कविमना प्रवासी हुआ और बस, बह निकला जड़ से बिछड़ जाने की वेदना लिए एक झर झर झरना. सब सेट फार्मेट से-वो बरगद के पेड़, गांव की माटी की सौंधी खुशबू, ताल तलैया, लछ्छो मौसी, बचपन का साथी बिसाहू और जाने क्या क्या.
इतनी वेदना कि जड़ तो जड़, धरती रो पड़े. हाय, यह क्यूँ छूटा? कैसे जोड़ लूँ फिर इसे.
सोचता हूँ पूछ कर देखूँ कि कभी सोचा है उनके बारे में जो वहीं जु़ड़े हुए हैं, जहाँ से तुम टूटे..कभी जाना उनका हाल? कभी रख कर देखा उनके जूते में अपना पैर?
बहुत जिगरा चाहिये जड़ से जुड़े रहने में. माना तुम भी कभी उसी जड़ से जुड़े बहुत खुशी से जी रहे थे. सो तो तुम एक जमाने में साइकिल से स्कूल भी जाया करते थे. अब कार से चलते हो..एक दिन फिर से साइकिल से दफ्तर जाने की बात सोच कर देखना. क्या हुआ? जाते तो थे न बचपन में वो दूर तक स्कूल में हँसते हँसते दोस्तों के साथ.
शायद इसी विचार श्रृंखला में उभरी है यह रचना या फिर शायद इतने दिन तक भारत में था, उससे कुछ निकला हो या फिर कहीं वैसी हालत तो नहीं, जब किसी अंग में दर्द बहुत बढ़ जाये तो इन्सान उस अंग को ही अलग कर डालने की कामना कर बैठता है.
नहीं मालूम, आप ही बतायें:
देखता हूँ तुम्हारी हालत
पढ़ता हूँ कागज पर
उड़ेली हुई
तुम्हारी वेदना...
जड़ से छूट जाने की
जड़ से टूट जाने की...
थक गया हूँ
सुन सुन कर
तुम्हारा वो दर्द
बार बार..
कान से मवाद बन कर
बहने लगी है
तुम्हारी यह
कागजी चित्कार...
किस जड़ से टूटने की
बात करते हो तुम..
किस जड़ से वापस
जु़ड़ जाना चाहते हो तुम..
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है...
सच कहूँ दोस्त!!
तुम्हारी वेदना भी
कुछ वैसी ही है
जैसे..
कितना मनभावन लगता है
रेल के उस वातानकुलित
डिब्बे में बैठकर देखना...
गर्मी के तेज तपन के बीच
तलाब में कूद कर
नहाते बच्चे,
धूल में सने पैर लिए
आम के पेड़ के नीचे
सुस्ताते ग्रमीण
उपलों पर थापी रोटी को
प्याज के साथ खाते
लोग..
जिसे तुम कागज पर
लिखते हो
कविता बनाकर...
वो बच्चों की स्वछन्दता,
पेड़ों की ठंडी छाँव में
आराम करते
निश्चिंत ग्रमीण..
मुट्ठे से तोड़ कर प्याज
से साथ
उपलों पर सिकीं
रोटी का सौंधा स्वाद..
कितना अच्छा लगता है...
बस, लेकिन सिर्फ देखना
हाँ, सिर्फ देखना
वो भी उस वातानकुलित डिब्बे से..
आसमान में उड़ कर
तुम शहर का मानचित्र तो बना सकते हो..
मगर शहर की धड़कन तो
शहर में आकर ही सुनाई देगी..
मैं जानता हूँ
तुम उन धड़कनों की नाद
नहीं झेल पाओगे..
बहरे हो जाओगे तुम.
बुरा मत मानना,
मगर अब तुम इस
काबिल ही नहीं बचे
कि इन जड़ों से जु़ड़ सको...
सुविधायें बहुत जल्दी
अपना गुलाम बना लेती हैं और
सुविधा की गुलामी की जंजीरे
इतनी आसानी से नहीं टूटती..
क्या तुम जी सकोगे..
