रविवार, मई 31, 2009

कुछ निवेदन और पहेली का जबाब एवं विजेता

जब कालेज में पढ़ा करते थे, अमिताभ बच्चन टॉप पर थे. जो फिल्म आये, हिट होती थी. हॉल में नई फिल्म में सुबह ६ बजे से शो शुरु हो जाते थे और रात १२ बजे तक चलते रहते थे.

जमाने में बहुत कुछ नहीं बदला, उनमें से एक बात यह भी नहीं बदली कि तब भी टिकिट के ब्लैकिये तबीयत से पुलिस की मिलिभगत में कारोबार करते थे और आज भी. अमिताभ की किसी भी नई फिल्म के शुरुवाती हफ्ते उनके लिए धन्धे का व्यस्त समय होते थे.

अब का पता नहीं मगर तब अमिताभ का ऐसा क्रेज होता था कि कालेज के आधे से ज्यादा लड़के, जिसमें हम खुद भी शामिल थे, कान को ढके बाल के साथ उल्टा सेवन वाली कलम रखा करते थे. फिल्म खत्म होने पर यही वीर दोनों हाथ पाकेट में डाले सर झुकाये टहलते हुए निकलते थे मानो खुद ही अमिताभ हों. हर चेहरे पर उसी के समान गुस्सा और एक विद्रोह का भाव.

हमारे साथ पढ़ते थे नीरज शर्मा. एक मात्र योग्यता के आधार पर कि वह ६ फुट से कुछ ज्यादा थे, वो अपने आप को अमिताभ बच्चन समझते थे. वही स्टाईल बिल्कुल कॉपी. शायद शीशा देखने के आदी न रहे होंगे तो मुगालते में पलते रहे.

हम दोस्तों का सच्चा झूठा प्रोत्साहन तो साथ रहता ही था बाफर्ज, सब उसे अमित कह कर ही पुकारते थे और वह दिन भी आ गया, जब वो एक ऑर्केस्ट्रा के साथ अमिताभ बच्चन की नकल करते मंच पर नज़र आने लगे. मंच की चकाचौंध, स्टाईल ,चश्मा, बाल आदि में वो वाकई अमिताभ सा ही लगता था दर्शक दीर्घा से.

देखा, प्रोत्साहन का नतीजा!!


यह सूत्र जीवन हर क्षेत्र में लागू होता है. लेखक या कवि लिख रहा है, माना कि नया है और बहुत अच्छा न भी लिख रहा हो मगर एक मुगालते में तो है ही कि वो लेखक है या कवि है. ६ फुट से ज्यादा होने की तरह एकाध क्वालिटी तो है ही तभी तो कम्प्यूटर पर लिख पा रहा है ब्लॉग खोल कर. उसे भी लाइम लाईट में लाओ भाई.

जरुरत है बस तुम्हारे प्रोत्साहन की और तुम हो कि अपनी लेखनी पर फूले पिचके मूँह फुलाये बैठे हो. कुछ बोलते ही नहीं. कभी अपने शुरुवाती लेखन को भी देखना और फिर आज का. क्या शुरु से ही ऐसा ही लिख रहे हो. फिर?? वो भी नया आया है लेखन में जैसे कभी तुम आये थे. बस, दरकार है उसे तुम्हारे प्रोत्साहन की.

भय मत खाओ कि वो तुम्हें पीछे छोड़ कर आगे निकल जायेगा.
सो तो अपने इस दंभ के तले यूँ भी छूट जाओगे. विश्वास करो प्रोत्साहन देने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा मगर उसका बहुत कुछ बन जायेगा.

बस, आज इतना ही. किसी की ईमेल आई है जिसने ब्लॉग जगत में आई टिप्पणियों की मंदी और पुराने लिख्खाड़ों द्वारा नये लोगों के ब्लॉग पर टिप्पणी न देने पर चिन्ता और मायूसी जाहिर की गई है. बात उनकी सही लगी, तो निवेदन दर्ज कर दिया.


अब, पिछली पोस्ट पर पूछी गई पहेली:

पहली बात तो उस आलेख का उदगम स्थल था निशान्त मिश्र जी का ब्लॉग हिन्दी जेन पर २९ मई को पूछी गई पहेली पर आई बेनामी जी की टिप्पणी.

पहेली के चित्र:



का सही जबाब:

ऊपर: श्री ज्ञान दत्त पांडे

चश्मा: श्री अजीत वडनेकर

नीचे: डॉ अनुराग आर्या



विजेता रहे:

प्रथम: ताऊ रामपुरिया



द्वितीय: सैयद

तीसरे नम्बर पर: संजय तिवारी ’संजू’

चौथे: श्री ज्ञान दत्त पांडे जी


विजेताओं को बधाई.


सभी प्रतिभागियों का बहुत आभार और बधाई.


चलते चलते:

तीन चार पोस्ट पहले कविता पर एक टिप्पणी आई:

’सहनीय रचना’

हम चकित. सब इतनी तारीफ मचाये हैं और ये भाई जी कह रहे हैं ’सहनीय रचना’. रात भर जागे रहे कि ये क्या हुआ. फिर एकाएक सुबह के सूरज के साथ दिमाग खुला कि टंकण त्रुटि के चलते ’सराहनीय रचना’ की जगह ’सहनीय रचना’ लिख गया होगा. बस, पूरे उत्साह से टिप्पणीकर्ता को ईमेल लिखी गई और निवेदन किया गया कि शायद टंकण त्रुटि रह गई है और प्रोत्साहन की आदत के चलते जोड़ दिया कि अक्सर जल्दबाजी में ऐसा हो जाता है. जबाब आने में जरा भी समय नहीं लगा. लिखा कि ’भाई उड़न जी, आपसे सहमत हूँ कि जल्दबाजी में ऐसा हो जाना संभव है किन्तु यह टिप्पणी तो जल्दबाजी में नहीं लिखी है. दरअसल मैं वही कहना चाह रहा था जो आप पढ़ रहे हैं.
अब??

अब क्या-रिजेक्ट-मॉडरेशन का फायदा उठा लिया. इसीलिए कहता हूँ कि मॉडरेशन लगाओ. यह तो अच्छी सलाह थी जिसने मुझे अपनी रचनाओं पर पुनर्विचार का मौका दिया, बस जरा दंभ आड़े आ गया. इन्सान हूँ और गलत फैसले लेना इन्सानी स्वभाव, मैं कैसे अछूता रह सकता हूँ तो हो गया गलत फैसला रिजेक्ट करने का. मगर अक्सर लोग उट पटांग बातें लिख कर भाग जाते हैं, यहाँ तक की गाली गलोज भी. उसे तो आप कंट्रोल कर ही सकते हो मॉडरेशन से बात बढ़ाने की बजाये. Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, मई 29, 2009

क्या बूझूँ, क्या याद करुँ? : पहेलियों का माया जाल!!

लिखने के पहले साफ कर दें कि हम तो खुद ही पहेली बूझने सबसे पहली पंक्ति में खड़े रहते हैं और ताऊ पहेली पर हैट्रिक लगाकर ’महा ताऊ श्री’ एवं संचालक मंडल का हिस्सा भी बन गये हैं लेकिन यह आलेख किसी बेनामी की भावनाओं की गिरफ्त में लिखा जा रहा है. अब बूझ के बताओ कि उस बेनामी नें कब और कहाँ ऐसी टिप्पणी की कि इस आलेख का जन्म हुआ.

