गुरुवार, नवंबर 25, 2010

दिल्ली में मिले दिल वालों से..१३ नवम्बर, २०१०

इतना सारा स्नेह, इतना सम्मान-ढेरों रिपोर्टिंग.

आनन्द आ गया दिल्ली मिलन समारोह में.

अक्षरम हिंदी संसार और प्रवासी टुडे से जुडे अनिल जोशी जी एवं अविनाश वाचस्पति जी जिस दिन मैं दिल्ली पहुँचा, उसके अगले दिन ही आकर मिले. बहुत देर चर्चा हुई, चाय के दौर चले और तय पाया कि सभी ब्लॉगर मित्र कनाट प्लेस में मुलाकात करेंगे. १३ तारीख को शाम ३ बजे मिलना तय पाया.

१३ तारीख को सतीश सक्सेना जी का फोन आया और उन्होंने मुझे अपने साथ चलने का ऑफर दिया. अंधा क्या चाहे, दो आँख. मैं तुरंत तैयार हो गया मगर जब बाद में पता चला कि वह मुझे लेने नोयडा से दिल्ली विश्व विद्यालय नार्थ कैम्पस तक आये हैं और उसकी दूरी और ट्रेफिक को जाना तो लगा कि काश!! मैं खुद से चला जाता तो उन्हें इतना परेशान न होना पड़ता.

कनाट प्लेस जैन मंदिर सभागर में बहुत बड़ी तादाद में ब्लॉगर मित्र पधारे थे, सभी के नाम आप विभिन्न रिपोर्टों में पढ़ ही चुके हैं उन सबके साथ साथ वहाँ प्रसिद्ध व्यंग्यकार मान. प्रेम जनमजेय जी को पाकर मन प्रफुल्लित हो उठा. फिर पाया कि वहाँ मीडिया रिसर्च स्कॉलर श्री सुधीर जी के साथ अनेक बच्चे मीडिया शिक्षार्थी ब्लॉगिंग के विषय में कुछ जानने समझने आए हैं. बहुत अद्भुत नजारा था सब का मिलना. इन्हीं शिक्षार्थियों में एक छात्रा रिया नागपाल जिसने हिंदी ब्लॉगिंग को ही शोध के विषय के रूप में चुना है, से मुलाकात हुई और उसने मुझे याद दिलाया कि एक बार वह मेरा इसी विषय पर कनाडा से साक्षात्कार ले चुकी है. बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर.

लगभग सभी ब्लॉगर मित्रों को मैं तुरंत पहचान गया. राजीव तनेजा (संजू तनेजा जी से फोन पर बात हुई थी पहले), मोहिन्दर जी और सुनिता शानु जी से तो पहले भी मिला था बस, रतन सिंह  जी बिना पगड़ी के पहचान नहीं आये और अजय कुमार झा को देख लगा जैसे कोई कालेज के फर्स्ट ईयर का छात्र है, जबरदस्त मेन्टेनेन्स के लिए वो बधाई के पात्र हैं. शहनवाज से भी एक दिन पूर्व फोन पर चर्चा हुई और वहाँ इस उर्जावान युवा मिलना  से बहुत अच्छा लगा.  श्री तारकेश्वर गिरि जी ,श्री नीरज जाट जी (पहले चैट पर आवाज तो सुन ही चुका था इनकी, बस दर्शन बाकी थे) , श्री अरुण सी रॉय जी, श्री एम वर्मा जी, श्री सुरेश यादव जी (आप विशेष तौर पर मिलने के लिए एक दिन रुके रहे दिल्ली में) , श्री निर्मल वैद्य जी , श्री अरविन्द चतुर्वेदी जी, एलोवेरा वाले राम बाबू सिंह  जी, डॉ वेद व्यथित जी, मयंक सक्सेना (बाद में मयंक ने टीवी के लिए इन्टरव्यू भी लिया), कनिष्क कश्यप (बहुत व्यस्तता के बीच पधारे), दीपक बाबा, भतीजे पद्म सिंह , श्री राजीव तनेजा जी ,श्री कौशल मिश्र , पुरबिया जी,  नवीन चंद्र जोशी जी, ,पंकज नारायण जी , सुश्री अपूर्वा बजाज सुश्री प्रतिभा कुशवाहा , आदि से मिलना अद्भुत रहा.

