बुधवार, जनवरी 31, 2018

बेबी, खाना खा लिया?



जैसे हाऊस वाईफ होती हैं, याने कि वो महिला जिसके जिम्मेदारी घर संभालना रहती है मसलन खाना बनाना, कपड़े धोना एवं एवं घरेलु कार्य करना. वह कहीं काम पर नहीं जाती है. उस पर कमाने की जिम्मेदारी नहीं होती है. काम पर जाना और कमा कर लाना पति का काम होता है. समय के साथ साथ थोड़ी परिभाषा बदली है जिसमें अब हाऊस वाईफ होने के लिए केवल कम्पल्सरी बात इत्ती सी बची है कि वह कहीं काम पर नहीं जाती है. उस पर कमाने की जिम्मेदारी नहीं होती है बाकि सब ऑप्शनल हो गया है.
वैसे भी आजकल महानगरों में तो कम से कम पति पत्नि दोनों ही काम पर जाते और कमाते हैं तो हाऊस वाईफ वाली तो बात इनके बीच बची नहीं. दोनों ही वर्किंग हैं. इसमें तो हसबैण्ड वाईफ वाली बात ही सलामत रह आये, उसी की कशमकश है. दोनों कैरियर के प्रति सजग. दोनों की अपनी प्राथमिकतायें. दोनों के पास सफेद कमीज इस हेतु कि भला उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी? इसी होड़ में दांपत्य जीवन की गाड़ी के दो पहिये अक्सर ही समानान्तर चलने की बजाये आगे पीछे हो लेते हैं और कई बार तो अलग अलग दिशाओं में भागने लगते हैं और दांपत्य जीवन की गाड़ी लड़खड़ाते लड़खड़ाते टूट कर धाराशाही ही हो जाती है.
तब एक नया ऑप्शन और बाजार में पापुलर हो रहा है जिसे हाऊस हसबैण्ड कहते हैं. पश्चिम में नौकर चाकर तो होते नहीं तो सभी काम खुद करने होते हैं. अतः हाऊस हसबैण्ड से आशा रहती है कि वो घर के कामकाज देखेगा और वर्किंग वाईफ बाहर जाकर काम करके पैसा कमा कर लायेगी जिससे घर चलेगा. पश्चिम के लिए हो सकता हो यह काम पर न जाने वाला पति जिसे हाऊस हसबैण्ड कहा गया, एक नया कान्सेप्ट हो मगर हमारे यहाँ तो कई पुश्तों से घर में एकाध लोग ऐसे होते ही थे. सारा परिवार उनको निख्खट्टू पुकारता था मगर उनकी अकड़ किसी भी कमाने वाले के ऊपर ही होती थी. बड़े बुजुर्ग उनको देख कर कहते थे कि न काम के न काज के, दुश्मन अनाज के..
दरअसल निख्खट्टू और हाऊस हसबैण्ड में एक व्यवहारिक अंतर तो यह दिखता है कि निख्खट्टू की पत्नि फिर भी हाऊस वाईफ ही होती थी अधिकतर और उनके यहाँ ज्वाईन्ट फैमली के कारण कामकाज की जिम्मेदारी पिता से लेकर भाईयों तक, किसी की भी हो सकती थी.
वक्त के साथ साथ जैसे जैसे महिलाओं के सम्मान और दर्जे की बात जोर पकड़ती गई, हाऊस वाईफ को होम मेकर पुकारा जाने लगा. नाम बदल जाने का बहुत असर माना गया है. प्लानिंग कमीशन और निति आयोग..नाम का अंतर ही इन्हें एक दूसरे से अलग बनाता है. और वही होम मेकर जब माँ बन जाये तो स्टे होम मॉम कहलाने लगी. नये समय के हाऊस हसबैण्ड होम मेकर वाली पायदान पर कभी खड़े न हो सके मगर पिता बनते ही स्टे होम डैड जरुर हो लिए. पुरुष और होम मेकर..हूंह..ही केन नेवर बी होम मेकर..घर लौट कर हमको रोज चैक करना ही पड़ता है कि उसने अपनी जिम्मेदारी का ठीक से निर्वहन किया कि नहीं और गैस व्हाट? ९०% हम पातीं हैं कि नहीं!! लगता है जल्द जमाना आयेगा, जब पुरुष अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने पर बाध्य होंगे इस तरह की लानतों मलानतों के बाद.
