बुधवार, अक्टूबर 27, 2010

लबड़हत्था....

बचपन से ही मैं बाँये हाथ से लिखता था. लिखने से पहले ही खाना खाना सीख गया था, और खाता भी बांये हाथ से ही था. ऐसा भी नहीं था कि मुझे खाना और लिखना सिखाया ही बाँये हाथ से गया हो लेकिन बस जाने क्यूँ, मैं यह दोनों काम ही बांये हाथ से करता.

पहले पहल सब हँसते. फिर डाँट पड़ने का सिलसिला शुरु हुआ.

अम्मा हुड़कती कि लबड़हत्थे से कौन अपनी लड़की ब्याहेगा? (उत्तर प्रदेश में बाँये हाथ से काम करने वालों को लबड़हत्था कहते हैं)

आदत छुड़ाने के लिए खाना खाते वक्त मेरा बाँया हाथ कुर्सी से बाँध दिया जाता. मैं बहुत रोता. कोशिश करता दाँये हाथ से खाने की लेकिन जैसे ही बाँया हाथ खुलवा पाता, उसी से खाता. मुझे उसी से आराम मिलता.

एक मास्टर साहब रखे गये थे, नाम था पं.दीनानाथ शर्मा. रोज शाम को आते मुझे पढ़ाने और खासकर दाँये हाथ से लिखना सिखाने. जगमग सफेद धोती, कुर्ता पहनते और जर्दे वाला पान खाते. ऐसा नहीं कि बाद में और किसी मास्टर साहब ने मुझे नहीं पढ़ाया लेकिन उनका चेहरा आज भी दिमाग में अंकित है.

बहुत गुस्से वाले थे, तब मैं शायद दर्जा तीन में पढ़ता था. जैसे ही स्कूल से लौटता, वो घर पर मिलते इन्तजार करते हुए. पहला प्रश्न ही ये होता कि आज कौन से हाथ से लिखा? स्कूल में दाँये हाथ से लिख रहे थे या नहीं. मैं झूठ बोल देता, ’हाँ’. तब वो मुझसे हाथ दिखाने को कहते और बाँये हाथ की उँगलियों में स्याहि लगी देख रुलर से हथेली पर मारते. उनकी मुख्य बाजार में कपड़े की दुकान थी. पारिवारिक व्यवसाय था. उन्हीं में से थान के भीतर से निकला रुलर लेकर आते रहे होंगे क्यूँकि जिन दो साल उन्होंने मुझे पढ़ाया, एक सा ही रुलर हमेशा लाते.

फिर मैं जान गया कि वो स्याहि देखकर समझ जाते हैं. तब स्कूल से निकलते समय वहीं पानी की टंकी पर बैठ कर मिट्टी लगा धो धोकर स्याहि छुड़ाता और फिर घर आता.

मगर दीनानाथ मास्टर साहब फिर दाँये हाथ पर स्याहि का निशान न पाकर समझ जाते कि कुछ बदमाशी की है. मैं फिर मार खाता.

इसी दौर में मैने यह भी सीख लिया कि सिर्फ स्याहि धोने से काम नहीं चलेगा तो दाँये हाथ की उँगलियों में जानबूझ कर स्याहि लगा कर लौटता. ऐसा करके काफी हद तक मास्टर साहब को चकमा देता रहा और मार खाने से बचता रहा.

फिर जाने कैसे उनकी पहचान मेरे क्लास टीचर से हो गई. फिर तो वो उनसे पूछ कर घर पर इन्तजार करते मिलते. गनीमत यह रही कि परीक्षा में नम्बर बहुत अच्छे आ जाते तो बाँये हाथ से लिखना धीरे धीरे घर में स्वीकार्य होता चला गया और दीनानाथ मास्टर साहब को विदा दे दी गई. हाँ, खाने के लिए फिर भी बहुत बाद तक टोका गया.

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उसी बीच जाने कहाँ की शोध किसी अखबार में छपी कि बाँये हाथ से काम करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हैं और किसी सहृदय देवतुल्य व्यक्ति ने पिता जी को भी वो पढ़वा दिया. पिता जी ने पढ़ा तो माता जी को ज्ञात हुआ. एकाएक मैं लबड़हत्थे से प्रमोट हो कर विलक्षण प्रतिभाशाली व्यक्तियों की जमात में आ गया.

तब मैं चाहता था कि वो मेरे बड़े भाई को अब डांटे और मास्टर साहब को लगवा कर उसे रुलर से मार पड़वाये कि बाँये हाथ से लिखो. मगर न जाने क्यूँ ऐसा हुआ नहीं. बालमन था, मैं इसका कारण नहीं जान पाया या शायद मेरी विलक्षणता अलग से दिखने लगे इसलिये उसे ऐसे ही छोड़ दिया होगा. ऊँचा पहाड़ तो तभी ऊँचा दिख सकता है, जब नापने के लिए कोई नीचा पहाड़ भी रहे. वरना तो कौन जाने कि ऊँचा है कि नीचा.

लबड़हत्थों की जमात में अमिताभ बच्चन जैसे लोगों का साथ मिला तो आत्मविश्वास में और बढ़ोतरी हुई और मेरी उस शोध परिणाम में घोर आस्था जाग उठी. काश, उस पेपर की कटिंग मेरे पास होती तो फ्रेम करा कर नित दो अगरबत्ती लगाता और ताजे फूल की माला चढ़ाता.

शोध परिणाम तो खैर समय, जरुरत, बाजार और स्पान्सरर्स/ प्रायोजकों के हिसाब से बदलते रहते हैं मगर अपने मतलब का शोध फ्रेम करा कर अपना काम तो निकल ही जाता. फिर नये परिणाम कोई से भी आते रहते, उससे मुझे क्या?

किन्तु सोचता हूँ क्या इससे वाकई कोई फरक पड़ता है कि आप बाँये हाथ से काम करते हैं या दाँये? फिर क्यूँ न जो सहज लगे, सरल लगे और जो स्वभाविक हो, उसे उसके स्वतंत्र विकास की लिए जगह दे दी जाये..प्रतिभा दाँया, बाँया देखकर नहीं आती. प्रतिभा तो मेहनत और लगन का परिणाम होती है,मेहनत किस हाथ/तरह से की गई उसका नहीं.

 

 
नोट:
सोच रहा हूँ कि जल्दी से इसे लिखकर छाप देता हूँ इससे पहले कि कोई शोध परिणाम ऐसा कहे कि ब्लॉग पर लिखने से इन्सान पागल हो जाता है इसलिए प्रिंट की पत्र पत्रिकाओं में लिखना चाहिये. वैसे कुछ कदम इस दिशा में बढ़ते दिखे तो हैं.

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रविवार, अक्टूबर 24, 2010

दिल की हिफ़ाजत मैं करने लगा हूँ...

