसे अपमानित कर तुम सम्मानित हो जाते हो वो भी बीच भीड़ में.
एक जवान लड़का-नाम बहादुर हो या रम्मू या कि धनिया, क्या फरक पड़ता है, मजबूरी में तुम्हारा नौकर या चपरासी और तुम २४ घंटे मय परिवार उसे पेर रहे हो. फिर भी कोई साहनभूति नहीं. तुम बैठे बैठे थक गये इसलिये वो पैर दबाये और वो दिन भर का खड़ा?? खैर, वो तो तुम्हारी नजरों में इन्सान है ही नहीं मगर तुम कैसे इन्सान हो? हो भी या इन्सानियत पूरे से मर गई है?
क्या तुम अपने इसी उम्र के बेटे से ऐसा ही व्यवहार करोगे? उसे तो तुम शाम को खेलने भेजते हो, आऊटिंग के लिये ले जाते हो. दो घंटे पढ़ क्या ले, नौकर को आदेश देते हो कि उसके सर में तेल लगा दे. दोपहर में सो जाने को कहते हो तो यह भी तो ऐसे ही किसी माँ बाप का बेटा है. वैसा ही तन, वैसा ही मन. सब कुछ एक. बस, परिस्थियों की मार से इतना अंतर-वो भी तब, जब वह स्वयं इन परिस्थियों के लिये जिम्मेदार नहीं.
मत उसके अभिमान को चार लोगों के सामने चकनाचूर करो सिर्फ इसलिये कि तुम्हारा झूठा स्वाभिमान बना रहे!!
मत अपनी भूलों को उस पर टालो!!! क्या पा लोगे तुम इससे? क्यूँ खुद को धोखा देते हो?
क्यूँ उसे इन्सान नहीं समझते!! क्यूँ खुद की नजरों में गिरने का काम करते हो? कभी अकेले में खुद से ईमानदारी से मिल कर देखना और पूछना.
थोड़ा एक अंश अपने बेटे का उसमे भी देखो...!! मदद लो, अहसानमंद हो- क्या चला जायेगा तुम्हारा इसमें? बेटा तो यूँ भी तुम्हारे साथ नहीं. उसे अब आगे भी कभी तुम्हारे लिए समय न होगा. वो तुमसे अपने हिस्से का समय लेकर निकल गया है. ऐसा ही होता है पुश्त दर पुश्त. कभी तुम निकले थे ऐसे ही.
बस, मन थका है. बहुत उदास!! क्या करुँ? शायद मेरे बस में कुछ भी बदल पाना नहीं..
हे गरीब बालक!! तेरी यही किस्मत है..तू इसे झेल. बस, मेरे सामने वो उदास आँखें लेकर मत आना. मुझसे नहीं देखी जाती. मैं परेशान हो जाता हूँ.
कल को मैं तो चला जाऊँगा मगर तू और तेरी बिरादरी का प्रस्थान मुझे तो कहीं नजर नहीं आता....दूर दूर तक!!!!! बस कोहरा ही कोहरा है...एक उदास धुंध!!!
दोस्त, मुझे दोष न देना-तुम ही नहीं-मैं भी मजबूर हूँ. वक्त और रिवायतों के हाथों!!
चन्द पंक्तियों के साथ अपनी बात खत्म करता हूँ:
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.
-समीर लाल ’समीर’
मंगलवार, जुलाई 14, 2009
न जाने क्यूँ-एक घुटन!!!
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71 टिप्पणियां:
भाव तो सम्वेदना का फिर भला सोयी वो कैसे?
अन्त में कविता बनी फिर भला खोयी वो कैसे?
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत लफ़ड़ा है। खोई हुई कविताओं की रपट थाने में लिखवायें।
अरे आज उड़नतश्तरी ..मानवीय संवेदनाओं से विभोर...बहुत ही सच ..आपने न जाने कितने उन लोगों का दर्द , उनकी स्थिति , उनकी मनोदशा.....और उनकी स्थिति के लिए जिम्मेदार लोगों के मनोविज्ञान को बखूबी उकेर दिया....हाँ यही तो अफ़सोस है न की एक इंसान ही दुसरे इंसान की क़द्र नहीं कर पाता
ओह ! मुझे भी बहुत सुधरना है -बहुत बहुत आभार समीर जी !
haa kabhi kabhi hum bhul jaate hai dusre ka aatmsanman aur khud k bada dikhane ke liye kuch bhi keh jaate hai,magar asal mein hum tab bahut chote hote hai.
