रविवार, फ़रवरी 25, 2007

एक, दो, तीन........

एक, दो, तीन........चार, पाँच, छः...यह सब हम पर की गई प्रश्नों की बौछारे थीं, रचना और जीतू की. एक, दो, तीन........चार, पाँच, छः... सुन हम भी अपने आसान से उठे और माधुरी-तेजाब वाली को याद करते हुये एक दो ऐसे ठुमके लगाये और कमरा बैठ गई. बस क्या बतायें, ऐसी बैठी कि रचना जी और जीतू भाई के जबाब देना तो दूर, चुनाव जीते, उसकी शोभा यात्रा में भी नहीं नाच पाये. वैसे इसमें न तो एक, दो, तीन की गल्ती है और न ही माधुरी की. गल्ती हमारी ही कहलाई, शरीर देखा नहीं और लगे नाचने. यह फरक आया चिट्ठाकारी करने से अपने व्यक्तित्व में. जिस विषय से कुछ लेना देना नहीं, न समस्या समझ में आयी और न ही उस विषय का विशेष ज्ञान है, मगर लिखेंगे जरुर. एक विवाद तो भर हो जाने दो, सब ज्ञानी हो जाते हैं, लगे टिपा टिप्पणी करने, पोस्ट लिखने. अरे भाई, हर विवाद में हाजिरी लगाना तो जरुरी नहीं. मगर नहीं साहब, एक दो तीन पर माधुरी ने नाचा है तो हम क्यूँ न नाचें. फिर चाहे कमर टूटे या कमरा.

लेकिन फिर भी ऐसी लत पड़ी है कुछ न कुछ लिखते रहने की कि कितना भी दूर रहने का प्रयास करुँ भाग भाग कर वापस. लिखना, फिर पढ़वाना और फिर अगले के पढ़ने की पावती का इंतजार और वो ही दूसरे अखाड़े में पढ़ना और पावती पहुँचाना, यह सब दैनिक आदतों में शुमार हो गया है. चिट्ठाकारी का मायने शौक और खाली समय के उपयोग की बजाय जरुरत सा बन गया है. बिना इसके कुछ खालीपन सा लगने लगता है.अब मुझे नशाखोरों से कोई शिकायत नहीं है जिनकी बिना शराब मिले हालात बिगड़ने लगती है, जबकि मालूम है पी कर और बिगड़ेगी. उनके लिये तो दवाईयां है, पुनरुद्धार केन्द्र भी हैं. हमारे लिये तो वो भी नहीं.

इतने प्यारे प्यारे दोस्त बन गये हैं, सब कुछ एक बड़े परिवार के अहम हिस्से. सभी का इंतजार रहता है. कोई बातूनी है, तो कोई फुरसत में बैठा है. कोई तुनक मिजाजी, बात बात में बुरा मान जाता है, तो कोई ऐसा मसखरा कि हर समय मजाक. कुछ कह लो, बुरा ही नहीं मानता. कई बार तो उसके बुरा न मानने का बुरा लगने लगता है. कोई गाता है, कोई कविता सुनाता है, कोई प्रवचन पर प्रवचन, तो कोई अपना तकनिकी ज्ञान हासिल से ज्यादा बांटे दे रहा है और कोई संपूर्ण व्यवसायी . कोई धर्म की बात करता है तो कोई अंतरीक्ष के नीचे की बात करना ही नहीं चाहता. हर मजहब के एक छत के नीचे, यहाँ कांग्रेसी हैं, भाजापाई हैं, एक दो तो इतना ज्यादा वामपंथी विचारधारा के हो गये हैं कि चाहे कुछ हो, कुछ कह लो, कुछ कर लो, मगर वो विरोध करेंगे ही, यह तय है. ऐसा ही तो होता है एक भरा पूरा परिवार. सभी प्यारे होते हैं, हर एक की कमी खलती है. सबका अपना स्थान है-कोई चंचल तो कोई बचपन में ही बड़ा हो गया है, मगर परिवार है, हर तरह के सदस्य होते हैं. अरे, भारतीय हैं भाई हम लोग. हमारे यहाँ तो घर में रहने वाला जानवर भी परिवार का सदस्य होता है, उसी का इंतजार है परिवार पूरा करने को, उनकी कमी बहुत अखरती है.

परिवार के बीच घूमते घूमते भी कभी कभी एकांत की आवश्यता भी महसूस होती है, जो सबको ही होती है और स्वभाविक भी है. तब भरे पूरे परिवार की मनभावन हाहाकार के बीच ही किताब लेकर आंतरिक एकांत में खो जाता हूँ और बहुत कुछ पढ़ता हूँ-मगर जिन दो पुस्तकों की तरफ सबसे पहले हाथ बढ़ता है और बार बार बढ़ता है, वो है हरिशंकर परसाई के व्यंग्य संकलन और फिर अंग्रेजी में रिच डैड पूअर डैड. व्यंग्य तो मुझे शुरु से ही बहुत पसंद हैं और उस पर से जब व्यंग्य, व्यंग्य शिरोमणी हरि शंकर परसाई का तो क्या कहना. उनको पढ़ना मुझे बार बार मेरे शहर ले जाता है. वही जबलपुर जो मेरे मानस पटल पर इस तरह छाया रहता है कि नियाग्रा फाल्स जैसा विहंगम प्रपात भी मुझे धुंआधार, भेड़ाघाट जबलपुर के जल प्रपात की ही याद दिलाता है. मुझे ऐसा लगता है जिन्दगी के किसी भी राजपथ पर आप चलें, बचपन की पगडंडियाँ उन पर हमेशा काबिज ही रहती हैं और उनका महत्व आपके जीवन में हर राजपथ से ज्यादा होता है. फिर रिच डैड पूअर डैड मुझे एक तरह की जीवन शैली लगती है और अपने कैरियर शुरु कर रहे हर युवा को मैं इस पुस्तक को पढ़ने की सिफारिश करता हूँ. (Rich Dad, Poor Dad by Robert T. Kiyosaki). वैसे एक दिन जरुर आप लोगों को इस पुस्तक की कमेंट्रि पेश करुँगा, ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है. मेरी कई और हार्दिक इच्छायें थीं जो वक्त की मौत मारी गयीं मगर इसे मैं न मरने देने की कसम खा कर बैठा हूँ. फिर भी मर ही गई तो क्षमा मांग लूँगा कोई प्रापर्टी तो लिख नहीं दी है.

जब पुस्तक पढ़कर फुरसत पाऊँ तो फिर यही परिवार और कुछ अपने व्यक्तिगत दायित्यवों का निर्वहन, नौकरी, तकनीकि लेखन, तकनीकि और व्यवसायिक सलाहकारी, कविता, मित्रों से मेल मिलाप-बातचीत और फिर नये मित्रों से व्यक्तिगत मेल-मिलाप की इच्छा. चिट्ठाकारी में बहुत से नये मित्र बनें जिनसे मेरी व्यक्तिगत तौर पर मुलाकत भी हुई और अब तो लगता है, बरसों के मित्र हैं, सखा हैं, रिश्तेदार हैं. मैं जब भी मौका लगेगा, हर हिन्दी चिट्ठाकार से मिलना चाहूँगा, जब जब जैसे जैसे मौका आयेगा. बहुतों से फोन पर बात, चैट पर बात करते करते ही अब ऐसा लगता ही नहीं कि उनसे मैं कभी मिला ही नहीं हूँ. इतना सम्मान, उन सबके व्यक्तिगत परिवार में स्थान- सब इसी हिन्दी चिट्ठाकारी की देन है. बहुत कम समय में ऐसा विस्तार, ऐसी आत्मियता शायद और किसी भी तरह से संभव नहीं थी. बस सब ऐसे ही हँसते-खेलते, लड़ते-झगड़ते और फिर गले मिलते रहें, यही सफल और सुखी संयुक्त परिवार की निशानी है. ऐसा ज्ञान मुझे टी वी पर सिरियल देख देख कर प्राप्त हुआ है. साधुवाद!!

कोशिश हर वक्त रहती है कि शायद किसी को प्रेरित कर पाऊँ हिन्दी चिट्ठाकारी शुरु करने को, शायद कोई प्रेरित भी हुआ हो. मगर हमेशा आव्हान रहेगा कि आओ, लिखो, अच्छा लिखो और बहुत अच्छा लिखो. कौन पढ़ेगा, यह मत सोचो. मैं हूँ न!! पढ़ूँगा भी और शाबासी भी दूँगा. :) यह भी मेरी आदात का हिस्सा है. फिर भी नहीं लिखना तो यह तुम्हारी इच्छा है, तुम्हारी जगह लिखूँ भी मैं, यह नहीं हो पायेगा. भारत सरकार होता तो कर भी देता कि तुम कमरे में बैठो , सोचो और बाकि सारा ठीकरा अपने सर फुड़वाने के लिये मैं सरदार तो बैठा ही हूँ. आँ हा, यह यहाँ का नियम नहीं है.

मैं हर विषय पर लिखता हूँ. हल्के फुल्के माहौल में अपने दिल की बात कहता हूँ. कोशिश रहती है कि कोई मेरी लेखनी से आहत न हो और कोशिश करता हूँ कि कितनी भी संजीदा बात क्यूँ न हो, माहौल हल्का फुल्का बना रहे. बात बहते हुये कहूँ, लोग बहें और वैसे ही सुनें-बस, कोई डूबे न!! मैं हमेशा विवादित मुद्दों से बच कर चलना चाहता हूँ. न तो मैं ऐसे मुद्दों पर लिखता हूँ जिस पर मुझे ज्ञात है कि विवाद होगा और न ही ऐसे मुद्दों पर चल रही किसी बहस का हिस्सा बनना मुझे पसंद है. मैं इस तरह की पोस्टों पर टिप्पणी करना भी पसंद नहीं करता मगर आदतानुसार कभी एकाध बार कर ही देता हूँ, उसे सब लोग कृप्या मेरी भूल ही मानें. मेरा ज्ञान कम है, मैं ऐसे विषयों पर ज्ञान हाँसिल करने का आकांक्षी भी नहीं, तो आप को ही मुबारक!! बहुत बधाई!!

