सोमवार, मार्च 29, 2010

प्रेरणा कैसी कैसी!!

 

कभी किसी को देख सुन कर वो आपको इतना अधिक प्रभावित करता है कि आपका प्रेरणा स्त्रोत बन जाता है. आप उसके जैसा हो जाना चाहते हैं. ठीक ठीक उसके जैसा न भी हो पाये तो आपको आगे बढ़ने और अभ्यास करने हेतु वो प्रेरणा तो होता ही है.

कितने ही गायको के प्रेरणा स्त्रोत और आदर्श मुकेश, लता मंगेशकर, रफी होंगे. जाने कितने खिलाड़ी क्रिकेट में तेंदुलकर को अपना आदर्श बना कर खेलते हैं.

इस तरह के प्रेरणा स्त्रोत आपको बेहतर और बेहतर करने की ताकत देते हैं. आपको प्रभावित करते हैं. लेखन में भी तो ऐसा होता है.

लेकिन इससे इतर भी स्थितियाँ बनती हैं, जब आप किसी को कुछ करता देखते हैं तो उसे देख आपमें एक आत्मविश्वास आ जाता है कि अरे, जब ये कर ले रहा है तो हम क्यूँ नहीं? इससे बेहतर तो हम ही कर लेंगे.

मुझे याद है, जब हम सी ए कर रहे थे. एक मित्र जो हमारे रुम मेट हुआ करते थे, हमसे ६ महीने सीनियर थे मगर अक्सर सवाल समझने या डिस्कस करने हमारी डेस्क पर चले आते. उनके पास हो जाने ने हमें जबरदस्त आत्मविश्वास दिया कि जब ये पास हो सकते हैं तो हम क्यूँ नहीं. बस, उन्हीं का चेहरा याद कर कर देखते देखते हम पास हो गये.

कल टोरंटो में श्रेया घोषाल और आतिफ असलम का शो था. सच्चे भारतीय होने का धर्म निभाते हुए हमने अपने और अपनी पत्नी के लिए वी वी आई पी का पास जुगाड़ लिया. एकदम स्टेज के नजदीक बैठे.

कार्यक्रम की शुरुवात जबरदस्त रही और प्रथम आधा भाग श्रेया घोषाल ने संभाला. दिल थाम कर सुना गया. जबरदस्त!! आनन्द आ गया.

द्वितीय भाग में उतरे आतिफ असलम.

आतिफ!! आतिफ!! आतिफ!! की आवाजों से हॉल गुँज गया.

आतिफ आये. १.३० घंटे तक मंच पर संपूर्ण नशे की सी हालत में बने रहे, शायद ज्यादा पी ली होगी और उसे देख देख, सुन सुन मुझ जैसे व्यक्ति में जबरदस्त आत्मविश्वास का संचार हुआ.

हाय!! क्यूँ मैं लोगों की बातों में आकर अपनी कविता और गीत पढ़कर सुनाता रहा. मैं तो बड़े आराम से गा कर सुना सकता था और पब्लिक चिल्लाती: समीर!! समीर!! समीर!!

बन्दे में आत्मविश्वास कहो या नशे की गिरफ्त. पूरे १.३० घंटे झिलवाता रहा और पब्लिक टिकिट का पैसा देकर झेलती रही. नये जमाने की लड़कियाँ तो झूम कर नाचीं भी. हम तो फ्री के पास पर थे तो अंतिम गाना खत्म होने के पहले ही निकल लिये.

आतिफ की फोटो भी खींच ली है. अपनी डेस्क पर फ्रेम करा कर रखूँगा कमप्यूटर के बाजू में ताकि सनद रहे और आत्म-विश्वास बना रहे.

इन्तजार है जब हॉल में हल्ला गुँजेगा: समीर!! समीर!! समीर!! ..शायद लड़कियाँ नाचें भी, कौन जाने!!

क्या आपके साथ भी ऐसा होता इस तरह का आत्मविश्वास वर्धन!

shreyaatif

चलते चलते:

मैं भी उसे चाहता हूँ,वो भी मुझे चाहती है 
प्यार का सबूत है ये, और कैसा चाहिये
शादी ब्याह बात कुछ, प्यार से अलग है जी
बाबू जी की हाँ के लिए, थोड़ा पैसा चाहिये.
शादी हुई बाद में ये, घर भी उसी का है जी
मोटर जो दे दोगे तो उसमें ही घुमाऊँगा
उसकी तो बात छोड़ो, वो तो मेरी बीबी होगी.
मैं तो इतना सीधा हूँ, साली को भी चाहूँगा.

