रविवार, सितंबर 03, 2023

तारीखें क्या थीं.....चलो!!! तुम बताओ!!

 

वो दूर से भागता हुआ आया था इतनी सुबह...शायर की भाषा में अल सुबह और गर मैं कहूँ तो कहूँगा सुबह तो इसे क्या..क्यूँकि अभी तो रात की गिरी ओस मिली भी नहीं थी उस उगने को तैयार होते सूरज की किरणों से...विलिन हो जाने को उसके भीतर- खो देने को अपना अस्तित्व उसकी विराटता में समाहित हो कर खुशी खुशी.

देखा था मैने कि वो हांफ रहा था मगर कोशिश थी कि सामान्य नज़र आये और कोई सुन भी न पाये उसकी हंफाई.... दिखी थी मुझे ....उसकी दोनों मुठ्ठियाँ भिंची हुई थी और चेहरे पर एक विजयी मुस्कान......एक दिव्य मुस्कान सी शायद अगर मेरी सोच के परे किसी भी और परिपेक्ष्य में उसे लिया जाये तो...मगर मुझे वो उसकी वो मुस्कान एक झेंपी सी मुस्कान लगी.. जब मैने उससे कहा कि क्या ले आये हो इस मुठ्ठी में बंद कर के ..जरा मुट्ठी तो खोलो...अभी तो सूरज भी आँख ही मल रहा है और तुम भागते हुए इतनी दूर से जाने क्या बंद कर लाये हो इन छोटी सी मुट्ठियों में...मुझे मालूम है कि कुछ अनजगे सपने होंगे सुबह जागने को आतुर-इस सोच के साथ कि शायद सच हो जायें.,..दिखाओ न...हम भी तो देखें...

खोल दो न अपनी मुट्ठी......

वो फिर झेंपा और धीरे से...कुछ सकुचाते हुए...कुछ शरमाते हुए..आखिर खोल ही दिये अपनी दोनों मुठ्ठियाँ में भरे वो अनजगे सपने… मेरे सामने...और वो सपने आँख मलते अकबका कर जागे.. मुझे दिखा कुछ खून......सूर्ख लाल खून.. उसकी कोमल हथेलियों से रिसता हुआ और छोटे छोटे ढेर सारे काँटे गुलाब के..छितराये हुए उन नाजुक हथेलियों पर..कुछ चुभे हुए तो कुछ बिखरे बिखरे हुए से....न चुभ पाने से उदास...मायूस...

-अरे, ये क्या?- इन्हें क्यूँ ले आये हो मेरे पास? मुझे तो गुलाब पसंद हैं और तुम ..ये काँटे  .. ये कैसा मजाक है? मैं भला इन काँटों का क्या करुँगी? और ये खून?...तुम जानते हो न...मुझे खून देखना पसंद नहीं है..खून देखना मुझे बर्दाश्त नहीं होता...लहु का वो लाल रंग...एक बेहोशॊ सी छा जाती है मुझ पर..

यह लाल रंग..याद दिलाता है मुझे उस सिंदूर की...जो पोंछा गया था बिना उसकी किसी गल्ती के...उसके आदमी के अतिशय शराब पीकर लीवर से दुश्मनी भजा लेने की एवज में...उस जलती चिता के सामने...समाज से डायन का दर्जा प्राप्त करते..समाज की नजर में जो निगल गई थी अपने पति को.....बस!! एक पुरुष प्रधान समाज...यूँ लांछित करता है अबला को..उफ्फ!

तुम कहते कि मुझे पता है कि खून तुमसे बर्दाश्त नहीं होता मगर तुम्हारी पसंद वो सुर्ख लाल गुलाब है. मै नहीं चाहता कि तुम्हें वो जरा भी बासी मिले तो चलो मेरे साथ अब और तोड़ लो ताज़ा ताज़ा उस गुलाब को ..एकदम उसकी लाल सुर्खियत के साथ...बिना कोई रंगत खोये...

बस, इस कोशिश में तुम्हे कोई काँटा न चुभे  .तुम्हारी ऊँगली से खून न बहे..वरना कैसे बर्दाश्त कर पाओगी तुम...और तुम कर भी लो तो मैं..

बस यही एक कोशिश रही है मेरी..कि... मेरा खून जो रिसा है हथेली से मेरी...वो रखेगा उस गुलाब का रंग..सुर्ख लाल...जो पसंद है तुम्हें..ओ मेरी पाकीज़ा गज़ल!!

बस. मत देख इस खून को जो रिसा है मेरी हथेली से लाल रंग का.....और बरकरार रख मुझसे विश्वास का वो रिश्ता ..जिसे लेकर हम साथ चले थे उस रोज...और जिसे सीने से लगाये ही हम बिछड़े थे उस रोज...

