रविवार, सितंबर 03, 2023

तारीखें क्या थीं.....चलो!!! तुम बताओ!!

 

वो दूर से भागता हुआ आया था इतनी सुबह...शायर की भाषा में अल सुबह और गर मैं कहूँ तो कहूँगा सुबह तो इसे क्या..क्यूँकि अभी तो रात की गिरी ओस मिली भी नहीं थी उस उगने को तैयार होते सूरज की किरणों से...विलिन हो जाने को उसके भीतर- खो देने को अपना अस्तित्व उसकी विराटता में समाहित हो कर खुशी खुशी.

देखा था मैने कि वो हांफ रहा था मगर कोशिश थी कि सामान्य नज़र आये और कोई सुन भी न पाये उसकी हंफाई.... दिखी थी मुझे ....उसकी दोनों मुठ्ठियाँ भिंची हुई थी और चेहरे पर एक विजयी मुस्कान......एक दिव्य मुस्कान सी शायद अगर मेरी सोच के परे किसी भी और परिपेक्ष्य में उसे लिया जाये तो...मगर मुझे वो उसकी वो मुस्कान एक झेंपी सी मुस्कान लगी.. जब मैने उससे कहा कि क्या ले आये हो इस मुठ्ठी में बंद कर के ..जरा मुट्ठी तो खोलो...अभी तो सूरज भी आँख ही मल रहा है और तुम भागते हुए इतनी दूर से जाने क्या बंद कर लाये हो इन छोटी सी मुट्ठियों में...मुझे मालूम है कि कुछ अनजगे सपने होंगे सुबह जागने को आतुर-इस सोच के साथ कि शायद सच हो जायें.,..दिखाओ न...हम भी तो देखें...

खोल दो न अपनी मुट्ठी......

वो फिर झेंपा और धीरे से...कुछ सकुचाते हुए...कुछ शरमाते हुए..आखिर खोल ही दिये अपनी दोनों मुठ्ठियाँ में भरे वो अनजगे सपने… मेरे सामने...और वो सपने आँख मलते अकबका कर जागे.. मुझे दिखा कुछ खून......सूर्ख लाल खून.. उसकी कोमल हथेलियों से रिसता हुआ और छोटे छोटे ढेर सारे काँटे गुलाब के..छितराये हुए उन नाजुक हथेलियों पर..कुछ चुभे हुए तो कुछ बिखरे बिखरे हुए से....न चुभ पाने से उदास...मायूस...

-अरे, ये क्या?- इन्हें क्यूँ ले आये हो मेरे पास? मुझे तो गुलाब पसंद हैं और तुम ..ये काँटे  .. ये कैसा मजाक है? मैं भला इन काँटों का क्या करुँगी? और ये खून?...तुम जानते हो न...मुझे खून देखना पसंद नहीं है..खून देखना मुझे बर्दाश्त नहीं होता...लहु का वो लाल रंग...एक बेहोशॊ सी छा जाती है मुझ पर..

यह लाल रंग..याद दिलाता है मुझे उस सिंदूर की...जो पोंछा गया था बिना उसकी किसी गल्ती के...उसके आदमी के अतिशय शराब पीकर लीवर से दुश्मनी भजा लेने की एवज में...उस जलती चिता के सामने...समाज से डायन का दर्जा प्राप्त करते..समाज की नजर में जो निगल गई थी अपने पति को.....बस!! एक पुरुष प्रधान समाज...यूँ लांछित करता है अबला को..उफ्फ!

तुम कहते कि मुझे पता है कि खून तुमसे बर्दाश्त नहीं होता मगर तुम्हारी पसंद वो सुर्ख लाल गुलाब है. मै नहीं चाहता कि तुम्हें वो जरा भी बासी मिले तो चलो मेरे साथ अब और तोड़ लो ताज़ा ताज़ा उस गुलाब को ..एकदम उसकी लाल सुर्खियत के साथ...बिना कोई रंगत खोये...

बस, इस कोशिश में तुम्हे कोई काँटा न चुभे  .तुम्हारी ऊँगली से खून न बहे..वरना कैसे बर्दाश्त कर पाओगी तुम...और तुम कर भी लो तो मैं..

बस यही एक कोशिश रही है मेरी..कि... मेरा खून जो रिसा है हथेली से मेरी...वो रखेगा उस गुलाब का रंग..सुर्ख लाल...जो पसंद है तुम्हें..ओ मेरी पाकीज़ा गज़ल!!

बस. मत देख इस खून को जो रिसा है मेरी हथेली से लाल रंग का.....और बरकरार रख मुझसे विश्वास का वो रिश्ता ..जिसे लेकर हम साथ चले थे उस रोज...और जिसे सीने से लगाये ही हम बिछड़े थे उस रोज...

याद है न वो दोनों दिन...तारीखें क्या थी वो दोनों.....चलो!!! तुम बताओ!!

है यार मेरा अपना शाईर जो मेरे दिल के अंदर रहता है

तड़प के वो है पूछ रहा, तू आखिर जिन्दा कैसे रहता है

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर 3, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/6659


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सोमवार, अगस्त 21, 2023

विकल्प और बदलाव अटल है

 

मुझे नहीं, वो मेरी लेखनी पसंद करती है. मुझे तो वो कभी मिली ही नहीं और ये भी नहीं जानता कि कभी मिलेगी भी या नहीं? बस जितना जानती है मुझे, वो मेरे लेखन से ही. कभी ईमेल से थोड़ी बात चीत या कभी चैट पर हाय हैल्लो बस.

