शनिवार, फ़रवरी 08, 2025

इससे बड़ा सेलेब्रिटी स्टेटस भला और कौन सा होगा

 

अब तिवारी जी को अफसोस हो रहा है कि वो समय पर क्यूँ नहीं चेते। उनके चेहरे पर चिंतन, अफसोस और गुस्से की त्रिवेणी बह रही है। अफसोस का विषय भी त्रिवेणी से ही संबंधित है अतः त्रिवेणी अकारण ही नहीं है चेहरे पर।

उनके क्षोभ के केंद्र में उनके पिता जी हैं जिनको गुजरे हुए भी 30 बरस हो चुके हैं। दरअसल उनके पिता जी ही नहीं, दादा जी भी इसी शहर की उन्हीं गलियों में बड़े हुए जिसमें तिवारी जी स्वयं बड़े हुए। इस मामले में यह शहर उनका पुश्तैनी शहर है। छोटा है मगर है तो पुश्तैनी शहर। दादा जी की तरह ही तिवारी जी के पिता जी को भी इस बात का गर्व था और वही पुश्तैनी गर्व तिवारी जी को भी विरासत में मिला था जिसे वह अब तक सर पर बैठा कर रखते थे। जवानी में कोई कहता भी कि किसी बड़े शहर में जाओ और कुछ बड़े काम को अंजाम दो, तो तिवारी जी तमतमा जाते। कहते कि होते होंगे नमकहराम लोग मगर हम चंद सिक्कों की ख्वाहिश में अपने प्यारे शहर को कभी नहीं छोड़ेंगे। फिर वो नोसटॉलजिक हो जाते।

कैसे छोड़ दें यार इस शहर को। यहाँ की सड़कें, यहाँ की गलियां यहाँ के लोग, इस शहर की आबो हवा -सब तो अपनी हैं। आज तक जो भी पहचान मिली है, जो भी मुकाम हासिल किया है- सब इसी शहर की तो देन है और लोग कहते हैं कि किसी बड़े शहर चले जाओ? ये भी क्या बात हुई? बड़े शहर में भी खाएंगे तो रोटी दाल ही तो वो तो यहाँ भी मिल ही रही है, फिर किसलिए पैसे के पीछे भागें?

खैर यह तो तिवारी जी कह रहे हैं मगर जानने वाले तो जानते ही हैं कि पहचान के नाम पर सिर्फ चौराहे पर पान की दुकान पर फोकट में ज्ञान बांटना और मुकाम के नाम पर नित घर से निकल कर पान की दुकान और रात में दारू पी कर घर वापसी से आगे कुछ भी हासिल न हुआ ताजिंदगी।

थोड़ा बहुत जो पैसा आता है वो या तो दलाली से या किराये से- एक कमरे की दुकान जो एक कमरे के घर के नीचे विरासत में मिली। दलाली भी नगर निगम के कामों की किया करते क्यूंकी पार्षद उनका शागिर्द रहा हमेशा से। उसे भी ऐसे ही खाली लोगों की जरूरत रहती है चुनाव जीतने के लिए। लोग बताते हैं कि बंद कमरे में ये पार्षद महोदय के पैर छूते हैं मगर चौराहे पर उनकी अनुपस्थिति में उन्हें अपना चेला और शागिर्द बताते हैं ताकि दलाली चलती रहे।

तिवारी जी की महारत जिंदा लोगों को मरे का सर्टिफिकेट दिलाने में थी। इसमें मोटा पैसा भी था। प्रधानमंत्री रोजगार योजना में एक लाख का कर्ज लेकर उसे माफ कराने का एक मात्र तरीका था कि ऋणधारी की मृत्यु हो जाए। बस यही महीन शब्दों में लिखी जानकारी तिवारी जी के हाथ लग गई थी। तब से प्रधान मंत्री से ज्यादा इस योजना का प्रसार प्रचार तिवारी जी करने लग गए। सबसे कहा करते कि सरकार तुम्हें कर्ज देगी, मैं तुम्हें कर्ज माफी दिलाऊँगा। 25% दलाली पर भला कौन न मान जाता वो भी ऐसे शहर के वाशिंदे -जहां कर्ज ही एक मात्र पूंजी है लोगों की। वरना विकास के नाम पर ब्याज का ही विकास होता आया है।

