शनिवार, दिसंबर 24, 2022

शरम अब किसी को आती नहीं है

रविवार की वो सुबहें रह रह कर याद आ ही जाती हैं. तब मैं भारत में रहा करता था.

गुलाबी ठंड का मौसम. अलसाया सूरज धीरे धीरे जाग रहा है. शनिवार की रात की खुमारी लिये मैं बाहर दलान में सुबह का अखबार, चाय की गर्मागरम प्याली के साथ पलटना शुरु करता हूँ. दलान में तखत पर गाँव तकिया से टिक कर बैठ ठंड की सुबह की धूप खाना मुझे बहुत भाता है. अखबार में कुछ भी खास नहीं. बस यूँ ही रोजमर्रा के समाचार. पढ़ते पढ़ते में वहीं लेट जाता हूँ. सूरज भी तब तक पूरा जाग गया है. अखबार से मुँह ढ़ककर लेटे लेटे कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला.

आँख खुली बीड़ी के धुँये के भभके से. देखा, पैताने रामजस नाई उकडूं मारे बैठे बीड़ी पी रहे हैं. देखते ही बीड़ी बुझा दी और दांत निकालते हुये दो ठो पान आगे बढ़ाकर-जय राम जी की, साहेब. यह उसका हर रविवार का काम था. मेरे पास आते वक्त चौक से शिवराज की दुकान से मेरे लिये दो पान लगवा कर लाना. साथ ही खुद के लिये भी एक पान लगवा लेता था.सारे पान मेरे खाते में. इस मामले में वो सरकारी मिजाज का है. 

रामजस को देखते ही हफ्ते भर की थकान हाथ गोड़ में उतर आती और मेरे पान दबाते ही शुरु होता उसका मालिश का सिलसिला. मैं लेटा रहता. रामजस कड़वे तेल से हाथ गोड़ पीठ रगड़ रगड़ कर मालिश करता और पूरे मुहल्ले के हफ्ते भर के खुफिया किस्से सुनाता. मैं हाँ हूँ करता रहता. उसके पास ऐसे अनगिनत खुफिया किस्से होते थे जिन पर सहजता से विश्वास करना जरा कठिन ही होता था. मगर जब वो उजागर होते और सच निकलते, तो उस पर विश्वास सा होने लगता. 

एक बार कहने लगा, साहेब, वे तिवारी जी हैं न बैंक वाले. उनकी बड़की बिटिया के लछ्छन ठीक नहीं है. वो जल्दिये भाग जायेगी. 

दो हफ्ते बाद किसी ने बताया कि तिवारी जी की लड़की भाग गई. अब मैं तो यह भी नहीं कह सकता था कि मुझे तो पहले से मालूम था. रामजस अगले इतवार को फिर हाजिर हुआ. चेहरे पर विजयी मुस्कान धारण किये, का कहे थे साहेब, भाग गई तिबारी जी की बिटिया. मैं हां हूं करके पड़े पड़े देह रगड़वाता रहता. वो कहता जाता, मैं सुनता रहता. मौहल्ले की खुफिया खबरों का कभी न खत्म होने वाला भंडार लिये फिरता था साथ में.

आज सोचता हूँ तो लगता है कि यहाँ की मसाज थेरेपी क्लिनिक में वो मजा कहां?

एक घंटे से ज्यादा मालिश करने के बाद कहता, साहेब, अब बैठ जाईये. फिर वो १५ मिनट चंपी करता. तब तक भीतर रसोई से कुकर की सीटी की आवाज आती और साथ लाती बेहतरीन पकते खाने की खुशबु. भूख जाग उठती. रामजस जाने की तैयारी करता और बाल्टी में बम्बे से गरम पानी भरकर बाथरुम में रख आता मेरे नहाने के लिये.

अपनी मजूरी लेने के बाद भी वो हाथ जोड़े सामने ही खड़ा रहता. मैं पूछता, अब का है? वो दाँत चियारे कहता; साहेब, दिवाली का इनाम. मै उससे कहता; अरे, अभी दो महिना ही हुआ है दिवाली गुजरी है, तब तो दिये थे. तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. शरम नहीं आती हमेशा दिवाली का ईनाम, दिवाली का ईनाम करते हो.

वो फिर से दाँत चियार देता और नमस्ते करके चला जाता. मैं नहाने चला जाता. 

