शनिवार, जून 30, 2018

भला हुआ ५००वीं पुण्य तिथि चुनाव के ठीक पहले आई


तिवारी जी सुबह सुबह पान के ठेले पर बैठे हमेशा की तरह बोल रहे थे:
वो धूल से उठे थे
लेकिन माथे का चन्दन बन गए.
वो व्यक्ति से अभिव्यक्ति
और इससे आगे बढ़कर
शब्द से शब्दब्रह्म हो गए.
वो विचार बनकर आए
और व्यवहार बनकर अमर हुए. 
घन्सु बोला वाह!! वाह!! जबरदस्त रचना अब हमारी सुनिये:
बबूल की ऊँची डाली पर, कमल का फूल
सावन का महिना है और उड़ रही है धूल..
कुछ मनचले वाह वाह कहने लगे और तिवारी जी तमतमा गये कि यह क्या वाहियात रचना कही तुमने. न सिर न पैर..कुछ भी समझ नहीं आया और न ही कोई अर्थ निकल रहा है. और तुमको बता दें घन्सु कि अगर किसी ने ध्यान से सुन लिया तो देश द्रोही बोनस में ठहरा दिये जाओगे.
घन्सु बोला ’और जो आपने सुनाई, उसका क्या? वह भी कहाँ किसी को समझ में आई?’
तिवारी जी ने पलट कर कहा कि वो कोई रचना थोड़ी न सुना रहा था. वह तो प्रधान मंत्री के उस भाषण का अंश था जो कल ही उन्होंने संत कबीर की ५०० वीं पुण्यतिथि पर मगहर में दिया था. वैसे तो संत कबीर भी अगर आज होते तो इन पंक्तियों पर वाह वाह कर रहे होते. कवि सम्मेलनों और मुशयारे के मंचों की यह प्रथा रही है कि जब पूरी बात समझ में आ जाये तो वाह वाह खुद ही निकल पड़ती है या फिर बिल्कुल ही न समझ आये तो श्रोता वाह वाह!! इसलिये करने लगता है कि शायद कोई बहुत ब़ड़ी बात कह रहे हैं जो मेरे समझ की परे की है मगर इतनी भीड़ के सामने खुद को मूर्ख साबित तो होने देने से रहे तो वाह वाह सबसे जोर की वही उठाते हैं. शायद इसीलिए कुछ लोग इतनी क्लिष्ट भाषा का प्रयोग कर लेते हैं कि खुद ही समझने के लिए खुद को समझाना पड़े. वाह वाही में भी वो आत्म निर्भरता का प्रदर्शन कर लेते हैं. फेसबुकिया कवियों में अनेक ऐसे ही हैं कि उनकी रचना पर एक लाइक और वो भी खुद के द्वारा किया गया.
कवि सम्मेलन और मुशायरों का ही मंच क्यूँ, राजनैतिक मंचों का भी वही हाल है. गांवो की रेलियों में जाकर ऐसी ऐसी बातें बोलेंगे कि उनकी समझ ही न आये, एमवीपी, जीडीपी, एनपीए और जाने क्या क्या? बस हजार करोड़, ५०० करोड़, विकास, काला धन, १५ लाख आपके आदि जो थोड़ा बहुत कान की समझ में पहुँचा तो तालियां पीट पीट कर उनको ही वोट दे आये. बाद में पता चला कि वो तो जैसे गज़लों में मीटर सेट करने के लिए मात्रा बड़ी छोटी कर लेते हैं, वो वाले एडजस्टमेन्ट बस सुनाई दिये, पूरी गज़ल तो नेता जी मंच से आपकी बैण्ड बजाने वाली सुना रहे थे और आप ताली बजा रहे थे.
कबीर भी ऊपर बैठे सोचते होंगे कि भला हुआ ५००वीं पुण्य तिथि चुनाव के ठीक पहले पड़ गई तो ढंग से मना दी गई. रिसर्च एकेडेमी खुल गई, अनुदान वगैरह घोषित हो लिए. मगहर में बाढ़ की जगह बहार आ गई. बताते हैं आयोजन स्थल भारी बारिश के कारण पानी से लबालब भर गया था और पूरा प्रशासन युद्ध स्तर पर जुटा दिया गया था पानी सुखाने को और उन्होंने सुखा भी दिया. प्रशासन में बड़ी ताकत होती है, बस वह प्रदर्शन वहीं करते हैं जहाँ आकाओं की प्रदर्शनी लगती है.
फिर खबर यह भी आई है कि मुख्य मंत्री जी ने एक दिन पहले आयोजन स्थल का मुआयना करते हुए कबीर की मजार पर चादर चढ़ाते हुए साहेब की तर्ज पर ही टोपी पहनने से मना कर दिया. कबीर सोचते होंगे कि ये कैसा एतराज है जो मेरी मजार पर शीश नवाने से और मेरी मजार पर चादर चढ़ाने में नहीं होता मगर टोपी पहने से हो जाता है. शायद टोपी की अहिमियत ये लोग ज्यादा समझते हों इतने लोगों को दिन रात झूठे वादों टोपी पहना पहना कर. सोचते होंगे कि कहीं सामने वाला भी तो वैसी ही टोपी उनको न पहना जाये इससे बेहतर तो मना ही कर दो. इन्सान अपने ही कर्मों से भयभीत रहता है. तभी तो गुंडे मवाली खाकी वर्दी में दूर से आते हुए डाकिये को भी पुलिस समझ कर दौड़ लगा देते हैं.
काश!! अभी भी सुधि ले लें और अभी भी सुधर जायें ये सारे नेता और उसी कबीर को ठीक से पढ़ लें, समझ लें और व्यवहार में उतार लें जिसकी पुण्य तिथि मना रहे हैं और उनका स्तुतिगान सुना रहे हैं, तो ही कितना कुछ बदल जाये.