डॉ दराल सा: अपने पिता जी की तबीयत बहुत खराब होने के बावजूद भी समय निकाल कर मिलने आये.

रचना जी ने अपनी माता जी की कविताओं की पुस्तक सस्नेह भेंट की और चूँकि अगले दिन मुझे जबलपुर के लिए रवाना होना था तो बड़ी बहन का फर्ज निभाते हुए रास्ते में खाने के लिए बिस्कुट का पैकेट भी दिया. वाकई, रास्ते में काम आया चाय के साथ खाने में.

मुझे इस बात की कतई उम्मीद न थी कि वहाँ पहुँच कर चर्चा के अलावा भाषण जैसा कुछ देकर अपने विचार रखने होंगे अतः सबसे मिलने के उत्साह में कुछ तैयारी तो की नहीं थी. मेरे पहले श्री प्रेम जनमजेय जी ने और फिर बालेन्दु दधीची जी ने अपने विचार रखे. बालेन्दु जी पूरी तैयारी में थे. पाईण्ट बना कर लाये थे और बहुत सार्थक आंकड़े प्रस्तुत किये. साथ ही ब्लॉगर्स पर आधारित एक बेहतरीन कविता भी सुनाई. उनकी तैयारी देख कर मैं घबराया कि अब मैं क्या बोलूँगा मगर जब नम्बर आया तो बस, बिना तैयारी शुरु हो गये जैसे जैसे विचार मन में आते गये, कहते चले गये. मित्रों नें अपनी जिज्ञासाएँ भी प्रकट की और मैने हर संभव प्रयत्न किया कि उसका निवारण हो सके. भाषण खतम होते ही सबने ताली बजाकर मामला ही ठप्प कर दिया कि बहुत देर हो रही है, अशोक चक्रधर जी के कार्यक्रम में जाना है तो मुझे कविता झिलाने का समय ही नहीं मिला, वरना सोचा था कि गाकर सुनाऊँगा. :) खैर, फिर कभी सही. वरना बालेन्दु जी कविता सुना जायें और हमारी सुने बिना निकल जायें, यह कैसे संभव है. बस, समय का खेल है. उनको तो पक्का दो तीन सुनानी है खूब लम्बी लम्बी.

मैं सभी मित्रों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर मुझे समय प्रदान किया एवं श्री अविनाश वाचस्पति, श्री अनिल जोशी जी का इस विराट आयोजन के लिए विशेष आभार.

आयोजन की समाप्ति पर फिर वापस छोड़ने भी सतीश सक्सेना जी गये तो लगा कि कितना दुष्कर कार्य वह मित्रतावश मुस्कराते हुए कर गये. लौटते वक्त सतीश भाई ने डीनर का ऑफर भी दिया लेकिन तब तक भारत के हिसाब से पेट एडजस्ट नहीं हो पाया था तो जुबान की मांग के बावजूद भी मना करना पड़ा. अगली बार के लिए ड्यू है सतीश भाई. इस दौरान भाई विनोद पाण्डे भी साथ थे और मौके का फायदा उठाते हुए विनोद जी ने रास्ते में ही दो गज़लें भी सुना डाली. वैसे थी बहुत बेहतरीन. मैं जब तक माहौल बनाता कि बदला लिया जाये, तब तक शायद सतीश भाई भाँप गये और उन्होंने स्पीड बढ़ा कर यूनिवर्सिटी पहुँचा कर उतार दिया. ये नाईंसाफी है, एक न एक दिन घेर कर सुनाऊँगा जरुर.