मेरे अधिक टिप्पणी, जिसके लिये में बदनाम हूँ, करने के पीछे भी यही उद्देश्य होता है कि लिखने वालों को प्रोत्साहन मिले. हर चिट्ठाकार अपनी नजर में अपना बेहतरीन ही परोसने की कोशिश करता है. जब वो इतनी मेहनत करता है तो उसकी लेखनी ही नहीं वरन प्रयास भी उसे तारीफ का हकदार बनाते हैं. बिना तारीफ के तो बड़ा से बड़ा शायर और साहित्यकार भी थक कर कट ले. मुझे लगता है कि तारीफ करके मैं जो प्रोत्साहन देता हूँ और जो औरों द्वारा की गई तारीफ से मुझे मिलता है, वही इस विकास की दर को बढ़ा रहा है, जिस दिशा में हम सब अग्रसर हैं. यही तो हम सबका उद्देश्य भी है. यहाँ की घूस यही है, तारीफ करो, तारीफ पाओ. वरना तो इमानदारी की ही बात करते रहोगे तो भारत का विकास ही रुक जायेगा.

हमेशा से और आज भी सबके सहयोग से और प्रोत्साहन से ही हम लिख रहे हैं और अन्य भी यही कर रहे हैं. सबका आभार व्यक्त करने को दिल करता है, वरना एक साल में तस्वीर मे इतना बदलाव और सदस्यों की संख्या में दो गुने से ज्यादा का इजाफा- यह सब यूँ ही संभव नहीं था. उम्मीद करता हूँ कि आगे भी सब यूँ ही समृद्ध होता रहे. नये लोग आयेंगे, कोई एम बी ए होगा, कोई पी एच डी...सबका सम्मान करना हमारा फ़र्ज है, न कि बराबरी करना कि उसकी कमीज हमारी कमीज से ज्यादा सफेद क्यूँ?

अपनी या किसी और की अच्छी खराब पोस्ट का तो क्या जिक्र करना. अच्छा खराब तो पढ़ने वाली नजरों का कमाल है, जैसे कि सुंदरता देखने वाले की आँखों मे होती है, वरना तो प्रयास हमारा और सबका अच्छे से अच्छा पेश करने का ही होता है. तकलीफ किसी की किसी बात से नहीं होती. बस थोड़ी कोफ्त होती है जब भाषा ज्ञानी कठीन शब्दों का इस्तेमाल कर नये आये कम भाषा ज्ञानियों पर अपनी सोच थोपने का प्रयास करते हैं और विवाद खड़े करते हैं. अरे समझो भाई उद्देश्य को, न कि आदर्श को. वो भी वहीं पहुँचने का प्रयास कर रहा है, जिस राह में तुम थोड़ा आगे हो. रास्ता दिखाओ- न कि आँख!!

मेरी नजर में अंतरजाल पर हिन्दी का विकास सामान्य बोलचाल की भाषा के इस्तेमाल से ही हो जायेगा, तो क्लिष्टता क्यूँ कर. यह महज विकास की राह में रोड़े का काम करेगा और आम लोगों को आने से रोकेगा. मुझे नहीं लगता कि अभी तीर्थंकरों और पीठाधीशों की आवश्यकता है. वह सब समृद्ध समाज में शोभित होते हैं तो पहले समृद्धता तो आ जाने दो. भूखे-नंगे को अध्यातम और योग सिखाओगे तो सिवाय फजियत के कुछ न मिलेगा. हाँ, अपना अनुभव बांटते रहो, भटको को राह दिखाओ, समाज को समृद्ध बनाने में योगदान करो, तो बात बनें. सिर्फ़ तुम्हारे मुगदर भाँजते रहने से पूरा मुहल्ला पहलवान नहीं हो जाता.

मुझे लगता है कि यह सब लिखते लिखते मैंने जाने आनजाने रचना जी और जीतू भाई के द्वारा उठाये गये सभी प्रश्नों के उत्तर अपनी तरह से दे दिये हैं, अब वो भी थोड़ी मेहनत करें और प्रश्न के जवाब उपर खोंजे, सभी मिल जायेंगे. प्रश्न दर प्रश्न जवाब देने में मुझे लगता है कि मैं किसी परीक्षा को दे रहा हूँ और उसमें तो अक्सर फेल हो जाता हूँ, सो नहीं दिया.

रही बात नये पाँच चिट्ठे, जिनसे मैं कुछ बताने को कहूँ तो बस परंपरा का निर्वहन कर रहा हूँ, वैसे तो लगभग सभी अटक चुके हैं, मगर मैं जीतू और रचना जी के प्रश्नों के कॉमन प्रश्न ही पूछ रहा हूँ:


१.आपके लिये चिट्ठाकारी के क्या मायने हैं?
२.क्या चिट्ठाकारी ने आपके जीवन/व्यक्तित्व को प्रभावित किया है?
३.आप किन विषयों पर लिखना पसन्द/झिझकते है?
४.यदि आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है?
५.आप किन विषयों पर लिखना पसन्द/झिझकते है?

जगदीश भाई ने इस प्रश्न के दो बार पूछे जाने की ध्यान दिलवाया, आभार.
५.आपकी पसँद की कोई दो पुस्तकें जो आप बार बार पढते हैं.


और जिन्हें मैं इसमे फंसाना चाहता हूँ कि जवाब दें वो हैं:

आशीष श्रीवास्तव: अंतरीक्ष वाले

लक्ष्मी गुप्ता जी

रंजू जी

प्रमेन्द्र प्रताप सिंह

डॉ भावना कुँवर

अब चला जाये.

चलते चलते: आज कुछ नहीं, सिर्फ़ इंडी ब्लागिज में मेरा समर्थन करने के लिये पुनः आभार!! Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007

इंडिकब्लागिज अवार्ड, २००६: बहुत आभार और धन्यवाद

अभी अभी इंडिकब्लागिज इंडियन वेबलॉग अवार्ड, २००६ के परिणाम देखे. आप सबका स्नेह, मात्र एक वर्ष से भी कम समय के साथ में, देख कर मन भावविभोर हो उठा. बस, शब्द नहीं हैं मेरे पास इस वक्त आप सबका धन्यवाद और आभार कहने के लिये.

आपके स्नेह का परिणाम है कि उड़न तश्तरी को बेस्ट इंडिकब्लाग (हिन्दी),२००६ के अवार्ड से नवाजा गया.





पुनः, हसरत जयपुरी जी की पंक्तियां दोहराता हूँ:



एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तों
ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों
यारों ने मेरे वास्ते क्या कुछ नहीं किया
सौ बार शुक्रिया अरे सौ बार शुक्रिया.....



मन भाव विभोर है आप सबका स्नेह पाकर. कृप्या मुझे यूँ ही आशीष देते रहें.
आप सबका का आभार और हार्दिक अभिनन्दन. Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

कवि-क्यूँ, कैसे और आप: प्रवचन माला २-३

एक ही प्रवचन माला में भाग २ और ३ एक ही साथ - ताकि लेख की लम्बाई सिद्ध कहलाये:

भाग-२

कवि कई प्रकार के होते हैं. इस लेख में मैं अपनी पहुँच को ध्यान में रखकर निम्नलिखीत श्रेणी के कवियों को नहीं कवर कर रहा हूँ:

ये वो कवि है जो अधिकतर कुर्ते पैजामें में पाये जाते हैं, अपनी बैठक से बारामदे के बीच तन से विचरण करते हुये. मगर मन से यह संपूर्ण ब्रह्मांड में विचरण करते हैं. इनके ५ से ६ दोस्त होते हैं और वो भी इसी श्रेणी के कवि होते हैं. सब शाम को किसी एक के घर में इक्कठे होकर गोष्ठी के रुप में एक दूसरे को अपनी कवितायें सुनाते हैं, चाय पीते हैं और बस वापस. कवि सम्मेलनों में भी नहीं जाते हैं या बहुत ही कम जाते हैं. ये अधिकतर या तो शिक्षा जगत से जुड़े पाये जाते हैं या पत्रकारिता से. इनका समाज में बहुत नाम रहता है और किताबें अक्सर कालजयी. कभी कभी तो शिक्षा पाठ्यक्रम का हिस्सा भी.

साथ ही इनको पढ़ने वाला वर्ग भी अलग है जो कमरे में बंद होकर चुपचाप इनको पढ़कर सो जाता है. न आह करना है, न वाह. समझ आ गया तो बढ़ियां और न आया तो भी बढ़ियां.

मेरा लेख इनकी बात नहीं कर रहा है. मैं अन्य श्रेणियों के कवियों की बात कर रहा हूँ. मगर जिनकी मैं बात कर रहा हूँ, उनमें भी भरपूर अपवाद हैं. जिनको कोई भी बात ऐसी लगे कि यह गलत है, वो ततक्षण अपने को अपवाद मान लेने को स्वतंत्र हैं.

एक दिन रवि भाई का लतीफा सुन रहा था:


कवि सम्मेलन के मंच से उतर रहे कवि से श्रोता ने कहा - मैं जब भी आपकी कविताएँ
सुनता हूँ, बहुत ही आश्चर्य करता हूँ।
कवि ने गदगद होकर कहा - आपका मतलब है, मैं इन्हें कैसे लिखता हूँ।
श्रोता - जी नहीं, मेरा मतलब है, आप इन्हें क्यों लिखते हैं?