वैसे भी सदाचार का भाषण देने के लिए सदाचारी होना कोई जरुरी थोड़े ही है वरना तो बाबा लोगों के मंचो पर आकाल पड़ जायेगा. ये दूसरी बात है कि मोटी चमड़ी वाले ये बाबा आकाल के बाद भी मासूम किसानों की तरह आत्म हत्या नहीं करने वाले. इनका क्या है, नेता हो लेंगे.

आजकल पूरा ब्लॉगजगत लाल बुझक्कड़ बना हुआ है.

लाल बुझक्कड बूझ गए,और ना बूझा कोय
पैर में चक्की बांध के हिरणा कूदा होय


जिसे देखो, एक ठो तस्वीर लिए चला आ रहा है कि ’पहचानों कौन?’ और हम जैसे दसियों पीर जुटे हैं अटकल लगाने में. जितनी देर लगती है एक पहेली का जबाब ढ़ूंढने में, उतनी देर में कम से कम दस ब्लॉग को जिन्दाबाद कर आये होते. भारत जैसा हाल है, जितने का गबन हुआ, उससे कई गुना ज्यादा जाँच समितियाँ निपटा गईं और हाथ आया सिफर.

मगर नाम का मोह छूटे जब न!! यहाँ भी हमारा नाम रहे, वहाँ भी और वहाँ भी. कई बार तो खुद से कहने लगता हूँ कि अरे महाराज, जितना गुगल पर दौड़ रहे हो जबाब ढूंढने, इतने का दस परसेन्ट भी अगर ब्लॉगजगत के बाहर दौड़ लगाई होती तो इतनी सॉलिड और छरहरी बॉडी बन जाती कि खुद का फोटू लगा कर पूछ सकते थे, ’पहचान कौन?’

लोग अटकलें लगाते कि पक्का अमिताभ है, कोई कहता सलमान है तो कोई कहता शाहरुख मगर कोई सच न बता पाता. फिर हम क्लू देते कि हैं उन्हीं टाईप, वेरी क्लोज मगर वो नहीं हैं. दाई ओर देख, बाईं ओर देख और जाने क्या क्या क्लू!!

अब आजकल तो हिट ही हो रही है. किसी भी ब्लॉगर का फोटू उठाया, फोटो शॉप खोली, स्मज टूल पकड़ा और लगे फोटू की बैण्ड बजाने और चिपका दिया-’पहचान कौन?’ क्या खाक पहचानें? जिसकी है वो तक तो पहचान नहीं पा रहा. यहाँ तक कि अगर पूछने वाले के पास से नाम गुम जाये तो पहेली का परिणाम घोषित करना भारी पड़ जाये.

फोटो पर कुछ कलाकारी करो कि जैसे आँख किसी की, मूँह पर आधा किसी का और आधा किसी का, फिर पूछो कि तीनों को पहचानों, तो फिर भी समझे. पूरा रगड़ मारो और फिर पूछो कि ’पहचान कौन?’ यह तो नाईन्साफी है. इतना भी पूछ लेते कि यह क्या है तो भी न बता पाते कि किसी ब्लॉगर की तस्वीर है. बस, आधे कहते कि फूल है, कोई कहता समुन्द्र तो कोई आसमान बताता. ऐसी हालत कर देते हो तुम फोटू की.

इनके लफड़े में पड़े तो अपनी आदत खराब हुई जा रही है. कहीं फोन करो अगला नेचुरली पूछता है कि कौन बोल रहे हैं और हम बिगड़ी आदत लिए, ’बूझो तो जाने?’. फिर वो कहता है कि ’नहीं पहचान पा रहे हैं’ हम इधर से पूछ रहे हैं कि ’क्लू दूँ क्या?’ दोस्त पागल सा समझने लगे हैं.

कहीं पत्ती मिल जाये, मरा जानवर मिल जाये, टूटा फल मिल जाये, कोई उल्टा टंगा दिख जाये-बस, लगे फोटो लेने. पत्नी पूछा रही है कि इस फोटू का क्या करोगे तो बस एक जबाब, ’पहेली पूछूँगा’.. मानो पहेली न हुई, किसी गरीब का हाल हो गया. जो नेता आ रहा है, पूछ कर चला जा रहा है. बूझने को कोई बूझ नहीं पा रहा है. अब, पत्नी ने भी ध्यान देना बंद कर दिया है. पागल के साथ जीना भी इन्सान सीख ही जाता है खास तौर पर अगर वो आपकी पत्नी हो.


अब तुम पहेलीबाजों से क्या कहूँ कि एक तो ये बूझने, पूछने वाली नित नौटंकी फैलाये हो फिर उस पर से तुर्रा यह कि ’यह १०० वीं पोस्ट है’ बधाई दो..अरे, अगर यही पोस्ट है तो हफ्ते भर में १०० कर डालें. :) फिर देते रहना ’साप्ताहिक बधाई’.

पहेली वो पूछ मेरे आका जिससे कुछ ज्ञान बढ़े. वाकई कुछ जानकारी मिले. ब्लॉगर कायदे के पन्नों में जाकर स्मारकों को, ज्ञानियों को ढूंढे और उनके बारे में जाने. ताऊ को देखो, एक से एक स्मारक ला रहा है, ऐतिहासिक महत्व की और फिर उसके बारे में पूरी जानकारी. कितना ज्ञावर्धन होता है. कुछ तो सीखो.



सिर्फ खेल खेल करना है तो आओ, ताश वाला जुआ खेलें. अगर समय खोटी जाये तो कुछ कमाई धमाई का जुगाड़ भी बैठे.

वैसे तो जिसको जो खेल खिलाना हो, खिलाओ. हम तो बस मौज लेने निकले थे सो ले ली.


अब बुरा लगा हो तो इसका जबाब देना:


तीन ब्लॉगर्स

इस एक फोटो में तीन ब्लॉगर है. माथा और उपर-एक, चश्मा और आँख-दो और आधी नाक और उसके नीचे-तीन. तीन के तीनों नामी गिरामी धाकड़ ब्लॉगर.

पहचानो कौन??

वैसे, मैं इस फील्ड में नहीं आ रहा हूँ तो निश्चिंत रहो. आज पूछ इसलिए लिया कि तुम्हारे पास कहने को रहे कि तुम भी तो वही कर रहे हो. माईनोरटि में जाते डर लग रहा है न इसलिए.

अंत मे: कोई बुरा मत मान जाना भाई. आज कहीं एक बेनामी टिप्पणी पढ़ी, उसी का सार संक्षेप है. :)


जरुरी सूचना: कल ५ दिन के लिए केलिफोर्निया जा रहे हैं. ७ घंटे की लम्बी दूरी की हवाई यात्रा है. नेट से दूरी रहेगी मगर पहुँच कर जुड़ने का प्रयास रहेगा. Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, मई 27, 2009

सावधानी हटी और दुर्घटना घटी

कल कहीं एक बहुत बेहतरीन चेतावनी पढ़ रहा था:

’यदि आपकी उम्र ५० से अधिक है और सुबह नींद खुलने पर आपके शरीर के किसी भी हिस्से में दर्द नहीं है तो शायद आप मर चुके हैं. जरा, चैक कर लिजिये.’

अब मर ही गये हैं तो क्या खाक चैक करें जी. मरे ही ठीक. डले रहेंगे. कोई न कोई मरघट तक पहुँचा ही देगा.

