रविवार, नवंबर 29, 2020

सच की उम्र भला होती ही कितनी है?



पहनते तो अब भी वो धोती कुरता ही हैं और मुँह में पान भी वैसे ही भरे रहते हैं मगर कहते हैं कि  अब हम एडवान्स हो गए हैं। साथ ही वह यह हिदायत भी दे देते कि हम जैसे टुटपुंजिया और बैकवर्ड लोग उनसे कोई फालतू बहस न करें। 

नये नये रईस, नये नये नेता और नये नये एडवान्स हुए लोगों की समस्या यही है कि वो अपने इस नयेपन में अपना आपा खो बैठते हैं । एकाएक उन्हें उनके वर्ग के अलावा सब टुटपुंजिया नजर आने लगते हैं । दो दशक पहले यही हाल रेपीडएक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स से २१ दिन में नया नया अंग्रेजी बोलना सीखे लोगों का था। उन्हें वही दुकानदार, जिससे उन्होंने रेपीडएक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की किताब के बारे में सुनकर किताब खरीदी थी, भी टुटपुंजिया नजर आने लगता है। वे अब उस दुकान पर जाना भी अपनी तौहीन समझते हैं और उस दुकान पर दिखाई पड़ते हैं, जहाँ सिर्फ अंग्रेजी की किताबें नहीं, इंग्लिश बुक्स मिला करती हैं।

पोमेरियन कुत्ते पालने वालों का मिजाज भी इनसे ही मिलता जुलता होता है। देशी नस्ल के कुत्ते उनको बैकवर्ड नजर आते हैं । ऐसे में अगर कोई देशी नस्ल का कुत्ता पाल ले वो तो बिल्कुल ही टुटपुंजिया कहलाएगा। भले हमारा आज का रहनुमा लाख सर पटक पटक कर देशी कुत्तों की बेहतरीन नस्लों की तारीफ और खूबियों के पुल बांधे, कोई फरक नहीं पड़ता। फरक शायद पड़ सकता था अगर उसकी बाकी कही बातें जैसे दिया, बाती, मोर, ताली आदि जाली न होती और अपना कुछ असर दिखाती। सियार आया सियार आया चिल्ला कर बेवजह भीड़ एकत्रित कर लेने की आदत वाले को जिस दिन सच में सियार आता है, कोई बचाने वाला भी नहीं मिलता।

खैर बात उनके एडवान्स हो जाने की थी। मैंने जानना चाहा कि आप किस बिनाह पर अपने आपको एडवान्स समझ बैठे हैं और हमसे दूरी बना रहे हैं?

उन्होंने स्पष्ट किया कि मैंने तुमसे पहले ही कह दिया है कि तुम जैसे जैसे टुटपुंजिया और बैकवर्ड लोग मुझसे कोई फालतू की बहस न करें। 

मैंने उन्हें जब आश्वस्त किया कि यह बहस नहीं मात्र मुझ अज्ञानी की जिज्ञासा है तब वह खुले।

उन्होंने बताया कि अब उन्होंने तकनीकी में महारत हासिल कर ली है और फिर सदी के नायक अमिताभ की स्टाइल अपनाते हुए उन्होंने मुझसे पूछा – मेरे पास ईमेल एकाउंट है, फेस बुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर खाता है और तुम्हारे पास क्या है? हांय?

मुझे कुछ जबाब न सूझा और अनायास ही मुँह से निकल पड़ा- ‘मेरे पास!! मेरे पास कहने के लिए सच है!’ मैं बैकवर्ड ही सही – एक लिफाफा, ५ रुपये का डाक टिकट, एक कोरा कागज मेरे एक सच को बहुत दूर तक ले जाएगा।

वह मुस्कराये और बोले जैसा मैंने सोचा था तुम वैसे ही निकले। उनकी मुस्कान देखकर मैं समझ गया कि उन्होंने मुझे क्या सोचा था अतः उसे उगलवाना जरूरी न समझा। कौन खुद को बेवकूफ कहलवाना पसंद करेगा भला।

फिर उन्होंने आगे बताया कि कुछ फॉरवर्ड बनो – कब तक बैकवर्ड बने रहोगे? आज फॉरवर्ड का जमाना है। देखो सोशल मीडिया पर जो जितना फॉरवर्ड होता है, वो उतना ही बड़ा सच हो जाता है। आज जब वायरस से डरे लोग घरों में बंद एक दूसरे से बात करने से वंचित हैं, तब सच वही कहला रहा है जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

तुम लाख कागज पर सच लिखते रहो, जब तक तुम्हारा सच लोगों तक डाक से पहुंचेगा वो खंडहर में तब्दील इतिहास हो चुका होगा।  किसे समय है आज इतिहास जानने का। आज का युग तो एक पल पूर्व घटित सच को अगले पल वायरल हुए झूठ की चकाचौंध में भुला देने का है।  वरना किसी निरीह दामिनी के जधन्य रेप को कोई कैसे ऑनर किलिंग का नाम दे कर सच को रफा दफा कर देता?

