एकाएक सुबह १० बजे घर के भीतर सड़क से ये आवाज सुनाई पड़ी. एक अर्सा बीता इस आवाज को सुने. बचपन में इसे सुन हम सब बच्चे घर से भाग सड़क पर निकल आते थे. यह मदारी का डमरु था और वो बंदर का खेल दिखाया करता था. आज सालों बाद वो ही आवाज सुन अनायास ही मैं दरवाजे के बाहर भागा. भागते भागते पत्नी को आवाज लगाई-आओ, आओ, मदारी आया!! डुग-डुग-डुग-डुग-डुग!!!!!!
वो भी सोच रही होगी कि किस पागल आदमी से पाला पड़ा है. मगर हिन्दी साहित्य में एम.ए. किये होने के बावजूद उसकी इस मनोविज्ञान पर भरपूर पकड़ है कि पागल को पागल कहो, तो वह भड़क उठता है. अतः वो भी मुस्कराते हुए बिना भागे बाहर चली आई.
अब तक मैं मदारी के पास पहुँच चुका था और बन्दरिया "राधा" ने मुझे सलाम भी कर लिया था. न जाने कितनी पुरानी बचपन की वादियों में लौट लिया मैं. कितने ही दोस्त याद आये. सब कुछ बस कुछ ही पलों में.
मदारी डमरु बजा रहा था. डुग-डुग-डुग-डुग-डुग!!!!!! बन्दरिया नाच रही थी. शहरों से विलुप्त होती संस्कृति आज अपने अब तक जीवित होने का प्रमाण लिये खड़ी थी मेरे सामने. शायद, मुझसे कह रही है कि हे उड़न तश्तरी, हमारे पूर्ण विलुप्त होने के पहले एक बार, बस एक बार हमें अपनी लेखनी और चिट्ठे से जन जन तक पहुँचा दो ताकि दर्ज रहे और सदियां हमें याद रखें. मैं यूं भी मौन पढ़ने में विशारद हासिल रखता हूँ, ऐसी मेरी खुशफहमी है सो हाजिर हूं उनकी तस्वीरों के साथ. खुशफहमी तो यह भी कहलाई कि सदियाँ मेरा लिखा पढ़ेंगी.
राधा:
मोहल्ले भर के बच्चे इक्कठे किये, बुजुर्ग एकत्रित किये. पिता जी के लिये कुर्सी लगाई गई. पत्नी स्वतः आ गई. सामने ही स्कूल है, जहाँ आज परीक्षा के परिणाम घोषित हुए, वहाँ के बच्चे इककठे कर लिये. सभी बच्चे आसपास की झुग्गियों से आते हैं. मन था कि सब देखें हमारे समय के मनोरंजन के साधन जो शायद फिर आगे देखने न मिले. सभी बच्चे बहुत खुश हुए. बन्दरिया ’राधा’ भी खूब जी तोड़ कर नाची. जेठ से शरमाई. देवर की बारात में नाची. पनघट से पानी भर कर दिखाया. शाराब के नशे में गुलाटी लगाई और न जाने क्या क्या. धमका के दिखाया. सलाम करके अभिभूत कर दिया. बड़ी प्यारी थी और क्यूट लग रही थी अपने करीने से पहिने टॉप्स और स्कर्टस में (आजकल कहाँ देखने में आता है यह??) और मदारी ’मल्लैय्या’ की लाड़ली तो वो थी ही.
पत्नी साधना हमारे पागलपन को सहर्ष स्विकारते हुए राधा को नजराना दे रही है:
चेहरे से बुश और हरकतों से अपने सरदार जी. जैसा मल्लैय्या कहे, वैसा करे. राधा शायद समझ गई थी कि मैं अमरीका टाईप के देश से आया हूँ तो मल्लैय्या के इशारे पर बार बार सलाम करे. कहीं मेरे हाथ में सिमटे सुबह के अखबार को न्यूक्लियर डील के कागज न समझ रही हो, बार बार दस्तखत करने आगे बढ़ रही थी मगर उदंड बच्चों की भीड़ देख (वाम पंथी टाईप) हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी, बस, सलाम करके काम चला रही थी. सलाम में एक संदेश था कि मौका देखकर साईन कर देंगे.
खैर, आनन्द बहुत आया. सभी बच्चों और बुजुर्गों को खुश देख कर और भी ज्यादा.
मैं, याने उड़न तश्तरी स्कूली बच्चों के बीच:
बाद में मल्लैय्या से कुछ देर बातें हुई. यहीं नजदीक के एक गांव ’घाना’ में रहता है. बंदर का नाच ही उसकी रोटी का सहारा है. एक बेटा है. उसे खूब पढाया लिखाया और काबिल बनाया तो वह बड़े शहर दिल्ली को रुखसत हो लिया. किसी अच्छे ओहदे पर है. गांव आना उसे पसंद नहीं. पिता जी को साथ न रख पाना, आजकल आम तौर पर देखी गयी, उसकी पारिवारिक और पोजिशनजन्य मजबूरी है. पैसे न भेज पाने का कारण पिता जी के दिये संस्कार कि अपने बच्चों को अपने से बेहतर पढ़ाओ, बढ़ाओ और पालो, सो वो वह कर रहा है. इसलिये भेजने लायक पैसे नहीं बचते. आखिर, संस्कारी बच्चा है. गांव की पान की दुकान, जो घर के बाजू में है, पर फोन न कर पाने का कारण समयाभाव को जाता है. और पत्र लिखने का अब फैशन न रहा. अतः माता-पिता से संपर्क सूत्र टूटे ६ से ज्यादा बरस बीत चुके हैं.
पहले वाला बंदर ’रामू’ मर गया आखिरी दिन तक नाचते नाचते, जो उसका और उसकी पत्नी का पेट पालता था. नया बंदर लाये. पढ़ाया लिखाया याने नाचना और अन्य कलायें सिखाई. १० दिन में पढ़ लिख कर रोड शो देने को तैयार हो गया. आखिर मालिक की मजबूरी समझता था. खुद तो फल फूल और पेड़ों पर उपलब्ध चीजों पर जी लेता है मगर माता-पिता तुल्य मालिक को भूखा नहीं सोने देता. उन्हीं के बाजू में वो भी सो रहता है.
मल्लैय्या को भी इन्सानों और औलाद से ज्यादा इस मूक प्राणी पर भरोसा है. वो इसके साथ संतुष्ट है. कहता है, साहेब, ये ही ठीक हैं. कम से कम हम इनके साहरे जी तो ले रहे हैं.
मल्लैय्या और राधा:
कई बच्चों ने उसका खेल देखा आज. काश, एक भी बच्चा उस खेल दिखाने के पीछे छिपे उस राधा बंदरिया के जज्बे को समझे तो आज का खेल दिखाना सफल हो जायेगा. शायद इंसानो पर इंसानों का भरोसा वापस लौटवाने में यही बंदर कामयाब हो जाये.
राधा को सलाम!!
मल्लैय्या और राधा दोनों चले गये..दूर से विलुप्त होती आवाज सुनाई देती रही: डुग-डुग-डुग-डुग-डुग!!!!!!