५ मई सन २००६ तदानुसार विक्रम संवत २०६२ ...आगे लिखना सीख रहा हूँ शुक्ल पक्ष ८..या जो भी...
शैलेष भारतवासी भाई, जरा बताना!! आभारी रहूँगा.
यह वह ऐतिहासिक दिन था जब हमें हिन्दी चिट्ठाजगत का असीम प्रेम टिप्पणियों के माध्यम से हमारी पोस्ट "अपना ब्लाग बेचो, भाई..." पर मिला. इसी पोस्ट ने मुझे सही मायने में चिट्ठाजगत में पहले पहल पहचान दी. तब से अब तक चिटठा परिवार के सदस्यों की संख्या में बहुत इजाफा हुआ और खास तौर पर कविता के चिट्ठों में तो अति. एक से एक कवितायें रची जा रहीं हैं. जोर शोर से दादों और आह-वाह का दौर चल रहा है. अब जैसा की होता है, हर परिवार में हर तरह के लोग रहते हैं और सभी प्यारे होते हैं. तब जो कविता प्रेमी नहीं है या जो यहाँ तक कहने में नहीं चुकते कि हमें तो कविता समझ ही नहीं आती, क्या पढ़ें. मगर अपनी पोस्टों पर टिप्पणी की दरकार तो उनको भी रहती ही होगी, कुछ अपवादों को छोड़कर. वैसे उनको मैं परिवार का ऐसा सदस्य मानता हूँ जो चरसी निकल जाता है. अपनी ही दुनिया में मगन. घर में खुशी हो या गम, वो चरस के नशे में तटस्थ. मगर परिवार को वो भी प्यारे होते हैं और गैर नशे की हालत में कभी कभी उनको भी परिवार से प्रेम उभरता है. जैसा कि आम तौर पर होता है कि परिवार बढ़ जाता है तब हालांकि सदस्यों का परस्पर प्रेम तो बना रहता है मगर एक जैसे गुणधर्मी सदस्यों के बीच घनिष्ठता बढ़ती जाती है, जो कि गुट ना होते हुये भी गुट की तरह ही नजर आते हैं. वही हाल बुजुर्ग, जवान और बच्चों का होता है, सब अपनी अपनी के उम्र का गुट की तरह जमवाड़ा सा कुछ बना लेते हैं. बड़ों को लगता है, ब्च्चों के बीच क्या चल रहा है और बच्चों में यही जिज्ञासा- बड़ों को लेकर रहती है.
खैर कहाँ की बात कहाँ चली जा रही है. बात चली थी हमारी पुरानी पोस्ट 'अपना ब्लाग बेचो, भाई' और कविताओं के चिट्ठों में आये इजाफे की. मैं देख रहा हूँ कि जो लोग कविता में बहुत दखल नहीं रखते, वो भी संबंधों के चलते और साथ ही रिटर्न गिफ्ट की आशा में, जो कि चिट्ठाजगत का नियम है: 'टिप्पणी दो, टिप्पणी पाओ', थोड़ा इधर उधर देखदाख कर टिप्पणी कर ही आते हैं. मगर वहाँ कविता के तथाकथित समझदारों की टिप्पणियों के बीच, इनकी टिप्पणी की गौणता और इसको करने की असहजता साफ झिलमिलाती है. तभी तो किसी ने कहा है कि मजबुरी क्या नहीं करवाती.
इस विषय मे नये चिठ्ठा साथियों की जानकारी के लिये बता दूँ कि हम ही अनोखे नहीं हैं जिन्होंने टिप्पणी विधा पर शोध किया है और लगातार जुटे हैं. विख्यात चिट्ठाकार फुरसतिया जी जिन्हें पितामह का दर्जा प्राप्त है ( यह हम नहीं कह रहे हैं क्योंकि वो इसका बुरा मनते हैं अंदर ही अंदर) और जनप्रिय नारद स्वरुप जीतू ने भी लिखा है. फुरसतिया जी को यहाँ पढ़ें और आपके प्रिय जीतू को यहाँ .