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, मार्च 24, 2010

निंदिया न आये-जिया घबराए

 

awakening

देर रात गये सोने की कोशिश मे हूँ. नींद नहीं आती तो ख्याल आते हैं. अकेले में ख्याल डराते है और इंसान अध्यात्म की तरफ भागता है भयवश. यह इन्सानी प्रवृति है, मैं अजूबा नहीं.

आधुनिक हूँ तो आधुनिक तरीके अपनाता हूँ अध्यात्म के. बड़े महात्मा जी का आध्यात्मिक प्रवचन सीडी प्लेयर में लगा कर उससे मुक्ति के मार्ग के बदले नींद का मार्ग खोजने में लग जाता हूँ. नीरस बातें नींद में ढकेल देती हैं. नीरसता टंकलाईज़र (नींद की गोली) का काम करती है.

जो हमें अपनी पहुँच के बाहर दिखता है, जिससे हम भौतिक रुप से, रुपये पैसे से लाभांवित नहीं होते, वो हमें हमेशा ही नीरस लगता है. ज्ञान प्रप्ति के नाम पर कभी कैमिस्ट्री भी पढ़ी थी, तब मजबूरी थी परीक्षा पास करना. आज मजबूरी है, पाप कर्मों के बोझ से खुद को अकेले में उबारना, तो यही मार्ग, भले ही नीरस हो, बच रहता है.

कुछ देर मन लगा कर सुनता हूँ. महात्मा जी के कहे अनुसार, जीवन रुपी नैय्या से इच्छायें, चाह, लालच और वासना की गठरी उठा उठा कर फैंकता जाता हूँ पाप की बहती दरिया में. खुद को हल्का किये बगैर उपर नहीं उठा जा सकता, महत्मा जी मात्र १०० रुपये लेकर सीडी में समाये कह रहे हैं. मैं सुन रहा हूँ. कहते हैं चाहविहिन हो जाओ तो मुक्ति का मार्ग पा जाओगे और यह जीवन सफल हो जायेगा.

सोचता हूँ कि क्या मुक्ति का मार्ग पाना भी एक चाह नहीं? क्या चाहविहिन होने की चेष्टा भी एक चाह नहीं? क्या आमजन से उपर उठ अध्यात्मिक हो जाना भी एक चाह नहीं? जब एक चाह की गठरी को पाप की नदिया में फैंका सिर्फ इसीलिये कि दूसरी चाह की गठरी लाद लें, तो क्या यह व्यर्थ प्रयत्न और प्रयोजन नहीं?

एक तरफ मैनें पैसा कमाने का लोभ त्यागा ताकि मैं लोभ मुक्त हो जाऊँ किन्तु वहीं यह लोभ पाल बैठा कि इससे मैं मुक्ति का मार्ग पा जाऊँ. शांत चित्त हो जाऊँ.

एक अंतर्द्वन्द उठता है.

मानव स्वभाव से बाध्य हूँ. चाहत की जो गठरियाँ अर्जित कर ली है, उसे फेंकने में दर्द सा कुछ उठता है किन्तु नई चाहत की नई गठरी तपाक से आकर जुट जाती है. प्रवचन सुन सुन कर ऐसी ही कितनी चाहतों की गठरियों का आना तो अनवरत जारी है लेकिन फैंकना, बहुत मद्धम गति से हो पाता है. अगर ऐसा ही चलता रहा और नई गठरियाँ इसी गति से जुड़ती रहीं तो वो दिन दूर नहीं, जब यह नाँव डगमगा जायेगी और सारा बोझ लिए इसी पाप की दरिया में डूब जायेगी. अब तो एक चाहत और जुड़ गई कि किसी तरह नैय्या डूबने से बची रहे.

स्वामी जी बोल रहे हैं सीडी प्लेयर में से और मैं अपने मन की बात सुनने में व्यस्त हूँ. मन भारी पड़ रहा है उन सिद्ध महात्मा जी की वाणी पर. खुद को कब नीचा दिखा सकते हैं खुद की नजरों में? वरना तो सो गये होते.

