यह मेरा पॉड कास्टिंग का पहला प्रयास है. सब सुनाये चले जा रहे थे और हम बैठे देखे जा रहे थे कि कैसे करते हैं पॉडकास्ट. भला हो मित्रों का, जैसे ही हमने दोहे वाली पोस्ट में अपनी असमर्थता व्यक्त की वैसे ही सब भागे भागे भीगे भीगे (उस दिन दिल्ली में बारिश हो रही थी :)) टिप्पणी में बता गये, ऐसा कर लो, वैसा कर लो. बैंगाणी बंधुओं ने तो गुजरात से पूरी ईमेल करके विधी भेज दी और खुद करके दे देने की पेशकश भी की जबकि प्लेयर लोड होते समय हरे रंग का हो जाता है, भगवा नहीं और उस पर से हमारे ब्लॉग का हेडर भी हरा. फिर भी सब किया प्रेमवश. सबका प्रेम देखकर मन खुशी से भर आया. बस खुशी से आंसू टपकने की फिराक में ही थे कि मास्साब ई-पंडित श्रीश महाराज आ पधारे. वो तो हमेशा ही कमाल लिखते हैं (जब भी लिखते हैं :)) और हमारी तकलीफ जानकर, बिना हमारे व्यक्तिगत निवेदन के, दो तीन रातें काली कर पूरी की पूरी स्टेप बाई स्टेप क्लास लगाई और फिर आकर क्लास अटेंड करने का निमंत्रण भी दे गये. ऐसे होती है मित्रों की मदद और ऐसा होता है चिट्ठाकारों का आपसी प्रेम. अरे, कुछ सीखो कि बस हर बात में तलवार खिंचना जरुरी है? :) खैर जाने दो, गाना सुनो.
इस गीत को लिखा मैने है और संगीत दिया है केलिफोर्निया स्थित "साज़मंत्रा" ने. आवाज दी है श्री अंशुमान चन्द्रा ने. यह गीत एक प्रवासी की वेदना दर्शाता है.
खोया मुसाफिर
बहुत खुश हूँ फिर भी न जाने क्यूँ
ऑखों में एक नमीं सी लगे
मेरी हसरतों के महल के नीचे
खिसकती जमीं सी लगे
सब कुछ तो पा लिया मैने
फिर भी एक कमी सी लगे
मेरे दिल के आइने पर
यादों की कुछ धूल जमीं सी लगे
जिंदा हूँ यह एहसास तो है फिर भी
अपनी धडकन कुछ थमीं सी लगे
खुद से नाराज होता हूँ जब भी
जिंदगी मुझे अजनबी सी लगे
कुछ चिराग जलाने होंगे दिन मे
सूरज की रोशनी अब कुछ कम सी लगे
चलो उस पार चलते हैं
जहॉ की हवा कुछ अपनी सी लगे.
--समीर लाल 'समीर'
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जरा बताईये तो सफल रहा या कुछ बदलाव की जरुरत है?