बस ऐसे ही, दो रोज पहले एक मंच के लिए गीत गुनगुनाया तो सोचा सुनाता चलूँ, शायद पसंद आ जाये.

sadsam

जब से बसाया तुझे अपने दिल में,   
दिल की हिफ़ाजत मैं करने लगा हूँ...
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में   
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ   

जमाना मुझे इक दीवाना समझता
मगर तुमने मुझको हरपल दुलारा 
कभी दूर से ही करती इशारा     
कभी पास आकर तुमने पुकारा   

जीना सिखाया था तुमने ही मुझको
ये मैं हूँ कि तुम पर मरने लगा हूँ... 
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में    
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ      

ऐसा नहीं था कि रहा मैं अकेला       
फिर भी न जाने, क्यूँ तन्हा रहा मैं             
लहरों ने आकर, मेरा हाथ थामा       
फिर भी न जाने, अकेला बहा मै..       

सभी मुझको थोड़ा थोड़ा चाहते       
मुझे लगता मैं ही बंटने लगा हूँ        
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में        
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ        

किसे प्यार मिलता सच्चा जहाँ में       
यहाँ प्यार भी एक, सौदा हुआ है       
तुम्हें पाकर मैने इतना तो जाना        
दुनिया में सबको ही, धोखा हुआ है.       

अभी तक विरह के, गीतों को जाना            
नये प्रेम गीतों को, रचने लगा हूँ       
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में     
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ    

-समीर लाल ’समीर’  

 

यू ट्यूब पर यहाँ देखें:

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बुधवार, अक्टूबर 20, 2010

नजरों का यकीं...

कमरे में खड़ा खिड़की के बाहर देख रहा हूँ एकटक. वो नहीं दिखता जो बाहर है. नजर बस टिकी है लेकिन दिख वो रहा है जो मन में है. एक उड़ान मन की. विचारों की. कुछ उधेड़बुन तो कुछ धुंधली तस्वीरें हल्के भूरे रंग की. रंग भरा समय भी कैसे वक्त की मार झेल झेल कर बदरंग हो जाता है.

एक बार अपना सिर हल्के से झटकाता हूँ. खिड़की के बाहर हरियाली लिए सब स्थिर है. शायद हवा न चलती होगी. बंद खिड़की के कांच से हवा का अहसास भी पत्तियों की हलचल से होता है. वो न होती तो पता भी न चलता. सर्दियाँ आयेंगी, बर्फ़ जमीन पर कब्जा जमा कर बैठ जायेगी. पत्तियाँ बुरे वक्त में कहाँ साथ देती हैं? छोड़ कर चल देंगी फिर से बेहतर मौसम आने तक के लिए. अच्छे हालातों में ही अपने भी साथ देते हैं.

ऐसे में काँच के भीतर से झांकते हुए मैं भी भला कहाँ जान पाऊँगा कि हवा चल रही है या थमी. ठीक उन पेड़ों की सांसो की तरह-कौन जाने चलती भी होंगी या थम गई.

बिना पत्तों के ठंड की मार झेलते पेड़ों के ठिठुरते बदन खुद का अस्तित्व बचायें या मुझे हवा का पता दें. गर्दन उठाये बेहतर मौसम की आस में फिर अपनों के वापस आने का इन्तजार ही शायद उन्हें उर्जा देता होगा इस मार को झेल जाने की वरना तो हट्टा कट्टा इन्सान भी अगली सांस के इन्तजार में दम तोड़ दे और वो सांस सर्दीली मार में जमी, चाह कर भी लौट न पाये.

जब पत्ते लौटेंगे तो उनके बीच घिर खुशियाँ मनाते ये पेड़ भूल जायेंगे उस दर्द को, उस तकलीफ को जो इन्होंने इन्तजार करते झेली है और पत्तियाँ उन्हें सुखी देख कुछ समय साथ बिताएंगी, फिर विदा ले लेंगी अगली मौसम की मार अकेले झेलने को छोड़ कर.

यूँ सुनी थी एक कविता उस व्यक्ति की जो निर्वस्त्र एक सर्दीली रात काट देता है नदी के इस छोर पर उस पार जलती चिता से उगती आग की तपन सोच कर..

winter-tree

खिड़की से झांक
देखता हूँ वो
जो दिखता नहीं...

शायद

देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें

कि

नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा

-जाने क्यूँ?

--समीर लाल ’समीर’

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रविवार, अक्टूबर 17, 2010

गुलाब का महकना...

आज यहाँ रविवार है. भारत के लिए निकलने से पहले ऐसे तीन रविवार ही मिलेंगे अतः व्यस्तता चरम पर है. आज कविता पढ़िये:

gulab
*

 

जब कुछ लिखने का
मन नहीं होता
तब खोलता हूँ
नम आँखों से
डायरी का वो पन्ना
जहाँ छिपा रखा है
गुलाब का एक सूखा फूल
जो दिया था तुमने मुझे
और
भर कर अपनी सांसो में
उसकी गंध
बिखेर देता हूँ
एक कागज पर...

-लोग उसे कविता कहते हैं!!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अक्टूबर 13, 2010

गीली पोली जमीन...

पैर से लिखने की ख्वाहिश है, उन इबारतों को, जिन्हें हाथ लिखने को तैयार नहीं. ख्वाहिशों को कब परवाह रही है किसी भी बात की. न ही उन्हें स्थापित नियमों से कुछ लेना देना है. डोर से टूटी पतंग, उड़ चली जिस ओर हवा बही. कभी पूरब तो कभी पश्चिम. कभी उपर तो कभी नीचे. क्या रंग है, क्या रुप है- इससे बेखबर. बस, एक बेढब बहाव और अंत, वही किसी मिट्टी में मिल जाना, खत्म हो जाना. तसल्ली ये कि किया मन का.

लिख डालने की कोशिश में जमीन पर गीली मिट्टी में पैर के अंगूठे से चन्द उघाड़े अक्स, कुरेदी हुई कुछ लकीरें आड़ी तिरछी. शाम की बारिश अपने साथ सब बहा कर ले गई. बस बच रही सिर्फ, एक मिट्टी की सतह. क्या जाने?.. इन्तजार करती भी होगी या नहीं-चन्द नई इबारतों का. उलझी हुई, किसी को न समझ आ सकने वाली. हाथों की बेवफाई को कुछ पल को ही सही मगर धता बताती ये ख्वाहिश, मानो बिटिया हाथों में बर्फ का नारंगी गोला लिये इतरा रही हो. धूप मुई बच्चों को भी कहाँ बख्शती है? बिटिया का इतराना भी बरदाश्त न हुआ और पिघला कर रख दिया उसका नारंगी बर्फ का गोला. वो नादान गोले की लकड़ी लिए चुसती रही घंटो उसे.

याद करो तो आज भी पैर का अंगूठा अनायास ही कालीन में जाने क्या कुरेदने लगता है. हाथ आज भी तैयार नहीं उस इबारत को लिखने के लिए जिसमें वो नाम जुड़े. वफाई बेवफाई का दिल आदी हुआ पर हाथ. वो मान में नहीं. दिल नाजुक और हाथ सख्त. एक ही शरीर के हिस्से. व्यवहार इतना जुदा.

