"समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।"
फिर जो सहमत हैं, उनसे क्या शिकायत? कोई नहीं, वो तो हमारे साथ हैं ही. तो इनकी भी क्या बात करें. इन्हें तो बस साथ निभाने का साधुवाद दिया जा सकता. तनिक आभार टाईप.
रह गये असहमत.
असहमत बस असहमत नहीं होते हैं. इनके भी कई प्रकार होते हैं.
एक असहमत होते है अपनी विद्वता के कारण. उनका ज्ञान उन्हें आपसे सहमत होने से रोकता है. मगर ज्ञान के साथ अगर उनमें नम्रता भी हो, तो वो आप को गलत न बता कर बस अपनी बात रख देते हैं. अक्सर बात की समाप्ति इस तरह कर देते है कि यह मेरी सोच है, हो सकता है मैं गलत हूँ. मगर अपनी सोच तो बता ही जाते हैं.
इनसे कोई क्या आपत्ति करेगा. यह तो खुद ही मान रहे हैं कि हो सकता है मैं गलत हूँ. जबकि बात अर्जित ज्ञान पर आधारित है जिसकी गलत होने की संभावना भी कम है.
इसी प्रकार के असहमतों मे जिनको अपने ज्ञान पर दंभ होता है और नम्रता का बैरियर आड़े नहीं आता. वो कहते हैं कि आप गलत हैं. फलाने किताब के मुताबिक, फलानी धारा के तहत मैं कहना चाहता हूँ कि सही बात यह है. फिर अपनी ज्ञान गंगा बहाना शुरु. यह भी अक्सर सही ही होते हैं. बस, नम्रता के सुरक्षा कवच के बाहर. अति उत्साही और अति आत्म विश्वासी किस्म के ज्ञानी. इनसे बहस कुछ दूर तक की जा सकती है क्योंकि इनके पास नम्रता का कवच नहीं है मगर ज्ञान रुपी बाण इनको अच्छी सुरक्षा दे देता है.
एक असहमत ऐसे होते हैं कि आपकी हर कही बात में सिर्फ वो हिस्सा खोजते हैं जिनसे वो मानसिक और अपने संस्कारों के तहत असहमत हो सकें. इससे उन्हें अच्छा लगता है. बात बढ़ती है. वो कुछ देर बातचीत करते हैं. बात को कई भागों में बंटवा देते हैं. मुख्य मुद्दा परे हो जाता है, विवाद बाकी रह जाता है. वो थोड़ी देर तक असहमत रह कर विवाद करवा कर, गुट गठित कर अलग हो जाते हैं. इनसे थोड़ा बचना चाहिये.
अब होने को तो और भी बहुत से असहमतों के प्रकार होते है, जैसे भावनात्मक असहमत, बहुमत प्रिय असहमत यानि देखा कि बहुमत असहमती जता रहा है तो यह भी असहमत हो गये. इनका खुद का कोई स्टेंड नहीं होता. भीड़ के साथ आते हैं और उन्हीं के साथ छट जाते हैं. इनसे निश्चिंत रहें.
कुछ एक ऐसे भी देखे गये हैं जिन्हें आपके लिखे या कहे से कुछ लेना देना नहीं. उनका अपना भी कोई नज़रिया नहीं. बस नकारात्मक लिखने या कहने की आदत है तो बिना पढ़े या सुनें ही कह जाते हैं कि यह आपकी सोच हो सकती है, मेरी सोच भिन्न है. बस, इससे ज्यादा न यह कहते हैं. न ही इनकी कोई सोच है. यह किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाते और न ही आपने पलट कर क्या पूछा, उससे इन्हें कोई सारोकार है. यह तो अब गये तो अगली बार ही आयेंगे, नई घटना में. यह भड़काने नहीं आये होते.
भड़काने वाले बमचक असहमत होते हैं जो बिना अपना कोई मत रखे आपके कहे को ललकारते हैं कि आप ऐसा नहीं कह सकते. आप अपने ख्याल लोगों पर लाद रहे हैं, इसके परिणाम आपको भुगतना होंगे आदि आदि. भड़काने के बाद अगर आग ठीक से लग गई. दो गुट बनकर झगड़ने लगे. तो बीच बीच में यह ऐसे ही बयान जारी करते रहेंगे कि अभी भी वक्त है, सुधर जाओ. माफी मांगो. अपना कहा वापस लो, वरना ठीक नहीं होगा आदि. फिर यह नया ठिया तलाशते है, नई आग लगाने के लिये. धीरे धीरे लोग इन्हें पहचान जाते हैं और तवज्जो के आभाव में यह तड़पते नजर आते हैं. बस, इतना ही धन्य है कि इनका अपना कोई मत नहीं होता. अपनी कोई राय नहीं आपकी बात पर कि अगर वो गलत है तो सही क्या है. इसका जिम्मा यह झगड़ने वालों पर डाले रहते हैं. इनकी परिकल्पना आप कुछ कुछ चियर गर्लस टाईप से कर सकते हैं.
