आजकल फुटबॉल का विश्वकप
चल रहा है. सब फुटबॉलमय हुए हैं. खेलों का बुखार ऐसा ही होता है. फीफा के सामने बाकी
सब फीका पड़ गया है. सट्टेबाजी चरम पर है. ज्ञान बांटने वाले सुबह से पान की दुकान
पर चौकड़ी लगाये बैठे हैं. किस खिलाड़ी ने क्या गल्ती करी, ये बात तिवारी जी बताते
बताते उस खिलाड़ी को गाली बककर बोलना नहीं चूकते कि हमसे सलाह ले लिए होते तो आज कप
पक्का इनका ही होता. एक थोड़ा आराम ये है कि पाकिस्तान नहीं है विश्व कप में, इस
बात की खुशी है. है तो खैर भारत भी नहीं, मगर पाकिस्तान नहीं है तो अपने न होने का
कोई दुख भी नहीं है.
अलग अलग देशों की टीमें
हैं. अलग अलग खिलाड़ी हैं. अलग अलग कोच हैं. कोई खिलाड़ी सेलीब्रेटी है तो कोई नया नया
सेलीब्रेटी बन रहा है और कोई ड्रग से लेकर न जाने कितने विवादों में उलझा अपनी
सेलीब्रेटी स्टेटस खो रहा है. खेल सिखाता है कि कोई भी हमेशा ही विजेता नहीं रहता
और न ही कोई सेलीब्रेटी सदा सेलीब्रेटी बना रहता है. हार और जीत खेल का हिस्सा है.
जीत का अहंकार कैसा? आज तुम जीते हो, कल दूसरा कोई जीतेगा, तुम हारोगे.
बातचीत के दौरान तिवारी
जी एकाएक भावुक और दार्शनिक टाईप हो लिए. यह भी उनकी आदत का हिस्सा है. लोग इसे
मूड स्विंग पुकारते हैं. कहने लगे कि जरा देखो तो इन टीमों को – किसी की नीली
यूनीफार्म है, किसी की हरी, किसी की नारंगी, किसी की सफेद. सब जुटे हैं अपने अपने
हिसाब से. कोशिश में हैं सब जीतने की. मगर हार भी गये तो देखो, बस एक मिनट का गम
और फिर अगली बार की तैयारी नये सिरे से. मुझे तो इनको देखकर अपने राजनितिक दलों का
ख्याल आ जाता है.
एकदम ऐसे ही तो इन
राजनितिक दलों के भी अपने अपने रंग हैं. सब जीतने के लिए खेल रहे हैं. सबके पास
अपने अपने सेलीब्रेटी है. कुछ नये बन रहे हैं. मार्गदर्शक हैं. अपने अपने दांव
पेंच हैं अपने अपने तरीके हैं. चुनाव आयोग रेफरी की तरह भागदौड़ करके सुचारु रुप से
चुनावों को करवाने में जुटा है. जो गल्ती करता है, उसे झंडी दिखाकर, सीटी बजा कर
गलत करने से रोकता है और कभी कभी खिलाड़ी को बाहर भी बैठा देता है.
वैसे कभी कभी रेफरी का
झुकाव किसी एक टीम विशेष की तरफ देखने में आ जाता है तिवारी जी..घन्सु ने चुटकी
ली. तिवारी जी बोले तो क्या हुआ यहां भी तो आ जाता है. आरोप लगते ही आये हैं.
घन्सु भला चुप रहते..पूछ
बैठे कि माना इन खेलों में आपको हमारे देश की राजनिति का लैण्डस्केप दिख रहा है तो
आम जनता कहाँ गई पूरे खेल में से?
तिवारी जी तो मानो बौखला
गये, कहने लगे तुमको इसमें आम जनता दिखाई ही नहीं पड़ रही है? अरे आम जनता ही तो यह फुटबॉल है. कितना चूम कर जमीन पर रखते
हैं ये खिलाड़ी उसे और फिर जिसकी जद में आ जाये बस लात खाना ही इसकी नसीब में आता
है. चाहे कोइ जीते या कोई हारे, लात सभी मारते हैं. कभी यही फुटबाल किसान हो जाती
है, कभी दलित, कभी आम जनता, कभी हिन्दु तो कभी मुसलमान मगर अंत में इसके हिस्से
में लात ही आनी है. कभी लात मार कर आकाश में ऊँचा ऊड़ा देंगे कि देखो, कितना ऊपर
उठा दिया तुमको. देखो देखो विकास... एक मिनट की खुशी और फिर नीचे टपक गये. फिर और
लातें. हारने वाला भी मन ही मन ठान कर निकलता है मैदान से कि अगली बार और ताकत से
लातें मारुंगा तब देखता हूँ कि कैसे नहीं जीतता हूँ!!
एक बॉल पिट पिट कर दम भी
तोड़ दे तो कोई फरक नहीं पड़ता. हू केयर्स टाईप..एक नई बॉल हमेशा हाजिर रहती है. १२०
करोड़ हैं. और उसे भी साहेब ने एक बार ६०० करोड़ बताया था तो कोई गलत नहीं बताया था.
निदा फ़ाज़ली साहब ने कहा भी है:
हर आदमी में होते हैं दस
बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई
बार देखना..
अब साहब ने हर आदमी में
आम आदमी + दलित + किसान + मजहबी + गरीब, पांच पांच देखकर ६०० करोड़ बोल दिया तो
क्या गलत किया?
शेर पढ़कर दस बीस गिन लिए
होते तो भी क्या. कितनी ही पुश्तें पिटती रहेंगी, मरती रहेंगी मगर इनका खेला
बदस्तूर चलता रहेगा. कुछ न बदला है, न बदलेगा.
अगला विश्व कप फिर इसी
सजधज के साथ खेला जायेगा, फिलहाल तो इस बार कौन जितेगा, वो देखो और पिटते रहो!
हम बता दे रहे हैं पिटने
के सिवाय तुम्हारी किस्मत में कुछ और है भी नहीं और यह कहते कहते तिवारी जी ने
अपना जूता उतारा और घन्सु की तरफ फेंक कर मारा!! घन्सु भी सीज़न्ड है..साईड में झुक
कर वार खाली जाने देने में माहिर!! घन्सु आम जनता है..वो इसमें ही खुश है कि जूते
का वार बचा ले गया.
काश! वो अपना अधिकार जान
पाता और पलट कर जूता मारता!!
समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे में रविवार २४ जून, २०१८:
#Jugalbandi
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1 टिप्पणी:
हर इतवार की तरह आज सुबह ६:२० बजे मैं सोफे पर चाय का कप उठाने ही वाला था कि मोबाइल की खनक हुई , मैंने झट से मोबाइल उठाकर कहा "अजी लल्ला की अम्मा सुनती हो, थोड़ी देर से चाय गरम करके लाना" और देखा समीर जी के ब्लॉग की मेल पूरी मुस्तैदी के साथ हाजिर |
फिर क्या फीफा की स्पर्धा , भारतीय राजनीती , बेचारी मायूस फुटबॉल और तिवारी जी के साथ घंसू की नोक-झोंक , बेचारा घंसू इसी बात पर खुश की वो तिवारी जी के जूते की फुटबॉल बनने से बच गया |
वर्तमान पर्वेक्ष मैं फीफा की प्रासंगिकता का भारतीय लोकशैली में वर्णन सतबन्त सराहनीय है
और.... हम तिवारी जी के साथ घंसू तरह अगले इतवार को चाय पर ब्लॉग पढ़ने का इंतज़ार करेंगे
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