मगर उसे लगता है कि वो मुझे जानती है सदियों से. एक अधिकार से अपनी बात कहती है. मुझे भी अच्छा लगता है उसका यह अधिकार भाव.

पूछती कि तुम कौन से स्कूल से पढ़े हो, क्या वहाँ पूर्ण विराम लगाना नहीं सिखाया? तुम्हारे किसी भी वाक्य का अंत पूर्ण विराम से होता ही नही ’।’ ..हमेशा ’.’ या इनकी लड़ी ’....’ लगा कर वाक्य समाप्त करते हो. शायद उसने मजाक किया होगा मेरी गलती की तरफ मेरा ध्यान खींचने को.

ऐसा नहीं कि मैं पूर्ण विराम लगाना जानता नहीं मगर न जाने क्यूँ मुझे पूर्ण विराम लगाना पसंद नहीं. न जिन्दगी की किसी बात मे और न ही उसके प्रतिबिम्ब अपने लेखन में. मुझे हमेशा लगता है अभी सब कुछ जारी है. पूर्ण विराम अभी आया नहीं है और शायद मेरी जैसी सोच वालों के लिए पूर्ण विराम कभी आता भी नहीं..कम से कम खुद से लगाने को तो नहीं. जब लगेगा तो मैं जानने के लिए हूँगा नहीं.

कहाँ कुछ रुकता है? कहाँ कुछ खत्म होता है? मेरा हमेशा मानना रहा है कि - जब सब कुछ खत्म हो जाता प्रतीत होता है तब भी कुछ तो रहता है. एक रास्ता..बस, जरुरत होती है उसे खोज निकालने की चाह की, एक कोशिश की.

मैं उसे बताता अपनी सोच और फिर मजाक करता कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा हूँ न, इसलिए पूर्ण विराम लगाना नहीं सीखा..वो खिलखिला कर हँसती. उसे तो पहले ही बता चुका था कि सरकारी हिन्दी स्कूल से पढ़ा हूँ.

वो खोजती मेरी वर्तनी की त्रुटियाँ, वाक्य विन्यास की गलतियाँ और लाल रंग से उन्हें सुधार कर ईमेल से भेजती. मैं उसे मास्टरनी बुलाता तब वो पूछती कि लाल रंग से सुधारना अच्छा नहीं लगता क्या...जबकि उसका इस तरह मेरी गलतियाँ सुधारना मुझे अच्छा लगता और मुझे बस यूँ ही उसे मास्टरनी पुकारना बहुत भाता.

बातों से ही अहसासता कि वो जिन्दगी को थाम कर जीती है, बिना किसी हलचल के और मैं बहा कर.

मुझे एक कंकड़ फेंक उस थमे तलाब में हलचल पैदा करने का क्या हक, जबकि वो कभी मेरा बहाव नहीं रोकती.

अकसर जेब से कंकड़ हाथ में लेता फिर जाने क्या सोच कर रुक जाता फेंकने से..और रम जाता अपने बहाव में.

सब को हक है अपनी तरह जीने का...

लेकिन पूर्ण विराम...वो मुझे पसंद नहीं फिर भी. चाहे वो देश की राजनीति में विकल्प के भाव को लेकर ही क्यूँ न हो – विकल्प और बदलाव अटल है!!

फिर ये अहंकार कैसा?

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अगस्त 20, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/6033

 

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रविवार, जुलाई 16, 2023

नंगा क्या नहाये और क्या निचोड़े

 


शाम को जब जिम जाता हूँ तो चैक इन करते वक्त वो दो तौलिया देते हैं.

एक तौलिये का इस्तेमाल तो वर्क आऊट करते वक्त पसीना पोछने के लिए और दूसरा, जब वर्क आउट पूरा हो जाये तो लपेट कर सौना (९० डिग्री सेल्सियस पर तपते कमरे में बैठ कर पसीना निकालने की विधी) में जाकर पसीना बहाने और फिर शॉवर में नहा कर बदन सुखाने के लिए.

सौना में जाना मुझे वैसा ही लगता है जैसे  हर वक्त एसी कमरों में रहने वाले नेताओं का किसी गरीब दलित के घर जाकर एक रात बिता कर उनकी समस्याओं को अहसासना. उनका वो खाना साथ में खा लेना जो कि नेताओं के उपभोग के लिए लैब से स्वीकृति प्राप्त हो. जेड सिक्यूरीटी वाले कुछ भी थोड़े न खा सकते हैं. ऐसे परिवेश में जहाँ आपका दिन भर का काम और माहौल आपको एक रत्ती पसीना न बहाने दे, तब श्वेद ग्रंथी पड़े पड़े बंद न हो जाये इस हेतु आप सौना में जाकर पसीना बहाते हैं. कुछ तो फायदा होता ही होगा और उससे ज्यादा मानसिक संतोष की प्राप्ति होती है. सौना में बैठा हर व्यक्ति चेहरे पर ऐसे भाव रखता है मानो वो जाने कहाँ की मेहनत कर रहा हो और पसीना बहा रहा हो. ठीक वैसा ही भाव जो इन नेताओं के चेहरे पर होता है किसी दलित के घर रात बिता कर निकलते हुए मीडिया के सामने आते हुए.

