शनिवार, दिसंबर 29, 2018

नेता पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते




ऐसा कहते हैं कि नेता पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते.
कहना ऐसा चाहिये था कि नेता के घर नेता पैदा होते हैं, बाकी के सिर्फ जुगाड़ से बन सकते हैं.
क्या ये वैसा ही नहीं है जैसे व्यापारी के घर में व्यापारी पैदा होते हैं. अमीर के घर अमीर. वकील के घर अक्सर वकील, किसान के घर किसान, बाहुबलि के घर बाहुबलि और गरीब के घर गरीब? अपवाद तो खैर हर तरफ होते ही हैं.
नेता के घर पैदाईश हो जाये तो आप नेता बना दिये जाते हैं. कभी कभी तो पीढ़ी दर पीढ़ी.
नेता के घर पैदा होना तो खैर श्यूर शॉट तरीका है ही मगर नेता के घर में परिवार के सदस्य की हैसियत से एंट्री मिल जाना भी नेता बना देता है. फिर चाहे नेता की पत्नी के रुप में हो, बहु के रुप में हो या दामाद के रुप में.
इसका विस्तार तो अब इतना अधिक हो गया है कि नेता के घर के ड्राईवर, पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर और बॉडीगार्ड भी नेता बन जाने की आहर्ता रखने लगे हैं.
मान्यता तो यह भी है कि अच्छे दोस्त परिवार के सदस्य के समान ही होते हैं, तो वो इस श्रेणी में नेता के परिवार का हिस्सा बन कर नेता हो लेते हैं. अब अच्छे दोस्त की परिभाषा कृष्ण सुदामा वाली रही नहीं. आजकल तो जिसके पास जितना ज्यादा पैसा, वो उतना अच्छा दोस्त. अक्सर तो असली भाई, बहन से ज्यादा सगा अमीरी की खनक वाला दोस्त होता है.
वैसे तो यही मुख्य मार्ग है नेता हो जाने का किन्तु जिस प्रकार मंजिल तक पहुँचने का एक मुख्य मार्ग होता है तो कभी कभी कोई पहाड़ी रास्ता लेकर, किसी नाले से तैर कर और कच्ची पगडंडी पकड़ कर भी मंजिल तक पहुँच जाता हैं. यह मार्ग अति जटिल होते हैं. उदाहरण स्वरुप जेबकतरई से अपना कैरियर शुरु कर चोरी, डकैती और गुंडागीरी की राह से गुजरते हुए बाहुबली की हैसियत से भी नेता बना जा सकता है. बना क्या जा सकता है, बन ही रहे हैं नित नियमित. हालत ये हो गये हैं कि जिनके पीछे कभी पुलिस घूमा करती थी, आज उनके आगे पुलिस चल रही है. गुंडई जब नेतागीरी में तब्दील होती है तो यह बदलाव हो ही जाता है.
गुंडई से याद आया कि आजकल संतई से भी नेतागीरी की राह मिल जाती है. गुंडई हो या संतई, या तो जेल ले जाकर छोड़ती है या संसद. अपवाद तो फिर यहाँ भी हैं.
एक बार मैने एक बड़े नेता से पूछ लिया था कि आपके जमीनी कार्यकर्ता तो आपको बहुत चाहते हैं. आपकी हर रैली में झंडा उठाकर चलते हैं. आपके जिन्दाबाद के नारे लगाते नहीं थकते. आप तो इनको पक्का आगे ले जाओगे. यही अगले नेता होंगे?
नेता जी मुस्कराये और धीरे से कान में फुसफुसाये कि अगर इनको नेता बना देंगे तो फिर झंडा कौन उठायेगा? नारे कौन लगायेगा?
कभी कभी किसी अमीर व्यापारी के कर्मचारी भी बॉस के दिखावटी अपनत्व के भुलावे में आ कर यह भ्रम पाल बैठते हैं कि एक दिन बॉस के बराबर हो जाऊँगा..बस!! वैसा ही कुछ भ्रम पाले लाखों की तादाद में कार्यकर्ता झंडा उठाये, नेता जी की जिन्दाबाद के नारे बुलंद कर रहे हैं. पुनः, अपवाद स्वरुप कुछ कर्मचारी वाकई कमाल कर जाते हैं वैसे ही कुछ कार्यकर्ता नेता बन भी जाते हैं. मगर यह उसी भ्रम को और मजबूत करने का साधन मात्र है. इसे नियम न मान बैठना.
नेतृत्व की क्षमता नहीं, नेता की ममता आपको महान नेता बनाती है.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार दिसम्बर ३०, २०१८ को:


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रविवार, दिसंबर 23, 2018

माफीनामा: लोग माफ कर भी रहे हैं या नहीं, कौन जाने?