इस बीच स्वामी जी और भी न जाने क्या क्या बोल गये, मैं सुन नहीं पाया और एलार्म से नींद खुली तो सीडी प्लेयर से घूं घूं की आवाज आती थी. जाने कब स्वामी जी ने बोलना बंद कर दिया. रात बीत चुकी है और प्लेयर अब भी चालू है.

प्लेयर ऑफ कर फिर तैयार होता हूँ एक नया दिन शुरु करने को. नींद पूरी हो गई है तो फिर दिनचर्या में जुटने की तैयारी करता हूँ.

क्या पाप, क्या पुण्य, कैसा मुक्ति मार्ग? सब अब रात में सोचेंगे जब दिन भर की थकन के बाद भी मन कचोटेगा और नींद आने से मना करेगी.

सोचता हूँ कि जिस दिन सी डी प्लेयर घूं घूं बोलता रह जायेगा और हम कभी न उठने के लिए सो चुकेंगे, उस दिन हिसाब किताब होगा, तब खाता बही देखेंगे कि नांव में कितनी कौन सी वाली गठरियाँ बाकी रह गई हैं.

उस हिसाब का बैलेंस भला कौन जान पाया है.

१०० रुपये बेकार ही गये लगता है सी डी खरीदने के. इससे बेहतर तो नींद की गोली खरीदते, जरा सस्ती पड़ती तो अगले दिन के पाप कर्म भी कुछ कम ही होते पुनः उस दिन की रोटी जुगाड़ने की चाह में.

 

कुछ मुश्किलों को सुलझाने की खातिर
खुद को ही उलझाता चला जाता हूँ मैं

दर्पण में यूँ अजनबी नजर आता हूँ मैं...

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, मार्च 21, 2010

समेटना बिखरे भावों का- भाग १

भावों और विचारों का क्या है? वक्त बेवक्त किसी भी रुप में चले आते हैं. कभी दर्ज कर लिया, कभी छूट गये.

दर्ज कर लिया तो एक दस्तावेज के रुप में सहेजने का दिल हो आता है. कुछ छोटी छोटी पंक्तियाँ अपनी ही तस्वीरों पर दर्ज कर के कभी ऑर्कुट पर, कभी फेस बुक पर मित्रों की मंडली में सांझा करता रहा हूँ. कुछ इस ब्लॉग पर भी.

कल दिल हो आया कि जब सब कुछ लेखनी का दर्ज करके इस ब्लॉग पर रखा हुआ है, तो फिर वो भाव यहाँ वहाँ क्यूँ बिखरे पड़े रहें.

बस, उसी प्रयास में, यहाँ वहाँ बिखरी पंक्तियाँ. इत्मिनान से पढ़िये, शायद पसंद आयें:

 

कभी मौसम, कभी झील में डूबे चाँद
और फिर तुमको, चुपके से देखता हूँ..

-शायद कोई कविता रच रहा है कहीं.

एक तारों भरा आकाश है..
मुझे रोशनी की तलाश है.


जहाँ से कुछ इस तरह गुजर जाना
धुँआ सा बन फिज़ा पर बिखर जाना
लहर बन कर समा मस्त लहरों में
फ़लक पर बन सितारा उतर जाना.

डूबती शाम,
खुद को खुद से
मिलवाता हूँ मैं..
डर जाता हूँ मैं..

वो डायरी मे गज़ल लिखते हैं,
पन्ना पन्ना गुलाब न हो जाये.


यूँ तन्हा, गुमसुम बैठा सोचता हूँ मैं..
कि क्यूँ कुछ सोचता नहीं...

यह धूप मुझे कभी नहीं भाती है..
बड़ी अजीब सी परछाई बनाती है..


रात भर चाँद छत पर, कराहता रहा..
जाने क्यूँ, तू मुझे याद आता रहा..

बगिया बगिया घूम के देखा
फूल तोड़ना सख्त मना है..
कांटो की रक्षा की खातिर
कभी न कोई नियम बना है.

भूगोल की बात जबसे, इतिहास हो गई
रिश्तों के बीच मानिये, मिठास खो गई
वादा निभाने को वो न लौटे समीर
हर शाम जिंदगी बस उदास हो गई.