अक्सर अचरज में पड़ जाता हूँ जिम द्वारा प्रद्दत इन तौलियों का साईज देख कर. लम्बाई टोटल ३८ से ४० इन्च. अब जब कोई बंदा जिम आ रहा है तो ठीक ठाक साईज का या ज्यादा साईज का ही होगा जो अपना साईज कम करने में लगा होगा. जिम किसी टी बी के  मरीज के लिए टी बी रीहेबीलिटेशन सेन्टर तो है नहीं कि जो आयेगा २२ -२६ कमर वाला दुबला पतला ही होगा. ऐसे में ये तौलिये, न बाँधने में न सम्भालने में. हम जैसे लोगों के लिए, जो जिम की आबादी का ८०% है...उनकी हालत इन तौलियों को लेकर यूँ समझें कि सामने ढ़ाकें तो पिछवाड़ा खुला और पिछवाड़ा ढ़ाके तो सामने खुला. पिक एन्ड चूज़...तो कोशिश होती है कि ऐसा कुछ हो जाये कि साईड खुली रहे. थोड़ा खुला थोड़ा ढका..मानो आज की हिरोईनें कपड़े से कह रही हो कि थोडा और छोड़ो न..कितना ढँक देगो..कुछ तो दिखने दो और कपड़ा है कि अपने सामर्थ के अनुरुप ढंक देने को बेताब!!

फिर सोचता हूँ कि ये कोई सरकारी योजना है क्या? दे भी दी और मिली भी नहीं. मिली भी तो पूरी नहीं.

मगर तब सौना में देखा कि कुछ रईसजादे अपनी अलग ही सोच रखते हैं...वो वाकई इन तौलियों को रुमाल समझ कर गले में टांग लेते हैं और मात्र पसीना पौंछने को इस्तेमाल करते हैं..शरीर ढ़ंकने को उनके पास अपनी मँहगी बाथ रोब होती है लम्बे तौलिये नुमा...उनके लिए जिम का तौलिया मात्र एक शिगुफा है..पसीना पोछो और धुलने फैंको!! पसीना बहाने आये हैं या बाथ रोब का रौब दिखाने, समझ ही नहीं आता.

इन्हें देख कर लगता है मानो साहेब सूट बूट पहन कर अपनी बी एम डब्लु से उतरे हों... और लगे झाडू उठा कर स्वच्छता अभियान चलाने... उन्हें देख कर, कचरा खुद घबरा कर दौड़ पड़ता है कचरा दान की तरफ..कि हे प्रभु..आप यहां कैसे?..शर्मिन्दा करेंगे क्या? हम खुद ही चले जाते हैं कचरा पेटी में..

मगर सौना में ज्यादा आबादी उन लोगों की होती है जो इन तौलियों को कंधे पर टांगे यूँ ही बिना कुछ पहने आ बैठते हैं..मानों देश की आम जनता की हालत इस कहावत से बयाँ कर रहे हों:

’नंगा क्या नहाये और क्या निचोड़े’


-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 16, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/4530


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शनिवार, जुलाई 08, 2023

गाँव में योगा, दूर करे रोगा

 

जब से विश्व एक गाँव कहलाया- ग्लोबल विलेज, उन्होंने ने अपने पद को ग्राम प्रधान का दर्जा दे दिया. इससे बेहतर पद विश्व गुरु के लिए और हो भी क्या सकता है.

ग्राम प्रधान की थाली में दो सूखी रोटी और पालक का साग उनके स्वास्थय के प्रति सजगता दिखाती है. वो बड़े गौरव के साथ अपना सीना ताने अपने रईस दोस्तों के बीच अपनी डाइट बताते है. अपना एक्सर्साईज रुटीन बधारते हैं. नित प्रति दिन ऐसी साइकिल (एक्सर्साईज बाईक) चलाने का दावा करते है जो जाती तो कहीं नहीं मगर मीटर में दिखाती है कि पूरे पाँच किमी चली है याने अगर १०० दिन की बात करें तो ५०० किमी चली- मानो साइकिल न हुई, सरकार हो गई हो. हुआ गया कुछ हो या न हो, १०० दिन में ५०० किमी का रिपोर्ट कार्ड लहराया जा रहा है हर तरफ. काश!! ५०० किमी की जगह, दिल्ली से ५० किमी दूर तक भी निकल लिए होते सही में साईकिल चलाते और कुछ जमीनी हकीकत का जायजा ले लेते तो शायद कुछ किसान आत्म हत्या करने से बच जाते. कुछ खिलाड़ी बेटियों को न्याय मिल जाता. शायद महीनों से राहत की बाट जोते किसी सरकारी कर्मचारी के परिवार को कुछ आशा की किरण दिख जाती.

लेकिन हमारे नेताओं की आदत में है, आपदाओं और विपदाओं का हवाई निरीक्षण करना और उसके आधार पर बने जमीनी विकास के रिपोर्ट कार्ड को हवा में लहरा लहरा कर जनता को बहलाना. आकाश से देखने का फायदा ये होता है कि कीचड़ में ऊगी घास भी हरियाली नजर आती है. मुश्किल तो उसकी है जिसे उस कीचड़ के दलदल से होकर गुजरना होता है. लेकिन उसकी किसे फिकर- कीचड़ में उसके कपड़े खराब हों या वो दलदल में फंस कर दम तोड़ दे- ये सब उसकी परेशानी है. हमारा रिपोर्ट कार्ड तो दिखा रहा है कि चहु ओर हरियाली ही हरियाली है. हरित क्रान्ति के इतिहास में पहली बार इतना हरा अध्याय.

खैर, बात चल रही थी एक्सर्साईज रुटीन की- तो यदि आप योग को योगा कह दें तो ये तुरंत वैसा ही स्टेटस सिंबल बन जाता है जैसे मानों आम आदमी की थाली से उचक कर दो सूखी रोटी और पालक का साग ग्राम प्रधान की थाली में शोभायमान होने लगा हो और जब ग्राम प्रधान की थाली में आया है तो बखाना भी जायेगा और जब बखाना जायेगा तो रिपोर्ट कार्ड में भी आयेगा.

