शनिवार, मार्च 20, 2021

कैसा तेरा प्यार- कैसा गुस्सा है तेरा

 

सुबह जब मैं उनके घर के सामने से निकला तो भैय्या जी दण्ड बैठक लगा रहे थे..११०, १११ उनके बाजू में खड़ा उनका चेला दण्ड की गिनती गिन रहा था. सामने दालान में ही एक चूल्हे पर मावा मिला दूध औंटाया जा रहा था. आजकल रोज सुबह हजार दण्ड लगाने के बाद भैय्या जी की सरसों के तेल से मालिश होती है. फिर कुनकुने पानी से स्नान कर औंटाया हुअ दूध ग्रहण करते हैं और इस तरह उनके दिन की शुरुआत होती है.

फिर चेलों की आवाजाही शुरु हो जाती है. योजनायें बनती हैं. चेले लठ्ठ को तेल पिला रहे होते हैं और भैय्या जी कान खोदते, बतियाते पान चबा रहे होते हैं.

पूछने पर पता चला कि त्यौहार की तैयारी चल रही है. आश्चर्यजनक तौर पर कोई त्यौहार तो आस पास आता दिखता न था. नागपंचमी भी आने में तो पूरा आधा साल बाकी है कि उस वजह से पहलवानी की तैयारी कर रहे हों.

हाँ, चुनावी माहौल जरुर है चारों ओर और उसके लिए इस तरह की तैयारी भी मुफ़ीद है. मगर भैय्या जी ने चुनाव को कभी त्यौहार का दर्जा नहीं दिया. वो उनकी जीवन शैली है, उनकी धड़कन है और उनके जीवन यापन का साधन है. चुनाव हैं तो बाकी सब त्यौहार हैं वरना तो यह जीवन ही बेकार है की तर्ज पर जीने वाले भैय्या जी, राजनिती के बाहुबलियों की बस्ती के सरगना हैं, जिन पर अनेकों हत्याओं और बलात्कार के मामले दर्ज हैं.  उनके लिए चुनाव उनका एक ऐसा दायित्व है जिसे निभाने के लिए वह इस मृत्युलोक में पधारे हैं और इसी दायित्व के चलते कितने लोगों को मृत्यु के घाट तक पहुँचा आये हैं, वो भला चुनाव को त्यौहार मानें, न!! ऐसा हो ही नहीं सकता.

अतः मन की शांति के लिए पूछना ही पड़ा कि भैय्या जी किस त्यौहार की तैयारी में जुटे हैं?

पता चला कि वेलेन्टाईन डे की तैयारी कर रहे हैं. दो दिन बचे हैं बस!! एकदम युद्ध स्तर पर तैयारियाँ चल रही हैं.

हमारे तो पाँव तले धरती ही खिसक गई. अगर मोहब्बत की उम्र की एक्सपायरी का आधार नेताओं की मोहब्बत की कहानियों से भी उठाये तो भी ६० बसंत से उपर तो क्या तय कर पायेंगे कुछ अपवादों को छोड़ कर. इस आधार पर भी मोहब्बत की एक्सपायरी डेट पार किये भैय्या जी को लगभग आधा दशक से उपर बीत चुका है.

ऐसी उम्र में वेलेन्टाईन डे? क्या मूँह दिखायेंगे घर परिवार में ये? हालांकि राजनेताओं को इन सब बातों की चिन्ता तो होती नहीं है, यह सब तो आप हम जैसे आमजनों के लिए बनाई गई सामाजिक बाध्यतायें हैं.