आँख बंद करके लंबी सांस लो, फिर उस व्यक्ति का कृत्य और चेहरा याद करो जिसने तुमको छला है और जिससे बदला लेने की भावना अपने मन में लिये तुम इतने दिनों से जी रहे हो. अब सांस को धीरे धीरे वापस छोड़ते हुए मन ही मन में कहो कि जाओ, मैने तुमको माफ किया. ऐसा बार बार दोहराओ. कुछ ही मिनटों में तुम देखेगो कि मन एकदम हल्का महसूस करने लगेगा. इतने दिनों से जो बदले की भावना का बोझ लादे तुम दिल में घूम रहे थे, एकाएक वो बोझ उतर जायेगा. तुम एकदम प्रफुल्लित एवं तरोताजा हो जाओगे. जिन्दगी के नये माईने मिल जायेंगे.
बाबा जी मंच से प्रवचन ठेल रहे हैं और भक्त आँख मूंदे मन के कोने कोने में खोज खोज कर खुद को प्रताड़ित करने वालों को माफ करने में लगे हैं. अचरज ये हैं कि सबके पास ऐसे लोग हैं. बाबा जी यह बात बहुत खूबी से जानते हैं. लोग माफ कर रहे हैं भी या नहीं, कौन जाने? किन्तु दिखावा तो कर ही रहे हैं. सबके कारण अलग अलग हैं.
कुछ इस वजह से माफ कर रहे हैं कि जब सब कर रहे हैं तो हम भी कर देते हैं. भीड़ के साथ जाना हम भारतियों का शौक है. काश!! कोई कैमरा होता जो मन के अन्दर की सेल्फी ले पाता तो कुछ मात्र सेल्फी उतार कर स्टेटस अपडेट करने के लिए कर रहे होते. जैसा लोग मैराथन रेस के साथ करते हैं. दौड़ता कोई है, सेल्फी उतार कर चढ़वाता कोई और है.
वैसे तो कईयों ने अभी भी फोटोग्राफर से कह कर आँख मींची है ताकि वो तस्वीर ले ले और ये बाद में स्टेटस अपडेट कर सकें कि माफी शिविर के दौरान माफ करते हुए. समाज में रुतबा जमेगा कि बाबा जी इतने मंहगे शिविर में शिरकत की, यह भी वजह बना बहुतेरे लोगों द्वारा माफी प्रदान करने का.
जितने लोग, उतनी वजहें. एक भक्त ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर यह बताया कि उसने तो माफ सिर्फ इसलिए किया है ताकि सामने वाला समझे कि मैने उसे माफ कर दिया है और निश्चिंत हो जाये. ऐसे में उससे बदला लेना सरल हो जायेगा. छोड़ने वाला तो मैं हूँ नहीं उसे.
एक ने बताया कि पत्नी के द्बाव में आकर उसे यह कदम उठाना पड़ा क्यूँकि पत्नी तो जानती है कि मेरे मन उसके पिता के प्रति क्या भाव हैं. उसके जैसा प्रताड़ित तो मुझे और किसी ने किया ही नहीं है. जिन्दगी ही बदल डाली उसने मेरी. अब पत्नी का दबाव हो तो बन्दा तो मजबूर हो ही जायेगा. उस पर उसने कहा है कि तस्वीर भी खिंचवा कर लाना.
किसी को मित्र मंड्ली ले आई तो किसी को व्हाटस ग्रुप से खबर मिली तो चले आये ताकि लौट कर फोटो लगायेंगे कि हम भी हो आये.
माना कि ९८% लोगों ने विभिन्न वजहों से सिर्फ ढोंग करते हुए माफी देने का नाटक किया मगर शिविर के कम से कम २% तो ऐसे लोग थे ही जिन्होंने वाकई में जीने की कला सीखी, अपने मन का बोझ उतारा और अपने दुश्मन को माफ किया. उनकी जिन्दगी निश्चित बेहतर हुई और एक नई स्फूर्ति और सार्थकता के साथ आगे की जिन्दगी गुजारने का मौका मिला.
हर अभियान का यही फलसफा होता है वैसे तो. ९८% दिखावा, ढोंग भले हो और बेवजह भी मगर २% सच में फायदा पहुँचता है.
ऐसे में ख्याल करता हूँ तो कभी सफाई अभियान ध्यान में आता है, वो सेल्फी वाले लोग भी याद आये. कभी स्मार्ट सिटी तो कभी आज का नया नया ताजा ताजा ऋण माफी अभियान याद आया.
ऋण माफी के अभियान में तो बहुत से बाबा लगे हैं और जनता आँख मींचे अपने अपने तरह से हित साध रही है मगर अंततः हित तो बाबाओं का ही होगा.
सब नेता भी तो बाबा ही हैं. जैसे बाबा कहते हैं भक्तों से कि पैसे की मोह माया छोड़ो और देखते देखते खुद का एम्पायर खड़ा कर लेते हैं..वैसे ही..ये भी..नेता.
चोले को माफी दे दो तो नेता और बाबा एक ही हैं.
-समीर लाल ’समीर'