मुझे लगता है कि यह पंक्ति बदली जा सकती है:

’यदि आप ब्लॉगर हैं या कम्प्यूटर पर ३ घंटे से ज्यादा समय बिताते हैं तो आप ने उम्र पर विजय प्राप्त कर ली है. आपको ५० का होने की जरुरत नहीं. किसी भी उम्र में उपरोक्त वाक्य सिद्ध माना जा सकता है.’

मर जाने का उम्र से क्या लेना देना. आजकल तो २२-२३ साल के युवाओं को हार्ट अटैक आये जा रहे हैं.

ऐसे नहीं कि इन पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकती. निश्चित ही अनुशासित जीवन, नियमित और पौष्टिक खुराक और सही व्यायाम के साथ इनको हराया जा सकता है.
(मेरी तस्वीर इतने आश्चर्य से क्या देख रहे हो? ज्ञान बाँटने के लिए ज्ञानी होना जरुरी थोड़े है और ज्ञान बाँटने वाला अगर सारी बातों पर अमल करे तो ये जितने बाबा हवाई जहाज से आकर मंच पर तुम्हें भाषण देकर ऐश कर रहे हैं, वो भीख मांग रहे होते और जंगल में रहते)

तो बात करें सही व्यायाम की. ५० के बाद वाले छोड़ो, उसे तो हम भी छोड़े ही हुए हैं. अभी तो बस वो कम्प्यूटर पर ३ घंटे से ज्यादा बिताने वालों की देखो. वो ज्यादा जरुरी हैं तुम्हारे लिए क्योंकि जब यह ब्लॉग पढ़ रहे हो तो कम्प्यूटर प्रेमी तो होगे ही वरना तो अंग्रेजी की कुछ वेब साईट देख कर खिसक लेते.

मैं एक ऐसे सज्जन को जानता हूँ जो रोज नियम से सुबह आधा घंटे नेट पर टाईम्स ऑफ इंडिया पढ़ते हैं और बस!! इसके सिवाय कम्प्यूटर से कुछ लेना देना नहीं. पान की दुकान में गर्व से सीना चौड़ा कर बताते हैं कि हम तो न्यूज कम्प्यूटर पर ही देखते हैं. भले आदमी, सिर्फ टाईम्स ऑफ इंडिया पढ़ने के लिए कम्प्यूटर और फिर नेट का कनेक्शन, कम्प्यूटर ढ़कने की चादर, टेबल, कुर्सी, एसी और जाने क्या क्या इन्वेस्टमेन्ट कर डाला. अब समझे मंदी का असल जिम्मेदार कौन. सारा का सारा डेड इन्वेस्टमेन्ट.

उनकी वो जाने आप तो व्यायाम देखो:

व्यायाम

१. कभी २० मिनट से ज्यादा स्क्रीन पर लगातार मत देखो.

-हर २० मिनट बाद, आँख कम्प्यूटर स्क्रीन से हटाकर चार बार एक आँख जोर से मींचो और चार बार दूसरी और फिर चार बार दोनों एक साथ. फिर दोनों हथेलियों को आपस में ७ से ८ बार घिसो, घिसो और दोनों आँखों पर हथेली लगाओ. फिर घिसो, फिर लगाओ-ऐसा भी चार बार करो. अब फिर से काम करने को तैयार. समय खर्च हुआ ३० सेकेंड से कम और आँख रहे चकाचक.

सावधानी: अगर दफ्तर में या साईबर कैफे में हो, तो आँख मींचने के पहले देख लो कि मूँह किसी लड़की की ओर तो नहीं. वरना आँख तो सही हो जायेगी और जो मार पड़ेगी, उससे बाकी हड्डियाँ हिल सकती हैं.

२.कुर्सी पर बैठे बैठे काम करते करते पंजे के बल ऐड़ी उपर उठाओ, कुछ देर रुको और फिर ऐड़ी जमीन पर छुलाओ. ऐसा जब भी याद आये, कर लो. कोई समय सीमा नहीं, कोई निश्चित आवृति नहीं. पैरों का ब्लड सर्कूलेशन बना रहेगा. कई जो धुटने में दिमागधारी हैं, उनके लिए तो रामबाण.

सावधानी: सिर्फ ऐड़ी उठाना है, खुद को नहीं वरना अगर हमारी जैसी कायाधारी हो तो मोच आ सकती है और दूसरा पड़ोस के क्यूबिकल में बैठी सुकन्या को गलतफहमी हो सकती है कि तुम उचक उचक कर उसे ताक रहे हो. कहीं कम्पलेन्ट कर दी तो मंदी में तो दूसरी नौकरी भी मिलने से रही.

३. हर १ से १.३० घंटे में अपने दोनों हाथ सामने सीधे फैला लो. दोनों हथेली जमीन को देख रही हो. फिर हाथ को यथास्थिति में रखते हुए हथेली के उपर उठाओ ताकि वो सामने की दीवाल देखने लगे, जितना ज्यादा देख सके. फिर उसे नीचे झुकाओ ताकि अब वो उल्टा हो तुम्हें देखे और उँगलियों की पोर जमीन को. ऐसा दस बार करो. फिर हाथ सीधा रखते हुए १० बार मुट्ठी भींच कर बंद करो और पूरी हथेली फैला कर खोलो. फिर पांच बार बंद मुठ्ठी को कलाई से बाईं ओर घुमाओ और पांच बार दाईं ओर. फिर हाथ सामन्य स्थिति में ले आओ और काम पर लग जाओ.

सावधानी: समझदार तो हो ही. मुठ्ठी खोलते और बंद करते वक्त कंडिका १ वाली ही सावधानी बरतो, वरना कोई सिर फिरी हुई तो कंडिका १ वाली ही परेशानी हो सकती है. ये उपर वाले फोटो से कन्फ्यूज मत होना. इन्हें तो कहीं भी बिना सावधानी कुछ भी करना एलाउड है. इनका साथ देने हजार आ जायेंगे और तुमको पीटने भी हजार.

४. दिन में कम से कम दो से तीन बार दोनों हथेलियों को बैठे बैठे गरदन के पीछे ले जाओ और हथेलियों की आपस में उँगलियों से फंसा लो. फिर दोनों हथेलियों को गरदन से धक्का दो. सामान्य हो जाओ और फिर धक्का दो जब तक बरदाश्त हो. ऐसा कम से कम पाँच बार करो, फिर सामान्य स्थिति में आ जाओ.

सावधानी: इसमें क्या सावधानी?? आदत पड़ गई सावधानी पूछने की ३ ही बार में तो चलो बता देते हैं: ध्यान रखो कि बॉस आस पास न हो वरना इस मुद्रा में वो समझेगा कि तुम काम से बोर हो गये हो. फिर अन्जाम तो तुम जानते ही हो.


और भी अनेक व्यायाम है मगर अभी के लिए इतना करते रहो. ज्यादा समय तक कम्प्यूटर पर बैठ पाओगे और इसके लिए तैयार नहीं हो तो ब्लॉग डिलिट करो और चाय की दुकान पर जा कर पहले की तरह गपियाओ और पान खाकर चले आना. मुद्दे बहस के वहाँ भी खूब हैं, बोर नहीं होगे.

पान की दुकान पर सावधानी: यहाँ ब्लॉग पर फालतू बहस करने में लिख कर गाली पड़ती है और वहाँ चाय की दुकान पर फालतू बहस करने पर सीधे गरियाये जाओगे और लतियाये जाने का भी खतरा है. Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, मई 25, 2009

मैं अनाथ हुआ!!