फिर भी भैय्या जी इतने उत्साह्पूर्वक वेलेन्टाईन डे का त्यौहार मनाने की तैयारी करें, वो भी ऐसे कि जब नव युवा प्रेमी नये कपड़े बनवा रहे हैं, गिफ्ट खरीदने की तैयारी कर रहे हैं, गुलाब के बुके पसंद कर रहे हैं, तब भैय्या जी दण्ड लगाकर और मालिश करा कर बदन बना रहे हैं, दूध औंटा कर मावे डाल कर पी रहे हैं, फूल की जगह लठ्ठ सजा रहे हैं तेल पिलवा कर...अजब तरीका है भैय्या जी का. बाहुबलियों की बात यूँ भी निराली होती है. यह तो खुश हों तो बंदुक दागें, गुस्सा हों तो बंदुक दागें...शायद इन्हीं की प्रेमिकायें गाती होंगी... कैसा तेरा प्यार कैसा गुस्सा है तेरा, तौबा सनम तौबा सनम…

वेलेंटाईन डॆ के दिन हम भैय्या जी के घर के सामने पेड़ के नीचे खड़े हो गये यह देखने के लिए कि क्या नजारा बनेगा इनके इस उम्र में वेलेन्टाईन डे मनाने के जोश का…

कुछ ही देर में भैय्या जी अपने सैकड़ों चेलों के साथ लट्ठ लिये निकलते दिखाई दिये…जय श्री राम का नारा आकाश में गुंजायमान हो गया..

शाम को टीवी में शहर भर के हजारों प्रेमी प्रेमिकाओं के पीटे जाने की खबर ब्रेकिंग न्यूज बनीं और भैय्या जी अपने साथियों के साथ प्रेस कांफ्रेस करते नजर आये…हम अपनी संस्कृति से खिलवाड़ नहीं होने देंगे.

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 21, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/59227517

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शनिवार, मार्च 13, 2021

एक युग के भीतर समाप्त होते अनेक युग

 

उस रात किसी बड़ी किताब का भव्य विमोचन समारोह था. यूँ भी हिन्दी में किताबों के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके लेखक के बड़े या छोटे होने से होता है और लेखक के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके संपर्कों के आधार पर.

बड़े लेखक की बड़ी किताब का विमोचन हो तो विमोचनकर्ता का बड़ा होना भी जाहिर सी बात है. अतः इस समारोह के विमोचनकर्ता भी बहुत बड़े और नामी साहित्यकार थे. वह इतना अच्छा लिखते हैं कि वर्षों से इसी चक्कर में कुछ लिखा ही नहीं (शायद भीतर ही भीतर यह भय सताता हो कि कहीं कमतर न आंक लिए जाये) मगर फिर भी, नाम तो चल ही रहा है.

अधिकतर अच्छा लिखने वालों के साथ यही विडंबना है कि वो इतना उत्कृष्ट लिखते हैं, इतना अच्छा लिखते हैं कि कुछ लिख ही नहीं पाते. बरसों बरस बीत जाते हैं उनका अच्छा लिखा पढ़ने को. बस, उनसे दूसरों के बारे में सुनने और पढ़ने के लिए यही मिलता चला जाता है कि फलाने ने अच्छा लिखा और ढिकाने ने खराब. सलाह भी उन्हीं की ओर से लगातार बरसती है कि अच्छा लिखने की कोशिश होना चाहिये साहित्य को धनी बनाने के लिए. वे बिना अपना योगदान देखे, हर वक्त दुखी नजर आते हैं कि आजकल अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और यह चिन्ता का विषय है.

सस्वर सरस्वती पूजन, माल्यार्पण आदि के बाद संचालक महोदय ने माईक संभाला और मुख्य अतिथि का परिचय प्रदान करते हुए स्तुति गान में ऐसा रमे कि यह कह कर मुस्कराने लगे कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री पुरुष नहीं हैं.

इतना कह वह मौन हो गये और मुस्कराते हुए मंच से लोगों के हावभाव देखते रहे. पूरे हॉल में इस सनसनीखेज खुलासे की वजह से सन्नाटा छा गया. सब छिपी आँख एक दूसरे को देखने लगे. संपूर्ण मंच भी असहज सा नजर आने लगा तब श्री विराट स्तंभी जी आगे बोले कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री जी पुरुष नहीं, महापुरुष हैं. अपने आप में संपूर्ण संस्था हैं. तब जाकर सभागृह में जान लौटी. श्री विराट स्तंभी जी के इस बयान से उनके सहज हास्य बोध का परिचय मिला जबकि कर्म एवं नाम से वह वीर रस हेतु प्रख्यात हैं. पूरे सभागृह में करतल ध्वनि की गुंजार उठ खड़ी हुई.