खैर, तिवारी जी के अफसोस का विषय आज यह रहा कि इनके पिता जी बचपन में इनको लेकर मुंबई या दिल्ली क्यूँ नहीं चले गए? कुछ ढंग का काम करते। बच्चों को पढ़ाते लिखाते। तो तिवारी जी भी ऐरोस्पेस साइंस में आईआईटी कर लेते और आज इस दिव्य कुम्भ में आईआईटी वाले बाबा बन कर सेलेब्रिटी स्टेटस पा गए होते।

अब तिवारी जी को कौन समझाए कि दिल्ली मुंबई में भी 12 वीं फेल बच्चे बैठे हैं- सब बच्चे आईआईटी में नहीं चले जाते हैं। छोटे छोटे कस्बों से भी बच्चे आईआईटी में जाते हैं। साथ ही हर आईआईटी पास कर लेने वाला बच्चा बाबा नहीं बन जाता और हर बाबा आईआईटी वाला नहीं होता।

और जहां तक सेलेब्रिटी स्टेटस की बात है तो वह तो आप गाँव में चाय बेच कर और 12 वीं फेल होकर भी पा सकते हैं। जरूरत है जज्बे की। महा जन नायक से बड़ा सेलेब्रिटी स्टेटस भला और कौन सा होगा।

-समीर लाल ‘समीर’    

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 9 फरवरी, 2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/15907

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शनिवार, फ़रवरी 01, 2025

आज दान के मायने ही बदल गए हैं

 


आपने बहुत से दानी देखे और सुने होंगे। कर्ण को तो खैर दानवीर की उपाधि मिली हुई थी। उनको दानवीर कर्ण के नाम से ही जाना जाता था।

बहुत साल पहले जब मैं मुंबई में रहता था तब एक सज्जन से मुलाकात हुई थी। वह अपने व्यापार को अपने बच्चों को सौंप कर दिन भर दान धर्म में जुटे रहते। वह सुबह सुबह बॉम्बे अस्पताल के नीचे दवा की दुकान के पास आकर खड़े हो जाते। जब भी कोई दवा खरीदने आता और उसके पास या तो पैसे नहीं होते या कम होते तब यह सज्जन चुपचाप उसका पैसा भर कर उसे दवा दिलवा देते। न कभी किसी से अपना नाम बताते और न ही कभी किसी से अपना काम बताते। वह दवा की दुकान मेरे मित्र की थी और मैं अक्सर वहाँ बैठा करता इसलिए इनको जान गया था। सुबह से शाम तक में न जाने कितने लोगों की मदद कर जाते।

वहीं आजकल ऐसे दानवीर पैदा हो गए हैं कि दान देने के पहले अपने नाम की घोषणा सुनिश्चित कर लेते हैं। किस पत्थर पर उनका नाम खोदा जाएगा और फिर उसे भवन में कहाँ जड़ा जाएगा, यह जानना दान से अधिक जरूरी होता है उनके लिए।

वो रकम दान के लिए नहीं नाम के लिए देते हैं। हमारे मोहल्ले में एक हनुमान मंदिर बन रहा था। मोहल्ला सेठ ने उस जमाने में 5000 रुपये दान की घोषणा कर दी जबकि पूरा मंदिर ही 50000 रुपये में बन जाने वाला था। जमीन कब्जे की सरकारी, लेबर मिट्टी भक्तों की। सेठ जी का नाम भव्य शिला पर खोद कर ऐसे लगाया गया कि हनुमान जी का नाम एकदम छोटे अक्षरों में नजर आता। कई बार तो कन्फ़्युजन हो जाता कि यह सेठ जी का मंदिर है जिसे हनुमान जी ने दान देकर बनवाया है। मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में निश्चित ही सेठ जी ही मुख्य अथिति रहे और हनुमान जी के जयकारे से ज्यादा उनके जयकारे लगाए गए। बाद में पता चला कि मंदिर का पंडित साल भर तक सेठ जी के घर के चक्कर लगाता रहा मगर सेठ जी ने घोषित दान के 5000 रुपये कभी दिए ही नहीं। जब पंडित ने ज्यादा जोर लगाया तो उन्हें दान पेटी से चोरी के इल्जाम में थाने में पहले पिटवाया और फिर मंदिर से निकाल दिया। नया पंडित आया तो उसे पुराना किस्सा तो कुछ पता नहीं था, दान की बात भी खत्म हो गई। वो दान शिला पर सेठ जी का नाम पढ़ता और हनुमान जी से ज्यादा सेठ जी की भक्ति में नतमस्तक रहता।