गांवों में अस्पताल हो या न हो और अगर अस्पताल हो भी तो उसमें डॉक्टर का अता पता लापता हो मगर इससे क्या फरक पड़ता है. बेवजह हल्ला मचाते हो फालतू का मुद्दा उठा कर. चलो, तैयार हो जाओ इस समस्या के समाधान के लिए- २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योगा दिवस के दिन सब साथ में योगा करो. योगा में अगर भगवान का नाम न लेना हो मत लेना, अल्लाह का ले लेना, ईशु का ले लेना - क्या फरक पड़ता है मोटापा कम होने में अगर पाव दो पाव का अंतर रह भी गया इस वजह से तो. जब सब सूर्य नमस्कार कर रहे हों तो तुम सूर्य ग्रहण की कल्पना करते हुए चाँद सलाम कर लेना, लिटिल स्टार मान कर ट्विंकल ट्विंकल हैलो कर लेना- आँख तो मूँदी ही रहना है.

जो मन करे सो करना- बस इतना ध्यान रखना कि अब आगे से बीमारी के लिए अस्पताल और डॉक्टर की मांग उठाना मना है क्यूँकि रिपोर्ट कार्ड दिखा रहा होगा कि गाँव(विश्व) में सब योगा कर रहे हैं और सब पूर्ण स्वस्थ है!!

इससे अच्छे दिन की और क्या कल्पना कर सकते हो, बुड़बक!!

चलो नारा लगाओ – दूर करे रोगा, गाँव में योगा.

जब योग योगा हो सकता है तो रोग रोगा क्यूँ नहीं हो सकता?

समीर लाल ‘समीर

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 8, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/4390

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रविवार, जून 04, 2023

सुझावों का व्यक्तित्व बहुत कमजोर होता है

 


तिवारी जी को किसी ने बताया था कि अगर जीवन में सफल होना है, तो अपना एक मेंटर (उपदेशक) बनाओ। साफ शब्दों मे कहा जाए तो उस्ताद बनाओ। उन्हीं उस्ताद से उन्होंने सीखा था कि जनसेवक को जनता के लिए किए जा रहे कार्यों और योजनाओं के लिए जनता से सुझाव लेना चाहिये। उन सुझावों को अच्छी नजर से देखना परखना चाहिये। फिर अपने साथियों (जिसे मंत्रीमंडल भी कहते हैं) से सलाह करना चाहिये। परियोजना अमल हो जाने पर जनता से फीडबैक लेते रहना चाहिये। साथ ही यह भी समझाया कि  ‘निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।

आई आई टी में दाखिले के लिए जो मास्साब ट्यूशन पढ़ाने आते थे, उनकी दाखिले के बाद क्या जरूरत? अतः जैसे ही सफल हो गए तो सबसे पहले तो मेंटर (उस्ताद) को अलग किया। मगर सलाहें झोले में सहेज कर रख लीं।

कुर्सी पर काबिज होते ही जो मकान मिला वो एकड़ों में फैला था। उसी के आंगन के आखिरी कोने में निंदक की कुटिया बनवा दी गई। निंदक शोर मचाता तो काम में विघ्न पड़ता अतः तिवारी जी का घर साउण्ड प्रूफ कर दिया गया। कुर्सी में बड़ी ताकत होती है अतः आनन फानन में उस कुटिया में निंदक के आने जाने का मार्ग भी पिछली सड़क से करवा दिया गया। लेकिन उस्ताद की सलाह से टस से मस न हुए। बहुत बाद में पता चला कि निंदक का दर्जा देकर उस्ताद को ही उस कुटिया में रखा गया था। जिसकी बातें सफल होने तक सलाह हुआ करती थीं, उसी की सलाहें सफल होने के बाद निंदा लगने लगी थीं। यही दुनिया का नियम हैं और मानव का स्वभाव।

जनता के सुझावों को इतना अधिक महत्व दिया गया की तिवारी जी ने एक सुझाव मंत्रालय ही बना डाला। उस मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार भी खुद अपने पास रखा।

जनमानस की भलाई हेतु हर परियोजना के लिए सुझाव मँगवाए जाते। जैसे ही सुझाव जनता से चल कर मंत्रालय में दाखिल होते वो सरकारी हो जाते। उन्हें फाइल में रखवाया जाता। सुझावों को किसी की बुरी नजर न लग जाए अतः उन्हें देखने पर ही अघोषित पाबंदी लगा दी गई। उन फाइलों को अलमारी में ताला लगा कर बंद करवा दिया जाता।

सुझावों का व्यक्तित्व बहुत कमजोर होता है। जैसे ही परियोजना पूरी हो जाती है तब कुछ सुझाव, सुझाव से बदल कर यथार्थ हो जाते हैं और कुछ सुझाव बेकार। अब किसका क्या हुआ, ये तो पता करोगे तो पता चलेगा मगर यह तय है कि परियोजना आ गई है अतः सुझाव अब सुझाव नहीं रहे। अब उन्हें सरकारी रद्दी का दर्जा प्राप्त हो गया है। जनता के मासूम हाथों से चलकर सरकारी कागजों के राजमार्ग से गुजरते हुए सरकारी रद्दी में तबदील होना ही  सुझावों की जीवन यात्रा है।