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत.

आर्थत यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार १ जुलाई, २०१८: 

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शनिवार, जून 23, 2018

काश! वो अपना अधिकार जान पाता


आजकल फुटबॉल का विश्वकप चल रहा है. सब फुटबॉलमय हुए हैं. खेलों का बुखार ऐसा ही होता है. फीफा के सामने बाकी सब फीका पड़ गया है. सट्टेबाजी चरम पर है. ज्ञान बांटने वाले सुबह से पान की दुकान पर चौकड़ी लगाये बैठे हैं. किस खिलाड़ी ने क्या गल्ती करी, ये बात तिवारी जी बताते बताते उस खिलाड़ी को गाली बककर बोलना नहीं चूकते कि हमसे सलाह ले लिए होते तो आज कप पक्का इनका ही होता. एक थोड़ा आराम ये है कि पाकिस्तान नहीं है विश्व कप में, इस बात की खुशी है. है तो खैर भारत भी नहीं, मगर पाकिस्तान नहीं है तो अपने न होने का कोई दुख भी नहीं है.
अलग अलग देशों की टीमें हैं. अलग अलग खिलाड़ी हैं. अलग अलग कोच हैं. कोई खिलाड़ी सेलीब्रेटी है तो कोई नया नया सेलीब्रेटी बन रहा है और कोई ड्रग से लेकर न जाने कितने विवादों में उलझा अपनी सेलीब्रेटी स्टेटस खो रहा है. खेल सिखाता है कि कोई भी हमेशा ही विजेता नहीं रहता और न ही कोई सेलीब्रेटी सदा सेलीब्रेटी बना रहता है. हार और जीत खेल का हिस्सा है. जीत का अहंकार कैसा? आज तुम जीते हो, कल दूसरा कोई जीतेगा, तुम हारोगे.
बातचीत के दौरान तिवारी जी एकाएक भावुक और दार्शनिक टाईप हो लिए. यह भी उनकी आदत का हिस्सा है. लोग इसे मूड स्विंग पुकारते हैं. कहने लगे कि जरा देखो तो इन टीमों को – किसी की नीली यूनीफार्म है, किसी की हरी, किसी की नारंगी, किसी की सफेद. सब जुटे हैं अपने अपने हिसाब से. कोशिश में हैं सब जीतने की. मगर हार भी गये तो देखो, बस एक मिनट का गम और फिर अगली बार की तैयारी नये सिरे से. मुझे तो इनको देखकर अपने राजनितिक दलों का ख्याल आ जाता है.
एकदम ऐसे ही तो इन राजनितिक दलों के भी अपने अपने रंग हैं. सब जीतने के लिए खेल रहे हैं. सबके पास अपने अपने सेलीब्रेटी है. कुछ नये बन रहे हैं. मार्गदर्शक हैं. अपने अपने दांव पेंच हैं अपने अपने तरीके हैं. चुनाव आयोग रेफरी की तरह भागदौड़ करके सुचारु रुप से चुनावों को करवाने में जुटा है. जो गल्ती करता है, उसे झंडी दिखाकर, सीटी बजा कर गलत करने से रोकता है और कभी कभी खिलाड़ी को बाहर भी बैठा देता है.
