मंगलवार, दिसंबर 20, 2011

ये कौन मसीहा निकसा है….

anhasketch

 

एक कोशिश करता रहता हूँ
मैं बस.. मैं.. नहीं
कुछ और हो जाऊँ

उलझन उलझन तैर रहा हूँ
जाने क्या से क्या हो जाऊँ

कभी सोचता धूप बनूँ मैं
या पेड़ों की छाया हो जाऊँ..

कभी लगा कि बनूँ आसमां
या फिर धरा हरी हो जाऊँ..

लू के मैं बनूँ गरम थपेड़े
या सौंधी सौंधी नमीं माटी की हो जाऊँ...

नदिया बन झर झर बहूँ
या पहाड़ एक बुलन्द हो जाऊँ

कहानी लिखूँ, कविता रचूँ
या तुकबंदी कर कवि हो जाऊँ...

सोचा कि कोयल हो जाऊँ
या कोयल की धुन में खो जाऊँ

सीना मानिंद फौलाद रखूँ
या मोम सरीखा दिल रख कर
पर पीड़ा पर रो आऊँ...

कुछ राज दफन कर लूँ दिल में
या बिगुल बजा आह्वान करुँ

या बदलूँ इन हालातों को
और नैतिकता का सम्मान करुँ

कि भीड़ अकेला बन जाऊँ..
अनशन कर अभिमान करुँ...

फिर तुम आना और कह देना
ये कौन मसीहा निकसा है

जब दमित करें आवाज मेरी
हो मौन-फकीरा फिरता है...

यूँ याद रखेगा जग मुझको
कि आने वाली नस्लों को
मैं याद बना भयभीत करुँ
समझौता करना जीवन है..
ऐसा कानों में गीत भरुँ...

फिर कौन मसीहा जागेगा..
षड़यंत्रों के इस जाले में..
घिर करके यूँ डर जाने को....
यूँ मौन धरे मर जाने को...

-समीर लाल ’समीर’



चित्र साभार: गुगल
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सोमवार, दिसंबर 12, 2011

पत्थर दिल इंसान....

झील के किनारे टहलते टहलते...तुम उठाकर थाम लेती हाथ में एक पत्थर और कुछ अलग से अंदाज में फेंकती झील के ठहरे पानी में...

पत्थर झील के पानी की सतह टकराता और डूबने की बजाये फिर उछलता...

कभी तीन तो कभी चार बार सतह पर टकराते हुए उछलते हुए अंततः डूब जाता वो पत्थर उस झील की गहराई में निराश हो कर.

तुम्हें देखकर मैं भी कोशिश करता पत्थर फेंकने की, तो ऐसा लगता कि मानो पत्थर ही खुश हो गया हो मेरा हाथ छुड़ा कर..मेरा साथ छोड़ कर...दूर जाकर गिरता पानी में...और डूब जाता गहराई में फिर कभी न दिखने को. उसमें कोई उत्साह नहीं मुझे फिर से उछलकर देखने का और न डूबने से बचने की कोशिश ,न कोई अभिलाषा कि फिर से थाम लूँ मैं शायद उसे.

तुम खिलखिला कर हँस पड़ती और मैं अपनी झेंप में एक और पत्थर उछालता पानी में- मगर होना क्या था. हर बार वही- उसका दूर जाकर पानी में डूब जाना बिना उछले.

StonesThrow (1)

सोचता हूँ वैसे ही जब साथ छोड़ा तुमने मेरा और उछाल फेंका मुझे गम और तनहाई के इस अथाह सागर में..आज तक एक अनजान उम्मीद को थामें..सतह से टकराता और उछलता बस चला जा रहा हूँ मैं..डूब नहीं पाया निराश हो कर....यादों की धड़कन की धुन आशा बन कर एक सुर लहरी सी सुनाई देती है..और एक बार फिर सतह से कुछ ऊपर उछल कर आगे बढ़ जाता हूँ मैं...एक अभिलाषा बाकी है अभी कि शायद फिर साथ मिलेगा तुम्हारा और तुम फिर थाम लोगी हाथों में अपने मेरा हाथ.

याद करता हूँ अपनी ही लिखी बात:

पत्थरों में
नहीं होता है दिल...
हाँ!!
पत्थर दिल इंसान
और
उनका वजूद
दिख जाता है अक्सर ही
आस पास
अपने!!

-समीर लाल 'समीर'

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मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

जिंदा कविता!!

एक गुलाब भेजता हूँ तुमको.

मैं तो हो नहीं सकता तुम्हारे आस पास. न तो ऐसा दस्तूर है जमाने का और न हीं मौका. कौन इसे सही मानेगा- तुम भी नहीं मानोगी कि मैं तुम्हारे आस पास आऊँ भी.

ये गुलाब देखेगा तुमको.

अभी तो खुशबू है इसमें बाकी- फिर सूख जायेगा जल्दी ही मगर मेरी कविता.... जो भेज रहा हूँ साथ...पढ़ लेना वक्त निकाल कर... तब...ये भर देगी हर बार एक ताज़गी भरी खुशबू उस गुलाब में- हर बार- तुम्हारा दिन एक खुशबूदार दिन बनाने के लिए...

इतना हक तो है मुझे कि तुम्हें खुश देख सकूँ और अहसासूँ तुम्हारी खुशिया!..कुछ पल को ही सही- खुश हो जाने के लिए!!!

मै खुद टूटा हुआ हूँ- न जाने कब तक- कितनी देर में- मुरझा जाऊँगा..मगर यह कविता- यह सनद रहेगी और हर वक्त काम आयेगी...तुम्हारे!!

इसलिए तो नाम दिया है इसे: ’जिंदा कविता’

बस शीर्षक ही तो लिखा है कविता के नाम पर- बाकी तो मौन की भाषा- इसे हर मोहब्बत करने वाला पढ़ पायेगा- तुमने भी तो एक दफा की थी बेइंतिहा मोहब्बत मुझसे...तुम पक्का पढ़ लोगी-

बताना कैसी लगी यह कविता!!!

जो न पढ़ पाये- उसे तुम वैसा ही मूँह बना कर चिढ़ाना- जैसा मुझे कहते वक्त बनाती थी-’दीवाने, इतना भी नहीं जानते??’

मोह लेती थी मुझे तुम्हारी वो अदा!!

sam

कविता:

’जिंदा कविता’

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( कि मैं जब कुछ नहीं लिखता
और सोचता हूँ तुमको...
तो लिख जाती है
ऐसी न जाने कितनी
कवितायें...
जिनमें शब्द नहीं होते
मगर
जो मैं लिखता हूँ अनलिखी ईबारत
बस तुम
पढ़ पाती हो उन्हें...

गुनगुनाते हैं उसे...
हर वो लब....

जो जानते हैं...

मोहब्बत तो बस एक...
अहसासों की कहानी हैं....

किसी दीवाने के लिए
ये नई है....
तो किसी के लिए...
ये पुरानी है....

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, दिसंबर 04, 2011

स्नेह का दूसरा नाम- महावीर शर्मा

महावीर शर्मा जी, एक युग पुरुष, की पुण्य तिथि पर उनके ब्लॉग पर प्रकाशित मेरा संस्मरण (मात्र एक जगह संकलित करने के प्रयास में पुनर्प्रकाशित):

mahaveer

’आपके भाव बहुत प्रभावित करते हैं किन्तु यदि आप गज़ल के व्याकरण पर थोड़ा सा काम कर लें तो आपकी रचनायें गज़ल के रुप और बेहतर प्रभाव छोड़ेंगी. कृप्या अन्यथा न लें. आपसे मिला तो कभी नहीं किन्तु न जाने क्यूँ आपसे एक अपनापन सा लगता है, इसलिए कह गया.’

यह था महावीर जी से पहला परिचय सन २००५ में याहू ग्रुप के ईकविता मंच के द्वारा. नया नया शौक जागा था कविता कहने का. हर विधा में बिना व्याकरण जाने कुछ प्रायस करते रहने का नया शौक. ऐसे वक्त में गज़ल के महाज्ञाता और वरिष्ट का ऐसा आशीष पाकर धन्य हुआ. तुरंत ही जबाब दिया, आभार प्रदर्शन किया और निवेदन किया कि आप अपना फोन नम्बर दें तो चर्चा हो.

हालांकि उन दिनों वो कुछ अस्वस्थ थे किन्तु तुरंत ही जबाब आ गया. न सिर्फ फोन नम्बर बल्कि मेरी एक रचना को गज़ल में परिवर्तित कर उस पर तख्ति कैसे की और सरल शब्दों में उसके व्याकरण का ज्ञान देते हुए. मैं धन्य महसूस कर रहा था और बस, फोन पर चर्चाओं का सिलसिला शुरु हुआ.

पितृतुल्य स्नेह मिला. बात करने में इतने सहज, सौम्य और सरल कि कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि उनसे कभी मुलाकात नहीं है. शीघ्र ही उन्होंने अपने स्नेह से मुझे उस अधिकार का पात्र बना दिया कि जब कुछ ख्याल आते, उन्हें गज़ल की शक्ल में लिख उनके पास भेज देता. कभी इन्तजार नहीं करना पड़ा. तुरंत जबाब आता कि इस पंक्ति को ऐसा कह कर देखो और उस पर मात्राओं का ज्ञान, तख्ति निकालना आदि लगातार चलता रहा.

इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने न तो कभी अपने लगातार गिरते स्वास्थय का अहसास होने दिया और न ही कभी इसके चलते जबाब और सलाह देने में देर की. लगता जैसे ऊँगली पकड़ कर चलना सिखा रहे हैं. उन्हीं के माध्यम से प्राण शर्मा जी जैसे महारथी और गज़ल के सिद्धहस्त से परिचय प्राप्त हुआ और उनसे भी वही अपार स्नेह पा रहा हूँ. कई बार खुद के इतने भाग्यशाली होने पर घमंड में भी आ जाता हूँ और आज प्राण जी हमेशा मेरे पक्ष में ढाल बन कर खड़े नजर आते हैं.

बीच में लन्दन जाना भी हुआ मात्र एक दिन के लिए. महावीर जी से फोन पर चर्चा हुई. उनकी तबीयत कुछ ज्यादा खराब थी उस वक्त और वह अस्पताल ही जा रहे थे. समयाभाव में उस दिन मिलना नहीं हो पाया और उसी दिन मुझे टोरंटो वापस आना था.

वापस आकर जब उनसे फोन पर बात हुई तो जिस तरह से वह भावुक हो उठे कि मैं भी अपने आंसू न रोक पाया. सोचने लगा कि यदि एक दिन और रुक जाता तो शायद मुलाकात हो जाती. मन बना लिया था कि अगली यात्रा में और कुछ हो न हो, महावीर जी से जरुर मुलाकात करुँगा.

इस बीच उनके कहानी वाले ब्लॉग पर मेरी लघुकथा छापी. बिखरे मोती की रिपोर्टों और मेरे अभियान ’धरा बचाओ, पेड़ लगाओ’ के लिंक भी उन्होंने अपने ब्लॉग पर लगा कर सम्मान दिया. फिर एक दिन उनका ही फोन आया कि अपनी गज़लें भेजो, महावीर ब्लॉग पर छापना है. अच्छा लगेगा.

मैं क्या जानता था कि यह अंतिम वार्तालाप है. उन्होंने मेरी दो गज़लें छापी और वही उनके जीते जी उनके महावीर ब्लॉग की आखिरी प्रविष्टियाँ बन गई.

’वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है’ - एक दिन खबर आई कि महावीर जी नहीं रहे. मैं स्तब्ध!! बार बार महावीर ब्लॉग खोलता और सामने होती उनकी अंतिम प्रविष्टी- मेरी दो गज़ले जिन्हें उनके साथ साथ प्राण जी आशीष भी प्राप्त था. जब भी नजर पड़ती, महावीर जी के स्वर कानों में पड़ते कि बहुत बढ़िया लिख रहे हो, लिखते रहो.

आज महावीर जी नहीं है. इस दफा जब लंदन पहुँचा तो याद आया कि बिना महावीर जी मिले न जाने का वादा था, अब वो कैसे पूरा होगा. एक कशिश लिए भारी मन से लंदन से वापस लौट गया.

आज भी जब कुछ लिखता हूँ तो महावीर जी बरबस साथ होने का अहसास जगाते नजर आते हैं सुधरवाते हुए- व्याकरण सिखाते हुए.

दीपक ने जब इस ब्लॉग को पुनः आरम्भ करने का बीड़ा उठाया तो दिल भर आया. इस पुण्य कार्य के लिए दीपक को साधुवाद. प्राण जी भी इस अभियान में अपना वरद हस्त बनाये हैं, उनको भी प्रणाम एवं साधुवाद.

महावीर जी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि. मुझे मालूम है कि आज भी जब भी कुछ लिखता हूँ, वो उस पर अपनी नजर बनाये हैं. आप बहुत याद आते हैं महावीर जी.  

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, नवंबर 23, 2011

रंग बिरंगी दुनिया के बेरंग सफहे!!

तब मैं उसे आप पुकारता और वो मुझे आप.

नया नया परिचय था. पन्ने पन्ने चढ़ता है प्यार का नशा...आँख पढ़ पायें वो स्तर अभी नहीं पहुँचा था.

वो कहती मुझे कि आप पियानो पर कोई धुन सुनायेंगे. कहती तो क्या एक आदेश सा करती. जानती थी कि मैं मना नहीं कर पाऊँगा.

काली सफेद पियानो की बीट- मैं महसूसता कि मैं उसे और खुद को झंकार दे रहा हूँ.

डूब कर बजाता - जाने क्या किन्तु वो मुग्ध हो मुझे ताकती.

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परिचय का दायरा बढ़ता गया और हमारे बीच दूरियाँ कम होती गईं. अब हम आप से तुम तक का सफर पूरा कर चुके थे. सांसों में फायर प्लेस से ज्यादा गर्मी होती है, यह भी जान गये थे कितु फिर भी फायर प्लेस से टिके टिके- बर्फीली रातों में...जाने क्यों, किसी अनजान दुनिया में डूबना- बस, एक वाईन का ग्लास थामे- उसे लुभाता. हम देखते एक दूसरे को-वाईन का सुरुर-डूबो ले जाता सागर की उस तलहटी मे जहाँ एक अलग दूनिया बसती है. रंग बिरंगी मछलियाँ. कुछ छोटी कुछ बड़ी. कोरल की रंग बिरंगे जिंदा पत्थरों वाली दुनिया. सांस लेते पत्थर. अचंम्भों और रंगो की एक तिलस्मी- बिना गहरे उतरे जान पाना कतई संभव नहीं.

बिना कुछ कहे पियानों की धुन पर मैं सब कुछ कहता...हाँ, सब कुछ- वो भी जिन्हें शायद शब्द न कह पायें बस एक अहसास की धुन ही कह सकती है वो सब और वो- मंत्र मुग्ध सी सब कुछ समझ जाती. इस हद तक कि शायद शब्दों में कहता तो सागर की लहरों के हिचकोले ही होते जो साहिल पर लाते और वापस ले जाते. मानो कि कोई खेल खेल रहे हों. इस तरह समझ जाना भी एक ऐसी गहन अनुभूति की दरकार रखता है जो शायद कभी ही संभव हो आम इन्सानों के बीच.

संगत और सानिध्य का असर ऐसा कि नजरें पढ़ना सीख गये- जान जाते कि क्या चाहत है और क्या कहना है. शब्दों का सामर्थय बौना हुआ या मेरा शब्दकोश. अब तक नहीं जान पाया.

एक दूसरे को इतना करीब से जाना मगर जाना देर से. तब तक और न जाने कितना जान गये थे एक दूसरे के बारे में..हमेशा देर कर देता हूँ मैं- शायर मुनीर नियाज़ी साहेब  याद आये मगर फिर वही-देर से..उनके अशआर:

हमेशा देर कर देता हूँ मैं, हर काम करने में.

जरुरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

मदद करनी हो उसकी, यार की ढ़ाढ़स बंधाना हो,
बहुत देहरीना रस्तों पर, किसी से मिलने जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

बदलते मौसमों की सैर में, दिल को लगाना हो,
किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

किसी को मौत से पहले, किसी गम से बचाना हो,
हकीकत और थी कुछ, उसको जाके ये बताना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

कब कह गये नियाज़ी साहेब- शायद मेरे लिए. गुजर गये कह कर वे- फिर मैं सोचता हूँ:

लिख कर पढ़ाता हूँ जब
दास्तां अपनी...
पढ़ती है और गुनगुनाती है वो...
पढ़ती है आँखों में सच्चाई....
सिहर जाती है वो...
बिखर जाती है वो....

समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, नवंबर 17, 2011

फोकस न लूज करो, मि.मल्टी-टास्कर!!!