मेरी मानो तुम भी आ जाओ सोशल मीडिया पर – मेरा खाता तुम लाइक कर देना, तुम्हारा खाता मै और हम तुम मिल कर एक झूठ को सच बनाने का वो व्यापार करेंगे जो आज की दुनिया में सबसे ज्यादा पनपता व्यापार है।

इसी फॉरवर्ड के व्यापार के कारण शायद कभी भविष्यदृष्टा ज्ञानियों ने कहावत बनाई होगी कि ‘बार बार बोला गया झूठ कुछ ही पल में सच हो जाता है।‘

वाकई अब लगने लगा है कि आज इस झूठ के बाजार में सच की उम्र भला होती ही कितनी है? सच की उम्र होती भी है या नहीं, कौन जाने।

-समीर लाल ‘समीर’  

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अकतूबर २५, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/55904874

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शनिवार, नवंबर 21, 2020

सब सो भी जायें तो भी वक्त आगे बढ़ता रहता है

पिछले कई दशकों में बहुत कुछ बदला मगर जो न बदला वो है नेताओं का किरदार और दूसरा बारात में बजते बैंड पर दो गाने – पहला ‘आज मेरे यार की शादी है’ और दूसरा ‘नागिन धुन’। तमाम गाने बज जायें मगर जब तक ये दो गाने न बजें, तब तक बारात मुकम्मल नहीं मानी जाती।

आज घंसु की बारात निकल रही थी। तिवारी जी ने, जैसा की इस खुशी के मौके का विधान है, शराब पी रखी थी और पीते ही जा रहे थे। वो नागिन धुन पर कुछ ऐसे नाचे कि लगा सड़क पर नागिन खुद बल खाकर नाच रही हो। हालाँकि तिवारी जी ने खुद कभी शादी नहीं की किन्तु बारात में जाने का तजुर्बा ऐसा कि घुड़ चढ़ी से लेकर द्वारचार के सभी रीति रिवाजों पर उनसे राय ली जाती। वैसे भी शिक्षा मंत्री शिक्षित भी हो ऐसा तो कोई जरूरी नहीं। कुछ तो पहली बार विश्वविद्यालय ही तब पहुंचे जब शिक्षा मंत्री बनने के बाद उन्हें भाषण देने बुलाया गया।  

तिवारी जी ने शराब के नशे में नाचते हुए बताया कि छोटे भाई की बारात में नाचने का आनंद ही अलग है। यह आनंद वैसे वो सदियों से उठाते आ रहे हैं। आज तक वो जिस भी बारात में दिखे, सब में घोड़ी पर उनका छोटा भाई ही होता था और वो शराब की नशे में धुत्त सड़क पर लोट लोट कर नागिन नाच रहे होते थे। मोहल्ले की शादियों में तिवारी जी को वो ही दर्जा प्राप्त था जो घोड़ी को होता है। बिना दोनों के बारात की कल्पना करना ही मुश्किल था। ऐसा नहीं था कि कोई भी बारात उनके बिना नहीं निकली हो लेकिन उनमें वैसा ही सूनापन होता जैसा कोई नेता खादी का कुर्ता पायजामा पहनने की जगह शर्ट पैन्ट में खड़ा भाषण दे रहा हो या कोई दरोगा बुलेट मोटर साइकिल की जगह लूना लिए चले जा रहा हो।

बारात जब दरवाजे लगती तो तिवारी जी लपक कर समधी से ऐसा गले लपटते कि अक्सर असली समधी वाली माला उनके गले में होती और असल लड़के का बाप गैंदे की माला पहने घूमता नजर आता। ये लपक कर गले लपटने की आदत उनको एक दिन राजनीति में विश्व स्तर पर विख्यात करायेगी, ऐसा आज के विश्व विख्यात नेता को देखते हुए मेरा दावा है।