दानियों की केटेगरी में एक केटेगरी रक्त दानियों की भी है। एक बार खून दान करेंगे और बिस्तर पर लेटे टेनिस बॉल पकड़े रक्त दान की तस्वीर सोशल मीडिया पर इतनी बार चढ़ाएंगे कि लगने लगता है पूरे हिंदुस्तान के हर प्राणी की रगों में इनका ही खून दौड़ रहा है। जैसे लंगर में खाना बंटते देखकर भूख न भी लगी हो तो भी खाने का मन कर ही जाता है।  वैसे ही इनको रक्त दान करता देख लगने लगता है कि चलो, एक बोतल चढ़वा ही लेते हैं। थोड़ा एक्स्ट्रा ही खून हो जाएगा तो कोई नुकसान तो करेगा नहीं।

चुनाव सामने है और आजकल मत दानियों की बहुत पूछ हो रही है। हर नेता हाथ जोड़ कर मतदान के लिए निवेदन कर रहा है। बहुतेरे मतदानी एक बोतल और कंबल में मतदान करने को तैयार हैं तो बड़े वाले दानी हवाई अड्डे के ठेके की एवज में चुनावी दान करने को तैयार हैं। हर दान की कुछ न कुछ कीमत लगाई जा रही है।

दान के मायने ही बदल गए हैं। कुम्भ हो या कोई और धार्मिक स्थल- भगवान का वरदान भी आमजन के लिए अलग और वीआईपी जमात के लिए अलग।  

इनसे अच्छा तो हमारे तिवारी जी का ही हिसाब है – शहर का कोई भिखारी ऐसा नहीं होगा जिसे तिवारी जी ने दान न दिया हो मगर वो दान उधार में देते आए हैं हमेशा। हर भिखारी को कहते हैं -हमारी तरफ से दस रुपये। जब भिखारी पैसे माँगता है तो कहते हैं खाते में लिख ले-कहीं भागे थोड़े ही जा रहे  हैं। किसी दिन आराम से हिसाब कर लेंगे। दान के बाजार का एक ऐसा नायाब हीरा हैं तिवारी जी जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। पूछने पर तिवारी जी बताते हैं कि वो भिखारी के अंदर व्यापारी वाली फ़ील डालना चाहते हैं कि वो भी उधार दे सकता है। कितनी उच्च सोच है तिवारी जी की।

और एक हमारी सरकार है जो व्यापारियों के अंदर भिखारियों वाली फील डालने में व्यस्त है और चुनावी दानियों के चलते जीत के लिए आश्वस्त भी।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के मंगलवार 02 फरवरी, 2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/15788

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सोमवार, जनवरी 27, 2025

उम्र बढ़ने के साथ साथ समाज के बदलते सम्बोधन

 

2006 की बात है। तब नया नया ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था। लिखना तो खैर क्या कहें – बातचीत जैसा कुछ भी छाप लेते थे और कुछ तुकबंदी टाइप कविता आदि भी। अखबार वगैरह में छपने का तो प्रश्न ही नहीं था। खुद का लिखा खुद के ब्लॉग पर छापने से भी कई बार खुद को मना कर देते थे यह कहते हुए कि कुछ कायदे का लिखो तब छापें। तब कुछ साथी ब्लॉगरों ने सलाह दी कि जब तक तुम सोचते हो कि लोग इस आलेख को बेवकूफी न समझें- छापे कि न छापे? तब तक तुमसे बड़ी बेवकूफियां लोग छाप कर मंच लूटे जा रहे हैं।

सलाह गांठ बांध ली। वो दिन है और आज का दिन है, कभी अपनी बेवकूफी छापने में न तो हिचकिचाए और न ही शरमाये और उससे भी बड़ी बात कि कभी अपनी बेवकूफी के सर्वश्रेष्ठ होने का घमंड भी नहीं किया तनिक भर भी। इसका नतीजा यह हुआ कि अपने ब्लॉग पर कुछ लिखा छपा कुछ पत्रिकाओं और अखबारों के संपादकों की नजरों से भी गुजरा।