आजकल कुछ शब्द लोग बड़ी वजनदारी और धड़ल्ले से बेझिझक इस्तेमाल करते हैं. ऐसा ही एक शब्द है - 'मल्टी टास्कर'. एक समय में एक से अधिक कार्य पूरी क्षमता और लगन से कर पाने की कला. नौकरी के लिए जितने आवेदन आते हैं- सब मल्टी टास्कर, सब टीम प्लेयर, सब सेल्फ स्टार्टर. मुझे लगता है ये योग्यतायें तो हर इन्सान में होती हैं, फिर भी लिखकर न बताओ तो बात पूरी नहीं होती. लिखकर बताने की जरुरत तो होनी नहीं चाहिये.

समय का क्या है. उसका तो काम ही करवट लेना है. आज एक ली है, तो कल दूसरी लेगा. कल को लोग यह न लिखने लग जायें कि दोनों पैर से चलने वाला, कान से सुनने वाला, आँख से देखने वाला. मेरे हिसाब से इस तरह की योग्यतायें होना स्वाभाविक है, न हो तो लिख कर बताओ, तब तो बात में दम भी नजर आये और बात भी  समझ में आती है. जैसे एक आँख से नहीं दिखता है, टीम प्लेयर नहीं हूँ आदि. मगर अपनी कमी कौन उजागर करे, ये मानव स्वभाव है.

मल्टी टास्कर और टीम प्लेयर पर याद आया अपने अन्ना का नाम. आजकल वो भी मल्टी आंदोलनकारी होने में लगे हैं. टीम प्लेयर का चक्कर ऐसा फँसा कि टीम बदलने की तैयारी में जुटना पड़ा. जिन बातों का विरोध करने के लिए टीम गठित कर हल्ला बोला था, इन दिनों खुद टीम ही उस दलदल में फंसी नजर आ रही है. कोई अपना इन्कम टैक्स का बकाया प्रधान मंत्री कार्यालय में भर रहा है मानो इन्कम टैक्स वालों ने मांगा बस हो और लेने से इन्कार कर रहे हों..तो कोई हवाई यात्रा से हेराफेरी वाला धन लौटाने की पेशकश लिए घूम रहा है. उधर राजा और कलमाड़ी इनकी हरकतें देख तिहाड़ में बैठे दलील दे रहे हैं कि इन्होंने तो हेराफेरी का धन खुद की ट्रस्ट में जमा कर कह दिया कि गरीबों के लिए धरे हैं, इसलिए यह भ्रष्टाचार नहीं है. अन्ना और केजरीवाल ने हाँ में हाँ भी मिला दी टीम प्लेयर होने के नाते और हम, जिसने सारी कमाई खुद की ट्रस्ट में न जमा कर स्विस बैंक जैसे सार्वजनिक स्थल में रखी ताकि भविष्य में जब अमेरीका के मौजूदा हालात देखते हुए वहाँ गरीबों की बाढ़ आयेगी, तो उनकी मदद करेंगे. जब हवाई जहाज वाली हेराफेरी इस कारण से हेराफेरी नहीं है तो हमारा तो बहुत ही बड़ा पुण्य करम कहलाया. हमें तो जेल की बजाये भारत रत्न दिया जाना चाहिये.

सांसद खरीदी में भी एक किड़नी मरीज को बेवजह जेल और उस मार्फत अस्पताल में जबरन रहना पड़ा जबकि उन्होंने हर सांसद को पैसा देते समय कान में साफ कह दिया था कि इस पैसे से गरीबों की मदद करना, पुण्य कार्य होता है.

ऐसे हालातों में जब कलमाड़ी और राजा के साथ साथ कनीमोझी तक भारत रत्न की आस बैठे लगाये हैं तो अन्ना, द मल्टी आंदोलनकारी (उनका तो टास्क ही आंदोलन है) सचिन को भारत रत्न दिलवाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं. माना सचिन तेंदुलकर काबिल है मगर भारत रत्न किसे मिले और किसे नहीं, यह तय करना अन्ना के पाले में कब जा पहुँचा. शुरु हुए भ्रष्टाचार से, पहुँच गये कांग्रेस को हरवाने और आगे भी हरवाते रहने का जिम्मा अपने नाजुक काँधों पर उठा लिया यदि मन मुताबिक बिल न आया तो. फिर अब ये भारत रत्न. कभी कभी तो लगता है कि कल को फलाने को मंत्री बनाओ, वरना आंदोलन. मुम्बई से हमारे गांव सीधे फ्लाईट, वरना आंदोलन...आंदोलन करने के लिए मुद्दों की कमी तो है नहीं- नाले से नदी तक मुद्दों कें अंबार हैं मगर बस, जब से चेहरा फोकस में आया है, उनका फोकस लूज़ होता देख कर अफसोस सा होता है. अरे भई, बायोडाटा में एक शब्द और बढ़ाओ- वेल फोक्सड. मल्टी टास्कर का अर्थ यह तो होता नहीं है कि सारे टास्क बिलोर कर रख दूँगा बल्कि जैसे कि पहले कहा है यह एक समय में एक से अधिक कार्य पूरी क्षमता और लगन से कर पाने की कला है. जिसके लिए फोकस्ड अप्रोच की जरुरत होती है.

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एक हमें देखो, मल्टी टास्कर होते हुए भी जबसे नई नौकरी ली है (हालांकि अब तो नई क्या- दो महिने से ज्यादा पुरानी हो गई है), ऐसा फोकस साधे हैं कि लिखना पढ़ना सब छूटा है. न ब्लॉग, न साहित्य. वैसे सच्चाई तो ये है कि चाहो, तो समय भी निकल ही आयेगा. खाना खाना नहीं छूटा, सोना नहीं छूटा, घूमना नहीं छूटा. लिखनें में आलस को कैसे छिपायें तो नई नौकरी की आड़ से बेहतर और कोई बहाना क्या हो सकता है. मौन व्रत साधना अभी सीखा नहीं है.

शायद जल्द ही आलस की चादर से बाहर निकलूँ इसीलिए आज कुछ भी लिख ही डाला है. शायद जागने के पहले की अंगड़ाई की तरह साबित हो...शायद लिखत पढ़त जोर पकड़े. फोकस तो साधे हुए हैं.

अक्सर ही जब मन के भावो को
शब्दों में ढाल नहीं पाता हूँ मैं...
किसी बहाने की आड़ ले
बहुत धीमे से मुस्कराता हूँ मैं...

समीर लाल 'समीर'

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बुधवार, नवंबर 09, 2011

कड़वा वाला हनी!!!

चेहरा पढ़ने की आदत ऐसी कि चाहूँ भी तो छूटती नहीं. दफ्तर से निकलता हूँ. ट्रेन में बैठते ही सामने बैठे लोगों पर नजर जाती है और बस शुरु आदतन चेहरा पढ़ना. पढ़ना तो क्या, एक अंदाज ही रहता है अपनी तरफ से अपने लिए. किसी को बताना तो होता नहीं कि एकदम सही सही ही पढ़ा हो. हालांकि जिनको बताना होता है वो भी हाथ देख कर कितना सही सही बताते हैं, यह तो जग जाहिर है. ढेरों अनुभव रोज होते हैं, धीरे धीरे सुनाता चलूँगा.

सामने की सीट पर एक गोरी महिला आ बैठी है. मेरी नजर मेरे लैपटॉप पर है मगर बस दिखाने के लिए. दरअसल, लैपटॉप तो एक आड़ ही समझो, देख तो उसका ही चेहरा रहा हूँ. हूँ पैदाईशी भारतीय, संस्कृति आड़े आती है कि सीधे कैसे देख लूँ एक अनजान अपरिचिता को. मगर फिर वही, हूँ तो पैदाईशी भारतीय, तरीका निकाल ही लिया, लैपटॉप की आड़ से. तिनके की आड़ शास्त्रों में और चिन्दी की आड़ हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्रियों में काफी मानी गई है तो लैपटॉप की स्क्रीन तो बहुत ही बड़ी आड़ कहलाई. संस्कृति हो या कानून या सेंसर बोर्ड, जो कुछ रोकने का जितना बड़ा प्रबंध करते हैं, उसमें हम उतना ही बड़ा छेद बनाने का हुनर रखते हैं. यूँ तो अक्सर ऐसा परदा बुनते समय ही ऐसे छेद छोड़ देने की प्रथा रही है. कानून बनाने वाले हम, कानून तोड़ने वाले हम, कानून का अपनी सुविधा के लिए पालन करने वाले हम- हम याने हम भारतीय!!!

newspaperlady

उसने हाथ में अखबार खोला हुआ है और नजर ऐसे गड़ाये है जैसे अगर वो खबर उसने न पढ़ी तो अखबार वालों का तो क्या कहना, खबर पैदा करने वालों के यत्न बेकार चले जायेंगे. ओबामा का अमेरीका को ग्रेटेस्ट कहना या अन्ना की कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की घुड़की, सब इनके पढ़े बिना नकारा ही साबित होने वाला है. खैर, इस महिला की किस्मत ही कहो कि ये दोनों खबर तो यूँ भी नकारा साबित होना ही है. मगर इतनी गहन तन्मयता प्रदर्शित होने के बावजूद, मेरा चेहरा पढ़ने का अनुभव और वो भी जब चेहरा महिला का हो- कोई मजाक तो है नहीं. फट से ताड़ लिया कि महिला की नजर जरुर अखबार पर है मगर वो सोच कुछ और रही है. अंदाजा एकदम सही निकला- दो ही मिनट में उसने अपने पर्स से फोन निकाला और जाने किससे बात करने लग गई- हाय हनी, मैं अभी सोच रही थी कि आज तुम मुझको लेने स्टेशन आ जाओ तो ग्रासरी करते हुए घर चलें. दूध भी खत्म हुआ है और कल के लिए ब्रेड भी नहीं है. और हाँ, बेटू ने होमवर्क कर लिया कि नहीं?

वैसे भी हनी शब्द सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं कि एक शब्द किसी आदमी को कितना बेवकूफ बना सकता है कि वो फिर हर बात पर सिर्फ हाँ ही करता है. मानो हनी, हनी न हुआ-रुपया हो गया हो जिसके आगे हमारा हर नेता हाँ ही बोलता है.

एकाएक अखबार की खबर ध्यान से पढ़ते तो यह नहीं हो जाता. निश्चित ही विचार मन में आया होगा कि ग्रासरी करना है, बेटू का होमवर्क होना है. ट्रेन से उतर कर बस लेकर घर जाये- फिर उस सो काल्ड हनी के साथ बाजार जाये- बेवजह समय खराब होगा, उससे अच्छा उसे स्टेशन बुला ले तो सहूलियत रहेगी. तब जाकर फोन किया होगा.

फिर फोन रखने के बाद पुनः वैसे ही नजर गड़ गई अखबार में. मैं अब भी जान रहा था कि वो अखबार में खबर नहीं पढ़ रही है...अनुभव से बड़ा भला कौन सा ज्ञान हो सकता है.

मुश्किल से दो मिनट बीते होंगे कि उसने फोन पर फिर रीडायल दबाया...हाँ हनी, एक बात तो कहना मैं भूल ही गई- स्टेशन आते समय मेरा वो ब्लैक जैकेट लेते आना, जिसमें जेब पर व्हाईट क्यूट सा फ्लावर बना है. ड्राईक्लिनर को रास्ते में दे देंगे.

गरीब हनी शायद हम सा ही, हम सा क्या- ९०% पतियों सा- कोई निरिह प्राणी रहा होगा जिसे पत्नी का जैकेट कौन सा और कहाँ टंगा होता है, न मालूम होगा और पूछ बैठा होगा कि कौन सा वाला?

फिर तो दस मिनट इस तरफ से जो फायरिंग चली कि तुमको तो ये तक नहीं मालूम कि मैं क्या पहनती हूँ..फलाना फलाना...टॉय टॉय...यू डोंट लव मी एट ऑल..मुझे पता है...जाने क्या क्या!!....मेरे तो कान ही सुन्न हो गये. उसकी आवाज में मुझे अपनी पत्नी की आवाज सुनाई देती रही. एकाएक उसका चेहरा भी मेरी पत्नी के समान हो गया....ओह!!

स्टेशन आ गया, और मैं हकबकाया सा ट्रेन से उतर कर बाहर आ गया. पत्नी कार लिए इन्तजार कर रही थी.

पूछ रही है कि इतने सहमे से क्यूँ हो- क्या ऑफिस में कुछ हुआ?

लगता है वो भी चेहरा पढ़ना सीख रही है. सही ही हो ये कोई जरुरी तो नहीं!!! वरना तो हमारे ज्योतिषियों की दुकान ही बंद हो जाये एक दिन में...

सात समुन्दर कोशिश करके हार गये
मैं अपने आँसू से ही पूरा भीगा हूँ...
गुरु मंत्र स्कूलों वाले सीमित थे
जो भी सीखा ठोकर खाकर सीखा हूँ

-समीर लाल ’समीर’

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शनिवार, अक्तूबर 29, 2011

वाह रे, रथयात्री!!

अपना ही एक फेसबुक नोट सहेजने के लिहाज से यहाँ लेता आया:

जबलपुर से मिर्जापुर जाता मुझ सा आम आदमी राह में आने वाले रोड़े पता करके निकलता था कि कहाँ रोड खराब है...यहाँ तक कि मेरी ससुराल मिर्जापुर में गैरेज थोड़ा नीचा है इसलिए हाई हुड की मारुती वैन के बदले मारुती कार लेकर निकलते ताकि रिश्तेदारों से मुलाकात में विध्न न पड़े और परिवार समुचित दिशा में रिश्तों की सुड्रुढता बनाता चलता रहे सारे रिश्तों को हंसी खुशी निभाते.

और एक वो हैं जो देश चलाने का वादा करते हैं और उसे सही दिशा में दूर तक ले जाने का वादा करते हैं, उनकी हालत देख कर रोना आता है कि अपना रथ तक ले जाना प्लान न कर पाये. न जाने कैसे सलाहकार हैं इनके कि कुछ हजार किलोमीटर की रथ यात्रा का मार्ग भी न भाँप पाये...और पटना में १२.९’ ऊँचे रथ को १२ फुट ऊँचे पुल के नीचे से तोड़ फोड़ कर किसी तरह से निकाल कर खुश हो लिए...हे प्रभु, देश इनके हाथ में न देना...वरना ऐसी तोड़ फोड़ रथ तो बर्दाश्त कर गया, गैरेज में रफू लग कर जुड़ भी गया किसी तरह मगर देश तो गैरेज में रिपेयर नहीं होता..उसका क्या होगा???

अनजान दुविधायें तो सफर का हिस्सा होती ही हैं मगर जिसका पता किया जा सके, उससे तो बचा ही जा सकता है..............

१२.९’ ऊँचा रथ बना है ६ फुट से कम ऊँचें आदमी के लिए जो चाहे जो भी कर ले तो १२.९’ ऊँचा तो कूद कर भी नही छू सकता मगर आज शायद अपनी प्रतिष्ठा का कद नापने का यही तरीका बच रहा है इनके पास...बाकी तो क्या नपवायें ये??

rath

और पिछले दिनों दीपावली का तरही मुशायरा हुआ, उसमें प्रस्तुत गुरुदेव पंकज सुबीर जी का आशीर्वाद प्राप्त मेरी गज़ल:

तेरी मुस्‍कान से खिले हर सू
दीप खुशियों के जल उठे हर सू

आग नफ़रत की  दूर हो दिल से
है दुआ ये अमन रहे हर सू

बूंद से ही बना समंदर है
अब्र ये सोच कर उड़े हर सू

नाम तेरा लिया है जब भी तो
कोई खुश्‍बू बहे, बहे हर सू

था चला यूं ’समीर’ तन्‍हा ही
लोग अपनों से पर मिले हर सू

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, अक्तूबर 14, 2011

ऋतुपर्णा !! मैं बुद्ध हो जाना चाहता हूँ ..

जिस सुबह तुम मुझसे मिलने आने वाली  होगी, उस रात मैं साधु हो तपस्या करने त्रिवेणी पार्क के उसी पेड़ के नीचे बैठूँगा, जिसके नीचे बैठ हमने तुमने कितनी ही शामें गुजारी थी.

मैं सारी रात आँख मूँद कर जागूँगा. तुम ऋतुपर्णा बन कर आना. मैं आँख खोलूँगा, तुम सामने होगी. मैं बुद्ध हो जाऊँगा.

monk_sam

तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब  भाव होगा - तुम पूछोगी कि यह ऋतुपर्णा कौन है?

ऋतुपर्णा !! 

मेरी कहानी की नायिका- उस कहानी की जो कभी लिखी नहीं गई. एक समुद्र सी मेरे भीतर समाई है, जेहन की किसी गहराई तक 

मुझे नहीं लगता कि मैं कभी लिख पाऊँगा उस कहानी को. कुछ पानी के बुलबुले उकेर भी दूँ तो भी समुद्र तो उतना ही बाकी बच रहेगा. क्या फायदा कुछ छींटें उड़ेलने से भी.

