शनिवार, अगस्त 29, 2020

हाय रे, ये जी का जंजाल!!




मुन्नू याने पिछले ढाई दशक से भी ज्यादा समय से मेरे जी का जंजाल.
मेरे मित्र शर्मा जी का बेटा है. पारिवारिक मित्र हैं तो सामन्यतः न पसंदगी को भी पसंदगी बता कर झेलना पड़ता है. शायद शर्मा जी का भी यही हाल हो मगर उससे हमें क्या?
मुन्नू क्या पैदा हुए, शर्मा शर्माइन सारी शरम छोड़ कर उसी के इर्द गिर्द अपनी दुनिया सजा बैठे. फिर क्या, मुन्नू ने आज माँ कहा, मुन्नू आज गुलाटी खाना सीख गये, मुन्नू चलने लगे. मुन्नू सलाम करना सीख गये और जाने क्या क्या. हर बात की रिपोर्टिंग बदस्तूर फोन के माध्यम और आ आकर या बुला बुलाकर मय प्रदर्शन के जारी रही.
बेटा, अंकल को सलाम करो..बीस बार बोलने पर मुन्नू भी टुन टान करके एक बार सलाम किये..फिर क्या, सब लगे उसे चूमने..खूब खुश होकर अतः हम भी खुशी से हँसे. वाह, वेरी गुड करते हमारा मूँह दुख गया मगर शर्मा दंपत्ति न थके. नित नये किस्से.
देखते देखते मुन्नू चार साल के हो गये. दीवार से लेकर फ्रिज तक पर पेन्टिंग ड्राईंग में महारत हासिल कर ली. मूंछ वाली रेलगाड़ी, कुत्ते से बदत्तर सेहत वाला पंखधारी शेर, गमले में उगता आधा कटा पपीते के आकार का सेब, नीला केला..सब बनाना सीख गया. शर्मा दंपत्ति का सीना गर्व से फूला न समाता और हम एक चाय की एवज में वाह वाह करते रह जाते.
वाह वाही से बालक मुन्नू इतना उत्साहित हुए कि एक दिन हमारे ड्राईंग रुम की दीवार पर उड़ती हुई मछली के सर पर गुलाब का फूल उगा गये. अब हमें काटो तो खून नहीं, मगर क्या करते. खुद ही तो वाह वाह करके उत्साहित किये थे. मिटा भी नहीं सकते, शर्माइन के बुरा मान जाने का खतरा. वो तो इस चक्कर में साल भर बाद एक पैच मिटाने के लिए पूरे घर को पेन्ट करवा कर बहाना बनाया कि पेन्ट छूटने लगा था, तब बच पाये.
अब तक मुन्नू स्कूल जाने लगे. हमारे लिए नई जहमत रोज साथ लाने लगे. अब जब भी वो लोग बुलायें या हमारे यहाँ आयें तो कभी गिनती, कभी ए बी सी, कभी पहाड़ा और कभी कविता. दोनों हाथ एक के उपर एक चिपका कर दोनों अंगूठे उड़ा उड़ा कर नचाते हुए..
मछली जल की रानी है..(पीछे पीछे शर्माइन बैकअप में..हाथ लगाओ...!!!)
हाथ लगाओ, डर जाती है (शर्माइन की देखादेखी डरने का अभिनय करते हुए और फिर दोनों हाथ समेट कर बाजू में उस पर गाल टिकाते हुए)
बाहर निकालो...(आँख बंद करके मरने का अभिनय) मर जाती है....
शर्मा शर्माइन की तालियाँ..मैं सोचने लगा कि कितनी खुश किस्मत है यह मछली जो मर गई, मुन्नू की जमाने से सुनी जा रही घिसी पिटी कविता से निजात पा गई और हम अटके हैं जब मुन्नू पुनः मनुहार पर जैक एण्ड जिल सुनाने की ऐंठते हुए तैयारी कर रहे हैं. दिखाने के लिए हम भी ताली बजाते रहे और मुन्नू सुनाना शुरु हुए...

जैक एण्ड जिल....और अंतिम पंक्ति में...
जिल केम टंम्बलिंग आफ्टर...