वैसे कभी कभी रेफरी का झुकाव किसी एक टीम विशेष की तरफ देखने में आ जाता है तिवारी जी..घन्सु ने चुटकी ली. तिवारी जी बोले तो क्या हुआ यहां भी तो आ जाता है. आरोप लगते ही आये हैं.
घन्सु भला चुप रहते..पूछ बैठे कि माना इन खेलों में आपको हमारे देश की राजनिति का लैण्डस्केप दिख रहा है तो आम जनता कहाँ गई पूरे खेल में से?
तिवारी जी तो मानो बौखला गये, कहने लगे तुमको इसमें आम जनता दिखाई ही नहीं पड़ रही है? अरे आम जनता  ही तो यह फुटबॉल है. कितना चूम कर जमीन पर रखते हैं ये खिलाड़ी उसे और फिर जिसकी जद में आ जाये बस लात खाना ही इसकी नसीब में आता है. चाहे कोइ जीते या कोई हारे, लात सभी मारते हैं. कभी यही फुटबाल किसान हो जाती है, कभी दलित, कभी आम जनता, कभी हिन्दु तो कभी मुसलमान मगर अंत में इसके हिस्से में लात ही आनी है. कभी लात मार कर आकाश में ऊँचा ऊड़ा देंगे कि देखो, कितना ऊपर उठा दिया तुमको. देखो देखो विकास... एक मिनट की खुशी और फिर नीचे टपक गये. फिर और लातें. हारने वाला भी मन ही मन ठान कर निकलता है मैदान से कि अगली बार और ताकत से लातें मारुंगा तब देखता हूँ कि कैसे नहीं जीतता हूँ!!
एक बॉल पिट पिट कर दम भी तोड़ दे तो कोई फरक नहीं पड़ता. हू केयर्स टाईप..एक नई बॉल हमेशा हाजिर रहती है. १२० करोड़ हैं. और उसे भी साहेब ने एक बार ६०० करोड़ बताया था तो कोई गलत नहीं बताया था. निदा फ़ाज़ली साहब ने कहा भी है:
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना..
अब साहब ने हर आदमी में आम आदमी + दलित + किसान + मजहबी + गरीब, पांच पांच देखकर ६०० करोड़ बोल दिया तो क्या गलत किया?
शेर पढ़कर दस बीस गिन लिए होते तो भी क्या. कितनी ही पुश्तें पिटती रहेंगी, मरती रहेंगी मगर इनका खेला बदस्तूर चलता रहेगा. कुछ न बदला है, न बदलेगा.
अगला विश्व कप फिर इसी सजधज के साथ खेला जायेगा, फिलहाल तो इस बार कौन जितेगा, वो देखो और पिटते रहो!
हम बता दे रहे हैं पिटने के सिवाय तुम्हारी किस्मत में कुछ और है भी नहीं और यह कहते कहते तिवारी जी ने अपना जूता उतारा और घन्सु की तरफ फेंक कर मारा!! घन्सु भी सीज़न्ड है..साईड में झुक कर वार खाली जाने देने में माहिर!! घन्सु आम जनता है..वो इसमें ही खुश है कि जूते का वार बचा ले गया.
काश! वो अपना अधिकार जान पाता और पलट कर जूता मारता!!
समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार २४ जून, २०१८:  