ऋतुपर्णा !! 

देखा तो कभी नहीं उसे मगर उसके बालों की खुशबू- उसके बदन की मोहक गंध नथुनों में समाई रहती है हर वक्त. गुलाब की महक मैं नहीं जानता . बस एक गंध- उन बालों की, एक महक-उस बदन की. इतना ही है मेरे लिए खुशबू का संसार.

ऋतुपर्णा !!

देखा तो कभी नहीं उसे मगर पहचानता हूँ उसकी मुस्कराहट को, उसके चमकते चेहरे को. अहसास है मुझे उसके स्पर्श का. एक कोमल स्पर्श. 

ऋतुपर्णा !! 

सब कुछ वैसा ही जैसी की तुम. एक अंतर बस आवाज का. 

ऋतुपर्णा !! 

सुना तो कभी नहीं उसे - बस आवाज पहचानता हूँ. आवाज कुछ बैठी हुई सी.

याद है जब तुम अपनी सहेली की शादी में रात भर मंगलगान गाती रही थी और सुबह तुम्हारी आवाज बैठ गई थी- वही- हाँ बिल्कुल वैसी ही है ऋतुपर्णा की आवाज. मुझे बहुत भाती है. शायद मोहब्बत का तकाजा हो कि प्रेमिका के ऐब भी ऐब न होकर रिझाने लगते हैं.

तुम यूँ करना कि उस रात भी रात भर मंगलगान गाना, जब मैं तपस्या करने बैठूँगा. पावन मौके पर यूँ भी मंगलगान की प्रथा रही है.

जब सुबह तुम आओगी और मुझे पुकारोगी- तो वही आवाज होगी ऋतुपर्णा की...

मैं मुस्कराते हुए आँख खोलूँगा और बुद्ध हो जाऊँगा...

तुम उलझन में पूछोगी कि बुद्ध कैसे हो जाओगे? बुद्ध को तो बोध की प्राप्ति हुई थी.

मैं कहूँगा - बोध?

बोध का अर्थ जानती हो?

उस रोज मैने तुम्हें एक बौद्ध मठ से कुछ किताबों के साथ निकलते देखा. आवाज लगाना चाहता था मगर तब तक तुम ...शायद बहुत देर से वो वहीं कार में बैठा तुम्हारा इन्तजार कर रहा था....

तुम निकल गई अपने पति के साथ कार में बैठ कर तेजी से

मैं आँख मूँदें जाग रहा हूँ न जाने क्यूँ तब से.और मैं.....

मैं बुद्ध हो जाना चाहता हूँ .. 

एक मुद्दत हुई
कि
जागते हुए
सोया हूँ मैं...
जाने किन ख्यालों में
खोया हूँ मैं...

-कुछ बातें अहसास की- लिखी नहीं जाती.

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 25, 2011

पावन मकड़जाल ....

पढ़ता हूँ कुछ साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त कहानियाँ और कवितायें नये जमाने की और सोचता हूँ:

शब्द शब्द जोड़
कुछ ऐसा सजाऊँ
जैसे काढ़ी हो सलीके से
कुछ बूटियाँ
और तैयार कर....

एक जामा
पहना दूँ अपनी कविता को...
इस खूबसूरती से
कि निखर जाए उसका रूप सौन्दर्य भी
उकेर दूँ उसके अंग अंग...

उसकी निश्चेत
फेन्टिसीज को उभारती हुई..

शायद
जीत लूँ
एक ईनाम मैं भी
साहित्य के इस तथाकथित
पावन मकड़जाल में....

-समीर लाल ’समीर’

writing

मैं पूछता उस अंधेरी रात में बिस्तर पर लेटे अंधेरे में छत को ताकते तुमसे:

’कोई गाना सुनोगी?’

तुम कहती

’क्या तुम गाओगे अपना गीत?’

मैं कहता...

’न, मैं थका हूँ.. सी डी लगा देता हूँ...फरीदा गा देगी.. दिल जलाने की बात करते हो...आशियाने की बात करते हो..’

तुम कहती...

-हूंह्ह...फिर आगे से ऐसी बात न छेड़ना...जो तुम न कर पाओ...बस, सो जाओ...अब...’

मैं सोचता हूँ....

’अब बात क्या छेडूँ???’

मौन की न जाने क्या ताकत है...अब जानूँगा मैं!!!

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फेरीवाले की
इकतारे की धुन..
और
बचपन
भाग निकलता था गलियों में....

उस धुन को बजा लेने की कोशिश में
न जाने कितने दीपक फोड़े हैं मैने
न जाने कितने ख्वाब जोड़े हैं मैने

लेकिन
मन है कि
मानता नहीं!!
और
वो फेरीवाला...
ये बात
जानता ही नहीं...

-समीर लाल ’समीर’

woman_crying

जिंदगी की आंधी में
फड़फड़ाते भावों के पन्ने
शब्दों की कलम में
आँसूओं की स्याही..
कुछ खास रच जाने को है..
एक आत्म कथा..
एक कविता...
या
नज़्म पुकारेंगे लोग उसे...
तुम-
चुप रह जाना..
बिना कुछ कहे..
सब सह जाना...

-समीर लाल ’समीर’

(फेसबुक पर बिखेरे टुकड़े सहेजते हुए)

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मंगलवार, सितंबर 13, 2011

एक कहानी जिसे शब्द नहीं मिले...

रेल की पांतों पर धड़धड़ाती हुई सी आई एक धुंध चीरती हुई खामोशियों की और मुझमें समा गई एक कहानी बन कर,जिसे मैं कोई शब्द न दे सका चाह कर भी. ...
मेरी कविता बन जाने की अभिलाषा को कितनी ही बार मैने कहानियों में उकेरा है. इतना सजीव चित्रण कि गद्य भी पद्य होने का भ्रम पैदा कर देने में सक्षम. मगर तुम, जो कि समाई हो मेरे भीतर.....क्यूँ नहीं उतर पाती कागज पर.
भावों को शब्द रुप देने की कला ही तो एक ऐसी कला है जो मैं समझता था कि मुझे आती है. परन्तु मैं गलत था..... हार गई मेरी यह एक मात्र योग्यता भी......... कलाकार होने की.
साधारण इन्सानों की तरह मैं जी नहीं पाता. सांस इन्कार करती है लौटने को. दम घुटता है मेरा--भीड़ का हिस्सा बनकर. एक विशिष्ट मुकाम होने की चाहत अलग-थलग कर देती है मुझे, हर उस चीज से जिसमें तनिक भी जुड़ाव की क्षमता हो.

याद है चाहतों के बदलते रंग??? बदलते वक्त के साथ. चाहा था कि अगर वक्त थम नहीं सकता तो कम से कम कुछ सुस्त कदम मेरे आंगन में ही ले ले. .....तब चाहता था कि झील हो जाऊँ. तब तुम साथ होती थी. एक सौम्य ठहराव की दरकार....... मन भावन खामोशी के बीच चन्द पत्ते साज बनते देखे थे. पेड़ हो जाने की इच्छा बस इसी साज की धुन तोड़ती आई.

पेड़ बहुत उदास देखे हैं मैने
पत्ते हो गये साज देखे हैं मैने
जिन्दगी की बुझती नहीं प्यास
जाने कैसे ज़ज्बात देखे हैं मैने.

गंगा जी में स्नान कर नदी बन जाने के बदले रामायण बन जाने का ख्वाब पाल बैठा. तुम्हें निहारते जाने कब पन्ने पन्ने बिखर गई पूरी पुस्तक. धार्मिक पुस्तकों का इस तरह उधड़ कर बिखर जाना, उड़ जाना, बह जाना- दादी कहती थी अपशगुन होता है. दादी की बात ख्याल आई जब तुम्हें खोया. सोचता रहा कि क्यूँ बन बैठा रामायण-सपने में ही सही.
धर्म तो प्रेम पर आकर रुक जाता है. मोहब्बत सिलेबस के बाहर की बात है..पुस्तक को तो बिखरना ही था.

Lake2

झरना बन कर ऊँचाई से गिरना और नदी में समा जाना कभी मन को भाया नहीं तो पहाड़ बना और फिसलता हुआ आ गिरा उसी की तलहटी में. एक गहरी अँधेरी खाई. कुछ सुझाई नहीं देता यहाँ तक कि पहाड़ भी नहीं. ऐसा क्या बन जाने की कोशिश कि खुद को ही न देख पाये.

दम तोड़ते एक के बाद एक चाहतों के सिलसिले. कभी आईना बन खुद को झाँका खुद में. एक नफरत के भाव उभरे जो बदले दयनीयता में हालात का अक्स ओह!! इतना दयनीय.....तोड़ दिया खुद ही खुद को..आईना चकनाचूर हो फर्श पर फैल गया. हर तरफ आईने ही आईने बच रहे.बाँधने वाला कोई नहीं.

गुलाब बनता मगर कांटों की चुभन से गुरेज. यूँ नहीं कि मेरे जेहन में कांटें नहीं मगर वो किसी को मेरे पास आने से रोकते नहीं. किसी को लहुलुहान नहीं करते. वो उगे हैं भीतर की ओर..आज जब तुम आकर समा गई और उतरती नहीं कहानी बनकर शब्दों में तो सहम सा गया हूँ मैं कि कहीं तुम घायल तो नहीं..कहीं उन कांटो ने तुम्हें लहुलुहान तो नहीं कर दिया.

आंसू उतर आये हैं यही सोच कर और लुढ़क गये उन पन्नों पर जिन पर उतरना था मेरे शब्दों को एक कहानी बन कर..तुम्हारी कहानी..जो मुझमें समाई है.

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गुरुवार, सितंबर 08, 2011

जेड सिक्यूरिटी ले लिजिये न प्लीज़!!!!!

सर, आप जेड सिक्यूरिटी ले लिजिये.

नही !... हमे सिक्यूरिटी की कोई जरुरत है ही नहीं. हमारे साथ तो सारी जनता है. हम सरकार से जन लोकपाल बिल मांग रहे हैं, और आप हमें जेड सिक्यूरिटी दे रहे हैं? 

सर, ये तो आपको लेना ही पड़ेगा, आपकी जान को खतरा है, और आपकी जिन्दगी सरकार की जिम्मेदारी है।

मुझे...खतरा..वो भला किससे?

सबसे पहले तो आप को सबसे बड़ा खतरा खुद से है...न उम्र देखते हैं, न बॉडी. बस, चार जवानों के बहकावे में आकर भूखे बैठ गए हैं। वो सब तो खाते पीते रहते हैं,और आप...बस, अड़े हैं वन्दे मातरम, इन्कलाब-जिन्दाबाद करते. कभी कुछ ऊँच नीच हो जाये तब वो तो सरकार पर थोप कर अलग हो जायेंगे. निपटोगे आप और फ़ँसेगी ---बेचारी सरकार.

अरे भाई, हमारा क्या है? हम तो यहाँ भी मंदिर में सोये हैं पंखे में..और वहाँ तो चैम्बर  मिल गया था और बढि़या कूलर वगैरह लगा था,तो नींद भी ठीक से आ-जा रही थी. वो भी कह रहे थे कि एक दो दिन में सब सेट हो जायेगा फिर बढ़िया खाना खा लिजियेगा, तो रुके रहे. एक बार तो लगा भी था कि -सरकार और उनके चक्कर में हम पिस गये..१३ दिन निकल गये. मगर कम से कम यह बढ़िया रहा कि इस बहाने पूरा मेडिकल चैक अप- टॉप डॉक्टरों से और टॉप के अस्पताल में हो गया. शानदार गद्दे वाले बिस्तर पर तीन दिन सोये अनशन के बाद. अब कम से कम हेल्थ की तरफ से कुछ दिनों तक कोई टेंशन नहीं. ये तो पता ही था कि- उस समय कोई तो क्या अगर मैं खुद भी मरना चाहता  तो भी वेदांता अस्पताल के डॉक्टर मुझे मरने न देते. 

एक रात जब स्वास्थय को लेकर थोड़ा डाऊट था, तो पुलिस ने डिसाईड कर ही लिया था कि उठवा कर ग्लूकोज लगवा देंगे तो एक प्रकार से चिन्ता मुक्त ही था. ऐसे में मुझे जेड सिक्यूरिटी की क्या जरुरत?

देखिये अन्ना जी, आप समझ नहीं रहे, पिछले दिनों भी आपसे मिलने वाले छलनी होकर ही मिल रहे थे. जिन्हें आपके वो चार स्तंभ चाहते थे वो ही आपसे मिल सकते थे. तब जेड सिक्यूरिटी जैसा काम वो संभाले थे. अब उनका नाम और काम हो गया, वो अपने रास्ते पर चले गये हैं. फिर जब जरुरत पड़ेगी, तब फिर आवेंगे आपके पास. अभी उनको आपकी मेन टेंशन नहीं है, इसलिए सरकार को चिन्ता करनी पड़ रही है. सरकार तो आपका आभार भी कह चुकी है. प्लीज, ले लिजिये न जेड सिक्यूरिटी...ऐसी भी क्या नाराज़गी है सरकार से ...आखिर आपकी सो कॉल्ड जनता ने ही तो सरकार चुनी है...जब जनता आपकी है तो सरकार भी तो आपकी ही कहलाई..कभी हल्का मनमुटाव आपसी वालों में तो होता है, अब भूल भी जाईये उसे..ले लिजिये न प्लीज़ जेड सिक्यूरिटी. देखिये, मना मत करियेगा.

चलिये, अब आप इतनी चिन्ता जता रहे हैं, संबंधों की दुहाई दे रहे हैं तो आपका मान रख लेता हूँ. मगर पब्लिक को क्या कहूँगा कि तुम्हारा अपना मैं, तुम्हारे और मेरे बीच ऐसा बाड़ा क्यूँ बाँध रहा हूँ?

सर, आप अपनी शर्तें डाल दिजिये इस जेड सिक्यूरिटी को लेने में...

व्हाट एन आईडिया सर जी...आप तो मेरे भी अन्ना निकले ! !  तो ऐसा करो..जेड सिक्यूरिटी तो दो मगर सादी वेषभूशा में ----हैं भी है और नहीं भी. पब्लिक को पता भी न चले और मिल भी नहीं सकती. सादी वेशभूषा में ए के ४७ धारक.. सर्फ एक्सल की तरह काम भी बन जायेगा और वजह...बस ढूँढते रह जाओगे. यह बोलते वक्त न चाहते हुए भी जाने कैसे उनकी एक आँख चंचलता में दब ही गई और सुबह का समय था तो पोहा और केला खाने लगे.

बात आगे बढ़ाते हुए बोले कि एक बात ध्यान रखना कि जेड सिक्यूरिटी ले तो रहा हूँ मगर सिर्फ इतनी खबर और कर दो सरकार को...

क्या हुजूर..फरमायें?

देखो, अगले अनशन के लिए ऑफर लाल बत्ती की गाड़ी का चाहिए मगर कण्डीशन ये- कि उसमें लाल बत्ती न हो...आँख को दबाते वे बोले

हो जायेगा सर..

और उसके बाद वाले में दिल्ली में एक सरकारी बंगला..एयर कन्डिशन्ड...मगर स्प्लिट एसी..जो बाहर से न दिखें...

हो जायेगा, सर...

और फिर केबीनेट मिनिस्टर का दर्जा...मगर मैं कैबिनिट मिनिस्टर नहीं बनूँगा...

ठीक है सर...

और मंत्री वाली तनख्वाह  और भत्ते भी...

वैसे ये अलग से बताने की जरूरत नहीं ये तो खैर दर्जे के साथ पैकेज डील में आयेगा ही... है न!!

और मुझे लोकपाल का पद....

चलिये, इस पर भी विचार कर लेंगे...आखिर कितने साल के लिए देना ही होगा ये पद आपको 

क्यूँ...

सर, आप ७४ साल के हो चले हैं....तो ऐसे ही पूछ लिया ...

मगर जेड सिक्यूरिटी का फिर क्या फायदा?

सॉरी सर ...चलिए इस पर कमेटी बैठा देते हैं कि लोकपाल किस तरह नियुक्त किया जा सकता है... 

ओके,...और मेरे लिए भोजन के लिए खानसामा मेरे गाँव से, वो ही दिल्ली जायेगी जो पिछले ३० साल से मेरा खाना बना रही है....

मगर सर, वैसा खाना तो कोई भी बना देगा ...एकदम सादा है....

नहीं ! ! कोई भी कैसे बना सकता है ??और फ़िर  मुझे उसी के हाथ का खाना है..मेरी जिद्द...