यूँ शायद न समझ आये, तो नये आये चिट्ठाकार इस जगत को कुछ इस तरह समझें: मान लिजिये आप जहाँ खड़े हैं, उसके चारों तरफ ऊँचें ऊँचे पहाड़ ही पहाड़ हैं. अब यह आप की सोच पर निर्भर है कि आप अपने आपको गढ्ढे में फँसा मानते हैं या हसीन वादियों में. इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. अंतर पड़ता है कि आप क्या कहते हैं और क्या करते हैं. आप चिल्ला चिल्ला कर कहें आप बहुत अच्छे हैं, प्रतिध्वनी में आपको एक चिल्लाहट की पाँच वापस मिलेंगी कि आप बहुत अच्छे हैं. आप चुप बैठ जायें, पूरा वातावरण साँय साँय करेगा. कोई कुछ नहीं बोलेगा. और आजमाना हो तो जोरों से गाली बकिये. बदले में न सिर्फ़ पाँच पाँच गालियाँ आयेंगी बल्कि अनेकों नयी पोस्टे भी आपकी खातिर में पेश की जायेंगी. यहाँ तो यही प्रचलन है, अंगूर बो, और अंगूर खाओ. एक दो बार तो कोई यूँ ही आदत डलवाने के लिये खिलवा देगा, जैसे कि आपके स्वागत में और एकाध पोस्ट तक. स्वागत में तो हमारे यहाँ बिछ बिछ कर फरशी सलाम करने की परंपरा है. फिर तो सब निर्भर करेगा कि आपने क्या बोया है, वही कटेगा. बहुत अच्छा लिखना, कम अच्छा लिखना, घटिया लिखना-यह सब तो बाद की बातें हैं, इसे तो जब मरजी आये तब देखते रहना. उससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता यह अजमाई हुई बात है.
अब जो कहते हैं इस जगत में हम आये हैं स्वान्तः सुखाय के लेखन के लिये, वो टिप्पणी के आभाव में खंभा नोच रहे हैं ऐसा मेरा मानना है. अगर तारीफ नहीं चाहिये और किसी को पढ़ाना नही है, तो यहाँ क्या कर रहे हो. आपके लिये हरिद्वार में हरकी पौड़ी के उपर एक घाट खुलवाया जा रहा है, जहाँ घाट पर ही सोफा टाईप के मंच बनाये गये हैं. वहाँ बैठ कर स्वान्तः सुखाय लिखो फिर जिस कागज पर लिखो उसकी नाव बना कर बहा दो (नाव कैसे बनाना है, इसके लिये हमारे तकनिकी ज्ञानी मास्साब श्रीश क्लास लगायेंगे, वहाँ सीख लेना) और सुखी रहो. खुलवा तो घाट हम बनारस में देते मगर वहाँ जगह पहले से आरक्षित है सचमुच वाले स्वान्तः सुखाय साहित्यकों के लिये और वो काफी दिनों से बहा रहे हैं. इस घाट पर बैठने के लिये अलग काबिलियत की जरुरत है और ये लोग ब्लाग नहीं लिखते, ऐसी खबर लगी है.
अब जब सब समझ रहे हो तो यह भी समझ लो, यह सब कवि जो ब्लाग पर हैं (कुछ अपवादों को छोड़ दें) यह मंच के लायक नहीं हैं. मंचीय कवि वो होता है जो टोटल नौ कविता लिखता है अपने मंच काव्य जीवन काल में. तीन एक मंच से, तीन दूसरे से, टीन तीसरे से, फिर पहले वाले पर पुरानी दो, और एक दूसरे मंच की. यही घाल मेल कर वो जीवन काट देता है. एक कविता हर जगह सुनाता है जो एकदम हिट होती है, जैसे हमारी ताली पुराण, बाकि रिमिक्स चलता रहता है. ब्लाग की तरह हर सोम सोम, मंगल मंगल लिखोगे तो चल चुके. ऐसा नहीं होता है मंच पर कि हर बार नया लिये खड़े हैं. इसके लिये या तो हरिद्वार के पहले वाला घाट है या ब्लाग है.
एक बात और बताता हूँ कि गीता का भाव अब आदिकालिन हो गया है: “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। ”..कर्म किये जाओ, फल की इच्छा मत करो. अरे, ये कोई बात हुई. आजकल तो ऐसा नहीं होता. कर्म करें ना करें, फल तो हमें चाहिये ही!! यही हमारा नियम है, अब जिसको जो सोचना है सोचे. हम तो यही मानते हैं. वरना क्या हम बेवकूफ हैं कि सुबह से शाम तक इस चिट्ठे से उस चिट्ठे तक घुम रहे हैं, टिप्पणी कर रहे हैं, सब कुछ क्या यूँ ही. बिना किसी चाहत के, क्या पागल वागल समझ रखा है.