आशा करता हूँ हम सभी मित्र समय समय पर ऐसे आयोजन कर हिन्दी ब्लॉगिंग को समृद्ध करते रहेंगे. अनेक शुभकामनाएँ.

नोट: फोटो सभी अजय झा के यहाँ से चुराई हुई हैं.

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रविवार, नवंबर 21, 2010

तेरी बिंदिया रे!!!

कहते हैं, मुसीबत कैसी भी हो, जब आनी होती है-आती है और टल जाती है-लेकिन जाते जाते अपने निशान छोड़ जाती है.

इन निशानियों को बचपन से देखता आ रहा हूँ और खास तौर पर तब से-जब से गेस्ट हाऊसेस(विश्राम गॄहों  और होटलों में ठहरने लगा. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? कचरे का डब्बा बाजू में पड़ा है. नाली सामने है. लेकिन नहीं, हर चीज डब्बे मे डाल दी जायेगी या नाली में बहा देंगे पर बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा. यूँ भी मुझे तो बिन्दी लगानी नहीं है तो मुझे क्या? मगर एकाध बार बीच आईने पर चिपकी बिन्दी पर अपना माथा सेट करके देखा तो है, जस्ट उत्सुकतावश. देखकर बढ़िया लगा था. फोटो नहीं खींच पाया वरना दिखलाता.

यही तो मानव स्वभाव है कि जिस गली जाना नहीं, उसका भी अता पता जानने की बेताबी.

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है, तो वैसे ही यह निशान भी. श्रृंगार, शिल्पा ब्राण्ड की छोटी छोटी बिन्दी से लेकर सुरेखा और सिंदुर ब्राण्ड की बड़ी बिन्दियाँ. सब का अंतिम मुकाम- माथे से उतर कर आईने पर.

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कुछ बड़ी साईज़ की मुसीबतें,  बतौर निशानी, अक्सर बालों में फंसाने वाली चिमटी भी बिस्तर के साईड टेबल पर या बाथरुम के आईने के सामने वाली प्लेट पर छोड़ दी जाती हैं. इस निशानी की मुझे बड़ी तलाश रहती है. नये जमाने की लड़कियाँ तो अब वो चिमटी लगाती नहीं, अब तो प्लास्टिक और प्लेट वाली चुटपुट फैशनेबल हेयरक्लिपस का जमाना आ गया मगर कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?

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औजार के नाम पर एक और औजार जिसे मैं बहुत मिस करता हूँ वो है पुराने स्वरूप वाला टूथब्रश ... नये जमाने के कारण बदला टूथब्रश का स्वरुप. आजकल के कोलगेटिया फेशनेबल टूथब्रशों में वो बात कहाँ? आजकल के टूथब्रश तो मानो बस टूथ ब्रश ही करने आये हों, और किसी काम के नहीं. स्पेशलाईजेशन और विशेष योग्यताओं के इस जमाने में जो हाल नये कर्मचारियों का है, वो ही इस ब्रश का. हरफनमौलाओं का जमाना तो लगता है बीते समय की बात हो, फिर चाहे फील्ड कोई सा भी क्यूँ न हो.

बचपन में जो टूथब्रश लाते थे, उसके पीछे एक छेद हुआ करता था जिसमें जीभी (टंग क्लीनर) बांध कर रखी जाती थी. ब्रश के संपूर्ण इस्तेमाल के बाद, यानि जब वह दांत साफ करने लायक न रह जाये तो उसके ब्रश वाले हिस्से से पीतल या ब्रासो की मूर्तियों की घिसाई ..फिर इन सारे इस्तेमालों आदि के हो जाने के उपरान्त जहाँ ब्रश के स्थान पर मात्र ठूंठ बचे रह जाते थे, ब्रश वाला हिस्सा तोड़कर उसे पायजामें में नाड़ा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. नाड़ा डालने के लिए उससे सटीक और सुविधाजनक औजार भी मैने और कोई नहीं देखा.