सर, आप जिद्द बहुत करते हैं...चलिए कोशिश करेंगे वो भी हो जाए. 
वैसे .....आपकी डाईट तो आजकल दुबले होने की ख्वाहिश लिए युवाओं में अन्ना डाईट के नाम से पापुलर हो रही है...आपकी डाईट ने तो वाईब्रेशन क्रिएट कर दिया है फिटनेस फ्रीक्स में::

अन्ना डाईट...

सुबह एक कटोरी पोहा, दो केला
दोपहर में दो सूखी रोटी, एक कटोरी दाल, एक कम मसाले की हरी सब्जी
रात ७ बजे एक ग्लास फ्रेश फ्रूट ज्यूस....

बस!!!! 
अब आखिरी...

अब क्या?

एक इन्फोर्मेशन और निकलवा कर रख लेना बस, यूँ ही देखने के लिए चाहिये...

क्या?

ये स्विस बैंक में एकाऊन्ट कैसे खुलता है?

आप भी बहुत मजाकिया हैं सर जी...

हा हा!! चलो, कल से जेड सिक्यूरिटी भेज दो!!

ओके सर

याद आता है बचपन में बुजुर्गों से मिली नसीहत कि नशेड़ी पैदा नशेड़ी नहीं होते. शुरु में कोई मित्र हल्की सी चखवा देता है...फिर धीरे धीरे आदत लग जाती है. फिर उसके बिना रहा नहीं जाता. मात्रा भी बढ़ती जाती है और लो, बन गये नशेड़ी. अब वो उनकों ढूँढेगा, जहाँ से नशा मिल जाये...बस!!! और फिर सुविधाओं और पावर से बड़ा नशा और कौन सा?

drug-addiction

ये भी याद है कि पहले पंखा लगा मिल जाये तो अच्छी खासी गरमी में भी सुकून से सो लेते थे और अब हालत यह है कि ए सी न मिले तो कुलर में भी रात करवट बदलते ही गुजरती है. यह सुविधाओं की प्रवृति है, जकड़ लेना उसका स्वभाव!!

आज डा.अंजना संधीर की कविता, अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है, की याद भी अनायास ही हो आई.

डा.अंजना संधीर की कविता का अंश:
............
............
इसीलिए कहता हूँ कि
तुम नए हो,
अमरीका जब साँसों में बसने लगे,
तुम उड़ने लगो, तो सात समुंदर पार
अपनों के चेहरे याद रखना।
जब स्वाद में बसने लगे अमरीका,
तब अपने घर के खाने और माँ की रसोई याद करना ।
सुविधाओं में असुविधाएँ याद रखना।
यहीं से जाग जाना.....
संस्कृति की मशाल जलाए रखना
अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना ।
अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है!

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रविवार, सितंबर 04, 2011

यह नम्बर अब सेवा में नहीं है

कादम्बिनी के सितम्बर, २०११ में प्रकाशित मेरी कहानी:

kadimbini

मधु और आरती- दो जिस्म मगर एक जान हैं हम, को चरितार्थ करती बचपन की सहेलियाँ.

शायद ही सिटी इंजीनियरिंग  कॉलेज के केम्पस में कभी किसी ने दोनों को अलग अलग देखा हो. हॉस्टल से साथ निकलना, क्लास, लायब्रेरी में दिन भर साथ रहना, बाजार भी साथ-साथ और शाम को हॉस्टल भी साथ ही लौटना. डबल शेयरिंग वाले  कमरे में रह्ती भी दोनों साथ साथ. सहेलियाँ उन्हें जब भी खोजती या उनके बारे में बात भी करतीं, तो एक का नाम न लेतीं- हमेशा पूछा करतीं कि-- मधु-आरती नहीं दिख रहीं? 

इंजीनियरिंग के अंतिम साल में हॉस्टल की बजाय कैम्पस के बाहर कमरा लेकर रहना होता था, तब भी दोनों ने मिल कर किराये पर एक कमरा लिया. ऐसा नही कि उनमे या उनके स्वभाव में समानता ही थी दोनों में अंतर भी बहुत था. मधु घरेलु स्वभाव की लड़की थी. पढ़ाई के अलावा कमरा सजाना, साफ सफाई करना, मशीन में कपड़े धोना, इस्त्री करना, तरह-तरह का खाना बनाना आदि उसके शौक थे और वो यह सब बिना किसी शिकन के दोनों के लिए किया करती थी. वहीं आरती को पढ़ाई, किताबें, तरह-तरह की नई टेक्नालॉजी की बाते सीखते रहने की धुन थी. कैरियर ही उसके लिए सब कुछ था. मगर फिर भी दोनों में गाढ़ी दोस्ती थी.

इंजीनियरिंग खत्म हुई. कैम्पस इन्टरव्यू में ही आरती का सेलेक्शन एक मल्टी नेशनल के लिए हो गया था तो वह दिल्ली चली आई. मधु अपने शहर लौट गई और अपने घर पर रह कर ही उसी शहर में एक नौकरी करने लगी. शुर-शुरु में वादे के मुताबिक हर हफ्ते एक दूसरे को लम्बे लम्बे पत्र लिखती रहीं . दिन-दिन भर की गतिविधियों की जानकारी देती रहीं . धीरे-धीरे पत्रों की लम्बाई घटती गई और आवृति भी.

दोनों अपनी-अपनी जिन्दगियों में व्यस्त होती गई. मधु के घर वालों ने उसकी शादी तय कर दी. लड़का मुम्बई में मल्टी नेशनल में काम करता था. आरती को खबर की. उसे उसी दौरान कम्पनी की मीटिंग में सिंगापुर जाना था, तो वह शादी में नहीं आ पाई.

मधु शादी के बाद पति के साथ मुम्बई आ बसी. नई दुनिया,नए लोगो के बीच समय उड़ता गया. दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी हो गये. 

उधर आरती अपना कैरियर आगे बढ़ाती रही. घर वालों ने अनेक रिश्ते दिखाये मगर उसे तो बस कैरियर की चिन्ता थी. सब ठुकराती चली गई. हर बार अम्मा उसे रिश्ता बताती तो यही कहती कि अभी उम्र ही क्या हुई है? अभी इन सब झंझटों मे मुझे नहीं पड़ना. अभी मुझे अपने कैरियर पर कन्सन्ट्रेट करने दो. माँ-बाप भी आखिर क्या कर सकते हैं?  हार कर और मन मार कर चुप हो गये. 

अपनी अपनी दुनिया की बसाहट. मधु अपने बच्चों को बड़ा करने में भूल भी गई कि वो भी इंजीनियर है. अब वो और उसकी दुनिया बस उसका पति और उसके बच्चे हैं. समय के साथ बच्चे अच्छे स्कूलों में जाने लगे और मधु घर परिवार में बेहद संतुष्ट और खुशमय जीवन बिताने लगी. इन्हीं सब में आरती से संपर्क भी नहीं रहा. 

अब आरती अपनी कम्पनी की नेशनल हेड हो गई थी. कैरियर के लिए जो सपने संजोये थे, वो पूरे होने लगे. माता जी दो बरस पहले बिटिया की शादी के सपने दिल में ही लिए गुजर गईं और फिर कुछ माह पूर्व पिता जी भी. मृत्यु के एक माह पूर्व पिता जी को दिल्ली बुलवा लिया था. इलाज कराया बड़े अस्पताल में किन्तु बुढ़ापे का क्या इलाज और कौन सी दवा. असल दवा, बेटी का परिवार देखना, तो मिली ही नहीं, बाकी दवा क्या असर करती.

अब आरती इस दुनिया में अकेली थी अपने जुनून के साथ. सोचा कि एक दिन अपने शहर जाकर पिता जी वाला मकान बेच आयेगी और यूँ भी दिल्ली में तो उसने मकान ले ही लिया है. हाल फिलहाल चाचाजी को कहकर उसे किराये पर चढ़वा दिया था.

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वक्त की रफ्तार कब रुकती है. उम्र भी बढ़ चली. दिन भर दफ्तर में बीत जाता और शाम जब घर लौटती तो एक खालीपन, एकाकीपन आ घेरता. शीशे में खुद को निहारती तो घबरा जाती कि एकाएक कितनी उम्र निकल गई. अब जब शादी के लिए रिश्ता लेकर आने वाला, शादी की याद दिलाने वाला भी कोई नहीं बचा तब उसे एक साथी की कमी महसूस होना शुरु हुई. 

सोचा करती कि क्या इस कैरियर के पीछे भाग कर उसने जो पाया वही जिन्दगी है या मधु ने कैरियर दरकिनार कर जो पति, बच्चों के साथ जो सुख पाया, वो जिन्दगी है. या शायद कोई तीसरा विकल्प हो जिसमें कैरियर तो हो मगर उसके लिए वो दीवानापन नहीं और उस कैरियर के साथ ही सही वक्त पर शादी, परिवार, बच्चे और इस सबके बीच सहज सामन्जस्य बैठाता खुशमय जीवन.
अब उसे मधु भी याद आ जाती कभी-कभी.लेकिन मधु से कोई सम्पर्क नहीं रहा. न फोन नम्बर, न पता. वो अपनी ही दुनिया में खुश और मगन थी.

एक दिन दफ्तर की एक मीटिंग में दूसरी कम्पनी से कुछ लोगों का आना हुआ. अजय भी उस टीम का सदस्य था. मीटिंग में काफी बातचीत हुई और शाम को जब निकलने लगी तो अजय ने उसे कॉफी पर चलने का निमंत्रण दे डाला. घर जाकर भी कोई काम तो था नहीं तो उसने उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया.

उस शाम देर तक कॉफी हाऊस में दोनों की बातें होती रहीं. अजय दिल्ली में ही एक बड़ी मल्टी नेशनल का हेड था, फिर एक दो मीटिंग और कॉफ़ी का निमंत्रण. आरती जल्दी ही उससे खुल गई. अजय से पता चला कि अजय की पत्नी शादी के एक साल बाद ही गुजर गई और तबसे उसे समय ही नहीं मिला कि फिर से शादी के बारे में सोचता. मगर उसने बताया कि अब उम्र के इस पड़ाव में उसे एक सच्चे साथी की जरुरत महसूस होने लगी है. घर पर खालीपन खाने दौड़ता है.

दोनों का दुख एक ही. जल्द ही करीब आ गये. अक्सर ही कभी लंच, कभी डिनर से होते हुए कब दोनों साथ ही कुल्लु मनाली भी छुट्टियाँ मना आये, पता ही नहीं चला. वक्त फिर पंख लगा कर उड़ने लगा. आरती को लगता कि जल्द ही अजय उससे शादी की बात करे. यूँ भी बचा क्या था शादी के लिए, सिर्फ एक औपचारिकता और मुहर.

अजय दफ्तर के काम से दो माह के लिए अमेरीका चला गया. आरती इस बीच अपने शहर जाकर पिता जी का घर भी बेच आई. मधु भी उसी शहर से थी तो किसी के माध्यम से उसका मुम्बई का फोन नम्बर और पता लेते आई. मधु का घर भी इन्हीं कुछ परिस्थियों में मधु के भाई ने बेच कर खुद को किसी और शहर में बसा लिया था.

दिल्ली लौटी, तब मधु को फोन लगाया. इतने साल बाद अपनी प्रिय सहेली की आवाज सुन कर मधु तो खुशी के मारे चीख ही पड़ी. बस, मधु की एक ही जिद्द कि तू जल्दी मुम्बई आ, तुझसे मिलना है. खूब बातें करनी हैं. बस, चली आ तुरंत.

अगले दिन ही ऑफिस के कार्य के सिलसिले में आरती को पूना जाना पड़ा. उसने तभी मन बना लिया कि हफ्ते भर की छुट्टी भी साथ ही ले लेती हूँ और पूना से ही मुम्बई जाकर मधु के साथ आराम से रहूँगी. खूब बात करुँगी और फिर वापस आऊँगी.

मधु को फोन पर सूचित कर दिया. पूना से काम खत्म कर शाम को ही टैक्सी से मधु के पास जाने के लिये निकल पड़ी. रास्ते में दो-दो बार मधु से बात हुई कि जल्दी आ, खाने पर हम सब तेरा इन्तजार कर रहे हैं.

दरवाजे पर मधु बाहर ही इन्तजार करते मिली. देखते ही लिपट गई. आसूँओं की अविरल धारा बह निकली. दोनों सहेलियाँ एक दूसरे से लिपटी देर तक रोती रही. टैक्सी वाले ने जब जाने के लिए आवाज दी तो तन्द्रा टूटी. दोनों मुस्कराईं टैक्सी वाले को विदा कर दोनों घर के भीतर आ गई. मधु ने दोनों बच्चों से मिलवाया.ये कहते हुए कि-  बस, कालेज जाने वाले हैं इस साल से,छोटे साहबजादे भी. 
तुम फ्रेश हो लो कहते हुए आरती को अन्दर बेडरूम में ले गई मधु. मेरे पति देव  भी आते ही होंगे, तीन दिन से बैंगलोर में थे टूर पर, बस, फ्लाईट आ गई है. एयरपोर्ट से रास्ते में ही है, अभी बताना शुरु ही किया था मधु ने कि दरवाजे पर घंटी बजी और उसके पति आ गये. मधु ने आरती को ड्राईंगरुम से आवाज देकर बुलाया और मिलवाया- ये हैं मेरे प्यारे पति, अजय!!!

आरती के तो पैरों तले से जैसे जमीन ही खिसक गई. अजय मधु का पति?? यहाँ मुम्बई में? वो तो अमेरीका गया हुआ था दो महिने के लिए.

अजय भी अवाक खड़ा था. आरती दोनों हाथ जोड़े नमस्ते की मुद्रा में सन्न!!!! उसे लगा कि वो मूर्छित हो कर गिर जायेगी और मधु, वो तो बस अपने बोलने में ही मस्त थी कि आजकल अजय भी तो अधिकतर दिल्ली में ही रहते हैं. कम्पनी का दिल्ली ऑफिस सेट अप कर रहे हैं. उस दिन जब तेरा फोन आया तो सोचा कि तुझे बताऊँ लेकिन तब अजय बैंगलोर गये थे और मै तुझे सरप्राईज देना चाहती थी.

किसी तरह आरती ने अपने आपको संभाला. अजय यह कह कर अंदर चला गया कि ’बहुत ज्यादा थक गया है. स्नैक्स बैंगलोर में ही खा चुका है. कुछ हैवी लग रहा है. शॉवर लेकर सोयेगा. सुबह उठ कर आराम से बातें करते हैं, कल मेरी छुट्टी भी है.’ 

मधु आरती के साथ ड्राईंगरुम में आ बैठी. आरती की हालत देख मधु ने उससे पूछा भी कि क्या बात है, तबीयत ठीक नहीं लग रही है क्या?

आरती सर दर्द का बहाना बना कर टाल गई. कब खाना लगा, बेमन से  कब खा लिया, आरती को कुछ पता ही नहीं लगा. एकाएक उसने मन ही मन कुछ तय किया और मधु से कहा कि यार, दफ्तर का एस एम एस आया है, मुझे तुरंत दिल्ली जाना होगा. कल सुबह सुबह कोई अर्जेन्ट मीटिंग आ गई है जिसे टाला नहीं जा सकता .मधु तो अजय की वजह से मल्टी नेशनल के सीनियर एक्जूकेटिव्स की कार्य प्रणाली से वाकिफ थी ही. उसने भी बहुत जिद नहीं की. टैक्सी को फोन कर दिया और देर रात की फ्लाईट ले आरती वापस दिल्ली आ गई. 

अगली सुबह ही दफ्तर जाकर आरती ने इस्तीफा दिया और एक ब्रोकर से बात कर घर जिस भाव में बिका, बिकवा दिया और निकल पड़ी एक अनजान शहर की ओर एक अनजान जिन्दगी बिताने. मधु का फोन नम्बर, पता, अजय का फोन नम्बर- ना सिर्फ उसने अपने फोन से बल्कि जेहन से भी मिटा दिया हमेशा हमेशा के लिए. 

आज वो कहाँ है, कोई नहीं जानता.

मधु के अनुसार- उसका फोन नम्बर कहता है- ’यह नम्बर अब सेवा में नहीं है.’

धुँध को चीरती रेल

धड़धड़ाती हुई

रुकती हैं प्लेटफॉर्म पर

उतरते हैं कुछ यात्री

चढ़ते हैं कुछ यात्री

मचती है अफरा तफरी

और फिर धीरे धीरे 

चल पड़ती है रेल

अपने पीछे छोड़ कर

एक सन्नाटा

खो जाती है 

उसी धुँध में...

-जीवन के कुछ और भेद जाने हैं मैने!!!!!!!