अतः उस परियोजना से संबंधित सुझावों की सरकारी रद्दी को कतरन बनवा कर उसे पैकिंग मटेरीयल की तरह से इस्तेमाल करने के लिए नीलाम करवा दिया जाता। इस तरह से तिवारी जी ने, न सिर्फ पैकिंग के श्रेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक सफल कदम उठाया बल्कि पर्यावरण के प्रति अपनी सजगता भी दर्शाई। एक तीर से दो निशाने तो बहुतेरे लगा लेते हैं, लेकिन तिवारी जी का तो अंदाज ही निराला है। अतः तीसरा निशाना उनके चाहने वालों ने यह कह कर लगवाया कि इसे कहते हैं मौलिक सोच।

वह अपने साथियों से सभी परियोजनाओं पर सलाह लेते। सभी मंत्रीमंडल के साथी बारी बारी अपनी सलाह रखते, जिसे तिवारी जी कान में यूएनओ स्टैन्डर्ड वाले ट्रांसलेटर हैडफोन लगा कर ध्यान से सुना करते। ट्रांसलेटर हैडफोन की खासियत यह होती हैं कि उसमें से आ रहा संवाद किसी भी भाषा में बोला गया हो, सुनने वाले की भाषा में परिवर्तित होकर सुनाई देता है। यह प्रोग्रामिंग के जरिए उस हैडफोन को सिखाया जाता है।  तिवारी जी के निर्देश पर उनके हैडफोन से हर संवाद का अनुवाद सिर्फ इतना ही होता था कि  ‘जी  साहब, आपने बिल्कुल सही सोचा है और मैं आपका अनुमोदन करता हूँ। आपकी जय हो, आप हो तो सब मुमकिन है’। तिवारी जी अपने साथियों की सलाह सुन कर आनंदित होते और उनको धन्यवाद ज्ञापित करते। धन्यवाद पाकर सभी साथी प्रसन्न होते कि  उनकी सलाह तिवारी जी पसंद आई। एक प्रसन्न टीम ही टीम लीडर की लीडरशिप की सफलता का प्रमाण होती है। इस तरह से तिवारी जी ने अपनी लीडरशिप का लोहा मनवा लिया था।

परियोजना के अमल होते ही तिवारी जी अपने उस्ताद की अंतिम सलाह को अमली जामा पहनाते हुए जनता का फीडबैक लेने के सर्वे कराते। जनता से निवेदन किया जाता की बिना किसी दबाव के निष्पक्ष सर्वे का विकल्प चुन कर तिवारी जी के कार्यों का आंकलन करें। जनता को चार विकल्प में से कोई भी एक चुनना होता बिना किसी दबाव के – (अ) बेहतरीन, (ब) अतुलनीय, (स)अद्भुत, (द) विश्व स्तरीय

अगले दिन सर्वे का परिणाम सार्वजनिक कर दिया जाता। तिवारी जी पुनः किसी नई परियोजना में पुनः इसी परिपाटी को अपनाते हुए अथक लगे रहते और एक सच्चे जनसेवक होने का श्रेय अर्जित करते रहते।  

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जून 4, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/3858

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शनिवार, मई 13, 2023

आखिर जाने ऐसा क्या पा लेंगे!!



मौसम ठंडा है या गरम? नहीं पता. जहाँ हूँ वहाँ अच्छा लग रहा है.

अभी अभी आँख लगी थी या अभी अभी आँख खुली है, समझ नहीं पा रहा हूँ.

पूरा बदन दर्द से भरा है. दिल नहीं, बस बदन. ज्यादा काम की थकावट. १४ घंटे काम के दिन.

त्यौहारों के दिन तो आते ही रहते हैं. कभी कोई दिन, कभी कोई दिन. छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ मिल जाती हैं तो समझो आराम के दिन.

आराम के पहले थकान जरुरी है वरना आराम का क्या मजा?

आँख मिचमिचाता हूँ. बस, जागृत होने का प्रयास है सुप्तावस्था में.

कहाँ हूँ मैं?

है तो कोई हवाई अड्डा ही.

बिजिंग?? वेन्कूवर?? टोरंटो??

थकान सोच को बाधित कर रही है. इतना क्यूँ थकाते हैं हम खुद को? कितनी महत्वाकांक्षायें और उनके लिए यह कैसी दौड़?

आस पास देखता हूँ.

चायनीज़ खूब सारे दिख रहे हैं, शायद बिजिंग में ही हूँ मैं. आवाजें सुनता हूँ निढाल आँखे मीचें..बी डू ची..चायनीज़ में एक्सक्यूज मी. बिजिंग ही होगा और मैं अपने जहाज के इन्तजार में नींद के आगोश में चला गया होऊंगा.

अभी सोच ही रहा हूँ कि बाजू से एक ब्रिटिश एकसेन्ट में बात करता युगल निकल गया और उसके पीछे अमरीकन आवाज.

मगर यही सारी आवाजें तो वेन्कूवर और टोरंटो हवाई अड्डे पर भी सुनाई देती हैं.

कहाँ हूँ मैं?

यह क्या? पूछ रहा है कि कितने बजे फ्लाईट है अपने दोस्त से हिन्दी में!! जाने कौन है हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी. इसका फरक देश क बाहर निकलते ही खत्म हो जाता है- सब अपने देशी. 

यही दृष्य आये दिन वेन्कूवर और टोरंटो में भी देखता हूँ हवाई अड्डे पर.

आसपास नजर दौड़ाता हूँ. कुछ ड्रेगन आकाश से रस्सी के सहारे झूल हैं. फिर कुछ तरह तरह के पेड़ सजे हैं. झालर रोशनी का सामराज्य है हर तरफ. कोई जोकर बने घूम रहा है तो कोई मिकी माउस. उद्देश्य शायद जी बहलाने का ही होगा ताकि इंसान अपनी यात्रा की तकलीफ और थकान भूला रहे. देश में भी झालर और जोकराई इसीलिए चलती रहती होगी कि मन बहला रहे.

