शनिवार, जनवरी 18, 2020

एक ना एक शम्मा अन्धेरे में जलाये रखिये


भारत की आबादी को अगर आप त्रिवेणी पुकारना चाहते हैं, तो इत्मिनान से पुकार लिजिये. आपके पास तो अपने त्रिवेणी कहने का आधार भी होगा वरना तो लोग कुछ भी जैसे अंध भक्त, भक्त, देश द्रोही, गद्दार, पप्पू, गप्पू आदि जाने क्या क्या पुकारे चले जा रहे हैं, कोई कहाँ कुछ पूछ पा रहा है.

त्रिवेणी आबादी याने कि वह आबादी जो तीन तरह के लोगों से मिलकर बनी है. एक तो वो जो आंदोलनकारी हैं, एक वो जो आंदोलनकारी थे और आज आंदोलन के राजमार्ग पर चलते हुए सत्ता कब्जा कर बैठे हैं और एक वो जिन्हें निचोड़ने में सत्ताधीष लगे हैं और आंदोलनकारी उन्हें भविष्य में निचोड़ने की फिराक में हैं. यह तीसरा वर्ग इस विचारधारा का होता है कि

कोउ नृप होई हमै का हानि, चेरी छांड़ि कि होइब रानी’.

याने जितना उसे पेरा जा सकता है, उतना तो उसे पेरा ही जायेगा. न उससे ज्यादा और न उससे कम. अतः क्या फर्क पड़ता है कि कौन सत्ता कब्जा लेता है और कौन आंदोलन की राह पकड़ लेता है.

मगर ऐसी मानसिकता यह तीसरा वर्ग सिर्फ दिखावे के लिए रखता है. भीतर ही भीतर उसके सुप्त मन को आंदोलनकारियों से यह उम्मीद रहती है कि शायद ये मेरे हक की बात कर रहे हैं और इनके आने से मेरे अच्छे दिन आ जायेंगे. तभी तो जो आंदोलनकारी थे वो इनके सुप्त मन की आवाज के साहरे आज सत्ता पर काबिज हैं और जो सत्ता में थे वो आज आंदोलन की राह पर हैं कल को फिर सत्ता में काबिज होने की राह तकते. वर्तमान से कब मानव मन खुश रहा है? उसे तो बस आने वाले अच्छे दिनों की आशा में जीना आता है.

वैसे तो इस तीसरे वर्ग में अपवाद भी बहुत हैं. कुछ तो इतने उदासीन हैं कि मान बैठे हैं, अब अच्छे दिन तो अगले जनम में ही आयेंगे, यह जन्म तो पाप काटने को मिला है. वैसे सच भी यही है. जिस गति और दिशा में देश चल रहा है, इस जन्म में अच्छे दिनों की आशा करना भी तो अतिश्योक्ति ही कहलायेगी.

यूँ तो जैसी मान्यता है कि मरने पर बस शरीर बदलता है और आत्मा एक नये शरीर में प्रवेश कर पुनः जीवन यात्रा प्रारंभ करती है. ऐसे में अगले जन्म तो क्या, अगले सात जन्म की गुंजाईश भी कम से कम अभी तो नहीं दिखती. अभी तो हमने रसातल की ओर रुख किया है, यात्रा बहुत लम्बी है और मंजिल अभी बहुत दूर है. रसातल के धरातल तक ले जाने का समय तो देना ही होगा तभी तो फिर उछाल आयेगा. वो उछाल हर रोज यह अहसास करायेगा कि अच्छे दिन आ गये. भले वो आज से कितने बुरे क्यूँ न हो.