याद है न वो दोनों दिन...तारीखें क्या थी वो दोनों.....चलो!!! तुम बताओ!!

है यार मेरा अपना शाईर जो मेरे दिल के अंदर रहता है

तड़प के वो है पूछ रहा, तू आखिर जिन्दा कैसे रहता है

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर 3, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/6659


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सोमवार, अगस्त 21, 2023

विकल्प और बदलाव अटल है

 

मुझे नहीं, वो मेरी लेखनी पसंद करती है. मुझे तो वो कभी मिली ही नहीं और ये भी नहीं जानता कि कभी मिलेगी भी या नहीं? बस जितना जानती है मुझे, वो मेरे लेखन से ही. कभी ईमेल से थोड़ी बात चीत या कभी चैट पर हाय हैल्लो बस.

मगर उसे लगता है कि वो मुझे जानती है सदियों से. एक अधिकार से अपनी बात कहती है. मुझे भी अच्छा लगता है उसका यह अधिकार भाव.

पूछती कि तुम कौन से स्कूल से पढ़े हो, क्या वहाँ पूर्ण विराम लगाना नहीं सिखाया? तुम्हारे किसी भी वाक्य का अंत पूर्ण विराम से होता ही नही ’।’ ..हमेशा ’.’ या इनकी लड़ी ’....’ लगा कर वाक्य समाप्त करते हो. शायद उसने मजाक किया होगा मेरी गलती की तरफ मेरा ध्यान खींचने को.

ऐसा नहीं कि मैं पूर्ण विराम लगाना जानता नहीं मगर न जाने क्यूँ मुझे पूर्ण विराम लगाना पसंद नहीं. न जिन्दगी की किसी बात मे और न ही उसके प्रतिबिम्ब अपने लेखन में. मुझे हमेशा लगता है अभी सब कुछ जारी है. पूर्ण विराम अभी आया नहीं है और शायद मेरी जैसी सोच वालों के लिए पूर्ण विराम कभी आता भी नहीं..कम से कम खुद से लगाने को तो नहीं. जब लगेगा तो मैं जानने के लिए हूँगा नहीं.

कहाँ कुछ रुकता है? कहाँ कुछ खत्म होता है? मेरा हमेशा मानना रहा है कि - जब सब कुछ खत्म हो जाता प्रतीत होता है तब भी कुछ तो रहता है. एक रास्ता..बस, जरुरत होती है उसे खोज निकालने की चाह की, एक कोशिश की.

मैं उसे बताता अपनी सोच और फिर मजाक करता कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा हूँ न, इसलिए पूर्ण विराम लगाना नहीं सीखा..वो खिलखिला कर हँसती. उसे तो पहले ही बता चुका था कि सरकारी हिन्दी स्कूल से पढ़ा हूँ.

वो खोजती मेरी वर्तनी की त्रुटियाँ, वाक्य विन्यास की गलतियाँ और लाल रंग से उन्हें सुधार कर ईमेल से भेजती. मैं उसे मास्टरनी बुलाता तब वो पूछती कि लाल रंग से सुधारना अच्छा नहीं लगता क्या...जबकि उसका इस तरह मेरी गलतियाँ सुधारना मुझे अच्छा लगता और मुझे बस यूँ ही उसे मास्टरनी पुकारना बहुत भाता.

बातों से ही अहसासता कि वो जिन्दगी को थाम कर जीती है, बिना किसी हलचल के और मैं बहा कर.

मुझे एक कंकड़ फेंक उस थमे तलाब में हलचल पैदा करने का क्या हक, जबकि वो कभी मेरा बहाव नहीं रोकती.

अकसर जेब से कंकड़ हाथ में लेता फिर जाने क्या सोच कर रुक जाता फेंकने से..और रम जाता अपने बहाव में.

सब को हक है अपनी तरह जीने का...

लेकिन पूर्ण विराम...वो मुझे पसंद नहीं फिर भी. चाहे वो देश की राजनीति में विकल्प के भाव को लेकर ही क्यूँ न हो – विकल्प और बदलाव अटल है!!

फिर ये अहंकार कैसा?

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अगस्त 20, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/6033

 

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रविवार, जुलाई 16, 2023

नंगा क्या नहाये और क्या निचोड़े

 


शाम को जब जिम जाता हूँ तो चैक इन करते वक्त वो दो तौलिया देते हैं.