दावत खाते हुए तिवारी जी से जब पूछा कि घंसु की भविष्य की क्या योजना है? तब उन्होंने बताया कि अब घंसु वंश आगे बढ़ायेंगे। हालांकि मेरे पूछने का तात्पर्य यह था कि घंसु करते धरते तो कुछ हैं नहीं, आगे जीवन कैसे चलायेंगे? लेकिन अपने यहाँ विडंबना यह रही है कि जो खुद को आगे बढ़ाने तक में सक्षम नहीं है, वो भी वंश आगे बढ़ाने में जुटा है। जिनकी अपनी कोई पहचान नहीं, वो भी न जाने किस वंश का नाम आगे बढ़ाने में लगे हैं। जो अपना घर तक न चला पाया वो देश चलाने लग जाता है। जिससे अपना खुद का अपना परिवार न संभला, वो भी आंखे मूंदे वसुधैव कुटुम्बकम् की माला जप रहा है। इन सबसे भी बड़ी विडंबना यह है कि वंश आगे तभी बढ़ेगा जब लड़का पैदा हो, लड़की नहीं। ओलम्पिक में तीर निशाने पर मार कर देश का नाम रोशन करने वाली लड़की वंश का नाम रोशन न कर पायेगी, यह कैसी सोच है?  

स्वाभाविक प्रश्न था अतः पूछ लिया कि तिवारी जी, आपने अपना वंश क्यूँ नहीं आगे बढ़ाया? शादी क्यूँ नहीं की?

तिवारी जी अहंकार भाव से मुस्कराये और कहने लगे कि तुम और बाकी लोग पैदा होते हैं। हम जैसे कम होते हैं, जो जन्म लेते हैं। हमारे जन्म लेने का एक उद्देश्य होता है। हम वंश नहीं, देश चलाने के लिए पैदा हुए हैं। हमारा जीवन बड़े उद्देश्य को ..... बोलते बोलते तिवारी जी बारात की मेहमानी भूलकर नशे में तारी कुर्सी पर ही सो गए।

अब समझ में आया कि न सिर्फ देश चलाने के नशे में इंसान मुख्य मुद्दे को भूल कर सो जाता है बल्कि देश चलाने का सपना भी उतना ही मादक और नशे में चूर करने वाला होता है।

घंसु सात फेरे लेने में व्यस्त थे ताकि वो वंश आगे बढ़ा पायें और मैं देश के भविष्य को कुर्सी पर सोता छोड़ कर घर चला आया।

देश आज आगे बढ़ रहा है और देश कल भी आगे बढ़ता रहेगा। सब सो भी जायें तब भी वक्त तो आगे बढ़ता ही रहता है।

-समीर लाल ‘लाल’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर २२, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56505783

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शनिवार, नवंबर 07, 2020

सेलीब्रेटी का ज्ञानी होना कहाँ जरूरी है?

 

दिवाली आ रही है। सभी साफ सफाई और रंग रोगन में लगे हैं। तिवारी जी भी दो दिन से चौराहे पर नजर नहीं आ रहे। पता चला कि साफ सफाई में व्यस्त हैं।

कुछ लोगों का व्यक्तित्व ऐसा होता है जिनके लिए कहावत बनी है कि ‘कनुआ देखे मूड पिराए, कनुआ बिना रहा न जाए’ यानि कि वो दिख जाए तो सर दुखने लगे और न दिखे तो मन भी न लगे। अतः तय पाया गया कि उनके घर चल कर मिल लिया जाए।

घर पर तिवारी जी अपने लैपटॉप में सर धँसाए बैठे थे। नौकर ने बताया कि दो दिन से सारा दिन बस चाय पर चाय पी रहे हैं और लैपटॉप पर बैठे जाने क्या कर रहे हैं।

मैंने तिवारी जी से पूछा कि चौराहे पर तो खबर है कि आप साफ सफाई में व्यस्त हैं और आप तो यहाँ लैपटॉप लिए बैठे हैं। घर बिखरा पड़ा है और रंग पुताई का भी कुछ पता नहीं है। क्या चक्कर है? आप भी राजनीतिज्ञों की तरह ही व्यवहार करने लग गए हैं। खबर में कुछ और असल में कुछ?