उसका दिवाली ईनाम माँगना साल के ५२ रविवारों में से ५१ रविवार खाली जाता बस दिवाली वाला रविवार छोड़कर जब मैं वाकई उसे नये कपडे और मिठाई देता.

बाकी ५१ रविवार वो दाँत चियारे कहता; साहेब, दिवाली का इनाम.मैं कह्ता;तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. शरम नहीं आती हमेशा दिवाली का ईनाम, दिवाली का ईनाम करते हो.

वो फिर से दाँत चियार देता मानो पूछ रहा हो; चलो हम तो आभाव में है किसी आशा में मांग लेते हैं मगर आपको बार बार मना करते शरम नहीं आती क्या?

शरम तो खैर उनको भी नहीं आती जो हर महीने अपने लिए वोट मांगने खड़े हो जाते हैं चाहे नगर निगम का चुनाव हो तो, विधान सभा हो तो और लोकसभा का हो तो? पता ही नहीं चलता कि सबसे बड़े पद पर बैठा बंदा सबसे छोटे पद पर अपने लिए ही वोट मांग रहा है दांत चियारे और उसे तो हम कह भी नहीं पा रहे कि शरम नहीं आती वोट वोट करते हो? 

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार दिसंबर 25, 2022 में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/1582


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मंगलवार, दिसंबर 20, 2022

और फिर रात गुजर गई

 



'जागे हो अभी तक, संजू के बाबू' लेटे लेटे कांति पूछ रही है.

'हूँ, नींद नहीं आ रही. तुम भी तो जागी हो?' अंधेरे में ही बिस्तर पर करवट बदलते शिवदत्त जी बोले.

'हाँ, नींद नहीं आ रही. पता नहीं क्यूँ. दिन में भी नहीं सोई थी, तब पर भी.'

'कोशिश करो, आ जायेगी नींद. वरना सुबह उठने में देरी होयेगी.'

'अब करना भी क्या है जल्दी उठकर. कहीं जाना आना भी तो नहीं रहता.'

''फिर भी, देर तक सोते रहने से तबीयत खराब होती है.'

फिर कुछ देर चुप्पी. सन्नाटा अपने पाँव पसारे है.

'क्यों जी, सो गये क्या?'

'नहीं'

'अभी अमरीका में क्या बजा होगा?'

'अभी घड़ी कितना बजा रही है?'

'यहाँ तो १ बजा है रात का.'

'हाँ, तो वहाँ दोपहर का १ बजा होगा. समय १२ घंटे पीछे कर लिया करो.'

'अच्छा, संजू दफ्तर में होगा अभी तो'

'हाँ, बहु साक्षी भी दफ्तर गई होगी.'

'ह्म्म!! पिछली बार फोन पर कह रहा था कि क्रिस को किसी आया के पास छोड़ कर जाते हैं.'

'हाँ, बहुत दिन हुये, संजू का फोन नहीं आया.'

'शायद व्यस्त होगा. अमरीका में सब लोग बहुत व्यस्त रहते हैं, ऐसा सुना है.'

'देखिये न, चार साल बीत गये संजू को देखे. पिछली बार भी आया था तो भी सिर्फ हफ्ते भर के लिये. हड़बड़ी में शादी की. न कोई नाते रिश्तेदार आ पाये, न दोस्त अहबाब और साक्षी को लेकर चला गया था.'

'कहते हैं अमरीका में ज्यादा छुट्टी नहीं मिलती. फिर आने जाने में भी कितना समय लगता है और कितने पैसे.'

'हाँ, सो तो है. तीन बरस पहले किसी तरह मौका निकाल कर बहु को यूरोप घूमा लाया था. फिर दो बरस पहले तो क्रिस ही हो गये. उसी में व्यस्त हो गये होंगे दोनों. पता नहीं कैसा दिखता होगा. उसे तो हिन्दी भी नहीं आती. कैसे बात कर पायेगा हमसे जब आयेगा तो.'

 

'संजू तो होगा ही न साथ. वो ही बता देगा कि क्रिस क्या बोल रहा है.'

दोनों अंधेरे में मुस्करा देते हैं.

'पिछली बार कब आया था उसका फोन?'

'दो महीने पहले आया था. कह रहा था कि १०-१५ दिन में फिर करेगा. और फिर कहने लगा कि अपना ख्याल रखियेगा, बहुत चिन्ता होती है. कहीं जा रहा था तो कार में से फोन कर रहा था. बहुत जल्दी में था.'