जब इस भीषण गर्मी में
बिना बिजली, पानी के
सारी रात बस
करवटें बदलोगे और
पसीने में भीगे
लगेगा मानो
सारे बदन को
सैकड़ों चीटियाँ
काट रही हैं...
सारी रात सुबह होने का इन्तजार
और सुबह से इस इन्तजार में कि
रात हो जाये
तो चैन आये..
भूल जाओगे
जड़ से टूटने
का गम...
जब खुद को खुद
साबित करने के लिए..
चक्कर लगाओगे
किसी सरकारी दफ्तर के..
हाथ में मतदाता परिचय पत्र लिए,
साथ में टेलिफोन या बिजली का बिल,
दो खुद के चित्र,
खुद के साथ होते हुए भी,
किसी और से सत्यापित करवाये हुए..
एक हलफनामा कि
मैं मैं ही हूँ..
और फिर भी न साबित कर पाओगे
उस बाबू को
कि तुम तुम ही हो..
जब तक बाबू की हथेली
न गरम कर दो...
कागज पर लिख देने
जितना आसान नहीं है..
दिल और दिमाग के बीच
पर्याप्त दूरी रखते हुए
करनी को अंजाम देना..
रोज जीने की जद्दो जहद में
रोज मरना...
मतदान करके इठलाना
अपने अधिकार के प्रयोग पर,
यह जानते हुए भी कि
एक बार फिर हमने
हमें ही लूटने के लिए
एक नया लुटेरा चुन लिया है...
कभी इत्मिनान से सोचना..
किसका दर्द वाकई दर्द है...
जो तुमने कागज पर
उड़ेल दिया है...
या फिर वो
जो किसी ने जड़ से जुड़े
आदतन झेल लिया है....
--समीर लाल ’समीर’
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81 टिप्पणियां:
बहुत-बहुत सुन्दर चित्रण है, यथार्थ है। केवल प्रवासी ही नहीं महानगरों के वातानुकूलित दफ़्तरों, घरों व कल्बों में बैठकर आम आदमी की पीड़ा की पैरोडी लिखने वाले साहित्यकारों व मीडीया कर्मियों पर अच्छा तंज है ,बधाई।
मेरे ब्लॉग अगर आना चाहें तो http://gazalkbahane.blogspot.com/ कम से कम दो गज़ल [वज्न सहित] हर सप्ताह
http:/katha-kavita.blogspot.com/ दो छंद मुक्त कविता हर सप्ताह कभी-कभी लघु-कथा या कथा का छौंक भी मिलेगा
सस्नेह
श्यामसखा‘श्याम
समीर लाल जी!
आज दर्शन हुए उस प्रवासी भारतीय के
जिसके दिल में भारत बसता है।
एक कवि हृदय, जिसमें समायी हैं
आम आदमी की जिन्दंगी।
और
मन से आम आदमी की वेदनाओं को
लिए हुए निकल पड़ी है,
एक सलिल सरिता की काव्य की धारा।
एक लम्बी कविता जो सारा हाल बयान कर देती है।
बहुत-बहुत आभार।
रस कलश छलकाते रहें।
जिसके छींटो की ठण्डक
इस तपन भरी गर्मी में
हमको भी राहत दे सके।
समीर लाल जी!