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अगस्त 22, 2011

एडिनबर्ग नहीं एडनबरा, स्कॉटलैण्ड: एक ऐतिहासिक नगरी की सैर

पिछले दिनों एक पोस्ट लिखी...दूरियाँ जो घंटों में नापी गई...फिर एडिनबरा, स्कॉटलैण्ड की यात्रा का वृतांत राजस्थान पत्रिका के इंदौर संस्करण से 9 अगस्त, 2011 में प्रकाशित हुआ....मगर थे दोनों इसी आलेख के भाग...हर जगह पूरा छपना संभव नहीं होता..अतः टुकड़े टुकड़े दिये गये...पूरा और अधिक विस्तार से अब पढ़ें:

विचार बना कि जब यॉर्क, यू.के. तक आ ही गये हैं तो दो दिनों के लिए ऐतिहासिक नगरी एडनबर्ग, स्कॉटलैंड भी हो आया जाया. इच्छा जाहिर करने पर सबसे पहले यह बताया गया कि इस शहर को लिखते एडनबर्ग हैं मगर कहते एडनबरा है. मान गये और सीख लिया एडनबरा बोलना, ठीक वैसे ही जैसे बचपन से स्कूल में मास्साब सिखाते रहे कि कनाडा की राजधानी ओटावा और कनाडा पहुँच कर पता चला कि उसे आटवा बुलाते हैं. अच्छा है कि हमारा नाम लिखते भी समीर लाल हैं और बुलाते भी समीर लाल है, नहीं तो एक समझाईश का काम और सर पर आ टपकता. बताया गया कि यॉर्क से ४ घंटे दूर है.
दंग हूँ इस नये फैशन पर जिसमें दूरियाँ घंटों में नापी जाने लगी हैं. वैसे है १६१ मील याने लगभग २५९ किमी.
खैर,  कार में सवार हो एडनबरा पहुँच ही गये. ऑनलाईन बुक करते समय दो गेस्टहाऊस इस लिए रिजेक्ट कर दिये थे कि वो दूसरी मंजिल पर थे और तीस सीढ़ियाँ चढ़कर जाना (वहाँ गेस्टहाऊसेस घरों को बदल कर बनाये गये हैं अतः लिफ्ट नहीं होती) हमारी जैसी काया के संग अगर टाला जा सके तो ही बेहतर. जो गेस्ट हाऊस बुक किया था, वो था तो ग्राउन्ड फ्लोर से ही मगर उसमें बाहर से न हो कर अंदर से तीस सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरे मंजिल पर कमरे थे. ग्राउन्ड फ्लोर पर रेस्त्रां और रिसेप्शन और प्रथम तल पर मालिक का घर. ले दे कर किसी तरफ हाँफते फुफकारते चढ़ ही गये तो शाम हो चली थी, अतः फिर उतरे नहीं कि अब कल सब घूमा जायेगा. खाना तो साथ था ही, वो ही पूड़ी, करेले की सब्जी और पुलाव. सच्चे भारतीय, फ्री की चाय कमरे में ही बना कर दो बार पी ली और भोजन कर के सो गये.
अर्थशास्त्र के पितामह कहे जाने वाले एडम स्मिथ का शहर, फोन के अविष्कारक ग्राहम बेल का शहर..सुबह नींद खुली तो मौसम कुछ ज्ञानी ज्ञानी सा होने का अहसास देता रहा. हवा का असर होगा. याद आई हरिद्वार की सुबह, अक्सर बहुत धार्मिकता का अहसास करा जाती थी.
खिड़की के बाहर दिखता ऊँचा टीलानुमा पहाड़ और उस पर ट्रेकिंग करते लोग. मुश्किल से ७ बजा होगा और कुछ लोग तो लगभग टीले की चोटी पर पहुँचने ही वाले थे. पता किया तो ज्ञात हुआ कि लगभग ३.३० घंटे लगते हैं ट्रेकिंग में मतलब जो टीले के उपर पहुँचने वाले हैं वो ३.३० बजे रात से लगे होंगे इस कार्य को अंजाम देने में. अब ये तो अपने अपने शौक और शरीर हैं, हमारा तो ऐसे शौकों और इनको पालने वाले प्राणियों को दूर से नमन. हमारी तरफ से दुआएँ है कि आप कभी भारत पधार कर माऊन्ट एवरेस्ट चढ़े, हमारा क्या ले लोगे. ट्रेकिंग का जायजा खिड़की से लेकर स्नान ध्यान से फुरसत हो नीचे रेस्त्रां में नाश्ता किया गया, कमरे के किराये में शामिल था सुबह का कान्टिनेन्टल नाश्ता, तो दबा कर के कर लिया ताकि लंच की जरुरत ही न पड़े (आपको पहले ही बता दिया था न कि सच्चा भारतीय हूँ)

गेस्ट हाऊस के सामने से ही बस चल रही थीं. पता करके डे पास ले लिया. अब जितनी बार दिन भर में मन करे, बस पकड़ो, बदलो और घूमो. बस ने एडनबरा के किले के नीचे वेवरली (Waverley) पुल पर लाकर उतार दिया. गजब का जमघट. लगातार आती जाती बसों का रेला. मात्र ५ लाख की आबादी वाला शहर, देखकर लगा मानो वो सारे ५ लाख तो इसी एरिया में घूम रहे हैं, घास पर जोड़ा बना बना कर लेटे, बैठे, आलिंगनबद्ध और तरह तरह की भाव भंगिमाओं मे सभी यहीं चले आयें है कि समीर लाल आ रहे हैं, एक झलक मिल जायेगी. पता चला कि जितनी आबादी है, उतने ही टूरिस्ट भी हर वक्त यहाँ इस शहर में मौजूद रहते हैं और इस शहर को विश्वपटल पर सैलानियों के बीच अपने उपन्यास से इतना प्रचलित करने वाला, जिनके १८१४ में लिखे एतिहासिक उपन्यास वेवरली के नाम पर इस पुल का नाम वेवरली रखा गया और उससे सटा हुआ एक बहुत बड़ा स्मारक और पार्क उन्हीं के नाम उनकी ऊँची मूर्ति के साथ बना हुआ है, सर वाल्टर स्कॉट. हालात यह कि उसके बाद उनके लिखे कई उपन्यास वेवरली सिरीज़ के नाम से जाने जाते रहे और उनके प्रचार के लिए हर उपन्यास पर लिखा जाता रहा कि ’बाई द ऑथर ऑफ वेवरली’. इस उपन्यास के चलते प्रिन्स रिजेन्ट जार्ज ने १८१५ में सर स्कॉट को अपने महल में भोज पर आमंत्रित किया क्यूँकि वो वेवरली के उपन्यासकार से मिलना चाहते थे. आज भी सारी टूरिस्ट बसों में गाईड भगवान का दर्जा देते हुए उनका नाम उदघोषित करते हैं कि टूरिस्ट के बीच इसे प्रचलित कर हमें रोजी रोटी मुहैया कराने वाला सर वाल्टर स्कॉट. मन में विचार आया कि उपन्यास का नाम वेवरली क्यूँ रखा तो पता चला कि जिस पैन से उन्होंने उपन्यास लिखी थी, वह स्कॉटलैण्ड की पैन बनाने वाली कम्पनी वेवरली के द्वारा निर्मित थी.

कभी सोचता हूँ कि काश!! देश की तो छोड़ो, मोहल्ले में भी अपने साथ ऐसा हो जाये और पुल की जगह पुलिया का ही नामकरण हो ले तो उसका नाम पड़ेगा ’देख लूँ तो चलूँ’ , हा हा!! नाम तो बुरा नहीं है और हो भी तो क्या, हमारा तो पहला उपन्यास यही है.  वैसे वेवरली को आधार माना जाये तो मेरा उपन्यास तो पैन से लिखा ही नहीं गया, सीधे डेल कम्प्यूटर की बोर्ड से निकला तो उसका नाम पड़ता ’डेल’ और फिर सोचो, पुलिया का नाम ’डेल पुलिया’ कैसा लगता भला? और रही भोज आमंत्रण की बात, तो वो तो हमें ही इस काम को अंजाम तक पहुँचाने के लिए न जाने कितने लोगों को देना पड़ेगा.

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सर वाल्टर स्कॉट के दर्शन कर के भीड़ भाड़ से कटते बचते चल पड़े किले की ओर. सामने ही दिख रहा था. सामने लेकिन उपर..पता चला कि २०० तो सीढ़ियाँ चढ़नी है और फिर पहाड़ के बीच से चढ़ाईदार सड़कों पर करीब ३ किलोमीटर चल कर. रास्ता सुनते सुनते ही गला सूख आया. विकल्प पता किये गये और एक टूरिस्ट पैकेज खरीद कर उसकी खुली छत वाली बस में सवार हो लिए. बड़ा आराम मिला और जानकारी तो इतनी सारी गाईड ने दी कि सब घुलमिल गई. हर बिल्डिंग का एक इतिहास, हर सड़क से लेकर पत्थर, नाले,  पेड़, पौधे, पक्षी तक ऐतिहासिक. नेता के सारे साथी नेता. संगत की बात है. बस ने घुमाते फिराते रॉयल कैसल के मिख्य द्वार पर उतारा. थोड़ा ही चलना पड़ा मगर वो भी काफी था. किले की दीवार से बाद में झाँक कर वो जगह भी देखी, जहाँ से हम पैदल आने वाले थे. कलेजा मूँह में आ गया कि अगर पैदल उपर आने का निर्णय ले लिया होता तो शायद आधे रास्ते से ही बिल्कुल उपर निकल गये होते. सलाह है कि टूरिस्ट बस के पैसे खर्च करो, मजे से घूमो. जानकारी भी गाईड से मिलेगी, घूमेंगे भी ज्यादा और आराम भी रहेगा. कोई खास मंहगा भी नहीं है. कहीं भी उतरो, घूमो और आने वाली अगली टूरिस्ट बस पकड़ो. सुबह जो पास लिया था वो सिटी बस का होता है सिर्फ शहर घूमने को. टूरिस्ट स्पॉट की बस अलग होती है.

वैसे एडनबरा अपने सालाना ४ सप्ताह के उत्सव के लिए विख्यात है जो अगस्त के पहले सप्ताह से शुरु होता है. उस समय सैलानियों का हुजूम उमड़ पड़ता है. उमड़ा तो खैर हर वक्त रहता है, उस वक्त शायद और ज्यादा हो जाता हो. सालाना उत्सव कई सरकारी और गैर सरकारी उत्सवों को मिलाकर आयोजित किया जाता है जिसमें विशाल पर्फोर्मिंग आर्ट उत्सव, बुक फेस्टीवल, अंतर्राष्ट्रीय उत्सव, मिलेटरी टेटू उत्सव आदि शामिल रहते हैं. स्कॉटलैण्ड की पारम्परिक वेशभूषा में बैगपाईपर बजाते हुए खड़े लोग और उनके साथ सैलानी अपनी तस्वीर खिंचवाते हर जगह दिख जायेंगे.

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किले के द्वार पर ही मिलेटरी टेटू उत्सव के लिए स्टेडियम की तैयारी चल रही थी. किले ऊँचाई पर बने होने के सिवाय कोई खास आकर्षित नहीं करता. जिसने भी भारत में राजस्थान, मैसूर, आगरा आदि के किले देखें हैं, उनके लिए यह किला खिलौना ही नजर आयेगा. इंगलैण्ड, स्कॉटलैण्ड आदि में तो खैर जो हो रॉयल ही होगा. खाना तक तो रॉयल डिनर करके खाते हैं, तो रॉयल के नाम पर इस किले को देखना और उस पर से वो रॉयल बेन्केट हॉल, जिसमें रॉयल डिनर आयोजित किये जाते थे, वो किसी वाय एम सी ए के डिनर हाल से ज्यादा न निकला. नाम है, तो घूमे, इतिहास सुना, किले के अंदर चैपल भी देखी जिसमें पहले रानी साहिबा रहती थी. आजकल आप उसे बुक करके उसमें अपनी शादी करवा सकते हैं. फायदा ये है कि एक तो रॉयल चैपल में ब्याहे जाने की प्रमाणपत्र मिलेगा और गेस्ट लिस्ट छोटी सी रहेगी क्यूँकि उसमें कुल जमा २० मेहमानों की ही जगह है तो उससे ज्यादा क्या बुलवा लोगे.

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वहाँ से थक कर निकले, तो सामने ही स्कॉच टेस्टिंग का सेंटर था. एक दो छोटे छोटे शॉट टेस्ट किये और एक बोतल खरीद भी ली. स्कॉच के लिए स्कॉटलैण्ड यूँ भी विख्यात है और इसके स्कॉच टेस्टिंग सेन्टर सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं. फिर बस पकड़ी और जो सारा शहर घुमाते, बताते, रॉयल पैलेस, म्यूजियम, लायब्रेरी, यूनिवर्सिटी, जानवरों का बाजार, अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के नाम का हॉल, शरलॉक होम्स वाले सर आर्थर कोनन डोयल के बारे में बताते, बाजार होते हुए शाम तक वापस ले आई वेवरली पुल पर. बाजू में ही बेस्ट होटल ऑफ द वर्ल्ड ’द बलमोरल है. यूँ तो सस्ते से सस्ता कमरा भी वहाँ पर ३५० यूरो का है मगर देखने के क्या पैसे. देखना जरुर चाहिये. ठहरे तो गेस्ट हाऊस में हैं ही, सोना ही तो है. कोई लोरी तो सुनाने से रहा ’द बलमोरल’ में.

एक खासियत और हम भारतीयों की, जिस दूसरे देश के शहर में जायेंगे, खाने के लिए भारतीय रेस्त्रां तलाशने लगते हैं. भले ही भारत में इटालियन पिज़्ज़ा, बर्गर, चाईनीज़, ग्रीक खाने भागें मगर देश से निकलते ही भारतीय रेस्त्रां की तलाश शुरु. सो हमने भी खोज लिया ’ताजमहल रेस्त्रां’. भारतीय खाना खाकर लौट आये गेस्ट हाऊस, वो सुबह वाले पास से बस पकड़ कर.

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अगली सुबह पुनः वही कान्टिनेन्टल स्टाईल फ्री का नाश्ते भरपेट किया और चैक आऊट कर निकल पड़े अपनी कार से कुछ बाजार करने और उसके बाद रॉयल यॉच (The Royal Yacht) देखते हुए, जो अब एडनबरा के समुन्द्र में खड़ा है किन्तु कभी महारानी का जल निवास हुआ करता था. उसके आस पास बहुत सुन्दर मॉल भी है लेकिन बाजार चूँकि पहले ही कर चुके थे, अतः उसमें जाकर समय गंवाने का कोई फायदा नहीं था. यूँ भी यूरोप में खरीददारी कुछ जरुरत से ज्यादा ही मंहगी है.

शाम घिरने से पहले निकल पड़े यॉर्क के लिए वापस लेकिन इस बार समुन्द्र के किनारे किनारे चलने वाले मार्ग से. सुन्दर प्राकृतिक सौदर्य निहारते, फोटो खींचते खिंचाते !!!

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बुधवार, अगस्त 17, 2011

मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए..

शाम को थके हारे लौटे और ईमेल खोला.

पहला ईमेल लॉटरी वाला था ५ मिलियन की फिर खुल गई. यह जानते हुए भी कि यह झूठ है, अच्छा लगता है. इन नेताओं के चलते झूठ बातों से अच्छा लगने का सिलसिला हर भारतीयों के खून में रच बस गया है. दशकों से झूठ बोल बोल कर बहला रहे हैं और हम सब आदतन बहल रहे हैं. कभी पंच वर्षीय योजना से बहल कर खुश हो लेते हैं तो कभी भारत विकास की राह पर है, सुन कर तो कभी १५ अगस्त से भ्रष्ट्राचार की समाप्ति की बात सुन कर, तो कभी कुछ और. रोज देखता हूँ अपने ईमेल में ऐसे कई ईमेल. कोई कोकाकोला से, तो कोई याहू से ५ मिलियन जितवा कर प्रसन्न किये हुए हैं. हर बार डिलिट करने के पहले नमन करता हूँ और फिर डिलिट. डिलिट करने का कतई दुख नहीं होता, मालूम है कल दूसरे तीन आयेंगे जितवाने. सोचता हूँ इस बाबत आये ईमेलों को दफ्तर से प्रिन्ट कर कर के ला ला कर रखा होता तो अब तक ५०० रुपये तो रद्दी बेचने के मिल ही गये होते.

इनको मिटाता हूँ और फिर उसके आगे की श्रृंखला में किसी की दर्द भरी ईमेल देख आँख नम हो जाती है. यह भी नित होता है. मैं फलाने राष्ट्र के फलाने सुपर डुपर की इकलौती संतान हूँ. सत्ता पलट में मेरे पिता जी को राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला कर मार डाला गया है. उनके खाते में १८ मिलियन यू एस डॉलर रखे हैं जो मैं आपको स्थांतरित करवाना चाहती हूँ. इस मदद की एवज में आधा आप रख लेना और आधा मुझे दे देना. आपके बारे में पता चला कि आप बहुत भले आदमी हैं और लोगों की मदद करते हैं. मेरी भी करिये, यह अनाथ यह एहसान कभी नहीं भूलेगी. पहले तो सोचता हूँ कि एकदम सरासर झूठ बोल रही है चोट्टी कहिंकी. फिर लगता है कि सरासर तो नहीं, बेचारी ने जब इतना सच सच लिखा है कि आप बहुत भले आदमी हैं और लोगों की मदद करते हैं. तो शायद बाकी बातें भी सच हों. कौन जाने, दुखियारी किस हाल में हो?