उसी आंगन में खेलते थे दो भाई. एक ही खून के/ माँ के जाये. कब आंगन की अमराई दीवार में बदली, जान ही नही पाये. एक ही दिशा में निकलते/ एक ही मंजिल पत जाने को लेते-- दो जुदा रास्ते. आंगन एक से दो हुआ. दो चूल्हे बस धुँओं की राह मिलते. मिल जाते आसमान में जाकर और फिर बरसते बादल बन आँसूओं की धार की तरह और पौंछ जाते वो सब इबारते जिन्हें आज हाथ लिखने को राजी नहीं मगर अँगूठा कुरेदता है हर पोली और गीली मिट्टी को पा कर बेवजह. कहीं दिल की कोई टीस होगी जो पैर के अँगूठे के माध्यम से चीखती होगी और वो अनसुनी चीख मिल जाती होगी मिट्टी में बहते हुए बरसाती पानी के साथ.

दाग होते हैं दिल में गहरे गहरे जो किसी एक्स रे से नहीं दिखते. बस होते हैं अहसासों के मानिंद. अजब से दाग जिनका रंग नहीं होता बल्कि स्वाद होता है- कुछ मीठे तो कुछ खट्टे. महसूस करती है जुबान उस भीतर से उठते स्वाद को.

पत्नी आलू, मटर, पनीर की सब्जी बनाने की तैयारी करती. त्यौहार मनाने की खुशी और मैं उन उबले आलूओं में से एक उबला आलू किनारे रखवा देता हूँ. जाने क्यूँ आज पांच सितारा सब्जी के बदले उबले आलू फोड़ उसमें नमक और लाल मिर्च बुरक कर पराठें के साथ खाने का मन हो आया. छुटपन में जब नानी के घर जाते तो अम्मा रेल में पराठे और उबले आलू लेकर चलती. पैर का अँगूठा पोली मिट्टी तलाशता है डाईनिंग टेबल के नीचे सबकी नजर बचाता. वुडन फर्श है शायद कोई फांस गड़ गई है नाखून में. एक चीख सी उठने को है, दबा ली तो आँखें चुगली करने को तैयार. लाल मिर्च बुरकते आलू में सने हाथ से आँख पौंछ लेता हूँ.

दोष लाल मिर्च को मिला.

बच्चों की हँसी, पत्नी का आँख में फूँकना और...

फिर गीली पोली जमीन की अनवरत तलाश!

scraching

आज रात भर
बारिश होती रही.

उनकी
अलिखित इबारतें
पौंछने की फिराक..


और

पैर से लिखने की
ख्वाहिश लिये..


बिस्तर पर लेटा
नींद से
आँख मिचौली खेलता..
मैं.

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, अक्टूबर 10, 2010

प्यार तुम्हारा इक दिन..

एक बार भारत यात्रा के दौरान एक कवि सम्मेलन में शिरकत कर रहा था. एक कवि महोदय ने गीत प्रस्तुत किया. उसकी धुन मुझे बहुत पसंद आई और कई दिनों तक जेहन में गुँजती रही. फिर उसी धार पर मिसरा लिया और रचा अपना गीत. बहुत बार तो मंच से सुना चुका लेकिन फिर वही. ब्लॉग पर खोज रहा था तो पता लगा कि आप सबको तो पढ़वाया ही नहीं. तो आज वो ही सही:

 

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं...
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं...
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बस मन में अपनी राग लिये फिरता हूँ मैं..

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

तनहा तनहा सर्दीली भीगी रातों में
विरह अगन से बदन मेरा जल जाता है
बरसाती आँधी वो जब जब भी चलती है
महल हमारे सपनों का फिर ढह जाता है
मौसम चाहे जितने रंग आज बदल डाले
दिल में इक मधुमास लिए बस फिरता हूँ मैं..

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अक्टूबर 06, 2010

सात समुंदर पार आती गली.....

सब कहते कि वो गली मेरे घर आकर खत्म हो जाती है. मैने इसे कभी नहीं माना. मेरे लिए वो गली मेरे घर से शुरु होती थी.

लोग कहते कि गली का आखिरी मकान मेरा है और उसके बाद गली बन्द हो जाती है. मेरा हमेशा मानना रहा कि गली का पहला मकान मेरा है और वहीं से उसके बाद दूसरों के मकान शुरु होते हैं.

कोई उसे कहता कि श्रीवास्तव जी की, यानि हमारी गली, तो कोई सामने के मकान वाले तिवारी जी की गली, नुक्कड़ पर कुठरिया में रहने वाले घुन्सू चमार की गली तक भी मैं लोगों के कहे का बुरा नहीं मानता मगर जब कोई इसे खज़रे कट्खन्ने कुत्ते वाली गली कहता, तो मेरा खून खौल उठता.

खज़रा कटखन्ना कुत्ता- कालू. बस, एक बार पाण्डे जी के बेटे को काटा था उसने, वो भी तब जब उसने उसकी पूँछ पर से साइकिल चला दी थी. अब तो कालू को मरे भी जाने कितने साल गुजर गये थे मगर लोग-गाहे बगाहे मेरी गली को खज़रे कट्खन्ने कुत्ते वाली गली कह ही देते हैं.

gali

मेरे लिए वो गली मेरे घर से शुरु होती है. वहीं मैं पैदा हुआ और होश संभाला. वो गली आकर बाजार में जुड़ती और फिर बाजार की सड़क से होती हुई राजमार्ग पर और फिर सीधे शहर में. शहर मुझे विदेश ले आया उस गली से शुरु होकर. वो गली मेरे लिए विदेश तक आती है. लौट लौट कर मैं उस तक जाता हूँ. कभी सच में मगर रोज - यादों में, सपनों में.

माँ मायके से आई और गली में समा गई. हाँ, उसके लिए गली हमारे घर पर समाप्त होती थी..वो जो उस घर में आई तो आँख मींचे ही निकली वहाँ से. उसे गली ने शमशान ले जाकर छोड़ा मगर वो तो माँ ने देखा नहीं. वो तो बस डोली में बैठकर आई थी इस घर में. दो बाँस और चार काँधों वाली सवारी कहाँ ले जाती है, सब जानकर भी नहीं जान पाते हैं जब खुद की सवारी निकलती है.

सामने वाले तिवारी जी मकान बेच कर अपने बेटे के पास शहर चले गये. मकान खरीदा वर्मा जी ने मगर गाँव ने कब भला माना इसे..वो मकान आज भी स्टेट बैंक वाले तिवारी जी का मकान कहलाता है. क्या पुराने और क्या नये- लोग अब भी उसे तिवारी जी की गली कहते हैं. कब मिटती हैं ऐसी पहचानें?

बहुत बदला गाँव. बिजली आई, नहर खुदी, एक सिनेमा बना. सरकारी स्कूल खुला. अस्पताल खुला. कई कुत्तों नें कई लोगों को काटा. सूखा पड़ा. बाढ़ आई. हैजा फैला. गली रुकी रही. मेरे लिए "श्रीवास्तव जी की गली"- मेरे साथ विदेश तक आई.

बचपन में पढ़ी उस भूत की कथा याद आई जिसका हाथ बड़ा होता जाता था दूर का सामान पकड़ने को. गली, जो मेरे घर से शुरु हुई, (और अब भी वहाँ है) मेरे साथ इस विदेशी गोरों की घरती पर भी आई. अजनबियों के इस देश में मेरा साथ निभाती आधी रात के अंधेरों में ढाढस बँधाती. एक तार को जोड़ती - बचपन से अब तक.परिवार के साथ. कुछ दूर न लगता.

