रविवार, सितंबर 30, 2012

गुरुदेव को बधाई एवं मेरी एक गज़ल

आज गुरुदेव राकेश खण्डेलवाल जी की ५००वीं ब्लॉग पोस्ट दर्ज हुई. मन प्रसन्न हो गया. एक लम्बा सफर-५०० एक से बढ़कर एक अद्भुत गीत. जो उनका एक बार रसास्वादन कर ले तो हमेशा के लिए मुरीद हो जाये उनका. मुझ पर तो राकेश जी का वरद हस्त शुरु से ही है. सोचा, क्यूँ न आप भी गीत कलश  पर जाकर उनके गीतों का आनन्द लें और उन्हें बधाई एवं शुभकामनाएँ दें.

इसी मौके पर उन्हीं का आशीर्वाद प्राप्त मेरी एक गज़ल:

1

तेरी मेरी दास्तां अब, हम कभी लिखते नहीं..

गीत जिनमें सादगी हो, अब यहाँ बिकते नहीं....

सांस छोड़ी थी जो अबके, वो अगर वापस न हो

उसके आगे जिन्दगी के दांव कोई टिकते नहीं...

हो इरादे नेक कितने, और हौसले भी हों बुलंद..

खोट का है दौर, ये सिक्के यहाँ चलते नहीं...

है ये वादा साथ चल तू, सब बदल डालूँगा मैं,

चल पुराने रास्तों पर, कुछ भी नया रचते नहीं...

मुश्किलें मूँह मोड़ने से, खत्म हो जाती अगर

लोग सीधे मूँह हों जिनके, इस डगर दिखते नहीं...

मैं वो दरिया जो कभी, सागर तलक पहुँचा नहीं,

सियासती इस खेल में हम, जिक्रे गुमां रखते नहीं...

-समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, सितंबर 13, 2012

सूक्ष्म कथायें: कौव्वी की आधी चोंच

इधर फिर कुछ झैन कथायें पढ़ने का संयोग बना. तीन लाईन की कहानी, २५ लाईन के विचार देती. जो पढ़े, वो पढ़े कम, समझे ज्यादा और फिर अलग अलग मतलब लगाये अपनी बुद्धि के अनुरुप और खुश रहे. भीषण दर्शन. बस, मन किया कि फिर से कुछ उसी तरह की कोशिश की जाये.

 

पिछली दिल्ली यात्रा के दौरान एक सरकारी भवन की खिड़की से ली गई कौव्वों की तस्वीर

kw

भाग-१

नीम के पेड़ की डाली पर एक कौव्वा और एक कौव्वी- कई बरसों से बसेरा करते थे.

एक रोज सुहाने मौसम से वशीभूत दोनों चोंच चोंच खेल रहे थे.

कौव्वी की चोंच खेल खेल में टूट गई.

कौव्वे ने उसे देखकर मूँह बनाया और उड़ गया.

(इति)

भाग-२

उदास तन्हा कौव्वी यहाँ वहाँ फिरती और अकेलेपन के दुख में चिल्लाती. मिथिला के एक आंगन में एक चंदन के पेड़ पर चिल्लाती कौव्वी की आवाज़ सुनकर विरहिणी कहती है कि यदि आज पिया आ गए तो मैं तुम्हारी चोंच सोने से मढ़वा दूंगी. मंत्री पिया को आना ही था सो पटना एक्स्प्रेस से सुबह सुबह आ गये. साथ नई डील में बनाये कुछ खोके भी लाये. विरहणी नें बताया कि मोबाईल नेटवर्क बंद होने के दौरान इसी कौव्वी नें तुम्हारे आने की शुभ सूचना दी थी. चूँकि वादा मंत्री जी का नहीं बल्कि उनकी पत्नी का किया हुआ था अतः वादे के अनुरुप कौव्वी की आधी वाली चोंच सोने से मढ़वा दी गई. कौव्वे के पास जब उड़ते उड़ते यह खबर पहुँची तो कौव्वा उड़ कर वापस आ गया और कौव्वी के साथ पुनः रहने लगा.

(इति)

भाग -३

सोने से मढ़ी कौव्वी की चोंच देखते हुए एकाएक कौव्वे को अपनी चतुराई वाले स्वभाव की याद हो आई. कौव्वे ने अपनी योजना कौव्वी को कान में कह सुनाई. फिर कौव्वे ने खरोंच खरोंच कर कौव्वी की चोंच से सोना निकाल लिया और पेड़ की खोह में छिपाकर नई विरहणी की तलाश में दोनों निकल पड़े. खूब उड़े और खूब उड़े. पल पल जमाना बदला नज़र आता रहा. अब न तो कोई विरहणी मिलती और न किसी अंगना चंदन का पेड़.