नम आँखें पोंछ सोचता हूँ कि चलो, रात में एक दो पैग पीने के बाद, जब भावुकता चरम पर होगी तब विचार करके जबाब देंगे जैसा कि अक्सर देखा है कि नितीगत निर्णय सरकार देर रात ही लेती है और फिर चल पड़ा अगली ईमेल पर, वो किसी बैंक अधिकारी की है जिनके पास एक खाते में २० मिलियन यू एस डॉलर हैं, जिस खाते का असली मालिक एक हवाई दुर्घटना में मारा गया है और खाते पर उसका कोई वारिस नहीं है. ये अधिकारी मेरे डिटेल्स, मेरे खाते का विवरण, शपथपत्र मँगवा कर उसे खाते में नथ्थी कर देंगे और फिर २० मिलियन ये मेरे खाते में डलवा कर मेरी इस घोर मेहनत के लिए आधी रकम याने १० मिलियन मुझे दे देंगे और आधी खुद लेंगे. इस कार्य के लिए मुझे चुनने का कारण मेरी विश्वश्नियता और शराफत बताया गया है. यहाँ भी लगा कि बंदा यह वाली विश्वश्नियता और शराफत की बात तो सही ही कह रहा है. खुद की कमीज के छेद भला आज तक किसी को दिखे हैं क्या जो मुझे दिखें.

तीसरा ईमेल भी ऐसा ही, फिर २० मिलियन मगर इस बार किसी की इन्श्योरेन्स का पैसा. फिर कोई नामित नहीं.

ओह!! अब समझ आया कि सभी आधा आधा बाँट रहे हैं. ये तो अपने खद्दरधारियों जैसे निकले. चेहरे अलग अलग, स्टेटमेन्ट अलग अलग और कर्म सबके एक. शायद भ्रमित हो गये हों कि ये बंदा कनाडा में रहता है तो केनेडियन होगा गोरा वाला, शायद जानते न हों कि मैं भारत से हूँ. सब समझता हूँ ऐसी चालबाजियों को. दरअसल, बचपन से सीखते समझते हालात तो ऐसे हुए हैं कि अब सिर्फ चालबाजियाँ ही समझता हूँ. आदत भी ऐसी पड़ गई है कि कोई सच में कुछ सच सच बताये तो उसमें भी चालबाजी खोजने लगता हूँ. अतः अनुभव के आधार पर इन तीनों को भी डिलिट कर देता हूँ. मालूम है कि कल फिर तीन दुख के मारे, वक्त के सताये मुझे १० -१० मिलियन देने आकर खड़े हो जायेंगे. कोई कमी थोड़ी है हमारी भलमनसाहत,  विश्वश्नियता और शराफत पर विश्वास रखने वालों की. भारत से भले कोई न करे मगर हमारा ऐसा स्तुति गान करने वाले, इंग्लैण्ड, हाँगकाँग, नाईजिरिया, सूडान और भी जाने कहाँ कहाँ फैले हैं, कई देशों के नाम तो उनसे मिली ईमेल से ही पहली बार सुनकर नक्शे में खोजता रहता हूँ. धन तो खैर हाथ का मैल है आना जाना लगा रहेगा मगर सामान्य ज्ञान और भूगोल ज्ञान में हुआ इजाफा काबिले तारीफ रहा इन ईमेलों के माध्यम से. इनका साधुवाद इस हेतु.

फिर इनसे निपट अगले तीन ईमेल देखता हूँ. लिखती है कि आपकी तस्वीर नेट पर देखी. यू लुक हैण्डसम. स्टेटमेन्ट में सच्चाई है अतः आगे पढ़ता हूँ. लिखा है कि मुझसे दोस्ती करोगे? मैं बहुत अकेली हूँ और आपसे फन के लिए दोस्ती करना चाहती हूँ. अपनी और तस्वीरें फलाना ईमेल पर भेजो फिर मैं भी तुमको अपनी वैसी वाली तस्वीरों का वेब लिंक भेजूँगी. ओके बाय, अब स्कूल जा रही हूँ, लौट कर ईमेल चैक करुँगी.

अब बताओं, उम्र के इस पड़ाव पर पोता खिलायें कि इनको तस्वीर भेज कर इनकी वैसी वाली तस्वीरें मंगा कर इनके साथ फन के लिए दोस्ती करें. ठीक है जी कि कवि हृदय है, कोमल होता है. आपके एकाकीपन की व्यथा देख भावुक भी हुए मगर कुछ तो ख्याल करो. हमारा नहीं तो कम से कम हमारे पोते का ही कर लो. कुछ साल ठहर जाओ फिर उसे ईमेल कर देना, वो भेज देगा अपनी तस्वीरें. उसकी उम्र के हिसाब से उसे सुहायेगी भी.

क्या करते सो भारी मन से इन्हें भी डिलिट किया और यह क्या? आज एक ईमेल चाईनिज में लिखा आया है. हो सकता है कोरियन में हो या जपानी में हो मगर हम हिन्दी के सैनिकों के लिए तो उस दिशा की सारी गोली बोली एक सी हैं कम से कम दिखने में तो. अगर सच में भाषा जान भी जायें कि कौन सी है तो पढ़ सकने से तो रहे. पुलिस वालों का सा हाल है कि जिस भी हत्यारे को न पकड़ पाओ, आतंकवादी घोषित कर दो. फुरसत! अब पड़ोसी देश सफाई देता रहे कि हमारे यहाँ का नहीं है.

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तो खैर मैं उसे चायनीज़ में लिखा मान कर चल रहा हूँ. डिलिट करने की इच्छा होते हुए डर रहा हूँ या यूँ कहें कि संकोच कर रहा हूँ कि कहीं चाईना में कोई सम्मान समारोह में सम्मानित करने के लिए तो नहीं बुलाया गया है और मैं डिलिट करके बैठ जाऊँ. बाद में पछताने के सिवाय क्या हाथ लगेगा? हो सकता है हिन्दी के प्रचार प्रसार का हमारा जज्बा देखकर वो चाईनीज़ के प्रसार प्रसार के लिए मुझे प्रेरणा पुँज मानते हों और बुलाकर सम्मान करना चाहते हों, कौन जाने!!! वैसे भी सम्मान समारोह में, मुद्दा आपका काम नहीं, मुद्दा उनके द्वारा सम्मान देने का है. दृढ़ इच्छा शाक्ति सम्मान के प्रायोजकों की मायने रखती है, फिर एक बार उन्होंने यह तय मान लिया कि आपका सम्मान करना है तो सम्मानित करने की कोई न कोई वजह तो हर व्यक्ति में निकाली जा सकती है.

बहुत संभव है कि शायद मुझे बुला कर सम्मान में चाईना रत्न या चाईना का साहित्य भूषण देना चाहते हों. हो सकता है कि चाईना रत्न बिना जुगाड़ के सच में सराहनीय कार्य करने के लिए दिया जाता हो या चाईना साहित्य भूषण वाकई साहित्यिक प्रतिभा को आधार मान कर देते हों. भारतीय होने की वजह से यह किचिंत आश्चर्यजनक बात लग सकती है किन्तु हर देश के अपने अपने रिवाज और नितियाँ होती हैं. हो सकता है चाईना में ऐसा होता हो.

और जब बात सम्मान की है तो यूँ भी हिन्दी वालों को सम्मान के सिवाय और उम्मीद भी कौन बात की रहती है. नगद या बुकर प्राईज़ तो मिलने से रहा!! जो भी नगद राशि सम्मान प्रशस्ति पत्र के साथ नथ्थी कर दो, सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं. वरना तो शाल और नारियल में भी हर्षित रहते हैं.

समारोहों के नाम पर सम्मान समारोह ही एक ऐसा समारोह है जिसमें जब भी किसी ने बुलाया है, आज तक चीटिंग नहीं हुई. हमेशा सम्मानित किये गये. भले ही हड़बड़ी में पचास सम्मानितों की भीड़ में भागते दौड़ते सम्मानित हो गये हों -भूलवश किसी और का सम्मान पत्र हाथ में थामें मंच से उतरे हों मगर सम्मानित हुए जरुर. इसलिए इसे तो किसी से पढ़वा कर, समझ कर ही डिलिट करेंगे. आपमें से कोई चायनीज़ जानता हो तो मदद करो इस दुखियारे की. कहीं सम्मान से वंचित न रह जाऊँ. हो सकता है चाईना रत्न ही हो.

जब इसे छोड़ बाकी ईमेल डिलिट कर रहा हूँ तब ऐसे में..मैं पल दो पल का शायर हूँ - गीत की पंक्तियाँ नया रुप धर कान में गुँजने लगती हैं:

कल और आएंगे नगदी की थैली तुमको देने वाले,
मुझसे बेहतर ऑफर वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले ।
कल कोई मुझ को डिलिट करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे॥

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अगस्त 10, 2011

डायरी के पीले पड़ चुके कुछ आवारा उखड़ते पन्ने

-१-
मैं बार बार वापस आने को उठता हूँ क्यूँकि मुझे पता है तुम रोक लोगी मुझे...मेरा हाथ थाम कर बिना कुछ कहे उन नम आँखों से मुझे ताकते...तुम्हारी आँखों से बात करने की अदा...और वो नाजुक छुअन का अहसास...बार बार वापस आने के लिए उठने का मन करता है.....

-२-
आज ढलती शाम फिर तुम कुछ उदास, बुझी बुझी सी छत पर मुझसे मिलने आई..आज फिर दूर बगीचे से उस काले और नारंगी डैने वाली चिड़िया ने एक मधुर गीत गुनगुनाया...शायद वो जान गई थी कि तुम कुछ उदास हो...मैं और तुम आसमान में न जाने क्या ताकते उस चिड़िया का गीत सुनते रहे...फिर तुमने मेरी तरफ देखा मेरी नजरों में अपनी नजरें डाल कर...और मुस्करा उठी...खो गये हम एक दूसरे की आँखों में. चिड़िया शायद तब निश्चिंत होकर सो गई...रात ने अपनी पहली अंगड़ाई ली है अभी...चाँद उल्लास में आसमान पर सितारे टांक रहा है हौले हौले...कि तुम्हारे मुस्कराने का उत्सव जो मनाना है अभी.....

-३-
वो मुझसे कहती है कि " तुम पान खाना छोड़ क्यूँ नहीं देते...जानते हो मैं जबाब नहीं दे पाती, जब अम्मा पूछती हैं मेरे ओठों की लाली का सबब.."
मैं सोच में हूँ कि अपने गुलाबी गालों और चमकीली आँखों के लिए क्या जबाब देती होगी वो अम्मा को?

और कुछ पन्ने उसके जाने के बाद:

-४-
कुछ सँवार कर लिखने की आदत ऐसी रही कि हमेशा ही दो कलम लिए घूमता रहा..एक लाल और एक काली...नीली रोशनाई आँख में चुभन देती थी सो कभी न भाई. वर्तमान लिखता तो काली स्याही की कलम से और अतीत की चुभन को लाल स्याही से उकेरता....तन्हा रातों में गुजरता उन पन्नों से ...शब्द शब्द चींटिंयों से रेंगते नज़र आते हैं..काली और लाल चीटियों की कतारें..रेंगती मेरे शरीर पर ..काली एक सिहरन पैदा करती और लाल अपने डंक गड़ाती-काटती..एक खामोश चीख उठती ..जाग जाता हूँ मैं..खिड़की से आती ठंड़ी हवा की छुअन..राहत देती है पसीने से भीगे बैचेन तन को और सोचता हूँ मैं कि आज के लिखे काले हर्फ भी अगर कल लिखूँ तो लाल हो जायेंगे...चुभन है कि मुई जाती नहीं इस जिन्दगी से..बेवजह काले हर्फों को सजाकर खुश हुआ जाता हूँ मैं..न जाने क्या सोचकर बिखरा देता हूँ काली स्याही की दवात डायरी के एक कोरे पन्ने पर...यही तो है मेरी डायरी के उस काले पन्ने का सबब और मेरी लाल कलम की कहानी...तुम आ जाओ तो फिर लिखूँ एक ऐसी नई कहानी-आसमानी रोशनाई से...कि भरमा के चाँद उतर आयेगा पाने पर मेरे...  

-५-
कैसे भूलूँ तुम्हारा मेरे सीने पर कान लगा कर घंटो मेरी धड़कने सुनना...कुछ पूछता तो तुम होठों पर ऊँगली रखकर धीरे से चुप रहने का इशारा करती और आँखें बंद किये ही मुस्करा देती...बाद में कहतीं कि कितनी सुन्दर धुन है तुम्हारी धड़कनों की...जी ही नहीं भरता सुनने से...मैं कहता कि मेरी धड़कन कहाँ जो मेरी सीने में धड़कती है..ये तो तुम्हारी अमानत है और मुस्करा देता..तुम शरमा जाती..गाल खिल उठते सुर्ख लाल गुलाब के मानिंद..

-६-
याद करो उस रोज बगिया में ऐसे ही क्षणों में एक भौरें ने तुम्हें गाल पर डंक मार दिया था..और तुम..दर्द की तड़प में ऐसा झपटी उसपर कि बेचारा जान गवाँ बैठा...शायद तुम्हारे गाल को गुलाब समझने की भूल...वो तो मैं अक्सर ही करता हूँ..बस यह कि भौंरा नहीं हूँ..वरना....बस!! तुमने मेरे होठों पर हाथ रख दिया और तुम्हारी आँखों से वो आँसू..कहती कि कभी ऐसी बात जुबां पर मत लाना.....

-७-
रेत पर लेटे बदलते मौसम में तुम अपनी नजरों से उन भागते बादलों संग न जाने कितनी देर खेला करती. फिर एकाएक तुमने मुझे दिखाया था वह विचित्र आकृति वाला बादल- कछुआ बादल कह कर तुम हंस पड़ी थी और न जाने क्या सोच संजीदा हो उठी..कहा था तुमने कि काश!! हमारी जिन्दगी भी कछुआ बादल हो जाये. वक्त है कि थमता नहीं..और बदल जाता है मौसम शनैः शनैः...तुम भी पास नही...दिखता है मुझे भी अब अक्सर एक बादल- आठ पांव वाला..क्या कहूँ उसे-ऑक्टोपस बादल..एक जकड़न का अहसास होता है मुझे और कोशिश कहीं दूर भाग जाने की...

-८-
तरसती रात की खामोशी घेरकर आगोश में तुमको करेगी जिस वक्त मजबूर इतना कि तुम बेबस और निढाल हो, कर बैठो आत्म समर्पण..और भूल जाओ मुझे.... याद रखना ठीक उस वक्त कोई दीवाना फना होगा झुलसते सूरज की तपिश में सात समुन्दर पार यहाँ...

diary pages

वक्त की गुल्लक में
यादों के कुछ हसीन लम्हें
जमा किये थे तुम्हारे साथ के..
आज बरसों बाद जब
तुम मिलने आने को हो
तब उसमें से
एक मुस्कान निकाल लाया हूँ..
तुम्हारी अमानत..
तुम पर खर्च करने को..
न जाने फिर इस जनम में,
मुलाकात हो न हो!!!

-समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, अगस्त 04, 2011

दूरियाँ जो नापी गईं घंटो में....पिछले दिनों...

यॉर्क यू के की यात्रा के दौरान ऐतिहासिक नगरी एडनबर्ग, स्कॉटलैंड जाने का मन हो आया. जब बेटे से इच्छा जाहिर की तो सबसे पहले यह बताया गया कि इस शहर को लिखते एडनबर्ग हैं मगर कहते एडनबरा है. मान गये और सीख लिया एडनबरा बोलना, ठीक वैसे ही जैसे बचपन से स्कूल में मास्साब सिखाते रहे कि कनाडा की राजधानी ओटावा और कनाडा पहुँच कर पता चला कि उसे आटवा बुलाते हैं. अच्छा है कि हमारा नाम लिखते भी समीर लाल हैं और बुलाते भी समीर लाल है, नहीं तो एक समझाईश का काम और सर पर आ टपकता. बताया गया कि यॉर्क से ४ घंटे दूर है.