आज दर्शन हुए उस प्रवासी भारतीय के
जिसके दिल में भारत बसता है।
एक कवि हृदय, जिसमें समायी हैं।
जिसके मन से आम आदमी की
वेदनाओं को लिए हुए निकल पड़ी है,
एक सलिल सरिता की काव्य की धारा।
एक लम्बी कविता जो सारा हाल बयान कर देती है।
बहुत-बहुत आभार।
रस कलश छलकाते रहें।
जिसके छींटो की ठण्डक
इस तपन भरी गर्मी में
हमको भी राहत दे सके।
इस कविता में तो थोक के भाव दर्द की सप्लाई है। दर्द परेशान है बेचारा कहां से उठे टाइप।
ईमानदार कविता। सच है, अब उन जड़ों से जुड़ पाना मुश्किल है, मगर वो जड़े हैं हमारे ही अंदर।
समीर जी श्री नारायण कासट जी ने आपकी हास्य् कवितायें पहले सुनीं थीं और उसके बाद फिर चाय वगैरह का दौर चला और फिर मैंने आपकी गम्भीर रचनाएं बेर वाली माई, मैं आदि सुनाई । वे कुछ देर चुप रहे फिर बोले पंकज वो पहले का हास्य सब हटा दो वो किताब में नहीं जायेगा । इतने अच्छे कवि को तुम लोग क्या रूप में लाना चाह रहे हो, ये है कविता जो गम्भीर है गहन है । श्री कासट जी की बात आपकी इस कविता को पढ़कर समझ में आई । आपने इस कविता में किताब में लिखी मेरी भूमिका के शीर्षक को साकार कर दिया है ‘ अपने पर हंस कर जग को हंसाने वाले समीर लाल’ ये पूरी कविता दरअसल में आपने अपने पर ही लिखी । अपनी ही लाचारी अपनी ही जड़ से कट जाने की पीड़ा और ये भी कि अब चाह कर भी उन जड़ों से जुड़ नहीं सकते क्योंकि अब सुविधाभोगी हो चुका है शरीर और मन । कविता अद्भुत है । मेरा आपसे कहना है कि आप इसी प्रकार की कविताएं लिखें । आपकी वो कविता मेरी मां लुटेरी थी वो तो खैर वन्स अपान ए लाइफ वाली कविता है । ये नई कविता इस बात की ओर इंगित कर रही है कि बिखरे मोती में आपके नये कलेवर का जिस प्रकार लोगों ने पंसद किया तो वहां से आपकी कविता एक प्रस्थाेन बिन्दुं पर आ गई है । यहां से वह नई दिशा में मुड़ गयी है । उसे रोकियेगा मत क्योंरकि वो सही दिशा में है । काव्य वो नहीं होता जो वाह वाह करवाये काव्यो वो होता है जो आह आह करवाये । कविता आनंद की बेटी नहीं होती कविता पीड़ा के गर्भ से जन्मकती है । ये दोनों ही कविताएं लुटेरी मां वाली और ये वाली ये दोनों ही पीड़ा की कवितायें हैं । इनमें जो दर्द है वो अपने आप धुंए की तरह आत्माम में समा जाता है । कविता की प्रशंसा स्वहयं आप देखेंगें जब ये पटल पर आएगी । किन्तु अंत में फिर वहीं कि कलम को इस नये रास्तेक पर फूट कर बह जाने दें । रोंकें मत । क्यों कि ये बिखरे मोती के हैंग ओवर से जन्म ले रहीं कवितायें हैं ये बिखरे मोती से आगे जाना चाहती हैं और जा भी रहीं हैं । और अब ये कि बिखरे मोती के बडे़ ग्रांड विमोचन की प्रतीक्षा पूरे ब्लाग जगत को है ।
वाह और आह ! एक प्रवासी की आत्मप्रवंचना !
"जड़ से जुड़े रहने के लिए जिगर चाहिए और जड़ो से दूर रहने की वेदना " ओह समीर जी भावपूर्ण . ये पंक्तियाँ पढ़कर न जाने कहाँ खो गया हूँ और कुछ कहते भी नहीं बन पद रहा है .यथार्थ चित्रण .रचना अच्छी लगी. आभार.
सुन्दर चित्रण है
कविता का दर्द और छटपटाहत मन को अन्दर तक छूती है ।
बहुत ईमानदार कविता है ।
कौन प्रवासी? कैसा प्रवासी? दुनिया गांव हो रही है।
प्यार के गुलशन में दोबारा नहीं लगे
तरुवर जो एक बार ज़मीं से उखड़े हैं
sameer ji , ek taraf dard hai,aur doosri taraf sachchai, bharat ke haalaat. bahut sahi chitran kiya hai aapne.
सही है, जडों से बिछडने का दर्द बिछडने के बाद ही मालूंम पडता है. पर जडों के पास वापस लौटने की कीमत चुका सकेंगे? अगर जवाब हां है तो स्वागत है. जडें तो आपको गले लगाने को तत्पर ही हैं.