वैसे सहस्त्र सदियों से पुरुष प्रधानता का आदी पुरुष  मस्तिष्क ..कुछ सदियां तो लेगा ही सुधरते सुधरते..तो आज भी वो हाऊस वाईफ में जहाँ वाईफ से पत्नि धर्म निभाने, पति की हुकुमत मानने आदि का आदी है, वो वाईफ जब वर्किंग वाईफ हो जाती है और खुद चाहे वर्किंग हसबैण्ड हों या हाऊस हसबैण्ड हो जाते हों..वाईफ के साथ का वर्किंग और खुद के साथ का हाऊस उनके लिए साइलेन्ट शब्द हो जाता है और रोल परिवर्तन या कमाने में साझेदारी के बावजूद भी पत्नि से उम्मीदों में वही आसमां पाले रहते हैं जबकि पत्नि को आशा हो जाती है कि अब मैं कमाती हूँ या मैं भी कमाती हूँ तो फिर वही पुराना आसमां क्यूँ उम्मीदों का..
यहीं क्यूँ और यही पुरानी उम्मीदें और आशायें.. जीवन के आंतरिक ढ़ांचे को इस तरह हिलाता है कि सब बेहतरीन है दिखाने के लिए रंग रोगन की जरुरत पड़ने लग जाती है. सहज कुछ दिखता ही नहीं. तेल घी खाने की गलत आदतों से ऊगे मुहासे जब चेहरे पर दाग धब्बे छोड़ जाते हैं तो अपनी झूठी खूबसूरती का भ्रम पैदा करने के लिए फाउण्डेशन और मेकाप की परतों का इस्तेमाल जरुरी हो जाता है. हालांकि कुछ ही समय में यह परत भी धता बता जाती है और सब जग जाहिर हो लेता है मगर एक अन्तराल तक तो काम चल ही जाता है. भ्रम की उम्र भी तो इंसानी कैफियत रखती है..सीमित होने की.
यही क्रीम फाऊन्डेशन आज के इन दरकते रिश्तों में तरह तरह के संबोधन बने हुए हैं...दोनों एक दूसरे से बात बात में पब्लिक के सामने...बेबी, खाना खा लिया? जानू, नाई नाई (नहाई) कर ली? लव यू डार्लिंग!! मेरा बाबू...मेरा सोना.. लेट मी गिव यू ए हग्गी...और न जाने क्या क्या? आपको सुन कर ऐसा लगेगा कि यार हम तो आपस में प्यार करते ही नहीं...हमारी तो पूरी जनरेशन निक्कमी निकल गई मगर बात वही..इनके टूटते रिश्तों को देखकर...अच्छा है..हमने सिर्फ रिश्ते को अहसासा है..जताया नहीं...ये जता तो रहे हैं इन वाक्यों से..संबोधनों से मगर अहसास क्यूं नहीं रहे?
हम उस युग के जस्ट बाद के ही सही जब खाने की थाली उठाकर फेंकी नहीं का मतलब होता था कि खाना बढ़िया बना है..मगर ये कह कर कि खाना बेहतरीन बना है, आज तक इससे बेस्ट कहीं खाया नहीं...और उस खाने की फेस बुक पर फोटो चढ़ा कर भूखे उठ जायें कहीं और बेहतर खाने की तलाश में..कि कम से कम पेट तो भर जाये ..वो हमने सीखा नहीं.
