मंगलवार, मई 29, 2012

एक समय जो गुजर जाने को है

एक बार फिर- तीन कविताओं के साथ प्रस्तुत. शायद जल्द नियमित हो जाऊँ इस उम्मीद के साथ. एक नये उपक्रम को अंजाम देने की चाहत में कुछ पुरानी नियमित दिनचर्या से दूर:

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-१-

कह तो गये...

उत्तेजना में आकर

युवा मन के भाव जताने...

धूप

कोई आईना नहीं..

बस अंधकार को मिटा

राह देखने का साधन...

तो फिर..

मिट्टी के कसोरे में

भरो कडुवा तेल..

बना लो रुई की बाती

रगड़ कर हथेलियों में..

और सुलगा उसे

चकमक पत्थर को घिस...

पुकार लेना...

सूरज!!!

कहो!!

पुकार सकोगे यूँ??

नहीं न!!

तभी तो कहता हूँ मैं...

गाँधी को समझ पाने के लिए

एक उम्र चाहिये!!

युवा उत्तेजना से

अनर्गल प्रलाप के सिवाय

क्या पा जाऊँगा मैं इस बाबत!!

-२-

एक चश्मा

उन वादियों के बीच

उतरता है सोच में..

मानिंद

चश्मा

तेरी आँखों की

नम गहराई में..

चौंधियाता है

इन आँखों को..

गर न पहनूँ...

वो चश्मा...

जो खरीदा था तुमने..

मेरे वास्ते..

 

-३-

कि सोचता हू मैं.. कहानी पढ़ूँ... 
कुछ जाम गले से उतारुँ..और
फिर एक कहानी गढ़ूँ...
कि गीत सुन लूँ कोई...
कि गीत गुन लूँ कोई..
और ओढ़ लूँ एक नई शक्शियत..
बदल जाऊँ इन उपकरणों की दुनिया में..
बन एक नया उपकरण...
अचम्भित कर दूँ तुम्हें!!!
बात- एक जाम की...
बात- तेरे नाम की...

-समीर लाल ’समीर’

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