काश!!
तुम
तुम न होती
तुम्हारी याद होतीं...
हर वक्त
मेरे साथ होतीं...
ये यादें भी मुई ऐसी होती हैं, कब किस बात के संग डोर बाँधे चले आयें, कुछ कहा नहीं जा सकता.
मंच से कभी कविता सुनाता हूँ, कोई वाह वाह कहता है और मैं सिहर जाता हूँ. याद आ जाती है जैन मास्साब के द्वारा की गई पिटाई, जब हिन्दी की कक्षा में मैथली शारण गुप्त की ’पंचवटी’ पढ़ाते समय उन्होंने सुनाया:
चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही थीं जल थल में...
और हमारे मूँह से बेसाख्ता निकल पड़ा...वाह वाह!! बहुत खूब!! एक बार और..फिर क्या होना था. रोते रोते घर लौटे और चुपचाप सो गये. उस जमाने में मास्साब की शिकायत घर में करने का मतलब आज के अभिभावकों जैसा मास्साब से जाबाब तलब करना नहीं था, बल्कि उल्टा बिना कुछ जाने पुनः उससे भी ज्यादा पीटा जाता था कि जरुर बदमाशी की होगी, तभी मास्साब ने मारा. दो बार पिटने से बेहतर -चुपचाप सो जाओ. मगर उस पिटाई की सिहरन आज भी है.
ऐसा ही एक वाकया याद आता है जब बहुत मूसलाधार बारिश होती है. हमारे पड़ोस में रहने वाले अंकल बिजली विभाग में ही थे. मैं बी कॉम कर रहा था. बहुत डरा करते थे हम मोहल्ले के लड़के उनसे. उन्हें और मुहल्ले के अन्य बुजुर्गों को पिता जी की तरह डांटने, मारने के सारे अधिकार प्राप्त थे.
एक शाम भीगते हुए खेल कर लौटा तो वो घर के बरामदे में बैठे थे. तुरंत रोक लिया. बहुत तेज मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो पूछने लगे, इसे अंग्रेजी में क्या कहेंगे. अंग्रेजी में हाथ ऐसा तंग कि क्या बताते. बस, बोल दिये कि ’ईट ईज रेनिंग वेरी मच’. फिर पिटाई..और वहीं बैठा दिया गया कि १०० बार कहो, ’इट्स रेनिंग कैट्स एण्ड डॉग्स’-खैर सीख गये मगर आज तक जीवन में यह वाक्य बोलने की जरुरत नहीं पड़ी. जाने क्यूँ पिटे. मगर हर मूसलाधार वर्षा वो दिन याद दिला जाती है.
खैर पिटाई और हमारे बचपन का चोली दामन का साथ था. आज अगर पिट जायें तो पिटाई के दर्द से ज्यादा बचपन की यादों का दर्द उठ पड़ेगा, यह मेरा दावा है.
चलिये, ये सब फिर कभी, अब गंभीर नोड पर ऐसी ही एक यादों की डोर स्मरण में आ गई:
मेरे पूजा के कमरे में
अंगड़ाई लेता हुआ
अगरबत्ती का धुँआ
गुजरता है मेरे पहलु से
अपनी खास गंध के साथ
तो याद आता है मुझे
वो संकट मोचन मंदिर
जहाँ गुजारी थी मैने
इलाहाबाद की
अनगिनत शामें.....
याद आता है मुझे
अपनी भूख समेटे
प्रसाद की आस में
मंदिर की सीढ़ी पर बैठा
वो बच्चा
जिसकी उदास आँखों में
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
याद आता है मुझे
अपना मौन रह जाना
उसे कैसे समझाता
इंसानो की तरह ही
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं...
और
याद आती है मुझे
माँ!!
जिसके पार्थिव शरीर के करीब भी
यही खास अगरबत्ती जलती थी
और उस कमरे में भी
बिखरती थी यही गंध...
जो बसी है मेरे रग रग में
और रहती है मेरे संग!!