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शनिवार, जून 16, 2018

बंगला छोड़ने का दुख और विरह पीड़ा का चरम


हमेशा सुनते आये थे कि ईट पत्थर से मकान बनता है और उसमें रहने वालों से घर. बात भी सच है कि मकान तो आप बेच खरीद सकते हो, किराये पर ले सकते हो मगर घर नहीं. घर परिवार वालों से बनता है.
टूटे परिवारों में मकान बिक जाने के दर्द से कहीं ज्यादा टीसता दर्द घर न रह जाने का और परिवार बिखर जाने का, रिश्ते टूट जाने का होता है जो ताजीवन सालता है. दोनों पक्षों का दर्द होता है यह. मगर जिस पक्ष ने षणयंत्र किया होता है वह बस  अपराधबोध से उबरने के लिए इस सोच का इस्तेमाल करता है कि दूसरा पक्ष अपना हिस्सा लूज़ कर जाने से दुखी है और इसी सोच से वह आनन्दित होने की कोशिश करता है कि देखो, मैं जीत गया. यह वैसी ही लीपा पोती है अपने अपराध बोध को खुद से और दूसरों से छिपाने के लिए जैसी कि किसी बड़े नेताओं के आने पर सड़कों में पैचवर्क करके उन रास्तों को सुधार दिया जाता है जिनसे उनकी गाड़ी गुजरने वाली होती है. वो नेता भी जानता है कि यह पैच वर्क कल मेरे चले जाने पर उखड़ जायेगा और शहर भी इस बात से भली भांति परिचित होता है. किसी को फर्क नहीं पड़ता मगर कराहती सड़के हैं और उन सड़कों का दर्द कोई नहीं समझता.
पान की दुकान पर तिवारी जी बता रहे हैं कि हम तो इस रास्ते पर तब से चल रहे हैं जब न तो यह पान की दुकान थी और न यह सड़क. बस, एक ठो कच्ची पगडंडी होती थी. अब याद करते हैं तो लगता है वो पगडंडी ही इस सड़क से बेहतर थी. कम से कम थी तो. अब तो कहते हैं कि सड़क है मगर उसे गढ्ढों के बीच में खोजना पड़ता है कि है कहाँ? जिस दिन मंत्री जी आवें उस दिन फिल्म में दिखती हिरोईन की तरह क्रीम पॉलिश लगा कर तैयार और मंत्री जी गये कि बस!! लाईट और कैमरा ऑफ..मेकअप उतरा और पहचान कर दिखाओ उसी हिरोईन को..भूत भूत चिल्ला कर भागोगे अधिकतर को देख कर.
खैर, बात चल रही थी घर और मकान की. तो रहवास के और भी अनेकों नाम हैं महल है, हवेली है, झोपड़ी है, आश्रम है, कुटिया है, झोपड़ी है, मुंबई के फुटपाथ भी बराबरी से टक्कर दे लेते हैं. होने को तो बीहड़ और जेल भी हैं जिसके राजपथ पर गुजर कर लोग वो मुकाम हासिल करते हैं जब वो चुने हुए नेता हो जाते हैं और उनको सरकारी बंगला मिल जाता है. अपवाद इसमें भी हैं कि कुछ को अपनी पढ़ाई लिखाई के जरिये और कुछ को अपनी जाति के कारण मिले आरक्षण के जरिये और कुछ को अपनी रसूक और पहचान के जरिये सरकार में ऐसे पद प्राप्त हो जाते हैं कि उन्हें भी सरकारी बंगले आवंटित हो जाते हैं.