इससे तो कतई नहीं जान सकते कि यह बिजिंग है या वेन्कूवर या टोरंटो...

कुछ आसपास सजी दुकानों पर नजर डालता हूँ..वही चायनीज़ फूड, फिर पिज्जा पिज्जा, फिर मेकडोनल्ड फिर फिर..सब एक सी ही दुकानें हर जगह..भीड़ भी एक सीमित दायरे में कुछ वैसी ही...

आखिर दिमाग पर जोर डालता हूँ..जेब में हाथ जाता है.. मेरी टिकिट और पासपोर्ट हैं.

टिकिट पर लिखा है बिजिंग से टोरंटो, फ्लाईट एयर कनाडा १०१ दोपहर १२.४७ बजे तारीख १० मई.

दीवार घड़ी पर नजर जाती है सुबह का १० बजा है तारीख १० मई.

हाथ घड़ी देखता हूँ रात का ९ बजे का समय तारीख ९ मई.

 

तब मैं बिजिंग से दोपहर १२.४७ तारीख १० मई.पर टोरंटो के लिए उड़ने वाला हूँ और १२ घंटे १० मिनट का सफर कर १० तरीख की सुबह ही ११.५७ पर टोरंटो पहुँच जाऊंगा.

कैसी अजब दुनिया है. देख कर कुछ अंतर नहीं दिखता!!

ऐसी दुनिया किसने रची..हमने, आपने या उसने?

पूरा विश्व एक गांव हुआ जा रहा है..पहचान नहीं पाते कि यहाँ हैं कि वहाँ. सब वैश्वीकरण के इस दौर में एक दूसरे में इतना घुल मिल गये है. सबकी अपनी योग्यता है, सभी का स्वागत सभी जगहों पर हैं.

और हम हैं कभी मराठियों का जय महाराष्ट्रा तो फिर कभी विदर्भ बनाने की जुगत में लगे हैं..

सोचता हूँ आखिर जाने ऐसा क्या पा लेंगे!!

समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई 14, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/3514

 

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रविवार, अप्रैल 30, 2023

अनुभव की कीमत डिग्री से ज्यादा होती है

 

बरसों पहले पहली बार किसी फाईव स्टार होटल में घुसने का मौका था एक दोस्त के साथ.

तय हुआ था कि एक एक कॉफी पी जायेगी. एक कोई वहाँ बिल और १०% टिप देगा. बाहर आकर आधा आधा कर लेंगे. इसी बहाने फाईव स्टार घूम लेंगे,

छात्र जीवन था. बम्बई में पढ़ रहे थे. एक जिज्ञासा थी कि अंदर से कैसा रहता होगा फाईव स्टार. छोटे शहर के मध्यम वर्गीय परिवार से आये हर बालक के दिल में उस जमाने में ऐसी जिज्ञासायें कुलबुलाया करती थीं.

बम्बई से जब घर जाया करते थे तो वहाँ रह रहे मित्रों के सामने अमिताभ बच्चन वगैरह के नामों को इग्नोर करना बड़ा संतुष्टी देता था जैसे उनसे बम्बई में रोज मिलते हों और उनका कोई आकर्षण हममें शेष नहीं बचा है. यथार्थ ये था कि एक बार दर्शन तक नहीं हो पाये थे तब तक.

खैर बात फाईव स्टार की हो रही थी. होटल तय हुआ ताज. दोपहर से ही दो बार दाढ़ी खींची. सच कहता हूँ डबल शेव या तो उस दिन किया या अपनी शादी के दिन.. बस!!! सोचिये, दिलो दिमाग के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा.

अपनी सबसे बेहतरीन वाली सिल्क की गहरी नीली कमीज, जो अमिताभ नें मिस्टर नटवर लाल में पहनी थी, वो प्रेस करवाई. साथ में सफेद बेलबॉटम ३४ बॉटम वाला. जवानी का यही बहुत बड़ा पंगा है कि आदमी यह नहीं सोचता कि उस पर क्या फबता है. खुद का रंग रुप कैसा है. वो यह देखता है कि फैशन में क्या है. जब तक यह अच्छा बुरा समझने की समझ आती है, तब तक इसका असर होने की उमर जा चुकी होती है. दोनों तरफ लूजर.

४५ साल तक सिगरेट पीते रहे और फिर छोड़ कर ज्ञान बांटने लगे कि सिगरेट पीना अच्छा नहीं है. मगर उससे होना क्या है, जितनी बैण्ड लंग्स की बजनी थी, बज चुकी. अब तो दुर्गति की गति को विराम देने वाली ही बात शेष है.

खैर, शाम हुई. हाई हील के चकाचक पॉलिश किये हुए जूते पहनें हम चले फाईव स्टार-द ताज!!!

चर्चगेट तक लोकल में गये और फिर वहाँ से टेक्सी में. ४-५ मिनट में पहूँच गये. दरबान नें दरवाजा खोला. ऐसा उतरे मानो घंटा भर के बैठे टेक्सी में चले आ रहे हैं. दरबान के सलाम को कोई जबाब नहीं. बड़े लोगों की यही स्टाईल होती है, हमें मालूम था.

सीधे हाथ हिलाते फुल कान्फिडेन्स दिखाने के चक्कर में संपूर्ण मूर्ख नजर आते (आज समझ आता है) लॉबी में. और सोफे पर बैठ लिए. मन में एक आशा भी थी कि शायद कोई फिल्म स्टार दिख जाये. नजर दौड़ाई चारों तरफ. लगा मानो सब हमें ही घूर रहे हैं. यह हमारे भीतर की हीन भावना देख रही थी शायद. मित्र नें वहीं से बैठे बैठे रेस्टॉरेन्ट का बोर्ड भांपा और हम दोनों चल दिये रेस्टॉरेन्ट की तरफ.

