हमारे एक और मित्र हैं मुकेश पटेल. ईश्वर की ऐसी नजर कि अच्छे खासे खाते पीते घर का यह बालक अगर किसी भिखारी के बाजू से भी निकल रहा हो तो भिखारी उसे बुलाकर कुछ पैसे दे दे. चेहरे पर पूर्ण दीनता के परमानेन्ट भाव. मानो भुखमरी की चलती फिरती नुमाईश. भर पेट खाना खा कर भी निकले तो लगे कि न जाने कितने दिन से भूखा है. हँसता भी तो लगता कि जैसे रो रहा है.
सड़क पर क्रिकेट खेलते समय जब किसी के घर में गेंद चली जाये तो हम लोग मुकेश को ही भेजा करते थे गेंद लेने. उसे डांटना तो दूर, अगला गेंद के साथ मिठाई नाश्ता कराये बिना कभी विदा नहीं करता था. अपने चेहरे के चलते वह सतत एवं सर्वत्र दया का पात्र बना रहा. होली, दशहरे की चंदा टीम का भी वो हमेशा ही सरगना रहा और हर घर से चंदा मिलता रहा. अब तो उसका बड़ा व्यापार है. बैंक से लेकर इन्कमटैक्स वाले तक सब उस पर दया रखते हैं. आज तक किसी को घूस नहीं दी. बैंक वाले लोन देने के साथ साथ चाय पिला कर भेजते हैं. लोन की किश्त भरने जाते हैं तो बैंक निवेदन करने लगता है कि जल्दी नहीं है चाहें तो अगले महीने दे दीजियेगा. इन्कम टैक्स का क्लर्क भी बिना नाश्ता कराये उन्हें नहीं जाने देता.
जहाँ मुकेश को अपने उपर ईश्वर की इस विशेष अनुकम्पा पर अभिमान था वहीं हमारे भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र नारायण के पास इस स्थिति के लिये भी कथा कि मुकेश का चेहरा ऐसा क्यूँ है.
भू.पू.स्व. श्री नारायण बताते हैं कि वहाँ उपर कई फेक्टरियाँ हैं. भारत की अलग, अमरीका की अलग, चीन, अफ्रीका, जापान सब की अलग अलग. वहीं स्त्री पुरुषों का निर्माण होता है. सबके क्वालिटी कन्ट्रोल पूर्व निर्धारित हैं. अमरीकी गोरे, अफ्रिकी काले, भारत के भूरे आदि. सबकी भाव भंगीमा भी बाई डिफॉल्ट कैसी रहेगी, यह भी तय है. जैसे दोनों हाथ नीचे, पांव सीधे, मुँह बंद आदि. यह बाई डिफॉल्ट सेटिंग है, अब यदि किसी को हाथ उठाना है, तो उसे हरकत एवं प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद होगा, हाथ पुनः डिफॉल्ट अवस्था में आ जायेगा यानि फिर नीचे लटकने लगेगा.
ऐसा ही चेहरे की भाव भंगिमा के साथ होता है. बाई डिफॉल्ट आपके चेहरे पर कोई भाव नहीं होते. न खुश, न दुखी. विचार शून्य सा चेहरा. अब यदि आपको खुश होना है तो ओंठ फेलाईये, दांत दिखाईये और हा हा की आवाज करिये. इसे खुश हो कर हंसना कहते हैं. जैसे ही आप इसका प्रयास बंद कर देंगे पुनः डिफॉल्ट अवस्था को प्राप्त करेंगे अर्थात विचार शून्य सा चेहरा-बिना किसी भाव का.
कई बार जल्दीबाजी में, जब कन्टेनर रवाना होने को तैयार होता है और कुछ मेटेरियल की जगह बाकी है, तब कुछ लोग जल्दी जल्दी लाद दिये जाते हैं. वही डिफेक्टिव पीस कहलाते हैं. उन्हीं में से एक उदाहरण मुकेश हैं जिनकी हड़बड़ी में चेहरे की डिफॉल्ट सेटिंग दीनता वाली हो गई. उन्हें सामान्य दिखने के लिये प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद, पुनः डिफॉल्ट अवस्था यानि दीनता के भाव.
यह सारी बातें नारायण इतने आत्म विश्वास से बताते थे कि लगता था वो ही उस फेक्टरी के मैनेजर रहे होंगे जो इतनी विस्तार से पूरी कार्य प्रणाली और निर्माण प्रक्रिया की जानकारी है. तभी तो सब उन्हें भूतपूर्व स्वर्गवासी की उपाधि से नवाजते थे.
उनके ज्ञान का विस्तार देखते हुए एक बार हमने भी जिज्ञासावश प्रश्न किया कि नारायण भाई, आप तो कह रहे थे कि भारत के लिये त्वचा का रंग भूरा फिक्स है. फिर यहाँ गोरे और हमारे रंग के लोग कहाँ से आ गये?
भू.पू.स्व. नारायण जी ने तुरंत अपने संस्मराणत्मक अंदाज में कहना शुरु किया कि दरअसल भारत की फैक्टरी के सुपरवाईजर विश्वकर्मा जी बहुत जुगाड़ू टाइप के हैं. जब पेन्ट खत्म होने लगता है तो कभी तारपीन ज्यादा करवा देते है.
कभी अमरीकी फेक्टरी का और कभी अफ्रिकी फेक्टरी का बचा पेन्ट मार देते हैं मगर मिला जुला कर, जोड़तोड़ कर काम निकाल ही देते हैं. इसीलिये भारत में भी कुछ लोग गोरे पैदा हो जाते हैं और अगर अफ्रिका वाला ज्यादा पेन्ट मार लाये तो तुम्हारे जैसे. किन्तु बाकी ऐसा नहीं करते वो काम रोक देते हैं. इसीलिये अफ्रिका में कभी कोई गोरा नहीं पैदा होता और न अमरीका में काला. इसी से उनकी फैक्टरी भी मटेरियल के इन्तजार में कई कई दिन बंद रहती है तो प्रोडक्शन भी कम होता है. आज तक मटेरियल की कमी के कारण भारत वाली फेक्टरी में काम नहीं रुका. हर साल सबसे अनवरत संचालन का अवार्ड भी विश्वकर्मा जी को ही मिलता है. इसीलिये तो हमारे यहाँ सभी फेक्टरियों में उनकी पूजा होती है.
हम तो सन्न रह गये कि वाह रे विश्वकर्मा जी, आप तो अवार्ड पर अवार्ड लूट रहे हो, जगह जगह पूजे जा रहे हो और खमिजियाना भुगतें हम!! बहुत खूब!
नोट: इस आलेख का उद्देश्य मात्र हास्य-व्यंग्य है. यदि किसी वर्ग या समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँची हो, तो मैं क्षमायाचना करता हूँ.