अहं इतना भारी है कि एक माहतत काम के समय के अलावा भी कभी अपने सुपीरियर से खुल कर बात करने का साहस नहीं कर पाता। मजाक करना तो दूर की बात।
बहुत गहराई में जाकर लिखा आपने समीर जी, बहुत उम्दा लेख
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.
बहुत खूब!!!
आत्मा तृप्त हो गयी. आपको नमन.
....शिकार करने को आए, शिकार हो के चले....
कुछ कुछ अरविंदजी जैसे ही उद्गार हमारे भी हैं।
अच्छी पोस्ट। एक उक्ति है-बोलिबो न सीखो,सब सीखो गयो धूरि में...
मैं भी मजबूर हूँ. वक्त और रिवायतों के हाथों!
बहुत संवेदन शील मन को कचोत देने वाली भावनाओं के साथ प्रवाहमय बह गयी बहुत बसिया कविता और आलेख के लिये बधाई आभार
बहुत अहम यक्ष प्रश्न है. अनेकों बार दुखी होकर इसका उत्तर खोजने की कोशीश की है. परंतु ना तो व्यवहारिक तौर पर और ना आध्यात्मिक तौर पर इसका उत्तर खोज पाया. लगता है कुछ कर्म फ़ल की थ्योरी ही होगी. बहुत मार्मिक सवाल है.
रामराम.
ये घुटन हर संजीदा और भावुक किस्म के लोगो को होती है समीर जी.क्या करें, दुनिया एसी ही है, लोग भी..। जाएं तो जाएं तो कहां.जब हम खुद को दूसरे की जगह रख कर देखते हैं तब अपने व्यवहार पर कई बार बहुत ग्लानि होती है.ये स्वभाविक है. आप इतना समझ तो रहे हैं..कुछ लोग अपनी ही जगह रहते हैं जीवन भर.उन्हें शायद नहीं होती घुटन..
साहित्यिक पोस्ट की बधाई :)
संवेदनाएं, अहसास, मानवीय मूल्य....सभी बीते युग की बातें लगने लगी हैं, अब तो लोगों की यह मानसिकता बन गई है कि दूसरे के कंधे पर चढ़कर आकाश छू लो!!!!!!!!!!
आपका कचोट बड़े बेहतर तरीके से शब्दों में ढल सका है ।
पर.. मैं एक लाइन और जोड़ना चाहूँगा..
बहादुर, रम्मू या धनिया ही क्यों, अमर कुमार क्यों नहीं ?
अमर कुमार ही क्यों, वर्तमान सँदर्भों में ’इन-टोटैलिटी’ परस्पर के मानवीय सम्बन्ध क्यों नहीं ?
प्रेम के पराधीन भी ऎसी ही नियति नहीं रखते क्या ?
आप लगातार अपने किसी मित्र की भावनाओं का आदर करते आये, वह इसे अपनी श्रेष्ठता का अधिकार मान बैठा !
आपकी सदाशयता ने किसी निर्धन की सहायता को प्रेरित किया, कालाँतर में वह इसे अधिकारपूर्वक वसूलने लगा,
परस्पर आदर में पैठी यह नया थ्योरम, इस नये समीकरण में बहादुर, रम्मू या धनिया ही क्यों, अमर कुमार क्यों नहीं ?
याकि.. आप स्वयँ ही क्यों नहीं हैं, समीर भाई ?
आज इंसान को न जाने क्या हो गया है,
इंसानियत कही जाकर आज सो गया है,
लोग दूसरे की भावनाओं को तो कुछ समझते ही नही हैं,
मानवता भी कही खो गया है.