'हाँ, बेचारा अपने भरसक तो ख्याल रखता है.'

'आज फोन उठा कर देखा था, चालू तो है.'

'हाँ, शायद लगाने का समय न मिल पा रहा हो.'

'कल जरा शर्मा जी के यहाँ से फोन करवा कर देखियेगा कि घंटी तो ठीक है कि नहीं.'

'ठीक है, कल शर्मा जी साथ ही जाऊँगा पेंशन लेने. तभी कहूँगा उनसे कि फोन करके टेस्ट करवा दें.'

'कह रहा था फोन पर पिछली बार कि कोई बड़ा काम किया है कम्पनी में. तब सालाना जलसे में सबसे अच्छे कर्मचारी का पुरुस्कार मिला है. जलसे में उनके कम्पनी के सबसे बड़े साहब अपने हाथ से इनाम दिये हैं और एक हफ्ते कहीं समुन्द्र के किनारे होटल में पूरे परिवार के साथ घूमने भी भेज रहे हैं.'

'हाँ, वहाँ सब कहे होंगे कि शिव दत्त जी का बेटा बड़ा नाम किये है. तुम्हारा नाम भी हुआ होगा अमरीका में.'

'हूँ, अब बेटवा ही नाम करेगा न! हम तो हो गये बुढ़ पुरनिया. जरा चार कदम चले शाम को, तो अब तक घुटना पिरा रहा है. हें हें.' वो अंधेरे में ही हँस देते हैं.

कांति भी हँसती है फिर कहती है,' कल कड़वा तेल गरम करके घुटना में लगा दूँगी, आराम लग जायेगा. और आप जरा चना और एकाध गुड़ की भेली रोज खा लिया करिये. हड्डी को ताकत मिलती है.'

'ठीक है' फिर कुछ देर चुप्पी.

'इस साल भी तो नहीं आ पायेगा. दफ्तर की इनाम वाली छुट्टी के वहीं से क्रिस को लेकर पहली बार दो हफ्ते को कहीं जाने वाले हैं.'

'हाँ, शायद आस्ट्रेलिया बता रहा था क्रिस की मौसी के घर. कह रहे थे कि आधे रस्ते तो पहुंच ही जायेंगे तो साथ ही वो भी निपटा देंगे. शायद थोड़ी किफायत हो जायेगी.'

'देखो, शायद अगले बरस भारत आये.'

'तब उसके आने के पहले ही घर की सफेदी करवा लेंगे, इस साल भी रहने ही देते हैं.'

'हूँ'

'काफी समय हो गया. अब कोशिश करो शायद नींद आ जाये.'

'हाँ, तुम भी सो जाओ.'

सुबह का सूरज निकलने की तैयारी कर रहा है. आज एक रात फिर गुजर गई.

न जाने कितने घरों में यही कहानी कल रात अलग अलग नामों से दोहराई गई होगी और न जाने कब तक दोहराई जाती रहेगी.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार दिसंबर 18, 2022 में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/1506


 

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शनिवार, दिसंबर 10, 2022

ऐसा भी कोई कुत्ता होता है??

 


अन्तर तो खुली आँखों दिखता ही है हर तरफ. तुलना करने की बात ही नहीं है कनाडा और भारत में.

मेरा देश भारत मेरा है, उसकी भला क्या तुलना करना और क्यूँ करना?

मगर अब रहता तो कनाडा में हूँ, न चाहते हुए भी स्पष्ट अंतरों पर निगाह टिक ही जाती है, जबकि मैं ऐसा कतई चाहता नहीं. यही तो वजह भी बनता होगा कि हर बार जब भारत जाता हूँ तो सोचता हूँ कि अब लौट कर नहीं आऊँगा और मात्र दो महीने में लगने लगता है कि लौट चलो यार, अब बहुत हुआ.

खैर, यह उहापोह की स्थिति तो बनती बिगड़ती रहती है हर प्रवासी के साथ. यहाँ रहो तो वहाँ, वहाँ जाओ तो यहाँ.