जिस भी होटल या गेस्ट हाऊस के बाथरुम के या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर मुझे बिन्दी चिपकी नजर आती है, मेरी नजर तुरंत बाथरुम के आईने के सामने की पट्टी पर और बिस्तर के बाजू की टेबल पर या उसके पहले ड्राअर के भीतर जा कर उस चिमटी को तलाशती है जो कभी किसी महिला के केशों का सहारा थी, उसे हवा के थपेड़ों में भी सजाया संवारा रखती थी. खैर, सहारा देने वालों की, जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात मगर उसके दिखते ही मेरे कानों में एक गुलाबी खुजली सी होने लगती है.

बदलते वक्त के साथ और भी कितने बदलाव यह पीढ़ी अपने दृष्टाभाव से सहेजे साथ लिये चली जायेगी, जिसका आने वाली पीढ़ियों को भान भी न होगा.

अब न तो दाढ़ी बनाने की वो टोपाज़ की ब्लेड आती है जिसे चार दिशाओं से बदल बदल कर इस्तेमाल किया जाता था और फिर दाढ़ी बनाने की सक्षमता खो देने के बाद उसी से नाखून और पैन्सिल बनाई जाती थी. आज जिलेट और एक्सेल की ब्लेडस ने जहाँ उन पुरानी ब्लेडों को प्रचलन के बाहर किया , वहीं स्टाईलिश नेलकटर और पेन्सिल शार्पनर का बाजार उनकी याद भी नहीं आने देता है. तब ऐसे में आने वाली पीढ़ी क्यों इन्हें इनके मुख्य उपयोगों और अन्य उपयोगों के लिए याद करे, उसकी जरुरत भी नहीं शेष रह जाती है.

फिर मुझे याद आता है वह समय, जब नारियल की जटाओं और राख से घिस घिस कर बरतन मांजे जाते थे. आज गैस के चूल्हे में न तो खाना पकने के बाद राख बचती है और न ही स्पन्ज, ब्रश के साथ विम और डिश क्लीनिंग लिक्विड के जमाने में उनकी जरुरत. स्वभाविक है उन वस्तुओं को भूला दिया जाना.

सब भूला दिया जाता है. हम खुद ही भूल बैठे हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे जबकि आज भी कितने ही लोगों की हरकतों में उन जीन्स का प्राचुर्य है. तो यह सारे औजार भी भूला ही दिये जायेंगे, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.

अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.

अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.

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बुधवार, नवंबर 10, 2010

ब्लॉगिंग अगर इंडस्ट्री है तो गलत आ गये यार!!!

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ब्लॉगिंग अगर इंडस्ट्री है तो मैने गलत चुन ली. अफसोस होता है कभी कभी. कभी कभी कहना बहुत मर्यादित वक्तव्य है सिर्फ इसलिए क्यूँकि मैं इसका हिस्सा हूँ. न होता तो कहता ‘हमेशा’.

मैं बचपन से यह गलती करता रहा हूँ मगर फितरत ऐसी कि बार बार ऐसी ही गलती कर बैठता हूँ. यही फितरत मुझे एक अच्छा भारतीय इन्सान बनाती है. मानो गलती से कुछ सीखने को तैयार ही नहीं. हर बार वो ही गलती दोहराये जा रहे हैं और कोस रहे हैं दूसरों को.

सबसे पहले सी ए(चार्टड एकाउंटेन्ट- सनधि लेखापाल) बना, एक ऐसी इन्डस्ट्री सलाहकारों की जिसमें आपकी सलाह की पूछ ही तब हो जब बाल सफेद हो जायें. जब प्रेक्टिस करता था तो हर वक्त लगता था कि जल्दी बाल सफेद हों तो प्रेक्टिस चमके और जम कर चमके..मगर सफेद भी ऐसे हों कि सिर्फ साईड साईड से कलम पर (फैशन कॉन्शस तो था ही शुरु से. रुप रंग तो अपने हाथ में होता नहीं मगर सजना संवरना तो खुद को ही पड़ता है वरना तो रुप रंग भी धक्का खाता नजर आये, खाता ही है-आपने भी अनुभव किया होगा.)