अव्वल दर्जे के असहमत वो होते हैं जिन्हें अगर आप अहमक के नाम से भी पुकारें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
इनका काम बस असहमत होना है. आप जो भी कह कर देख लें, यह असहमत हो जायेंगे. इन्हें विवाद करने से आत्म संतुष्टी मिलती है. मानो विवाद विवाद नहीं, कब्जियत के निराकरण की दवा हो.सब झगड़ते रहें, गाली गलौज करें, टी आर पी यानि हिटस बढ़ती रहें, लोग इन्हें जानने लगें, बस इनका काम हो गया. तभी यह इत्मिनान से सो पाते हैं. इन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि आप सही कह रहें हैं या गलत. बस इन्हें यह मालूम चलना चाहिये कि आप कुछ कह रहे हैं और यह असहमत हो जायेंगे. आप जो भी कह लें, आप उनसे सहमत हो लें, वह फिर भी वो आपसे असहमत हो जायेंगे.
परसाई जी का एक उदाहरण इस तरह के लोगों के वार्तालाप का पेश करता हूँ:
वो कहता है कि , 'भ्रष्टाचार बहुत फैला है'.
मैं कहता हूं, 'हाँ, बहुत फैला है.'
वो कहता है, 'लोग हो हल्ला बहुत मचाते हैं. इतना भ्रष्टाचार नहीं है. यहां तो सब सियार हैं. एक ने कहा भ्रष्टाचार! तो सब कोरस में चिल्लाने लगे भ्रष्टाचार.'
मैं कहता हूँ,'मुझे भी लगता है, लोग भ्रष्टाचार का हल्ला ज्यादा उड़ाते हैं.'
वो कहता है कि, 'मगर बिना कारण लोग हल्ला नहीं मचाएंगे जी? होगा तभी तो हल्ला करते हैं. लोग पागल थोड़े ही हैं.'
मैने कहा, 'हां, सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट तो हैं.'
वो कहते है कि, 'सरकारी कर्मचारी को क्यों दोष देते हो? उन्हें तो हम-तुम ही भ्रष्ट करते हैं.'
मैं बोल उठा, 'हां, जनता खुद घूस देती है तो वे लेते हैं.'
वो उखड़ पड़े, 'जनता क्या जबरदस्ती उनके गले में नोट ठूंसती है? वो भ्रष्ट न हों तो जनता क्यों दे?'
याने कि किसी तरह बस सहमत ही नहीं होना है.
यह असहमतों की जमात एकाएक बहुत तेजी से पनप रही है. सब देख रहे हैं. इनसे सावधान और सतर्क रहने की जरुरत है. इन्हें रोकने का एक मात्र साधन यह नहीं है कि इनसे सहमत हो जायें क्योंकि यह पलट जायेंगे. तब कैसे उन्हें रोका जाये?
मुझे लगता है कि इन अहमक दर्जे के असहमतों के लिये उन्हें अनदेखा करना ही इलाज है. वो कभी सहमत तो हो ही नहीं सकते. विवाद उनका शौक है और गाली गलौज उनका खुली बातचीत का नजरिया-प्रगतिशीलता.
मित्रों, आज इनसे सतर्क रहने की आवश्यक्ता है.
यह समाज के विकास में रोड़ा हैं. इनसे बचें तो विकास की बात करें.
इन्हें नजर अंदाज कर दें तो यह अपनी मौत खुद मर जाते है, तो चलो, नजर अंदाज करें न!!
हरी ओह्म!!!!
मिले नहीं जब शब्द तुम्हारे, कैसे गीत सजाऊँ मैं
तुम्हीं नहीं जब पास हमारे, कैसी गज़ल सुनाऊँ मैं
यूँ तो नादानों से कहना, कुछ भी अब बेमानी होगा
आग लगी है इस दुनिया में, कैसे चुप रह जाऊँ मैं.