एक बात, यहाँ गलियों में बड़ा सन्नाटा रहता है. मेरे जबलपुर की मुख्य सड़को से बड़ी, साफ सुथरी और गढ्ढा रहित. गाड़ी लेकर चलो, तो आदतन मजा ही नहीं आता. न गढ्ढे, न धूम धड़ाक. गाड़ी चलाते हुए काफी पी रहे हैं मानो ड्राईंग रुम में बैठे हों. सफर में सफर न करें तो कैसा सफर. आदतें तो वो ही हैं न, जो बचपन से पड़ी हैं. फिर मजा कैसे आयेगा.

हाँ तो बात थी गलियों का सन्नाटा. सन्नाटा ऐसा जैसे मनहूसियत पसरी हो. न कहीं से लाऊड स्पीकर बजने की आवाज आती होती है, न दूर मंदिर में होती अखण्ड रामायण के पाठ की आवाज, न जोर जोर से झगड़ते दो लोगों की, न सब्जी वाले की पुकार और न ही रद्दी खरीदने वाला. वैसे तो गली कहना ही इसकी बेज्जती है.  कुत्ता विहिन गलियाँ विधवा की मांग सी सूनी लगती हैं. ठंडी रात में कई बार डर सा लग जाता है कि कहीं मर तो नहीं गये जो शमशान में सोये हैं. न कुत्ता रो रहा है, न ही कोई धत धत बोलता सुनाई दे रहा है. हड़बड़ा कर उठ बैठता हूँ. जब खुद को चिकोटी काट कर दर्द अहसास लेता हूँ तो संतोष हो जाता है कि घर पर ही हूँ, अभी मरा नहीं.

गाड़ियाँ भी निकलती हैं सड़क से. न हार्न, न दीगर कोई आवाज. न गाली गलौज ओवर टेक करने के लिए. अजब गाड़ियाँ है. आवाज क्या सारी भारत एक्सपोर्ट कर दी ट्रक और टैम्पो के लिए? इत्ते भुख्खड़ हो क्या कि आवाज एक्सपोर्ट करके जीवन यापन कर रहे हो.

गलियों में कुत्ते न दिखने का अर्थ यह नहीं कि यहाँ कुत्ते नहीं होते मगर सिर्फ घरों में होते हैं. न जाने कैसे संस्कार हैं उनके? न तो भौंकते हैं और न काटते हैं? कई बार तो उनसे निवेदन करने का मन करता है जब कोई उन्हें घुमाने निकलता है कि हे प्रभु!! आपकी मधुर वाणी सुने एक अरसा बीता. एक बार, बस एक बार, कृपा करते और भौंक देते. जीवन भर आभारी रहूँगा. मगर कनैडियन कुत्ता, काहे सुने हमारी विनती? इन्सान तो सुनने तैयार नहीं, फिर वो तो कुत्ता है.

और फिर नफासत और नाज़ों में पले से कैसा निवेदन? उसे क्या पता निवेदन की महत्ता? उसे तो इतना पता है कि घूमने निकले हैं और जहाँ कहीं भी मन करेगा, मल त्याग लेंगे. मालिक तो साथ चल ही रहा है पोली बैग लिए, वो उठा लेगा और फैक देगा लिटर डिस्पोजल में. ये घर जाकर स्पेशल खाना खायेंगे और कूँ कां करके सो जायेंगे अपने गद्देदार मखमली बिस्तर पर एसी में. चोर यहाँ आने नहीं हैं, इनको भौंकना नहीं है. ये मस्त जिन्दगी है. नो टेन्शन!! कुत्तों को देखकर लगता ही नहीं कि कुत्ता हैं.

एक हमारे कुत्ते हैं, जिस पर भौंकना चाहिये, उस पर भौंकते नहीं मगर कोई गरीब भिखारी दिखा तो गली के कोने तक भौंकते हुए खदेड़ देंगे. जो दो रोटी डाल दें, उसके घर के सामने पूरी सेवा भाव से डटे रहेंगे और उसके मन की कुंठा के पर्यायवाची बने हर गुजरती कार पर भौंक भौंक कर झपटते रहेंगे. अक्सर तो उस घर पर आने वाले परिचतों पर ही झपट पड़ेगे. लाख पत्थर मारो, भगाओ मगर दो रोटी की लालसा, बस, उसी गली में परेड. गली हमारी, हम गली के मालिक. गली के कुत्ते, सड़क के कुत्ते, मोहल्ले के कुत्ते-किस नाम से नवाजूँ इन्हें!!