चाहे कैसा भी जमाना आ जाये..हाऊस वाईफ, हाऊस हसबैण्ड, स्टे होम मॉम, स्टे होम डैड..वर्किंग कपल...हर वक्त दरकार बस एक ही होगी..एक दूसरे को इंसान समझने की..एक दूसरे को सम्मान देने की, एक दूसरे से समझौता करने की..एक दूसरे के दर्द साझा करने की...तभी सही मायने में.. मेरा बेबी, खाना खाया क्या? खाना खा पायेगा और नाई नाई कहने के पहले ही नहा धो कर राजा बेटा बन कर सामने आ जायेगा!
-समीर लाल ’समीर’    
मासिक पत्रिका ’गर्भनाल’ के फरवरी, २०१८ के अंक में:

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शनिवार, जनवरी 27, 2018

इन्टरव्यू की सेल्फी के बहाने बजट की चर्चा

बजट न हुआ मानो कोई व्यंजन हो गया हो. व्यंजन भी कैसा जैसे कि खुरमा, कहीं कहीं उसे पारा भी कहते हैं -शक्कर पारा, नमक पारा. तीखा, नमकीन, सादा और मीठा, चारों तरह का बनाया जा सकता है. हमारे देश का मुख्य बावर्ची जानता है कि कब कैसा व्यंजन बनाना और परोसना है. पकवान बनाने में तो खैर उसे महारत हासिल है ही, इससे कौन न सहमत होगा? ऐसी चाय पिलावाई कि देश झूम उठा. आज तक आधा देश उस चाय की तासीर में डोल रहा है. नशा सा छा गया चाय से. सब बस उसी नशे में डूबे मदमस्त नाचे चले जा रहे हैं.
हल्का हल्का सुरुर उतरने को ही था कि एकाएक कुछ दिन पहले पकोड़ी छानने का रोजगार सुझा कर देश की बेरोजगारी समस्या का एकाएक १००% निदान कर दिया. कागज, कलम, दवात सब भूल जाओ. स्कूल, कालेज सब बेरोजगारी के रास्ते हैं. नये डिजिटल इण्डिया के जमाने में, जरुरत है तो एक कढ़ाही, झारा और चूल्हे की. हो गया इन्फ्रास्ट्रक्टर ऑफ शत प्रतिशत एम्लॉयड इण्डिया तैयार. किसी भी दफ्तर के नुक्कड़ पर गुमटी लगाओ और लगो छानने पकोड़े. लग गया रोजगार.
सारे सांसद से लेकर विधायक तक बढ़िया फार्मूला पा गये हैं. अब जब कोई भी अपने बच्चे की नौकरी न लगने की शिकायत करता है तो तुरंत सांसद महोदय यू ट्य़ूब के इन्टरव्यू का लिंक व्हाटसएप्प पर उसे भेज देते हैं कि हे मूर्ख!! सुन इसे..साहेब क्या कह रहे हैं. रोजगार तेरे मोहल्ले के नुक्कड़ पर माला लिये रेड कार्पेट बिछाये तेरा इन्तजार कर रहा है और तू यहाँ भटक रहा है. बच्चे की नौकरी मांगने आया अभिभावक माफी मांगने लगता है कि इत्ती ऊँची बात से अनभिज्ञ कैसे रह गया अब तक वो? वह सांसद महोदय के भेजे लिंक को बेटे को व्हाटसएप कर देता है. नौकरी न भी हो तो व्हाटसएप और फोन तो होता ही है..यू ट्यूब देखकर शायद नालायक रोजगार पा जाये. वरना कोई हाथ में पकड़ कर निवाला तो खिलायेगा नहीं. कुंआ खोद दिया है साहेब ने, घसीट कर तुमको कुँए तक ले भी आये हैं इस यूट्यूबी इन्टरव्यू के माध्यम से..पर पानी तो तुमको खुद ही पीना पड़ेगा..कुछ तो करो नालायक!! ऐसी ज्ञान सरिता हर युग में नहीं बहती. ७० साल में पहली बार ऐसा रोजगार का अवसर आया है, जब गली गली नुक्कड़ नुक्कड़ पर रोजगार ही रोजगार हैं. पकोड़ी छानो और सीना तानो!! कि अब मैं बेरोजगार नहीं रहा.