और मुन्नू जी पूरी तन्मन्यता से धड़धड़ा कर गिरे. सबने ताली बजाई, मुन्नू हँसे, हम दिल दिल में रोये.चेहरे पर मुस्कान चिपकाये ताली बजाने लगे., समझिये कि भयंकर झेले. सर पकड़ लिया. घर पर सेरीडॉन की सर दर्द गोली का पत्ता हफ्तावारी लिस्ट में शामिल हो गया. लगने लगा जैसे सेरीडॉन ने शर्मा जी को अपना ब्रॉण्ड एम्बेसडर बना दिया हो. उन्हें देखते ही इसकी याद आ जाये.
अच्छा या बुरा, कहते हैं कैसा भी वक्त हो, गुजर ही जाता है. सो यह भी गुजरा. झेलते झिलाते मुन्नू २६ साल के हो लिये. दो महिने पहले उनका ब्याह भी कर दिया गया. तब से आज तक बुल्लवे पर उनके घर चार बार हम जा चुके है और वो हमारे घर प्रेशर क्रियेट कर बुल्लवे पर तीन बार आ चुके हैं. हर बार शादी के चार फोटो एलबम, जिसमें हल्दी, मेंहदी, शादी, रिसेप्शन और फिर हनीमून की तस्वीरें हैं और इन्हीं समारोहों का विडियो देख देख कर पक चुके हैं. ये बुआ जी, ये चाची, ये दादी, ये साला, ये दूर की साली-इन्फोसिस में, ये गुलाबी साड़ी में नौकरानी छल्लो, ये भूरा ड्राईवर..ये ये...वो वो...हाय, मेरे कान क्यूँ न फट गये, आँख क्यूँ न फूट गई. कहो उनकी बहू जिन रिश्तेदारों को न पहचाने, उन्हें हम बिना मिले अंधेरे में पहचान जायें, बिना किसी गफलत के. एक बार फिर घर में सेरीडॉन चल निकली है.
कल रात आये थे..इस बार शादी का विडियो बर्न करके दे गये हैं क्यूँकि हमें बहुत पसंद आया था. हमारे झूठ मूठ की प्रशंसा अगली बार लेड़ीज संगीत वाला भी बना कर दे जायेंगे, यह बात उन्होंने समय की कमी के कारण क्षमा मांगते हुए बता दी है. अब तो जब उस विडियो पर नजर जाती है, बस मन से एक ही उदगार निकलता है-
धन्य हो तुम..मेरे मुन्नू.
हम आगे के लिए भी तैयार हैं, जब अगले बरस तुमको बच्चा होगा. हमें तो मानो परम पिता परमेश्वर ने किसी पुराने जन्म का बदला लेकर सिर्फ झेलने को रचा है.
शायद, पिछले जनम में कवि रहा होऊँगा और लोगों को खूब झिलवाया होगा.
-समीर लाल ‘समीर’



भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अगस्त ३०,२०२० के अंक में:
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शनिवार, अगस्त 22, 2020