सरकारी बंगलों और अन्य रहवासों में ठीक वही ठसक और पावर का भेद है जो नेताओं और आमजन में होता है. ये सरकारी बंगलों का ही करिश्मा हैं कि उसमें रहने वाले कभी घर नहीं जाते और न ही घर पर रहते हैं. उनसे या उनके मातहतों से पूछो कि साहेब कहाँ हैं? तब या तो वो बंगले पर होते हैं, या बंगले जा रहे होते हैं. आप को भी समाचार यही आयेगा कि मंत्री जी ने आपको बंगले पर बुलाया है.
कभी इन महानुभावों से पूछिये कि साहब, यह आपका घर है क्या? तो भले पूरा परिवार इस बंगले में रह रहा हो बरसों से मगर वो बोलेंगे कि नहीं, नहीं, मेरा घर तो मुगलसराय में है..भले ही वहाँ किरायेदार रह रहे हों. पता नहीं या तो इनको घर, मकान और बंगले की भेद नहीं समझ आता या शायद अन्य मसलों की तरह समझ कर भी समझना न चाहते हों.
जो भी हो बंगले आकर्षित करते हैं जैसे कि फिल्मी तारिकायें. वो उसमें रहने वालों को अपने मोहपाश में ठीक वैसे ही बाँध लेते हैं जैसे कि यह फिल्मी तारिकायें. जो एक बार बंगले में रहने लगता है वो यह भूल जाता है कि यह सरकारी है और इसे एक दिन खाली करना होगा. जैसे फिल्म देखते हुए तारिका के कुछ लोग ऐसे ऐसे दीवाने हो जाते हैं कि मुंबई पहुँच कर कभी उसके घर में कूद कर पक़ड़ा जायेंगे और पीटे जायेंगे, तो कभी उसकी कार पर पत्थर फेंक कर उसे न पा पाने की खीझ उतार लेते हैं. दुख तो इतना अपार कि कई बार तो फाँसी लगा कर तारिका को न पा पाने पर अपनी ईहलीला ही समाप्त कर लेने के किस्से भी हैं.
ठीक वही हाल बंगला छोड़ने के दुख का दिख रहा है. विरह पीड़ा का चरम दिखाई देता है. अव्वल तो छोड़ना नहीं चाहते, भले ही वो पद चला गया हो जिसकी वजह से बंगला मिला था. और अगर कोर्ट के आदेश के दबाव में आकर मजबूरन खाली करना ही पड़ा तो वही हिरोईन की कार पर पत्थर फैंकने और नुकसान पहुँचाने वाली बात, चलते चलते टाईल्स उखाड़ ले गये. नल तोड़ डाले, तमाम कालीन, दीवारें आदि तोड़ फोड़ डाले. बंगले को खण्डहर में तबदील कर देने की पूरी कोशिश करके रुखसती लेते हैं.
हिरोईन से मोहब्बत तो फिर भी समझे. कौन जाने कि खुदा मेहरबान हो जाये और उसका दिल एक बार को आप पर आ भी जाये और वो आपकी हो भी जाये मगर सरकारी बंगला?? वो तो हर हाल में वापस करना ही है, उससे ऐसा मोह कैसा? बात समझ के परे है.
-समीर लाल ’समीर’ 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार १७ जून, २०१८:

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शनिवार, जून 09, 2018

काम पर नहीं वायरल होने पर ध्यान दो!!


आज पान की दुकान पर तिवारी जी बता रहे थे कि उनके मोहल्ले के ९० प्रतिशत घरों में अब भूत नाचा करते हैं. सभी घरों के बच्चे बड़े शहरों या विदेशों में जाकर बस गये हैं. किसी के यहाँ दोनों बुजुर्ग और किसी के यहाँ एक बचा, कभी बच्चों के पास चले जाते हैं तो कभी वापस आकर भी तबीयत और बुढ़ापे के चक्कर में घर में ही बंद रह जाते हैं. मोहल्ले में अब पहले वाली हलचल नहीं रही. हमारे जमाने की बात ही कुछ और थी. वैसे यह बात हर जमाने के बुजुर्ग के मुख से सुनी जा सकती है चाहे कितने ही युग बदल जायें कि हमारे जमाने की बात ही कुछ और थी.

चाय पर चर्चा और मन की बात से विपरीत पान की चुकान पर चर्चा में जन की बात सच होती है और फिर भी बहुत देर तक गंभीर नहीं रह पाती, कोई न कोई मनचला कुछ मजाक का पुट लगा ही देता है. यही तो जिन्दगी जीने का तरीका है वरना तो एक तरफा मन की बात के हाल देख ही रहे हैं.
तिवारी जी की गंभीर बात पर घन्सु ने चुटकी लेते हुए कहा कि चलिये इसी बहाने आप भूतों का नाच देख ले रहे हैं, कितनों के नसीब में होता है इसे देखना. कभी सेल्फी विडीओ उतरवाईये भूतों के साथ नाचते हुए. एकदम्मे वायरल हिट होगा आपका विडीओ. बस, उसमें लोग कन्फ्यूज न हो जायें कि कौन तिवारी जी हैं और कौन भूत!! वैसे वो भूत हैं कौन मजहब के..देख लिजियेगा हिन्दु ही हों? इतना कह कर घन्सु भाग लिया. तिवारी जी मूँह में इस बीच पान तम्बाकू घुल गई थी तो उसी के लोभ में घन्सु को गाली भी फेंक कर नहीं मार पाये और झुंझला कर रह गये. घन्सु जैसी हरकत सोशल मीडिया पर भी चल रही हैं सुबह से शाम तक. किसी भी गंभीर बात को करने ही नहीं देते हैं लोग. बस, संप्रदायिकता की तीली से आग लगाई और दौड़ लगा दी. हर चर्चा का अंत संप्रदायिकता और मजहबी टच. किसी भी समस्या के निदान पर कोई बात ही नहीं करता है.
थोड़ा ठहर कर तिवारी जी ने पान थूका और कहने लगे कि घन्सु को तो मैं शाम को देखता हूँ. तब बीन होगा हमारा ये जूता और नागिन डांस करेंगे घन्सु और तुम उतारना पूरे काण्ड के सेल्फी. तब उसे समझ आयेगी कि वायरल हिट कौन सी सेल्फी होती है.
नया जमाना है. परिभाषायें बदल रही हैं. आज फोटो, विडीओ चाहे खुद खींचों या कोई और- कहलाती सेल्फी ही है. फोटोग्राफ, विडीओग्राफ, सेल्फी चाहे जो हो, कहेंगे सेल्फी है. सेल्फी न हुई मुई सरकार हो गई हो. चाहे जो जीते, जो हारे, सरकार तो उनकी ही बनेगी.