पूरे कार्यकाल में एक इन्टरव्यू दिया ..दिया कहना उचित न होगा..किया,,,किया भी ठीक नहीं लग रहा ..इन्टरव्यू की सेल्फी की..ये सही है आज कल के सेल्फी के जमाने में. सेल्फी की अच्छाई ये होती है कि आप मनमाफिक पोज बना सकते हो, पाऊट काढ़ सकते हो और बाकी के आएं बाएं वाले पोज डिलिट..बेस्ट वाले की डीपी..और सारे फॉलोवर बोलें..वाओ!! व्हाट ए सिल्फी सर जी!!
ओह!! तो पूरे कार्यकाल में टोटल एक इन्टरव्यू की सेल्फी ली..और देश में सदियों की नासूर समस्या रोजगार को जड़ से निपटा दिया. अच्छा है, बार बार इन्टरव्यू की सेल्फी नहीं लेते वरना तो अगले चुनाव में लड़ने के लिए कुछ बाकी ही न बचता कि अब क्या निपटायेंगे सिर्फ सच्चाई बोलने के कि अब बस देश बचा है, इस बार हम उसे निपटायेंगे. फिर न रहेगा बांस, न बजेगी बांसूरी!!
मौसम और उत्सव के हिसाब से चावल दाल, खिचड़ी, तहरी, पुलाव आदि का बनना तय होते हैं आमतौर पर. वैसे ही बजट के साथ भी है. ये वो व्यंजन है जिसका स्वाद आगामी चुनावों की दूरी से तय होता है. जीतने के तुरंत बाद अगला चुनाव पांच साल दूर होता है. तो पहले साल में इसे एकदम तीखा बनाया जाता है. शातिर ही झेल पायें वरना तो आँख से आसूं और माथे से पसीने छुड़वा दे. दूसरे साल में नमकीन, तीसरे साल में सादा कि भाये किसी को न भले, मगर रुलाये भी न, और चुनाव के ठीक पहले चौथे साल में एकदम मीठा. खाने वाला कह उठे कि ये हुई न बात!! ऐसे बावर्ची को तो बावर्ची कहना भी उसकी तौहीन होगी..हम तो उसे मास्टर शेफ पुकारेंगे. उसे भला कौन नहीं चुनना चाहेगा फिर से.
हर व्यंजन के अपने फायदे होते हैं, इसीलिए तो पकवान नाम है पहलवान के जैसा..तो बजट नामक व्यंजन का असर शारीरिक से ज्यादा मानसिक होता है बादाम की तरह. जैसे ही बजट परोसा जाता है पूरा राष्ट्र एकाएक अर्थशास्त्री सा हो जाता है. खुद के नाम की स्पेलिंग लिखने में पैन की निब तोड़ देने वाला शख्स भी पान की दुकान पर तम्बाखू धिसते हुए बतियाता है कि चला गया न नीचे सकल घरेलु उत्पाद..हम तबहि कहे थे कि ई जीएसटी और नोटबंदी जैसा उत्पात हड़बड़ी में न करो..मगर हमारी कोई सुने तब न..लेव!! देखो डेफिसिट..अब हमसे मत पूछना कि कैसे संभालें!! खुद रायता फैलाया हो, खुद समेटो!
एक ने ब़ई गंभीर मुद्रा में बताया कि इस बार के बजट में आम आदमी को राहत मिली है मगर जनता पिट गई!!
आश्चर्य लगा कि ऐसा कैसे? तब साफ हुआ कि आम आदमी से आशय आम आदमी पार्टी से था क्यूँकि इस बजट के बाद सभी चुनाव की तैयारी में जुट जायेंगे तो उनको जरा राहत मिल जायेगी.