हालात मेरे देख कर
गांव में कोई कहता था-
नशे में हवा का बे?
बुद्ध बनबा का?

-कितना सच कहता था
वो अज्ञानी!!

किसी से कोई शिकायत नहीं
और किसी से कोई गिला नहीं,
मेरी हस्ति को जो मिटा सके,
ऐसा अब तक कोई मिला नहीं.

pearls

उस मकां से ग्रामोफोन की आवाज़ आती है
कहते हैं वो लोग कुछ पुराने ख़्यालात के हैं..
रात भर चाँदनी सिसकती रही, छत पर उनकी
वो समझते हैं कि दिन अब भी बरसात के हैं.

 

जिन्दगी से इतने करीब से मिला हूँ मैं
कि अब किसी भी बात पर चौंकता नहीं.



तुम्हारे प्यार ने दुनिया मेरी बदल डाली
रात के चाँद में दिखती है सुबह की लाली.



बाकी, फिर कभी भाग २ में. आज के लिए इतना ही.

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बुधवार, मार्च 17, 2010

शब्दचित्र कलाकृति हैं..

कहते हैं शब्दचित्र कलाकृति हैं, हृदय में उठते भावों के रंग से कलम की कूचि से कागज पर चित्रित.

कवि, शब्दों को चुनता है, सजाता है, संवारता है और उन्हें एक अनुशासन देता है कि शब्द अपने वही मायने संप्रषित करें जिनकी उनसे अपेक्षा है.

हर शब्द नपा तुला, रचना को संतुलित रखता और अन्य शब्दों के साथ मिल कर, अपनी गरिमा को बरकरार रखते हुए, पूरी रचना को एक आकृति प्रदान करता.

काव्य सृजन एक कला है और कवि एक कलाकार.

akshar

ऐसे में न जाने क्यूँ मेरे साथ अक्सर अनहोनी सी बात हो जाती है, तब सोचता हूँ कि जाने कैसे होते होंगे वो कलाकार:

शब्द
जब निकल जाते हैं
मेरे
मेरे होठों के बाहर
तो बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ

शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं

-समीर लाल ’समीर’

कौन जाने सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा होता है? मेरे साथ तो अनहोनी धटनाओं की फेहरिस्त है, आदत सी है मुझे इनके साथ जीने की:

ladys

आज अजनबी सी लग रही थी

अपनी परछाई..

बस, ऐसे में

न जाने क्यूँ..

तुम याद आई!!

-मौसम बदल रहा है...
देर शाम धूप नहीं रहती अब!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, मार्च 14, 2010

सो कॉल्ड एलीट ग्रुप

सो कॉल्ड एलीट ग्रुप- तथाकथित अभिजात्य वर्ग. आम लोगों की पहुँच से बाहर. आम जन के मानस पर हर वक्त यह छाया रहता है कि जाने कैसी दुनिया होगी उनकी.

एलीट वर्ग में कोई यूँ ही तो नहीं आ जाता-जरुर व्यस्त रहते होंगे. आम जन के बीच बैठ समय बिताने लगें तो फिर काहे के एलीट. बात समझ में आती है. लेकिन उनकी बात समझने में दिक्कत होती है जो आमजन से दूरी मात्र इस कारण कर बैठे हैं ताकि आमजन उन्हें एलीट समझे.

पर्याप्त दूरी बनाये रखने के लिए वो लबादा ओढ़े भले ही घर में दिन के उजाले में सोते रहेंगे और रात गये अँधेरे में यह पता करने धीरे से आकर झाँक जायेंगे कि आमजन ने मुझे एलीट समझना शुरु किया कि नहीं.

एक भय भी रहता होगा उनके मन में कि कहीं लोग पहचान न जायें कि मैं एलीट हूँ ही नहीं, बना एलीट हूँ. ये बात उन चार खास दोस्तों तक ही बनी रहे जो मेरे साथ खुद भी इस नाटक में शामिल हैं, तो ही ठीक. यह भी डर होता होगा कि कहीं उन चार में से एकाध एलीटता से उकता कर वापस अपने मूल खेमें में जाकर भंडा फोड़ न कर दें कि हम चारों रंगे सियार हैं.