आज कुछ भी भूमिका बाँधने की न तो इच्छा है और न ही जरुरत!!


सीधे पढ़िये मनोभाव, बड़े अजीब से हैं:

जाने क्या सोचता रहता हूँ?

माँ
नही रही...

और

पिता जी..

उन्होंने कत्ल कर दिया..

अपने जीने की

चाहत का...

बतौर सजा,

कर लिया

कैद

खुद को

खुद के भीतर...

एक अँधेरी काल कोठरी में..

और


पाल ली एक नफरत

जिन्दगी से...


बना ली

एक दूरी

हर शख्स से...

किन्तु

मैं..?

मैं तो

जिन्दा हूँ अभी....

और

वो

होते हुए..

नहीं रहे!!

-मैं अनाथ हुआ!!

-समीर लाल ’समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, मई 20, 2009

लुटी जवानी तेरे दर पर!!

टिप्पणी के माध्यम से संदेश प्राप्त हुआ:

आदरणीय तश्तरी जी,

मान्यवर, अत्यन्त दुखद समाचार है.

सारी रात इसी सोच में गुजर गई कि किस तरह यह खबर आपको दूँ? कुछ समझ नहीं आता. मैं आपका अपराधी हूँ और आज नहीं तो कल, आपको पता लग ही जाना है तो क्यूँ न मैं ही सीधे आपको बता दूँ. फिर आप जो सजा तय करेंगे, वो मैं भुगतने को तैयार हूँ. यूँ तो जितना टूट कर आपने उसे प्यार दिया है, बचपन से आजतक कि मैं केवल नाममात्र का स्वामित्व लिए था बाकी तो सब आपकी हौसला अफजाई और स्नेह का ही नतीजा था.

दरअसल, परसों दफ्तर से दिन भर का थका हारा, भीषण गर्मी झेलता जब देर शाम घर पहुँचा तो कुछ भी लिखने पढ़ने का मन नहीं था. भरपूर स्नान के बाद कुछ तरावट आई और एक प्याली चाय ने हिम्मत बँधाई तो सोचा, कुछ लिखा जाये. आप इन्तजार कर रहे होंगे.

गरमी इतनी भीषण पड़ रही है कि थोड़ा सा काम करो और शरीर जबाब देने लगता है किन्तु फिर आपका ख्याल आया तो किसी तरह लिखता चला गया और रात एक बज गई. आपके स्नेह और प्रेम वर्षा के सामने मेरी थकन की कीमत दो कौड़ी की नहीं है.

किसी तरह पोस्ट शेड्यूल करके बस बिस्तर पर लुढ़क गया. फिर ख्याल आया कि कल सुबह कुछ साज सजावट भी कर दूँगा ताकि आप जैसे स्नेही स्वजनों को अच्छा लगे और आप अपने स्नेह आशीषों के पनपते परिणामों को देख खुश हों. यह मेरा दायित्व एवं कर्तव्य भी है आपके प्रति.

सुबह सुबह ६ बजे उठकर जल्दीबाजी में कुछ फॉण्ट, कुछ ले आऊट आदि में फेर बदल की और बस, उसी समय, शायद नींद पूरी न होने की वजह से, एक ऐसी घटना हुई कि मेरा तो मानो जीवन ही बदल गया.

सब कुछ लुट गया. मैं कंगाल हो गया. आपके स्नेहाशीष में बढ़ रहा वृक्ष बस फल देने ही वाला था कि मानो मुझ माली ने अपने ही हाथों उसे काट दिया. जाने कैसे कौन सा बटन दब गया और जल्दबाजी में मैने क्या कनफर्मेशन दबा दिया कि आपका पसंदीदा ब्लॉग अब नहीं रहा. पूरा कुछ डिलीट हो गया, भाई साहब. मैं हत्यारा हूँ, मैं तो आपको मूँह दिखाने के काबिल भी नहीं रहा.

राम नाम सत्य!!

अपराध तो अपराध ही है किन्तु शायद यदि मैंने बैक-अप रखा होता तो कुछ हद तक क्षम्य होता. अब तो कोई चारा भी नहीं.

मैं अपना गुनाह बिना किसी साफ सफाई के कबूल करता हूँ और आपसे निवेदन करता हूँ कि आप जो भी सजा देना चाहें, दें. मैं उसे सहर्ष कबूल करुँगा.

आज मेरे हाथों इस साहित्य जगत में वो क्षति हुई है, जिसका पूरा किया जाना अब संभव नहीं. आप तो तकनीक के ज्ञाता भी हैं. यदि आप उचित समझें तो अपने प्रभाव से गुगल को लिख कर बात कर सकते हैं कि क्या ऐसी स्थितियों में कुछ किया जा सकता है.

अतयन्त दुखी मन से,

आपका अपराधी
मैं अभागा

संजय




अब जबसे यह टिप्पणी आई है, चमकने की बारी हमारी है.

अव्वल तो यह बालक है कौन?

दूसरा, आदरणीय तश्तरी जी- अभिवादन कर रहा है कि हमारी तस्वीर देखकर मजाक उड़ा रहा है?

भाई मेरे, हमारे ब्लॉग का नाम उड़न तश्तरी है और हमारा समीर लाल. कहीं क्न्फ्यूजन तो नहीं कि हमारा सरनेम तश्तरी और नाम उड़न है. और समीर लाल इनके चपरासीनुमा पॉयलट. ये अनुमान भी तस्वीर देख लगा लिया हो, तो कोई अतिश्योक्ति न होगी.

कहीं वो यह गलतफहमी तो नहीं पाल बैठा कि हम मात्र और एक मात्र ब्लॉग उसी का पढ़ते हैं. वैसे पाल भी ली हो तो आश्चर्य नहीं. जो हमारे नाम को लेकर गलतफहमी पाल सकता है, उसे हमारी टिप्पणी से इस तरह की गलतफहमी और फिर यह भी, साहित्यजगत में तुम्हारा योगदान अतुलनीय है, हो जाना बहुत सहज और स्वभाविक सी बात है.

माना भाई, मगर जरा ब्लॉग का नाम भी तो बता देते तो पता तो रहता कि किसकी याद में आँसूं बहाऊँ और किसे अश्रुपूरित श्रृद्धांजलि अर्पित करुँ.

इनके नाम पर क्लिक करो तो कहीं जाता ही नहीं. हो सकता है कि इतना दुखी हों कि हिल डुल भी न पा रहे हों और ब्लॉग तो डिलिट हो गया है तो उसके माध्यम से तो टिप्पणी कर न पाये होंगे. कम से कम मृत आत्मा का नाम तो बताना ही था.

दिमाग पर जोर डाल रहा हूँ कि कौन सा ऐसा ब्लॉग था जिसे मैने उसके जन्म से ही अपना स्नेह दिया और देता चला गया. वो बढ़ कर वृक्ष हो गया और वो फल भी देने वाला था. वो साहित्य में योगदान कर रहा था. वो लिखता बहुत सटीक था. मैं उसकी हौसला अफजाई किया करता था. उसे बेहतरीन कहता था. उसकी अगली पोस्ट का इन्तजार करता था. सर फटा जा रहा है बोरा भर नामों में से एक नाम छांटने में. संजय गुगल करो तो हजार ब्लॉग निकल आते हैं, उसमें से बीसों डिलिटेड होंगे तो वो राह लेना ही बेकार है.