दंग हूँ इस नये फैशन पर जिसमें दूरियाँ घंटों में नापी जाने लगी हैं. कोई आश्चर्य की न होगा अगर अपने इसी जीवन में कभी सुन जाऊँ कि जबलपुर से भोपाल ६०० लीटर दूर है या भोपाल से इन्दौर की दूरी २० टन है. पूरा अमेरीका, कनाडा आज घंटो में दूरियाँ बताते नहीं थक रहा. टोरंटो से मान्ट्रियाल ५.३० घंटे की ड्राईव, टोरंटो से आटवा ४ घंटे की ड्राईव, वेन्कूअर ५ घंटे की फ्लाईट. हद है भई, सोचो जरा, ट्रेफिक मिल जाये, गाड़ी खराब हो जाये- तब? जरा हमारे जबलपुर में कह कर तो देखो कि जबलपुर से कटनी १ घंटे की ड्राईव है क्यूँकि ९० किमी है..तो लोग हंसते हंसते पागल हो जायेंगे..और बतायेंगे आपको पागल.अरे एक घंटे तो ड्राईवर को चाय पान पी कर चलने की तैयारी के लिए लग जायें आखिर बाहर गाँव जाना है, कोई मजाक तो नहीं है. फिर पेट्रोल डलाना...गाड़ी पे कपड़ा मारना..सारा काम निपटाते, गढ्ढे कुदाते, साईकिल और गाय बचाते, रिक्शे से टकराते जबलपुर शहर भी अगर दो घंटे में पार कर लें तो उपलब्धि ही जानिये. जबलपुर से भोपाल मात्र ३१२ किमी और आज तक मैं कभी भी ड्राईव करके ९ घंटे से कम में नहीं पहुँच पाया और वो भी इतना थका हुआ कि ८ घंटे जब तक सो न लूँ, किसी से एक लाईन बात कर सकने की हालत में नहीं आ सकता.

समयकाल, जगह, गाड़ी की रफ्तार, भीड़, सड़कों की हालत, ट्रेफिक..इन सब को परे रखते हुए इतने विश्वास के साथ ये लोग २ घंटे/४ घंटे बोलते हैं कि दाँतो तले ऊँगली दबा लेने को जी चाहता है. ये निराले, इनके काम निराले, इनके व्यक्तव्य निराले.

कोई इनको समझाये कि आज जब ४५ पार के ८०% लोग मधुमेह से जूझ रहे हैं, तब आपकी गाड़ी में ५ सवारों में से, जिसमें माँ बाप भी शामिल हों, कम से कम एक की तो मधुमेह की बनती ही है- जस्ट फॉर बेलेन्स बनाये रखने के लिए. अब कोई मधुमेह पीड़ित आपकी गाड़ी में हो तो हर एक घंटे बाद वाशरुम खोजिये. भारत तो है नहीं कि हाई वे पर सड़क के किनारे रोकी और ठंडी हवा में निवृत हो लिए. एक बार वाशरुम मतलब १५ मिनट तो मान ही लो क्यूँकि यह ऐसी छूत की बीमारी है कि जिसे जाना है वो तो जायेगा ही, उसको देखा देखी बाकी लोग भी लगे हाथ हो ही लेते हैं. गणित अगर ठीक ठाक हो तो ४ घंटे में चार बार तो यहीं कार्यक्रम होता रहे मतलब ५ घंटे की ड्राईव तो अपने आप हो गई.

उस पर अगर हमारे जैसे भारतीय रथ यात्रा पर निकले हों तो क्या कहने. हर थोड़ी दूर पर कभी नदी के किनारे, कभी स्कॉटलैण्ड आपका स्वागत करता है, के बोर्ड से सट कर, फिर उसकी तरफ ऊँगली से ईशारा करते हुए, फिर पत्नी के साथ वही दोनों पोज़, फिर पत्नी का अकेले में उसमें से एक पोज़, कभी पीले सरसों के खेत के सामने, कि यहीं डी डी एल जे की शूटिंग की होगी तो कभी किन्हीं गोरों को कहीं फोटो खिंचवाता देखकर, कि जरुर कोई इम्पोर्टेन्ट जगह होगी, चूक न जाये, तो खुद भी खड़े हो कर फोटो खिंचवाते ऐसे चलेंगे जैसे एक एक फोटो भारत जाकर मित्रों को चमकाने के लिए खिंचवा रहे हों. माना कि भारतीय होने के कारण रेस्त्रां जाकर खाने का समय बचा लोगे और घर से लाई पूड़ी और आलू की सब्जी पूंगी बना बना कर कार चलाते हुए ही खा लोगे मगर कितना?  गारंटी से ४ घंटे की बताई यात्रा को ७ घंटे की यात्रा तो मान ही लो.

वैसे भी जल्दी किस बात की है...कल के काम के लिए आज निकल पड़ना तो बचपन से करते आये हैं, भले ही ट्रेन से जाना हो. क्या पता कल लेट हो जाये तब..और यूँ भी आज यहाँ खाली ही तो हैं, निकल पड़ो. भारतीय रेल का रिकार्ड तो ज्ञात है ही.

drive

इस दौरान ऐसे ही बदलाव तो देश में भी देख रहा हूँ फिर भी न जाने क्यूँ दंग हुआ जाता हूँ. आजकल देश में भ्रष्ट्राचार के नापने के मानक किस तरह बदल लिये हैं..फलाने ने कितना काला धन कमा लिया- कम से कम एक बटा दस कलमाड़ी तो दबा ही लिया होगा. उसके यहाँ छापा पड़ा- २ प्रतिशत पवार निकला. वो राजा के ३ परसेन्ट से कम नहीं है किसी भी हालत में...जब ऐसी बातें होने लगे तो इस घंटे की दूरी को स्वीकार करने में भी क्या बुराई है.

आश्चर्य में मत पड़ना यदि कभी कोई आपको मेरा वज़न लीटर में बताये या कहे कि फलानी जगह तक पहुँचने में ४ दर्जन पेट्रोल लगेगा. भारत में दो नम्बरी बाजार में तो रुपयों के मानक को बदलते आप देख ही चुके हैं- १००० रुपये याने १ गाँधी, १ लाख रुपये याने एक पेटी और १ करोड़ याने १ खोखा.

हाँ, इसके चलते मन मान गया मगर यात्रा में एक और बात कौंधी कि हम भारतीय जब देश के बाहर हो तो एक बात के लिए यह खासियत और दिखा जाते हैं कि जब किसी दूसरे देश के शहर में जायेंगे, तो खाने के लिए सबसे पहले भारतीय रेस्त्रां तलाशने लगते हैं. भले ही भारत में इटालियन पिज़्ज़ा, बर्गर, चाईनीज़, ग्रीक खाने के पीछे भागें और मित्रों के बीच अपना स्टेन्डर्ड जमाये जायें मगर देश के बाहर निकलते ही भारतीय रेस्त्रां की तलाश शुरु. सो हमने भी एडनबरा में खोज लिया ’ताजमहल रेस्त्रां’. आर्डर में पीली दाल तड़का और नानवेज में कड़ाही चिकन का ऑर्डर कर दिया वरना काहे के भारतीय... भारतीय खाना खाकर लौट आये गेस्ट हाऊस.

सुबह ११ बजे चैक आऊट करके वापस यॉर्क के लिए जिस दिन निकलना था तो चूँकि ब्रेकफास्ट कमरे के किराये में शामिल था, इसलिये पहले दिन की ही तरह इतना सारा खा लिया कि लंच की जरुरत ही न पड़े और चले आये यॉर्क तक मुस्कराते बिना भूख लगे. भारतीय होना काम ही आता है आड़े वक्त पर वरना रास्ते में कहाँ खोजते भारतीय रेस्त्रां और मिल भी जाता तो बेवजह खरचा तो था ही.

घर से दूर
जब निकल
जाता हूँ मैं...
न जाने क्यूँ
कितना सारा
तब बदल
जाता हूँ मैं..

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अगस्त 01, 2011

तुम धड़कन पढ़ना जानती हो....

अक्सर अकेले में डायरी के पीले पड़ गये सफहों से गुजरने का भी मन कर आता है. गांव के पीले सूखे खेत में अक्सर ही घूमता रहा  हूँ मैं. नंगे पैर. चलने में करीचियों की चुभन और  दर्द का मीठा सा अहसास. आदत में शुमार बातों की कोई खास वजह नहीं होती, बस यूँ ही...वो गीत सुनते:

यूँ ही दिल ने चाहा था, रोना रुलाना...
तेरी याद तो बन गई एक बहाना...

रुकता है सफहों को पलटने का सिलसिला-ठीक उस कोरे पन्ने पर आकर, जो किसी भी भरे पन्ने से भी ज्यादा भरा सा लगता है..अलिखित इबारतों की एक लड़ी शरीर पर रेंगती लाल डंक वाली चीटियों की सिहरन लिए..पन्ने के .बीचों-बीच एक हल्की सफेदी थामे गोलाकार निशान...याद आता है वो लम्हा, जब कैद कर लिया था इस पन्ने ने, तुम्हारी आंसू की उस बूँद को- जो टपकी थी उस वक्त  जब मेरी डायरी पर झुकी तुम मुझसे नजरे चुराती कह रही थी..अलविदा. अब शायद अगले जनम में मुलाकात हो. कहा था तुमने  कि हम वादा करें कि अब कभी नहीं मिलेंगे इस जनम में..... याद है? 
उस रात एक तारा टूटा था छत पर उत्तर की दिशा में, और हम निहारते रहे थे उसे ओझल.होने तक .बिना कुछ मांगे. अपने हिस्से के आगे कुछ भी छीन लेना तुम्हें कब पसंद था भला. सो छूट गये वो दो हाथ भी थमने के पहले...ढहा सपनो का ताजमहल बनने के पहले...बस्स!! इतना ही!! 

शायद, शब्दों  ने जो गुंजाईश दी, बस उन्हीं बैसाखियों पर टंगे निकल पड़ा मै , निपट अकेला तन्हाईयों के जंगल में..कहाँ रह पाई तुम भी अपने आपको अपने वादे पर अटल....रोज तो चली आती हो याद बनके मेरे सपने में...नींद से जागने का मन नहीं होता..... दुनिया सोने नहीं देती. मैं जाग  नहीं पाता तो लोग अक्सर ही दीवाना नाम दिये जाते हैं..मुझे बुरा नहीं लगता ये नाम भी.

कभी तो मन करता है  कि लिखूँ उसी पन्ने पर एक कविता...तुम्हारे तुम होने की या तुम्हारे गुम होने की.....

शिव कुमार बटालवी याद आने लगते हैं:

एक कुड़ी जेदा नाम मोहब्बत...
गुम है...गुम है...गुम्म है!!!!.......

girl

वो तुम्हारी बातों की वसीयत..जिसे थामें चला आया हूँ, उन बैसाखियों पर टंगा इतनी दूर, उम्र के इस पड़ाव पर..जहाँ से अब बस धुँधलका ही नज़र आता है..आगे भी और मुड़ कर देखूँ तो पीछे भी - यादों की गहरी वादियों में.. रोक देती है मुझे- भरे पन्ने को फिर से भरने को. चाहूँ तो भर दूँ...एक नया जाम....पर खुमार...उन यादों का..उस रात से चढ़ा,,,.रोक देता है. तब ऐसे में टपका देता हूँ एक बूँद और अपने आँसू की उस पन्ने के कोने पर...और इन्तजार करता हूँ कि कब वो मिल जाये उस निशान से, जिसे छोड़ गई थी तुम और कैद कर लिया था मेरी डायरी के  कोरे पन्ने ने.

कभी तो मिलन होगा...हमारा न सही..इन बूँदों का ही सही. एक तसल्ली काफी है..मधुर मिलन की...बैसाखियों को किनारे रख- चिर निद्रा में सुकून से लीन होने के पहले!! लब पर मुस्कान लिए...
एक विचार उठता है फिर उसी कोने से..कहता है- पगले, हर कविता लिखी जाये ये जरुरी तो नहीं...भाव यूँ भी अपना सफर तय करना जानते है..उनकी अपनी तरंगे हैं. छोड़ मोह कि- कुछ लिख डाल और बहने दे उन भावों को..उनके अपने प्रवाह में..हट जा किनारे और देख साक्षी भाव से उन्हें प्रवाहित होता..एक महा मिलन का उत्साह लिए..सागर में जा समाहित होने की उमंग....छल रहित....छल छल कल कल की धुन बजाता....जोड़ कान उस धुन से...नाच कि एक उत्सव है आज!! एक महोत्सव..महा मिलन की आस का....सावन में झूलती गोरी की मद मस्त पैंगें...और वो सखियों के संग नाचते हुए उठती कज़री की धुन!!

बदरा....गरज बरस तू आज.....

झकझोरते ख्यालात ...थमीं सी कलम....एक और बूँद उस आँसू की-- जो प्रवाहित कर गई सारे भाव बिना लिखे तुम्हारे पढ़ने को...बांच लोगी तुम...मुझे पता है...सुन तो सब लेते है लेकिन तुम धड़कन पढ़ना जानती हो!!! एक अनजान मोड़ पर थमी कहानी...जिसका कोई सारांश नहीं..इन्तजार करती है तुम्हारी उन नीली पनीली आँखों से तकती नज़रों का..

मिलोगी जब
इस बार
घूमेंगे हम
हरियाली के आगोश में
हाथ मे हाथ थामें
भीगेंगे उस
दूध झरने के
नीचे 
और थक कर चूर
बैठ किसी भरे पेड़ के नीचे
तने से पीठ टिकाये मैं
और मुझ से टिकी तुम...
बँद आँख
सपनों की दुनिया का 
वो पूरा चाँद देखते .....
मत करना उम्मीद मुझसे कि
कुछ गुनगुनाऊँगा मैं...
याद है तुमने कहा था उस रात 
मुझसे दूर जाते
कितना बेसुरा हूँ मैं...
-मैं फिर तुम्हें खोना नहीं चाहता...

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, जुलाई 24, 2011

चलती सांसो का सिलसिला....

अपनी लम्बी यॉर्क, यू के की यात्रा को दौरान जब अपनी नई उपन्यास पर काम कर रहा था तो अक्सर ही घर के सामने बालकनी में कभी चाय का आनन्द लेने तो कभी देर शाम स्कॉच के कुछ घूँट भरने आ बैठता और साथ ही मैं घर के सामने वाले मकान की बालकनी में रोज बैठा देखता था उस बुजुर्ग को.

उसके चेहरे पर उभर आई झुर्रियाँ उसकी ८० पार की उम्र का अंदाजा बखूबी देती. कुर्सी के बाजू में उसे चलने को सहारा देने पूर्ण सजगता से तैनात तीन पाँव वाली छड़ी मगर उसे इन्तजार रहता दो पाँव से चल कर दूर हो चुके उस सहारे का जिसे उसने अपने बुढ़ापे का सहारा जान बड़े जतन से पाल पोस कर बड़ा किया था. जैसे ही वह इस काबिल हुआ कि उसके दो पैर उसका संपूर्ण भार वहन कर सकें, तब से वो ऐसा निकला कि इस बुजुर्ग के हिस्से में बच रहा बस एक इन्तजार. शायद कभी न खत्म होने वाला इन्तजार.

बालकनी में बैठे उसकी नजर हर वक्त उसके घर की तरफ आती सड़क पर ही होती. साथ उसकी पत्नी, शायद उसी की उम्र की, भी रहती है उसी घर में. वो ही सारा कुछ काम संभालते दिखती. कुछ कुछ घंटों में चाय बना कर ले आती, कभी सैण्डविच तो कभी कुछ और. दोनों आजू बाजू में बैठकर चाय पीते, खाना खाते लेकिन आपस मे बात बहुत थोड़ी सी ही करते. शायद दोनों को ही चुप रहने की आदत हो गई थी या इतने साल के साथ के बाद अकेले में एक दूसरे से कहने सुनने के लिए कुछ बचा ही न हो. कुछ नया तो होता नहीं था. वही सुबह उठना, दिन भर बालकनी में बिताना और ज्यादा से ज्यादा फोन पर ग्रासरी वाले को सामान पहुँचाने के लिए कह देना. पत्नी बीच बीच में उठकर गमलों में पानी डाल देती. उनमें भी जिसमें अब कोई पौधा नहीं बचा था. जाने क्या सोच कर वो उसमें पानी डालती थी. शायद वैसे ही, जैसे जानते हुए भी कि अब बेटा अपनी दुनिया में मगन है, वो कभी नहीं आयेगा- फिर भी निगाह घर की ओर आने वाली सड़क पर उसकी राह तकती.

उनके घर से थोड़ा दूर सड़क पार उसकी पत्नी की कोई सहेली भी रहती थी. नितांत अकेली. कई महिनों में दो या तीन बार इसको उसके यहाँ जाते देखा और शायद एक बार उसे इनके घर आते. जिस रोज वो उसके यहाँ जाती या वो इनके यहाँ आती, उस शाम पति पत्नी आपस में काफी बात करते दिखते. शायद कुछ नया कहने को होता.