नये जमाने के सक्षम औरत आदमी आज अपनी ही चोंच सोने से मढ़वाये घूम रहे हैं और कौव्वा कौव्वी अचरज से उन्हें देख रहे हैं.

(इति)

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रविवार, सितंबर 09, 2012

मुझे उस पेड़ का दर्द मालूम है.....

मोदी...फिर नीतिश कुमार...अब बाल ठाकरे ने सुषमा स्वराज का नाम प्रधान मंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया....अडवाणी का नाम तो खैर है ही...राहुल का नाम दूसरी तरफ से तय है...मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के बाद.... अन्य दिशाओं से मुलायम, लालू, ममता के नाम भी बीच बीच में उछलेंगे ही...

बाबा जी और टीम अन्ना तो खो खो खेल कर बैठ जायेंगे...उनसे सब निश्चिंत हैं इस क्यू में...वो देश की राय ही लेते और अपनी राय तय करते ही समय बिता देंगे और देश अपनी राय उपर वाली लिस्ट पर दे देगा चुनाव में...फिर उसी ओटन में खोजबीन करते...

किसी ने कहा कि सुषमा एल एल बी हैं...पढ़ी लिखी हैं...क्या बुराई है?

नितीश इंजिनीयर हैं..साफ सुथरी छवि है...क्या बुराई है?

अडवाणी जी अनुभवी हैं- क्या बुराई है?

राहुल युवा हैं- उर्जा से भरपूर...क्या बुराई है?

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कोई मेरा नाम भी तो लो...सी ए हूँ...पढ़ा लिखा तो कहलाया ही...छवि भी लगभग साफ सुथरी है...उर्जावान भी ठीकठाक ही हूँ...अनुभव तो खैर बेटे का नाम है ही...तो अपनी सत्ता के अन्तर्गत आय़ा...तस्वीर भी चिन्तनशील व्यक्तित्व की दिख रही है...क्या बुराई है? और चाहिये भी क्या....जान ले लोगे क्या बच्चे की प्रधान मंत्री बनाने के लिए??

ले लो मेरा नाम...प्लीज़...ये सारे भी तो नाम ही हैं...बनना बनाना तो जिसे है वो तय है ही...लिस्ट में नाम रहे तो अच्छा लगता है...कोई नया नाम आये उसके पहले इनक्लूड करवा दो मेरा नाम......जल्दी...यहीं सहमती दर्ज करो....

कहीं सुना था:

एक पेड पर एक उल्लू बैठा करता था ,
एक दिन पेड काट दिया गया
पेड बहुत खुश हुआ
मगर उस की खुशी मिट्टी में मिल गयी
क्योंकि..........................
... पेड को काट कर उसकी एक मंत्री की कुर्सी बना दी गई
और इतिहास गवाही देने को तैयार है
"आज भी उस पर ...............एक उल्लू ही बैठा हुआ है '

मेरी चाह मात्र पेड की किस्मत बदल देने की है....आपकी किस्मत तो बदलना मेरे क्या, भगवान के बस में भी नहीं!!!

उड़ चला जिस रोज परिंदा, कुछ न बोला चुप रहा
पर वो एक नम डाल मुझको, पेड़ पर दिखती तो है....

(इस शेर की पहली पंक्ति किसी और की है…नाम भूल गया हूँ.)

इतना ही काफी जान लो मित्रों...कि कम से कम मैं देख तो पा रहा हूँ....ले दो नाम मेरा भी...शायद कुछ बदलने को हो!!!

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मंगलवार, सितंबर 04, 2012

तारीखें क्या थीं.....चलो!!! तुम बताओ!!

वो दूर से भागता हुआ आया था इतनी सुबह...शायर की भाषा में अल सुबह और गर मैं कहूँ तो कहूँगा सुबह तो इसे क्या..क्यूँकि अभी तो रात की गिरी ओस मिली भी नहीं थी उस उगने को तैयार होते सूरज की किरणों से...विलिन हो जाने को उसके भीतर- खो देने को अपना अस्तित्व उसकी विराटता में समाहित हो कर खुशी खुशी.