कभी वायरल होता था तो एण्टी बायोटिक खाना पड़ती थी. बुखार देकर बदन तोड़ कर रख देता था वायरल. उस रोज तिवारी को बताया कि पिछले एक हफ्ते वायरल हो गया था इसलिए आ नहीं पाये पान की दुकान तक तो पूछने लगे व्हाटसएप पर फारवर्ड नहीं किये? कौन सा वाला विडीओ वायरल हुआ तुम्हारा? इस तरह बदली हैं परिभाषायें.
कभी किसी को डाऊन फील कराना हो तो अच्छे खासे मुस्कराते बंदे को चार पांच लोग थोड़े थोड़े अन्तराल पर अलग अलग इतना बस पूछ लें-’क्या भाई, तबीयत गड़बड़ है क्या? बड़े बुझे बुझे लग रहे हो, बुखार वगैरह तो नहीं है?’ विश्वास जानिये शाम होते तक अगर सही में बुखार न भी आया तो भी बंदा घर पर रजाई ओढ़े मिलेगा. इसी तर्ज पर बार बार बोल कर सारे देशवासियों को विकास और अच्छे दिन भी दिखा ही दे रहे हैं और लोग भ्रमित हुए जिता भी दे रहे हैं.
आज बड़ी से बड़ी समस्या चाहे वो कितनी भी वायरल क्यूँ न हो गई हो, का निदान उससे भी अधिक वायरल कोई और विषय कर देना हो गया है.
इधर हाल ही में पेट्रोल के दामों का हल्ला वायरल हो चला तो एकाएक डब्बू जी अपने भतीजे की शादी में गोविंदा का नाचा हुआ गाना नाच दिये. मीडिया ने उसे हाथों हाथ लिया. जब मीडिया ने उसे वायरल बताना शुरु किया तब तक वो सही मायने वायरल भी नही हुआ था. मगर फिर तो जो स्पीड पकड़ी की ऐसा लगा इतना मँहगा पेट्रोल फुल टैंक भरवा कर जेट उड़ा हो. लोग पेट्रोल भूल भाल कर डब्बू जी के नाच में ऐसा मस्त हुए कि कहीं गोविन्दा का इन्टरव्यू आ रहा है तो कहीं किसी फिल्म स्टार का ट्वीट. प्रदेश के मुख्य मंत्री डब्बू जी को सपरिवार घर बुलवा रहे हैं तो मीडिया डब्बू जी के घर के बाहर पूरी तरह मुस्तैद. डब्बू जी समझ ही नहीं पा रहे हैं कि आखिर उनके ठुमके में ऐसा क्या था कि पूरा देश झूम उठा?
बारात में भला कौन नहीं नाचा है? यह तो वैसा ही प्रश्न है कि किस नेता ने घोटाला नहीं किया है. बमुश्किल एक दो मिल जायें तो भी बहुत.ऐसे में आज देश के न जाने कितने नागिन डांसर जिन्होंने बारातों में सड़क पर गोबर की परवाह न करते हुए लोट लोट कर नाच का नायाब प्रदर्शन किया है, अपने आप को ठगा महसूस कर रहे हैं. उनकी कमी इतनी ही रह गई कि उनको मीडिया नें वायरल नहीं घोषित किया.
आज अगर छा जाना है तो काम पर नहीं वायरल होने पर ध्यान दो!! वायरल होने का जमाना है!!
-समीर लाल समीर


भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जून १०, २०१८ के अंक में:



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रविवार, जून 03, 2018

इसलिए खुद को साइकिल से अपग्रेड किया ही नहीं


पेट्रोल के तो न जाने कितने इस्तेमाल हैं. वाहन चलाने से लेकर विमान उड़ाने तक सब जगह पेट्रोल इस्तेमाल होता है. होने को तो साफसफाई, जनरेटर आदि में भी होता है, मगर वह इस्तेमाल मुख्य धारा का नहीं है इसलिए वो अगर बैगर जिक्र के भी रह जाये तो कोई फरक नहीं पड़ता. जैसे किसी नेता के द्वारा कोई नेक कार्य कर देने का जिक्र. आखिर ऐसा कार्य होता ही कितना है जो जिक्र में लाया जाये.
हाँ, पेट्रोल का एक कार्य जरुर और ऐसा है जिसका जिक्र करना चाहिये और वो है दंगाईयों द्वारा पेट्रोल बम का इस्तेमाल. सुविधा ये रहती है कि जब तक इसे चला न दिया जाये तब तक दंगाई महज पार्टी का कार्यकर्ता है और बम, शीशी में रखा पेट्रोल, जिसे ढिबरी की तरह इस्तेमाल किया जाना बताया जाता है. दोनों ही बातें दंगाई द्वारा बम चला देने के ठीक पहले तक पुलिस के द्वारा गैर कानूनी नहीं मानी जा सकती.
समाज ऐसा सुविधाभोगी हो गया है कि आज पेट्रोल के बिना जीवन सोच पाना भी कठिन हो गया है. ज्ञानी बताते हैं कि देश में ६७ साल में कुछ भी नहीं हुआ. पता नहीं फिर ६७ साल पहले बेलगाड़ी और साईकिलों से चलने वाला देश कब वाहनों से चलने लग गया और चल कर गया कहाँ अगर कुछ किया ही नहीं तो.
मेरी याद में ही दिल्ली से लेकर मेरे शहर तक को गाड़ियों से पटते देखा है. सड़कों पर गाड़ियों की संख्या में इतनी बड़ा इजाफा हो गया है कि महानगरों में सड़कें अब सड़के कम और पार्किंग लॉट ज्यादा नजर आती है. -१० किमी की दूरी भी कई घंटों में रेंगते हुए पूरी होती है. ये सब पिछले ४ सालों में तो नहीं हो गया होगा. और अगर हुआ है तो मतलब दिल्ली को प्रदुषण में ढकलने के लिए जिम्मेदार कौन? आज एक एक घर में चार चार वाहन रखना स्टेटस सिंबल बन गया है.
जिन देशों में पेट्रोल के कुएं है, उनके तो ठाठ बस पूछो न. एक जमाने में ऐसी तूती बोलती थी कि फिल्मों में किसी को बहुत पैसे वाला दिखाना होता था तो शेख की ड्रेस पहना कर खड़ा कर देते थे. जब बहुत तूती बोलती है तो एक न एक दिन नजर लग ही जाती है. अपने यहाँ ही देख लो. चार साल में ही नजर खा लिए- हद से ज्यादा तूती जो बुलवा ली. तो सारे तेल उपजाऊ देश भी नजर खाने लगे. ईराक, कुवैत सबका नूर उतर गया.अब तो खैर खाड़ी देशों की नौकरियों में भी पहले जैसी बात न रही.
दोहन की अति से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल के दामों में खलबली मची. खलबली का फायदा उठाना बाजार जानता है. जब अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में दाम १ रुपये बढ़ता तो ये ५ रुपये बढ़ा देते और जब ५ रुपये गिरता तो ये १ रुपया घटा देते. दाम बढ़ाने घटाने के खेल में सरकार को इतना मजा आने लगा कि धीरे धीरे ये सिलसिला अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के दामों से हटकर चुनाव में अटक गया.चुनाव पास तो दाम कम और चुनाव खत्म तो दाम आसमान छूने लगे.
हालत ये हो लिए हैं कि जिस पेट्रोल से राकेट उड़ान भरता है, उसी के दामों ने ऐसी उड़ान भर ली है कि राकेट भी शरमा गया है.वो भी पेट्रोल के दाम से कह रहा है कि प्रभु आप ही नई ऊँचाई नापो, हम अब आराम करते हैं.
एक वर्ग को छोड़ दें –उनको छोड़ना ही बेहतर हैं क्यूँकि वो आम नहीं हैं तो सभी की कमर टूट गई है. तमाम कार्टून आ रहे हैं. कोई कहता है कि पेट्रोल टंकी में न डाल, गाड़ी पर डाल दे – आग लगानी है. कोई कह रहा है कि जल्दी पेट्रोल पाऊच में आयेगा ५० ग्राम के..जब इन्सान बहुत परेशान हो जाता है तो हँसने लगता है, यही चरितार्थ हो रहा है इससे भी.
तिवारी जी पान की दुकान पर बता रहे थे कि हमें तो पता था कि एक दिन ऐसा दौर आयेगा इसलिए हमने तो कभी खुद को साईकिल से अपग्रेड किया ही नहीं. इस तरह अपनी दूर दृष्टि का लोहा मनवा लेने बाद वे आगे बोले- और अब हमसे सुनो. इस सरकार ने पेट्रोल को खेला बना कर इसका पलिता खुद अपनी दुम में लगा लिया है, देखना अगले चुनाव में..खुद अपनी लंका में आग लगा कर धूं धूं तमाशा देखेंगे. समझदार साथी तो कन्ना भी काटने लगे हैं अभी से.
पेट्रोल का तो स्वभाव भी है कि आग लगती फटाक से है मगर बुझाना बहुत ही मुश्किल होता है. तो अब जब आग लगा ली है तो भुगतने के सिवाय और रास्ता भी क्या है?
कोशिश तो फिर भी करना चाहिये, कुछ तो तरीके हैं ही, शायद दुर्गति की गति को विराम न सही, विश्राम ही मिल जाये.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में जून ३, २०१८ में:

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