सुझावों का व्यक्तित्व बहुत कमजोर होता है


तिवारी जी को किसी ने बताया था कि अगर जीवन में सफल होना है, तो अपना एक मेंटर (उपदेशक) बनाओ। साफ शब्दों मे कहा जाए तो उस्ताद बनाओ। उन्हीं उस्ताद से उन्होंने सीखा था कि जनसेवक को जनता के लिए किए जा रहे कार्यों और योजनाओं के लिए जनता से सुझाव लेना चाहिये। उन सुझावों को अच्छी नजर से देखना परखना चाहिये। फिर अपने साथियों (जिसे मंत्रीमंडल भी कहते हैं) से सलाह करना चाहिये। परियोजना अमल हो जाने पर जनता से फीडबैक लेते रहना चाहिये। साथ ही यह भी समझाया कि  ‘निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
आई आई टी में दाखिले के लिए जो मास्साब ट्यूशन पढ़ाने आते थे, उनकी दाखिले के बाद क्या जरूरत? अतः जैसे ही सफल हो गए तो सबसे पहले तो मेंटर (उस्ताद) को अलग किया। मगर सलाहें झोले में सहेज कर रख लीं।
कुर्सी पर काबिज होते ही जो मकान मिला वो एकड़ों में फैला था। उसी के आंगन के आखिरी कोने में निंदक की कुटिया बनवा दी गई। निंदक शोर मचाता तो काम में विघ्न पड़ता अतः तिवारी जी का घर साउण्ड प्रूफ कर दिया गया। कुर्सी में बड़ी ताकत होती है अतः आनन फानन में उस कुटिया में निंदक के आने जाने का मार्ग भी पिछली सड़क से करवा दिया गया। लेकिन उस्ताद की सलाह से टस से मस न हुए। बहुत बाद में पता चला कि निंदक का दर्जा देकर उस्ताद को ही उस कुटिया में रखा गया था। जिसकी बातें सफल होने तक सलाह हुआ करती थीं, उसी की सलाहें सफल होने के बाद निंदा लगने लगी थीं। यही दुनिया का नियम हैं और मानव का स्वभाव।
जनता के सुझावों को इतना अधिक महत्व दिया गया की तिवारी जी ने एक सुझाव मंत्रालय ही बना डाला। उस मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार भी खुद अपने पास रखा।
जनमानस की भलाई हेतु हर परियोजना के लिए सुझाव मँगवाए जाते। जैसे ही सुझाव जनता से चल कर मंत्रालय में दाखिल होते वो सरकारी हो जाते। उन्हें फाइल में रखवाया जाता। सुझावों को किसी की बुरी नजर न लग जाए अतः उन्हें देखने पर ही अघोषित पाबंदी लगा दी गई। उन फाइलों को अलमारी में ताला लगा कर बंद करवा दिया जाता।
सुझावों का व्यक्तित्व बहुत कमजोर होता है। जैसे ही परियोजना पूरी हो जाती है तब कुछ सुझाव, सुझाव से बदल कर यथार्थ हो जाते हैं और कुछ सुझाव बेकार। अब किसका क्या हुआ, ये तो पता करोगे तो पता चलेगा मगर यह तय है कि परियोजना आ गई है अतः सुझाव अब सुझाव नहीं रहे। अब उन्हें सरकारी रद्दी का दर्जा प्राप्त हो गया है। जनता के मासूम हाथों से चलकर सरकारी कागजों के राजमार्ग से गुजरते हुए सरकारी रद्दी में तबदील होना ही  सुझावों की जीवन यात्रा है।