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार दिसम्बर २३, २०१८ को:


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रविवार, दिसंबर 16, 2018

अखबार का संसार: सईंया भये कोतवाल


बचपन में हमसे बीबीसी रेडिओ और अखबार पढ़ने को कहा जाता था खासकर संपादकीय ताकि भाषा का ज्ञान समृद्ध हो. वाकई बड़ी सधी हुई वाणी रेडिओ पर और जबरदस्त संपादकीय और समाचार होते थे अखबारों में. अखबारों में वर्तनी की त्रुटियाँ कभी देखने में न आतीं. कभी किसी शब्द में संशय हो तो अखबार में छपी वाली वर्तनी को सही मानकर लिख लेते थे और हमेशा सही ही पाये गये.
वक्त बदल गया. समाचार पत्र खबरों के बदले सनसनी परोसने लगे. पहले तो वाक्यांशों और मुहावरो का प्रयोग कर कर के बात का बतंगड़ बनाने में महारत हासिल की, फिर हिन्दी अखबार कहने को हिन्दी के रह गये और अंग्रेजी देवनागरी में इस तरह मिला जुला कर लिखी जाने लगी तो घबड़ाहट में अकहबार लेना बंद कर दिया, कहीं बच्चे ये पढ़ न लें. क्या होगा उनके भाषा ज्ञान का? मगर जब चारों तरफ कीचड़ बजबजा रहा हो तो घर की खिड़की बंद कर लेने से कचरा दिखना तो जरुर बंद हो जायेगा मगर बदबू झीरियों से घूस ही आयेगी देर सबेर.
कल कुछ समाचार पढ़ रहा था. जहाँ एक ओर हिन्दी का जबरद्स्त प्रयोग वहीं साथ में अंग्रेजी का मिश्रण. बानगी देखें:
अग्निदग्धा चल बसी, सोसाईड नोट मे लिखा कि दहेज के लिये इन-लॉ करते थे टॉर्चर
बच्चों में कुपोषण के निवारण हेतु दिये एक्स्पर्टस ने दिए जबरदस्त टिप्स
ब्लॉक हुए नाले, हो रहे ओवरफ्लो – पूरी बस्ती में बदबू का सामराज्य
एग्जाम डेट घोषित मगर बिजली गुल रहती है सारी सारी रात
सर्द भरी हवा ने छुटाई बच्चों की किटकिटि, प्रशासन इग्नोर कर रहा है स्कूल टाईम बदलने की मांग
अंखियों से गोली मारे गर्ल प्रिया प्रकाश वारियर- गुगल की मोस्ट सर्चड २०१८
राजधानी में मच्छरों से हाईटेक जंग की तैयारी- स्मार्ट सिटी पोल पर लगे सेंसर बताएंगे कहां हैं किस प्रजाति के मच्छर (कौन जाने प्रजाति जानकर करेंगे क्या..सिर्फ दलित मच्छरों को मारने की तैयारी में हैं क्या?)
हालत यह हो गये हैं कि अब यह सब मंजूर भी है पाठकों को और हम जैसे लोग भी इसे न जाने कब अपने लेखन में उतार चले, पता ही नहीं चला. खासकर मेरे आलेखों में तो इनकी छाप जमकर उतर आई है. शायद कनाडा में रहते रहते दिन भर अंग्रेजी में बात करने के बाद लिखते वक्त उन अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल बिना दिमाग पर जोर डाले लेखन की शैली बन गया है.