अक्सर मेरी नजर अपनी बालकनी से उस बुजुर्ग से टकरा जाती. बस, एक दूसरे को देख हाथ हिला देते. शायद उसने मेरे बारे में अपनी पत्नी को बता दिया था. अब वो भी जब बालकनी में होती तो हाथ हिला देती. हमारे बीच एक नजरों का रिश्ता सा स्थापित हो गया था. बिना शब्दों के कहे सुने एक जान पहचान. मैं अक्सर ही उन दोनों के बारे में सोचा करता. सोचता कि ये बालकनी में बैठे क्या सोचते होंगे?  क्या सोच कर रात सोने जाते होंगे और क्या सोच कर नया दिन शुरु करते होंगे?

मुझे यह सब अपनी समझ के परे लगता. कभी सहम भी जाता, जब ख्याल आता कि यदि इस महिला को इस बुजुर्ग के पहले दुनिया से जाना पड़ा तो इस बुजुर्ग का क्या होगा? मैने तो उसे सिर्फ छड़ी टेककर बाथरुम जाते और रात को अपने बिस्तर तक जाने के सिवाय कुछ भी करते नहीं देखा. यहाँ तक की ग्रासरी लाने का फोन भी वही महिला करती. तरह तरह के ख्याल आते. मैं सहमता, घबराता और फिर कुछ पलों में भूल कर सहज हो जाता हूँ.

मैं भरी दुपहरी अपने बंद अँधेरे कमरे में ए सी को अपनी पूरी क्षमता पर चलाये चार्ल्स डी ब्रोवर की पुस्तक ’फिफ्टी ईयर्स बिलो ज़ीरो’ को पढ़ता आर्कटिक अलास्का की ठंड की ठिठुरन अहसासता भूल ही जाता हूँ कि बाहर सूरज अपनी तपिश के तांडव से न जाने कितने राहगीरों को हालाकान किये हुए है. कितना छोटा आसमान बना लिया है हमने अपना. कितनी क्षणभंगुर हो चली है हमारी संवेदनशीलता भी. बहुत ठहरी तो एक आँसूं के ढुलकने तक.

समय के पंख ऐसे कि कतरना भी अपने बस में नहीं तो उड़ चला. कनाडा वापसी को दो तीन दिन बचे. उस शाम बहाना भी अच्छा था कि अब तो वापस जाना है और कुछ मौसम भी ऐसा कि वहीं बालकनी में बैठे बैठे नियमित से एक ज्यादा ही पैग हो गया स्कॉच का. शराब पीकर यूँ भी आदमी ज्यादा संवेदनशील हो जाता है और उस पर से एक्स्ट्रा पी कर तो अल्ट्रा संवेदनशील. कुछ शराब का असर और कुछ कवि होने की वजह से परमानेन्ट भावुकता का कैरियर मैं एकाएक उन बुजुर्गों की हालत पर अपने दिल को भर बैठा याने दिल भर आया उनके हालातों पर. सोचा, आज जा कर मिल ही लूँ और इसी बहाने बता भी आऊँगा कि दो दिन में वापस कनाडा जा रहा हूँ. एक बार को थोड़ा सा अनजान घर जाते असहजता महसूस हुई किन्तु शराब ने मदद की और मैं अपनी सीढ़ी से उतर कर उनकी सीढ़ी चढ़ते हुए उनकी बालकनी में जा पहुँचा.

वो मुझे देखकर जर्मन में हैलो बोले. जर्मन मुझे आती नहीं, मैने अंग्रेजी में हैलो कहा. हिन्दी में भी कहता तो शायद उनके लिए वही बात होती क्यूँकि अंग्रेजी उस बुजुर्ग को आती नहीं थी. इशारे से वो समझे और इशारे से ही मैं समझा. फिर उनका इशारा पा कर उनके बाजू वाली कुर्सी पर मैं बैठ गया. उनकी गहरी ऑखों में झांका. एकदम सुनसान, वीरान. मैने उनके हाथ पर अपना हाथ रखा. भावों ने भावों से बात की. शायद एक लम्बे अन्तराल के बाद किसी तीसरे व्यक्ति का स्पर्श पा दबे भावों का सब्र का बॉध टूटने की कागर पर आ गया हो. उनकी आँखें नम हो आईं. मैं तो यूँ भी अल्ट्रा संवेदनशील अवस्था में था. अति संवेदनशीलता में शराब आँख से आँसू बनकर टप टप टपकने लगी. बुजुर्ग भी रो दिये और मेरा जब पूरा एक्स्ट्रा पैग टपक गया, तो मैं उठा. उन्हें हाथ पर थपकी दे ढाढस बँधाई और उन्हें नमस्ते कर बिना उनकी तरफ देखे सीढ़ी उतर कर लौट आया.

सुबह उठकर जब उनकी बालकनी पर नजर पड़ी तो वह बुजुर्ग हाथ हिलाते नजर आये. एक बार फिर मेरी आँख नम हुई यह सोचकर कि कल से यह मेरा भी इन्तजार करेंगे हाथ हिलाने को. आँख में आई नमी ने अहसास करा दिया कि कल जो बहा था वो शराब नहीं थी. दिल की किसी कोने से कोई टीस उठी थी उस एकाकीपन और नीरसता को देख, जो आज न जाने उस जैसे कितने बुजुर्गों की साथी है....

Old-Man

सुबह जागते
चलती सांसो का सिलसिला
दिलाता है याद मुझे..
फिर एक दिन
फिर एक शाम
और
फिर एक रात
बाकी है अभी...

-समीर लाल ’समीर’

<<इस बीच यू के यात्रा की व्यस्तता में पोस्ट डालने का क्रम कम होकर भी जारी तो रहा ही किन्तु मुझे याद ही न रहा कि कब मेरी ५०० पोस्ट पूरी भी हो गईं और आज यह पोस्ट ५०५ वीं है>>

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गुरुवार, जुलाई 21, 2011

बड़ी दूर से आये हैं….ब्लॉगर मिलने!!!

उत्साहित तो थे ही लन्दन जाकर मित्रों से मिलने को और साथ ही सुबह ७:५० की बस जानी थी यॉर्क बस अड्डे से. ५ बजे ही उठ गये. सूरज महाराज पहले से ही तैनात थे खिड़की के रास्ते. जाने कब सोते हैं और कब उठते हैं यहाँ गर्मियों में. रात १० बजे तक तो आसमान में टहलते नजर आते हैं और सुबह ४ बजे से फिर आवरगी. पावर के नशे में नींद नहीं आती होगी शायद. विचित्र नशा होता है यह भी.
खैर, दो दिन का सामान, लैपटॉप, एक किताब बाँध कर निकल पड़े घर से ७.१५ बजे बस अड्डे के लिए और ठीक ७.५० पर बस चल पड़ी लन्दन ले जाने को. दीपक मशाल से पहले ही भारत से बात हो गई थी कि वह शाम ६ बजे तक भारत से लन्दन पहुँच जायेंगे. होटल बुक कर लिया था, वहीं हम दोनों का रुकना तय हुआ. दिन इतवार था अतः तय पाया कि शाम होटल में बिताई जायेगी इतने दिनों की ढेरों बात करते और फिर अगले दिन सुबह शिखा वार्ष्णेय जी के घर धावा बोला जायेगा. वहीं डॉ कविता वाचक्नवी जी भी आ जायेंगी. नाश्ता, लंच, शाम का नाश्ता, रात रास्ते के लिए पैक करवा कर एक बार में ही पूरा हिसाब किताब तय कर शाम को अपने अपने घरों के लिए वापसी, मैं यॉर्क, दीपक नार्थ आयरलैण्ड और कविता जी अपने घर लन्दन में ही लौट जायेंगे. इस तरह एक अन्तर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन की योजना बनी जिसमें लन्दन, कनाडा और आयरलैण्ड का ब्लॉगर मिलन होना तय पाया था.
रास्ता आरामदायक, दर्शनीय और ’दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ फिल्म के सरसों के खेत की याद दिलाता मजेदार था. ७.५० को बस चली और बादलों ने सूरज को आ घेरा. बरसे नहीं, बस घेर कर बैठ गये. शायद सूरज से पूर्व में समझौता करके आये थे कि बस, कुछ देर घेर कर बैठे रहेंगे और फिर निकल जायेंगे. बरसे बरसायेंगे नहीं सिर्फ जनता को बरसात का मनोरम सपना दिखायेंगे. मगर दो घंटे बीत गये. बस रास्ते में एक शहर मिडलैण्ड भी पहुँच गई, जहाँ से लन्दन के यात्री ट्रेन में बैठा दिये जाते हैं उसी टिकट पर लन्दन जाने को मगर बादल थे कि हटने का नाम ही न लें. ट्रेन भी १२.३० बजे लन्दन किंग क्रास इन्टरनेशनल स्टेशन पहुंच गई और बादल अपना घेराव जारी रखे हुए थे अनशन पर डटे से नजर आये.
इस बीच मैने मेन से लोकल स्टेशन बदला. मकड़ी के रंग बिरंगे जालेनुमा उलझा उलझा नक्शा देख समझ कर लन्दन ट्यूब ट्रेन (शहर के भीतर चलने वाली ट्रेन) पकड़ी और निकल पड़ा उस जगह जाने को जहाँ होटल मौजूद था और वो था शिखा जी के घर से मात्र १० मिनट की दूरी पर. एक स्टेशन पर ट्यूब बदलकर फिर जिस स्टेशन पर उतरा, वही स्टेशन शिखा जी के घर जाने के लिए उतरने का उचित स्थान है मगर वहाँ से होटल पैदल जाने के लिए जरा ज्यादा दूर और टैक्सी पकड़ने के लिए जरा ज्यादा नजदीक था सो बीच का रास्ता संभालते हुए सामने से उस दिशा में जाती बस पर चढ़ लिए. १० मिनट में होटल पहुँच गये.
दोपहर का तीन बजने को था. कमरे में चाय बना कर पी गई और लैपटॉप कनेक्ट करके बैठ गये. दीपक का इन्तजार शुरु हुआ. इस बीच जाने कहाँ से ख्याल उड़ते आये और विदेश का धन- भगवान पद्मनाभम वाला आलेख भी लिख गया और पब्लिश करने हेतु शेड्यूल भी कर दिया. खिड़की के बाहर नजर पड़ी तो देखा बादल सूरज द्वारा खदेड़े जा रहे हैं. लगा कि पूर्व समझौते के अनुसार समय पर न हट कर जनता याने मेरी पसंद देखते हुए उनके अनशन पर डटे रहने से खफा सूरज ने लाठी चार्ज करवा दिया हो. कोई बादल कहीं भागा, कोई कहीं कूदा, कोई कहीं काले से सफेद बादल का वेश बदल कर भागा. बादल भी न!! समझते नहीं हैं- उनका क्या है- आज है, कल नहीं होंगे. सूरज को तो हमेशा रहना है. रामलीला मैदान और बाबा रामदेव की याद हो आई बिल्कुल से.
इन्हीं सब में दो घंटे बीत गये. आम जन की भाँति इस अफरा तफरी भरे मौसम का मैने भी आनन्द उठाया. तब तक दीपक का फोन भी आ गया कि एयरपोर्ट पहुँच गया है. १ घंटे में होटल पहुँच जायेगा. भारत से आया था इतने दिन रह कर और वो भी शादी करके तो मैने स्वतः उसके अनुमान को ठीक करते हुए उसके कहे १ घंटे को २ घंटे मानते हुए सोच लिया कि ७.३० से ८ के बीच आयेगा और मैं आसपास के इलाके में घूमने निकल पड़ा.
इल्फोर्ड नामक इलाका- पूरा पाकिस्तान, बंगलादेशी और पिण्ड के सरदारों से भरा पड़ा. सब नौजवान सरदार लेटेस्ट मॉडल के बर्बाद से बर्बाद हेयर स्टाईल, कान में बाली, लगभग घुटने तक झूलती जिन्स, गैन्ग टाईप बनाकर घूमते, लड़कियाँ छेड़ते, गालियाँ बक बक कर बात करते, संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त से नजर आते बड़ा असहज सा वातावरण निर्मित कर रहे थे. जगह जगह देशी दुकानें, रेस्टारेन्ट, पान की दुकानें, साड़ी, ज्वेलरी, सलवार सूट, ग्रासरी से लेकर हर देशी सामान का बाजार. थोड़ा सा परेशान करता माहौल. कुछ देर उस भीड़ भरे माहौल में टहलकर मैं कमरे में वापस आ गया. अनुमान से ज्यादा भारत से अपना आना साबित करते दीपक महाराज ९.३० बजे अवतरित हुए. फिर शुरु हुआ कुछ जामों का दौर, लम्बी चर्चायें, कविताबाजी, खाने का आर्डर और देखते देखते, बतियाते बतियाते, पीते पीते रात दो बजे हालात ऐसे कि बिना गुड नाईट कहे अपने अपने बिस्तर में कब सो गये, पता ही नहीं चला.
सुबह ८ बजे उठकर होटल में ही ब्रेकफास्ट कर लिया और ११ बजे चैक आऊट कर शिखा जी के घर पहुँच गये.
स्वागत की पूरी तैयारी बेहतरीन नाश्ते के साथ. तैयारी देखकर यह बताने की हिम्मत ही नहीं हुई कि नाश्ता करके आये हैं बल्कि अफसोस ही हुआ कि क्यूँ करके आ गये. खैर, एक दिन की बात थी तो फिर से काजू, बदाम से लेकर तले हुए प्रान्स खाये गये. कविता जी लन्च टाईम तक पहुँचने वाली थी. अतः शिखा जी द्वारा बनाई मनपसंद चाय के साथ बातों का सिलसिला प्रारंभ हुआ. किताबें दी गईं. संगीता स्वरुप जी कविता की किताब प्राप्त की गई. शिखा जी से उनकी आने वाली किताब, हाल के हिन्दी सम्मेलन और जावेद अख्तर, शबाना आज़मी और प्रसून जोशी से मुलाकात का ब्यौरा और नेहरु सेन्टर की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली गई. तब तक कविता जी आ गई.

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लन्च हुआ. एक से एक लज़ीज़ पकवान बनाये थे शिखा जी ने. कुछ ज्यादा ही खा लिए. फिर चाय का दौर.
कविता जी के आ जाने से पुनः ढ़ेर वार्तालाप. उनकी रचना यात्रा, ब्लॉगिंग पर चिन्तन. फेसबुक पर पलायन करती ब्लॉगरों की भीड़. इस व्यवहार पर अपने अपने मत. एग्रीगेटर्स की भूमिका और आवश्यक्ता. कमेंटस की महत्ता आदि पर विमर्श किया गया.
इस बीच दीपक को मौसम की बदलाव की मार पड़ती रही और उनकी नाक धीरे धीरे दिल्ली के पीक ट्रेफिक की स्थिति को प्राप्त होते हुए लगभग बन्द हो गई. दवाई खाकर वो इस लायक हुए कि अब चुपचाप सो जाये. अतः वह उपर सोने चले गये. तभी शिखा जी के प्यारे प्यारे बेटा और बेटी भी स्कूल से आ गये. दोनों ने मिलकर हम लोगों की तस्वीरें खींची.
घंटा भर सो लेने के बाद दीपक इस लायक हुए कि फोटो खिंचवा कर ट्रेन पकड़ी जाये और वो एयरपोर्ट जायें और मैं यॉर्क के लिए ट्रेन लेने किंग क्रास स्टेशन. कविता जी, मैं और दीपक एक साथ ही ट्यूब ट्रेन से शिखा जी की मेहमान नवाजी का लुत्फ उठा कर गदगद हो निकले. रास्ते में पहले कविता जी उतरी. फिर चन्द स्टेशन बाद दीपक और आखिर में मैं. रात ११ बजे जब ट्रेन से यॉर्क घर वापस पहुँचा, तो दीपक का फोन आ चुका था कि वो आयरलैण्ड पहुँच चुके हैं और घर जाने के लिए एयरपोर्ट से बस ले रहे हैं.
इन दो दिनों में दीपक जितना हमारे साथ थे, उससे दुगना भारत में थे. एक माह भी पूरा नहीं हुआ है अभी विवाह को. उनकी पत्नी का भारत से लगातार फोन पर उनके मूमेन्टस का लिया जाना और दीपक का बार बार किनारे जाकर बात करना मजा दे रहा था. दीपक इस मिलन और अपनी भारत यात्रा पर दो दिन पूर्व लिख ही चुके हैं. शायद शिखा जी और कविता जी की कलम भी चले.
एक यादगार यात्रा, ढेरों वार्तालाप, मधुर कभी न भूल सकने वाली मुलाकात साथ में सहेज लाये हैं. लगा ही नहीं कि सबसे पहली बार मिले हैं.

कुछ चित्र देखें इस मिलन के.

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