इसी तीसरे वर्ग के अपवाद में वो लोग भी हैं जो ’परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है’ में विश्वास रखते हैं और उसी को मंत्र मानकर माला जपते रहते हैं. उनका मानना है कि परिवर्तन आकर ही रहेगा. यह वर्ग चुनाव के समय मतदान के बदले पिकनिक मनाने निकल पड़ता है सब कुछ प्रकृति के हाथ छोड़ कर कि वो परिवर्तित कर देगी. प्रकृति इन दयनीय विचारधारकों के लिए परिवर्तन करती भी है मगर बरबादी की दिशा में एक कदम और बढ़ा कर. और फिर यह वर्ग पिकनिक से वापस आकर प्रकृति को कोसता है कि यह सब ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है. उम्मीद थी कि गर्मी होगी मगर पड़ रही है बर्फ. दरअसल केमिकल लोचा इनकी सोच में है. प्रकृति तो वो ही कर रही है जो इन्होंने पोसा है. पेड़ काट कर सर्दी में हाथ ताप लेने के बाद गर्मी में उस पेड़ से छाया की आशा करना कहाँ तक जायज है.

जब बात चली है अपवादों की तो बताते चलें कि सभी आंदोलनकारी भी सत्ता लोलुप्ताधारी नहीं होते. कुछ तो प्रोफेशनल आंदोलनकारी होते हैं और कुछ एक शौकिया भी. इन्हें सत्ता और विपक्ष से कुछ लेना देना नहीं होता. इन्हें आंदोलन से मतलब होता है. यही इनकी जीवनी है और यही इनकी जीवनचर्या. ये तो कई बार इसलिये आंदोलन कर बैठेते हैं कि कोई आंदोलन क्यूँ नहीं हो रहा.
भारत आंदोलनों का देश बन कर रह गया है. यही इसकी पहचान हो चली है. चलो एक आंदोलन करें कि आंदोलन का चिराग कभी बुझने न पाये.

एक ना एक शम्मा अन्धेरे में जलाये रखिये
सुब्ह होने को है माहौल बनाये रखिये.

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी १९, २०२० में प्रकाशित:

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शनिवार, जनवरी 11, 2020

काश!! आशा पर आकाश के बदले देश टिका होता!!