ऐसे भयाक्रांत हो जीने से तो बेहतर है कि मूल खेमे में ही रहते हुए जीवन गुजारे भले ही कुछ कम सक्रियता रहे. सक्रियता तो यूँ भी एलीट दिखने के चक्कर में खत्म सी हो ही चुकी है.

हर समाज में तो हर तरह के लोग होते हैं कुछ अति सक्रिय, कुछ कम सक्रिय..फिर खेमा बदली का ढोंग क्यूँ? चाँदी की परत चढ़वा देने से कुछ समय तो चाँदी के होने का भ्रम पैदा कर सकते हैं मगर चाँदी हो तो नहीं सकते. अपने मूल स्वरुप में ही जीवन जीना हमेशा सरल और सहज होता है.

ढोंग में समय न नष्ट करो. उसे सृजनात्मक कार्यों में लगाओं. क्या पता तुम्हारे कार्य तुम्हें वाकई एक दिन एलीट वर्ग में ले जाकर खड़ा कर दें.

black_king

अब, एक लाल एण्ड बवाल की जुगलबंदी:

मौसम में घटा जब, सुहानी आ जाए
ठहरी हुई लहरों में, रवानी आ जाए

इस कदर भी न पत्थर, हुआ जाए के
ख़ुद में खु़दा की गुमानी आ जाए

बज़्म फिर रज़्म में, आज बदले नहीं
फिर न बातों में मज़हब-ज़बानी आ जाए

बुलंद हो जाए हौसला जो दिल में अगर
बूढ़ी-बूढ़ी रगों में, जवानी आ जाए

ज़िन्दगी में कुछ ऐसा भी, करते चलें
मौत पर अपनी छपकर, कहानी आ जाए

चाँद के कारवाँ के सितारों का नूर,
काश लेकर के उनकी, निशानी आ जाए

सख़्त नफ़रत में माहिर, ज़माने को भी
देखें शायद, यूँ उल्फ़त, निभानी आ जाए

***

बज़्म= सभा, महफ़िल
रज़्म= युद्ध

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बुधवार, मार्च 10, 2010

इकतारे की धुन...

टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..

मन डोले मेरा तन डोले...

दिल का गया करार रे..

ये कौन बजाये बांसुरिया

ektara

इकतारे पर यह धुन बजाता जब वो घर के सामने से निकलता..तो वाकई मन डोल जाता.

मिट्टी के दिये का बना वो इकतारा...बचपन से उसकी घुन लुभाती आई. जब भी वो गुजरता, अम्मा से जिद्द कर एक इकतारा खरीद लेता और फिर घंटो उस धुन को निकालने की कोशिश करता लेकिन कभी भी वो धुन नहीं निकल पाई और हर बार कुछ कोशिशों के बाद दिया फूटने के साथ उस इकतारे का अंत होता. दिया फूटने से न सिर्फ इकतारा खत्म होता बल्कि मेरे भीतर पल रहा एक स्वपन भी टूटता कि काश, मैं भी कभी वो धुन निकाल पाऊँ.

सारी जिन्दगी दूर बजती अनेकों धुन आकर्षित करती रहीं और मैं भागता रहा उन साजों के पीछे. बस इक उम्मीद लिए कि मैं भी वैसी ही धुन बजा लूँगा. कभी यह एहसास ही नहीं हुआ कि हुनर साज का नहीं, साधक का है.

आज जब जिन्दगी के पन्ने पलटाता हूँ तो पाता हूँ कि जाने कितने इकतारे टूटे, जाने कितनी बाँसूरियाँ महज एक बांस का टुकड़ा बन कर रह गई और मैं भागता रहा उस धुन को बजाने जिसकी महारत हासिल करने लिए उस साधक नें कितनी लगन के साथ मेहनत की होगी.

अगर जान पाता उस मेहनत के एक अंश को भी तो शायद उस धुन को बजाने का लोभ ही न आता किन्तु हम सभी तो दूसरे के इकतारे की आवाज सुन भागे जा रहे हैं इस जीवन की अबूझ दौड़ मे और नित तोड़ते जा रहे हैं बेवजह ही न जाने कितने इकतारे, मिट्टी के दिये से बने.

बस, इक उम्मीद है कि इक दिन साज बज उठेगा:

टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..

मन डोले मेरा तन डोले...

दिल का गया करार रे..