संपादक पारखी होता है। वो खोज पा रहे थे कि सबसे कम बेवकूफी वाला कौन सा है और उसे छाप भी दे रहे थे। वो एक बार छापते और हम अपने पहचान वालों में सौ दफा बताते कि फलानी जगह छपे हैं। यह बताने का सिलसिला अनवरत तब तक चलता जब तक की फिर से कहीं और कोई दूसरा आलेख न छप जाए। जब इस बाबत अपनी पहचान में बताते तो ईमेल के सीसी में संपादक को भी रखते ताकि उन्हें पता रहे कि फेवर लौटाने के लिए हम देखो तुम्हारा कितना प्रचार कर रहे हैं। अक्सर तो संपादक एक ही चीज के लिए अपने प्रचार को इतनी बार देखकर घबराकर भी दूसरा आलेख खोज कर छाप देता ताकि प्रचार का मैटर तो बदले। वरना एक ही प्रचार को बार बार देखकर लोग बोरियत में हमारे आलेख के साथ साथ उनका अखबार और पत्रिका भी पढ़ना न छोड़ दे।

संपादक हैं तो संपादन किया यह दिखाना भी चाहिए अतः संपादक मुझसे कहते कि समीर, इसमें यह वाली लाईन बदल ऐसे कर लो और फिर मुझे भेजो तो पत्रिका के अगले अंक में लगाता हूँ। कई बार मन किया कि कह दें – भाई, आप ही बदल कर छाप दो मगर संस्कार आड़े आ गए और खुद सलाहानुसार बदल कर भेज कर छप लिए और ऐसे ही बार बार एक लाईन बदल कर छपते रहे।

एक दो साल ऐसे ही वो छापते रहे और हम छपते रहे। करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान – तो शायद लेखन कुछ कम बेवकूफी भरा होने लगा होगा और उम्र तो समय के साथ कदम ताल मिलाती ही है। गौर किया तो पाया कि वो संपादक महोदय अब मुझे समीर की जगह समीर भाई से संबोधित करने लगे। मुझे लगा शायद इतने दिनों के संबंध है अतः घनिष्ठता आना भी स्वाभाविक है।

उम्र तो रुकती नहीं अतः और बढ़ी। लिखना भी लिखने वालों का कहाँ रुकता है तो वो भी बढ़ता रहा। समीर भाई समय के साथ साथ समीर जी हुए और फिर आदरणीय समीर जी।

लेखन वही, पत्रिका वही – पंक्ति बदलने का सुझाव भी वही, यहाँ तक कि संपादक भी वही। कुछ नहीं बदला सिवाय हमारे सम्बोधन के।

पिछले सप्ताह जो ईमेल आई पंक्ति बदलने के लिए उसमें सम्बोधन था श्रद्धेय समीर लाल जी। इतने बरसों मे आज पहली बार मैं थमा और विचार किया इस बात पर कि निश्चित ही उम्र बढ़ने के साथ साथ समाज की नजर में आपके संबोधन बदलते जाते हैं।

जो कभी नाम के साथ पत्रिका में लिखते थे कि लेखक एक चर्चित ब्लॉगर हैं वो धीरे धीरे दर्जा चर्चित ब्लॉगर से कहानीकार से साहित्यकार से व्यंग्यकार से वरिष्ठ व्यंग्यकार तक ले आए।

वो दिन दूर नहीं जब मैं पाऊँगा कि अब वो मुझे मानसमणी परम श्रद्धेय समीर लाल जी और दर्जे में ‘व्यंग्य के मठाधीश’ पुकार रहे हैं।

एकाएक ख्याल आता है अगर मेरी उम्र बढ़ी है तो वो संपादक महोदय भी तो उम्र दराज हुए ही होंगे तब यह सम्बोधन परिवर्तन कैसा?

कुछ मनन किया और कुछ चिंतन और तब जाना कि एसी कमरों में बैठे नेताओं की तरह ही यह संपादक भी चिरयुवा होते हैं, उम्र तो उनकी बढ़ती है जो वाकई में मेहनत कर पसीना बहा रहे हैं। फिर वो आम जनता हो या हम जैसा लेखक।  

-समीर लाल ‘समीर’ 

    

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के मंगलवार 28 जनवरी ,2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/15703

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शनिवार, जनवरी 18, 2025

नन्हे नन्हे से कदम उठाओ – वन स्टेप एट ए टाइम

 