जडों ने तो आपके परदेश गमन के समय भी आपको पुकारा था..आवाज दी थी..पर उस समय के जोश मे आप सुन ही नही पाये.
आपने बहुत सटीकता से इस दर्द, इस जरुरत को व्यक्त किया है. उपर सुबीर जी की टिपणी मे लिखे शब्द अक्षरश: यह रचना सत्य कर रही है. शुभकामनाएं.
रामराम.
वेदना की बात करना एक बात है और उसे सहना दूसरी....दोनों में भारी अंतर है...सुविधाएँ हमारे अन्दर की कोमल भावनाओं को मार देती हैं...बहुत ही अच्छी रचना समीर जी...पंकज जी ने जो कहा उसका अक्षरश: पालन कीजिये हम पाठकों पर उपकार होगा...
नीरज
SAMEER JI,
BAHOT HI KHUBSURAT CHITRAN KIYA HAI AAPNE ... DIL ME BHARAT BASTA HAI... KAVITA KHAASA PASAND AAYEE... JAISA KI GURU DEV NE KAHAA HAI AAPKE GAMBHIR BISHAY PE LEKH KE KYA KAHANE.. BAHOT KHUB LIKHTE HAI AAP.. USE KENDRA BINDU ME HI RAKHEN..
ARSH
..सुविधायें बहुत जल्दी
अपना गुलाम बना लेती हैं और
सुविधा की गुलामी की जंजीरे
इतनी आसानी से नहीं टूटती...
..............
...कागज पर लिख देने
जितना आसान नहीं है.......
..............यथार्थ का बेहद सटीक चित्रण।
वो बच्चों की स्वछन्दता,
पेड़ों की ठंडी छाँव में
आराम करते
निश्चिंत ग्रमीण..
मुट्ठे से तोड़ कर प्याज
से साथ
उपलों पर सिकीं
रोटी का सौंधा स्वाद..
apne maati ke liye dard dikh raha hai
प्रवासी साहित्यकारों को भावुकता की लिजलिजी ज़मीन से खुरदुरे यथार्थ के धरातल पर लाने के आपके इस काव्यात्मक प्रयास की जितनी सराहना की जाए कम है. बधाई.
जड से कटने के दर्द कि व्यथा का यथार्थ चित्रण अच्छा लगा । वैसे मेरा एसा कभी अनुभव नही रहा है मै तो हमेशा गाव मे ही रहा हू इस लिये इसकी पीडा का कभी अनुभव नही हुआ है ।
जड़ से कटने का दर्द! गाने वाले....पता नहीं पाठक को मूर्ख बाना रहें है या खूद को....जड़ ने उन्हे नहीं उन्होनें स्वयं को जड़ से काटा है....
यहां देश में बैठे बैठे कूड़ा-कचरा-भ्रष्टाचार और चिरकुटई नजर आती है। बाहर से नोस्ताल्जिया होता है!
सही सुन्दर कहा है आपने .दूर होने का एहसास उभर कर आया है ..आपका यह अंदाज़ बहुत अच्छा लगता है .शुक्रिया
समीर भाई..........
बहुत ही इमानदारी से लिखा है इस रचना को........और सही और यथार्थ लिखा है..............हम जैसे लोग इस बात को समझ सकते हैं.............और ये शायद हम जैसे लोगों के लिए ही है.
पर एक बात जो मुझे बार बार सोचने को मबूर करती है और मैं उन सब नयी लोगों को जो प्रवासी बनना चाहते हैं, कहना चाहता हूँ .............बाहर आने का सोचो तो सोच समझ कर फैंसला करो ............... घर की याद बार बार आएगी.........दिल को बार बार मारना भी पड़ेगा .................. वापस जाने पर सुविधाओं की याद भी आएगी............. ये कशमकश हमेशा की लिए ख़त्म हो सके...........इस बात को सोच कर ही आना चाहिए..........