ऐसे ही कुछ स्थानीय भाषा का सनसनी में प्रयोग भी देखते बनता है आजकल के अखबारों में. मैं मध्य प्रदेश से ताल्लुक रखने वाला अक्सर वहाँ के स्थानीय समाचार पढ़ते पढ़ते विचारों में ऐसा महसूस करने लगता हूँ जैसे जबलपुर में किसी पान की दुकान पर खड़ा हूँ, देखें:
इनामी बदमाश ने हवलदार को धोबी पछाड़ पट्क्कनी मारी और हुआ फरार
५० रुपये की उधारी के चलते विवाद, रॉड से सिर खोला
सिपाही ने जड़ा कन्टाप
मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस में सिरफुटौव्वल
जीते बागियों से मानमन्नुवल, घर वापसी की हुँकार
मजनू अभियान में ७५ शहोदों को पक़ड़ पुलिस नें बनाया उनके सर पर चौगड्ड़ा
बंदरों ने जनसंपर्क पर निकले नेता जी को खदेड़ा
हार का ठीकरा बागियों के सिर फोड़ा
वैसे कुछ वाक्यांश और मुहावरे जो हम यहाँ यूँ तो शायद ही कभी प्रयोग करें मगर समाचार पत्र उनकी याद दिलाते रहते हैं,  इसके लिए वो निश्चित ही साधुवाद के पात्र हैं:
सईंया भये कोतवाल कि भईया, अब डर काहे का (विधायक का भतीजा खुलेआम चला रहा है जुएं की फड़)
पूत के पांव पालने में दिखते हैं- बालक कौटिल्य है भारत का गुगल बाबा
हर शाख पर उल्लु बैठा है (इसका समाचार क्या बतायें, वो तो आप सब जानते ही हो)
उल्टी गंगा बही- अर्थशात्रियों को अर्थशास्त्र पर सलाह दे रही है सरकार
ईंट से ईंट बजा कर रख दी – (इसके तो ढेर सारे समाचार हैं)
आईना दिखना – (जनता ने आखिर आईना दिखा ही दिया)
सूपड़ा साफ होना पूरे देश से कांग्रेस का सूपड़ा साफ (२०१४) (आने वाले समय में शायद नाम बदल जाये मगर मुहावरा यही चलेगा समाचार पत्र में)
वैसे हाल ही में किसी मित्र ने बताया कि सूपड़ा साफ होना भले ही समाचार पत्र पार्टी की हार जीत से जोड़ कर देखते हों मगर इसका सही अर्थ है:
’सूपड़ा या सूपड़ा सरकंडों,सीकों आदि का बना हुआ एक प्रसिद्ध उपकरण जिससे अनाज फटका जाता है. यह अनाज ,दालों और राई,जीरा जैसे मसालों में से छिलके,तिनके और उनके थोथे दानों को अलग करने के काम आता था. इसको काम लेना किसी कला से कम नही होता था. अनाड़ी छिलकों के साथ अच्छे स्वस्थ बीजों को भी उडा़कर कचरे में मिला देता, ऐसे में सूप में कुछ नही बचता. ऐसी ही स्थिति किसी भी क्षेत्र में आ जाने को 'सूपडा़ साफ़ होना 'कहते हैं’
ज्ञान प्रसाद अच्छा लगा मगर फिर उठ कर आईने में देखा तो आईना बोल उठा ’ओ जनाब, सूपड़ा साफ होने पर लिख रहे हो तो तस्वीर खुद की लगाना और उदाहरण अपने बालों का देना, पूरा सूपड़ा साफ होने को है.’
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार १६ दिसम्बर, २०१८ के अंक में:


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शुक्रवार, दिसंबर 14, 2018

यूँ ही..कुछ ख्यालों की स्याही, छितरी बिखरी सी..सूखी हुई सी



रेडियो पर गाना सुन रहे हैं कान में इयर फोन लगा कर:
कहीं किसी रोज यूँ भी होता
हमारी हालत तुम्हारी होती
जो रात हमने गुजारी मर के
वो रात तुमने गुजारी होती!!
कितनी गुलजार रात है आज रविवार की...बाहर बहुत कुड़कुड़ा देने वाली -१० ठंड है..सुनसान सड़क..बरफ की चादर ओढ़े हुए..घर के भीतर की हीटिंग बाहर की ठंड को धता बता रही है. यथार्थ का धरातल वो नहीं जो रुमानियत में है..शायद यही वजह हो प्रीत जब हकीकत का धरातल पाती है शादी के बाद तो युगल विचलित हो उठता है..संभल नहीं पाता..फूल की खुशबू खो जाती है और फिर वही..कहा सुनी..दूरियाँ..संबंध विच्छेद..
मगर यहाँ फायर प्लेस अपनी गरम सांसों की आगोश में समेटने की कोशिश में खुद को जला रहा है..
शमा कहे परवाने से, परे चला जा..
मेरी तरह जल जायेगा..यहाँ नही आ..   मगर सुनता कौन है..
जलना ही जब प्रारब्ध है तो कौन भला बदल सकता है उसे..
उधर गाना भी खत्म हो चुका है और अब सेक्सोफोन पर बज रही है एक रुमानी धुन और रेड वाईन का ग्लास!! गरमाहट फायर प्लेस निर्लिप्त सा भाव धरे फैला रहा है..वो मौसम और गाने के बीच सेतु बन रहा है..
मेरे साजन हैं उस पार,
मैं इस पार...
चल मेरे मांझी..चल मेरे मांझी,,
खिड़की से झांक कर देखता हूँ.. दूरआसमां में एक चाँद खिला है..मुझे मूँह चिढ़ाता..कहता है कि तुमसे उस पार मिल कर आया है पीपल के पेड़ की छांव में..जहाँ अंगना फूल खिले हैं.
दुत्तकारने को मन कर रहा है मगर सिमेट लेता हूँ उस सोच को अपनी बाँह में..बात तुम्हारी करता है वो इसलिए..प्यार तो उस पर आना ही था.
कितना नादान हूँ मैं कि नादान वो चाँद है?
दरअसल नादान और मासूम तो तुम हो कि न चाँद और न मैं..संभाल पाये खुद को..तुम्हें देख कर..
सेक्सोफोन पर बजती धुन एक पूरी रात के पार ले आई और उधर आसमान में सुबह का सूरज थपकी देकर मेरी दुनिया को जगा रहा है...
सुबह हुई अब जागो प्यारे..दुनिया खड़ी है बांह पसारे..
और मैं रात भर का जागा..अब कुछ देर आँख बंद कर सो जाने की कोशिश में जुटा सोचता हूँ..कितना अलग अंदाज है मेरा..
मगर कितनी देर ...दफ्तर तो जाना ही होगा..काम भी जरुरी है न!! ख्यालों में जिन्दगी नहीं गुजरती.
व्हाटसएप की दुनिया से बाहर जो यथार्थ है, वही व्हाटसएप की दुनिया का चिराग है.. बिना चिराग के कौन सा अंधकार मिटा है भला.
दोनों के बीच सामन्जस्य बनाना ही होगा.
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं अब..पूरा कोई भी नहीं!!
एक दार्शनिक सा विचार..बहता हुआ सा!!
-समीर लाल ’समीर’

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शनिवार, दिसंबर 08, 2018

पहले भी अमृत कहाँ निकला था?