तो यही सवाल मैने किया कुछ नार्मल और कुछ ब्लागर कवियों से: आप आखिर कविता लिखते क्यूँ हैं? इसके जो जवाब आये, वो इस तरह हैं;

-क्योंकि हमें कविता लिखना आती है.
-क्योंकि हमें लगता है कि जो भी भाव हमने कागज पर उतारे हैं, वो कविता हैं.
-क्योंकि हम गाते अच्छा हैं मगर उतना अच्छा भी नहीं कि गाना गा दें तो कविता गाते हैं और इसीलिये लिखते हैं.
-क्योंकि हमें इससे मंच से बोलने का मौका हाथ लगता है.
-क्योंकि हमें लेख लिखना नहीं आता.
-क्योंकि लेख लंबे होते हैं, और उतना टंकण हमारे बस का नहीं.
-क्योंकि मित्र और सखा बताते हैं कि हम अच्छी कविता कर लेते हैं.
-क्योंकि हमारे हाथ एक किताब लग गई है, जिसमें हिन्दी के कठिन कठिन शब्द बड़े आसान भाषा में समझाये गये हैं.
-(मेरी पसंद) क्योंकि जब हमने पहली चिट्ठा प्रविष्टी की तो नये होने के कारण कॉमा-फुल स्टाप आदि उपयोग नहीं कर पाये और पंक्तियाँ भी इधर उधर हो गईं. हाँलाकि छोटा सा आगमन संदेश गद्य में लिखा था, मगर सबने उसे मुक्तक समझ कर खुब तारीफी कशीदे पढ़े और हमें मुक्तक बहादुर की पदवी दे डाली, तब से मुक्तक लिखते आ रहे हैं. हमने यह लिखा था:


महफिल में तेरी देखिये, अब हम भी आ गये
नारद को कर सलाम, नाम अंकित करा गये
कल से उडेंगी रोज यहाँ भावों की तितलियाँ
जो भी लिखा था आज, वही सबको पढ़ा गये.


खैर, और भी कई कारण होंगे, जो लोग कविता लिखते/सुनाते हैं. मगर जो भी वजह हो, सुनना और पढ़ना तो दूसरों को पड़ता है, जैसा कि मैने अपनी प्रथम प्रवचन माला में समझाया था. अब आपको बतायें कि सुनने और पढ़ने वालों का क्या कहना है कि लोग कविता सुनते और पढ़ते क्यूँ हैं:

-क्योंकि हमें कविता समझ में आती है.
-क्योंकि उन्हें सुनना/पढ़ना हमारी मजबूरी है, आखिर सुनाने / लिखने वाले हमारे खास मित्र हैं.
-क्योंकि इससे हम साहित्यिक टाइप के नजर आते हैं और समाज में इज्जत बढ़ती है.
-क्योंकि जिस कंपनी में हम नौकरी करते हैं, वहाँ के बॉस को कवि सम्मेलन करवाना अच्छा लगता है, जैसे सहारा. तो नौकरी की खातिर सुनते हैं.
-क्योंकि वहाँ सुनने आये अन्य बड़े लोगों से मुलाकत हो जाती है.
-क्योंकि हम घोर आशावादी हैं और हमें हर बार लगता है कि शायद इस बार कोई कायदे की कविता लिखी होगी.
-क्योंकि एक लेख पढ़ने में लगने वाले समय में पाँच कविता पढ़ी और टिपियायी जा सकती है.
-क्योंकि वो भी हमारे लिखे लेख बड़े चाव से पढ़ते हैं तो हम उनकी कवितायें.

इन साहब से हमने पूछा कि आपको कैसे पता कि वो आपके लेख चाव से पढ़ते हैं. तब वो कहने लगे कि उनकी टिप्पणी देख कर. हमने कहा कि टिप्पणी तो दूसरों की टिप्पणी के आधार पर भी कर गये हों बजाय आपके ऊबाऊ लेख पढ़ने के, इस बात की क्या गारंटी है. तब वो हँस दिये बोले हम ही कौन उनकी कविता पढ़कर करते हैं, हम भी टिप्पणियों से माहौल समझ कर लिख आते हैं.

अब सुनने वाले तो फिर भी सरलता से निपट जाते है, मौके के हिसाब से सामुहिक ताली वाली बजा ली, बीच बीच में आह वाह कर ली. बहुत ध्यान आकर्षित करना है तो बीच में चिल्ला कर बोल दिये, बहुत अच्छे आदि. ज्यादा है तो चुपचाप बैठे रहे.

अब सुनने वाले तो फिर भी सरलता से निपट जाते है, मौके के हिसाब से सामुहिक ताली वाली बजा ली, बीच बीच में आह वाह कर ली. बहुत ध्यान आकर्षित करना है तो बीच में चिल्ला कर बोल दिये, बहुत अच्छे आदि. ज्यादा है तो चुपचाप बैठे रहे.


भाग-३

मगर ब्लाग पर पढ़ने वालों की सोचो, अब पढ़ तो लिया ही, तो यह बताना भी एक काम ही है कि हमने पढ़ लिया. वरना कवि को सपना तो आयेगा नहीं कि आपने पढ़ लिया. इस पावती को चिट्ठे की साहित्यिक भाषा में टिप्पणी कहा जाता है और चलती फिरती भाषा में लोग इसे दाद कहते हैं. कवि कवि होता है, सब समझता है कि आपने पढ़ कर टिप्पणी की है कि बस करने को की है, जैसे:

-बढ़िया है या क्या खुब या फिर वाह भई वाह, मजा आ गया.

यह अभी तक चल जा रहा था, अब नहीं चलेगा. अब खुब कवि आ गये हैं मैदान में. दाद पर तक दाद मिल रही है.कविता तो छोड़ो, कविता की टिप्पणी कविता से बढ़ चढ़ कर हैं. तारीफों के उपवन खिले हैं, तरह तरह के फूल लगे है, एक से एक महक वाले. इसमें अब आपके ये गंधरहित कागजी फूल नहीं चल पायेंगे. बात मानिये, पुराने लोगों को वक्त के साथ साथ बदलना होगा. नये जमाने का नया मिजाज अपनाना होगा. नये पैंतरे अजमाने होंगे, टिप्पणी देने और पाने में सामंजस्य बनाये रखने के लिये.

बढ़िया है या क्या खुब या वाह भई वाह, मजा आ गया :यह बार बार लिखते रहोगे तो वो कवि समझ जाता है कि महज टिप्पणी पाने के लिये की गई झटकेबाजी है और टिप्पणी कर्ता अपनी साख खो देता है. अब अगर परिवार के भीतर ही साख खो जाये तो बाहर क्या हाल होगा, तब तो आप गये काम से और वो भी हमारे रहते हुये, यह हमसे नहीं देखा जायेगा. इससे बचने के कुछ सुगम उपाय आपको बताये जा रहे हैं. समय बदल रहा है. नये नये शोध हो रहे हैं. यहाँ उपलब्ध सभी उपाय आसपास के वातावरण से बहुत गहरे शोध के बाद लाये गये हैं और अभी एकदम ताजे हैं, शायद कल थोड़ी प्रासंगिगता खो दें, मगर उसमें काफी वक्त लगेगा. हम तो हैं ही, तब फिर नया शोधपत्र जारी कर देंगे मगर आपकी साख पर आँच नहीं आने देंगे. आखिर इस हेतु हम अपने मात्र ८ माह पुराने शोधपत्र को निरस्त करते हुये यह नया शोधपत्र लाये ही हैं, फिर ले आयेंगे.

इन उपायों में फेर बदल करना है या यूँ ही कट-पेस्ट कर देना है, यह पूर्णतः आपके सोये स्व-विवेक, काव्यत्मक नासमझी और फोकटिया समय की उपलब्धता पर निर्भर करता है.


इन उपायों में फेर बदल करना है या यूँ ही कट-पेस्ट कर देना है, यह पूर्णतः आपके सोये स्व-विवेक, काव्यत्मक नासमझी और फोकटिया समय की उपलब्धता पर निर्भर करता है.


तो सुनो, अगर छोटी सी क्षणिका है या हाईकु या फिर मुक्तक टाईप की रचना है, तो टिप्पणी भी छोटी करना ही जायज होता है, ऐसा चिट्ठा कवित्त के विद्वानों का मानना है. वरना कई बार देखा गया है पोस्ट से बड़ी टिप्पणी हो जाती है और भटकाव की स्थिती उत्पन्न हो जाती है. कम से कम इस भटकाव के आप निमित्त न बनें. बस इअनमें से कोई भी एक छोटी सी सुंदर सी टिप्पणी करें, इसी ब्लाग पर अपनी पिछली टिप्पणी से अलग:

-मनमोहक ; मनभावनी पंक्तियां; सुनहरे भाव; शीतल बयार; हृदय स्पर्शी;
अनुपम अहसास;एक खुबसूरत अभिव्यक्ति;मार्मिक चित्रण; या
अनोखा शब्दचित्र ....


और लोगों की टिप्पणियों पर भी ध्यान दें. कोई नया शब्द या छोटा सा वाक्य मिल जाये, तो कट पेस्ट कर भविष्य के लिये अपने कम्प्यूटर पर सुरक्षित रख लें और मौका देखकर इस्तेमाल चालू.

अब यदि कविता चार छः लाईनों से बड़ी है तो बस आपको यह देखना होगा कि किस बाबत है, जैसे कि राजनीति पर, किसी विभिषिका पर, कोई ज्वलंत मुद्दे पर, प्रेम पर या किसी त्यौहार पर. इसके लिये कतई आवश्यक नहीं कि आप कविता पढ़ें. अन्य ढ़ेरों लोग उपलब्ध हैं इस झुझारु कार्य को करने के लिये, जो मन लगाकर पढ़ेगे. आप काहे जहमत लेते हैं. थोड़ा ठहर कर जायें, कुछ टिप्पणियां आ जाने दें, उन्हें पढ़कर आप आसानी से अंदाजा लगा लेंगे कि किस बाबत लिखा गया है. टिप्पणी की साईज मायने नहीं रखती वो फार्मूला आप यहाँ इस्तेमाल कर सकते हैं.