-समीर लाल ’समीर’
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100 टिप्पणियां:
आपने बहुत ही सुंदर भाव के साथ रचना लिखा है जो दिल को छू गई! आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है! मैं इतना कहूँगी कि आपकी लेखनी को सलाम!
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं...
Pooree rachna ka saar isme samet daala hai apne yaadon ke bahaane. badhaai, fir ek nayee prastuti ke liye.
यादों का तो ठीक है लेकिन संकटमोचन मंदिर बनारस से इलाहाबाद क्यों उठा लाये भाई!
दुकान पर और अगरबत्ती नहीं बची होंगी तो क्या दूसरी दुकान तो होगी !
बचपन की पिटाई की मनोरंजक प्रस्तुति फिर एकाएक यू टर्न जीवन की गम्भीरत की ओर - समीर भाई आप हमेशा कमाल करते हैं।
"इंसानो की तरह ही
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं "
किसी शायर की पंक्तियाँ हैं कि-
एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा वो खुदा हो बैठा
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अद्भुत जी एकदम अद्भुत..आपकी यादों की डोर ने तो हमें जकड लिया...अगरबत्ती के बहाने जाने कितना कुछ कह गए आप...बहुत खूब...हमेशा की तरह दिल तक उतरने वाला
जितनी अच्छी लगा आपकी पिटाई की चर्चा
कविता ने कराई नैनों से वर्षा !!
वाह वाह !!
बहुत भावुक आलेख है। मन को भिगो गया। मैं समझ सकता हूँ, आज इस पोस्ट के आने का अर्थ।
भावों का ज्वार!!!
समीर लाल जी।
भाव-प्रणव कविता और बचपल की यादों से सजी
पोस्ट पढ़कर मुझे भी अपने बचपन के दिन याद आ गये।
बहुत-बहुत बधाई!
आपका हर रूप, हर अवतार अच्म्भित करता है सरकार....
मास्साब के कविता-पाठन पर वाह-वाह कहने वाली घटना अपने-आप में अभूतपूर्व होगी..हा! हा!!
और "हाय ये गंध" ...धुँयें का अंगड़ाई लेते हुये उठने का ख्याल...अहा!
Adarneeya Sameer ji,
apane yadon kee aisee dor nikalee ki padhate padhte man bhavvuk ho gaya.....bahut badhiya likha hai apane.shubhkamanayen.
Hemant Kumar
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
waah baht khub,udan tashtari ki ye yaadon wali gali se udan bahut bhavuk bana gayi man ko.sunder post.
@अगरबत्ती की गंध
कितने सारे चित्रों को खींच के रख दिया आपने.. समीर लाल समीर की यही बात उन्हें दुसरो से अलग करती है..
:-((
Feel sad that you got scolding & Pitayee even :-)
&
Yje poem about Maa made me even sadder Sameer bhai .
I'm away from my PC hence this commwnt is in Eng.
Please , do not feel sad .....
affectionately,
Lavanya
बचपन की कई यादें ताज़ा करती बेहतरीन पोस्ट. "हाय !! ये गंध !!" का तो जवाब नहीं.
इंसानो की तरह ही
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं...
अति उत्तम...बहुत बढिया
ग्रेट... बचपन की पिटाई, तब और पता चलती है, जब पुरवाई के साथ उसकी याद आती है। जब घर से दूर कोई ख़ता करते हैं, तो एहसास होता कि पापा यहां होते, तो इसकी सज़ा ज़रूर देते। और ये सब सोचते हुए कई बार आंखो में नमी आ जाती है। बड़ा ही दिलचस्प लिखा है। आपकी लेखनी को सलाम।
मर्मस्पर्शी -गंध और स्मृतियों का गहरा नाता -कुछ भूले आप याद करते हुए -संकट मोचन तो बनारस का प्रसिद्द है !