एक दिन लौट जाना है - उस छोर पर जहाँ से गली शुरु हुई है. रास्ता याद दिलाती, यही तो दिली इच्छा है मेरी. मेरी ही क्यूँ..हर उस शक्स की जो गली से शुरु होकर दूर तक चला आया है.

सोचता हूँ क्या गली मुझे यहाँ लाई या मैं गली को?

गली चली या मैं ?? ..

रोशन जगमगाहट रोकती है और लालटेन की टिमटिमाती लौ बुलाती है.

पशोपेश में हूँ. फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलता मैं.

वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना...

मुस्कराना
रोना
और
फिर बिछड़ जाना...

अब तो सब
सपनों की बातें हैं....

क्या तुम जानती हो....

मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं...

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अक्टूबर 04, 2010

गाँधी जी का जन्म दिवस समारोह मॉन्ट्रियल में

शुक्रवार से कुछ आवश्यक कार्यवश मॉन्ट्रियल जाना हुआ और आज याने सोमवार की शाम लौट कर आये. यही वजह हुई कि सोमवार सुबह की पोस्ट नहीं आ पाई. वो अब परसों ही आयेगी. मॉट्रियल यात्रा के दौरान ब्रोसार्ड सिटीहॉल के सामने स्थापित गाँधी जी की प्रतिमा स्थल पर गाँधी जी का जन्म दिवस का समारोह में शामिल होने का अवसर मिला, जिसमें वहाँ की मेम्बर ऑफ पार्लियामेन्ट से लेकर सिटी कॉन्सलर्स और डिप्टी मेयर एवं भारतीय समुदाय के अनेक लोग उपस्थित थे. उसी अवसर की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत कर रहा हूँ.

इस पूरे कार्यक्रम के कर्ताधर्ता श्री उमाशंकर श्रीवास्तव थे, जिन्हें इस प्रतिमा को स्थापित कराने का भी श्रेय जाता है. उन्हीं के प्रयासों के चलते आज क्यूबेक के एसेम्बली हॉल में भी गाँधी जी की प्रतिमा स्थापित है. समारोह के उपरान्त समोसा, गुलाबजामुन, बर्फी आदि के स्वल्पाहार के साथ विदा ली गई.

 

 

 

 

 

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बुधवार, सितंबर 29, 2010

मैं, अंधेरों का आदमी!!!

बचपन, खेल खेल में जुगनू पकड़ कर शीशी में बंद कर लिए. ढक्कन में एक छेद भी बनाया कि वो सांस ले सकें. सुबह को देखता था उन जुगनुओ को. कोई चमक न दिखती तो बंद अलमारी के अंधेरे में ले जाकर देखता. रात तीन बंद किये थे, अब बस एक चमकता था धीरे धीरे. वहीं अलमारी में उनको रखकर जब देर शाम लौटा तो उनमें से कोई भी नहीं चमकता था. सुबह उठकर देखा, तीनों मर गये. आज रात फिर नये पकड़ूंगा, सोच कर उनको बोतल से निकाल कर बाहर फेंक दिया.

बचपन की नादानी. सोचता कि जाने कैसे मर गये. छेद भी किया ढक्कन में सांस के वास्ते. सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं.

कुछ यादों के जुगनू तुम्हारे खतों की शक्ल में डायरी में मोड़ कर रख दिये थे. अब अंधेरा हैं. वो चमकते नहीं, अलमारी के भीतर भी नहीं. हालांकि अलमारी के भीतर हो या बाहर, क्या फरक पड़ता है. अँधेरा तो बराबर से है. ट्यूब लाईट की रोशनी कई बार चीख चुकी मगर ये जिद्दी अँधेरा, हटता ही नहीं. डटा है जस का तस.

सबने लूटा जहां मेरा
फिर भी कोई कहाँ मेरा...

-खोजता फिरता हूँ पता उसका...

अँधेरे में बस यूँ ही टटोलते. कुछ हाथ नहीं आता.

कुछ टेबल से गिर कर टूटा अभी छन्न से. वो कहती कि कांच का टूटना अशुभ होता है.

मैं सोचता गिलास टूटा है, कांच तो कभी टूटता नहीं, बस, रुप बदल जाता है. टुकड़े टुकड़े. होता फिर भी कांच ही है. वो भला कब टूटा है. फिर क्या शुभ और क्या अशुभ. मैं भी टूटा कब, बस टुकड़ो में बटा.

वस्ल कहते हैं:

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

तब एक शायराना ख्याल:

सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक...

झपट कर कुछ पकड़ा तो है. हाथ आया मुट्ठी भर और अँधेरा. एक टुकड़ा अँधेरा और जुड़ गया हिस्से में मेरे.

डायरी से निकाल कुछ मुर्दा खत उस अँधेरी आग के हवाले कर देता हूँ. कुछ नई यादें पकड़ूंगा फिर से. कुछ मरे जुगनू मिले, चमकते ही नहीं. मरे जुगनू चमका नहीं करते. एक खत हाथ लगा. लिखती हो ’खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे’. एक चमक बाकी हैं कहीं. सब कुछ लुट जाने पर भी एक उम्मीद की किरण, हल्की हल्की चमकती, सांस तोड़ती. अब शाम का इन्तजार भी नहीं. सपने मर रहे हैं.

अबकी नासमझी है कि खुदा के चाहने से कुछ होगा. खुदा गिरफ्त में है पंडो की और भगवान मौलवियों के चुंगल में लाचार. सौदा हो भी जाये तो एक छेद से कब तक सांस लेकर बच रहेंगे. आज वायदा बाजारी में सौदागरों का महत्व है, उन्हीं का बोलबाला, सौदे का नहीं. आर्टिफिशियल कमोडिटी की चमक दूर तक जाती है.

अँधेरे में पतंग उड़ाने की ख्वाईश है कंदील लटका कर. कंदील नजर आती रहे, पतंग न दिखे तो भी क्या. मन बहलता है.

एक कविता लिखूँगा तेरे नाम की आज शाम और शीर्षक रखूँगा-अँधेरा.

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झपट कर पकड़ता हूँ

हवा से

कुछ....

फिर

जोड़ लेता हूँ

एक मुट्ठी

अंधेरा और...

अपनी जिन्दगी के खाते में...

-मैं, अंधेरों का आदमी!!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 26, 2010

एक अलग अनुभव...

दो हफ्ते पहले एक मित्र का फोन आया कि एक हिन्दी सीरियल बना रहा हूँ, जरा आ जाना, कुछ बात करना है. वैसे वो पहले भी यहाँ फिल्म वगैरह बना चुका है. मौका देख कर पहुँचे उसके दफ्तर तो हाल चाल लेने के बाद उसने एक साउन्ड ट्रेक सुनाया और एक गीत. फिर कहा इस नेसल (नाक की) टोन के साथ एक गीत लिख दो तो वो काम आ जाये. मैने कहा कि भाई, किसी प्रोफेशनल से लिखा ले, मेरा ऐसा अनुभव नहीं है, जबरदस्ती इसके चक्कर में पूरा मामला ही न फ्लॉप हो जाये.