कुछ सेंपल टिप्पणियां तो कविता के मूड के हिसाब से यहाँ दे रहा हूँ. माहौल समझकर और उसके हिसाब से टिप्पणी यहाँ से उठाकर सीधे चेप दें बिना किसी फेर बदल के:

१.प्रेम के भाव जगाती एक अच्छी कविता।आप अनुपम गीतकार हैं| बधाई आपको इस सुन्दर रचना के लिये|
जो पंक्तियाँ मैनें सर्वाधिक पसंद की वे हैं:
xxxxxxxxxxxxxxxxxx
(यहाँ x की जगह कविता की कोई सी भी चार पंक्तियाँ बिना पढ़े, पढ़ोगे तो एक तो कन्फ्यूज हो जाओगे और दूसरे, यह उपाय अपनी सार्थकता खो देगा)

२.मार्मिक चित्रण ....आँखें भीग गईं,उद्वेलित कर गयी यह कविता तो.
कितनी वेदना है इस कविता में,जो आक्रोशित भी करती है, अत्यन्त अद्भुत एवं उत्कृष्ट, बहुत धन्यवाद आपको
सजल श्रद्धा इस कविता को.
(दूसरी बार उसी ब्लाग पर जब यह टिप्पणी फिर करने का मौका आये, तो लाईनों को उपर नीचे कर दें, सब लाईनें अपने आप में पूर्ण है, प्रवाह में कोई अंतर नहीं पड़ेगा, तीसरी बार में कुछ लाईन अलग कर दें और फिर जैसा मर्जी आये, बहुत काम्बिनेशन बनेंगे)

३.रचना बहुत अच्छी व मार्मिक है । सत्याता को दरशाती हुई, और, और भी बहुत से प्रश्न पूछती हुई ( सरलता से)।यहाँ पर बधाई देना कुछ विचित्र सा लग रहा है । भावनाओं का बहुत सटीक व हृदयविदारक वर्णन किया है आपने । हम सबकी आत्मा को जगाने के लिए धन्यवाद । आपकी प्रतिभा को मैं नमन करता हूँ।
(इसे भी टुकड़े किये जा सकते हैं और पंक्तियों का क्रम भी बेहिचक बदल लें)

४.यह कविता एक साथ कई रसों का अद्भुत मिश्रण है।मैं व्यक्तिगत रूप से यह मानता हूँ कि यह कविता नहीं है अपितु एक आंदोलन है.कविता मन के हर तंतु छूती है| सोई इंसानियत के कान पर आपने नगाड़ा डालने का काम किया है। बहुत हीं सराहनीय प्रयास है यह।
बधाई स्वीकारें।

५.आपकी काव्य-प्रतिभा कविता को और भी मार्मिक बना देती है। संस्कृतनिष्ठ भाषा कतिपय लोगों को मुश्किल लग सकती है पर उसका भी अपना महत्व तथा माधुर्य है। कुल मिलाकर एक ह्रदयस्पर्शी रचना है, प्रत्येक कवि का काव्य रचने का अपना अंदाज होता है और उसी के अनुरूप उनका शब्द चयन। आपका शब्द्कोश निश्चित ही अत्यन्त समृद्ध है, बधाई आपको.
(इसे वहाँ दें जहाँ ज्यादा टिप्पणी न दिखें और पढ़ने के बाद भी, आधे शब्द का अर्थ न समझ आये और कविता पूरी ही समझ न आ पाये)

६. टिप्पणी ५ की ही तर्ज पर इसे भी इस्तेमाल करें खुले आम:
जिस भाषा में आपने इतना मार्मिक विषय उठाया है वह सुग्राह्य नहीं है| बड़ी ही पीड़ा दीखती है, आपकी इस कविता में। ताजे हालातों पर करारा प्रहार !
एक नंगे सच को आपने सामने रखा है |यह विद्वानों के लिये लिखी गयी कविता है|आपकी हिन्दी पर इतनी अच्छी पकड के लिये बधाई..

७.समाजिक दशा पर प्रहार करती हुई कविता ,कड़वे सच जीवान के दिखाती हुई .कविता एक तमाचा है व्यवस्था के मुख पर..कविता इसके अधिक और कुछ नहीं कह सकती।
मैं कविता पढते हुए महसूस कर रहा था कि भीतर कोई पिघला शीशा प्रवेश कर रहा है..
xxxxxxxxxxxxx
आपको कोटिश्: बधाई..
(x स्थान पर कविता की कोई सी भी चार पंक्तियाँ.)

८.मैं आपकी किसी भी पंक्ति को उल्लेखित नहीं कर सकता क्योंकि पूरी कि पूरी रचना उल्लेखित हो जाएगी। भाव के हिसाब से इसका कोई तोड़ नहीं है।गीत पढ़ते पढ़ते मन गुनगुनाने लगा.
आपने इतनी आसानी से मनोभावों को प्रेम-गीत में बदल दिया है. कहीं-कहीं तुकबंदी से बाहर गई है, फिर भी गज़ल का मूल बरकरार है। आपके विचार प्रभावित करते हैं|विरह का भी सटीक वर्णन है।कविता की छटपटाहट भीतर तक बेधती है| बधाई स्वीकार करें।

बाकी समय समय पर विद्वानों वाली टिप्पणियाँ छुट्टी वाले दिन कट पेस्ट करके रख लें, हफ्ते भर काम आती रहेगी. कुछ करने की जरुरत नहीं है. जरुरत है तो सजगता की, कट पेस्ट करने की कर्मठता की.

आठ दस तुलसी दास जी की चौपाईयाँ और संस्कृत के श्लोक भी अपने पास रखे रहें और किसी भी टिप्पणी के बीच में इस्तेमाल कर लें, यह कहते हुये कि कविता पढ़कर यह याद आया: xxxxxxxxxxxxx और फिर x के स्थान पर आपका श्लोक या चौपाई. ३ आपकी सेवा में हम दे देते हैं बाकि अपने विवेक से इंटरनेट पर खोज लें.


आठ दस तुलसी दास जी की चौपाईयाँ और संस्कृत के श्लोक भी अपने पास रखे रहें और किसी भी टिप्पणी के बीच में इस्तेमाल कर लें, यह कहते हुये कि कविता पढ़कर यह याद आया: xxxxxxxxxxxxx और फिर x के स्थान पर आपका श्लोक या चौपाई. ३ आपकी सेवा में हम दे देते हैं बाकि अपने विवेक से इंटरनेट पर खोज लें.


१. श्रवनामॄत जेहि काव्य सुनाई
सन्मुख प्रगट होति किन भाई

२.कवितां शेषां पहंसि,तुष्टा रुष्टा सु कामान सकलान भीष्टान
त्वामाश्रितानां न विपन्न राणां, काव्यात्मिनां ह्याश्रितां प्रयान्ति

३.गिरा अनयन, नयन बिनु बानी
प्रतिभा जावे नाहिं बखानी

कोई नहीं पूछता कि इसका यहाँ क्या अर्थ है या इसका क्या औचित्य. अव्वल तो आधे लोगों को समझ ही नहीं आयेगा और अगर आ भी गया, तो कोई इस डर से पूछेगा नहीं कि शायद फिट हो रहा हो और उसे ही न बाद में मूर्ख बनना पड़े. कवि तो आपके टिप्पणी के अहसान तले यूँ ही दबा है तो उसके पलटवार का तो सवाल ही नहीं, उससे आप निश्चित रहें और जब कर्ता और प्राप्तकर्ता को कोई आपत्ती नहीं कोई काहे बेगानी शादी में अबदुल्ला दीवाना बनेगा. कई बार तो लोग आपका ज्ञान देख आपको सम्मान की दृष्टी से देखने लगेंगे और आपके नाम के साथ जी लगाकर बात करने लगते हैं.

हमारा काम था समझाना तो समझा दिया. आगे आप सबका विवेक जो कहता हो, वैसा करें. आज तक तो कर ही रहे थे, कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.

चलते-चलते:

इस व्याख्यान माला में जो टिप्पणियों के नमूने जनहित में दिये गये हैं ,वो यहीं विभिन्न कविताओं के ब्लाग से बटोर कर थोड़ा बहुत संपादन के साथ परोसा गया है, इसमें जिन ब्लागों का साभार मुझे करना चाहिये वो हैं, हिन्द युग्म , डिवाइन इंडिया, मान्या , बेजी इत्यादि. कृप्या कोई इन्हें अन्यथा न ले, सब तो जग जाहिर है यूँ भी. :) :) Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007

वाह रे, यह चैनल

आज सबेरे जब कम्प्यूटर खोला तो देखा हमारे न्यूज चैनेल वाले भाई साहब के गुगल चैट पर नोटिस बोर्ड टंगा है, फ्लैशिंग न्यूज टाइप:

ब्लागर्स में मार-पीट, चुनावी हिंसा

हम भागे कि क्या कहाँ हो गया. हमें डाऊट तो अपनी पोस्ट पर भी आया, मगर नारद पर सब शांति थी. सब मजे में थे. नवागंतुक ऐसा आये, ऐसा लाये कि बाकि सब गायब पहले पन्ने से, नौ दस पोस्ट लेकर. खैर, हमें मालूम है, यही विजेता की पहचान और लक्षण हैं कि हर तरफ वही वही. तो हमारे भाई आलोक शंकर जी और बड़े विजेता हैं, हिन्दी युग्म के पिछले माह के न सिर्फ़ लिखने के बल्कि पढ़ने के भी, दोनों . तो बनती भी है कि हम सब पीछे चले जायें. न जायेंगे तो भगा दिये जायेंगे इसलिये बेहतर है गति को पहचानें और सटक लें.

सही है, हम तो अगले पन्ने से ही थोड़ा थोड़ा झांकते रहें तो भी काफी. आप नवागंतुक हैं , आपका अधिकार बनता है, हमें पीछे ठेलने का. बहुत बधाई और शुभकामना. यही आज का प्रचलन भी है, वरना राहूल गाँधी को अटल बिहारी के सामने कौन पूछे.

यह स्थान आपके लिये ही है कि तर्ज पर हम हट गये और चले उस दरवाजे, जहाँ फ्लैशिंग न्यूज का बोर्ड टंगा था. हमने द्वार खटखटकाया और पूछा कि भई, कहाँ मारपीट हो गई, हमें तो दिखी नहीं कहीं चुनावी हिंसा.