वाह बचपन की पिटाई मास्साब को वाह वाह कहना अच्छा लगा आप तो शुरू से ही मुशायरे के शौकीन हो गए थे | इट्स रेनिंग कैट्स एंड डॉग्स ये बोलने का जीवन में कभी काम नहीं पडा फिर भी जाने क्यूँ पिटे हा.हा.हा., और सचमुच आज भी हमारे गांव में बच्चों को पीटने के अधिकार अपने घर के बुजुर्गों के अलावा गाँव और पढ़ने के नाम पर तो अनजान को भी हाशिल हैं, जैसे साझा ब्लॉग में किसी ने लेखाधिकार प्रदान कर रखा है | अच्छी अगरबती हैं खुशबु भी बहुत अच्छी है बस ज़रा प्रसाद मिल जाये तो.....
संकट मोचन इलाहाबाद सिविल लाइन्स में भी है और अच्छी खासी भीड़ रहती है हर शाम वहाँ भी
बनारस भी देखा है मगर यहाँ बात तो इलाहाबाद की ही है जहाँ हमारे प्यार नें इसी मंदिर के अहाते में अंगड़ाईयाँ ली थी और जवान हुआ था. बड़ी पुण्य और पाक स्तली है, ज्ञान जी हामी भरिये :)
और उस कमरे में भी
बिखरती थी यही गंध...
जो बसी है मेरे रग रग में
और रहती है मेरे संग!!..........
मर्मस्पर्शी रचना,जो बहुत कुछ कह गयी.
ये सब तो पहले पहले अनुभव हैं याद तो कुछ और ही बला है
’ईट ईज रेनिंग वेरी मच’. फिर पिटाई..१०० बार कहो, ’इट्स रेनिंग कैट्स एण्ड डॉग्स’
बहुत मार मार के अंग्रेजी सिखाई गई है... :)
यादें, हर उम्र मे कही न कही याद आती है चाहे वे बचपन के हो, जवानी के हो या बुडापा का हो
खुबसुरत भाव आप की रचना का। आभार
बीती यादें और इलाहाबाद से उपजी अगरबत्ती की सुगंध........... समीर भाई आपने तो कमाल कर दिया......... कितने भावुक अंदाज़ में इस लाजवाब, ह्रदय स्पर्शी कविता को नया आयाम दिया आई....... दिल में गहरे उतार जाती है .
कभी कभी आप इतना उम्दा लिख जाते हैं की उस की तारीफ के लिए शब्द ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है....
बेहद संवेदनशील....
सच को उकेरती हुयी रचना...
मीत
waah
yaadon k makad jaal me se itne abhinav chitra nikaal kar aapne jis sundarta k saath prastut kiye hain vah na keval aapki lekhan shaili par bhashaai pakad aur shabd saamarthya se parichit karaati hai balki ye ehsaas bhi karaati hai ki aap bahut hushiyaar aadmi ho...........
vahi drishya apni yaadon me rakhe jinhone ateet me pitvaya..unhen bilkul nahin rakha jo bhabhiji k haathon aaj bhi pitvaa sakte hain
aapko to badhaai kai kai baar deni paqdegi janaab..........
GAZAB KI KAVITA>>>
GAZAB KI YAADEN..........
बहुत ही खूबसूरत शब्दों और यादों से रची है ये रचना। सुन्दर।
हा हा आपने जिस किसी को परेशान किया होगा वो तो मन ही मन जैन मास्साब को धन्यवाद दे रहा होगा लेकिन आपने ये अच्छा किया कि धन्यवाद देने वालों को इस बहुत ही बेहतरीन कविता के माध्यम से इशारे में बता दिया कि ख़बरदार यदि जैन मास्साब को किसी ने ज़्यादा धन्यवाद दिया हमारी पिटाई के बाबद, तो हम दुनियाँ के सबसे बड़े जैन मास्सब (संकटमोचन बजरंगबली) से शिकायत कर देंगे, देख लो अगरबत्ती आलरेडी सुलगा चुके हैं। हा हा। बहुत सुन्दर यादों की डोर थी बड्डे। आपके साथ के सुनहरे पल याद आ गए। और ये फ़ुरसतिया जी का जुगराफ़िया कमज़ोर समझ में आ रहा है, बतलाइए कहते हैं संकटमोचन मंदिर बनारस के अलावा कहीं नहीं है। अरे भैए जब हमारे सारे मुल्क में कानपुर के अलावा भी लाखों फ़ुरसतिया लोग पाए जाते हैं तो संकटमोचन मंदिर इलाहाबाद में क्यों नहीं ? हा हा ।
हर वक्त
मेरे साथ होतीं...