अपने ब्लॉग की ग्यारह हजार टिप्पणियों में से सब संजय क्लिक करता घूम भी लूँ और एक दो डिलिटेड पर चले भी जायें, तो ढ़ाढ़स बँधाने कहाँ जाऊँगा जब तक ईमेल एड्रेस न हो और डिलिटेड ब्लॉग की प्रोफाईल तो दिखेगी भी नहीं कि ईमेल मिल जाये और मैं उनके दर्द में सहभागी बन पाऊँ.

और जहाँ तक रही उनके मूँह न दिखा पाने की बात तो जब हमें कुछ याद ही नहीं तो दिखाओ या न दिखाओ, क्या फरक पड़ेगा. सभी सूरमाओं को मैं जानता हूँ ऐसा भी नहीं.

डर लगता है कि इतना संवेदनशील और भावुक व्यक्ति, जो अपनी थकन भूल, सिर्फ इसलिये इतनी गर्मी में लिखने बैठ गया और लिखता चला गया जब तक निढाल होकर बिस्तर में न गिर पड़ा कि मैं उसके लिखे का इन्तजार कर रहा हूँगा, वो इतनी हृदय विदारक घटना पर, मेरे किसी भी जबाब को न पाकर कुछ ऐसा वैसा न कर बैठे. यूँ भी वो अपने आपको हत्यारा अपराधी माने बैठा है, कहीं बतौर-ए-सजा वो खुद को.................न..हीं........!! ऐसा नहीं होना चाहिये.

कोई तो राह सुझाओ, मित्रों कि करुँ क्या?

इस बीच मेरे परमप्रिय संजय जी, आपने कोई अपराध नहीं किया है. यह मानवजन्य भूलवश हुई क्रिया है जो किसी के साथ भी हो सकती है. अपराधबोध मन से निकाल दें. उपर पढ़कर आप समझ ही गये होंगे, आपका दिल भी टुकड़े टुकड़े हो गया होगा कि मैं आपको पहचान तक नहीं पा रहा हूँ, जबकि आज तक आपको यह मुगालता पलवाता रहा, अपरोक्ष रुप से ही सही, कि आप हैं तो ब्लॉगजगत है और जो कुछ है बस आप ही हैं.

तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ. आपकी तरह ही भूलवश मैने आपको इस मुगालते की सबसे उपर वाली मंजिल पर ला खड़ा किया. आगे से टिप्पणी करते वक्त ध्यान रखूँगा कि कोई और आपकी तरह ही परेशान हो अपराधबोध न पाल बैठे.

वैसे सत्य तो यह है कि आज की दुनिया में शिष्टाचार और किसी के स्नेहवर्षा को इतनी संवेदनशीलता और भावुकता से लेने वालों को बेवकूफ ही कहा जाता है और अंततः ऐसे लोग अपनी सजा खुद ही मुकर्रर करते हैं. सामने वाला तो क्या सजा देगा. सामने वाले पर चलोगे तो फिर तो इस देश में अफज़ल की फाँसी भी माफ है-इसका यह अर्थ तो कतई नहीं कि हत्या अपराध नहीं है.

तश्तरी और तश्तराईनलंदन में

चलते चलते:


फोटू तो आप देख ही रहे हैं. २० दिन पहले की है. उम्र भी मुझे कम से कम अपनी तो सही ही मालूम है. अभी कोई खास तो है नहीं और बाल भी फैशनवश ही सफेदी झलका रहे हैं वरना तो कब का रंग लेते.

मगर इसी तरह के स्नेहियों ने नाम के साथ आदरणीय, परम श्रद्धेय, माननीय, अंकल जी, महोदय, पित्रतुल्य, पूज्यनीय आदि न जाने क्या क्या लगा लगा कर ऐसा बुढ़ापे का एहसास कराया है कि कई बार तो अपना डेट ऑफ बर्थ प्रमाणपत्र और केलकुलेटर लिए पूरा दिन गुजार देता हूँ, फिर भी हल नहीं ढ़ूंढ़ पाता.बस, कान बजते रहते हैं:

दिल में इक तूफां और आँखों में ये नमीं सी क्यूँ है......

कहीं यह मुझ युवा के खिलाफ कोई षणयंत्र तो नहीं?

ब्लॉगजगत में आकर मात्र यही एक घाटा लगा है कि हम अपना युवत्व असमय खोते नजर आ रहे हैं. Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, मई 17, 2009

जिन्दगी की बैलेंस शीट पर ’प्रेमी’ से ’समीर’ के बदलते हस्ताक्षर

पिछली पोस्ट में जब मैने ’विल्स कार्ड’ वाली रचनाओं का जिक्र किया, आप सबके स्नेह ने मुझे अभिभूत कर दिया. मजबूर हो गया कि उस ’विल्स कार्ड’ के बंडल में से कुछ और कार्ड खिंचूँ, जो इस बार भारत से ढ़ूँढ़ कर लाया हूँ.

अभी पहला ही कार्ड पढ़ रहा था कि लगा: अरे, आज के मायने में इसका क्या अर्थ होगा?? वो पंक्तियाँ जो समीर लाल ’प्रेमी’ ने लिखीं थी, उसे समीर लाल ’समीर’ बढ़ाकर आज तक ले आये वजन आँकते हुए.

जब समीर लाल ’प्रेमी’ थे तो हॉस्टल के कमरे में दोस्तों को कविता झिलवाते थे:



अब, समीर लाल ’समीर’ हो कर रेडियो मिर्ची से झिलवाते हुए:




यकीं जानें, रचना का पहला हिस्सा जो समीर लाल ’प्रेमी’ ने ’विल्स कार्ड’ पर उकेरा था, वो जस का तस है और फिर आगे समीर लाल ’समीर’ नें सिर्फ एक आंकलन किया है.

यूँ तो पहले ख्याल आया कि फॉण्ट का रंग जुदा रखूँ ’प्रेमी’ और ’समीर’ में भेद करने को..मगर मैं खुद नहीं जानता कि कब वो अल्लहड़ ’प्रेमी’ इस संवेदनशील ’समीर’ में बदल गया और उनके बीच जिन्दगी ने रंग नहीं जुदा किये तो फिर मैं कौन होता हूँ उनके बीच भेद खड़ा करने वाला.

हालांकि मैने कोई भेद नहीं किया है फिर भी आप जान जायेंगे कि किस पंक्ति से समीर लाल ’समीर’ ने कलम थामी. ये मेरा दावा है.





हॉस्टल की
चौथी मंजिल पर स्थित
अपने कमरे की खिड़की
से बाहर देखता हूँ..

मौसम आज कुछ गीला है
न जाने क्यूँ...
मैं तो आज रोया भी नहीं..

दूर नीले आसमान में
दिखाई देता है...
मेरी याद में रोता हुआ
वो चेहरा
माँ का..

घर की पीछे वाली बिल्डिंग की
छत पर इन्तजार में
खड़ी वो..

और

बेटे की सफलता
के लिए आशांवित, आँखें,
पिता की....

जला लेता हूँ सिगरेट, मैं..

खिंच जाता है
धुऐं का परदा सा,
बीच में,
मेरे और आसमान के..

और याद आता है
मुझे अपना कैरियर..
जिसे संवारने के लिए
आ गया हूँ
घर से दूर
बम्बई!!