अतः उस परियोजना से संबंधित सुझावों की सरकारी रद्दी को कतरन बनवा कर उसे पैकिंग मटेरीयल की तरह से इस्तेमाल करने के लिए नीलाम करवा दिया जाता। इस तरह से तिवारी जी ने, न सिर्फ पैकिंग के श्रेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक सफल कदम उठाया बल्कि पर्यावरण के प्रति अपनी सजगता भी दर्शाई। एक तीर से दो निशाने तो बहुतेरे लगा लेते हैं, लेकिन तिवारी जी का तो अंदाज ही निराला है। अतः तीसरा निशाना उनके चाहने वालों ने यह कह कर लगवाया कि इसे कहते हैं मौलिक सोच।
वह अपने साथियों से सभी परियोजनाओं पर सलाह लेते। सभी मंत्रीमंडल के साथी बारी बारी अपनी सलाह रखते, जिसे तिवारी जी कान में यूएनओ स्टैन्डर्ड वाले ट्रांसलेटर हैडफोन लगा कर ध्यान से सुना करते। ट्रांसलेटर हैडफोन की खासियत यह होती हैं कि उसमें से आ रहा संवाद किसी भी भाषा में बोला गया हो, सुनने वाले की भाषा में परिवर्तित होकर सुनाई देता है। यह प्रोग्रामिंग के जरिए उस हैडफोन को सिखाया जाता है।  तिवारी जी के निर्देश पर उनके हैडफोन से हर संवाद का अनुवाद सिर्फ इतना ही होता था कि  ‘जी  साहब, आपने बिल्कुल सही सोचा है और मैं आपका अनुमोदन करता हूँ। आपकी जय हो, आप हो तो सब मुमकिन है’। तिवारी जी अपने साथियों की सलाह सुन कर आनंदित होते और उनको धन्यवाद ज्ञापित करते। धन्यवाद पाकर सभी साथी प्रसन्न होते कि  उनकी सलाह तिवारी जी पसंद आई। एक प्रसन्न टीम ही टीम लीडर की लीडरशिप की सफलता का प्रमाण होती है। इस तरह से तिवारी जी ने अपनी लीडरशिप का लोहा मनवा लिया था।
परियोजना के अमल होते ही तिवारी जी अपने उस्ताद की अंतिम सलाह को अमली जामा पहनाते हुए जनता का फीडबैक लेने के सर्वे कराते। जनता से निवेदन किया जाता की बिना किसी दबाव के निष्पक्ष सर्वे का विकल्प चुन कर तिवारी जी के कार्यों का आंकलन करें। जनता को चार विकल्प में से कोई भी एक चुनना होता बिना किसी दबाव के – (अ) बेहतरीन, (ब) अतुलनीय, (स)अद्भुत, (द) विश्व स्तरीय
अगले दिन सर्वे का परिणाम सार्वजनिक कर दिया जाता। तिवारी जी पुनः किसी नई परियोजना में पुनः इसी परिपाटी को अपनाते हुए अथक लगे रहते और एक सच्चे जनसेवक होने का श्रेय अर्जित करते रहते।  
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अगस्त २३ ,२०२० के अंक में:


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शनिवार, अगस्त 08, 2020

जादूनगरी से आया है कोई जादूगर



नाम है सेवकराम। वह शुरू से पैदावार के पक्षधर रहे। पैदावार में उनकी अटूट आस्था का चरम यह रहा कि जब गाँव मे भीषण सूखा और अकाल पड़ा, तब भी उनके घर में मुन्ना पैदा हुआ। बाकी बरसों में जब जब खेतों में फसल लहलहाती, उनके आँगन में भी नई नई किलकारियाँ गूँजा करतीं।
उनका दूसरा स्वभाव खुद किसी भी बात का श्रेय न लेने का था। अपने खेत में भी चाहें वह खुद कितनी भी मेहनत करके फसल की पैदावार करें, श्रेय सदा मजदूरों को देते। उनका मानना था कि बिना इन मजदूर भाईयों के पसीना बहाये इतनी फसल कभी न होती। इसी वजह से मजदूर और मेहनत करते और वह फसल बेचकर मजदूरों को अच्छी मजदूरी देते। उनके परिवारों का ख्याल रखते और पूरे गांव में खुशहाली पैदा करते। इस तरह मजदूरों की मदद से धन पैदा करके वह खुद भी खासे धनवान हो चले थे।     
देखते देखते उनके आंगन में एक पूरी क्रिकेट टीम मय अंपायर के तैयार हो गई। खुद कभी श्रेय न लेने की आदत के चलते वह इस टीम को भगवान का दिया प्रसाद बताते। प्रसाद को जिस श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया जाता है, उसी तरह ग्रहण करते रहे।
उनका यही स्वभाव उन्हें न सिर्फ अपने मजदूरों के बीच बल्कि पूरे गांव में लोकप्रियता के चरम पर ले गया। जैसा कि लोकप्रियता का परिणाम होता है, उनके अंदर भी लोकप्रियता भुनाने की ललक पैदा हो गई, जिसे उन्होंने पुनः ईश्वर का प्रसाद एवं आदेश माना और वह सरपंच हो गए।  कहते हैं न कि वातावरण और माहौल मानसिकता पैदा करता है और इसीलिए शायद आपसी रिश्तों में रोमांस पैदा करने के लिए नवयुगल हनीमून मनाने कश्मीर और स्वीटजरलैण्ड जाते हैं।
राजनीति के वातावरण और माहौल में आते ही उनके भीतर भी कूटनीति और चालबाजी पैदा हुई किन्तु भीतर की पैदाइश का बाहर किसी को पता न लगने देना भी उनके चतुर्भुजीय स्वभाव का तीसरा कोण था। इसी स्वभाव के चलते गाँव वाले सिर्फ उनके आँगन में खेल रही क्रिकेट टीम से परिचित थे अन्यथा अगर भीतर की बात जानें तो वह सब मिला जुला कर कम से कम दो टीमों की मैनेजरी तो काट ही रहे थे। इसे भी वह ईश्वर का गुप्तदान की तर्ज पर दिया गया गुप्तप्रसाद मान कर गुप्त ही बनाए रहते।
सरपंची में भी समस्त कार्यों का श्रेय ठेकेदारों को देकर वह गुप्तदान प्राप्त करते रहे। इस तरह एकत्रित दान से पैदा हुई अकूत संपदा को भी कुछ ऐसा गुप्त रखा कि कोई कानों कान न जान पाया। गुप्त बनाए रखने की इस आदत ने लोकप्रियता में इत्र का काम किया। लोकप्रियता हवा के संग लहराती बलखाती गांव की सरहद पार करके पूरे राज्य में सर्वत्र फैल गई।
इस तरह सेवकराम ने पूरे राज्य की सेवा करने का अवसर पैदा कर लिया। इस सफलता की चढ़ाई चढ़ते हुए उन्होंने तमाम पायदानों को पाठशाला माना और लगन से चालबाजियों के नये नये पैंतरे सीखते रहे। हर पैंतरे को वो नए नए नाम देकर उनके नए स्वरूप पैदा करते। किसी को समाजसेवा, तो कभी जनहित और कभी गरीबों के प्रति अपना दुलार आदि आदि न जाने क्या क्या बताते। इन नामों की पैकेजिंग के भीतर क्या है, उसे वह आदतानुसार गुप्त ही रखते। इस तरह वह आमजन में उनके परिणाम के इन्तजार की ललक पैदा करते। जब इंतजार की घड़ियां असह्य होने लगती, तब वह एक नई ललक पैदा कर देते। सतत ललक की पैदावारी में वह महारत की उस चोटी पर जा पहुंचे, जहाँ से महारत जादूगरी नजर आती है।
इस जादूगरी ने उनके भीतर एक ऐसा जादूगर पैदा कर दिया जो एक पूरी आबादी को हिपनोटाईज करना जान गया था। वो गांव में कचरे के ढेर पर बैठे कव्वे को हरियाली भरे बाग में नाचता मोर बताता और सम्मोहितजन नृत्य करने को मचल उठते और उसका जयकारा लगाते। अब वह नित नए खेल दिखाता। सम्मोहितजनों को कभी देश को सिंगापुर तो कभी हस्तिनापुर बताकर नए नए नजारे दिखाता और तालियां बटरोता।
पैदावारी का वो आज भी उतना ही बड़ा पक्षधर है। इसी के चलते भले ही किसी को रोजगार मिले न मिले मगर वह रोजगार के अवसर पैदा करने में जुटा है। जिस वक्त आपदा की रोकथाम पर काम होना चाहिये, वह उस आपदा से अवसर पैदा करने में जुटा है।
बचपन में जादूगर पी सी सरकार का जादू देखने जाया करते थे और आज सेवकराम की सरकार का जादू। दोनों में ही तालियों की गड़गड़ाहट के रुकते ही अगला खेला पेश कर दिया जाता है। अंतर सिर्फ इतना है कि वो तीन घंटे दिखाते थे और ये पाँच साल।
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार अगस्त ९ , २०२०