कई बार तो अपने नेताओं को सुनकर कि मैं सड़क का आदमी हूँ,  मुझे लगने लगता है कि अम्मा कितना सही कहती थी कि जिनकी संगत करोगे, वैसे ही हो जाओगे. 

इन नेताओं की हरकते देख आपको नहीं लगता कि वैसे ही हो गये हैं, जैसी संगत मिली. जब सड़क के आदमी हैं तो आकाश वालों की संगत तो मिलने से रही. भरे पेट अघाये कहीं भी भौंक रहे हैं बेवजह, किसी को दौड़ा रहे हैं, कहीं भी शीश नवा रहे हैं और बता रहे हैं दूसरे नेताओं को कुत्ता!!!

अखबार में समाचार छपा था कि किसी बड़े नेता ने किन्हीं दो बड़े नेताओं को “किसी बड़े नेता के कुत्ते” कहा! अगर अलग शब्दों में देखें तो कुत्ते ने कुत्ते को किसी कुत्ते का कुत्ता कहा, फिर इस पर बवाल कैसा?

वैसे तो एक और राज की बात बताता चलूँ कि यहाँ के नेताओं को देख कर भी नहीं लगता कि नेता हैं..खुद ही कार चला कर आयेंगे अकेले और कोई पहचानता भी नहीं तो खुद का परिचय देते हुए मुस्कराते हुए हाथ मिलाने लगेंगे. हद है, ऐसा भी कोई नेता होता है मगर फिर वहीं, यहाँ के कुत्ते देख कर भी तो यही लगता है, ऐसा भी कोई कुत्ता होता है!!

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार दिसंबर 11, 2022 में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/1357





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शनिवार, नवंबर 19, 2022

प्रभु तेरी महिमा अपरंपार!!

 


एक मित्र ने आज शाम घर पर भोजन का निमंत्रण दिया था, अतः निर्धारित समय पर सपत्नीक उनके घर पहुँचे। राजनीतिक मित्रता है अतः पारिवारिक मेल जोल अब तक न था और न कभी उनके पतिदेव से मुलाकात थी। वो जरूर मेरी पत्नी से मिली हुई थी क्यूंकि मेरी पत्नी भी राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी रखती हैं।  

पतिदेव का नाम न जानने की ग्लानि भी थी कि इतने दिन से मिलजुल रहे हैं, इतना तो पूछ ही लेना था। हालांकि पूछ तो मेरी पत्नी भी सकती थीं मगर उन्होंने भी कभी नहीं पूछा और आज गलती मेरी बताई गई कि कोई भी जरूरी जानकारी रखते ही नहीं हो।   

ये देश भी ऐसा है और नया जमाना है, कौन जाने उसका लास्ट नेम पतिदेव का लास्ट नेम भी हो या न हो। वरना भारत वाला हमारा जमाना होता तो उसके लास्ट नेम के साथ साहब लगा कर पतिदेव का नाम ले लेते। जैसे श्रीमती तिवारी के पतिदेव को आप बेझिझक तिवारी साहब कह कर संबोधित कर सकते हैं। मगर अब तो मैडन नेम का जमाना है। आजकल लड़कियाँ मां बाप की इज्जत करें न करें, मगर उनसे मिले अपने लास्ट नेम को अपनी आइडेंटिटी का फोकल पाईण्ट बना लेती हैं। पति का लास्ट नेम इस्तेमाल करना उसकी गुलामी स्वीकार करना है। युगों तक महिला इन्हीं गुलामी की जंजीरों मे जकड़ी थी, अब बस बहुत हुआ!!

आज हम जाग गई हैं। अब पुरानी जंजीरें तोड़ कर ही नई आजाद महिला सशक्तिकरण का अध्याय लिखा जाना शुरू हो गया है। अब यह धीमे धीमे ग्रंथ का रूप लेगा। पुरुष सत्ता अपने अंतिम सौपान पर है। शंखनाद की ध्वनि पूरे वातावरण में गुंजायमान है।