फिर राजनीति में हाथ आजमाया. यूथ कांग्रेस ज्वाईन की. शायद कारण था कि जब नेहरु जी मरे तब मैं एक बरस का भी न था. शायद दूध पीने के लिए भूख के मारे रो रहा हूँगा और घर वालों ने समझा कि नेहरु जी के मरने की खबर जानकर रो रहा है तो तब से ही कांग्रेसी होने का ठप्पा लग गया. अब घर वालों को झुठलाना तो हमारी भारतीय संस्कृति नहीं सिखाती तो कांग्रेसी ही बन गये और अब तक निभाये जा रहे हैं.

जब आस पास नजर घुमाता हूँ तब पाता हूँ कि ९० प्रतिशत से ज्यादा किसी भी राजनैतिक पार्टी में इसी तरह की किसी ऊलजलूल वजहों से हैं, कोई पहचान से, तो कोई जुगाड़ से तो कोई विकल्प के आभाव में. बहुत मुश्किल से ऐसे नेता दिखेंगे जो किसी पार्टी में उस पार्टी की मान्यताओं और राजनैतिक विचारों की वजह से हैं. तभी तो मौका देख देख कर पार्टियाँ बदलते रहते हैं.

जब यूथ कांग्रेस ज्वाईन की तो ज्वाईन करने के बाद, फिर वही पाया कि लड़कों की कौन सुने? युवा पाले जाते हैं राजनीति में ताकि शांति भंग न करें मगर सुने नहीं जाते. शांति भंग न करें का तात्पर्य यह कतई न लगायें कि बिल्कुल शांति भंग न करें बल्कि इसे ऐसा समझे कि अपने मन से किसी तरह की कोई शांति भंग न करें यानि की सिर्फ वहीं शांति भंग करें जो सफेद बाल वाले तथाकथित वरिष्ट चाहते हों जटिल मुद्दों से आमजन का ध्यान भटकाने के लिए.

राजनैतिक पार्टी में भी सुनवाई के लिए फिर बालों में सफेदी जरुरी है भले ही दिमाग युवाओं से भी गया गुजरा हो. देश की छोड़ कोई सी भी चिन्ता पालो मगर बाल सफेद रहें. ज्यादा सफलता चाहिये तो घुटना भी रिप्लेसमेन्ट लायक कर लो. खुद चल पाओ या नहीं, मगर देश चलाने लायक मान लिए जाओगे. ये बात फिर सिर्फ एक पार्टी में नहीं, सभी पार्टियों में है. राजनीति तो राजनीति है, पार्टियाँ तो सिर्फ मन का बहलाव है मतदातओं के लिए. वो ही आज इस पार्टी में, तो कल उस में. फिर भी जीते जा रहा है. ऐसे कितने ही नेता हैं जो हर जीती पार्टी के साथ जीते. बात टाईमिंग की है और टाईम मैनेजमेन्ट की. मगर यही टाईम मैनेजमेन्ट तो ब्लॉगिंग में दगाबाज बनकर उभरा.

खैर, यह सब तो जैसे तैसे समय के साथ पार हो ही गया. होना ही था, इस पर इंसानी जोर कहाँ? समय कहाँ रुकता है? एक नियमित गति से चलता जाता है. यह तो आप पर है कि उससे तेज भाग लो, या धीरे चलो या फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो समय के भाग जाने की दुहाई देते. आधे से ज्यादा लोग इसी कोसने में जिन्दगी गुजारे दे रहे हैं और इसी मे संतोष प्राप्त कर रहे हैं. आश्चर्य यह है कि वो इसके बावजूद भी खुश हैं.