समीर भाई की कविता जीवंत गाथा है................ज्यादातर प्रवासियों की
आपने तो आम ज़िंदगी के सच पर पडे खास ज़िंदगी का पर्दा ऊठा दिया। इसमे कोई शक़ नही बहुत कठीन है लिखना और वैसा ही जीना। आपको पढकर कल ही का किस्सा याद आ रहा है।मैने एक आंदोलन की बात उठने पर उसे मज़ाक-मज़ाक मे बरसात तक़ टालने को कह दिया।इस पुरे किस्से को आपकी इस कविता की प्रेरणा से लिखूंगा ज़रूर्।
बस एक शब्द: यथार्थ !
प्रवासी भारतीयों के दर्द को बखूबी बयां किया है।
-----------
SBAI TSALIIM
Bahut sunder...
बढि़या
कलम तोड़ कविता है।
---
चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
satya yahi hai..vatanukulot dibbe se sote gramen par kavita banana aur sirf do din us grameen ke jindagi jeena..do bilkul alag cheejeN hai..swapna aur yathartha jitne alag
बुरा मत मानना,
मगर अब तुम इस
काबिल ही नहीं बचे
कि इन जड़ों से जु़ड़ सको.
सच्ची बात....
किस जड़ से टूटने की
बात करते हो तुम..
किस जड़ से वापस
जु़ड़ जाना चाहते हो तुम..
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है...
right choice of mine
समीर जी बहुत ही सुंदर चित्रण है
टूटने का दर्द अजीब होता है.
कम पैसे वाला नहीं.
अक्सर परदेशी गरीब होता है.
सब ने अपने विचार रखे पढ़ा कर अच्छा लगा...आप ने भी कोई कम दर्द कविता में नहीं झोंका...
बस, लेकिन सिर्फ देखना
हाँ, सिर्फ देखना
वो भी उस वातानकुलित डिब्बे से.
यतार्थ का बखान है आपकी यह कविता.
आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
बहुत ही सुंदर रचना समीर साहेब ,जितनी तारीफ करें कम है .जड़ से बिछड़ जाने की वेदना या जड़ से क्यूँ बिछडा दोनों ही मनः स्थितियों का सजीव चित्रण .पूरी रचना की हर लाइन उम्दा .
"जब खुद को खुद
साबित करने के लिए..
चक्कर लगाओगे...'
यह ज़द्दोज़हद तो हर रोज़ की है...और हर कहीं है.
बहुत खूब,कोई तोड़ नही आपकी इस मार्मिक और सच्चाई से ओतप्रोत रचना की,
जड़ से छूटना और जड़ से टूटना,
सब समय का खेल है,
हमेशा चलती रहती है,
ये हमारी जो जीवन की रेल है.
बचपन का साथी अब मीलों की दूरियाँ,
सब बस बयाँ करती है,हमारी मजबूरियाँ.
फिर भी आपने बेहतरीन फरमाया है,
सच का आईना सभी को दिखाया है.
याद है
तुमने कहा था
घाटियों के पार
सूरज की किरन का देस है
और मैं
तब से
यह सोच रहा हूँ
मैं
घाटियों के
उस पार हूँ
या
इस पार
आपने जिस इमानदारी से ये स्वीकारोक्ति करी है ....हर किसी के बस की बात नहीं है ....बहुत प्रभावशाली चित्रण ....बधाई
बुरा मत मानना,
मगर अब तुम इस
काबिल ही नहीं बचे
कि इन जड़ों से जु़ड़ सको...
सुविधायें बहुत जल्दी
अपना गुलाम बना लेती हैं और
सुविधा की गुलामी की जंजीरे
इतनी आसानी से नहीं टूटती..
वैसे जड़ो से जुड़ता वह है जो जड़ो से कटता है। जो कभी कटा ही नही वह जुड़ेगा कैसे ? या जो कभी जुड़ा ही नही वह कटेगा कैसे ?
प्रवासी का जड़ो से कट जाना उसी तरह अर्ध सत्य है जिस तरह निवासी रहकर जड़ो से जुड़ा रहना। हर निवासी जड़ो से जुड़ा नही रहता, हर प्रवासी जड़ो से कटा नही रहता!
जड़ो से कटना या जड़ो से जुड़ा रहना, हमारा खुद का निर्णय है, ये राह खुद की चुनी हुयी है। तो दर्द क्यों, ये वेदना क्यों ?