तिवारी जी रिटायरमेन्ट के पहले विभागाध्यक्ष थे एवं उनके विभाग में अनेक कर्मचारी उनके अन्तर्गत काम करते थे. घंसु ने उनसे आज एक मेनेजमेन्ट फंडा पूछा कि यदि आपका कोई कर्मचारी दिन में १८-१८ घंटे कार्य करे. कभी छुट्टी पर न जाये तो आप उसे कैसे पुरुस्कृत करेंगे और क्यूँ?

तिवारी जी ने पान थूका और प्रवचन मोड में आ गये जैसे कि भरे बैठे हों.
’मैं उसको तुरंत नौकरी से निकाल देता’
और अब सुनो क्यूँ?
ये जो फेक्टरियों में, दफ्तरों में, स्कूलों में एक पाली का समय दिन में ८ घंटे (+/- १ घंटे) का तय किया गया है सारी दुनिया में वो बहुत ही वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर किया गया है. अगर कार्य ज्यादा है तो तीन पाली चला लो और हर पाली में अलग कर्मचारी लाओ.
ऐसा माना जाता है कि ८ घंटे तक मन लगा कर काम कर लेने के बाद आपकी कार्यक्षमता में कमी आने लगती है, यह शरीर और दिमाग की प्राकृतिक प्रक्रिया है. यह ठीक वैसा ही है जैसा ८ घंटे शरीर को आराम देने के लिए सोने की सबसे उत्तम अवधि है.
अब यदि कोई, जैसे टॉप मैनेजमेन्ट आदि यदि ८ घंटे से ज्यादा काम करते हैं तो दरअसल वो अपना सोशलाईजेशन और काम दोनों एक ही समय करते हैं. डॉक्टर को दिखाना, बाल की हजामत बनवाना, दर्जी को कपड़े सिलने के नाप देना, निमंत्रण पर फिल्म देखना, विदेश से आये मित्रों के साथ झूला झूल आना, उनको आरती में चार घंटे टहला लाना, अपने शहर में रोड शो टाईप करके घूमा लाना, भी काम के समय ही कर लेने को, क्यूँकि किसी को जबाब तो देना नहीं है, काम नहीं कहते हैं. एक आम कर्मचारी को इन सबके लिए छुट्टी लेना पड़ती है.
कम्पनी का मालिक अपनी माँ से मिलने जाये या किसी मित्र की बिटिया की शादी में शामिल हो आना और साथ ही उस शहर में एक दो व्यापारियों से कुछ देर मिलकर कुछ नये व्यापार की सोच लेते आना तो इसे घर जाना कहेंगे कि बिजनेस ट्रिप? अब किसी कम्पनी के मालिक अपने दोस्त के साथ खाना खाने जाता है या विदेश घूमने जाता है और साथ ही वो एक दो बिजनेस की डील भी कर आता है या बिजनेस डील करने जाता है और समुन्द्र घूमना या ढोलक बजाना भी साथ ही कर आये तो भी जब निचोड़ निकालोगे तो ८ घंटे ही काम के निकलेंगे या निकलने चाहिये. बाकी तो जो लोग छुट्टी लेकर करने जाते हैं वो तुम फ्री में कम्पनी या देश के खर्च पर कर आये.
तिवारी जी आगे बोले:
मेरी नजर में अगर कोई ८ घंटे से ज्यादा काम कर रहा है या छुट्टी नहीं ले रहा है तो इसके कारण तलाशना चाहिये. वर्क लाईफ बैलंस की चिन्ता न भी हो क्यूँकि परिवार की चिन्ता ही नहीं है, उनको तो कब का छोड़ दिया सिवाय जरुरतवश इस्तेमाल करने के तो भी:
·         क्या उसे अपना काम समझ नहीं आ रहा है जो वो उसे ८ घंटे में खत्म नहीं कर पा रहा है? क्या उसे ट्रेनिंग की जरुरत है या उसे कार्य से मुक्त कर देना चाहिये क्यूँकि वो इस योग्य नहीं है?
·         क्या उसे काम को अपने मातहतों को देना नहीं आता या फिर सब अपने कंट्रोल में रखने के लिए वो देना नहीं चाहता. अपने कंट्रोल में रखने का कारण क्या है?
·         क्या वो कोई ऐसा कार्य कर रहा है जिसके उसके छुट्टी पर जाने से खुलासा हो जाने का खतरा है?
·         क्या वो मित्रों को सामान्य प्रणाली के बाहर जाकर मदद करने के लिए एक्स्ट्रा टाईम में लेखा जोखा बदल रहा है?
·         क्या वो काम के समय को मक्कारी में काट रहा है और फिर एकस्ट्रा टाईम काम में दिखाकर वाह वाही लूटना चाहता है.