तब भाई जी बोले: "चुनावी बयार है.. कहीं तो हुई होगी.. मैं तो बिना सोचे समझे ब्रेकिंग न्यूज़ चला देता हूं.. टीआरपी के लिए .यही तेज चैनलों का तरीका है. शाम तक नहीं हुआ तो करवा देंगे.". तब हम समझे कि कैसे चलते हैं यह सारे चैनल ब्रेकिंग न्यूज के साथ. वाह यार, हम यह भी नहीं जानते थे, हम तो पाषाण युगीन कहलाये.

हमें लगने लगा कि हम कितना पिछड़े हैं और दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है. हम बस सोच रहे हैं और वो सोच भी रहे हैं और जो सोच लिया उसे क्रियांवित भी कर रहे हैं. क्या बात है, उनको साधुवाद और हमें धिक्कार, अब भी जागो, समय है.

लगता है, यही सच है:


"सचमुच बहुत देर तक सोये,
लोगों नें सींची फुलवारी,
हमने अब तक बीज न बोये.
सचमुच बहुत देर तक सोये, "


वाकई, इस सब विस्तार को विस्तार से विश्लेषित करता हूँ तो लगता है कि क्या कुछ नहीं बदल गया. सब कुछ पुराने जैसा है मगर है नया. पुराने रवाजों का अब कोई मुल्य नहीं. आपकी औकात क्या है यह आपकी योग्यता नहीं ,आपकी पब्लिसिटी इंडेक्स बताती है जो दूसरे तय करते हैं, इस पर हमारा कोई जोर नहीं. (यह शेर पता नहीं किसका है):


इस भीड़ में जिस शक्स का कद सबसे बड़ा है
वो शक्स किसी और के कंधे पे खड़ा है


हमें तो कोई ऐसा कंधा भी नहीं मिल रहा तो बस चलते हैं. आप ढ़ूढ़िये कोई कंधा.

और हाँ, चलते चलते: तरकश पर हमें भी थोडी कवरेज मिली है (किसी और के कंधे पर ), खुशी नया पॉड कास्ट लेकर आई है हिन्दी ब्लागर हाट लाईन. एकदम नया प्रयास है और बड़ा गजब का. धीरे धीरे इसके माध्यम से सब चिट्ठाकार कितने करीब हो जायेंगे एक दूसरे को जानकर. वाह खुशी, बहुत खुब. तुम्हें और तरकश परिवार को अनेकों बधाई. Indli - Hindi News, Blogs, Links

वो सुनाते रहे हैं दास्तां

कल पिछली पोस्ट पर लोगों के विचार सुनें, जबकि हम कह चुके थे कि पुनी पुनी बोले (शायद ऐसे लिखते तो ठीक रहता-बार बार बोले) मगर फिर भी हमने अपने आप से पूछा कि यह क्या है बार बार टिप्पणी टिप्पणी पर लिखते हो, मगर क्या करें. ब्लाग जगत है ही ऐसा. सब एक दूसरे की देखा देखी लिखते हैं, तो हम भी सोचे सब ही तो एक एक विषय पकड़ कर लिख रहे हैं तो हम भी अपना विषय बना लें, चिट्ठाकार, चिट्ठाकारी, चिट्ठाकारी के तरीके, टिप्पणियों और दाद का महत्व इत्यादि. हर टोक टिप्पणी को देख एक लतीफा याद आ गया:


एक बार एक कवि को तेज मोटर साईकिल चलाने के जुर्म में पुलिस ने रोक लिया और चालान बनाने लगा.

कवि बोला, हमें क्यूँ पकड़ रहे हो, उसको पकड़ो जो आगे भागा है.

पुलिस ने पूछा, उसको क्यूँ पकड़ें?

तब कवि बोला कि हमें अपनी कविता सुना कर भाग गया और अब हमारी नहीं सुन रहा.

पुलिस वाले ने उसे जाने दिया और चालान नहीं किया.

मगर यह दर्द सब थोड़े ही समझते हैं.


हमने तुरंत अपनी सारी पोस्टों का पुनः आंकलन किया. पाया कि हाँ हम टिप्पणियों की गाथा पर चार से ज्यादा बार लिख चुके हैं और सिरियल के तौर पर पहली बार लिख रहे हैं जिसके मात्र और मात्र दो भाग है और पुराने भी जोड़ लें तो ज्यादा से ज्यादा पाँच लगभग किसी बड़े चल रहे सिरियलस, जैसे वो २५ गीत की पायदानों वाला अपने मनीष भाई का, का २०%., बहुत ज्यादा नहीं. मगर शायद यह भी ज्यादा ही कहलाया.

हमने मन को झटकाया कि भाई, सब अपने प्रेमी बंधु है, अपनी बात कह रहे हैं, इसे वो राजकुमार के डायलाग वाला शीशे के घरों पर मारा पत्थर न समझो और फिर इसमें लतीफा काहे याद कर रहे हो. मन सीधा साधा है, मान गया. फिर लतीफा नहीं याद किया बस एक बहुत बड़े शायर राकेश खंडेलवाल जी के शेर याद करने लगा:




वो सुनाते रहे हैं दास्तां महीनों की
हमने लम्हे की सुनाई तो बुरा मान गये

थोपते आये हैं हम पर वो पसंदें अपनी
अपनी हमने जो बताई तो बुरा मान गये

एहतियातन लगाये हमने लबों पर ताले
आज ताली जो उठाई तो बुरा मान गये





हमने फिर मन को समझाया कि भाई, सब अपने सखा हैं ऐसा मत सोचो. फिर मान गया. मगर एक प्रश्न कर बैठा. कहने लगा, भाई साहब, यह बताईये कि जनवरी फरवरी में जब भी लोग कनाड़ा में मिलते हैं तो सिर्फ़ ठंड की बात क्यूँ करते हैं कि आज ज्यादा है, कल कम थी और कल और कम होगी. हमने कहा कि भाई, यह ठंड का देश है तो यहाँ ऐसी ही तो बात होगी. कोई गीत गजलों की महफिल में जाकर प्रेमचंद की बात तो करेगा नहीं या माईक्रो सॉफ्ट के दफ्तर में तो तकनिकी पर ही तो बात होगी, कोई बड़ापाव बनाने के तरीके पर तो बात चलेगी नहीं. मय्यत मे जाओ, तो जीवन मृत्यु की बात ही करनी पड़ती है, न कि शादी ब्याह या किसी के अलंकरण समारोह की.

हमने कहा कि भाई, यह ठंड का देश है तो यहाँ ऐसी ही तो बात होगी. कोई गीत गजलों की महफिल में जाकर प्रेमचंद की बात तो करेगा नहीं या माईक्रो सॉफ्ट के दफ्तर में तो तकनिकी पर ही तो बात होगी, कोई बड़ापाव बनाने के तरीके पर तो बात चलेगी नहीं. मय्यत मे जाओ, तो जीवन मृत्यु की बात ही करनी पड़ती है, न कि शादी ब्याह या किसी के अलंकरण समारोह की.


जहाँ हो, जिस वातावरण में हो, वहाँ बस वैसा ही व्यवहार करो. अब गये हो कवि सम्मेलन में और कहोगे कि यार, आप कविता अच्छी कर रहे हो मगर क्या आपको नहीं लगता कि कविता की बात ज्यादा हो गई. कुछ योग सिखाओ. अरे, यह भी कोई बात हुई. तब तो हरिद्वार ही जाओ, वहाँ भी तो तुम्हारा मन नहीं लगेगा कि बस हर समय योग योग, कुछ कविता सुनाओ. यह सब आपकी नहीं, मानव मन की खोट है. जिस वातावरण मे रहता है, उससे उस पार का वातावरण विचारता है. पंक्तियाँ याद आती हैं बच्चन जी की :

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा.

इसे ही मन का विचलन कहते हैं. अरे भाई, जब तक इस पार हो, इस पार की देखो, मधु पिओ, उसके सानिध्य का आनन्द लो. जब उस पार जाओगे, तब तो वहाँ का हाल मालूम चल ही जायेगा.

दक्षिण भारत में रह कर सिर्फ़ गर्मी की बात की जाती है, बर्फ की करोगे तो लोग पागल कहते हैं और उससे कोई राहत भी नहीं मिलती. कभी यूगांडा में पकवान और व्यंजन की बात मत कर देना. सुना है, वो बहुत बुरा मानते हैं इस बात का. आकाल पड़ा हो, भुखमरी हो तो उससे उबरने के उपाय तलाशने होते हैं.

बच्चों को रोज रोज एक ही बात समझानी पड़ती है तब जा कर वो संस्कार सीखते हैं, न कि माँ डाक्टरेट हासिल करके बैठ जाती है कि अब बहुत सीखा चुकी. अब आने वाली संतानें उसका पुराना शोध पत्र पढ़कर ज्ञानी हो जायेगी. हर नये बच्चे के साथ बदलते समय के अनुरुप बदलाव कर वही कहानी दोहरानी होती है. यही अभिभावक का फर्ज है. जो इससे चुका, वो अपने कर्तव्यों का सही निर्वहन नहीं कर पाया, ऐसा मेरा मानना है.