निवासी रहे या प्रवासी , कुछ मिलेगा तो कुछ खोना पड़ेगा ही, इसमे नया क्या है ?
पता नही मै भी क्या प्रलाप किये जा रहा हूं।
मतदान करके इठलाना
अपने अधिकार के प्रयोग पर,
यह जानते हुए भी कि
एक बार फिर हमने
हमें ही लूटने के लिए
एक नया लुटेरा चुन लिया है...
क्या बात है..
bahut bariya likha hai
एक ईमानदार और प्रभावी आत्मस्विकृति"
क्या तुम जी सकोगे..
जब इस भीषण गर्मी में
बिना बिजली, पानी के
सारी रात बस
करवटें बदलोगे और
पसीने में भीगे
लगेगा मानो
सारे बदन को
सैकड़ों चीटियाँ
काट रही हैं...
कटु सत्य है। या कहें- जाके पैर न फटी बेवाई..सो क्या जाने पीर पराई। दूर का ढोल तो सुहावना लगता ही है, नज़दीक आकर देखें फ़िर कुछ कहें तभी कहना सार्थक हो पायेगा।
टीस भरी रचना..
एक प्रवासी का दर्द एक प्रवासी भली भांति समझ सकता है.
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है...
यही तो है यथार्थ....जिसे आपने कविता के माध्यम से बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत किया!
गुरू जी के कह लेने के बाद कुछ कहना शेष नहीं रह जाता इस कविता के बारे में
apne imadari se sara sac kh diya
asan nhi hai fir se jdo se judna
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है..
रचना में बहुत सच सच स्वर निकल आये हैं. आपका दर्द साफ झलक रहा है.
प्रवासियों का दर्द प्रवासी समझ सकता है क्या खूब लिखा है!
एक कठोर सत्य की बेबाक अभिव्यक्ति!
समीर जी,
बहुत ही अच्छी रचना.
समीर जी,
सब्से पहले तो एक लाखवीं दस्तक के लिये बधाईयाँ।
प्रवासियों को केन्द्रित कर लिखी हुई यह कविता एक दस्तावेज की तरह पढे और सहेजे जाने लायक है। अपनी जड़ों से टूटने का ग़म कमोबेश देशज / परदेशज सभी के मन में हो सकता है पर पुनः जुड़ने की या जुड़े रहने की कितनी ईमानदार कोशिशें होती हैं यह सभी जान्ते हैं।
वर्तमान में हालातों का सजीव चित्रण परेशानियाँ किसी भोगे हुये यथार्थ की तरह सीधे दिल में उतर जाते हैं।
आपकी टिप्पणी के लिये, शुक्रिया।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
बहुत खूब लिखा है... बिलकुल ज़मीन दिखा दी आपने जड़ से छूते हुए लोगों को....
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है...
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सुविधायें बहुत जल्दी
अपना गुलाम बना लेती हैं और
सुविधा की गुलामी की जंजीरे
इतनी आसानी से नहीं टूटती..
क्या तुम जी सकोगे..
जब इस भीषण गर्मी में
बिना बिजली, पानी के
सारी रात बस
करवटें बदलोगे और
पसीने में भीगे
लगेगा मानो
सारे बदन को
सैकड़ों चीटियाँ
काट रही हैं...
बहुत ही सच्ची और गहरी बात की है आपने... सब झलकता है आपकी रचना में...
हर पंक्ति खुद से बीतती सी महसूस हुई ...बहुत-बहुत बधाई इतनी सुंदर प्रस्तुति के लिए...
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है...
शायद आपकी सफलता का raaz यही है....!!
इतना दर्द, इतनी वेदना, इतना मर्म... उफ़ ऑंखें चालक दी आपने तो...
मीत
"सोचता हूँ पूछ कर देखूँ कि कभी सोचा है उनके बारे में जो वहीं जु़ड़े हुए हैं, जहाँ से तुम टूटे..कभी जाना उनका हाल? कभी रख कर देखा उनके जूते में अपना पैर?"