यह सब सतर्क होने के अलार्म हैं. जो भी व्यक्ति अपनी निर्धारित समय से ज्यादा दफ्तर में बैठा है और निर्धारित छुट्टी नहीं लेता, उसे फोर्सड छुट्टी पर भेज दिया जाना चाहिये और उस दौरान उसका कार्यभार किसी ऐसे व्यक्ति को दे दिया जाना चाहिये जो इन्डिपेन्डेन्ट हो और इस बात की जाँच होना चाहिये कि आखिर बंदा छुट्टी पर क्यूँ नहीं जाता? कुछ तो वजह रही होगी वरना कोई यूँ ही दीवाना नहीं होता!!
यह भी जान लेना चाहिये कि शराब का लति हो (अल्कोहलिक) या काम का लति हो (वर्कोहलिक), नशे की हालत में कोई भी सही निर्णय ले पाना संभव नहीं है अतः उनको नशा उतर जाने तक न तो गाड़ी चलाना चाहिये और न ही कोई जिम्मेदारीपूर्ण कार्य करना चाहिये. देश चलाना तो बहुत दूर की है.
कोई भी अजर अमर तो होता नहीं. उसके आने के पहले भी काम चल ही रहा था और उसके जाने के बाद भी काम चलता ही रहेगा.
अगर पहले समुन्द्र मंथन होकर अमृत नही निकला था तो वो तो अब भी नहीं निकला तो आखिर १८ घंटे किया क्या और छुट्टी न लेकर कौन सा अमृत निकल आया, यह समझ नहीं आया. १८ घंटे बिना छुट्टी लिए कार्य करने का निष्कर्ष सिर्फ इतना निकला है कि पहले भी अमृत कहाँ निकला था?
रिपोर्ट कार्ड तो यही कहता है.
समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार ९ दिसम्बर, २०१८ के अंक में:
 http://epaper.subahsavere.news/c/34707280





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चित्र साभार: गुगल Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, दिसंबर 02, 2018

ठेके पर तलाक और आईनों का सरकारी हो जाना...



