शनिवार, अक्तूबर 29, 2016

दीपावली पर सफाई



उस रोज जब अपनी संक्षिप्त भारत यात्रा के दौरान उनके घर मिलने पहुँचा तो देखा पूरा परिवार पूरे जोर शोर के साथ साफ सफाई में जुटा है. पता चला कि दीपवली की सफाई चल रही है.
दीपावली पर धार्मिक मान्यता है कि पूरे घर की साफ सफाई और पुताई करना चाहिये..इससे लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है.
अब अगर साल भर गंदा नहीं करोगे तो फिर भला साफ क्या करोगे? इसी धार्मिक बाध्यता के चलते साल भर पलंग के नीचे सामानों की भराई और अलमारी के उपर सामानों की चढ़ाई नित जारी रहती है.
ठीक दीपावली के पहले, कमरों में साल भर पलंग के नीचे खिसकाया और अलमारी के उपर चढ़ाया गया सामान पलंग के उपर पर निकाल कर रखा जाता है..फिर उसमें से बेकार का सामान और कचरा, छाँटा बीना और बाँटा जाता है और बाकी का साफ सूफ करके पुनः रख दिया जाता है.
मकड़ियाँ और छिपकलियाँ भी जानती है कि ये सब दीपावली का तमाशा है जो लगभग हफ्ते भर तक चलता रहेगा अतः एक हफ्ते के लिए वो भी किसी सीढ़ी के नीचे या छज्जे के उपर अनजान कोने में जाकर छिप जाती है और दीपावली गुजरते ही पुनः अपने पूर्ववत स्थायी पते पर लौट आती हैं -अगले एक बरस तक के लिए बिना किसी खटके के शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए. उन्हें देखकर लगता है जैसे कि पुलिस टीम ने किसी सरकारी मुहिम के तहत सड़क के किनारे रेहड़ी लगाने वाले अवैध कब्जाधारियों को खदेड़ा हो, जिन्होंने पुलिस की दबिश खत्म होते ही वापस आकर पुनः पूर्ववत कब्जा जमा लिया हो.
मुझे अच्छा लगता है दीपावली के पहले इस तरह सालाना साफ सफाई का अभियान देखना हर घर द्वार पर.
सोचता हूँ कि यह पिछले साल के कचरे की सफाई की है या अगले साल का कचरा इक्कठा करने की जगह बनाई है.
फिर दीपावली की दिन से ही शुरु हो जाता है एक नया साल गंदगी फैलाने का.. बम, पटाखों, लड़ियों को रात भर सड़कों पर फोड़ फोड़ कर उनकी गन्दगी फेला कर मानो नये सिरे से गंदगी फैलाने का आगाज किया हो ...
जिज्ञासु मन मित्र से पूछ बैठा कि इतने सारे सामान की सफाई कैसे करते हो?
मित्र ने यह कहते हुए ज्ञान दिया कि अगर सफाई करनी है तो बस दो ही तरीके हैं..एक तो सारे के सारे सामान को कचरा मान कर एक जगह इक्कठा कर लो ..और फिर उसमें से जो अच्छा अच्छा काम योग्य हो, उसे निकाल कर साफ सूफ करके वापस जमा कर रख दो..बाकी का बचा सामान मसलन कटे फटे या छोटे हो चुके कपड़े, जूते, टूटे बरतन, सूटकेस आदि ...जो बांट दिये जाने योग्य है नौकर चाकर को देकर दानवीर की तरह मुस्कराओ और बाकी का बचा कचरे में बाहर निकाल फेंको.
दूसरा...सब सामान जैसे रखा हुआ है वैसा ही रखा रहने दो और उसमें से कचरा छांट छांट कर अलग कर दो..यह तरीका थोड़ा ज्यादा मेहनत माँगता है...मगर सामान को फिर से जमाने की झंझट भी तो कम हो जाती है.
उनकी बात सुनकर मुझे एकाएक अभी हाल में जाना सफाई का तीसरा तरीका याद हो आया,,,
इसका हालांकि दीपावली से कुछ लेना देना नहीं है,...इसमें तो बस जब भी किसी सांसद महोदय या मंत्री जी से समय मिल जाये - सफाई की घोषणा कर दो...कचरा मंगवाओ...कचरा फैलवाओ...कचरा झाडू से किनारे करते हुए सांसद महोदय या मंत्री जी के साथ..फोटो खिंचवाओ...अखबारों में छपवाओ और सोशल मीडिया पर चढ़ाकर मस्त हो जाओ..हैश टैग #CleanIndia.#स्वच्छभारत……..बस्स!
वैसे सही मायने में ऐसा संपर्क और अपनी राजनैतिक पैठ बनाने का ऐसा मौका हाथ लगना भी कोई दीपावली से कम तो नहीं..ऐसा मौका सबको नहीं मिलता है...इसके लिए भी लक्ष्मी गणेश की विशेष कृपा चाहिये...