एक तौलिये का इस्तेमाल तो वर्क आऊट करते वक्त पसीना पोछने के लिए और दूसरा, जब वर्क आउट पूरा हो जाये तो लपेट कर सौना (९० डिग्री सेल्सियस पर तपते कमरे में बैठ कर पसीना निकालने की विधी) में जाकर पसीना बहाने और फिर शॉवर में नहा कर बदन सुखाने के लिए.

सौना में जाना मुझे वैसा ही लगता है जैसे  हर वक्त एसी कमरों में रहने वाले नेताओं का किसी गरीब दलित के घर जाकर एक रात बिता कर उनकी समस्याओं को अहसासना. उनका वो खाना साथ में खा लेना जो कि नेताओं के उपभोग के लिए लैब से स्वीकृति प्राप्त हो. जेड सिक्यूरीटी वाले कुछ भी थोड़े न खा सकते हैं. ऐसे परिवेश में जहाँ आपका दिन भर का काम और माहौल आपको एक रत्ती पसीना न बहाने दे, तब श्वेद ग्रंथी पड़े पड़े बंद न हो जाये इस हेतु आप सौना में जाकर पसीना बहाते हैं. कुछ तो फायदा होता ही होगा और उससे ज्यादा मानसिक संतोष की प्राप्ति होती है. सौना में बैठा हर व्यक्ति चेहरे पर ऐसे भाव रखता है मानो वो जाने कहाँ की मेहनत कर रहा हो और पसीना बहा रहा हो. ठीक वैसा ही भाव जो इन नेताओं के चेहरे पर होता है किसी दलित के घर रात बिता कर निकलते हुए मीडिया के सामने आते हुए.

अक्सर अचरज में पड़ जाता हूँ जिम द्वारा प्रद्दत इन तौलियों का साईज देख कर. लम्बाई टोटल ३८ से ४० इन्च. अब जब कोई बंदा जिम आ रहा है तो ठीक ठाक साईज का या ज्यादा साईज का ही होगा जो अपना साईज कम करने में लगा होगा. जिम किसी टी बी के  मरीज के लिए टी बी रीहेबीलिटेशन सेन्टर तो है नहीं कि जो आयेगा २२ -२६ कमर वाला दुबला पतला ही होगा. ऐसे में ये तौलिये, न बाँधने में न सम्भालने में. हम जैसे लोगों के लिए, जो जिम की आबादी का ८०% है...उनकी हालत इन तौलियों को लेकर यूँ समझें कि सामने ढ़ाकें तो पिछवाड़ा खुला और पिछवाड़ा ढ़ाके तो सामने खुला. पिक एन्ड चूज़...तो कोशिश होती है कि ऐसा कुछ हो जाये कि साईड खुली रहे. थोड़ा खुला थोड़ा ढका..मानो आज की हिरोईनें कपड़े से कह रही हो कि थोडा और छोड़ो न..कितना ढँक देगो..कुछ तो दिखने दो और कपड़ा है कि अपने सामर्थ के अनुरुप ढंक देने को बेताब!!

फिर सोचता हूँ कि ये कोई सरकारी योजना है क्या? दे भी दी और मिली भी नहीं. मिली भी तो पूरी नहीं.

मगर तब सौना में देखा कि कुछ रईसजादे अपनी अलग ही सोच रखते हैं...वो वाकई इन तौलियों को रुमाल समझ कर गले में टांग लेते हैं और मात्र पसीना पौंछने को इस्तेमाल करते हैं..शरीर ढ़ंकने को उनके पास अपनी मँहगी बाथ रोब होती है लम्बे तौलिये नुमा...उनके लिए जिम का तौलिया मात्र एक शिगुफा है..पसीना पोछो और धुलने फैंको!! पसीना बहाने आये हैं या बाथ रोब का रौब दिखाने, समझ ही नहीं आता.

इन्हें देख कर लगता है मानो साहेब सूट बूट पहन कर अपनी बी एम डब्लु से उतरे हों... और लगे झाडू उठा कर स्वच्छता अभियान चलाने... उन्हें देख कर, कचरा खुद घबरा कर दौड़ पड़ता है कचरा दान की तरफ..कि हे प्रभु..आप यहां कैसे?..शर्मिन्दा करेंगे क्या? हम खुद ही चले जाते हैं कचरा पेटी में..

मगर सौना में ज्यादा आबादी उन लोगों की होती है जो इन तौलियों को कंधे पर टांगे यूँ ही बिना कुछ पहने आ बैठते हैं..मानों देश की आम जनता की हालत इस कहावत से बयाँ कर रहे हों:

’नंगा क्या नहाये और क्या निचोड़े’


-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 16, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/4530


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शनिवार, जुलाई 08, 2023

गाँव में योगा, दूर करे रोगा

 

जब से विश्व एक गाँव कहलाया- ग्लोबल विलेज, उन्होंने ने अपने पद को ग्राम प्रधान का दर्जा दे दिया. इससे बेहतर पद विश्व गुरु के लिए और हो भी क्या सकता है.