मगर न उसे मानना था, न माना. जिद पकड़ली कि कुछ तो लिखो. नहीं पसंद आयेगा तो फिर किसी और को ट्राई करेंगे. फिर चाय का दौर चला और मैं अपना लेपटॉप लिए कुछ कुछ टाईप करने की कोशिश करता रहा और वो फोन पर किसी के साथ सीरियल की रुपरेखा बनाने में व्यस्त था. चाय खत्म होते होते, मैंने कुछ पंक्तियाँ उसे दीं और और उसके म्यूजिक डायरेक्टर को दिखाई. उसने उसे गा कर मित्र को सुनाया और बस, यही फायनल है...सुनकर लगा कि जाने क्या होगा इस सीरियल का.

घर आ कर पत्नी को बताया. जरा सा टूं टां करके साऊन्ड ट्रेक पत्नी को भी बताया..उसी को आधार बना कर उसने गुनगुनाया है, आप भी पढ़ें और सुनें..साथ ही वो गीत जो उस सीरियल बनाने वाले मित्र के जेहन में गूँज रहा था और वो टुकड़ा जो उसने मुझे सुनाया था लिखने के लिए:


जाना, दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना

बीती हुई रातों मे
दूर हुये थे तुम
भीगी हुई बारिशों में
भीग रहे थे तुम..

गिर के संभलने को
मेरा हाथ थामा.

जाना..मेरा हाथ थामा.....


जाना!!!!!! मेरा हाथ थामा....

जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना

रीती हुई जिन्दगी मे
गीत रहे हो तुम
तन्हा सफर में भी
मीत रहे हो तुम

तेरी हर अदा का
दिल हुआ दिवाना

जाना...दिल हुआ दिवाना

जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना...

-समीर लाल ’समीर’

नोट: पोस्ट शायद हिन्दी सिनेमा से जुड़े ब्लॉगर्स का ध्यान आकर्षित करे इस प्रतिभा की ओर, यही एक मात्र कोशिश है. :)


साधना का गुनगुनाना:













वो गीत जो निर्माता के दिमाग में गूँज रहा था:














बस, आज इतना ही:

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बुधवार, सितंबर 22, 2010

एक अंश- ट्रेलर ही समझिये!!

पिछले दिनों सड़क मार्ग से नजदीक के एक गांव में गया था. उसी दौरान इस एक घंटे की ड्राईव वाली सड़क यात्रा का एक वृतांत लिखा जो कि अगर पूरा यहाँ प्रस्तुत करुँ तो शायद आपको पढ़ने में उससे ज्यादा समय लग जाये, अतः उस वृतांत में से फिलहाल लगभग २% अंश:
नजर पड़ती है ठीक सामने वाली सफेद कार में ३२/३५ साल का कोई लड़का है. अभी कुछ देर पहले मेरे बाजू वाली लेन में था, जाने कैसे मौका लगा कि सामने आ गया. शायद मैने ही मौका दे दिया हो या वो ज्यादा स्मार्ट रहा हो तो मौका निकाल लिया हो. कब जान पाया है कौन इस बात को जीवन में. गाड़ियाँ धीरे धीरे सरक रही हैं और वो अपने बाजू बाजू कार में बैठी लड़की को बड़े ध्यान से देख रहा है. इतना अधिक ध्यान से कि उसे होश ही नहीं रहा और अपने आगे वाली गाड़ी के पीछे से टक्कर दे मारी. लो, एक तो वैसे ही ट्रेफिक अटका था, ये एक और आ गये. ५/७ मिनट को तो मामला फंस ही गया. झगड़ा और गाली गलौच तो इस बात पर यहाँ होती नहीं. बस, शालीनता से दोनों कार वाले उतरेंगे, सॉरी सॉरी का मधुर गीत गायेंगे. एक दूसरे के इन्श्यिरेन्स की जानकारी, फोन नम्बर, लायसेन्स प्लेट आदि अदला बदली करेंगे और ये चले. बाकी काम इन्श्यूरेन्स कम्पनी और पुलिस मिल कर करेगी. (भारत वाली मिली भगत नहीं, सही वाली) मेरे मन में बस यूँ ही आया कि यह बंदा जब इन्श्यूरेन्स क्लेम लिखायेगा तो कारण क्या देगा? पक्का झूठ बोलेगा कि जाने कैसे ब्रेक तो मारा था मगर ब्रेक नहीं लगा. ब्रेक की तो जुबान होती नहीं कि बोल दे कि ये भाई साहब झूठ बोल रहे हैं. ये लड़की देखने में व्यस्त थे, ब्रेक मारा ही नहीं तो मैं लगता कहाँ से? और मुझ प्रत्यक्षदर्शी से कोई पूछने से रहा और पूछे भी तो मुझे क्या लेना देना है-कोई मेरी गाड़ी तो टकराई नहीं तो मैं क्यूँ इन दो की झंझट में फंसू. भारत का तजुर्बा है. खैर, ब्रेक की तो जुबान ही नहीं होती, मैंने तो कितने ही जुबानधारियों को रसूकदारों के आगे मजबूरीवश मूक बने उनके झूठ को सच बना पिसते देखा है.

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ये बंदे इतना क्या मगन हो जाते हैं लड़कियाँ देखने में कि सामने की गाड़ी से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं. मैने आज तक इतने जीवन में कभी किसी से ऐसा किस्सा नहीं सुना कि हाई वे पर जा रहे थे, ये बाजू की कार से निकली, हमने एक दूसरे को ध्यान से देखा. फोन नम्बर उछाले और अफेयर हो गया. फिर, हाई वे पर चलते एक दूसरे को देखकर अफेयर हो जाने की संभावना से कहीं ज्यादा संभावना इस बात की है कि आप चले जा रहे हैं और आसमान से बिजली गिरी और आप मर गये या आप हाई वे पर कार भगाये जा रहे हैं. आप को हार्ट की बिना किसी पूर्व शिकायत के हार्ट अटैक आ गया, आपने किसी तरह गाड़ी किनारे लगाई मगर जब तक एम्बूलेन्स आदि पहुँचती, आप गुजर गये. बाद में मित्र रिश्तेदार जरुर नम आँख लिए बात करते दिख जायेंगे कि अगर समय पर ईलाज पहुँच गया होता या दवा मिल गई होती तो भैय्या बच जाते. मगर ज्यादा बलवति संभावनाओं का ज्ञान होते हुए भी कोई व्यक्ति जिसे हार्ट की पूर्व शिकायत न हो, अपनी गाड़ी में सॉरबिट्रेट या ऐसी जीवन रक्षक दवा रख कर नहीं चलता मगर लगभग नगण्य संभावना वाली घटना की आशा बांधे बाजू की कार में लड़की को देखते हुए जाने कितने सामने की कार से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं. ऐसा एक दो बार नहीं, अनेकों बार हुआ है. शायद, मानव स्वभाव हो मगर है बड़ा रिस्की और ऐसा होता हमेशा ही दिख जायेगा.