दिल को छूते हर शब्द बहुत-बहुत ही सुन्दर रचना बधाई ।
सच...यादें कब किस बात के संग डोर बांधें चली आयें कुछ कहा नहीं जा सकता, और आपने जिस तरह हर उस डोर के सिरे जोड़ यह पोस्ट लिखी है, की क्या कहें... अगरबत्ती का धुआं जो इतना हल्का होता है की क्षण भर में उड़ जाता है , उसके सिरे से आपने कितनी ही यादें बाँध दी के दिल अब भारी हो चला...
स-आभार
यादों का क्या है न तो रोकी जातीं हैं और न ही छोड़ी जातीं हैं।
आपकी वाह-वाह और पानी बरसने के किस्से से याद आया। हम कोई चार या पाँच में पढ़ा करते थे, पिताजी अपने लिए एक निब पेन लेकर आये और हमने उसे ले लिया। पेन से लिखने का शौक तब भी था और आज भी है। छोटे थे खुशी के मारे कुछ लिखकर दिखाया। पर ये क्या पिताजी बहुत खुश नहीं हुए हाँ सजा जरूर मिली। सौ बार अपना नाम लिखने की। पता है क्यों...हमने अपने नाम में द्र में मात्रा सही ढंग से नहीं लगाई थी।
बहुत याद आते हैं वे दिन जब सजा-सजा में ही बहुत कुछ सिखा दिया जाता था।
समीर जी, आपके यहाँ पीटने का इतना शौक क्यों था लोगों को? हमारे मोहल्ले में तो सौभाग्य से ऐसा चलन नहीं था। हमें नन्हें समीर से बहुत सहानुभूति हो रही है।
यहाँ तो कई दिन से जो कुत्ते बिल्ली बरस रहे हैं कि लगता है कि बाढ ही आ जाएगी।
कविता अच्छी लगी।
घुघूती बासूती
खैर पिटाई और हमारे बचपन का चोली दामन का साथ था. आज अगर पिट जायें तो पिटाई के दर्द से ज्यादा बचपन की यादों का दर्द उठ पड़ेगा, यह मेरा दावा है.
वाकई बहुत ही मार्मिक लगा. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
I am Simply speechless
Neeraj
वो कहते हैं न कि समीरजी का अंदाज-ए-बयां और।
वाह वाह कहते घबरा रहा हूँ ...इन दिनों आप भी अति भावुक हो रहे है ....पर हर पत्थर के नसीब वाली बात बहुत जमी.....
आपने तो भावुक कर दिया.
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं..
bahut achhi post hai...
antim kavita MAA bhi bahut achhi hai...
चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही थीं जल थल में...
और हमारे मूँह से बेसाख्ता निकल पड़ा...वाह वाह!! बहुत खूब!! एक बार और..फिर क्या होना था....
बहुत ही बढ़िया लगा, हंस हंस कर लोटपोट हुआ मैं इस पर। साथ में ऑफिस में सहयोगी भी पढ़ कर लोटपोट हुए।
वाह वाह!! बहुत खूब!! एक बार और..
आपकी हर पोस्ट यही कहने को मजबूर कर देती है |
जीवन के मर्म को बयान करती रचना .......जीवन के करीब होती है पुरी तरह से हकिकत कोबयान करती है और और दिल मे कही गहरे उतर जाती है ......बहुत ही सुन्दर
bahut sundar
itne Achhe hasya vayangya ke baad itna emotions... ye aap hi likh sakte hain.