 

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देखा था मैने कि वो हांफ रहा था मगर कोशिश थी कि सामान्य नज़र आये और कोई सुन भी न पाये उसकी हंफाई.... दिखी थी मुझे ....उसकी दोनों मुठ्ठियाँ भिंची हुई थी और चेहरे पर एक विजयी मुस्कान......एक दिव्य मुस्कान सी शायद अगर मेरी सोच के परे किसी भी और परिपेक्ष्य में उसे लिया जाये तो...मगर मुझे वो उसकी वो मुस्कान एक झेंपी सी मुस्कान लगी.. जब मैने उससे कहा कि क्या ले आये हो इस मुठ्ठी में बंद कर के ..जरा मुट्ठी तो खोलो...अभी तो सूरज भी आँख ही मल रहा है और तुम भागते हुए इतनी दूर से जाने क्या बंद कर लाये हो इन छोटी सी मुट्ठियों में...मुझे मालूम है कि कुछ अनजगे सपने होंगे सुबह जागने को आतुर-इस सोच के साथ कि शायद सच हो जायें.,..दिखाओ न...हम भी तो देखें...

खोल दो न अपनी मुट्ठी......

वो फिर झेंपा और धीरे से...कुछ सकुचाते हुए...कुछ शरमाते हुए..आखिर खोल ही दिये अपनी दोनों मुठ्ठियाँ में भरे वो अनजगे सपने… मेरे सामने...और वो सपने आँख मलते अकबका कर जागे.. मुझे दिखा कुछ खून......सूर्ख लाल खून.. उसकी कोमल हथेलियों से रिसता हुआ और छोटे छोटे ढेर सारे काँटे गुलाब के..छितराये हुए उन नाजुक हथेलियों पर..कुछ चुभे हुए तो कुछ बिखरे बिखरे हुए से....न चुभ पाने से उदास...मायूस...

-अरे, ये क्या?- इन्हें क्यूँ ले आये हो मेरे पास? मुझे तो गुलाब पसंद हैं और तुम ..ये काँटे  .. ये कैसा मजाक है? मैं भला इन काँटों का क्या करुँगी? और ये खून?...तुम जानते हो न...मुझे खून देखना पसंद नहीं है..खून देखना मुझे बर्दाश्त नहीं होता...लहु का वो लाल रंग...एक बेहोशॊ सी छा जाती है मुझ पर..

यह लाल रंग..याद दिलाता है मुझे उस सिंदूर की...जो पोंछा गया था बिना उसकी किसी गल्ती के...उसके आदमी के अतिशय शराब पीकर लीवर से दुश्मनी भजा लेने की एवज में...उस जलती चिता के सामने...समाज से डायन का दर्जा प्राप्त करते..समाज की नजर में जो निगल गई थी अपने पति को.....बस!! एक पुरुष प्रधान समाज...यूँ लांछित करता है अबला को..उफ्फ!

तुम कहते कि मुझे पता है कि खून तुमसे बर्दाश्त नहीं होता मगर तुम्हारी पसंद वो सुर्ख लाल गुलाब है. मै नहीं चाहता कि तुम्हें वो जरा भी बासी मिले तो चलो मेरे साथ अब और तोड़ लो ताज़ा ताज़ा उस गुलाब को ..एकदम उसकी लाल सुर्खियत के साथ...बिना कोई रंगत खोये...

बस, इस कोशिश में तुम्हे कोई काँटा न चुभे  .तुम्हारी ऊँगली से खून न बहे..वरना कैसे बर्दाश्त कर पाओगी तुम...और तुम कर भी लो तो मैं..

बस यही एक कोशिश रही है मेरी..कि... मेरा खून जो रिसा है हथेली से मेरी...वो रखेगा उस गुलाब का रंग..सुर्ख लाल...जो पसंद है तुम्हें..ओ मेरी पाकीज़ा गज़ल!!

बस. मत देख इस खून को जो रिसा है मेरी हथेली से लाल रंग का.....और बरकरार रख मुझसे विश्वास का वो रिश्ता ..जिसे लेकर हम साथ चले थे उस रोज...और जिसे सीने से लगाये ही हम बिछड़े थे उस रोज...

याद है न वो दोनों दिन...तारीखें क्या थी वो दोनों.....चलो!!! तुम बताओ!!

 

है यार मेरा अपना शाईर जो मेरे दिल के अंदर रहता है

तड़प के वो है पूछ रहा, तू आखिर जिन्दा कैसे रहता है

-समीर लाल ’समीर’

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