वैसे कवि सम्मेलन में दाद कितनी भी मिलती रहे, जैसे जैसे सम्मेलन चढ़ता जाता है, दाद बढ़ती जाती है मगर कभी भी ऐसा नहीं माना जाया कि अब ज्यादा हो रही है.मेरा एक अंग्रेजी ब्लाग है, वहाँ तो बहुत ही ज्यादा हो रहा है, हर बार मैं एम एस एक्सल पर ही लिखता हूँ. :)

अब जैसे कनाड़ा में ठंड की बात न हो, यह संभव नहीं. भाजापाई और कांग्रेसी मिलें और मंदिर मज्जिद की बात न चलें, यह संभव नहीं. ठीक वैसे ही, जब हम चिट्ठाकरी की बात करें और टिप्पणी की बात न चले, वर्ड प्रेस की बात न चले, ब्लाग स्पाट की बात न चले, चिट्ठों के व्यवसायिकरण की बात न चले और बार बार न चले, वो संभव नहीं. सब मौज मजे की बातें हैं, मन बहलाते हैं सब हाल फिलहाल तो. रोज नये लोग जुड़ रहे हैं, वो कुछ पुराना उठा कर कम ही पढ़्ते है बल्कि रोज परोसा गया ही इतना होने लगा है कि वो ही पूरा पढ़ लें तो उनका साधुवाद. ऐसे में अगर किसी पुरानी बातों को जो आज भी उतना ही मायने रखती हैं, को नये अंदाज में पुनः अवलोकनार्थ पेश किया जाये तो मैं इसमें कोई बुराई नहीं समझता. मैं तो जब पहली बार इस बात को लाया था, तभी वो कई बार लोगों के द्वारा लिखी जा चुकी थी, मगर बदला हुआ अंदाज लोगों को भाया, ऐसा मुझे लगा. :)

मैं इसे ठीक उसी अंदाज में लेता हूँ कि जैसे किसी को तकनिकी पर लिखना पसंद है, किसी को राजनीति पर, किसी को फिल्मी गीतों पर, किसी को व्यवसायिकरण पर, किसी को यात्राओं पर और किसी को धार्मिकता पर, वैसे ही मुझे चिट्ठाकार, चिट्ठाकारी, चिट्ठाकरी के तरीके, टिप्पणियों और दाद का महत्व इत्यादि पर लिखने की उत्सुकता रहती है, यही मेरी पसंद है. इसका शायद विशेष कारण यह भी हो कि किसी को पसंद आये, न आये, इसके विवाद का कारण बनने की गुंजाईश थोड़ा कम ही रहती है और विवादित बातों से मैं थोड़ा किनारे होकर ही चलना पसंद करता हूँ.

मैं इसे ठीक उसी अंदाज में लेता हूँ कि जैसे किसी को तकनिकी पर लिखना पसंद है, किसी को राजनीति पर, किसी को फिल्मी गीतों पर, किसी को व्यवसायिकरण पर, किसी को यात्राओं पर और किसी को धार्मिकता पर, वैसे ही मुझे चिट्ठाकार, चिट्ठाकारी, चिट्ठाकरी के तरीके, टिप्पणियों और दाद का महत्व इत्यादि पर लिखने की उत्सुकता रहती है, यही मेरी पसंद है. इसका शायद विशेष कारण यह भी हो कि किसी को पसंद आये, न आये, इसके विवाद का कारण बनने की गुंजाईश थोड़ा कम ही रहती है और विवादित बातों से मैं थोड़ा किनारे होकर ही चलना पसंद करता हूँ.


यहाँ हम किसी महाकाव्य की रचना को संकल्पित होकर तो आये नहीं है. महाकाव्य तो क्या, खंड काव्य तक नहीं. न ही हम इस गुमान में हैं कि हम साहित्य की सेवा को तत्पर हैं. बस हिन्दी में लिखते हैं कि मौज मजा चलता रहे, भाषा के प्रसार पर जागरुकता बढ़े और सही मायने में बढ़ भी रही है. हर रोज नये चिट्ठाकार जुड़ रहे हैं, हिन्दी चिट्ठाकारी को नये आयाम मिल रहे हैं. शायद यही तो उद्देश्य भी है हम सबका. वो पूरा हो रहा है वरना तो गीत इत्यादि की म्यूजिक इंडिया जैसी अनेकों वेब साईटें हैं, वहीं जाकर सुन सकते हैं या मुशायरा डॉट ओ आर जी पर पहुँच शायरों की शेर एवं गजलें. क्यूँ चिट्ठे की जहमत पालें. क्या जरुरत है अगले पोस्ट की इंतजार करने की. बस यही न कि चलो आप क्या सोच रखते हैं यह देखा जाये. आप सब परिवार के अभिन्न अंग हैं, आपकी सोच ही परिवार को दिशा देती है और पहचान भी. यही सुगठित परिवार की पहचान भी है. मैने अपनी सोच से कुछ नहीं सोचा, ऐसा ही वेदों और पुराणों में लिखा है.


वैसे इन सारी बातों से एक बहुत पुराने विचार पर विराम लगा. मैं सोचा करता था कि क्यूँ डॉ. खुराना भारत छोड़ कर भाग आये और अमेरीका आकर अपना शोध किया और नोबल पुरुस्कार से सम्मानित भी हुये. शायद किसी ने कह दिया होगा कि डॉक्टरेट दे देते हैं मगर क्या ये जीन्स जीन्स ज्यादा नहीं हो रहा है, पापे??


मगर मन के संशय ने मुझे आज अपनी प्रवचन माला के भाग २ को लाने से रोक दिया. इसीलिये यह प्रविष्टी करनी पड़ी. प्रवचन माला २ मन का संशय के दूर हो जाने पर ही लाऊँगा, यह वादा रहा. आप तो मेरा स्वभाव जानते हैं. न
मैं किसी बात का बुरा मानता हूँ और न ही सामने वाले से आशा करता हूँ कि वो अन्यथा ले.किसी का दिल दुखे और मैं अपने मन की लिखता रहूँ, मैं उस स्वभाव का नहीं. इससे बेहतर मैं न लिखने को मानूँगा. इस हेतु जितने स्माईली लगाना हो, लगा देता हूँ. बस कोई दिल से न लगाना भाई कोई बात, जैसे हमने नहीं लगाई. एक उम्दा शायर हर्ष भाई की पंक्तियाँ याद आती हैं:



मंदिर मे रख दो रब को
मस्जिद मे राम ले लो।
चाहो तो माफ कर दो
या इंतकाम ले लो।


और



हम दर्द चाहते है हम जख्म मांगते है
इस दिल पे वार हो तो ताजा गजल सुनाये।
जो तीर तुमने छोड़ा अटका हुआ है थोड़ा
ये दिल के पार हो तो ताजा गजल सुनाये।


यह पोस्ट मेरे मन की न सही और न ही मेरी किसी भी पोस्ट से मेल खाती, मगर फिर भी छाप ही दें.

चलते-चलते: यह पोस्ट सिर्फ मौज मजे के लिये है, इस पर बहुत गहराई से शोध न किया जाये, यही निवेदन है. Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, फ़रवरी 16, 2007

पुनि पुनि बोले संत समीरा- प्रवचन माला भाग १

५ मई सन २००६ तदानुसार विक्रम संवत २०६२ ...आगे लिखना सीख रहा हूँ शुक्ल पक्ष ८..या जो भी...

शैलेष भारतवासी भाई, जरा बताना!! आभारी रहूँगा.

यह वह ऐतिहासिक दिन था जब हमें हिन्दी चिट्ठाजगत का असीम प्रेम टिप्पणियों के माध्यम से हमारी पोस्ट "अपना ब्लाग बेचो, भाई..." पर मिला. इसी पोस्ट ने मुझे सही मायने में चिट्ठाजगत में पहले पहल पहचान दी. तब से अब तक चिटठा परिवार के सदस्यों की संख्या में बहुत इजाफा हुआ और खास तौर पर कविता के चिट्ठों में तो अति. एक से एक कवितायें रची जा रहीं हैं. जोर शोर से दादों और आह-वाह का दौर चल रहा है. अब जैसा की होता है, हर परिवार में हर तरह के लोग रहते हैं और सभी प्यारे होते हैं. तब जो कविता प्रेमी नहीं है या जो यहाँ तक कहने में नहीं चुकते कि हमें तो कविता समझ ही नहीं आती, क्या पढ़ें. मगर अपनी पोस्टों पर टिप्पणी की दरकार तो उनको भी रहती ही होगी, कुछ अपवादों को छोड़कर. वैसे उनको मैं परिवार का ऐसा सदस्य मानता हूँ जो चरसी निकल जाता है. अपनी ही दुनिया में मगन. घर में खुशी हो या गम, वो चरस के नशे में तटस्थ. मगर परिवार को वो भी प्यारे होते हैं और गैर नशे की हालत में कभी कभी उनको भी परिवार से प्रेम उभरता है. जैसा कि आम तौर पर होता है कि परिवार बढ़ जाता है तब हालांकि सदस्यों का परस्पर प्रेम तो बना रहता है मगर एक जैसे गुणधर्मी सदस्यों के बीच घनिष्ठता बढ़ती जाती है, जो कि गुट ना होते हुये भी गुट की तरह ही नजर आते हैं. वही हाल बुजुर्ग, जवान और बच्चों का होता है, सब अपनी अपनी के उम्र का गुट की तरह जमवाड़ा सा कुछ बना लेते हैं. बड़ों को लगता है, ब्च्चों के बीच क्या चल रहा है और बच्चों में यही जिज्ञासा- बड़ों को लेकर रहती है.

खैर कहाँ की बात कहाँ चली जा रही है. बात चली थी हमारी पुरानी पोस्ट 'अपना ब्लाग बेचो, भाई' और कविताओं के चिट्ठों में आये इजाफे की. मैं देख रहा हूँ कि जो लोग कविता में बहुत दखल नहीं रखते, वो भी संबंधों के चलते और साथ ही रिटर्न गिफ्ट की आशा में, जो कि चिट्ठाजगत का नियम है: 'टिप्पणी दो, टिप्पणी पाओ', थोड़ा इधर उधर देखदाख कर टिप्पणी कर ही आते हैं. मगर वहाँ कविता के तथाकथित समझदारों की टिप्पणियों के बीच, इनकी टिप्पणी की गौणता और इसको करने की असहजता साफ झिलमिलाती है. तभी तो किसी ने कहा है कि मजबुरी क्या नहीं करवाती.

इस विषय मे नये चिठ्ठा साथियों की जानकारी के लिये बता दूँ कि हम ही अनोखे नहीं हैं जिन्होंने टिप्पणी विधा पर शोध किया है और लगातार जुटे हैं. विख्यात चिट्ठाकार फुरसतिया जी जिन्हें पितामह का दर्जा प्राप्त है ( यह हम नहीं कह रहे हैं क्योंकि वो इसका बुरा मनते हैं अंदर ही अंदर) और जनप्रिय नारद स्वरुप जीतू ने भी लिखा है. फुरसतिया जी को यहाँ पढ़ें और आपके प्रिय जीतू को यहाँ .