काश!! आशा पर आकाश के बदले देश टिका होता!! वैसे सही मायने में, टिका तो आशा पर ही है.
जिन्दगी की दृष्टावलि उतनी हसीन नहीं होती जितनी फिल्मों में दिखती है. इसमें बैकग्राऊंड म्यूजिक म्यूट होता है, वरना तो जाने कब के गाँव जाकर बस गये होते. मुल्ला मचान पर बैठे, खेतों में नाचते गाते-मेरे देश की धरती, सोना उगले से..जिन्दगी नहीं कटा करती. काम करना पड़ता है और फिर किस्मत. वो तो दो कौड़ी की भी हिस्से में नहीं आई. बिना मशक्कत वो भी नहीं आती निठ्ठलों के हाथ.
शहर में नल में पानी नहीं आता और न अधिकतर समय बिजली-खेत में खों खों करते क्या खाक सिंचाई करोगे?
बारिश है कि ससुरी, बरसती ही नहीं. गरमी हालत खराब किये रहती है.
किस लिये ऐसा हो रहा है, सोचा कभी-पेड़ काटने के पहले और पेड़ न लगाने के बाद?
आशा लगाये बैठे हो चातक की तरह मूँह बाये कि हे बादल!! आ जाओ. बादल तो आते हैं मगर वो नहीं जिन्हें बुलाया. उनके न आने से संकट के बादल छाने लगते हैं. लो आ गये, बुलाये थे न!! काहे नहीं साफ साफ कहे, कि हे पानी वाले बादल, आ जाओ. मारे अनुष्ठान और यज्ञ सब कर डाले मगर डिमांड, एकदम अगड़मबगड़म!! तो लो, बादल मांगे थे, बादल आ गये-संकट के बादल छा गये.
और फिर तुम रोने लगते हो. अपनी गलती मानने तैयार ही नहीं. तुमको जार जार रोता देख, संयम खोता देख, भगवान भी रहम खा जाता है और हड़बड़ी में इतने सारे बादल भेज देता है कि बाढ़ आने लगती है.
बादल आये मगर इतने आये कि साथ फिर संकट के बादल ले आये.
इस बार भी तुमने साफ साफ नहीं बताया कि बस, काम भर के पानी वाले बादल भेजना. बस, रोने लग गये कि वो रोता देख समझ ही जायेगा.
वैसी ही आशा सरकार से करते हो. ७०% को तो पता ही नहीं कि चाहिये क्या सरकार से. बस, जिस मूँह सुनो तित-सरकार कुछ करती ही नहीं और लगे रोने.
कितनी गलत बात करते हो कि सरकार कुछ करती ही नहीं. इतना सारा तो कर रही है, देखो, सरकार तुमको लूट रही है. सरकार मँहगाई बढ़ा रही है. सरकार भ्रष्टाचार मचा रही है. सरकार विद्वेष फैला रही है. सरकार पाकिस्तान से सत्तर साल से शांति वार्ता चला रही है. सरकार गद्दी बचा रही है. सरकार गठबंधन कर रही है. सरकार अपने देश पर ही हमला करने वालों को माफ करने में लगी है, सरकार देश के भीतर भाषा और धर्म के आधार पर विघटन का सपना संजोए लोगों को मौन रह समर्थन दे रही है, सरकार ये कर रही है, सरकार वो कर रही है..अब क्या जान लोगे सरकार की. इत्ते के बाद भी कोई समय बच रहेगा क्या कि वो खोजे तुम क्या चाहते हो उससे करवाना?
कितने आराम से निश्चिंत होकर पान दबाये घर लौट आते हो ठेले पर बतिया कर. काम नहीं मिला, सरकार कुछ नहीं कर रही. खाना नहीं बना, सरकार जिम्मेदार. बच्चे को नौकरी नहीं मिल रही, सरकार जिम्मेदार. इलाज के आभाव में पिता जी गुजर गये, सरकार जिम्मेदार. बच्चा नहीं हुआ, सरकार जिम्मेदार, कुत्ते ने काट लिया, सरकार जिम्मेदार...और तुम, तुम्हारी जिम्मेदारी?
काहे चुने थे भाई ऐसी सरकार? साँप काटे था क्या?
बस, शाम शराब पिला दी या धमका दिया या कुछ रकम टिका दी और तुम समझे कि सब काम बन गया और लगा आये अपना सिक्का!! तो अब भुनाओ.
भईया मिले और कहने लगे कि हमें तो कोई पसंद ही नहीं इसलिये हम तो सिक्का लगाये ही नहीं और ऐन चुनाव के दिन, शहर से दूर, परिवार के साथ पिकनिक मना आये.
तो अब तुम्हारे हिस्से में पिकनिक ही बची है. खूब मनाईये और कोसिये सुबह शाम, कि सरकार कुछ नहीं कर रही.
किसी और ने नहीं चुनी है. तुमने नहीं चुनी, इससे क्या अंतर पड़ता है. भुगतना तो पड़ेगा तुम्हें ही उस पिकनिक के जश्न का मोल!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी १२, २०२० में प्रकाशित:
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शनिवार, जनवरी 04, 2020

दिल न जाने क्यूँ दिसम्बर की राह तकता है..



यूँ तो गुजरता जाता है हर लम्हा इक बरस,
दिल न जाने क्यूँ दिसम्बर की राह तकता है..

तिवारी जी आदतन अक्टूबर खतम होते होते एक उदासीन और बैरागी प्राणी से हो जाते हैं. किसी भी कार्य में कोई उत्साह नहीं. कहते हैं कि अब ये साल तो खत्म होने को है, अब क्या होना जाना है. अब अगले बरस देखेंगे. दरअसल तो वो साल भर ही कुछ न करते थे मगर अक्टूबर खतम होते होते तक उनके पास एक पुख्ता कारण हो जाता है कुछ भी न करने का. जो १० महीने मे न हुआ वो भला बाकी के २ महिने में कैसे हो सकता है, इसलिए अब अगले साल देखा जायेगा.