पुरानी रूढ़ियों को तोड़ते हुए इस सशक्तिकरण के युग में बच्चों के नाम के साथ लगने वाले लास्ट नेम भी जंग का विषय बने हुए हैं। पति का लास्ट नेम ही क्यूं, हमारा मैडन नेम क्यूँ नहीं? इस चक्कर में समझौते के तौर पर एक बालक का लास्ट नेम देखकर हैरान रह गया। अवान अनी, आदतन पूछे बिना न रहा सका कि बच्चा दिख तो भारत का रहा है फिर ये लास्ट नेम कैसा, ये तो कभी सुना नहीं? हमारे जमाने मे तो लास्ट नेम और शहर के नाम को जोड़कर रिश्तेदारी निकल आती थी। इस पर अवान की मम्मी ने बताया कि दरअसल मेरा नाम अलका शर्मा है और पति का नाम नीरज डाबर। इसलिए दोनों के फर्स्ट नेम का पहला अक्षर ले लिया- पहले मेरा फिर इनका। आखिर मैं बच्चे की माँ हूं तो पहले तो मेरा ही आएगा ना!! मेरे पास भी सहमत होने के अलावा क्या चारा था तो मुस्कराते हुए मुंडी हिला दी सहमति में। मगर जंबू द्वीप के वासी हम भारतीय, बिना सलाह दिये कब फारिग हो पाते हैं। अतः मुफ्त ही सलाह दे डाली कि पतिदेव के लास्ट नेम का पहला अक्षर बच्चे के लास्ट नाम के बीच में डाल दीजिए, कौन जाने नाम से ही किस्मत चमक जाए। अडानी नाम तो ऐसा है कि सरकार झुकी है कदमों में। ‘प्रभु से बड़ा प्रभु का नाम’ -बस इसी के भरोसे रख डालिए। पुरानी कहावतें यूं ही नहीं होती, उनकी पहुँच बहुत दूर तक जाती है। वो देखिए न कहावत कि ‘सौ बार बोला झूठ सच हो जाता है’। ईसेल सुबह शाम इसी में लगी है। अब हम तो सिर्फ सलाह ही दे सकते थे सो दे आए आगे अलका और नीरज जानें।

खैर दरवाजा खटखटाया और मन ही मन प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि मोहतरमा ही दरवाजा खोलें ताकि जब वो उनके पति से मिलवायेंगी तो नाम भी बतायेंगी। कहते हैं कि अगर सच्चे मन से प्रार्थना करो तो प्रभु आपको सब हासिल करा देता है सिर्फ उन सुविधाओं को छोड़ कर जो सरकार मुहैया कराती है। उस पर प्रभु का भी जोर नहीं चलता। दरवाजा मोहतरमा ने ही खोला। हम दोनों से नमस्ते बंदगी के बाद उन्होंने अपने पति  को आवाज लगाई- हनी, समीर भाई आ गए हैं साधना जी के साथ। आओ यहाँ! मिलो इनसे!

पतिदेव तुरंत हाजिर। हम भी लपक कर गले मिले और बोले – हनी भाई!! मिलकर मजा आ गया!! हमारी पत्नी ने भी देखादेखी ‘हनी भईया, नमस्ते – आपसे मिल कर बहुत अच्छा लगा।‘

हम सब मिलकर जब बैठक में इत्मीनान से बैठे तब तक पत्नी के पास बेटे का फोन आ गया और उसने बेटे को बताया कि बाद में बात करते हैं अभी तुम्हारे हनी अंकल आंटी के यहाँ डिनर पर आए हैं और फोन रख दिया।

बस!! फिर तो जो हंसी का समा बंधा कि क्या कहने!! बताया गया कि ये नाम वाला हनी नहीं है, यह प्यार वाला हनी है। जैसे भारत का ‘सुनो जी’ । अब हमारे देशी कानों को देशी जुबान से हनी सुनने की आदत तो दो दशक से ज्यादा समय तक यहाँ रहने के बाद भी न पड़ी तो इसमें हमारा क्या कसूर? असल नाम कुछ और ही निकला।

लगता है अब अपने आपको अपग्रेड कर लेना चाहिए – हनी, जानू, बेबी, पप्पू, फेंकू आदि को डीकोड करना सीख लेना चाहिए वरना इस तरह हर तरफ शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी।

प्रभु भी कब कहाँ ले जाकर क्या सीख दिलवाएगा, कोई नहीं जानता!!

प्रभु तेरी महिमा अपरंपार!!