फिर न जाने किस मनहूस घड़ी में शौक जागा ब्लॉगिंग का, वो भी हिन्दी में. पुरानी दो उम्मीदों के चलते नाजुक उमर में ही बाल तो सफेद कर बैठे थे. पत्नी की लाख लानत पर भी रंगने को कतई तैयार नहीं हुए हैं आज तक.

जैसे ही सन २००६ में लिखना शुरु किया तो पहले लोग आये कि वाह समीर, क्या लिखते हो. अच्छा लगा. तारीफ किसे बुरी लगती है. जानकारी के अनुसार, मात्र १०० लोग थे उस वक्त इस जगत में जो हिन्दी में लिखते थे अपना ब्लॉग और उनमें से एक हम भी.

फिर देखते देखते एक और नई खेप आई, समीर जी वाली..तुम से आप हो लिये. अच्छा लगा. कारवां तो बढ़ना ही था वरना शायर गलत हो जाते जो कहते हैं कि लोग खुद जुड़ते रहे और कारवां बनता गया, वो तो फिर नाकाबिले बर्दाश्त गुजरता:

लोग बढ़े, स्वभाविक है, बढ़ना ही था. जो भी होता है उसे बढ़ना ही है. वरना तो होना ही एक दिन खो जयेगा. नये लोग आये और आदरणीय कहने लगे, श्रेद्धेय, मठाधीष, गुरुवर, प्रणाम, चरण स्पर्श और न जाने क्या क्या-सब सहते रहे, अच्छा लगता रहा. कोई और रास्ता भी न था.

फिर समय के साथ चच्चा, अंकल और मामा का दौर लिए नवयुवा आये. नवयुवाओं के साथ लफड़ा ये है कि उनकी उम्र की कोई रेन्ज नहीं होती. कितने नेता तो मरते दम तक युवा नेता रहे. मानो असमय गुजर गये मात्र ८५ साल की अवस्था में.

सारी राजनीतिक पार्टियाँ ऐसी ही युवा शक्तियों से पटी पड़ी हैं जिनकी युवा अवस्था उनके गुजरने के पूर्व गुजरने का नाम ही नहीं लेती.

चुप रहना कई बार क्या, हमेशा ही, जुर्म बढ़वाते जाता है... मगर फिर भी लोग मजबूरीवश चुप रहते हैं.सबकी अपनी अपनी मजबूरी होती है और अपने अपने आसमान. कहते हैं कि प्रतिकार आवश्यक है अक्सर. मगर वो आदत रही नहीं, आप तो जानते हैं,  तो देखते देखते धीरे से दद्दा, नाना जी कहलाने लगे और वरिष्ट एवं बुजुर्ग बन बैठे.

५० पार की उम्र वाले भी चरण स्पर्श कह करके जाने लगे, कोई दादा जी, कोई नाना जी, कोई बाबू जी, कोई बाउ जी, तो कोई परम श्रद्धेय तो कोई नतमस्तक कह कर बढ़ जाता और हम अपना सा मूँह लिये टपते रहते. क्या करते?

सोचता हूँ कि काश, फिल्म इन्डस्ट्री में होता तो इस उम्र में तो सलमान की जगह मैं बिग बास का संचालन कर रहा होता. युवाओं का आईकान, जाने कितनों का स्वप्नकुमार और रातों की नींद, तन्हाई का साथी और दीवारों पर टंगी तस्वीर. आहें भर रहे होते लोग मेरे नाम पर मेरी इस बाली उम्र में और यहाँ..चार साल की ब्लॉगिंग में जिस स्पीड से उम्र बढ़ी है, इस रफ्तार से कदमताल मिलाने के लिए महामानव होना जरुरी लग रहा है और मैं, चुपचाप बैठा निठल्लों की तरह कह रहा हूँ कि समय बहुत तेज भाग रहा है.

केशव तो खैर बिना ब्लॉगिंग ही ऐसे लफड़े में फंस गये थे, और तब मजबूरी में उन्हें लिखना पड़ा:

केशव केसन अस करी जस अरिहूं न कराहिं,
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जांहि।

यही गति रही तो वो दिन दूर नहीं जब जीते जी लोग स्वर्गवासी कहने लग जायेंगे... कहना ही तो है-हैं कि नहीं इससे तो पहले भी कहाँ मतलब रखा किसी ने.