ऐसा तिवारी जी ही करते हों ये बात नहीं है. मैं और मेरे अनेक मित्र भी कुछ मामलों को लेकर तिवारी जी ही हैं. सबको अपने स्वास्थय की ऐसी चिन्ता कि बस नया साल लगने दो और हफ्ते में ५ दिन जिम जाना है. अगले साल का न्यू ईयर रिजोल्यूशन जिम और फिटनेस. वजन कम से कम १५ पॉऊण्ड कम करना है. पूछा जाये कि अभी नवम्बर से ही क्यूँ नहीं जिम ज्वाईन कर लेते? मेम्बरशिप साल भर की जिस दिन शुरु करोगे, वहाँ से एक साल की होगी. तब वही तिवारी जी वाली बात कि अरे अब ये साल तो गुजरा ही समझो, अब नये साल में ही फ्रेश माइन्ड से इस पर जुटेंगे.
किसी की पढ़ाई को लेकर, किसी की नौकरी को लेकर, किसी की शादी ब्याह को लेकर – वजह हजार हैं, नये साल के लग जाने के लिए और वो भी १ जनवरी वाले नये साल के लग जाने की.

फिर नया साल आता है. हैप्पी न्यू ईयर के साथ..नये साल का पहला जाम आपके नाम कर के अपने अपने सोचे मन्तव्यों में लोग जुटते हैं और पहला महिना खत्म भी नहीं हो पाता कि सारे सपनों के महल धाराशाही हो जाता है अपवादों को छोड़ कर. सब रोजमर्रा की जिन्दगी में उलझे फिर अक्टूबर खत्म कर नवम्बर में पहुँच जाते हैं. फिर वही कि अब तो साल खत्म होने को है, अब नये साल में देखेंगे.

यह हम सभी का स्वभाव है. हम सब में एक तिवारी जी बसते हैं और हम सभी भली भाँति इसे समझते हैं. आने वाला समय अच्छा होगा, यही आज खुश रहने की वजह दे देता है, इतना ही काफी है हम संतोषी जीवों को.
हम तो बड़े शायरों पर भरोसा रखते हैं:

न शब ओ रोज ही बदले हैं न हाल अच्छा है,
किसी बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है.

यही बात हमारे ज्योतिष भी जानते हैं जो हर साल के शुरु में हमारा पूरा साल कैसा रहेगा की भविष्यवाणी करते हैं. मन प्रसन्न हो जाता है. पुराना तो हम भूल चुके होते हैं अपने रिजोल्यूशन की तरह. हालांकि ज्योतिषों की सुनें तो इतने सालों से वो हर साल को इतना बेहरीन बताते आ रहे हैं कि अब तक तो हमें देश का प्रधानमंत्री हो जाना था मगर ए दिल ए नादान..फिर से भूल जा जो गुजरा है..आने वाला समय अच्छा होगा. बस इसी उम्मीद पर फिर से दक्षिणा दे आते हैं ज्योतिष को.

स्वभाव परखने में नेताओं से बेहतर कौन है इस दुनिया में? तब ही तो अच्छे दिन के ख्वाब बेच कर हर बार सत्ता हथिया लेते हैं..और हम टकटकी लगाये बांट जोहते हैं कि आने वाली सरकार सब ठीक कर देगी. अच्छे दिन आने वाले हैं.

सच मानो तो; हम को बदलना होगा आज में जीने के लिए.

जो आज आज है वो कल कल हो जायेगा..
जो आज कल है, वो कल आज हो जायेगा...
वक्त परिवर्तनशील है कुछ नहीं है ठहरता..
आज में जिओ वरना कुछ हाथ ना आयेगा...

-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी ५, २०२० में प्रकाशित:
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