विचार आया कि यदि दो वाक्यों के बीच मौन के दौरान बिजली महारानी की कोप दृष्टि पड़ जाती, तब क्या होता?

संस्था का नाम सुनते ही मेरी रीढ़ की हड्ड़ी में न जाने क्यूँ एक अरसे से एक सुरसुरी सी दौड़ जाती है. एक चित्र खींच आता है मानस पटल पर किसी संस्था का, जिसे अपने पापों, घोटालों को अंजाम देने के लिए सबसे मुफीद और पावन उपाय मान व्यक्ति, व्यक्ति न रह संस्था में बदल जाता है. फिर गोपनीय वार्षिक बैठक, बेनामी पदाधिकरी और स्वयंभू अध्यक्ष की आसंदी पर विराजमान स्वयं वह.

देश में आजतक जितना संस्थाओं के नाम पर घोटालों को अंजाम दिया गया है, उतना शायद ही कहीं और हुआ होगा.

शायद संस्था ही वह वजह हो जिससे उनका स्टेटस बिना बरसों तक लिखे भी बहुत ऊँचा लिखने वाले का बरकरार रहा आया हो, कौन जाने? संस्था के भीतर की बात जानना तो सरकारी ऑडीटर के लिए भी टेढ़ी खीर ही रहा है अतः भीतर जाने की बजाय वो बाहर के बाहर पैसे लेकर निपटारा करना सदा से सरल उपाय मानता रहा है.

अब तो ऐसी संस्थाएं भी आ गई हैं, जिसमें न तो ऑडिट और न आर टी आई का प्रावधान है.

खैर, समारोह बहुत भव्य रहा. उतना ही भव्य मुख्य अतिथि का उदबोधन जिसमें उन्होंने पुनः साहित्य और लेखन के गिरते स्तर पर गहरी चिन्ता जतलाई और इस पुस्तक को इस दिशा में सुधार लाने का एक ऐतिहासिक कदम निरुपित किया.

इस कार्यक्रम के बाद एक और वरिष्ट साहित्यकार की श्रद्धांजलि सभा में जाना था. वहाँ भी श्रद्धांजलियों के दौर में अनेक संदेशों में मृतात्मा को एक व्यक्ति नहीं, युग बताया गया और उनके अवसान को एक युग का पटाक्षेप.

एक युग के भीतर समाप्त होते अनेक युग. हर वरिष्ठ, हर गरिष्ठ के प्रस्थान के साथ एक युग का पटाक्षेप, और एक ऐसे रिक्त का निर्माण, जिसकी भरपाई कभी संभव नहीं. शुरु से आजतक ऐसे रिक्त स्थानों की जिनकी भरपाई संभव न थी, एक एक बिन्दी के आकार का भी गिन लें तो शीघ्र ही, या कौन जाने पूर्व में ही, शायद ही कोई स्थान बचे जो रिक्त न हो.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 14, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/59066272

                                               

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शनिवार, मार्च 06, 2021

नींद में वोट देना हर आमजन जानता है

 


देर रात गये सोने की कोशिश मे हूँ. जब नींद नहीं आती तो ख्याल आते हैं. अकेले में ख्याल डराते है और इंसान अध्यात्म की तरफ भागता है भयवश. यह इन्सानी प्रवृति है, मैं अजूबा नहीं.

आधुनिक हूँ तो आधुनिक तरीके अपनाता हूँ अध्यात्म के. बड़े महात्मा जी का आध्यात्मिक प्रवचन सीडी प्लेयर में लगा कर उससे मुक्ति के मार्ग के बदले नींद का मार्ग खोजने में लग जाता हूँ. नीरस बातें नींद में ढकेल देती हैं. नीरसता टंकलाईज़र (नींद की गोली) का काम करती है.