बहुत ही बढ़िया भावपूर्ण संस्मरण,
आज के परिवेश पर बढ़िया कटाक्ष पर शायद ही कोई सुधारनाचाहेगा..सब डूब चुके है..लोभ और स्वार्थ के समंदर मे..
धन्यवाद!!!
सब मज़बूर हैं।
mere maa papa ke saath bhi ek helper hai" rahul" , maa papa apne bete ki tarah rakhte hain par aas paas ke log(kutumb ke sadasya )aksart use pratadit kar dete hain , maa papa boodhe hai kuch kar nahin paate par meri maa dukhi ho kar ro deti hain ...........aapka lekh padha to dil udaas ho gaya laga jaise rahul ki baat padh rahi hoon .
बिलकुल सोने बरगी खरी बात है | अपनी सारी गलतियों की पांड नौकरों के सर रख कर अपने आप को तस्सल्ली देते हैं |
और अपने आप को इंसान समझते हैं | लानत है ऐसी इंसानियत पर!!
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.
बेहद भावुक कर देने वाला लिखा है आपने बहुत कुछ कह रही है आज की पोस्ट ..
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
मुझमे सुधार की गुंजाईश थोडी कम है ..संतोष हुआ की मैं बहुत बुरी नही हूँ.
अरे...! आज तो आपने बिलकुल झकझोर ही दिया...! उम्मीद है आज सब जा कर घर में अपने अपने सहायकों को आदेश देने के पूर्व एक बार तो सोचेंगे ही...!
ये तेवर बनाये रखें...!
हमें भी बचपन से यही सिखाया गया कि किसी भी व्यवहार से पूर्व खुद को वहां रखके देखो....पर सच यही है कि ऐसा सोचनेवाले कम हैं......मैं आपकी सोच समझ सकती हूँ और अन्दर की घुटन
""मगर इससे तुम्हारा अहम सम्मानित होता है. तुम अपने आप को कुछ उँचा समझने लगते हो इस पतनशील व्यवहार को अपनाकर.""
सही कह रहें हैं,केवल झूठा आत्मसम्मान और यह अंहकार कि मैं सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हूँ ,इस घटना घटित करवाने के मूल कारणों में से है .आप ने आज एक बहुत सामाजिक विषय पर लेखनी उठाई है इसके लिए आपको बहुत -बहुत धन्यवाद .
बहुत अच्छी बात लिखी है आपने...ये समस्या घर घर की है बहुत कम घर होते हैं जहाँ नौकर को इंसान समझा जाता है...मैंने देखा है की नौकर अधिकतर अपने मालिक से अधिक समझदार होते हैं...लेकिन मजबूरी उनको सब कुछ सहने को मजबूर कर देती है...
नीरज
सच कहा आपने, आदमी परिस्थितियों का दास है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
जिसे अपने और अपने परिवार के पेट की ज्यादा फिक्र है उसकी तो ये मजबूरी हो सकती है लेकिन कहाँ गयी हमारी इंसानियत ? अपने दंभ में हम इन्सान को भी इन्सान नहीं समझते . और ये सिर्फ उस बेचारे धनीराम के साथ नहीं हो रहा है बड़े बड़े सफेदपोश भी अपने बॉस के उत्पीडन के शिकार हैं .नौकर अगर महिला हो तो ये उत्पीडन शोषण की देहलीज पार कर जाता है . ये तो विश्व में चारो ओर फैला नासूर है
दिल के अन्दर के बहुत गहरे भाव है समीर जी, मगर सिर्फ उनके लिए जो इसकी अहमियत समझते हो !
Treat others like you want to be treated. It doesn't hurt to be nice and respectful and if you are nice and respectful you will be happier.
regards,
हमेशा अपने आप को दूसरे की जगह भी रख कर देखना चाहिए .. तभी समझ में आता है क्या गलत हो रहा है और क्या सही ?
Samir ji post ki shuruati lines ne hi dil chhu liya...
bahut sach baat kahi hai apne...