-समीर लाल ‘समीर’    

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवंबर 20, 2022  के अंक में:

#1092 - Page 8 - Bhopal - Subah Savere Epaper



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शुक्रवार, नवंबर 11, 2022

डे लाईट सेविंग – एक गुदगुदाता सा मजाक

 

     Sometime falling back is good- it gives you one hour of extra sleep 


जब दिन और रात दोनों में रोशन है यहाँ

हर इक बुलंद इमारत का हर कोना कोना

उन जगमग एलईडी लाइटों की रोशनी से

रोशन धूप दुपहर मे भी न जाने किस अबुझ

चौंधआई आँखों के परे अंधेरे को चुनौती देता हुआ

मानिंद अखंड भारत को बेवजह जोड़ने का प्रयास

कुछ यूं ही तो प्रतीत होता ये एक नया फलसफा   

तब आज इस नवंबर के महीने के शुरुवाती दौर में  

सोचता हूँ क्यूँ अनायास घड़ी की सुई घूम जाती है

अपने आज के समय से एक घंटे पीछे की तरफ

एक रिवाजतन उस डे टाइम सेविंग के नाम पर,

क्या पता कुछ थके हारे लोग राहत पा जाते हों  

इसी बहाने निद्रामग्न एक घंटा और नींद निकाल

या किसी और को बोनस में मिल जाता है यूं ही  

एक घंटा और बेशकीमती इसी फिसलती जिंदगी का

और वो यूं ही कह उठता हो वाह कमाल है जिंदगी!!

और मैं न जाने क्यूँ सोचता रह जाता हूँ नाहक ही

यूं इस तरह बेवजह ही इस समय की बर्बादी क्यूं?

मशीनवाली घड़ी की सुई कब से तय करने लगी है  

मेरे अपने ही दिल के जज़्बातों की गहरी गहराईयां

मेरे अपने मन में पलते ख्वाबों की ऊँची ऊँचाईयां?

मैं नहीं सुनता आजकल एक और घड़ी की झंकार

मैं नहीं सोता आजकल पुनः फिर सुनकर ये हुंकार

कि मेरे अलावा सा है मेरा यह ख्वाबों का संसार!!

-समीर लाल ‘समीर’

  

 दिल्ली से प्रकाशित दैनिक हिंट मे आज दिनांक 11-11- 2022 को 

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शनिवार, अक्तूबर 15, 2022

पहाड़ी ओहदों की बस्ती में जिंदगी का अहसास..

 



सरकारी घर मिला हुआ था पिता जी को, पहाड़ के उपर बनी कॉलोनी में- अधिकारियों की कॉलोनी थी- ओहदे की मर्यादा को चिन्हित करती, वरना कितने ही अधिकारी उसमें ऐसे थे कि कर्मों से झोपड़ी में रखने के काबिल भी नहीं, रहना तो दूर की बात होती. मजदूरों और मातहतों का खून चूसना उन्हें उर्जावान बनाता था.

वो अपने पद के नशे में यह भूल ही चुके थे कि कभी उन्हें सेवानिवृत भी होना है. खैर, सेवा के नाम पर तो वो यूँ भी कलंक ही थे तो निवृत भला क्या होते लेकिन एक परम्परा है, जब साथ सारे अधिकार भी पैकेज डील में जाते रहते हैं. खुद तो खैर औपचारिक रुप से सेवानिवृत होने के साथ ही शहर में कहीं आकर बस जाते मगर बहुत समय लगता उन्हें, जब वो वाकई उस पहाड़ वाली कॉलोनी से अपनी अधिकारिक मानसिकता उतार पाते. जिनका जीवन भर खून पी कर जिन्दा रहे, उन्हीं से रक्त दान की आशा करते. कुछ छोड़ा हो तो दान मिले. खाली खजाने से कोई क्या लुटाये.

उसी पहाड़ पर उन्हीं अधिकारियों के बच्चे, हम सब भरी दोपहरिया में निकल लकड़ियाँ और झाड़ियाँ बीन कर चट्टानों के बीच छोटी छोटी झोपड़ियाँ बनाते और उसी की छाया में बैठ घर घर खेलते. अपने घर से टिफिन में लाया खाना खाते मिल बाँट कर और उस झोपड़ी को अपना खुद का घर होने जैसा अहसासते. मालूम तो था कि शाम होने के पहले घर लौट जाना है या अगर ज्यादा गरमी लगी तो शाम से कोई वादा तो है नहीं कि तुम्हारे आने तक रुकेंगे ही, और होता भी तो वादा निभाता कौन है? फिर रात तो गर्मी में कूलर और सर्दी में हीटर में सोकर कटेगी (आखिर अधिकारी के बेटे जो ठहरे) तो झोपड़ी की गर्मी/सर्दी की तकलीफ का कोई अहसास ही नहीं होता. घर से बना बनाया खाना और बस लगता कि काश इसी में रह जायें.