यूँ शायद न समझ आये, तो नये आये चिट्ठाकार इस जगत को कुछ इस तरह समझें: मान लिजिये आप जहाँ खड़े हैं, उसके चारों तरफ ऊँचें ऊँचे पहाड़ ही पहाड़ हैं. अब यह आप की सोच पर निर्भर है कि आप अपने आपको गढ्ढे में फँसा मानते हैं या हसीन वादियों में. इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. अंतर पड़ता है कि आप क्या कहते हैं और क्या करते हैं. आप चिल्ला चिल्ला कर कहें आप बहुत अच्छे हैं, प्रतिध्वनी में आपको एक चिल्लाहट की पाँच वापस मिलेंगी कि आप बहुत अच्छे हैं. आप चुप बैठ जायें, पूरा वातावरण साँय साँय करेगा. कोई कुछ नहीं बोलेगा. और आजमाना हो तो जोरों से गाली बकिये. बदले में न सिर्फ़ पाँच पाँच गालियाँ आयेंगी बल्कि अनेकों नयी पोस्टे भी आपकी खातिर में पेश की जायेंगी. यहाँ तो यही प्रचलन है, अंगूर बो, और अंगूर खाओ. एक दो बार तो कोई यूँ ही आदत डलवाने के लिये खिलवा देगा, जैसे कि आपके स्वागत में और एकाध पोस्ट तक. स्वागत में तो हमारे यहाँ बिछ बिछ कर फरशी सलाम करने की परंपरा है. फिर तो सब निर्भर करेगा कि आपने क्या बोया है, वही कटेगा. बहुत अच्छा लिखना, कम अच्छा लिखना, घटिया लिखना-यह सब तो बाद की बातें हैं, इसे तो जब मरजी आये तब देखते रहना. उससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता यह अजमाई हुई बात है.

अब जो कहते हैं इस जगत में हम आये हैं स्वान्तः सुखाय के लेखन के लिये, वो टिप्पणी के आभाव में खंभा नोच रहे हैं ऐसा मेरा मानना है. अगर तारीफ नहीं चाहिये और किसी को पढ़ाना नही है, तो यहाँ क्या कर रहे हो. आपके लिये हरिद्वार में हरकी पौड़ी के उपर एक घाट खुलवाया जा रहा है, जहाँ घाट पर ही सोफा टाईप के मंच बनाये गये हैं. वहाँ बैठ कर स्वान्तः सुखाय लिखो फिर जिस कागज पर लिखो उसकी नाव बना कर बहा दो (नाव कैसे बनाना है, इसके लिये हमारे तकनिकी ज्ञानी मास्साब श्रीश क्लास लगायेंगे, वहाँ सीख लेना) और सुखी रहो. खुलवा तो घाट हम बनारस में देते मगर वहाँ जगह पहले से आरक्षित है सचमुच वाले स्वान्तः सुखाय साहित्यकों के लिये और वो काफी दिनों से बहा रहे हैं. इस घाट पर बैठने के लिये अलग काबिलियत की जरुरत है और ये लोग ब्लाग नहीं लिखते, ऐसी खबर लगी है.

अब जब सब समझ रहे हो तो यह भी समझ लो, यह सब कवि जो ब्लाग पर हैं (कुछ अपवादों को छोड़ दें) यह मंच के लायक नहीं हैं. मंचीय कवि वो होता है जो टोटल नौ कविता लिखता है अपने मंच काव्य जीवन काल में. तीन एक मंच से, तीन दूसरे से, टीन तीसरे से, फिर पहले वाले पर पुरानी दो, और एक दूसरे मंच की. यही घाल मेल कर वो जीवन काट देता है. एक कविता हर जगह सुनाता है जो एकदम हिट होती है, जैसे हमारी ताली पुराण, बाकि रिमिक्स चलता रहता है. ब्लाग की तरह हर सोम सोम, मंगल मंगल लिखोगे तो चल चुके. ऐसा नहीं होता है मंच पर कि हर बार नया लिये खड़े हैं. इसके लिये या तो हरिद्वार के पहले वाला घाट है या ब्लाग है.

एक बात और बताता हूँ कि गीता का भाव अब आदिकालिन हो गया है: “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। ”..कर्म किये जाओ, फल की इच्छा मत करो. अरे, ये कोई बात हुई. आजकल तो ऐसा नहीं होता. कर्म करें ना करें, फल तो हमें चाहिये ही!! यही हमारा नियम है, अब जिसको जो सोचना है सोचे. हम तो यही मानते हैं. वरना क्या हम बेवकूफ हैं कि सुबह से शाम तक इस चिट्ठे से उस चिट्ठे तक घुम रहे हैं, टिप्पणी कर रहे हैं, सब कुछ क्या यूँ ही. बिना किसी चाहत के, क्या पागल वागल समझ रखा है.

खैर, आज के लिये इतना ही..अगले अंक में हम आपको बतायेंगे कि कविता का ब्लाग कैसे और क्यूँ पढ़ें और वहाँ सफल टिप्पणियां कैसे करें. यह सब जनहित में होगा, स्वामी समीरानन्द जी की अगली प्रवचन माला में. Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007

दाता से सुम भला...

परसों सुबह जल्दी नींद खुल गई. इंडीब्लागिज पर नामांकित चिट्ठों की घोषणा होनी थी. समय रहते हो गई. ७ दिग्गजों के साथ ८ वां नाम उड़न तश्तरी, ८वें स्थान पर. हम समझ गये कि बाकि लोग भले ही घोषणा को धता बताकर चुनाव में अपना स्थान वोटों के माध्यम से बदल लें, हम तटस्थ रहेंगे. घोषित जैसे हुये हैं, वैसे ही. हम नियम तोड़ना अपने आप में एक जुर्म समझते हैं. हम नहीं तोड़ेंगे भले ही दूसरे कुछ भी करें. अगर सब एक से हो गये तब तो देश चल चुका. आज आपको एक राज की बात बताता चलूँ: भारत में सब बहुत व्यस्त नजर आते हैं, ऐसा लगता है पूरा देश इनकी चहल कदमी की वजह से चल रहा है, जो कि ९०% आबादी हैं. बाकि के १०% तो नजर ही नहीं आते. मगर हकीकत यह है कि वो ही १०% हैं जिनकी वजह से देश चल रहा है. मगर जो चहल कदमी करेगा, दिखेगा वो ही. लोग उसे ही समझेंगे. उसे ही सराहेगे, तो सराहें. बाकि के १०% के बिना भी तो गुजारा नहीं है. हम उसी १०% में ठीक. कुल जमा ८ लोग नामांकित हुये हैं, ९०% के हिसाब से ७ तो चहल कदमी करेंगे, तो कर लो भईया. सब इनको ही पूजो. गिर पड़ो इनके पैरों में, यही समय की मांग है. हम कर्तव्यनिष्ठ हैं, पूर्ण निष्ठा से अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे और तटस्थ रहेंगे. ८ वें घोषित हुये हैं भले ही वर्णमाला के अक्षरों के हिसाब से, मगर हम हिलेंगे तक नहीं.

आज से मतदान भी शुरु हो गया. हमें क्या, होये या बंद हो जाये. हमें तो इससे कुछ लेना देना नहीं है. सुबह की चाय पी. अब नामांकन हो ही गया है तो किसी की बेईज्जती तो करनी नहीं है, सोचा एक दो मित्रों को बता दूँ कि भईया, भले ही ८वें नम्बर पर तटस्थ रहें मगर कुछ एक वोट तो पड़ ही जायें ताकि चुनाव प्रक्रिया सुचारु भी दिखे और हमारा ८वें नम्बर पर बने रहने का प्रण भी न टूटे. खादी का सफेद झकाझक कुर्ता पैजामा पहना, जो तरकश चुनाव के समय सिलवाये थे और फिर कलफ करवा कर धर दिये थे. जैसे ही मित्र का दरवाजा खटखटाये, उन्होंने तुरंत दरवाजा खोलते ही गले से लगा लिया. ढ़ेरों बधाईयां दी. हम समझे नामांकन की खबर लग गई दिखता है, फिर भी अनभिज्ञ बनते हुये पूछ बैठे कि भाई, आप बधाई काहे की दे रहे हैं. वो बोले, तरकश चुनाव जीतने की. हमने भी बहुत धन्यवाद किया और मारे शरम के कह ही न पाये कि यार, उसको तो महिना बीत गया, अब तो नया चुनाव आ गया है. बस बधाई लेकर निकल दिये. फिर दूसरे दोस्त के दरवाजे. उससे चुनाव के बाद दूसरी बार मिल रहा था तो पहले मित्र वाला खतरा नहीं था. जैसे ही वो मिला बोला क्या बात है, अब क्या कुर्ता पैजामे मे ही रहोगे कि वापस आदमी बनोगे. हमने कहा कि नहीं मित्र, फिर से चुनाव लड़ रहा हूँ, इस बार जरा बड़ा चुनाव है तो मदद मांगने आया था. वो भी छूटते ही बोला, यार तुम भी न!! एक बार तो ठीक है मगर यह रोज रोज की आदत न बनाओ. जब मिले बस शुरु: भईया, एक ठो वोट दे दो.
अब क्या कुर्ता पैजामे मे ही रहोगे कि वापस आदमी बनोगे. हमने कहा कि नहीं मित्र, फिर से चुनाव लड़ रहा हूँ, इस बार जरा बड़ा चुनाव है तो मदद मांगने आया था. वो भी छूटते ही बोला, यार तुम भी न!! एक बार तो ठीक है मगर यह रोज रोज की आदत न बनाओ. जब मिले बस शुरु: भईया, एक ठो वोट दे दो. .