आज वो सुबह से ही पान की दुकान पर उदास बैठा था। चेहरे पर ऐसे भाव मानो सब कुछ लुटा आया हो। बहुत पूछने पर उसने बताया कि ये आने वाला साल 2025 पूरा बेकार चला गया। मैं आश्चर्य में था कि जो साल अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ है वो भला पूरा बेकार कैसे चला जा सकता है। मुझे लगा कि शायद 2024 की बात कर रहा है।

तब उसने बताया कि बेकार तो 2024 भी चला गया था मगर वो दीगर कारणों से बेकार हुआ था। पिछले साल तो खैर हमारा ही दोष था।

दरअसल वो हर साल पहले 15 दिन मनन चिंतन करके एक सूची तैयार करता है कि इस साल उसे क्या क्या करना है। उसके इस साल के क्या गोल है। उन्हें वह किस तरह प्राप्त करेगा। कुछ लोग इसे न्यू ईयर रेजेल्यूशन का नाम भी देते हैं मगर उसका सदा से मानना रहा है कि साल शुरू होने के 15 दिन बाद जब साल न्यू नहीं रह जाता तो साल के साथ साथ न्यू ईयर रेजेल्यूशन भी पुराना हो जाता है। पुरानी चीजों से फिर भला कैसा लगाव। इसीलिए न्यू ईयर रेजेल्यूशन 15 दिन में ही खत्म हो जाते हैं। इसी के चलते वो उनको गोल पुकारता है। वो उनको न्यू ईयर के ही पहले 15 दिनों में बनाता है ताकि इस साल की बात इस साल में ही रहे तो पुरानी नहीं पड़ती। ये तरीका उसने एक अखबार में छपे आलेख ‘सफलता की कुंजी’ में पढ़ा था 4-5 साल पहले। उसी में लिखा था कि जब भी गोल बनाओ तो पूरा मनन चिंतन करके बनाओ और उसे लिखो। मन ही मन में गोल बना लेने से थोड़े दिन में वो दिमाग से भी गोल हो जाते हैं। ऐसे में जो चीज याद ही नहीं वो क्या खाक पूरी होगी। साथ ही यह समझाईश भी दी गई थी कि नन्हे नन्हे से कदम उठाओ – वन स्टेप एट ए टाइम। एक साथ लंबी छलांग लगाओगे तो मुंह के बल गिरोगे धड़ाम से।  

बात समझ में आ गई अतः पहले वर्ष तो मात्र एक डायरी और पैन ही खरीदा -कुछ मनन भी किया लेकिन लिखने वाला बड़ा स्टेप अगले साल उठायेंगे सोच कर मामला अगले साल पर सरक गया। खुशी इस बात की थी कुछ मनन तो हो ही गया और गोल लिखने के लिए डायरी और पैन भी ले आए- इसके पहले तो जीवन में इतना भी नहीं किया था।

उसके अगले बरस मनन भी किया, चिंतन भी किया और गोल भी लिखे – यह अपने आप में बड़ी विजय थी उन नन्हें नन्हें से उठते कदमों की। गोल पूरा करने को अगले बरस का नन्हा कदम मान कर डायरी ताले में रख दी गई। चौथा साल याने कि 2024 में मनन चिंतन भी किया और एकदम स्पष्ट गोल भी लिख गए जैसे कि हफ्ते में तीन दिन सुबह 5 बजे उठकर जिम जायेंगे और 20 किलो वजन घटाएंगे, जिम से आते ही नहा धोकर हेल्थी नाश्ता करके 1 घंटा नियम से साल भर में 12 किताबें पढ़ेंगे, पीना पिलाना भी तभी जब खास दोस्त मिल जाएं वो भी लिमिट में और ऐसे ही दो एक गोल और। जिम ज्वाइन कर लिया। किताबें भी ले आए मगर बस, खास दोस्त रोज मिल जाते और लिमिट तो खुद की बनाई हुई -तो न तो सुबह सुबह आँख ही खुलती जिम जाने के लिए और जब जिम गए ही नहीं तो लौटते कहाँ से किताब पढ़ने के लिए। कहते हैं इमारत का एक स्तम्भ गिर जाए तो सारी इमारत भरभरा ढह जाती सो ही उसके साथ हुआ। सारे गोल गोलमोल होकर रह गए। तभी उसने ठान लिया था कि 2025 को तो साध कर ही रहूँगा। 4 साल सरकाते हुए 5 वें साल में तो सरकार भी कुछ न कुछ साध ही लेती है चुनाव में दिखाने के लिए।  