जड से जुडे सोचते है कि एक बार प्रवासी बन कर भी देखें और उधर बैठो तो लगता है कि फिर से जुड जायें। आग दोनो तरफ है बराबर लगी हुई। देखने वाली बात यह है कि किसमे ज्यादा तपिश है।
कागज पर लिख देने
जितना आसान नहीं है..
दिल और दिमाग के बीच
पर्याप्त दूरी रखते हुए
करनी को अंजाम देना..
रोज जीने की जद्दो जहद में
रोज मरना.
सत्य से अवगत कराती हुई रचना......
जड़ से छूटने का दर्द असह्य होता है। मर्मस्पशी!-सुशील कुमार
परदेशियों की दशा और दिशा को कविता में बखूबी उतारा है आपने।
-----------
SBAI TSALIIM
Khokhli pida par satik pratikriya.
क्या कहे ...पर सच ये है की भारत से दूर रहकर भी आपके भीतर अभी भी कुछ ऐसा है जो खांटी भारतीय है.....कभी कभी सोचता हूँ इतने अच्छे पढ़े लिखे अच्छा सोचने वाले इस देश में ओर इस देश से बाहर है तो भी हमारा देश क्यों इन घटिया अनपढ़ क्रिमनल नेताओ के हाथो में है?
आपकी काविता वाही बोलती है जो अक्सर हम सब सोचते है.....
सही कहा समीर जी, दुखों का दर्शक बनना उसका भुगतभोगी बनने से कहीं आसान है। अतीत की जिन तकलीफों को हम-वो भी क्या दिन थे-कह कर यूं ही बयां कर देते हैं, उन तकलीफों का एक-एक दिन बहुत भारी पड़ा था। मुझे लगता है कि जो भी ज़िंदगी कथित विकास से अछूती है वो चालाकी से भी दूर है और ऐसा कोई भी जीवन जिसमें सफल होने का अहसास है उस सफलता को बनाए रखने के लिए उसी चालाकी की ज़रूरत पर ज़ोर देता है। और ये ख़्वाहिश की कैसे बिना चालाक हुए, मासूमियत को बचाए रखते हुए, मैं सफल हो जाऊं, द्वंद को जन्म देता है। इसी द्वंद को बहुत खूबसूरत तरीके से आपकी कविता बयां कर रही है। लगे हाथ मैंने भी थोड़ी(शायद बहुत) भड़ास निकाल ली।
समीरजी ,बहुत दिनों से मेरी कविता पर आपकी टिप्पणी नहीं आई थी ,ताउजी के ब्लॉग में आपका इंटरव्यू पढ़कर पता चला की आप तो यहाँ भारत में व्यस्त थे .आपकी कविता दिल को छू गयी ... ...
एक अच्छी रचना के लिए बधाई.
चार जगह बार बार रुक रुक कर पढना पडा.
ऐसा लगा जैसे शब्द सजीव हो उठे हों........
(१) गर्मी के तेज तपन के बीच
तलाब में कूद कर
नहाते बच्चे,
धूल में सने पैर लिए
आम के पेड़ के नीचे
सुस्ताते ग्रमीण
उपलों पर थापी रोटी को
प्याज के साथ खाते
लोग..
(२) मुट्ठे से तोड़ कर प्याज
से साथ
उपलों पर सिकीं
रोटी का सौंधा स्वाद..
(३) सुविधायें बहुत जल्दी
अपना गुलाम बना लेती हैं और
सुविधा की गुलामी की जंजीरे
इतनी आसानी से नहीं टूटती..
(४) मतदान करके इठलाना
अपने अधिकार के प्रयोग पर,
यह जानते हुए भी कि
एक बार फिर हमने
हमें ही लूटने के लिए
एक नया लुटेरा चुन लिया है...
सुन्दर और यथार्थपरक अभिव्यक्ति है, इसे हम आपके द्बारा किये गए अनुभव का सार भी कह सकते हैं.
- विजय
Mere blogpe tippanee deneke liye tahe dilse shukryaa..
^8th kramank pe aake kya tippanee dee ja saktee hai?
Khamosh rehna aqalmaandee hai..!