आज सड़क के किनारे लगे नए विज्ञापन के बोर्ड को देखकर चौंक गया. फ्लैट १००० डॉलर + जीएसटी में डाइवोर्स और उस पर से विज्ञापन भी एकदम ज़िंदा- बोर्ड जिस तार से गाड़ा गया था वो हवा के थपेड़े न झेल पाया और एक टांग से उखड़ा टेड़ा टंगा था.
सही मायने में देखा जाए तो तलाक भी तो इसी तरह का होता है. परिवार उखड़ जाता है जिंदगी की झंझावातों के थपेड़े खाकर. फिर न वो खुश और न ये खुश . एक तिरछा जीवन मात्र इसलिए कि जब आंधी आई तो दोनों अपने अहम् में खुद को साबित करने में अकेले ही भिड़ पड़े बिना एक दूसरे का हाथ थामें और बिना एक दूजे की साथ की ताकत को समझे. मैं भला क्यूँ हाथ थामूं तुम्हारा? क्या मैं सक्षम नहीं? दिखा ही दूंगा कि मैं अकेला ही काफी हूँ.
पहले लोगों को समाज की नजर की चिंता होती थी तो बड़ी से बड़ी बात हो जाए मगर निभा जाते थे यह सोच कर कि समाज क्या कहेगा? तलाकशुदा व्यक्ति समाज की नज़रों में गिर जाते थे अतः लाख खटपट और असामंजस्य के बावजूद भी संबंध निभा ले जाते थे.
अब समाज की चिंता तो छोड़ो, माँ बाप तक से तो नजर की शर्म बची नहीं है. कॉमन लॉ, सेम सेक्स मैरेज जैसे वक्त में क्या समाज की नजर और क्या माँ बाप की? खुद की नजर की तो परवाह रही नहीं. जाने इनके घरों में आईने हैं भी या नहीं? या आईने होंगे भी तो सिर्फ मेकअप के लिए, असली चेहरा दिखाने को नहीं. आईने भी तो सरकारी हो गए हैं अब ..झूठ बोलना सीख चुके हैं. सेल्फी और आईने की शक्ल एक सी हुई जाती है ..फिल्टर लगा कर जैसी चाहो वैसी तस्वीर देखो!
ऐसे वक्त में अहम की टकराहट में तलाक को रोकने और टालने के लिए मात्र अर्थ (रुपया हो या डॉलर) ही बचा था जिसके डर से नई पीढ़ी इस ओर कदम बढ़ाने से कतराती है. वकीलों की मोटी फीस, वो भी न जाने कब तक भरनी पड़े, जब तक की केस न खत्म हो जाए और फिर भारी भरकम सेटेलमेंट और मेन्टनेन्स का पैसा. इंसान सोचता है कि इससे अच्छा तो बिना तलाक के ही खरी खोटी सुनते सुनाते, लड़ते झगड़ते  ही काट लेते हैं.
आज उस रोक की दीवार को भी जब इस विज्ञापन के माध्यम से आधा गिरते देखा तो लगा की आह! यह रोक भी चल बसी.  कम से कम वकील की फीस की चिंता तो हटी. १००० + जीएसटी. देशी बन्दे हैं हम. इसे इस तरह पढ़ते हैं कि फीस १००० है, नगद दे देंगे. रसीद भी नहीं चाहिये. तब कैसा जीएसटी?
किसी ने कहा की जीएसटी न देना तो नैतिकता के आधार पर धोखा है सरकार के साथ. हमने सिर्फ उसकी आँख से आँख मिलाई और वो सॉरी कह कर चला गया.
जाने क्या समझा होगा नजर मिलाने को इनमें से:
१.     धोखेबाजों से धोखा भी कोई धोखा होता है बुध्धु?
२.     नैतिकता की उम्मीद उससे जो यूं भी नैतिक जिम्मेदारी से मूंह मोड़ने की तैयारी में है?
३.     तुम उस वक्त कहाँ चले जाते हो जब राजनेतिक गठबंधन अपने गठबंधन तोड़ते हैं? उस वक्त जीएसटी का ख्याल आता है क्या तुम्हें?
४.     जीएसटी दे भी दें मगर ऐसे व्यक्ति को जिसका काम ही झूठ को सच साबित करना है? उसे अगर हम जीएसटी दे भी देंगे तो भी वो साबित कर ही देगा कि जीएसटी उसका मेहनताना है.
५.     फिर सरकार लाख सर पटके, अदालत से वो आदेश ले ही आयेगा कि तलाक के केस में वसूले गए जीएसटी पर सरकार का कोई हक नहीं है.
६.     एक रास्ता और है कि जीएसटी का आधा हिस्सा पार्टी फंड में बेनामी जमा करा दो तो कोई पूछताछ न होगी.
खैर, जो भी समझा हो, हमें क्या? चला तो गया.
अब मुझे इंतज़ार है एक ऐसे विज्ञापन का जो ये कहे कि फ्लैट फीस ५००० + जीएसटी. जीरो सेटलमेंट और मेंटेनेंस की गारंटी. जैसे कह रहा हो कि तलाक और ठिकाने लगाने की सुपारी मानो इसे. आज ही संपर्क करें – इमेल: फलाना @ फलाना डॉट कॉम.
वैसे आज कल चल निकला प्री नेपच्युल एग्रीमेंट भी तो इसी दिशा में एक कदम है मानो शादी नहीं हो रही बल्कि पार्टनरशिप में बिजनेस करने जा रहे हों.
ये शादी, तलाक, प्री नेपच्युल को आज न जाने क्यूँ राजनितिक बनते गठबंधंन, टूटते गठबंधंन और मुद्दा आधारित समर्थन से जोड़ कर देखने का मन किया. कोई खास अंतर तो अब बचा नहीं है.
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार दिसम्बर ०२, २०१८

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