2025 आया। मनन हुआ, चिंतन हुआ, डायरी में नए नए गोल लिखे गए। पूरी रूपरेखा तैयार हो गई। कल शाम को जाकर जिम भी ज्वाइन कर आए थे। हर नन्हें कदम के साथ डायरी में सही का निशान भी लगाते जा रहे थे कि ये स्टेप हो गया अब अगला स्टेप लेना है। जिम ज्वाइन करके जब साइकिल से घर लौट रहे थे तब रास्ते में कहीं डायरी ही गिर गई। काफी खोजा मगर मिली नहीं।

अब साल के पहले 15 दिन तो आने से रहे इसीलिए मन खिन्न है और बता रहे हैं कि 2025 का साल ही बेकार चला गया। अब अगले साल ही देखेंगे।

हमने समझाया भी कि हादसा तो बड़ा हुआ है मगर तुम ऐसा क्यूँ नहीं कर लेते कि पिछले साल की डायरी निकालो और जो गोल उसमें लिखे थे उनको ही पूरा कर डालो।

तब उसने आलेख की अंतिम लाइन, जिसमें की सफलता का सारा राज छिपा है, वह बतलाई कि ‘अगर जिंदगी में सफल होना है तो पीछे मुड़कर कभी मत देखो। ‘

अब जो इंसान इतना क्लियर हो अपनी सोच में – उसे तो कोई क्या ही समझा सकता है।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 19 जनवरी ,2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/15578

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शनिवार, जनवरी 11, 2025

ज्ञान आज भी उसी पान की दुकान से बंट रहा है

 

बरसों पहले जब तिवारी जी से पान की दुकान पर नई नई मुलाकात हुई थी तब तिवारी जी कुछ लोगों को मोहल्ले के बिगड़ते हालातों और नई पीढ़ी के संस्कारों पर उन हालातों के दुष्प्रभाव पर ज्ञान दे रहे थे। घंसू उनके ज्ञान से इतना प्रभावित हुआ कि वो उनको गुरुजी बुलाने लगा। घंसू जब गुरुजी से पूछता कि उन्होंने इतना ज्ञान कहाँ से प्राप्त किया? तब वो मुस्कराते हुए बताया करते कि वो कभी किसी स्कूल नहीं गए। जो कुछ सीखा, इस जीवन से ही सीखा। हर ठोकर से वो सबक लिया करते हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन की पाठशाला से बेहतर कुछ नहीं -बस आपके अंदर सीखने की जिज्ञासा होना चाहिए। तब जाकर घंसू को समझ आया कि जीवन तो उसने भी जिया है लेकिन शायद जिज्ञासा की कमी रह गई होगी।