नौकर-चाकर रखकर काम करानेवाले ये देखते हैं कि पैसे कैसे वसूल करने हैं। हद है हैवानियत की। मैं इसके सख्त खिलाफ हूँ कि कोई दूसरे इंसान से काम लेते वक्त शोषक ही बन जाए।
ये लड़ाई है दूसरे को आत्मसम्मान दिलाने की। सच कहा है आपने पर नियति है जिसके पास जो है वो उसी के लिए भी दुखी है और जो नहीं उसके लिए भी। पर लोगों की सोच को बदलना इतना आसान नहीं क्योंकि हमें अपनी सोच भी बदलनी होगी।
इस पोस्ट की शेल्फलाइफ के तिये-पांचे में न पड़ें तो बहुत मर्म को छू जाने वाली पोस्ट है।
धन्यवाद।
"क्या तुम अपने इसी उम्र के बेटे से ऐसा ही व्यवहार करोगे?"
"देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं."
बहुत मर्मस्पर्शी पोस्ट लगाई है,
समीरलाल जी!
आभार!
Aaj ke mahol mein jahaan sab bas apna hi apna sochte hain...... jahaa samvednayen dab gayee ho arth ke neeche vhaan koun is baat ko samjhega...... lajawaab aur dard bhare dil se likhi post.....
आपने आज के समाज की परिस्थति क़ॉ बडी सहजता से अपनी कलम सॆ पन्नो पर उतारा है .समझने वाले समझे तो बहुत अच्छा है क़ुछ हद तक इंसानियत बरकरार होगी .
यही तो दिक्कत है, कोई भी एम्पैथैटिक नहीं होना चाहता.
जिसके लिए लिखा गया है वह अगर पढ़ ले तो शायद सुधर जाय !
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं."
हम लोगों की असंवेदनशीलता जिन्दगी के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है ..
शानदार लेखन. अद्भुत पोस्ट.
मैं भी बचपन से यही महसूस करता हूं ।
लेकिन मजा ये कि जो पीडित हैं, वो तो है ही जो पीडक है वो भी खुद को जस्टिफ़ाई करता है ।
अब जब सब खुद को असहाय ही मान रहे हैं और कुछ इनका समर्थन करने वाले भी मिल जाते हैं । तो किसको क्या कहें ।
"क्या करें करना पडता है मजबूरी है"
सच गरीब होना आज सबसे बड़ा अपराध हो गया
इंसान , इंसान नहीं जानवरों में से एकाध हो गया
मर क्यों गयी ?क्यों ऊँचे लोगो की संवेदना ?
समझ लो भाई एक गरीब इंसान की वेदना !!
आज दुनिया में इंसान बढ़ रहे है , मगर इंसानियत घट रही है .
अच्छी पोस्ट लिखी है आपने
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.
बहुत ही भावपूर्ण रचना . अपने भावो को आपने बड़ी गहराई से उकेरा है . धन्यवाद.
समीर जी मेने देखा है यह सब , ओर लडा भी हुं इस बात के लिये, लेकिन कोई नही सुधरने वाला, यह रामू को या शायमू बेचारे के संग इस से भी बुरा बरताव देखा है,इंसानियत .....? काश आप की इस पोस्ट से दस लोग भी सुधर जाये दस रामू सुखी हो जायेगे.
धन्यवाद
बहुत ही उम्दा लेखन सो चुकी मानवीय संवेदनाओं को जगाने का बेहतरीन प्रयास .
Samvedna khatm to nahin huyi hai, par hamne uska daman jarur chhod diya hai..apki post rah dikhati hai, sochne ko majbur karti hai !!
Sahi likha Uncle ji .
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.
bahut khoob kaha
poore lekh ka saar in panktiyo main sama gaya ...:)
जो मैं लिखना चाहती थी, आप ने लिख दिया.
नमन करती हूँ-संवेगात्मक अभिव्यक्ति की.
धन्यवाद!
कैसा अजीब इत्तेफ़ाक़ ..! एक बार पहले आपने 'jenny 'के बारेमे पूछा था .."मेरे घरमे भूत है ",इस बात को लेके ..!( आजतक यहाँतक -'बोले तू कौनसी बोली?')