-समीर लाल समीर’ 
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सोमवार, अक्तूबर 24, 2016

शहर के पाँव


रामफल को विरासत में अगर कुछ मिला था तो मात्र दो चीजें.
एक तो पिता के द्वारा पुरखों से प्राप्त एक बीघा जमीन और उस पर बने दो कमरे के पक्के मकान की वसीयत और दूसरा, पिता से मिली कभी गाँव छोड़ कर शहर न जाने की नसीहत.
पिता का कहना था कि गाँव ने तुम्हें जन्म दिया है तो तुम्हारा फर्ज है कि उसका कर्ज अंतिम सांस तक अदा करो. ये गाँव की जमीन, मात्र जमीन नहीं, माँ है तुम्हारी.
और रामफल, जिसके सारे सहपाठियों से लेकर लगभग सभी हमउम्र जानने वालों के शहर पलायन कर जाने के बावजूद, इस नसीहत को थामे गाँव में ही मास्टरी करते हुए जीवन गुजारते रहा. उसे गर्व था कि उसने पिता की नसीहत का अक्षरशः पालन किया.
जब कभी शहर से कोइ मित्र लौट कर रामफल से अपने पैसों और सफलताओं की नुमाईश करता कि उसके पास मकान है, पैसा है, कार है...और तुम बताओ रामफल, तुम्हारे पास क्या है? तब गाँव की जमीन को माँ का दर्जा दे उसकी सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देने वाला रामफल, कुछ कुछ दीवार फिल्म के शशी कपूर सा महसूस करता हुआ मुस्करा कर कहता कि मेरे पास माँ है!!
मित्र भी हँस कर रह जाते..कौन जाने, कौन हारा और कौन जीता..मगर माहौल तो हल्का हो ही जाता.
पिता की नसीहत इतनी गहरी पैठ कर गई थी कि साथियों की तमाम समझाईशों के बावजूद रामफल की बस एक जिद...गाँव छोड़ कर शहर नहीं जाना है.
समय बीता...रामफल गाँव में सिमटा अपने गर्व के किले में कैद, उसी जमीन और मकान को संभाले मास्टरी करता चला गया.
उसने अपनी इसी जिद को ही अपना अस्तित्व मान लिया और उसी अस्तित्व को बचाना उसके जीवन का एक मात्र ध्येय बच रहा. वो खुश था इस तरह से एक रक्षक का किरदार अदा कर....
रामफल जरुर गाँव में सिमटा रहा मगर शहर..उसके अपने पाँव होते हैं.. वो बढ़ता रहा और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब शहर बढ़ते बढ़ते उसके दरवाजे तक चला आया.
आज उसका गाँव खो गया है...वो विलीन हो गया है शहर में और रामफल..वो हताश है कि वो अपना अस्तित्व बचा नहीं पाया जिसके लिए उसने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया..
कहते हैं कोई नया कानून आया है जिसके तहत सरकार ने उसकी जमीन अधिग्रहित कर ली है ..
अब उसकी जमीन से शहर की एक बड़ी सड़क गुजरेगी.

-समीर लाल समीर
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गुरुवार, अक्तूबर 20, 2016