अन्दर मद्धम रोशनी, हल्का मधुर इन्सट्रूमेन्टल संगीत और हम दोनों एक टेबल छेक कर बैठ गये. मैने सोचा यहाँ तक आ ही गये हैं तो बाथरुम भी हो ही लें. बोर्ड भी दिख गया था, दोस्त को बोल कर चला गया.

अंदर जाते ही एक भद्र पुरुष सूटेड बूटेड मिल गये. नमस्ते हुई और हम आग्रही स्वभाव के, कह बैठे पहले आप हो लिजिये. वो कहने लगे नहीं सर, आप!! बाद में समझ आया कि वो तो वहाँ अटेडेन्ट था हमारी सेवा के लिए. हम खामखाँ ही फारमेल्टी में पड़ लिए. बाद में वो कितना हँसा होगा, सोचता हूँ तो आज भी शर्म से लाल टाईप स्थितियों में आ जाता हूँ.

वापस रेस्टॉरेन्ट में आये, तब तक हमारे मित्र, जरा स्मार्ट टाईप थे उस जमाने में, कॉफी का आर्डर दे चुके थे.

कॉफी आई तो आम ठेलों की तरह हमारा हाथ स्वतः ही वेटर की तरफ बढ़ गया आदतानुसार कप लेने के लिए और वो उसके लिए शायद तैयार न रहा होगा तो कॉफी का कप गिर गया हमारे सफेद बेलबॉटम पर. वो बेचारा घबरा गया. सॉरी सॉरी करने लगा. जल्दी से गीला टॉवेल ला कर पौंछा और दूसरी कॉफी ले आया. हम तो घबरा ही गये कि एक तो पैर जल गया, बेलबॉटम अलग नाश गया और उस पर से दो कॉफी के पैसे. मन ही मन जोड़ लिए. सोचे कि टिप नहीं देंगे और पैदल ही चर्चगेट चले जायेंगे तो हिसाब बराबर हो जायेगा. अबकी बारी उसे टेबल पर कप रख लेने दिये, तब उसे उठाये.

बाद में उसने फिर सॉरी कहा और बताया कि कॉफी इज ऑन द हाऊस. यानि बिल जीरो. आह!! मन में उस वेटर के प्रति श्रृद्धाभाव उमड़ पड़े. कोई और जगह होती तो पैर छू लेते मगर फाईव स्टार. टिप देने का सवाल नहीं था क्यूँकि नुकसान हुआ था सो अलग मगर जीरो का १०% भी तो जीरो ही हुआ. तब क्या दें?

चले आये रुम पर गुड नाईट करके उसे, दरबान को और टैक्सी वाले को. कॉफी का दाग तो खैर वाशिंग पाउडर निरमा के आगे क्या टिकता. ५० पैसे के पैकेट में बैलबॉटम फिर झकाझक सफेद.

फिर तो कईयों को फाईव स्टार घुमवाये. एक्सपिरियंस्ड होने के कारण हॉस्टल में हमारे जैसे शहरों और परिवेष से आये लोग अपना अनुभव बटोरने के लिए हमारा बिल पे करते चले गये.

अनुभव की कीमत डिग्री से ज्यादा होती है, हमने तभी जान लिया था.

समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 30, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/3304

 

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शनिवार, अप्रैल 15, 2023

हम सोच की उथली सतह पर ही टहल रहे हैं


 

पत्नी स्त्रियों की बीमारी से ग्रसित आज शल्य चिकित्सा के तहत अस्पताल में भरती कर ली गई. सुबह ६.३० बजे से बुला लिया था चिकित्सक महोदय ने. कागजी कार्यवाही एवं अन्य आवश्यक खानापूर्ति करते ८ बज गये और शल्य चिकित्सा प्रारंभ हुई. पूरे दो घंटे चली.

हम बाहर बैठे रहे और वहीं अस्पताल की लायब्रेरी से उठाकर फिलिस्तीन की क्रान्ति पर लिखी एक किताब का अध्ययन करते रहे. घर से ही थर्मोकप में ले जायी गई चाय के गरमागरम चुस्कियों के साथ. बरसों चली इस क्रांति का सार दो घंटों में निपटाकर संतुष्टी को प्राप्त हुए-क्या फरक पड़ता है जब बरतन दूसरे घर के फूटे. बल्कि मजा ही आता है और च च च!! जैसा अफसोस भी पूरे सुर ताल में रहता है. लगता है कि आपसे ज्यादा कोई दुखी नहीं..भले ही वो इस क्रान्ति में अपना सर्वस्व लुटा बैठा हो.

डॉक्टर ऑपरेशन करके बाहर आ चुका है. मुझसे बात कर ली है. पत्नी की हालत सामान्य है. एनेस्थिसिया का असर है, अतः होश नहीं है और शायद अगले ४ घंटे लगें जब होश आ पाये. हद है, जिसे होश नहीं है, उसकी हालत सामान्य?? भारत की जनता याद आई, मन मान गया. डॉक्टर में अंध विश्वास जागा मात्र इसलिए कि अविश्वास से कोई फायदा नहीं. वो डॉक्टर ही रहेगा और मैं बीमार या बीमार का परीजन..मसीहा कितने वेष धरता है आज जाना. पुनः मेरा भारतीय होना काम आया. मैं निश्चिंत हो गया. स्थिती से तुरंत समझौता कर लिया. हमारा मसीहा भी तो ऐसे ही बरताव वाला है.