लौट आती है सोच
धरातल पर ..

अगले हफ्ते ही तो इम्तिहान है
सी ए फाईनल का..
पहला परचा..
एकाउन्टिंग...

नफा हो या नुकसान
बैलेंस शीट के दोनों पाले
तो बराबर करने ही होंगे
इम्तिहान पास करने के लिए...

आज इतने बरसों बाद
अपनी जमीं से इतनी दूर..
जब जिन्दगी की
बैलेन्स शीट पर नजर डालता हूँ..
दोनों पाले बराबर दिखते हैं...
और
नया जमाना
भौतिक सम्पन्नता को
सफलता का पैमाने माने
चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट बना
मेरी जिन्दगी की बैलेन्स शीट को
सत्यापित करता है..

शायद इसीलिए
मैं सबकी नजरों में
जिन्दगी के इम्तिहान में
सफल नजर आता रहा...

सिर्फ मैं जानता हूँ...
नहीं..
हर रोज की तरह..
आज झूठ नहीं कहूँगा..

सब विंडो ड्रेसिंग* है!!!

मैं भी नहीं जानता..

नफा हुआ
या
नुकसान!!

-समीर लाल ’प्रेमी’ से समीर लाल ’समीर’ तक

* विंडो ड्रेसिंग- बनावटी आधार पर कम्पनी की स्थितियाँ सुदृढ़ दिखाने और अनियमितताऐं छिपाने के लिए बैलेंस शीट में किये गये उपाय. (राजू वाली सत्यम- ताजा उदाहरण)

सोचता हूँ कि

-कुछ नहीं बदला है न ’प्रेमी’ और ’समीर’ हो जाने में. बदला है सिर्फ नज़रिया और उद्देश्य. तब सीए का इम्तिहान पास करने की मशक्कत थी और आज जिन्दगी का इम्तिहान.

-हम सभी की जिन्दगियों की बैलेन्स शीट तो विन्डो ड्रेस्ड हैं, काश!! हम इस विन्डो ड्रेसिंग से उबर पाते. उस पार तो विदाउट ड्रेस ही जाना है, फिर ये आडंबर क्यूँ. शायद, यही जीने का सलीका हो और वो मरने का!!! मैं तो कुछ भी नहीं जानता, कितना बेवकूफ हूँ मैं!! Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, मई 13, 2009

विल्स कार्ड पर उतरी बातें

याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता. न जाने कितने विल्स कार्ड मेरी पुरानी दराज़ों से निकल कर अटेचियों और बक्सों में इधर उधर बिखरे पड़े हैं. कभी टटोलता हूँ उन बक्सों को खाली समय में तो कुछ हाथ लगता है..जिसे मैं पहचानने की कोशिश करता हूँ कि

अरे, ये मैने कब लिखा?

हर पैकेट के खत्म होने पर एक अलग मूड होता था और वही मूड उस पर अंकित हो जाता शब्दों के माध्यम से. सिगरेट के धूँऐं सी अलग अलग आकार लेकर धीरे से विलुप्त होती बातें शब्दों का रुप ले लेती.

कोई कविता नहीं होती थी वो..बस, यूँ ही कुछ जुड़ते-उड़ते हुए विचारों का शब्दांकन.

पुराना विल्स कार्ड:बारिश में स्वाहा!!

उसी में से इस भारत यात्रा के दौरान कुछ हाथ लगा था और आज कहीं किसी संदर्भ में बात चलने लगीं तो याद आया:

(१)

आँसू
अमृत की बूंदें

इन्हें मैं रोकता नहीं...
तुम भी मत रोकना.

सींचना इनसे
अपने दुखों की बगिया को..

जानती हो..

कांटों पर ही
खिलते हैं...
गुलाब !!

कितने सुन्दर होते हैं न...
गुलाब!!!


(२)

पत्थर!!

न हँसते हैं

न रोते हैं...

मौन

बस!!

मौन रहकर

सारी ठोकरें

और अपमान

सहते हैं...

इसीलिये शायद!!

सजाकर उन्हें

हम

भगवान

कहते हैं!!


(३)

मैरीन ड्राईव,

बम्बई...

समुन्द्र के किनारे

दीवार पर बैठे

उस लहर को

आते देखता हूँ..

आती है

टकराती है..

लौट जाती है...

हार नहीं मानती...

फिर से

एक नई उमंग,

एक नये उत्साह के साथ

आती है..

टकराती है..

लौट जाती है...


बरसों से यह

सिलसिला

अनवरत जारी है!!


-समीर लाल ’समीर’

बस यूँ ही:

१.कुछ विल्स कार्डों पर देखा: मैने अभिव्यक्ति के बाद अपना नाम समीर लाल ’प्रेमी’ लिखा था उस जमाने में. शायद जवानी की हिलोर रही होगी या फिर बम्बई का असर. नहीं पता... :)

२. बात कुछ जंचती नजर आ रही हो तो और ढ़ूंढ़े जायें विल्स कार्ड वरना तो समय के साथ बारिश और दीमक तो चमत्कार कर ही लेंगे अपना.

विल्स कार्ड पर उतरी बातें
यादों में बसती हैं यादें...
जो मोती बन न रुक पाई..
भिगो गई उनको बरसातें.

-काश!! आँसूओं की बारिश से बचने का कोई छाता होता. Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, मई 10, 2009

हूँह्ह!! दीज़ ब्लॉगर्स!

अब तो कोई उपलब्धि गिनाते हुए शरम सी आ जाती है कि न जाने लोग यह न समझ बैठे कि रोज कुछ न कुछ उठाकर ले आते हैं और लगते हैं बधाई लेने. मगर क्या करें, आये दिन कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि बताना पड़ता है.

अब आज की ही ले लो. पोस्ट करने जा रहे थे कुछ और नजर प़ड़ी तो देखा अरे, यह तो तीन सौवीं पोस्ट है. न बतायें तो भी गलत. जब १०० वीं बताई थी, फिर २०० वीं बताई थी तो ३०० वीं के साथ ही ज्यादती क्यूँ कि न बताई जाये.

वैसे उपलब्धियों की महत्ता ही अपनों के द्वारा मनाई गई खुशी और बधाईयों से है. वरना, तो जंगल में मोर नाचा, किसने देखा.

याद है, जब कॉलेज के बाद स्कूटर खरीदा था. बड़े शान से सब दोस्तों के घर जा जाकर दिखाया, खूब बधाई बटोरी, पार्टी की और सीना फुलाये दोस्तों को बैठाया घूमते रहे. ये होती है खुशी.

और एक अब है, यहाँ कनाडा में बैठे बड़ी भारी कार भी खरीद ली. खुद देखी. खुद खुश हुए. सो गये. भला बताओ, ये भी कोई खुशी हुई. इसीलिए तो मजा ही नहीं आता है जी यहाँ पर.

तो हम बताये दे रहे हैं कि तीन सौवीं पोस्ट है.

उम्मीद तो यह भी की थी कुछ माह पूर्व कि जब हम तीसरा सैकड़ा लगा रहे होंगे तो हमारे बिरादर बवाल, लाल एण्ड बवाल पर साथ ही सैकड़ा लगवायेंगे मगर वो जाने कहाँ कहाँ और जाने कौन कौन से गम लादे घूम रहे हैं कि न तो दिख रहे हैं और न ही याद कर रहे हैं. वहाँ आँकड़ा ९१ पर अटका पिछले एक माह से.