वातानुकूलित ड्राईंगरुम में बैठकर गरीबी उन्मूलन पर भाषण देने और शोध करने जैसा आनन्द मिला करता था उन झोपड़ियों में बैठ कर.

पहाड़ों पर तफरीह के लिए घूमने जाना और पहाड़ों की दुश्वारियों को झेलते हुए पहाड़ों पर जीवन यापन करना दो अलग अलग बातें हैं, दो अलग अलग अहसास जिन्दगी के.

काश!! दुश्वारियाँ, परेशानियाँ और दर्द बिना झेले अहसासी जा सकती. तब इन नेताओं की कपोल कल्पनाएं भी कम से कम कुछ तो वास्तविकता के करीब होतीं. झूठ में थोड़ा सी सही कुछ तो सच भी होता.

एक जमाने में अंधों की बस्ती के राजा ने प्रजा से कहा कि तुम सब खतरे में हो, बस्ती में शेर घुस आया है. सारी अंधी प्रजा राजा के ऐलान पर यहाँ वहाँ भागने लगी. कुछ समय बाद फिर राजा ने ऐलान कराया कि अब आप सब निश्चिंत हो जाओ, मैंने शेर को पीट पीट कर वापस जंगल भगा दिया है. प्रजा ने राजा का जयकारा लगाया. अब जब जब भी राजा को अपना मतलब साधना होता वो ऐसा ही ऐलान करता और फिर शेर को पीट पीट कर भगा देता किन्तु उसे मारता कभी नहीं वरना भविष्य में शेर फिर कैसे आता? बस अंधों की बस्ती थी – न कोई शेर था, न कोई खतरा. राजा अपना मतलब साध रहा था. सदियों पुरानी परंपरा आज भी चल रही है – आज धर्म खतरे में है.     

सुनते हैं आजकल युवराज भी ऐसे ही कुछ अहसास पाने के लिए देशाटन कर रहे हैं वाकई में कुछ दर्द सह कर, मगर न जाने किस आशा में जुड़े हुए भारत को फिर से जोड़ने की एक अथक कोशिश में.

सबके अपने राग हैं और सबके अपने ढोल – आम जनता का काम तो हर हाल में नाचना बस है.

ये सामर्थ्यवान है इनकी हर ढाप सुहानी मगर जनता के नाच में अब दुश्वारियां और दर्द उभरने लगा है.  

कहते हैं न कि भरी रसोई में ही उपवास भी धार्मिक कहलाता है वरना तो फक्कड़ हाली को कौन पूछता है. न कोई पुण्य मिलता है, न ही पुण्य प्राप्ति की आशा उन दो रोटियों की उम्मीद में.

भगवान भी कैसे भेदभाव करता है-शौकिया भूखा रहने वालों को पुण्य और मजबूरीवश भूखा रहने वालों को अगले दिन फिर भूख झेलने की सजा.

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर 16, 2022 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/619

 

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बुधवार, अक्तूबर 05, 2022

जिंदगी शायद इसी कशमकश का नाम है!!

 


आज सुबह जब टहलने निकला तब

आदतन हर रोज की तरह अरमानों का

इक बादल उठा लाया था साथ अपने ,

दिन गुजरा और बदला कुछ मौसम,

सूरज अब डूबने को हुआ है लालायित –

और मैं खोज रहा हूँ उस बादल को

वो भी खो गया कुछ मुझसा मेरे साथ

या फिर बरस गया है कहीं कुछ यूं ही

पसीनों की उन झिलमिल बूंदों के साथ

जो मुझे ले आई हैं दिन के उस पार से

इस पार तक एक नया मैं बनाते हुए !!

हर रोज इक बादल खो जाता है मेरा

इन मेहनतकश पसीने की बूंदों के साथ –

जिंदगी शायद इसी कशमकश का नाम है!!

मगर साथ ही मुझे इस बात का भी भान है-

सूरज डूबता ही है फिर से ऊग आने के लिए!!

-समीर लाल ‘समीर’  

 


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