यही आदत होती है और हम जीवन रुपी गाड़ी चलाते समय भी इससे छुटकारा नहीं पा पाते. ऐसी वस्तु की लालसा पाले अपना ध्यान भटका लेते हैं जो हमारे लिए है ही नहीं या जो हमारा उद्देश्य कभी थी ही नहीं या जिसे पाने की संभावना लगभग नगण्य है मानो मृग मरिचिका सी भटकन और इस चक्कर में अपने मुख्य उद्देश्य से, मंजिल से तो कभी संबंधों से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं और फिर सफाई में दोष ब्रेक जैसे किसी भी मूक पर मढ़ देते हैं. पता है वो कभी बोलेगा ही नहीं. मगर अंततः नुकसान हमारा ही होता है, भले ही कोई इन्श्युरेन्स कम्पनी मानिंद त्वरित भरपाई कर भी दे लेकिन प्रिमियम में वृद्धि के माध्यम से वसूला तो आपसे ही जायेगा.


संभल कर चलाना
जीवन की इस गाड़ी को
जरा सी चूक
और
कोई भी टकराहट
संबंधों की..
बड़ी से बड़ी कीमत
चुकाने के बाद भी
छोड़ जाती है
अपने निशान..
जो नासूर बन दुखते हैं
पूरी यात्रा में..

-समीर लाल ’समीर’

बताईयेगा कि क्या इसे पढ़ कर आपको उस वृतांत के कुछ और हिस्से पढ़ने की उत्सुक्ता है तो कभी प्रस्तुत किया जाये वरना वो किताब उपन्यासिका की शकल में छप कर तो आ ही रही है जल्दी एकाध महिने में. कॉपी बुक करना है क्या ट्रेलर पढ़कर?. :)

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रविवार, सितंबर 19, 2010

तुझे भूलूँ बता कैसे

आज कम्प्यूटर पर वायरस का हमला हुआ. सुबह से मोर्चा संभाला हुआ है उनके खिलाफ. देखिये, क्या नतीजा निकलता है. अच्छा है कि ९७% कम्प्यूटर का बैक अप है. याने चार दिन पहले तक का. टेंशन डाटा लूज करने की हमेशा ज्यादा होती है तो उससे मुक्त हूँ. बस, आपसे पूछना चाह रहा था कि आपके पास बैक अप है अपने कम्पयूटर का? क्यूँकि जिस तरह एक आतंकवादी नहीं जानता कि हमले में वो किसे मार रहा है, और किस समय कर रहा है, उसी तरह वायरस की चपेट में भी कोई भी आ सकता है कभी भी. अपनी सुरक्षा का इन्तजाम खुद करें. हर समय तैयार रहें बैक अप के साथ.

अब मौसम जा रहा है. सर्दियाँ लगने को है. फल सब्जी जो भी बगीचे में हुए, तोड़ लिए गये या तोड़े जा रहे हैं. खूब खीरे, मिर्च, टमाटर, चेरी, नाशपाती खाई गई बगीचे की. कल सेब की अंतिम खेप भी तोड़ ली और लौकी (भ्रष्टाचार से तेज गति से बढ़ी) कल तोड़ी जायेगी. तो सेब और लौकी की तस्वीरें:



इन्हीं वजहों के चलते कुछ लिखना नहीं हुआ, बड़ी मिटती उड़ती फाईलें, उनका बचाव दिन ले गया तो बीच में नजर पड़ी अपनी एक पुरानी कविता पर जिसे मैं मंचों से अक्सर सुनाता हूँ मगर आश्चर्य कि वो मेरे ब्लॉग पर नहीं है. न जाने कैसे छूट गई. तो आज वो ही:


तुझे भूलूँ बता कैसे

मैं हूँ इस पार तू उस पार, मगर दिल साथ रहते हैं
हमारे देश में यारों, इसी को प्यार कहते हैं
मुझे तुम भूलना चाहो तो बेशक भूल जाना पर
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

न जाने कौन सा बंधन, न जाने कैसे रिश्ते हैं
दर्द उस पार उठता है, आँसूं इस पार गिरते हैं
ये हैं अहसास के रिश्ते, इसे तुम नाम मत देना
जैसे फूल में खुशबू, ये हर इक दिल में रहते हैं.

इन्हीं रिश्तों के बंधन से, हुआ जो हाल इस दिल का
कई बीमार कहते हैं, कई लाचार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

मुझे अक्सर रुलाती हैं, सुनहरी याद अपनों की
हमारे साथ के किस्से, लगे है बात सपनों की
मैं उन पत्तों से पूछूंगा, बता दो मुझको मजबूरी
छोड़ कर साथ शाखों का, बना ली तुमने क्यूँ दूरी

यूँ ही रोते बिलखते ही, मिटाने दूरियाँ निकला
हुई है मेरी हालत जो, उसे बेजार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

जहाँ बचपन ये खेला था, गली वो याद रहती है
जहाँ भी जा बसें हम तुम, याद वो साथ रहती है
उन्हीं यादों के साये में, गुजरती रात की घड़ियाँ
यहाँ अक्सर ही दिन में भी, अँधेरी रात रहती है.

हँसता हूँ यहाँ पर मैं, तुम्हारे बिन ही महफिल में,
मेरी जाँ ये समझ ले तू, इसे व्यवहार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

--समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, सितंबर 15, 2010

जिन्दा सूखा गुलाब...

हरि बाबू, टूटती काया, माथे पर चिन्ता की लकीरें, मोटे चश्में से ताकती बुझी हुई आँखें, शायद ८४ बरस की उम्र रही होगी. हर दोपहर अपने अहाते में कुर्सी पर धूप में बैठे दिखते मानो किसी का इन्तजार कर रहे हों.

दो बेटे हैं. शहर में रहते हैं और हरि बाबू यहाँ अकेले. निश्चित ही बेटों का इन्तजार तो नहीं है, क्योंकि हरि बाबू जानते हैं कि वो कभी नहीं आयेंगे. बहु और बच्चों के लिए हरि बाबू देहाती हैं, तो इनके वहाँ जाने का भी प्रश्न नहीं. फिर आखिर किसका इन्तजार करती हैं वो आँखें?

उम्र की मार के कारण हरि बाबू की स्मृति धोखा देती है, पर बेटों से थोड़ा कम. आसपास देखी घटनायें ४-६ दिन तक याद रह जाती हैं. कुछ पुरानी यादें भी और कुछ पुरानी बातें भी, कुछ टीसें-नश्तर सी चुभती. इतना सा संसार बना हुआ है उनका जिसमें वो जिये जा रहे हैं. यही आधार है उनका और उनकी सोच का.

अकेले आदमी की भला कितनी जरुरतें, खुद से थोप थाप कर एक दो रोटी, कभी गुड़ तो कभी सब्जी के साथ खा लेते हैं और अहाते में बैठे-बैठे दिन गुजार देते हैं. बोलते कुछ नहीं.

जब नहीं रहा गया तो एक दिन उनके पास चला गया. पूछ बैठा कि ’चाचा, किसका इन्तजार करते हो?’

हरि बाबू पहले तो चुप रहे और फिर धीरे से बोले,’देश आजाद हो जाता तो चैन से मर पाता.’

मैं हँसा. मैने कहा कि ’चाचा, देश तो आजाद हो गया…. देश को आजाद हुए तो ६३ बरस हो गये. सन ४७ में ही आजाद हो गया था.’