जनता की किस्मत में तो खैर पिटना ही बदा है तो उसमें नया क्या!!
-समीर लाल समीर’  

दैनिक सुबह सवेरे भोपाल के रविवार जनवरी २८, २०१८ के अंक में प्रकाशित:
http://epaper.subahsavere.news/c/25742769

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शनिवार, जनवरी 20, 2018

बसंत के आगमन की तैयारी और विकास की प्रतीक्षा

बसंत मुहाने पर है. बसंत कोई विकास नहीं है, यह अच्छा बंदा है. कहता है तो आता है. आता है दिखता है. दिखता है तो इतना मनोहारी और सुहाना होता है कि मन खिल उठता है. धरती महक उठती है. बाबा बेलेन्टाईन धंधे से लग लेते हैं. उनके लिए ये मौसम वैसा ही है जैसे घोड़ी के लिए शादी का सीज़न. बाकी समय तो कोई पूछता ही नहीं. मगर शादी के समय धंधे का ये हाल, कि एक ही टाईम के लिए पांच पांच बुकिंग. मूँह मांगी कीमत लो. एक ही शाम में पांच पांच बारात लगवा कर ही थोड़ा आराम मिलता है. १४ दिसम्बर से १४ जनवरी तक देवताओं का सोना, जब हिन्दुओं में शादियाँ नहीं की जाती हैं, शादी के लिए इन्तजार कर रहे जोड़ों से ज्यादा घोड़ियों को अखरता होगा. मुझे उनकी भाषा नहीं आती वरना उनसे पुछवा कर सिद्ध कर देता कि मैं सही हूँ.
खैर, आती तो मुझे विकास की भी भाषा नहीं है वरना उससे पुछवा कर भी साबित कर देता कि उसका कोई प्लान नहीं है अभी आने का. प्लान तो छोड़ो, न्यौता तक नहीं मिला है. वो अमरीका में रहता है. न्यौता मिलेगा तो छुट्टी अप्लाई करेगा. फिर वीसा मिले न मिले? उस पर से ऑफ सीजन में टिकिट सस्ती होती है और न्यौता फुल सीजन का..उतने पैसे हों न हों..बुलाने वाले की तरह फकीर भी तो नहीं हैं कि झोला उठाया और चल दिये. बीबी से पूछना होगा, बच्चों की सोचना होगा, तब निकल पायेगा..एक लम्बा समय लगता है प्लानिंग में किसी को विदेश से देश जाने में.. और वो बिना न्यौता भेजे चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं..वो देखो, विकास आ रहा है? कोई देश से विदेश तो जाना नहीं है कि हवाई जहाज उठाया और चल दिये, साथ ही रास्ते में शादी और अटेंड कर ली..
बसंत का माहौल जबरदस्त मन मस्त कर देने वाला होता है. एकदम रंग बिरंगा. कवि कविता गढ़ने लगते हैं और प्रेमी प्रीत के सागर में गोते लगाने लगते हैं. हमारा एक घर होगा..हम तुम ..बस और कोई नहीं. हमारे छोटे छोटे बच्चे होंगे..अब इनसे कोई पूछे कि तुम्हीं नोखे के हो क्या भाई? ऐसी क्या बहादुरी बतिया रहे हो..बच्चे तो सभी के छोटे छोटे होते हैं..बाद में बड़े होते हैं. तब वह झल्ला गये, कहने लगे ..देश में आज भी देख लिजिये जाकर उनको..५० के होने को आये मगर अभी भी छोटे बच्चे ही हैं. लोग बता रहे हैं कि जल्दी जल्दी सीख रहे हैं. पिरधान जी बनेंगे आगे.