ज्ञान का तो ऐसा है कि जितना बांटो उतना बढ़ता है और फिर तिवारी जी को तो सारा समय ज्ञान बांटने के सिवाय और कुछ काम ही नहीं था। ज्ञान बढ़ता रहा और घँसू की भक्ति भी। अब तिवारी जी की नजर मोहल्ले से आगे बढ़कर शहर की समस्याओं पर थी और उसके शहर भर के युवाओं पर हो रहे दुष्प्रभावों पर। दायरा बढ़ा तो घँसू अब उनको मास्साब पुकारने लगे और न जाने कब यह किस्सा सुनाई देने लग गया कि तिवारी जी उस जमाने के पाँचवीं पास हैं। तब यहीं चौक के पास का वो जर्जर भवन जिसमें आजकल आवारा पशु बैठे रहते हैं वो एक 5वीं तक का स्कूल हुआ करता था। अब न तो वो स्कूल है और न उस स्कूल के कोई रिकार्ड। अब मास्साब ज्ञान बाँट रहे थे और जितना बाँट रहे थे उसी गति से वो बढ़ रहा था। बढ़ते बढ़ते कुछ ही दिन में चर्चा प्रदेश स्तरीय समस्याओं तक जा पहुंची। मास्साब याने तिवारी जी का अपना स्टाइल भी थोड़ा बदला। अब वे कहा करते कि मुख्य मंत्री अगर हमारी मानें तो हम तो वो स्कीम बताएं कि अपना प्रदेश पूरे देश में सबसे आगे हो और यहाँ का युवा पूरे देश में अपने ज्ञान का डंका बजाए। मगर मुख्य मंत्री को उदघाटन और झण्डा वादन से फुरसत मिले, तब न!! मत सुनो हमारी, हमें क्या। हमारा क्या बिगड़ेगा। तुम्हारे प्रदेश के युवा ही बिगड़ेंगे। तिवारी जी की तारीफ इस बात पर जरूर करना होगी कि उनके चिंतन का मुख्य बिन्दु युवा ही होते हैं। उनका यह मानना है कि आज का युवा कल का राष्ट्र निर्माता है। हालांकि वो स्वयं भी और साथ ही उनके ज्ञान सुनते दिन दिन भर पान की दुकान पर बैठे खाली लोग जिनमें घँसू भी शामिल था, कल के युवा थे जिन्हें आज राष्ट्र निर्माण में जुटे होना चाहिए था मगर अपनी कमीज के दाग भला कौन देखता है। ये वैसे ही बाबा हैं जो लोगों को माया से मुक्त होने का प्रवचन दे देकर खुद माया से युक्त होकर अपना खजाना भर रहे हैं। प्रदेश स्तरीय ज्ञान ने मास्साब को मास्साब से कब आचार्य बना दिया, यह तो घँसू ही जाने, मगर इधर कुछ समय से वह उनको आचार्य जी कह कर संबोधित करता था। वो पुराने 5वीं वाले स्कूल की कहानी भी थोड़ा सा बदली कि वो 8 वीं क्लास तक हुआ करता था और जब तिवारी जी ने वहाँ से 8वीं पास की उसके बाद से स्कूल बंद हो गया और तब से ही आवारा पशु उसमें आराम फरमाते हैं। जब चौराहे पर बैठ कर सिर्फ ज्ञान ही बांटना है तो 5वीं क्या और 8वीं क्या? कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि कोई दस्तावेज मांगे।

घँसू की भक्ति और ज्ञान का विस्तार तीव्रता से हो रहा था। मोहल्ले से शुरू हुई सलाह अब राष्ट्र स्तर की ओर मुड़ रही थी। अब आचार्य जी की चर्चाओ में मुख्य मंत्री का स्थान प्रधान मंत्री ग्रहण कर चुके थे और प्रदेश के युवाओं का स्थान देश के युवाओं ने ले लिया था। अगर अब प्रधान मंत्री आचार्य जी की सलाह मानें तो देश के युवा विश्व स्तर पर डंका बजाने को तैयार खड़े थे। मगर तब मुख्य मंत्री ने न सुनी और अब प्रधान मंत्री नहीं सुन रहे थे। उनको तो सालों साल उदघाटन और हरी झंडी के साथ साथ लगातार कपड़े बदल बदल कर चुनावी रैली भी करनी होती है तो भला आचार्य जी के सलाह के लिए कब समय मिलता? आचार्य जी का अब भी वो ही सुर- मत सुनो, हमारा क्या बिगड़ेगा? तुम्हारे देश के युवा ही बिगड़ेंगे। घँसू अब उनको प्रधानाचार्य बुलाता। पता चला कि वे 12वीं पास हैं। स्कूल भी वही लेकिन अब वो 12वीं तक होकर बंद हुआ और तब से आवारा पशुओं का आरामगाह बना।

पता नहीं मुझे अब ऐसा लग रहा है कि निकट भविष्य में प्रधानाचार्य जी विश्व स्तर की चर्चा करेंगे और घँसू उनको प्रमोट कर विश्व गुरु पुकारेगा। तब शायद ये बीए  तक पढे हो जाएँ किसी विश्वविद्यालय से। प्रभाव तो बढ़ ही रहा है कोई मांगेगा तो डिग्री भी दिखा देंगे दूर से।

सब बदला मगर ज्ञान आज भी उसी पान की दुकान से बंट रहा है और सतत वहीं से बंटता रहेगा।

-समीर लाल ‘समीर’          

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 12 जनवरी ,2025 के अंक में:

 https://epaper.subahsavere.news/clip/15439


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शनिवार, जनवरी 04, 2025

बस एक पूड़ी और लीजिए हमारे कहने से

 



दामादों की ससुराल में बड़ी आवाभगत हुआ करती थी उस जमाने में। पहली बार पत्नी को लेने रात भर की बस यात्रा करके जब ससुराल पहुंचे तो भूख लग आई थी। ससुराल पहुंचते ही नाश्ता परोसा गया। भूख लगी थी और साथ ही सास और सालियों का मनुहार तो कुछ ज्यादा ही खा लिया।