देश तो आजाद हो गया…. सुनते ही एकाएक हरि बाबू के होंठों पर एक मुस्कान फैली और चेहरा बिल्कुल शांत.

हरि बाबू नहीं रहे.

oldman1

चलते चलते:

देखता हूँ जब

उस अँधेरे कमरे की

खिड़की पर रखा

बुझी लौ लिए एक दीपक,

जिन्दा सूखे हुए गुलाब

फंसे हुए गुलदस्ते में

और उस कोने वाली

दीवार से

टिका

टूटे तारों वाला

सितार....

तब दिखती है

इक रोशनी

उठती हुई दिये से

सुनाई देती है एक धुन

तारों से झंकृत

और

महक उठता है

गुलाब की खुशबू से

मेरा तन-मन!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 12, 2010

कुछ शामें और आज का दिन

मालूम तो था ही कि आ रहे हैं मगर कहाँ और कब मिलेंगे, यह आकर बताने वाले थे.

गुरुवार की सुबह बात हुई कि शुक्रवार की शाम को ७ बजे सिनेमा देखकर फुरसत होंगे, तब आ कर ले जाईये. टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में भारत से पधारे हमारे चव्वनी चैप (छाप नहीं) ब्लॉग के मालिक अजय ब्रह्मात्मज को लेने हम पहुँचे घर से ८० किमी दूर, यही विचारते कि अभी खाना खिलवाकर फिर छोड़ने यहीं आना है फिर ८० किमी. ५ बजे शाम से रात १२.३० बजे के बीच हमारी ३६० किमी की ड्राईविंग किन्तु मिलकर इतना आनन्द आया कि पता ही नहीं चला.

८ बजे उनको घर लेकर पहुँचे और फिर जमीं महफिल हमारे बार में. कुछ जाम छलके, अनेको विषयों से लेकर ब्लॉगिंग और फिल्मों की बात चली, भोजन किया गया और फिर उनको होटल छोड़ आये. यादगार शाम थी. अपनी पुस्तक भी उसी दौर में उन्हें टिका दी. कह गये हैं कि पढ़ेंगे. :)

मुलाकात की कुछ तस्वीरें:

 

 

फिर कल शाम अनूप जलोटा जी के साथ गुजरी. एक से एक भजन सुने गये. नई बात जो देखने में आई वो यह कि आजकल उन्होंने भी बीच बीच में कुछ चुटकुले जोड़ना शुरु कर दिया है जिसे पब्लिक ने खूब मस्त होकर सुना. साथ ही चामुंडा स्वामी जी का प्रवचन भी था. तो कल की शाम भी मजेदार गुजरी. उनके चुटकुले की एक बानगी.भजन तो आप यू ट्यूब पर यूँ भी सुन सकते हैं.

आज सुबह से ही एक मित्र के घर जाना हो गया बार-बे-क्यू का इन्तजाम, शहर से १०० किमी दूर. अभी लौटे.

शाम अजय भाई भारत वापस निकल गये. फोन से बातचीत हो गई. उन्होंने हमारी तारीफ की, हमने उनकी. बाय बाय हो गई. अभी वो हवाई जहाज में होंगे.

ये सब इसलिए सुनाया कि इन सब के बीच कुछ लिखने का मौका नहीं लगा, तो आज ये ही. :)

तो आज के लिए:

 

चाहता

तो लिख देता

एक कविता

तुम्हारे लिए

लेकिन

जब कविता

कुछ कह न पाये

तब सोचता हूँ

बेहतर है

चुप रह जाये!!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, सितंबर 08, 2010

नीरो बाँसुरी बजाता है...

गुजरा वक्त लौट कर नहीं आता फिर भी सताता बहुत है.

अवसाद में न घिर जाऊँ इसीलिए डायरी नहीं लिखता. पहले लिखता था. बंद कर दिया. कई बार कलम उठाई, फिर रख दी.

एक गुलाब तोड़ लाया था बगीचे से. कांटा चुभ गया. कुछ देर गुलाब महकता रहा फिर मुरझा गया. ऊँगली में कांटा चुभने का दर्द बना रहा. मुरझाया फूल फेंक दिया.  ऊँगली में जहाँ कांटा गड़ा था, उसे छूकर देखा, तेज दर्द बना है. आँख से एक छोटी सी बूंद लुढ़क चन्द लम्हों में दम तोड़ती है. दर्द कुछ कम तो हुआ.

कुछ ही पन्ने लिखे हुए डायरी के. पन्ने भूरे से हो गये हैं. ज़िल्द की प्लास्टिक उखड़ने को है. अब नहीं लिखता डायरी वरना तो ज़िल्द कब का उखड़ गया होता. क्या लिखा है याद नहीं. पढ़ने का दिल भी नहीं.

डायरी से इतर कुछ घटनायें जेहन में कहीं अंकित हो गई हैं. सबको बसेरा चाहिये. बेहतर होता डायरी में लिखकर संदूक में बंद कर देता. जेहन पर अंकित हैं तो साथ साथ घूमती हैं हर वक्त.

जेहन पर अंकित हर्फ धुँधलाते नहीं. सफ्हे भी उजले के उजले.

हर की पौड़ी- हरिद्वार. गंगा आरती. कुछ यादें दोने में जला कर बहा देता हूँ. दूर जाते देखता हूँ उन्हें. बह गईं? भ्रम है शायद. पाप पुण्य बहते नहीं. पंडा अपने हिस्से के पैसे ले गया. प्रसादी में पेड़ा. ज्यादा मीठा खाकर मूँह में कसैलापन भर जाता है.

रेल भागी जा रही है. दरवाजे पर खड़ा अंधेरे में झांक रहा हूँ. दूर गांव में टिम टिम बत्ती. वो भी पीछे छूटती.

नीरा नाम है उसका. सामने की बर्थ पर. अम्मा ने उसे पुकारा, तो मैं जान गया. वो, उसकी अम्मा और बाबू जी. अगले स्टेशन पर तीनों उतर गये. कौन सा स्टेशन? क्या पता-कोई गांव, अंधेरे में नाम ही नहीं दिखा.

खिड़की से आती हवा सर्द है. कोई बड़ा स्टेशन आने को है. चाय पीने का मन है.

कौन से झौंके के साथ नींद आई-आँख खुली तब ट्रेन मेरे स्टेशन पर रुक रही है.

गरमा गरम चाय..चाय गरम. नहीं ली.

रिक्शे वाला बुढ़ा है, धीरे धीरे चल रहा है.

तिवारी जी टहलने निकल पड़े हैं. उनकी लड़की का नाम भी नीरा है.

डायरी मैं अब नहीं लिखता, कहीं अवसाद से घिर न जाऊँ.

नारंगी सूरज निकल रहा है. घर पर क्यारी में एक गुलाब ऊगा है-लाल रंग का.

ऊँगली को हल्का सा दबा कर देखता हूँ वहाँ जहाँ कांटा गड़ा था, दर्द नहीं है फिर आँख से ये बूंद कैसी? 