खैर, आज के लिये इतना ही..अगले अंक में हम आपको बतायेंगे कि कविता का ब्लाग कैसे और क्यूँ पढ़ें और वहाँ सफल टिप्पणियां कैसे करें. यह सब जनहित में होगा, स्वामी समीरानन्द जी की अगली प्रवचन माला में.
शुक्रवार, फ़रवरी 16, 2007
पुनि पुनि बोले संत समीरा- प्रवचन माला भाग १
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17 टिप्पणियां:
सबसे पहले आपके उत्तम प्रवचन का शुक्रिया…।
कहाँ-कहाँ इशारा कर रहे है…समीर भाई…कुछ-2 तो मैं समझ रहा बाकी आपका अगला प्रवचन है ही…।
फुरसतिया जी का तो नहीं पता पर आपका यह सोध पत्र काबिले-तारीफ है…मैं जब नया था तो तरुण जी ने दिशा दिया की लेन-देन करते रहें…लेकिन मैं पूरी तरह आज भी सफल नहीं मानता स्वयं को क्योंकि मेरी टिप्पणी के reply में 25% भी नहीं आता…लगता है कवियों की गाथा कोई पढ़ना नहीं चाहता…।लेकिन ये है कि लेन-देन भी सही है क्योंकि हर इंसान चाहता है कि उसके सृजनता को लोग सराहें…अगली कड़ी की प्रतीक्षा…में…
समीर जी बहुत अच्छा लगा ये व्यंग्य। वैसे आपकी एक-एक बात बड़ी गहरी लगी और इस बात पर भी अमल किया जा सकता है-
अब जो कहते हैं इस जगत में हम आये हैं स्वान्तः सुखाय के लेखन के लिये, वो टिप्पणी के आभाव में खंभा नोच रहे हैं ऐसा मेरा मानना है. अगर तारीफ नहीं चाहिये और किसी को पढ़ाना नही है, तो यहाँ क्या कर रहे हो. आपके लिये हरिद्वार में हरकी पौड़ी के उपर एक घाट खुलवाया जा रहा है, जहाँ घाट पर ही सोफा टाईप के मंच बनाये गये हैं. वहाँ बैठ कर स्वान्तः सुखाय लिखो फिर जिस कागज पर लिखो उसकी नाव बना कर बहा दो (नाव कैसे बनाना है, इसके लिये हमारे तकनिकी ज्ञानी मास्साब श्रीश क्लास लगायेंगे, वहाँ सीख लेना) और सुखी रहो. खुलवा तो घाट हम बनारस में देते मगर वहाँ जगह पहले से आरक्षित है सचमुच वाले स्वान्तः सुखाय साहित्यकों के लिये और वो काफी दिनों से बहा रहे हैं. इस घाट पर बैठने के लिये अलग काबिलियत की जरुरत है और ये लोग ब्लाग नहीं लिखते, ऐसी खबर लगी है.
लेखक हो या कवि या कोई भी रचनाकार चाहे वह मंचीय हो या ना हो (ब्लॉग लिखते हों) दाद तो चाहते ही हैं दाद मिलने पर उसकी लेखनी और ज्यादा चलती है हाँ एक बात ये साथ कुछ सुझाव भी दिये जायें (अगर आवश्यकता हो तो) तो और भी अच्छा है, पर टाँग न खींची जाये जैसा कि कुछ लोग करते हैं खामियाँ निकाल देगें "क्या कूडा़ लिखा है नज़र ड़ाली है" पर सुधार के लिये पंक्ति तो दूर की बात एक शब्द भी नहीं सुझा पाते।
अच्छा लिखा है लिखते रहें.
वाह! बहुत खुब.
लेखनी में धार आ रही है.
बहुत ही सुन्दर, कविता... क्या कहा? यह कविता नहीं थी. सॉरी, उपर जो भी टिप्पीया है वह बिना पढ़े ही टिप्पयाया है.
अब पढ़ लेता हूँ :) बादमें टिप्पणी देता हूँ :)
अगला प्रवचन कब का रखा है? भाई-बान्धव को भी ले आता हूँ.