यादों का मत पूछिए ,
हम खो जाते है,
और जब याद आती है बचपन की,
बिना नींद के हम सो जाते है.
वाह,बेहद भावपूर्ण रचना
सलाम करता हूँ इन चंद लाइनों को..
याद आता है मुझे
अपनी भूख समेटे
प्रसाद की आस में
मंदिर की सीढ़ी पर बैठा
वो बच्चा
जिसकी उदास आँखों में
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
मर्मस्पर्शी रचना... साथ ही सुन्दर लेख.. आभार
आपकी यादों की डोर ने दिल के तार हिला दिये...और ’गन्ध’ ने तो सिहरन ही पैदा कर दी.......
अरे....हंसाते-हंसाते रुला ही दिया आपने..बहुत सुन्दर.
वो ज़माना चला गया जब its raining cats and dogs कहते थे। अब तो थोडी सी वर्षा होती है तो ऐसा ट्रेफ़िक जाम हो जाता है कि लगता है it is raining camels and elephants:)
आपकी यादों की डोर इतनी तेजी से विपरीत दिशा में मुड कैसे जाती है .. तुरंत हंसाती है और तुरंत रूलाती है ।
यादें। वाकई बहुत खूबसूरत होती हैं। साथ ही निर्मम भी। लाख छुड़ाओ पीछा ही नहीं छोड़ती। और आपकी कविता का तो कहना ही क्या। झकझोर कर रख देती है।
वाह वाह के साथ भावुक भी कर दिया आपके लिखे ने ...कई चीजे यह दिल कभी नहीं भूल पाता है ...और वो तो कभी नहीं जो माँ से जुडी हुई हो ..आपकी यह एक और बेहतरीन पोस्ट है ..
Yadon pe sara jag nisar hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
याद आता है मुझे
अपनी भूख समेटे
प्रसाद की आस में
मंदिर की सीढ़ी पर बैठा
वो बच्चा
जिसकी उदास आँखों में
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
अब मैं क्या टीपियाऊ ?
अलग सी पोस्ट में पुरानी यादे और बातें।
यादों की तो बात हुई लेकिन उसके साथ भी बहुत कुछ... मंदिर की सीढियों पर बैठा वो बच्चा.... !
निशब्द हूँ......
क्या समीर भाई,पहले तो हंसाया और फिर कितने सलीके से रुला दिया......
आप शब्दों के जादूगर हो........माता सदा आपपर अपनी कृपा बनायें रखें.......
यादो का एक सिलसिला शुरू कर दिया आपने तो. आज भी मुझे भी अपने मटरू मास्साब यथारूप याद है.
माँ!!
जिसके पार्थिव शरीर के करीब भी
यही खास अगरबत्ती जलती थी
छू गये एहसास
atit ki palki per ap jhule aur hume apna bachpan yaad dila gye.
khoobsurat likha hai.apko salam samir zee
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं...
कविता के साथ साथ अपका संस्मरण भी दिल को छू गया गज़ब की शैली है आप्के लेखन मे आभार्
पुराणी यादें और पुराणी बातें हमेशा ख़ास होती हैं ... अच्छी कविता
आज अगर पिट जायें तो पिटाई के दर्द से ज्यादा बचपन की यादों का दर्द उठ पड़ेगा...
सही है..
और कविता भी बहुत खुब है..
यादें क्या है
एक अनन्त प्रवाह
जो बहता जाए
नित कल-कल
छल-छल
जैसे कोई सरिता |
यादें क्या हैं
मन का
वो कारवां
जो चलता ही जाए
प्रतिपल अविरल
यादें ना हो
जीवन क्या हो....
यादों का बड़ा ही खूबसूरत वर्णन समीर जी ....
यकीन मानिये मुझे भी अपने बचपन की अंग्रेजी की क्लास की वो पिटाई याद आ गई .......और अंग्रेजी के मास्साब मेरे पिताजी हुआ करते थे ....:)
बचपन की यादे और रचना भावपूर्ण है . धन्यवाद.