बसंत को इन्हीं गुणों के कारण ऋतुओं का राजा कहा गया होगा. मैं बसंत को राजा ही नहीं बल्कि राजा साहेब मानता हूँ. साहेब लग जाने से पोजीशन में जान आ जाती है. वरना तो इंजीनियर भी मैकेनिक नजर आये. मात्र राजा कह देने से कभी- का हो बाबू, रज्जा बनारसी!! का भी भ्रम हो सकता है. दुनिया बदली है अतः आपको भी इसी तरह अपनी सोच बदलना होगी. तो राजा साहेब की याद आते ही आजकल के बदले लोकतंत्र की याद आती है. राजे रजवाड़े खत्म करके लोकतंत्र बनाया गया था. जनता की सरकार, जनता के द्वारा, जनता के लिए. आजकल सरकार की जगह राजा साहेब बन रहे हैं. जनता के राजा साहेब, जनता के द्वारा, जनता की ऐसी तैसी करने के लिए.
बसंत को तो मानो कि वो चुनावी घोषणा पत्र है अंग्रेजी में एलेक्शन मेनीफेस्टो... जो मनभावना तस्वीरें दिखाता है. छोटे छोटे बच्चों की आस लगाये लोगों को बड़ा सा विकास लाकर देने की बात करता है. हर तरफ वादों की ऐसी हरी भरी वादी सजाता है कि बेरुखे से बेरुखे दिल वाला गीत गा उठे, कवित्त रचने लगे. ऐसा कह कर मैं कविता को ऐरा गैरा नहीं ठहरा रहा हूँ मगर जैसा कि मैने पहले कहा कि जमाना बदला है तो हमें बदलना होगा. अब प्रेम कविता रचने के बसंत की दरकार नहीं है. जरुरी है कि आपका एक फेसबुक का पन्ना हो और उस पर जाकर कबूतर बोला गुटर गू.. तुम सुनना आई लव यू...लिख आयें, लोग उसे स्वयं प्रेम कविता का दर्जा दे लेंगे. दिया ही है न इसीलिए.. ईमानदार और जनहित की पैरोकार सरकार का दर्जा. अपनो से चार लाईक ही तो चटकवाने हैं.
बसंत की चकाचौंध में अंधियाये आज हम ऐसा राजा चुनने के आदी हो गये हैं जिसे हम छू भी नहीं सकते. वो हमारे बीच ज़ेड सिक्यूरिटी में आता है, मानो कि हम ही उसके लिए सबसे बड़ा खतरा हों. वो हमसे बात नहीं करता, वो बात कहता है. फरमान जारी करता है. ताली बजा बजा कर अपनी ही प्रजा का मजाक उड़ाता है. खुद को फकीर बताता है और दिन में पांच बार डिजाईनर पोषाक बदलता है. ताजा इतिहास गवाह है कि सफल व्यक्ति जो अपने निवेशकों और चुनने वालों की चिंता करता है, वह कोशिश करके बेवजह के डिसिजन को दूर रहता हैं..चाहे एप्पल का स्टीव जाब्स हो, फेसबुक का जुकरबर्ग, अमरीका का ओबामा, भारत के गांधी..रोज एक ही पोषाक पहनते थे..भले उनकी तादाद कुछ भी हो...मगर उन्हें इस बात पर समय कभी खराब नहीं करना पड़ता था कि अब कौन सी पोषाक पहनूँ?
सही ही है कि बसंत के बाद चिलचिलाता ग्रीष्म का मौसम जला कर रख देता है वो सारे सपने, वो सारे कवित्त, वो सारी हरियाली, वो सारे प्रीत के हिचकोले जो बह जाते हैं जीवन की हकीकत से जूझते हुए पसीने में..दिवा स्वप्नों की इतनी सी ही उम्र है और मगर हम!!!!
हम उन बसंत रुपी चुनावी प्रलोभनों वाले दिवा स्वपनों के साकार होने का इन्तजार कर रहे हैं.
जमाना बदला है तो शायद कभी बबूल का पेड़ बोने पर भी आम आ जायें!!
एक उम्मीद ही तो है.
-समीर लाल समीर’     
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में २१ जनवरी,२०१८ के अंक में:


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