कुछ देर मन लगा कर सुनता हूँ. महात्मा जी के कहे अनुसार, जीवन रुपी नैय्या से इच्छायें, चाह, लालच और वासना की गठरी उठा उठा कर फैंकता जाता हूँ पाप की बहती दरिया में. खुद को हल्का किये बगैर उपर नहीं उठा जा सकता, महत्मा जी मात्र १०० रुपये लेकर सीडी में समाये कह रहे हैं. मैं सुन रहा हूँ. कहते हैं चाहविहिन हो जाओ तो मुक्ति का मार्ग पा जाओगे और यह जीवन सफल हो जायेगा.

सोचता हूँ कि क्या मुक्ति का मार्ग पाना भी एक चाह नहीं? क्या चाहविहिन होने की चेष्टा भी एक चाह नहीं? क्या आमजन से उपर उठ अध्यात्मिक हो जाना भी एक चाह नहीं? जब एक चाह की गठरी को पाप की नदिया में फैंका सिर्फ इसीलिये कि दूसरी चाह की गठरी लाद लें, तो क्या यह व्यर्थ प्रयत्न और प्रयोजन नहीं?

मानव स्वभाव से बाध्य हूँ. चाहत की जो गठरियाँ अर्जित कर ली है, उसे फेंकने में दर्द सा कुछ उठता है किन्तु नई चाहत की नई गठरी तपाक से आकर जुट जाती है. प्रवचन सुन सुन कर ऐसी ही कितनी चाहतों की गठरियों का आना तो अनवरत जारी है लेकिन फैंकना, बहुत मद्धम गति से हो पाता है. अगर ऐसा ही चलता रहा और नई गठरियाँ इसी गति से जुड़ती रहीं तो वो दिन दूर नहीं, जब यह नाँव डगमगा जायेगी और सारा बोझ लिए इसी पाप की दरिया में डूब जायेगी. अब तो एक चाहत और जुड़ गई कि किसी तरह नैय्या डूबने से बची रहे.

स्वामी जी बोल रहे हैं सीडी प्लेयर में से और मैं अपने मन की बात सुनने में व्यस्त हूँ. मन भारी पड़ रहा है उन सिद्ध महात्मा जी की वाणी पर. खुद को कब नीचा दिखा सकते हैं खुद की नजरों में? वरना तो सो गये होते.

इस बीच स्वामी जी और भी न जाने क्या क्या बोल गये, मैं सुन नहीं पाया और एलार्म से नींद खुली तो सीडी प्लेयर से घूं घूं की आवाज आती थी. जाने कब स्वामी जी ने बोलना बंद कर दिया. रात बीत चुकी है और प्लेयर अब भी चालू है.

प्लेयर ऑफ कर फिर तैयार होता हूँ एक नया दिन शुरु करने को. नींद पूरी हो गई है तो फिर दिनचर्या में जुटने की तैयारी करता हूँ.

क्या पाप, क्या पुण्य, कैसा मुक्ति मार्ग? सब अब रात में सोचेंगे जब दिन भर की थकन के बाद भी मन कचोटेगा और नींद आने से मना करेगी. यही दैनिक चक्र है.

अब दफ्तर के लिए कार लेकर निकला हूँ तो रेडियो लगा लिया है. अब नए वाले साधु मन की बात कर रहे हैँ. मैं रेडियो बंद कर देता हूँ – बताया था न कि नीरस बातों से नींद आ जाती है. गाड़ी चलाते समय सो जाना कितना खतरनाक साबित हो सकता है.

लेकिन ये बात रेडियो से मन की बात बोलने वाले बाबाजी बहुत भली भांति जानते हैँ और उनके लिए सोया हुआ देश का आमजन ही मुफीद है. नींद में चलना और वोट देना हर आमजन जानता है. दुर्घटना के शिकार कितने आमजन हुए, वो भला कौन गिनता है।

कुछ मुश्किलों को सुलझाने की खातिर

खुद को ही उलझाता चला जाता हूँ मैं

आईने में एक अजनबी नजर आता हूँ मैं...

-समीर लाल ’समीर’      

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 07, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/58909357

 

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