बचपन से लेकर आज तक मुझे ये समझ में नहीं आया की मुसलाधार बारिश को किट्स एंड डॉग्स क्यों कहते हैं.....
.... इंसानो की तरह ही
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
... मुझे यकीं है ऐसा सिर्फ आप ही कह सकते हैं...जवाब नही सर आपका ...
माँ की पार्थीव देह के पास अगर्बत्तियाँ ..समीर भाई मुझे माँ की म्रत देह के पास बैठकर लिखी अपनी कवितायें याद आ गईं .. मन भीग गया.. और बचपन की यादें यही तो हमे ताकत देती हैं दर असल हम लेखक उन्हीं यादों के सहारे ही सब कुछ लिख पाते हैं आपकी सम्वेदनशीलता बनी रहे यह कामना
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं...
समीर जी
हर बार की तरह यह पोस्ट भी लाजवाब है...
गुरूजी की मार, पड़ोस वाले अंकल द्वारा पिटाई, मंदिर के बाहर बैठा बच्चा और माँ की याद...
बहुत कुछ है, एक अकेली पोस्ट में...
Shayad hi koi aisa anubhav ho jo aapse achuta ho.
सुगन्धित सुन्दर यादे ,
कविता मे पिरोकर,
बहुत खूब..हमेशा की तरह दिल तक उतरने वाले,
वहा! जी वहा!
आपकी हर बात निराली
आपकी हर अदा भी निराली
आपकी चाल भी निराली
आपकी अगरबत्ती भी......
कुल मिलाकर पुरे समीरलालाजी ही निराले।
जय हो!!!!!!!
आभार
हे प्रभु यह तेरापन्थ्
मुम्बई टाईगर
बेहतरीन लिखा है | इश्वर हिंदी ब्लोगेर्स को आपकी तरह ऊर्जा दे |
बताइए कहां से कहां पहुंचा दिए। पता ही नहीं लगा।
एक बात बताउं मेरे दिमाग में हर ब्लॉगर को लेकर मेरे शहर को कोई ना कोई कोना जुड़ा है। मैंने सोचा था कि कभी लिखूंगा।
उसमें आप भी शामिल हैं। जहां हम एक पुराने घर में किराए पर रहते थे। वहां एक लड़का हुआ करता था। काला, भद्दा दिखने वाला लेकिन इतना मस्त कि हर कोई उसको साथ खेलने के लिए बुला लेता था।
एक बार आपने गंदे कपड़ों में पड़ोसन के मुंह से अपने लिए कुछ ऐसी ही बात सुनी थी। तब मेरे दिमाग में वह घर और उसके बाहर की कच्ची जमीन अंकित हो गई। अब जैसे ही कहीं आपका नाम देखता हूं तो वही दृश्य दिमाग में लौट आता है। :)
हवा के साथ यादों में चली गई ........इतने अनगिन बिम्ब की आँखें नम हो गईं .
'अपनी भूख समेटे…'
बहुत ही मार्मिक! इब्ने इंशा की याद ताज़ा हो गई।-'यह बच्चा कैसा बच्चा है…'
काश!!
तुम
तुम न होती
तुम्हारी याद होतीं...
हर वक्त
मेरे साथ होतीं....very touching post...
उस जमाने में मास्साब की शिकायत घर में करने का मतलब आज के अभिभावकों जैसा मास्साब से जाबाब तलब करना नहीं था, बल्कि उल्टा बिना कुछ जाने पुनः उससे भी ज्यादा पीटा जाता था कि जरुर बदमाशी की होगी,
bilkul sahi kaha na jaane kahan the tab manav aayog wale?
तो याद आता है मुझे
वो संकट मोचन मंदिर
जहाँ गुजारी थी मैने
इलाहाबाद की
अनगिनत शामें.....
...wo shaanein aur ye nostalgia !!
जड़ होने में बहुत सुकून है। मन्दिर की प्रतिमा को न करना होता है न साक्षी बनना। कर्म और कल्पना लोग करते हैं!