आस्तिक एवं नास्तिक


मांसाहारी को यह सुविधा रहती है कि मांसाहार उपलब्ध होने की दशा में वो शाकाहार से अपना पेट भर ले. उसे भूखा नहीं रहना पडता. जबकि इसके विपरीत एक शाकाहारी को, शाकाहार उपलब्ध होने की दशा में कोई विकल्प नहीं बचता. वो भूखा पड़ा मांसाहारियों को जश्न मनाता देख कुढ़ता है. उन्हें मन ही मन गरियाता है. वह खुद को कुछ इस तरह समझाता है कि देख लेना भगवान इनको इनके किए की सजा जरुर देगा. ये जीव हत्या के दोषी हैं और फिर चुपचाप भूखा सो जाता है.
नास्तिक ओर आस्तिक में भी कुछ कुछ ऐसा ही समीकरण है. नास्तिक आस्तिकों की भीड़ में भी नास्तिक बना ठाठ से आस्तिकों की आस्था को नौटंकी मान मन ही मन मुस्करता रहता है. नास्तिक स्वभावतः एकाकी रहना पसंद करता है और जब तक उसे आस्तिक होने के उकसाया जाये, अपने नास्तिकपने का ढिंढोरा बेवजह नहीं पीटता है.
आस्तिक गुटबाज होता है. वो आस्तिकों की भीड़ में रहना पसंद करता है. वह किसी नास्तिक को देख मन ही मन मुस्करता नहीं है बल्कि उसे बेवकूफ मान प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु, यह अज्ञानी है, इसे नहीं पता कि यह क्या कर रहा है. इसे माफ करना.
आस्तिक बेवजह नास्तिक को अपनी आस्था के चलते जीवन में हुए चमत्कारों को रस ले ले कर सुनता है ताकि नास्तिक भी उन चमत्कारों की बातों के प्रभाव में आकर आस्तिक बन उसके गुट में जाये. बस, इसी उसकाये जाने के चलते नास्तिक भड़कता है और पचास ऐसे किस्से सुनाता है जिसमें ह्र किस्से का अंत मात्र इस बात से होता है अगर भगवान होता है तो वो उस वक्त कहाँ थातार्किक जबाब के आभाव में आस्तिक इसे नास्तिक की नादानी मान उसे उसके हाल पर छोड़ते हुए नाक भौं सिकोड़ कर  मात्र इतना कह कर निकल लेता है कि एक दिन तुम्हें खुद अहसास होगा तब तुम अपनी बेवकूफी पर पछताओगे.
आस्तिक स्वभावतः भीरु एवं आलसी प्रवृति का प्राणी होता है अतः एक सीमा तक कोशिश करने के बाद आस्था की रजाई ओढ कर सो जाने का स्वांग रच, रजाई से कोने से किसी चमत्कार की आशा लिए झांकता रहता है और यह मान कर चलता है कि जैसा ईश्वर को मंजूर होगा, वैसा ही होगा. प्रभु जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे. उसे अपनी मेहनत से ज्यादा यकीन आस्था के प्रभाव से हुए चम्त्कार पर होता है.
नास्तिकों में एक बड़ा प्रतिशत उन नास्तिकों का होता है जिन पर अब तक कोई ऐसी विपदा नहीं पड़ी है जिसका कोई उपाय न हो और मात्र प्रभु पर भरोसा ही एक सहारा बच रहे. ऐसे नास्तिक अधिकतर उस उम्र से गुजरते हुए युवा होते हैं जिस उम्र में में उन्हें अपने मां बाप दकियानूसी लगते हैं या गाँधी को वो भारत की आजादी नहीं, भारत की बर्बादी जिम्मेदार मानते हैं. उनकी नजरों में गाँधी की वजह से देश इस हालत में है वरना तो देश की तस्वीर कुछ और होती. उम्र का यह दौर उसकी मानसिकता पर अपना ऐसा शिकंजा कसता है कि उसे अपने आप से ज्ञानी और तार्किक कोई नहीं नजर आता. वो अक्सत गंभीर सी मुद्रा बनाये दुनिया की हर उस चीज को नाकारता दिखता है जिससे की यह दुनिया और इसकी मान्यतायें चल रहीं हैं. उसकी नजर में वह सब मात्र बेवकूफी, हास्यास्पद एवं असफल जिन्दगियों के ढकोसले हैं जो उनके माँ बाप गुजार रहे हैं.
उम्र के साथ साथ समय की थपेड़ इन नास्तिकों का दिमाग ठिकाने लगाने में सर्वदा सक्षम पाई गई है. जैसा कहा गया है कि गाँधी को समझने के लिए पुस्तक नहीं, एक उम्र की जरुरत है..ऐसे नास्तिक भी उम्र के साथ साथ आस्तिक की आस्था को समझने में सक्षम हो जाते हैं और फिर सही पाला तय कर पाते हैं.
कभी आस्तिक व नास्तिक मात्र भगवान के प्रति आस्था और विश्वास रखने एवं न रखने का प्रतीक था. आज के अस्तिक ,अपने बदलते स्वरुप के साथ, अपने राजनैतिक आकाओं को भगवान का दर्जा देकर उनके भक्त बने आस्तिकता का परचम लहरा रहे हैं ओर जो उनके भगवान में आस्था न रखते, उन्हें गाली बकने से लेकर उनके साथ जूतमपैजार करने तक को आस्था का मापदण्ड बनाये हुए.
इसी की परिणिति है कि आज भक्त का अर्थ भी मात्र एक राजनैतिक पार्टी के आका में आस्था रखने वालों तक सीमित होकर रह गया है, शेष सभी जो बच रहे, उन्हें आप अपनी इच्छा अनुसार दुष्ट, नास्तिक या देशद्रोही आदि पुकार सकते हैं. आज का आस्तिक भक्ति भाव से नाच नाच कर भजन पूजन का स्वांग रच रहा है और फिर थक कर आस्था की रजाई में मूँह ढाँपे अच्छे दिन लाने वाले चमत्कार का इन्तजार कर रहा है.
नास्तिक मानो मंदिर की दीवार पर सर टिकाये बीड़ी के धुँएं के छल्ले बना कर उड़ा रहा है उसे मालूम है कि अच्छे दिन आना मात्र एक चुनावी जुमला है. भला ऐसा भी कभी होता है कहीं.

-समीर लाल ’समीर’
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