मैंने उसे अपनी बेटी की तरह प्यार दिया... घर के हर व्यक्ती के घुस्से से उसे महरूम रखा ..ये पहली बार नही ,की , ऐसे किसी ने मुझपे एक नागिन की तरह वार किया ,जो उसने किया ..!
मैंने अपने जीवन में नौकर तो रखे, लेकिन, उन्हें हमेशा इंसान ही समझा..! लेकिन ९० प्रतिशत से अधिक लोगों ने इस बात का ग़लत फायदा उठाया..ये भी उतना ही कड़वा सच है!
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Aapke lekhan kaushaly ke bareme comment karnekee qabiliyat nahee rakhtee...!
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बहुत गहराई में जाकर लिखा आपने ,बहुत उम्दा लेख |
बधाई |
बहुत गहराई में जाकर लिखा आपने ,बहुत उम्दा लेख |
बधाई |
संवेदनायें सोई नहीं पूरी तरह जागरूक हैं। और कवितायें- उनके खोने का तो सवाल ही नहीं। जहां संवेदना है और लिखने की क्षमता है वहां कविता तो होगी ही।
एक संवेदनशील पोस्ट।
कहीं पढ़ा था कि
हमने समंदर में मछ्लियों की तरह तैरना सीख लिया, आसमान में पंछियों की तरह उड़ना सीख लिया। अब जरा धरती पर इंसानों की तरह व्यवहार करना भी सीख लें!
समीरजी !!!
""मैने हमेशा ही अपने आप को दूसरे की जगह भी रख कर देखा है. इतनी क्षमता मुझमें हमेशा ही रही है और मुझे इस बात का गर्व है.""
आप द्वारा उपर लिखे वाक्य ही आपके लेख की अवधारणा है एवम समाधान भी। अगर हम सभी किसी अन्य को भला बुरा कहे उससे पहले स्वय को उसकी जगह पर रखकर देखे तो अक्कल ठीकाने आजाऐ।
अति सुन्दर!!!
इन विचारो ko वैज्ञानिक इसलिए कह रहा हू की ऐसे विचारो कि आज के समय मे अधिक अपेक्षा है।
आभार
हे प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई टाईगर
marmik post hai...
meet
sameer zee apki samvedna ko salam karta hoon. Ap jaise log samaj ko jodne ka kam karte hain.
आत्म मन्थन कर आप क्या-क्या् निकाल रहे है , आजकल!
एसा ही एक अनुभव मुझे भी हुआ, लालच हो रही है कि आप तक भि पहुन्चा दूं।
shishtataa
शिष्टता
सर उठाये रखने की स्थिति मनुष्य को गर्वानुभाव कराती है,फिर वह
चाहे जूते पर पाँलिश करवाते समय किसी युवक या अबोध बालक के
सामने लकड़ी के तख़्ते पर पाँव रखने की अवस्था में ही सर क्यों न
उठाना पड़ रहा हो। उस समय नीचे देखना आपको कम ही रूचिकर
लगेगा!
अब जबकि पाँलिश किये हुए जूते पहनने का आचरण शिष्टता की परीधि
में आता है और हमारा पांव बल्कि हमारा जूता थामे होने की स्थिति
में किसी व्यक्ति से सेवा लेते हुए अशिष्ट हमे कुछ भी प्रतीत नही होता;
इसी बदले हुए संदर्भ में उस सेवा का मूल्य, अव्मूल्यित हुए रूपये को
उछाल कर भी दे तो वह कर्त्य फ़ैशन ही माना जायेगा!
खड़े रहने की अवस्था की मजबूरी वश या आत्माभिमान की किसी अनजानी
भावना वश तना हुवा मेरा माथा ठनका, जैसे ही मैरा उछाला हुवा सिक्का
पसीने में लिप्त गर्म हथेली में चुपचाप समा जाने कि बजाये फ़र्श पर गिर
कर खनका।
सिक्के की मद्धिम होती धवनि के साथ-साथ ही जैसे मै भी अर्श से फ़र्श
पर उतरा!