थोड़ी देर आराम करके जैसे ही नहा कर तैयार हुए ही थे तो लंच परोस दिया गया। न जाने कितने पकवान बनाए थे, मानो दामाद नहीं, कोई सूमो पहलवान पधारे हों भोजन करने। क्या बताते कि थोड़ा मोटे जरूर हैं मगर हर मोटा आदमी भोजन दबा कर ही करता हो यह भी तो जरूरी नहीं। भोजन की थाली सजा दी गई और हम खाना खाने लगे। एक खाने वाला और उसे चारों और से घेरे आठ लोग परोसने वाले। पेट भर गया लेकिन कभी सासू माँ जिद कर एक पूड़ी और खिलाए दे रही हैं और वो अभी खत्म भी नहीं हुई कि साली एक और थाली में डाल गई। दोनों हाथ से थाली छेक कर मना कर भी रहे हैं मगर साईड से पूड़ी सरका दे रहे हैं थाली में। हालत ये हो गई कि खाना पेट में ही नहीं बल्कि गले तक भर गया। तब तक देखा कि बड़ी साली दो गुलाब जामुन कटोरे में सजा कर ले आई कि बिना मीठे के भी खाना होता है। तब तक दूसरी साली रबड़ी ले आई कि गुलाब जामुन बिना रबड़ी के भी भला कौन खाता है। पहली बार ससुराल पधारे थे तो क्या करते- वो भी खाना ही पड़ा।

देश के हालात ऐसे हैं कि न जाने कितने लोगों को दो जून का खाना नसीब नहीं और दामाद जी को 6 बार का खाना एक ही बार में खिलवा दिया। किसी तरह उठ कर कमरे में आए तो बिस्तर पर लेटते ही भगवान से एक ही प्रार्थना करते रहे कि आज अगर जिंदा बच गए तो आगे से कभी ससुराल नहीं आएंगे। शाम की बस से वापस निकलना था तो शाम का नाश्ता करने और साथ ले जाने के लिए खाना बांधने की तैयारियां सुनाई पड़ने लगी। बेहोशी की हालत में किसी तरह निकल पाए वापसी के लिए। बस स्टैंड पर एक भिखारी दिखा। मन तो किया कि सारा बांध के दिया खाना उसको पकड़ा दें मगर पत्नी साथ थी इसलिए नहीं दिए।

अभी बस चली ही थी कि पत्नी कहने लगी कि खाना निकालूँ? किसी तरह उसको समझाया कि बस यात्रा में जी मितलाता है। कुछ भी खा लूँगा तो उलटी होने लगती है। आते वक्त तो बस एक केला ही खाया था और उलटी हो गई थी।

वो दिन है और आज का दिन। फिर न तो यात्रा में इन्होंने खाने को पूछा और न ही कभी कुछ खाने को दिया। हर बार तो ससुराल से यात्रा शुरू नहीं होती है। अतः भूख तो लगेगी ही भले ही आप यात्रा में हों। अब हालत ये हैं कि जब कभी कहीं बस रुकी तो धीरे से उतर कर समोसा पकोड़ी खा आते हैं और जब बस में लौट कर आते हैं तो इनको अकेले पूड़ी सब्जी खाते देख कर उस रात को याद करते हैं जब पहली बार इनको ससुराल से ले कर निकले थे।          

आज बड़े दिनों बाद ये घटना ऐसे याद आई क्यूंकि आज नया साल है। बधाइयों और शुभकामनाओं की सुनामी आई हुई है। फेसबुक भरा हुआ है बधाई और शुभकामनाओं से। जो फेसबुक पर नहीं दे पाए वो ट्विटर पर बधाई परोसा दे रहा है। थोड़ा और करीबी व्हाट्सएप पर परोस जा रहा है तो कोई टेक्स्ट मैसेज से। एक अकेले हम और शुभकामना देने वाले इत्ते सारे – जबाब दे पाना भी संभव नहीं। शाम हो गई है अभी भी कहीं न कहीं से चला ही आ रहा है शुभकामना संदेश और मुझे सुनाई दे रहा है- बस एक पूड़ी और लीजिए हमारे कहने से।  

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 5 जनवरी,2025  के अंक में:

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ps: आजकल दामाद लड़की भी हो सकती है- तस्वीर के हवाले से :)


 

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