व्यंग्य ही व्यंग्य में बहुत कुछ समझा गए आज तो स्वामी जी। आपकी पिछली पोस्टें तो ब्लॉगिंग की किताब में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएंगी। इस किताब के कुछ पन्ने हम ने भी लिखने की ठानी है। उसमें आपकी अविस्मरणीय पोस्टों का उल्लेख होगा।
हरिद्वार जाने वाले जो सज्जन नाव बनाना सीखें वो पाठशाला में आ जाएं, उनके लिए स्पेशल क्लास लगा देंगे।
सुनहु वचन मम संत समीरा
कही बात अतिशय गंभीरा
चिट्ठाकार ललायित आये
हर दरवाजे पर टिपियाये
बहुत खूब है, वाह वाह जी
दिल को छूती बात आह जी
लिखते रहिये ! लिखते रहिये
लेकिन बस टिपियाते रहिये
अर्थ भले हम न ही जानें
पर तोहरी प्रतिभा पहचानें
अब तुम भी हमरे घर आओ
और पीठ हमरी थपियाओ
बहुत सी अच्छी अच्छी बातें पढ़ने को मिलीं समीरजी वाकई मज़ा आया, अब आपकी तारीफ मे क्या कहूं..... यही कि आप ग्रु हैं
बतियाएं जबहु संत समीरा
पुनि पुनि पूछ्त प्रश्न कबीरा
टिप्पणी बॉंटिति घट घट जाहीं
प्रभु काहे हमहूँ बिसराई
आप ही की पुरानी सलाह मानकर टिपिया रहा हूँ। मतलब टिप्पणी लो टिप्पणी दो का सौदा। आपने मुझ पर टिप्पणी की इसलिए टिप्पणी 'उतार' रहा हँ। बाकी भूल चूक लेनी देनी।
बहुत खूब! वैसे यह अच्छा तरीका है अपने पुराने लेखों को नये पाठकों तक पहुँचाने का :)
कृपया अन्यथा ना लें :)
कुछ इसी तरह का लेख हमने यहाँ लिखा था
अपने चिठ्ठे का टी आर पी कैसे बढ़ायें?
॥दस्तक॥
इधर -उधर देख कर भी समझ नही पाई क्या टिप्पणी लिखी जाये! और हाँ!मै आपके ग्रुप मे हूँ क्या?
मस्त है गुरुजी, आपको पहली बार पढ़ा आज मैंने और अब लगता है कि अब आपके पुराने चिठ्ठों पर धरना देकर पढ़ना पढ़ेगा
अपने को कविता बिल्कुल समझ नही आती, लेकिन आपने ये बडी जबरदस्त कविता लिखी है ;)
मंचीय कवि वो होता है जो टोटल नौ कविता लिखता है अपने मंच काव्य जीवन काल में. तीन एक मंच से, तीन दूसरे से, टीन तीसरे से
देखा यहाँ भी घालमेल कर दिया और कोई पकड नही पाया अभी तक, यही तो तारीफ है आपकी
लेकिन कविता और उसके टिप्पणिकार का बडा लंबा रिसर्च किया है आपने।
आपकी बहुआयामी प्रतीभा का लोहा मानने के साथ साथ कहना चाहुंगा कि आप नये चिठ्ठाकारों को प्रोतसाहित करने में भी सबसे आगे हैं आपके इसी गुण ने मुझे आप का "पंखा" बना दिया है ... हा हा....... आशा है आपका स्नेह इसी तरह ही बना रहेगा
टिप्पणी के बारे में आप इतना कुछ लिख गए हैं कि इस विषय पर आपको डॉक्टरेट की उपाधि मिलनी चाहिए ।
पर क्या ये कुछ ज्यादा नहीं हो रहा ?
प्रवचन की अगली कड़ी का इंतजार है!
समीर भाई!
कहीं आप विक्रम-संवत्-प्रयोग की मज़ाक तो नहीं उड़ा रहे हैं? अरे ज़नाब कनाडा में हिन्दी-पंचाग नहीं मिलता क्या!
भारत के तमाम साधु-संतों के प्रवचनों की तरह, आपका यह प्रवचन भी कब क्या कहता है, यह भगवान भी नहीं जानते। अच्छा बेवकूफ बना लेते हैं आप, भोली जनता को। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
हाँ, यह बात सत्य है- टिप्पणी दो, टिप्पणी पाओं। तभी आप ज़्यादातर कविताएँ पढ़कर ऐसा लिख देते हैं- "फलाँ भाई/बहन अच्छी कविता। बधाई"
५ मई २००६ की सही विक्रम संवत् तिथि होगी-
विक्रम संवत् २०६३ वैशाख शुक्ल सप्तमी
(विक्रम संवत् अंग्रेज़ी सन से लगभग ७ साल अधिक होता है)
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