यार, तुमसे अच्छे तो भिखारी हैं. कम से कम से भूख के कारण मांगते हैं और दे दो तो हजार दुआयें. अगर ऐसे ही संबंध रखना है तो माफ करना दोस्त, अपनी न निभ पायेगी. लो, दोस्ती भी गई और उसने भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया. हम तो बहुत उदास हुये. फिर तो कुछ और वाकये हो गये. एक ने कह दिया कि "दाता से सुम भला. ठाड़े दे जवाब" . एक ने कहा कि यह कुछ पैसे रख लो और एक कटोरा खरीद लो कि महावारी वोट की भीख का कटोरा बना घुमा करो. एक बोले कि इस बात की क्या गारंटी कि चलो दूसरी बार देने के बाद अगले महीने फिर मांगने नहीं आओगे. हम तो टूट से गये, आँख से दो बूँद आँसूं गिर पडे और घर लौट पड़े.

रास्ते में एक जगह मंच सजा था, भयंकर भीड़ लगी थी. हमें लगा पता नहीं क्या माजरा है, तो जब कुछ पता नहीं होता, तो एक आम भारतीय की तरह भीड़ का हिस्सा बन कर भीड़ का ईजाफा करने लगे.
रास्ते में एक जगह मंच सजा था, भयंकर भीड़ लगी थी. हमें लगा पता नहीं क्या माजरा है, तो जब कुछ पता नहीं होता, तो एक आम भारतीय की तरह भीड़ का हिस्सा बन कर भीड़ का ईजाफा करने लगे.

तब तक एक कार रुकी, हल्ला मचा, हमने भी सुर मिलाया, स्वामी समीरानन्द की जय. जयकारा गुंजयीमान होने लगा और हम इस गुंजयीमान होने में संपूर्ण योगदान देते रहे बिना जाने कि क्या है और क्यूँ है. यही नियम है.

वो तो जब स्वामी समीरानन्द जी ने बोलना शुरु किया तब समझ आया कि सही जगह रुक गये, वरना ऐसी सब जगह उनकी ही तूती बोलती है जिनका उससे कुछ लेना देना नहीं होता. मंच पर स्वामी जी विराजमान हुये और साथ में उनके पीछे अपनी गर्मजोशी खोये शिष्य गिरिराज जोशी और चार लोग इस बाजू मंच की जमीन पर बैठे और तीन उस बाजू. ध्यान से देखा तो पाया: अरे, यह सात तो वही इंडीब्लागिज वाले नामांकित टॉप सात है जिसमें हम आठवें हैं. सब जनता की मुँह किये, झूठी मुस्कराहट चिपकाये, हाथ जोड़े बैठे थे. सातों ने थोड़े थोड़े पैसे सटाकर यह कार्यक्रम रखवाया था. हमें न शामिल किया, न पूछा. पूछते भी तो हम मना कर देते, क्योंकि हमें तो जो ईश्वर ने दिया है उसमे हम खुश हैं और जब ८वें है तो उसमे क्या मेहनते करना या सटना, सटाना.

स्वामी समीरानन्द ने अनुबंधानुरुप सातों की तारीफ की और उनको जिताने का आग्रह. रह गये तो हम. खैर, हमें तो इससे कुछ लेना देना नहीं था.....स्वामी जी ने एक एक उम्मीदवार का अलग अलग परिचय दिया और कहा:........बाकि अगले अंक में, क्रमशः...यह हम मनीष और अनुराग से सीख गये हैं.

चलते चलते:(एक पुरानी मुंडली, मगर फिर भी बिल्कुल सामायिक, शायद इसी दिन के लिये लिखी गई थी)



विराजमान हैं मंच पर, सब दिग्ग्ज पीठाधीश
हमउ तिलक लगाई लिये, अपनी खड़िया पीस.
अपनी खड़िया पीस कि बिल्कुल चंदन सी लागे
हंसों की इस बस्ती मे, बगुला भी बाग लगावे.
कहे समीर कि भईया, ये तो बहुत बडा सम्मान
इतनी ऊँची पैठ पर, आज हम भी विराजमान.


-समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, फ़रवरी 04, 2007

बाल महिमा

एक बार बाल झड़ जाने के बाद उनके वापस आने का इंतजार ठीक वैसा ही है जैसे भारतीय नौकरशाही में संपूर्ण इमानदारी की बहाली का इंतजार करना. चार-छः अधिकारियों के यहाँ छापे मार उनके स्थान पर दूसरे अधिकारियों को बैठाना, इमानदारी की बहाली का बाह्य भ्रम तो पैदा कर सकता है, जैसे कि आप विग आदि पहन कर सर पर हरियाली बहाली का भ्रम पैदा कर दें. किन्तु हर हाल में दोनों की भीतरी और सत्य स्थिती बिल्कुल भिन्न. भ्रम के मायावी जाल की उम्र वैसे भी अधिक नहीं होती और जल्द ही सत्यता उजागर हो जाती है, किसी न किसी तरह. हालात ऐसे हो जाते हैं कि विग पहना आदमी, तेज आंधी, बारिश आदि को देख, विग संभालते हुये, सोचता है कि आखिर ये मेरे ही पीछे क्यूँ पड़े हैं. यह ठीक वैसा ही है जैसे कि भ्रष्टाचार में लिप्त नौकरशाह लोकायुक्त के अधिकारियों के प्रति या कि तहलका चैनल के फोड़ू पत्रकार के प्रति अपनी पुण्य सोच रखते हैं.

स्वामी बाबादेव कहते हैं कि नाखूनों को आपस में घिसो तो उजड़ी बालों की फसल वापस आबाद हो जायेगी और बालों की पतन की गति में भी त्वरीत विराम लगेगा. खैर इस केश पतन रुपी दुर्गती की गति में तो विराम नहीं लगा किन्तु अब हम ऐसे स्वामी बाबादेव की खोज में लगे हैं जो घीसे नाखूनों को वापस उगाने का सुगम उपाय बता सकें. पहले सिर्फ़ बाल ही नहीं उग रहे थे, अब नाखून भी नहीं उग रहे.

बालों में आई सफेदी को तो फिर भी परिपक्वता की निशानी मान झेली जा सकती और गोदरेज और लोरियल जैसे बालों को मूल रंग देने की सुविधा का उपयोग करते हुये परिपक्वता को अल्ल्हड़पने में बदला जाना बहुत सरलता से संभव है, इसी लिये केशव, जो कि बड़े भावुक और रसिक व्यक्ति थे, का एक बार वृध्दावस्था में किसी कुएं पर बैठकर वहां पानी भरने के लिए आई हुई कुछ स्त्रियों ने उन्हें बाबा कहकर संबोधन करने पर, कहा गया यह दोहा, गोदरेज और लोरियल के जमाने में अपनी प्रासंगिगता खो चुका है:

केशव केसनि असि करी, बैरिहु जस न कराहिं
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं।


मेरी नजर में अब इस दोहे का कोई महत्व नहीं. यह ठीक उसी गीत की तरह हो गया है जिसमे आज के ईमेल, एस एम एस और मोबाईल के जमाने में, प्रेम पत्र किताब में रख कर गोरी तक पहूँचाने की कोई बात करे.

मगर वहीं सफेद बालों की जगह टकलापन, परिपक्वता की चरमावस्था के बाद की स्तिथी को दर्शाता है, जैसे की पका फल अति पकने के बाद पिलपिला जाये. न खाया जाये और न किसी को खाते देखा जाये. ईश्वर से यही प्रार्थना रहती है कि अगर कोई नाराजगी हो ही गई हो, तो सारे बाल सफेद कर दो, एक वाईज़ मेन की उपाधी से कोई ऐतराज नहीं और अगर होगा भी, तो रंग रोगन से दुरस्त कर लेंगे मगर ४०-५० की बाली उमर में सठियाये से नवाजे जायें, यह बर्दाश्त करना बहुत ही मुश्किल होगा.

मुझे ज्ञात है कि बहुतरे लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं और जो नहीं जूझ रहे, वो जल्द ही जूझेंगे. जनहित में स्वामी समीरानन्द के द्वारा बाल आरती जारी की जा रही है. हर रोज प्रातः इस आरती को कर हमारा पुण्य स्मरण करने से निश्चित लाभ होगा:
(कृप्या इसे 'हे प्रभु, आनन्द दाता, ज्ञान हमको दिजिये....' की तर्ज चुरा कर इस आरती को गायें, आरती के लिये धुनों की चोरी मान्यता प्राप्त प्रचलन है और यह चोरी की श्रेणी में नहीं ली जाती :) )

बाल आरती

हे प्रभु, हे बाल मेरे,
अपना गिरना रोकिये
इस तरह न बीच
भव सागर में
हमको झोंकिये.

आप मेरा बालपन से
साथ देते आये हैं
आपकी मालिश बहुत हम
तेल से करवाये हैं.

किस खता से आप हमसे
इस कदर नाराज हैं,
इस सलौने मुड़ के
आप ही सरताज हैं.

हर तरह के शैम्पू हैं
आप ही के नाम पर
रोज अर्पण कर रहे हैं
फल न मिलता बाल भर.

नाखूंनों को घिस रहा हूँ,
बस इसी एक आस में,
कोई कमी न रह गई हो
मेरे इस प्रयास में.

रोज आते हो उलझकर
कंघियों के साथ में,
इस तरह से बह गये हैं
ढेर सारे बाथ में.

उम्र पर दें ध्यान थोड़ा
साथ यूँ न छोड़िये
आप गिरने के सफर में
विश्राम थोड़ा लिजिये.

आपसे ही तो छुपी है
उम्र की अंगड़ाईयां
आप ही जब चल दिये
दिखने लगेंगी झाईयां.

क्या बुरी है खोपड़ी पर
आपकी यह आसनी
आप नाली में बहे और
दिख रही यह चाँदनी.

आप मेरी आँख में
आई उदासी देखिये
कह रहे हैं लोग सारे
अपनी कंघी फेकिये.

माँगता दस साल केवल
शान से सर बैठिये,
हे प्रभु, हे बाल मेरे,
अपना गिरना रोकिये.

--समीर लाल 'समीर'

चलते-चलते: कोई भी बालाभावित इसे व्यक्तिगत न ले, हम स्वयं कुछ दिनों में उनके समकक्ष नजर आयेंगे. :) Indli - Hindi News, Blogs, Links