ग्राम प्रधान की थाली में दो सूखी रोटी और पालक का साग उनके स्वास्थय के प्रति सजगता दिखाती है. वो बड़े गौरव के साथ अपना सीना ताने अपने रईस दोस्तों के बीच अपनी डाइट बताते है. अपना एक्सर्साईज रुटीन बधारते हैं. नित प्रति दिन ऐसी साइकिल (एक्सर्साईज बाईक) चलाने का दावा करते है जो जाती तो कहीं नहीं मगर मीटर में दिखाती है कि पूरे पाँच किमी चली है याने अगर १०० दिन की बात करें तो ५०० किमी चली- मानो साइकिल न हुई, सरकार हो गई हो. हुआ गया कुछ हो या न हो, १०० दिन में ५०० किमी का रिपोर्ट कार्ड लहराया जा रहा है हर तरफ. काश!! ५०० किमी की जगह, दिल्ली से ५० किमी दूर तक भी निकल लिए होते सही में साईकिल चलाते और कुछ जमीनी हकीकत का जायजा ले लेते तो शायद कुछ किसान आत्म हत्या करने से बच जाते. कुछ खिलाड़ी बेटियों को न्याय मिल जाता. शायद महीनों से राहत की बाट जोते किसी सरकारी कर्मचारी के परिवार को कुछ आशा की किरण दिख जाती.

लेकिन हमारे नेताओं की आदत में है, आपदाओं और विपदाओं का हवाई निरीक्षण करना और उसके आधार पर बने जमीनी विकास के रिपोर्ट कार्ड को हवा में लहरा लहरा कर जनता को बहलाना. आकाश से देखने का फायदा ये होता है कि कीचड़ में ऊगी घास भी हरियाली नजर आती है. मुश्किल तो उसकी है जिसे उस कीचड़ के दलदल से होकर गुजरना होता है. लेकिन उसकी किसे फिकर- कीचड़ में उसके कपड़े खराब हों या वो दलदल में फंस कर दम तोड़ दे- ये सब उसकी परेशानी है. हमारा रिपोर्ट कार्ड तो दिखा रहा है कि चहु ओर हरियाली ही हरियाली है. हरित क्रान्ति के इतिहास में पहली बार इतना हरा अध्याय.

खैर, बात चल रही थी एक्सर्साईज रुटीन की- तो यदि आप योग को योगा कह दें तो ये तुरंत वैसा ही स्टेटस सिंबल बन जाता है जैसे मानों आम आदमी की थाली से उचक कर दो सूखी रोटी और पालक का साग ग्राम प्रधान की थाली में शोभायमान होने लगा हो और जब ग्राम प्रधान की थाली में आया है तो बखाना भी जायेगा और जब बखाना जायेगा तो रिपोर्ट कार्ड में भी आयेगा.

गांवों में अस्पताल हो या न हो और अगर अस्पताल हो भी तो उसमें डॉक्टर का अता पता लापता हो मगर इससे क्या फरक पड़ता है. बेवजह हल्ला मचाते हो फालतू का मुद्दा उठा कर. चलो, तैयार हो जाओ इस समस्या के समाधान के लिए- २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योगा दिवस के दिन सब साथ में योगा करो. योगा में अगर भगवान का नाम न लेना हो मत लेना, अल्लाह का ले लेना, ईशु का ले लेना - क्या फरक पड़ता है मोटापा कम होने में अगर पाव दो पाव का अंतर रह भी गया इस वजह से तो. जब सब सूर्य नमस्कार कर रहे हों तो तुम सूर्य ग्रहण की कल्पना करते हुए चाँद सलाम कर लेना, लिटिल स्टार मान कर ट्विंकल ट्विंकल हैलो कर लेना- आँख तो मूँदी ही रहना है.

जो मन करे सो करना- बस इतना ध्यान रखना कि अब आगे से बीमारी के लिए अस्पताल और डॉक्टर की मांग उठाना मना है क्यूँकि रिपोर्ट कार्ड दिखा रहा होगा कि गाँव(विश्व) में सब योगा कर रहे हैं और सब पूर्ण स्वस्थ है!!

इससे अच्छे दिन की और क्या कल्पना कर सकते हो, बुड़बक!!

चलो नारा लगाओ – दूर करे रोगा, गाँव में योगा.

जब योग योगा हो सकता है तो रोग रोगा क्यूँ नहीं हो सकता?

समीर लाल ‘समीर

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 8, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/4390

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