एक मासूम बालक, एक परिचित सा चेहरा, रूपये का कैच जिसने अभ्यस्त
न होने के कारण छोड़ दिया था, मुस्कराते हुए मुझसे बोला, "अंकल, आपसे
पैसे नही लूंगा।", आवाज़ पह्चानी सी लगी। सहसा स्मर्ति-पटल पर एक
चित्र उभरा। रेल्वे प्लेटफ़ार्म पर पांच पैसे की भीख मांगता हुवा एक परेशान
चेहरा। मुझसे भीख नही दी गई, मैने उसकी भूख मिटाने का प्रबन्ध कर दिया और एक पाँलिश की डिब्बी व ब्रश दिलवा दिये थे।
यह वही प्यारा सा बालक सूरज था,जिस पर भीख का गहन मैने नही लगने दिया था, मांगने का सबसे पहला प्रयास उसने मुझसे ही किया था। उसके
बापू का पता पूछ कर एक चिठठी भी डाल दी थी। शायद वह लेने नही
आया, तभी तो वह इसी शहर में बस गया दिखता है। पिता के लिये यह
सूरज अस्त हो चुका था या पिता ही का सूरज अस्त हो गया था…यह
जानने का प्रयत्न कर मै सूरज को उदास होता नही देखना चाहता था।
आज, छः माह बाद क्रतझता से मुझे देखते हुए यह प्यारा सा बालक मुझे
निःशुल्क सेवा दे कर प्रथम भेट का वह कर्ज़ उतारने का प्रयत्न कर रहा था।
मैने भी ज़िद कर उसका दिल नही तोड़ा। लेकिन उसके साथ सड़क ही
पर खड़े रह चाय अवश्य पी, प्रसन्नचित घर पर लौटा। अब मै अपने
जूते की पाँलिश स्वयँ ही बना लेता हूँ, ताकि अन्जाने ही में उस बालक या
किसी और व्यक्ति को हेय द्रष्टि से न देख लूँ। हाँ, चाय पीने के बहाने उस
बालक की कुशल-क्षेम जानने अक्सर चला जाता हूँ।
[http://adabnawaz.blogspot.com]
-Mansoorali hashmi
बस इस कविता को न खोने दो सरकार...
Ye duniya aisi hi hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.
........................
SO SAD.
नहीं, अब संवेदना को जगाना होगा...खोई कविता को वापस लाना होगा...अब और नहीं...अज्ञेय की पंक्ति याद रही है-आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छाएगा
aapko padhhna meri jaroorat ho gai he/
insaani zazbaat aour samvednaao ki rachnaye mujhe hameshaa ruchikar lagi he//
bahut kuchh seekhane ko mi rahaa he aapse/
dhnyavaad
वाकई में ये विषय सोचने के लिए ही नही कुछ करने के लिए है........
मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं यहाँ पर............
"वो बच्चा जो बेचता है आपके बच्चे को गुब्बारे,
उसे भी अपनी नन्ही ख्वाहिशों की याद रहती है!!"
क्या बात है समीर भाई यह तो सम्वेदना का अतिरेक है
svednaye haitbhi to aapne dusro ke dard ko mhsus kiya hai .kitu ye sikke ka ak phlu hai .teji se bdlte
samajik privesh me aaj koi bhi naoukar malik ki kisi bhi prkar ki jyadti bardasht nhi krta aur apne nye raste chun leta hai kyoki aaj uske samne bhut viklp hai .
manvta ke vicharo se bhari man ko chu lene vali post .
सच कहा सर.
देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.
प्रेणास्पद बाते कोई आपसे सीखे। सरजी! समझ नही आता है आप इन सभी सवेदन भरे पात्र को बेखुबी निभा भी लेते हो चुटिकियो मे एक सामाजिक सन्देश भी दे जाते हो। आज हे प्रभू आपकी इस महान साहित्यक कला को सलाम करना है। आप अन्दर कि दृष्टी से देखे मै आपको
standing avation दे रहा हू।
आभार। शुभकामानाऍ
हे प्रभू यह तेरापन्थ
मुम्बई टाईगर
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