हमारी कितनी ही गज़लें और गीत उनकी आवाज का इन्तजार कर रही हैं. शायद, तीसरा सैकड़ा देखकर वो जागें, यही उम्मीद करता हूँ.


आगे समाचार यह है कि १५ अप्रेल की सुबह ७ बजे ब्रसल्स, बेल्जियम के एयरपोर्ट पर जेट के विमान से उतरा तो एक अलग सी उमंग थी. शायद कुछ घंटो में बेटे बहु के पास पहुँच जाने की, या यूरोपीय यूनियन की राजधानी ब्रसल्स पहुँच जाने की, या कुछ देर बाद विश्व विख्यात ट्रेन ’यूरोस्टार’ से लंदन तक की यात्रा करने की या फिर इस यात्रा के दौरान इन्गलिश चैनल को पार करने के लिए उसके नीचे बनी ’यूरो टनल’ जिसे ’चनल’ भी कहते हैं, उसमें से गुजरने के अहसास की. जाने क्या, पर एक उमंग थी.

वहीं ब्रसल्स एयरपोर्ट पर नाश्ता किया. यूरिनल जाने के ५० यूरो सेन्ट याने लगभग ३० रुपये की मांग देख कर खांटी हिन्दुस्तानी मन नें नेचर्स कॉल तक रोक ली कि ट्रेन में चले जायेंगे, इतनी जल्दी भी क्या है.. :)

कुछ देर में यूरो स्टार में बैठने का सपना साकार हुआ और शुरु हुई दो घंटे की ब्रसल्स से लंदन ’सेन्ट पेन्क्राज़’ स्टेशन की यात्रा.

यूरोस्टार ट्रेन

लिलि यूरोप स्टेशन एक मात्र स्टॉपेज था और बस, उसके बाद ’यूरो टनल’ फिर लंदन ’सेन्ट पेन्क्राज़’ स्टेशन.

जैसे ही ’यूरो टनल’ शुरु हुई, मन में न जाने कैसी भावना घर कर गई. घड़ी देखते रहे. पूरे २५ मिनट लगे इन्गलिश चैनल के एवरेज लगभग २५ मीटर नीचे से गुजरते.

यूरो टनल

इस दौरान इन्गलिश चैनल के नाम पर मिहिर सेन याद आये. मिहिर सेन ने सन १९५८ में इसी इन्गलिश चैनल को १४ घंटे ४५ मिनट में तैर कर पार किया था. हमने उसी इन्गलिश चैनल को २५ मिनट में पार कर लिया.

ब्लॉगर मन सोचने लगा ’तो क्या हम मिहिर सेन से बेहतर कहलाये. क्या मिहिर सेन नें प्रासंगिगता खो दी.’

मिहिर सेन

विचार उठा तो समझ आया कि उनका उद्देश्य इन्गलिश चैनल पार करना नहीं, वरन तैराकी का प्रदर्शन था. उसमें वो आज भी प्रासंगिग है मगर उद्देश्य सिर्फ ’इन्गलिश चैनल’ पार करना होता तो आज उनकी औकात दो कौड़ी की हो जाती.

सोचता हूँ उद्देश्य का किसी भी विचार के साथ जुड़ा होना कितना जरुरी है उसकी गहराई आँकने के लिए, चाहे वो साहित्यकारी ही क्यूँ न हो.

अगर बुद्दिमत्ता, रचना-धर्मिता आदि की बात हो तो दीगर तरह से विचार करना पड़ेगा मगर इन्गलिश चैनल पार करने भर की बात की तरह यदि साहित्य के प्रचार, प्रसार और विस्तार की बात हो तो आज के युग मे यूरोस्टार की तरह, मूँह मे चुरट दबाये ब्लॉग और नेट की प्रासंगिगता को हूँह!! दीज़ ब्लॉगर्स! कहना मूर्खता का परिचायक ही कहलाया.

मगर मूर्खता करने से कौन किसे कब किस युग में रोक पाया है जो हम आज रोक लेंगे. ये तो अपने आप अपनी गति मारी जाती रही है, अबकी बार भी मर जायेगी, चिन्ता की कोई बात नहीं.



एक समीक्षा: एक लाईना

फिल्म का नाम: विदेश (हेवन ऑन अर्थ)



भारत में बनी बड़ी भारी कोई नौटंकी फिल्म, कनाडा में बनी इस नौटंकी के सामने फीकी पड़ जाये. दिखाते हैं कि अगर सच बोला तो साँप नहीं काटेगा, वरना काट लेगा. साँप प्रिति जिन्टा का चरित्र निर्धारण कर रहा है और पूरा परिवार बैठा साँप के जजमेन्ट का इन्तजार करता है. गजब भई, ऐसा कनाडा है.

न सिर, न पैर
बेवजह प्रवासियों से बैर.

ऐसा कहीं होता है क्या यार..
कि सिर्फ विदेशी ग्रांट मिलने से प्यार

( कहो, दीपा जी-कुछ तो कहो!!! )

माना कि थोड़ा बहुत कुछ सही होगा
मगर फिल्म बनाने लायक नहीं होगा.

छोड़ो ये सब, एक उचित और सार्थक कार्य करो इस मौके पर केक मांगने के बदले:

”धरा बचाओ, पेड़ लगाओ’ अभियान शुरु कर रहा हूँ...दायें पैनल में इसके कोड है, अपने ब्लॉग पर लगा कर जरा इस अभियान में योगदान दो न इस मौके पर. बहुत साधुवाद होगा आपका और ३०० वीं पोस्ट लिखना सार्थक हो जायेगा:

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, मई 06, 2009

ओ परदेशी, अब बस कर...

कल ही प्रवासी साहित्य पर आधारित एक पत्रिका पलट रहा था. जड़ से बिछड़ जाने की वेदना मानो चहु ओर छितरी पड़ी हो. हर कलम रो रो कर बस एक ही धुन में गा रही थी-हाय!! मेरी जड़. जाने क्यूँ!!

कविमना प्रवासी हुआ और बस, बह निकला जड़ से बिछड़ जाने की वेदना लिए एक झर झर झरना. सब सेट फार्मेट से-वो बरगद के पेड़, गांव की माटी की सौंधी खुशबू, ताल तलैया, लछ्छो मौसी, बचपन का साथी बिसाहू और जाने क्या क्या.

इतनी वेदना कि जड़ तो जड़, धरती रो पड़े. हाय, यह क्यूँ छूटा? कैसे जोड़ लूँ फिर इसे.

सोचता हूँ पूछ कर देखूँ कि कभी सोचा है उनके बारे में जो वहीं जु़ड़े हुए हैं, जहाँ से तुम टूटे..कभी जाना उनका हाल? कभी रख कर देखा उनके जूते में अपना पैर?

बहुत जिगरा चाहिये जड़ से जुड़े रहने में. माना तुम भी कभी उसी जड़ से जुड़े बहुत खुशी से जी रहे थे. सो तो तुम एक जमाने में साइकिल से स्कूल भी जाया करते थे. अब कार से चलते हो..एक दिन फिर से साइकिल से दफ्तर जाने की बात सोच कर देखना. क्या हुआ? जाते तो थे न बचपन में वो दूर तक स्कूल में हँसते हँसते दोस्तों के साथ.