इन्हीं सब के मद्देनजर अब तो कई बार मन करता है कि किसी नजदीकी कब्रिस्तान में ही जाकर बिस्तर लगा कर सो जाऊँ. क्या पता नींद खुले न खुले. तब इन चहेतों की इच्छा भी रह जायेगी और यदि भूले से नींद खुल गई तो अगली रचना रच देंगे उसी अनुभव पर. आज तक तो किसी ने लिखा नहीं है कब्रिस्तान में सोने का अनुभव या कब्रिस्तान का यात्रा वृतांत. नयापन मिलेगा लोगों को. कुछ और लोग आकर चरण स्पर्श कर जायेंगे भावी स्वर्गवासी के.

किसी वाकई वाले बुजुर्ग से पूछा तो उसने कहा कि चुप रहना ही बेहतर है, साहित्यजगत की यही रीत है (हालांकि ब्लॉगिंग को वो वाले साहित्यकार साहित्य मानते नहीं हैं फिर भी दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है कि तर्ज पर मान लेते हैं).  बस, संतुष्ट हूँ इस रीत का पालन कर कि शायद हिन्दी साहित्य जगत का हिस्सा कहलाया जाऊँ.

एक उम्मीद ही तो है...एक उम्मीद के सहारे ही तो पूरा भारत जिये जा रहा है, तब इसे मैं पाल बैठा तो क्या बुराई है??

नोट: जब यह पोस्ट छपेगी, तब तक भारत पहुँच चुका हूँगा. जल्दी ही बात चीत/मुलाकात होती है.

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रविवार, नवंबर 07, 2010

दिवाली धमाका रिपोर्ट!!

बम्पर स्कीम!!

आप एक ईमेल भेजो-दीपावली शुभ और बदले में पाओ २० ईमेल शुभकामना संदेश- साथ में खुले आम ५० लोग फारवर्ड लिस्ट में और फिर उनके शुभकामना संदेश. ऑर्कुट से लेकर चिरकुट तक-हर तरफ दीपावली धमाका.

ब्लॉग पोस्टों पर जो लोग साल भर यही सोचते रह गये कि क्या लिखें, वो भी लिख गये. शुभ दीपावली. जो ज्यादा होशियार थे, उन्होंने साथ में तस्वीर भी लगाई-किसी नें लक्ष्मी गणेश, किसी ने लड्डू, किसी ने दीपक, जिसकी जैसी श्रृद्धा बन पाई. किसी ने पूजन विधी, किसी ने भजन, तो किसी ने भोजन परोसा. ज्यादा टेक्निकल लोगों ने जलते हुए दीपक की तस्वीर, घूमती हुई चकरी भी लगा डाली.

जो स्वयं खुद ही लक्ष्मी जी की सवारी बन जाने की संपूर्ण योग्यता रखते हैं, वह भी उन्हें अन्य स्थानों पर पहुँचाने की बजाय स्वयं अपने घर में निमंत्रित करने हेतु आँख मूँदे पूजा करते नजर आये.

कमेंट में भी दनादन पटाखे फोड़े गये. सबने अपने अपने हिसाब से बेहिसाब कॉपी पेस्ट करने का सुख प्राप्त किया. जो बरस भर कमेंट करने के लिए एक अदद अच्छी पोस्ट की तलाश में थे अन्यथा मूँह सिले बैठे रहना पसंद करते थे ताकि उनके श्रेष्ठ होने पर प्रश्न चिन्ह न लग जाये,  वे भी एकाएक मुखर हो उठे और कमेंट करने निकल पड़े. मुक्तक, कविता, गद्य हर फार्मेट में कमेंट किये गये. पोस्ट में कुछ भी लिखा हो, देना दिवाली की बधाई ही है, यही उद्देश्य चहुं ओर जोर मारता रहा. मैं स्वयं यही स्व-रचित मंत्र उच्चारता रहा, हर कमेंट, हर ईमेल में:

सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल 'समीर'

कुल मिला कर दीपावली शुभ रही. आनन्द आया. अभी तक खुमार उतार पर ही है बुझा नहीं है. फुलझड़ियाँ चल ही रही हैं यहाँ वहाँ. ईमेल भी आये जा रही हैं. एक ही व्यक्ति से कई कई बार. लोग त्यौहार की खुशी में बार बार भूल जा रहे हैं कि पाँच बार पहले ही बधाई दे चुके हैं. आशा की जा रही है कि यह कार्यक्रम ग्यारस तक चलता रहेगा.

तब तक ओबामा भी भारत से चले जायेंगे. बहुत सारे मामले इसी मामले से ठंडे पड़ जायेंगे. दिवाली बीत चुके दिन बीत गये होंगे. रावण का भी बर्निंग सेन्शेसन खत्म हो चुका होगा और वह फिर मूँह उठा तैयार खड़े हो जायेगा और राम चन्द्र जी एक बरस के लिए पुनः विश्राम हेतु वन चले जायेंगे. १४ बरस बहुत होते हैं किसी भी बात की लत लग जाने को. एक बार वन में आराम करने की आदत पड़ जाये तो महल कहाँ सुहाता है?

तब तक हम भी भारत पहुँच चुके होंगे, फिर इत्मिनान से पोस्ट लिखेंगे. भारत पहुँचने तक अब कम से कम हमारी कोई पोस्ट नहीं आयेगी. बहुत चैन की सांस लेने के जरुरत नहीं है, बुधवार को तो पहुँच जायेंगे, अगली पोस्ट वैसे भी गुरुवार को ही ड्यू है.

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अब उस समय तक आप मास्साब पंकज सुबीर जी द्वारा आयोजित दीपावली तरही मुशायरा में मेरी प्रस्तुत गज़ल पढ़िये.

जलते रहें दीपक सदा काईम रहे ये रोशनी
बोलो वचन ऐसे सदा घुलने लगे ज्यूँ चाशनी

ऐसा नहीं हर सांप के दांतों में हो विष ही भरा
कुछ एक ने ऐसा डसा ये ज़ात ही विषधर बनी

सम्मान का होने लगे सौदा किसी जब देश में
तब जान लो, उस देश की है आ गई अंतिम घड़ी

किस काम की औलाद जो लेटी रहे आराम से
और भूख से दो वक्त की, घर से निकल कर मां लड़ी

(CWG स्पेशल)
सब लूटकर बन तो गये सरताज आखिरकार तुम
लेकिन खबर तो विश्व के अखबार हर इक में छपी

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, नवंबर 03, 2010

मन में जो उजियारा कर दे

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कुछ रोज पहले किशोर दिवसे जी का एक आलेख पढ़ रहा था जिसका शीर्षक देख लगा कि इस पर तो पूरी गज़ल की बनती है, तो बस प्रस्तुत है एकदम ताजी गज़ल दीपावली पर खास आपके लिए:


लाखों रावण गली गली हैं,
इतने राम कहाँ से लाऊं?

चीर हरण जो रोक सकेगा
वो घनश्याम कहाँ से लाऊँ?

बापू सा जो पूजा जाये
प्यारा  नाम कहाँ से लाऊँ

श्रद्धा से खुद शीश नवा दूँ
अब वो धाम कहाँ से लाऊँ?

जो सच कहने से बन जाये
ऐसा काम कहाँ से लाऊँ?

जीवन की कड़वाहट हर ले
मीठा जाम कहाँ से लाऊँ?

दिल मेरा खुश होकर गाये
ऐसी शाम कहाँ से लाऊँ?

मन में जो उजियारा कर दे
वैसा दीप कहाँ से लाऊँ?

-समीर लाल ’समीर’

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