Any blogspe aapkee dee tippaniyaan hameshaa padhtee rahee hun...hairan hun,ki itnaa sab padh lete hain, aap hauslaa afzayeebhi kar lete hain( mujh jaisonkee, baaqee to saheeme qaabile taareef hain)),kaise kar lete hain ye sab?
सर आपकी कविता बहुत हीं अच्छी लगी.
गुलमोहर का फूल
सादे शब्दों में गहरी वेदना लिख दी आपने।
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है.
बेहतरीन रचना।
बहुत अच्छी कविता है ....
मन को झकझोरती है !
लेकिन एक सवाल भी मन में कौंधता है -
जड़ से आप स्वयं कटे या किसी ने विवश
किया ! फैसला स्वयं का तो पछतावा कैसा ?
कहीं "सिम्पैथी गेन" करने का तरीका तो नहीं !
मेरे घर के लगभग सभी लोग बाहर चले गए .. ..... कोई आस्ट्रेलिया ...कोई अमेरिका ... कोई न्यूजीलैंड .........फैसला उनका था !
देश में कमियां वो भी बहुत बताते हैं !
लेकिन मैं जानना चाहता हूँ कमियों को सही करने कोई बाहर से आएगा ?
जो बाबू हथेली गरम करने पर आपका काम करता है वो क्या मंगल गृह से आया है ?
दो ही रास्ते होते हैं : व्यवस्था से बाहर रहकर ठीक होने का स्वप्न देखा जाए या फिर व्यवस्था
में रहकर कुछ किया जाए !
एक है सुख-सुविधा और सुकून का रास्ता ..... दूसरा है जद्दोजहद का रास्ता !
परिवर्तन वैसे भी रातों-रात नहीं होता !
sach likha aapne..ab to khud ke jinda hone ka bhi prmaan patra dena padta hai...
मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत कविता पढें और अपनी माँ के प्यार,अहसास और त्याग को जिंदा रखें
कविता पढने नीचे क्लीक करें
सताता है,रुलाता है,हाँथ उठाता है पर वो मुझे माँ कहता है
भारत से बाहर रहकर भी आप सिद्दत से अपनी जड़ों से जुड़े हुये हैं । बजाय सिर्फ़ गलती निकालने के आपने देश को जैसा है वैसा ह्रदय से लगाया है । और संभवत: यथासंभव उसे बेहतर बनाने की कोशिश की है । इसलिये यह कविता अधिक प्रभावित करती है......बधाई
वो जड़
जिसे तुम्हारे ही अपनों ने
दीमक की तरह
चाट चाट कर
खोखला कर दिया है...
aur aise hi kai kadwe sach ! Maafi chahuNga ki pahle kabhi aapko padhaa hi nahiN. Bahut khub! Sach kahne ka sahas karne ke liye badhaayi.
सबसे पहले मेरा ब्लॉग देखने के लिए धन्यवाद!
आपने दूर परदेश में भी अपनी जडों को हृदय में संजो कर रखा है।विचार सार्थक व समसामयिक है।
कहते हैं न, दूर के ढोल सुहावने लगते हैं।
सुंदर कविता बन पड़ी है।
aap kee shubhkamnaon ke liye bahut bahut dhanyavad ab niymit roop se aapka blog dekha karoonga
chaitanya Bhatt
समीर लालजी, बहुत ही बढिया ब्लग है आपका । फिर मै भ्रमण करता रहुँगा , और विश्लेषण करने कि भि प्रयास करूँगा । लिखते जाइये ।
मङ्गलम् !
कविता का विस्तार देख कर, इसे बुकमार्क करके रख लिया था ।
अच्छा ही रहा, इस वक़्त तन्हाई में पढ़ा, और ठगा हुआ सा बैठा हूँ ।
विश्वास नहीं हो पा रहा है कि, एक आम भारतीय की त्रासदी से अपने को आप कैसे इतने बख़ूबी एकाकार कर लेते हैं ।
सिम्पली सुपर्ब भाई जी, जस्ट सुपर्ब !
वाह वाह बहुत बढिया कविता है. बाकी आप लिखते तो बहुत अच्छा हैं ही. भले ही टिप्पणी न कर पायें पर पढते हर पोस्ट हैं.
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