शायद इसी विचार श्रृंखला में उभरी है यह रचना या फिर शायद इतने दिन तक भारत में था, उससे कुछ निकला हो या फिर कहीं वैसी हालत तो नहीं, जब किसी अंग में दर्द बहुत बढ़ जाये तो इन्सान उस अंग को ही अलग कर डालने की कामना कर बैठता है.

नहीं मालूम, आप ही बतायें:

परदेश




देखता हूँ तुम्हारी हालत
पढ़ता हूँ कागज पर
उड़ेली हुई
तुम्हारी वेदना...
जड़ से छूट जाने की
जड़ से टूट जाने की...


थक गया हूँ
सुन सुन कर
तुम्हारा वो दर्द
बार बार..
कान से मवाद बन कर
बहने लगी है
तुम्हारी यह
कागजी चित्कार...

किस जड़ से टूटने की
बात करते हो तुम..
किस जड़ से वापस
जु़ड़ जाना चाहते हो तुम..

वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है...

सच कहूँ दोस्त!!
तुम्हारी वेदना भी
कुछ वैसी ही है
जैसे..

कितना मनभावन लगता है
रेल के उस वातानकुलित
डिब्बे में बैठकर देखना...

गर्मी के तेज तपन के बीच
तलाब में कूद कर
नहाते बच्चे,
धूल में सने पैर लिए
आम के पेड़ के नीचे
सुस्ताते ग्रमीण
उपलों पर थापी रोटी को
प्याज के साथ खाते
लोग..

जिसे तुम कागज पर
लिखते हो
कविता बनाकर...

वो बच्चों की स्वछन्दता,
पेड़ों की ठंडी छाँव में
आराम करते
निश्चिंत ग्रमीण..
मुट्ठे से तोड़ कर प्याज
से साथ
उपलों पर सिकीं
रोटी का सौंधा स्वाद..

कितना अच्छा लगता है...

बस, लेकिन सिर्फ देखना
हाँ, सिर्फ देखना
वो भी उस वातानकुलित डिब्बे से..

आसमान में उड़ कर
तुम शहर का मानचित्र तो बना सकते हो..
मगर शहर की धड़कन तो
शहर में आकर ही सुनाई देगी..
मैं जानता हूँ
तुम उन धड़कनों की नाद
नहीं झेल पाओगे..
बहरे हो जाओगे तुम.


बुरा मत मानना,
मगर अब तुम इस
काबिल ही नहीं बचे
कि इन जड़ों से जु़ड़ सको...

सुविधायें बहुत जल्दी
अपना गुलाम बना लेती हैं और
सुविधा की गुलामी की जंजीरे
इतनी आसानी से नहीं टूटती..

क्या तुम जी सकोगे..
जब इस भीषण गर्मी में
बिना बिजली, पानी के
सारी रात बस
करवटें बदलोगे और
पसीने में भीगे
लगेगा मानो
सारे बदन को
सैकड़ों चीटियाँ
काट रही हैं...

सारी रात सुबह होने का इन्तजार
और सुबह से इस इन्तजार में कि
रात हो जाये
तो चैन आये..

भूल जाओगे
जड़ से टूटने
का गम...

जब खुद को खुद
साबित करने के लिए..
चक्कर लगाओगे
किसी सरकारी दफ्तर के..
हाथ में मतदाता परिचय पत्र लिए,
साथ में टेलिफोन या बिजली का बिल,
दो खुद के चित्र,
खुद के साथ होते हुए भी,
किसी और से सत्यापित करवाये हुए..
एक हलफनामा कि
मैं मैं ही हूँ..

और फिर भी न साबित कर पाओगे
उस बाबू को
कि तुम तुम ही हो..
जब तक बाबू की हथेली
न गरम कर दो...

कागज पर लिख देने
जितना आसान नहीं है..
दिल और दिमाग के बीच
पर्याप्त दूरी रखते हुए
करनी को अंजाम देना..
रोज जीने की जद्दो जहद में
रोज मरना...


मतदान करके इठलाना
अपने अधिकार के प्रयोग पर,
यह जानते हुए भी कि
एक बार फिर हमने
हमें ही लूटने के लिए
एक नया लुटेरा चुन लिया है...

कभी इत्मिनान से सोचना..

किसका दर्द वाकई दर्द है...
जो तुमने कागज पर
उड़ेल दिया है...
या फिर वो
जो किसी ने जड़ से जुड़े
आदतन झेल लिया है....

--समीर लाल ’समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, मई 04, 2009

गज़ब किया समीर जी आपने..देखा आंकड़ा!!

अभी देखा का आवाजाही गणक १००००० दिखा रहा है. कसम से, लगाते समय ० से शुरु किया था और वो भी ब्लॉग शुरु करने के साल भर बाद. याद भी नहीं कब.. क्या फरक पड़ता है.

इस अवसर पर ऐसी तस्वीर फबेगी:


बॉस तो बॉस ही है!!


कोई पोस्ट का शतक बना रहा है. कोई टिप्पणी का आंकड़ा बता रहा है. कोई कुछ और कोई कुछ. एक को तो कुछ न सुझा तो यही बता गये कि कल से नियमित लिखेंगे. लिखना भाई, हम भी कल से ही नियमित पढ़ेगे.

एक रोचक बात, अभी पिछले दिनों एक पोस्ट की थी..बेचारा सुअर उस पर टिप्पणियों का सिलसिला चला. उस पोस्ट में चार फोटो चैंपी गई थी. एक सुअर की, एक हमारी, एक पत्नी की और एक पाकिस्तान के पत्रकार की. अब उस पर एक मित्र की टिप्पणी मिली:

प्रियवर समीर लाल जी!
आपकी पूरी यात्रा बड़े मनोयोग से पढ़ी। सूअर के सुन्दर चित्र भी देखे। बाथरूम का काँच भी देखा। बाथरूम के सामने एक सुन्दर छवि के भी दर्शन का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। शायद वो अपकी जीवन-संगिनी होंगी। उनको मेरा अभिवादन पहुँचाने की कृपा करें।


-जीवन संगिनी वाली बात समझ आई कि वो हमारी पत्नी के लिए है और उसके लिए हमारा आभार एवं साधुवाद. धन्यवाद तो उसकी तरफ से भी है.

अब बच गया दूसरा स्टेटमेन्ट:

सूअर के सुन्दर चित्र भी देखे।

-एक तो यह बहुवचन में है और उस पर से इसके सिवा और कोई और स्टेटमेन्ट भी नहीं है याने सुअर और वो पाकिस्तानी पत्रकार (यहाँ तक सही है) और उस पर से मैं..सारे चित्र इसी तरह याने सब सुअर पसंद आये...गज़ब किया भाई..हमें तो बक्श देते. खैर, आपकी जैसी इच्छा. :)


अब नमस्ते!

आपके मनोयोग को साधुवाद!!!

आज ही कनाडा पहुँचा हूँ सही मायने में और अपने आपको इस माहौल में ढालने के प्रयास में लगा हूँ. सरल है स्मूथ माहौल में ढालना जहाँ परेशानियों से साबका न पड़े. तो ढल ही जाऊँगा...मगर तब तक यह पोस्ट जरुरी थी. इसलिये कर दी. अगली बार ऐसी पोस्ट करुँगा कि हिल जाओगे. यह उम्मीद मैं हर बार करता हूँ..पिछली बार भी की थी. :)

अब नमस्ते!!

जरा बधाई तो दे दो!! १ लाख की आवा जाही पूरी होने पर.. Indli - Hindi News, Blogs, Links