अगर चान्स मिले तो किसी छोटे से मन्दिर में हनुमान जी की मूर्ति बनना चाहूंगा।
आपकी पोस्ट के माध्यम से यह कामना जगी। धन्यवाद।
अच्छा ये तो बता दीजिए इलाहाबाद के कौन से वाले हनुमानजी के पास जाते थे। नौकरी वाले (सिविललाइंस) या छोकरी वाले (किलावाले)
@ हर्षवर्धन भाई
दोनों के बीच सामन्जस्य बैठाले थे भाई..मगर सिविल लाइंस ही नजदीक पड़ता था तो किलावाले को वहीं मान लिए थे टेम्परेरी पोस्टिंग पर. :)
पूरी पोल यहीं खुलवाओगे कि कुछ अकेले में भी बात करने के लिए रख छोड़ोगे. :)
आपकी यह पोस्ट हमेशा कि तरह अतीत मे ले जाती है । ओरो कि तरह हमे भी अतीत मे खोये रहना अच्छा लगता है लेकिन अतीत से वर्तमान मे वापस आना बहुत ही मुश्किल हो जाता है । जब कोई आवाज लगा के बुलाता है तो बहुत बुरा लगता है । आपकी पोस्ट कि खासियत यह है कि इसमे कोई बनावटी पन नही होता है ।
yado hi yado me kitani yaade/ aour yaad bhi esi ki bas yaad ban jaaye../ mui ye yaade esi hi hoti he/
janaab, aapka javaab nahi.
agarbatti ke is dhuye ki antim panktiyo ne aankhe nam kar di.
कुछ खास अंदाज मे पेश ये लेख काबिलेतारिफ़ है। और मर्मस्पर्शी भावो से पूर्ण कविता की खुशबू दिल को महका गई।
bahut khoob......
arey! Sir .....aap kahan hain?
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
सबसे हृदयस्पर्षी चित्रण... बेहतरीन साहित्यिक उपस्थिती.
अगरबत्ती की अंगडाईयां पहली बार पढा!!!
sameer bhai,
paripakvata mein bachpan kii yaden badi pyari lagti hain kyonki unko samjhne kahamaara andaz badal jata hai. bahut achchha laga. badhai!!!
apka kvita prstut karne ka andaj bada hi nirala hai par aala hai .
yade amit hoti hai aur sach hai ve hi sirf apni hoti hai jinhe koi cheen nhi sakta .
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं.
patthro ko bhi kvita rang deti hai apne rang me yhi lekhn ki sarthkta hai.
dhnywad
समीर जी,
बचपन की यादों में डूबो कर फिर कहाँ उभार दिया, उदास कर दिया. शिकायत नहीं अच्छा लगा.
वो बच्चा
जिसकी उदास आँखों में
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
बहुत खूब. आप की हर रचना एक से बढ़ कर एक है .
बधाई!
अच्छी शुरुवात और उससे भी उत्तम अंत
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं……मुर्दों के करीब होते हैं
दिल और दिमाग दोनों को छू गये।
यादें साझा करना एक बड़ी खूबी है। कुछ यादें सबकी एक जैसी होती हैं।
आपकी कम से कम इस पोस्ट कि अच्छाई यह है कि इसमे कोई बनावटी पन नही है ।
...atisundar !!!
भावों और यादों का सुंदर संयोजन।
समीर साहब
सिर्फ एक सवाल..
हम जीते क्यों हैं?
जवाब का इंतजार है!!!
आपकी पोस्ट दिल को छु गयी. बहुत खुबसुरत, आभार !
बहुत अर्से बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ और फिर जाने का मन नहीं हुआ। सहजता आपकी धरोहर है। लगता है इलाहाबाद से थोक में लेकर आए हैं। कुछ इधर भी तो हवाले कीजिए।
मन को छू लेने वाली रचना.
खुबसुरत भाव. बहुत अच्छा लगा पढ़कर.
भावुक और मर्मस्पर्शी (बहुत खूब तो कह नहीं सकते मगर कविता लाजवाब है)
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