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रविवार, अगस्त 02, 2020

जो शौक नहीं पालते, उनकी जिन्दगी शोक में गुजरती है।


तिवारी जी शौकीन मिजाज के आदमी हैं। उन्हें गुस्सा होने का शौक है। वो कभी भी कहीं भी अपना यह शौक पूरा कर लेते हैं। उनके गुरु जी ने उन्हें बचपन में सिखाया था की हर इंसान को कोई न कोई एक शौक जरूर रखना चाहिये। जो शौक नहीं पालते, उनकी जिन्दगी शोक में गुजरती है। अतः गुरु की सीख को शिरोधार्य करते हुए कालांतर में उन्होंने गुस्से को अपना शौक बनाया। तिवारी जी उस जमाने के आदमी हैं जब गुरु का दर्जा मां बाप से भी ऊपर ईश्वर तुल्य होता था। अब तो न गुरु का कोई दर्जा है और न मां बाप का। आजकल तो बिना किसी दर्जे के विश्वगुरु बनने की होड़ में सभी जुटे हैं और गाली खा रहे हैं। खा तो वो और भी बहुत कुछ रहे  हैं मगर गाली सुनाई और सोशलमीडिया पर दिखाई दे जाती है।
आज तिवारी जी अखबार वालों से गुस्सा थे। उनका कहना है कि हम इस वैश्विक महामारी से नहीं डरते और न ही मौत से।  मगर मास्क इसलिए लगाए हैं की अगर गलती से वायरस लग गया और रिपोर्ट पाज़िटिव आ गई, तो ये अखबार वाले हमें मात्र ५६ साल की आयु में ही लिखेंगे कि ५६ साल का बुजुर्ग पॉजिटिव पकड़ाया। एक तो पकड़ाया ऐसे लिखते हैं मानो कोई डाकू पकड़ाया हो और उस पर ५६ साल की बाली उम्र में बुजुर्ग?
तिवारी जी उनको बुजुर्ग लिखा जाना बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे। बीमारी से भले न मरें मगर बुजुर्ग कहे जाने का आधात उनका दिल नहीं बर्दाश्त कर पाएगा। वो तो ४ साल बाद होने वाले चुनाव लड़ने का मन इसीलिए बना रहे हैं ताकि शहर को युवा नेतृत्व प्रदान कर पायें। वैसे इनको जिनसे विज्ञापन मिलता है वो तो ७० साल में भी युवा और कर्मठ नेतृत्व करने वाला दिखाई देता है और बाकी हम ५६ साल में बुजुर्ग। इसीलिए ये अखबार वाले हमें पसंद नहीं हैं।
इसी शौक के चलते एक बार वे अपने मोहल्ले के कुछ लोगों से महज इस बात पर गुस्सा हो गए थे क्यूंकि  उन्होंने तिवारी जी नेता जी कह दिया। तिवारी जी का मानना है की वे समाजसेवी हैं और जब वे चुनाव लड़ेंगे तो नेतागिरी  के लिए नहीं, समाज की सेवा के लिए लड़ेंगे। नेता उनकी नजर में भृष्ट व्यक्ति होता है और वे अपने आपको नेता कभी नहीं कहलवाया सकते।
चूंकि वे पुराने समय के भावी युवा हैं अतः उनकी अपनी मान्यताएं और समझ है। वह नेता नहीं समाज सेवी हैं। उनका सहज और सरल जीवन एक साधु जीवन है तो वह स्वयं के लिए नहीं अपितु समाज के लिए जी रहे हैं। वह जनता को भाषण नहीं देते, वे उसे प्रवचन पुकारते हैं। उनके प्रवचनों में वादे नहीं, उच्च जीवन शैली हेतू सूक्तियां समाहित होती हैं। वह गरीबी दूर करने से लेकर रोजगार के कूत अवसरों को उपलब्ध कराने वाले वाक्यों को उच्च जीवन जीने की सूक्ति बताते हैं। समाज के शोषण, फिर वो चाहे जैसा भी हो उसे ईश्वर द्वारा निर्धारित तप और परीक्षा का वह कठिन मार्ग बताते हैं जिसकी आग में तप कर यह समाज सोना बनेगा और देश पुनः वही सोने की चिड़िया कहलाएगा जो न जाने कब और कहां उड़ गई। 
वह अपने गुस्सा हो जाने के शौक को भी समाज सुधार की दिशा में लिया गया एक कदम ही मानते हैं। उन्होंने तुलसी पढ़ा है और तुलसी की खासियत ही यही है की जिसका जो दिल करे वो उसे उन अर्थों में समझ कर व्याख्या कर ले। अतः ‘भय बिन होय न प्रीत गोसाई’ की तिवारी जी की व्याख्या यह है की भय के बिना कोई काम नहीं होता, यहां तक की प्रीत भी नहीं। अतः प्रेमपूर्वक काम करवाने हेतु उन्हें गुस्सा करना पड़ता है। उन्हें ज्ञात है की इस शौक का विपरीत असर उनकी तबीयत पर पड़ता है किन्तु समाज सेवा में समर्पित यह संत समाज की भलाई के लिए ये दर्द भी सहता है।
उनका विकास का मॉडल किसी प्रदेश का नहीं, अध्यात्म और ध्यान का है। उनका मानना है की अगर इंसान ने अध्यात्म और ध्यान का मार्ग अपना कर अपना चित्त शांत कर लिया तो वह खुशहाल हो जाएगा। फिर वह अगर रोडवेज की टूटी बस मे भी यात्रा करेगा तो इस बात से कृतज्ञ महसूस करेगा कि अगर यह न होती तो मैं आज थकाहारा पैदल जा रहा होता। जिस दिन समाज की ऐसी मानसिकता हो जाएगी तो उसे हर जगह विकास ही विकास नजर आयेगा। विकास हेतु मानसिकता विकसित करना जरूरी है।
मैं तो तब उनका मुरीद हो गया, जब उन्होंने अपने द्वारा  भविष्य में स्वीकार की जाने वाली रिश्वत को दक्षिणा बताया। वह दक्षिणा जो कि लोग उनके द्वारा समाज उत्थान हेतु किये गए कार्यों से अभिभूत होकर चढ़ावे में दे जायेंगे। कुछ और पूछने की हिम्मत मुझमें थी नहीं।
क्या पता मुझ पर ही न वो अपना शौक पूरा करने लगा जाएं। किसी के गुस्से से भला कौन नहीं डरता?
-समीर लाल ‘समीर’    

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के अगस्त ३,२०२० के अंक में:
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