अगले ३ से ४ घंटे फिर इन्तजार करना था, जब वो कुछ होश में आये और उसे कमरे में स्थानान्तरित किया जाये. मैं अपने लिए एक कॉफी खरीद लेता हूँ-एकदम ब्लैक कॉफी. मूँह मे कड़वहाट भर दे मगर अंतरआत्मा को जगा कर रख दे. सब ऐसे ही जागे हैं मेरे देश में..कितने ही हैं जो मूँह में कड़वाहट भरे पूर्ण जागृत अवस्था का नाटक रचे घूम रहे हैं. मैं भी उनमें से एक हो गया तो क्या?? कौन नोटिस करेगा-और कर भी लेगा तो मेरा क्या हो जाने वाला है, जब लगभग एक सौ बीस करोड़ का कुछ नहीं हुआ.

खैर, अब चार घंटे काटने के लिए मैने फिर अस्पताल की लायब्रेरी में किताब तलाशी. मेरे पास समय इतना कि लगभग दुगना. शल्य चिकित्सा, मुख्य भाग, में दो घंटे लगे..और रिकवरी में ४ घंटे लगने थे.आप समझ रहे होंगे क्यूँकि सामान्यतः यही होता है हमेशा!!! रिकवरी प्रोसेस हमेशा अपना समय लेती है, पूर्ववत स्थिती में आने को..पूर्ववत स्थिती की अहमियत का अहसास दिलाने.

क्या सही, क्या गलत!!! किस किस को रोईये..रो ही लेंगे तो खुद ही अपने आंसू पोछिये... छोडिये सब..बस, पत्नी की तबीयत देखिये, वो ही अपनी है..उसी से फरक पड़ता है, बाकि तो बस टाईम पास...चाहे प्रलय आ जाये..किसे बचाने भागियेगा... सोचो कुछई..भागोगे बीबी को बचाने ही न!!

 

खैर, वो कमरे में आ गई है. वेस्ट विंग का कमरा नं. ४००९. आलीशान कमरा..समृद्ध देश का समृद्ध अस्पताल...और मरीजों के लिए पेश किया खाना..मानो कोई अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन अटेंड कर रहे हों. मरीज के साथ वालों के लिए हाई फाई स्नैक, ज्यूस..और न जाने का क्या क्या विथ डिजर्ट.

उपरी मंजिल पर कमरा. अस्पताल जो एक बहुत विशाल प्रांगण में बना हुआ है..उत्तर में दो मील तक सिर्फ घास का करीने से कटा मैदान..दक्षिण में भी दो न सही डेढ़ मील का तो कम से कम...कमरे से खिडकी से दिखता दक्षिणी छोर...बीच मैदान में एक हैलीपैड..हैलीकाफ्टर से लाये गये मरीजों के लिये-लोहे की जाली से घिरा अहातानुमा... कुछ दूर पर इलेक्ट्रीक रुम और एक अन्य कोने में लगा प्रोपेन टैंक..अस्पताल की गैस सप्लाई के लिए... मैदान के दोनों ओर सड़क.

देखता हूँ सामने वाली सड़क से एक कन्या को मैदान में आते. सोचने लगता हूँ इतनी लम्बी दूरी और पैदल..दूसरी तरफ भी याने उत्तर में दो मील और, तब अगली सड़क पर पहूँचेगी. मैं सोच ही रहा हूँ और वो चलते चलते हैलीपैड का मुआयना करती, हेलिकाफ्टर को निहारती (सोचता हूँ मैं अकेला नहीं हूँ जो हेलिकाफ्टर और हवाई जहाज देखकर आनन्दित हो उठता है), इलेक्ट्रीक हाउस को पार कर, प्रोपेन सिलेंडर से किनारा कर गुम हो गई उत्तर मे..जल्द ही सड़क पा लेगी जो उसकी रफ्तार दिखी. मैं बस सोच ही रहा हूँ तभी उल्टी दिशा में जाता आदमी भी दिख गया..और जल्द ही दक्षिणी सड़क पर पहूँच भी गया. शायद पहला कदम जरुरी रहा होगा और फिर सब फासला तय हो गया.

मैं आल्स्यवश बैठा अस्पताल में, बस सोच रहा हूँ कि कैसे चल लेते हैं यह इतना.

एक स्वास्थ्य के प्रति जागरुक श्रेणी के लोग और एक हम आलसी..बस, सोच की दुनिया में जीते.

शायद यही कारण होगा कि वो दक्षिणी छोर से घुसी और उत्तरी छोर से निकल गई..आस्पताल को पार करती हुई-अस्पताल में रुकने की कोई जरुरत नहीं और हम अस्पताल में बैठे हैं बीमार या बीमार के साथ. जल्दी कुछ इस तरीके का टहलना न शुरु किया तो यहीं लेटे नजर आयेंगे.

कितना अंतर है किसी कथा को लिख देने में और उसे जीने में. टहलना एक आलसी के लिए मनभावन बात नहीं है अतः सरल साहित्य के तहत राही मासूम रज़ा की किताब ’टोपी शुक्ला’ पढ़ने लगता हूँ. कुछ आनन्द का अनुभव होता है टोपी की बातें सुन "तुम मुसलमान हो क्या इफ्फन?- हाँ- और तुम्हारे अब्बू, क्या वो भी मुसलमान हैं?? :))..

बालमन, नादान गहरी बातें और हम सोच की उथली सतह पर ही टहल रहे हैं.

-समीर लाल ‘समीर’

 

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 16, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/3104

 

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