ये कौन बजाये बांसुरिया

अब इक उम्र गुजर जाने पर सब जानते हुए भी मन है कि डोलता रहता है और दिल का करार जाता रहता है.

काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.

खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...

कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...

-समीर लाल 'समीर'

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रविवार, मार्च 07, 2010

यूँ बीत गया समय...

इधर मैं कुछ लिख नहीं रहा हूँ. बिल्कुल चुप!

मैं तब भी चुप था, जब उसकी शादी होना तय हुआ था.

उस रात चाँद खामोश था और मैं अपनी छत से कूद उसके छतरी वाले कमरे में उसका हाथ थामें बस उसे मौन देखता रहा था.

हमारे बीच एक घुप्प सन्नाटा पसरा था और उस छतरी वाले कमरे में रखा वह पुराना पियानो-सफेद कफन की मानिंद चादर ओढे जाने कौन सी मौन धुन छेड़ रहा था अपनी टूटी हुई बीट्स से.

वो मौन संगीत, मुझमें बसा है आज भी. हर धडकन के साथ कानं में गूँजता है. धड़कन रुके तो इस गूँजार से छुटकारा मिले.

वह शादी के बाद चली गई और मैं..वहीं रुका हूँ, उस छतरी वाले कमरे में, उस मौन पियानो के संगीत के साथ-सोचता हूँ शायद मेरा फैसला ही सही था जो उसकी अगली शाम मैने उससे उस कोने वाले पार्क में सुनाया था और फिर....कल उसको देखा.....

woman_crying

कल शाम

बरसों बाद

जब तुम्हें देखा

अपने साजन के साथ

खिलखिलाते...

तो

मुझे याद आये

न जाने कितने

तुम्हारे चेहरे

रोते....

एक वो

जब तुम मेरे काँधे पर सर रख

रोती रही थी घंटो

एक वो

जब मेरी पीठ से पीठ टिकाये

तुम्हारी सिसकियाँ नहीं थमती थी..

एक वो

जब तुम अपने ही धुटनों में

मूँह छिपाये

आँसू बहाती रही...

एक वो

जब तुम मुझे देखती रही

और

आँसू गिराती रही...

और

एक वो

जब तुमने आँसू बहाये थे

उस खत पर

जिस पर मैने लिखा था..

अलविदा....

मुझे वो चेहरे याद आये,

न जाने क्यूँ!!!

-समीर लाल 'समीर'

-उधेड़ बून बनी हुई है, वक्त उलझा है जाने किन व्यस्तताओं में और इस बीच कब मेरी जिन्दगी की डायरी, मेरे भावों का साक्षी, यह ब्लॉग अपनी चार साल की उम्र पूरी कर गया..गुजरे २ मार्च को, बता ही नहीं पाया. बहाव बना है तो आता रहेगा.

आपकी शुभकामनाओं और स्नेह का आकांक्षी बना रहूँगा.

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सोमवार, मार्च 01, 2010

गीला रंग मोहे लगाई दो!!

पिछले साल होली पर यह गीत लिखा था किन्तु इस साल अदा जी की आवाज और संतोष जी की म्यूजिक नें इस गीत में चार चाँद लगा दिये. बिना किसी की भूमिका के आप आनन्द उठायें.

 

चढ़ गया रे फागुनी बुखार,
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

रंग लगा दो,
गुलाल लगा दो,
गालों पे मेरे
लाल लगा दो..
भर भर पिचकारी से मार,
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

चढ़ गया रे फागुनी बुखार,
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

सासु लगावें
ससुर जी लगावें,
नन्दों के संग में
देवर जी लगावें..
साजन का करुँ इन्तजार,
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

चढ़ गया रे फागुनी बुखार,
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

गुझिया भी खाई
सलोनी भी खाई
चटनी लगा कर
पकोड़ी भी खाई..
भांग का छाया है खुमार..
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

चढ़ गया रे फागुनी बुखार,
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

हिन्दु लगावें
मुस्लमां लगावें,
मजहब सभी
इक रंग लगावें..
मुझको है इंसां से प्यार..
गीला रंग मोहे लगाई दो!!

चढ़ गया रे फागुनी बुखार,
गीला रंग मोहे लगाई दो!!


-समीर लाल ’समीर’

 

holimubaarak

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