कहने लगे कि तुम नहीं समझोगे। दरअसल हम अपना घर ही साफ कर रहे हैं। अब हम वर्चुअल दुनिया के वाशिंदे हैं। यूँ चौराहे पर और मोहल्ले भर में मिला जुला कर हमको से ३०० – ४०० लोग जानते होंगे। उनमें से भी १००-१५० तो सिर्फ बहस करने और मजाक उड़ाने वाले लोग हैं। मगर फेसबुक पर देखो – पूरे पाँच हजार मित्रों से खाता भरा हुआ है। न जाने कितने मित्र निवेदन स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये फेसबुक की वर्चुअल दुनिया बस यहीं एक मामले में असल दुनिया जैसी है। हमारे चाहने वालों की तादाद देख कर जलती है। पाँच हजार के ऊपर मित्र बनाने ही नहीं देती। अब किसी को नया मित्र बनाना है तो पुराने किसी से मित्रता खत्म करो। बस, उसी साफ सफाई में लगे हैं। जिन लोगों ने हमसे बहुत दिनों से नमस्ते बंदगी नहीं की है, उन्हें अलग कर दे रहे हैं। ऐसे दोस्तों का क्या फायदा जिन्हें आपके हाल चाल लेने की भी सुध न हो।

बात तो सही है। असल जिन्दगी में भी ऐसे मित्रों का क्या फायदा जो आपके सुख दुख में साथ न आयें। मैं तिवारी जी से सहमत था। मगर आश्चर्य बस इस बात का था कि जिनसे साक्षात मिलने से दुनिया कतराती हो उनके फेसबुक पर पाँच हजार मित्र और उसके बाद भी अनेक मित्रता निवेदन प्रतीक्षारत हैं! न तो वो कोई ऐसी ज्ञान की बात करना जानते हैं, न ही कोई साहित्यकार हैं, फिर आखिर लोग किस बात की भीड़ लगाए हैं उनके वर्चुअल दर पर?

साफ सफाई करते हुए वो बात करते जा रहे थे। मैंने उनसे निवेदन किया कि आप मुझे भी अपना लिंक भेज दीजिए तो हम भी आपके वर्चुअल दोस्त बना जाएँ। उन्होंने हामी भरते हुए कहा कि ठीक है, भेज देंगे। तुम निवेदन भेज देना। अभी तो बहुत सारे प्रतीक्षा में हैं, जब तुम्हारा नंबर आएगा तब देखेंगे। आशा है तुम मेरी मजबूरी समझोगे और अन्यथा न लोगे। मेरा व्यवहार तो तुम जानते हो। मैं परिवारवाद और व्यक्तिगत संबंधों को अलग से बिना मेरिट के फायदा पहुंचाने वाली मानसिकता से परे रहना चाहता हूँ। इससे वर्चुअल दुनिया में मेरी सेलीब्रेटी स्टेटस को आघात पहुँच सकता है। उनकी वाणी से ठीक वैसा ही अहसास हो रहा था जैसा कि जब आपका जानने वाला एकाएक मंत्री हो जाता है। वो संबंधों के चलते आपसे पैसा खा नहीं सकता, अतः एकाएक आपके लिए वह अपने को सिद्धांतवादी घोषित कर देता है।

घर आकर देखा तो व्हाट्सएप पर उनका लिंक आया हुआ था। जिज्ञासा थी कि देखा जाए ऐसा क्या कर रहे हैं तिवारी जी कि सेलीब्रेटी हो गए हैं?

उनका फेसबुक का पन्ना खोल कर देखा तो रोज सुबह गुड मार्निंग की तस्वीर और रात में गुड नाइट की तस्वीर के सिवाय कुछ था ही नहीं, फिर भी इतने मित्र!

तभी एकाएक उनकी प्रोफाइल पर नजर पड़ी और सारा माजरा एक पल में साफ हो गया। जिस तरह राम और कृष्ण अंग्रेजी में रामा और कृष्णा हो जाते हैं, उसी तरह कमल तिवारी जी फेसबुक प्रोफाइल पर अंगरजी में कमला तिवारी हो गए थे और कमला नाम से गूगल सर्च करके जो तस्वीर मिली, उसे अपनी प्रोफाइल में लगाए हुए थे। मुझे यह भी ज्ञात है कि तिवारी जी ने यह जानबूझ नहीं किया होगा। उनको तो जब उन्होंने फेसबुक का खाता खोला होगा, प्रोफाइल पिक्चर का अर्थ भी नहीं मालूम रहा होगा। अतः गूगल सर्च कर ली होगी कि कमला की प्रोफाइल पिक्चर और लगा दी होगी।

सेलीब्रेटी का ज्ञानी होना कहाँ जरूरी है? फिर वो चाहें वर्चुअल दुनिया हो या असली।

-समीर लाल ‘समीर’    

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर ८, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56216407

 

 

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