 

flute

 

वो
चुपके से
होले होले
कदम संभालते
बढ़ चला है
जाने किस ओर
गीली मिट्टी
उतार लेती है
पद चिन्ह
अपने सीने पर
और
बुढ़ा शजर
बाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में.

-आज फिर
नीरो बांसुरी बजा रहा है!!
न जाने क्यूँ??

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 05, 2010

अक्सर दिल करता है मेरा

अक्सर दिल करता है मेरा

चलूँ, बादलों के पार चलूँ
देखूँ, कहाँ रहता है वो चाँद
जो झाँकता है अपनी खिड़की से
मेरी खिड़की में सारी रात

चलूँ, उन पहाड़ों के पार चलूँ
देखूँ, कहाँ से आता है सूरज
जिसे देख मेरा चाँद
छुप जाता है
जाने किस परदे की ओट में

चलूँ, नदी की गहराई में चलूँ
मिलूँ, उन मछलियों से
जिनके साथ भी रहता है
एक चाँद
उस रात झील में देखा था उसे

चलूँ, गली के उस मोड़ तक चलूँ
देखूँ, उस कोने वाले मकान को
जहाँ रहती हो तुम..
और साथ दिखती है
चाँद की परछाई...

-समीर लाल ’समीर’

यहाँ सुनिये:

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बुधवार, सितंबर 01, 2010

ओ यारों ये इंडिया बुला लिया...मानो उल्लू बुला लिया!!

पहले दिवाली में गुनिया लोग उल्लू बुलाया करते थे याने वो मंत्रों और तन्त्रों की सहायता से उल्लू को इंसानों की आवाज में बुलवा लेते थे और अपने जंतर सिद्ध किया करते थे. अक्सर सुना करता था कि फलाने गुनिया नें उल्लू बुला लिया और सिद्ध हो चला.

कभी एक्चूवल उल्लू को इन्सानों की आवाज में बोलते तो नहीं देखा और न ही उसे इन्सानो सी हरकत करते देगा है यद्यपि कई इन्सानों को उल्लू की हरकत करते तो हमेशा ही देखता आया हूँ मगर फिर भी जब भी सुना कि किसी गुनिया ने उल्लू बुला लिया तो फिर क्या कहना उस गुनिया का. मानो उसकी किस्मत खुल गई. उसी गुनिया से सब उपाय पूछें हर परेशानी का. लोगों की परेशानी हल हो या न हो मगर उसने उल्लू बुला लिया तो उस पर पैसों की बरसात तय है. उसकी परेशानी तो हल हुई ही समझो.

आज कॉमन वेल्थ का थीम सॉन्ग सुना तो न जाने क्यूँ उस गुनिया वाली बात की याद हो आई जबकि उसका इससे कुछ लेना देना नहीं है.

cwg

कल जब यह गीत सुन रहा था तो मुझे एक बार फिर कवियों पर गुस्सा आया. न जाने क्या सोच कर गीत लिखते हैं कि सामने वाला गीत पढ़ेगा या उनका दिमाग? जाने क्या चल रहा होता है दिमाग में और उसे शब्द दे देते हैं, फिर यह आप पर छोड़ देते हैं कि चलो अब लगाओ इसका अर्थ अपने हिसाब से.

मेरा इतना सा निवेदन करने का मन करता है कि जो भी दिमाग में हो वो लिख दो, फिर उसे कविता के फार्म में सुना देना याने कविता लिखो तो भावार्थ के साथ. जो भाव तुम्हारे मन में हो. हम पर मत डिपेन्ड करो कि हम अटकल लगायें.

बचपन से हिन्दी की पर्चा हल करते करते यह गुस्सा एक एक बूँद बन कर भरता चला आया है. वो मुझे डर है कि यह बूँद बूँद कर बचपन से भरता गुस्सा किसी दिन ज्वालामुखी की शक्ल में न फट पड़े. खैर, अभी तो थामे हैं.

हर परीक्षा में होता था कि फलाने कवि की इन पंक्तियों का भावार्थ संक्षिप्त में बताईये और हम लगे हैं पास होने के जुगाड़ में अपनी अटकल को शब्द देने में. वो तो कविता लिखकर रोयल्टी खा पी कर किनारे हो लिए और पसीने हमारे निकल रहे हैं. अधिकतर तो स्वर्गवासी ही होते थे, अतः पूजनीय भी और उनके चक्कर में हम पहले मास्साब से लात खा रहे होते थे और फिर पिता जी से. जाने क्यूँ पाठयपुस्तक में छपने के पूर्व अधिकतर स्वर्गवासी हो लेते थे, शायद यह हमारे संस्कारों और संस्कृति का भावार्थ हो कि स्वर्गवासी को बड़ा सम्मान मिलता है. जिन्दा रहने पर भले कोई आपको सुने न सुने, मरते ही पहले तो पदवी स्वर्गवासी की और फिर आपके बताये मार्ग पर चलना ही सच्ची श्रृद्धांजलि.

इस गीत को सुन कर भी वही भावार्थ वाली बात दिमाग में आई. अपनी अटकल लगाने का सिलसिला शुरु हुआ. अब आप कॉपी जाचों तो पता चले कि सही के आसपास है कि नहीं. कवि तो फैशन के हिसाब से भावार्थ देने से कतरा ही लिए. थीम और लोकेशन के ज्ञान से उन कविताओं का अर्थ निकाला करते थे तो सो ही यहाँ भी किया.

ओ यारों ये इंडिया बुला लिया

-देखा न?? कैसा बेवकूफ बना कर बुला लिया जबकि हमारी तो तैयारी पूरी है ही नहीं, बस दिखावे के लिए फटाफट लीपापोती में जुटे हैं और रही खेल की बात, तो वो तो हमें खेलना आता ही नहीं. ओलम्पिक से लेकर किसी भी टूर्नामेन्ट का रिकार्ड उठा कर देख लो, हम अपने मूँह से क्या कहें? हमारे पास तो खिलाड़ी ही नहीं है जो जीत सकें..जो जीत सकने लायक तैयार होते हैं वो मॉडलिंग में चले जाते हैं. आजकल हमारे यहाँ खेल के लिए मेहनत कर अच्छा प्रदर्शन करना मॉडलिंग और ग्लैमर की दुनिया में सिक्का जमाने पहुँचने का राजमार्ग है और उतने तक ही अच्छा प्रदर्शन सीमित है. फिर भी देखो, कैसे सब के सब को बुला लिया मानो सबसे बड़े तीस मार खाँ हम ही हैं.

तभी तो कह रहे हैं: यारो, बुला लिया. खैर तुम्हें बुला तो न सिर्फ खेलों के लिए लिया बल्कि:

दीवानों ये इंडिया बुला लिया

सारे होटल, बार, डिस्को सजवा दिये हैं और यहाँ तक की कोठे भी ठीक करवा लिए. ढेरों एस्कार्ट वेब साईटें लॉन्च कर दीं..हिन्दुस्तानी से लेकर विदेशी तक, हर रेट रेन्ज में सरकारी सहमति से इन्तजाम है. दीवानों चले आओ..

दीवानों ये इंडिया बुला लिया

ये तो खेल है, बड़ा मेल है

-ये वो खेल है जिसमें पूरे मेल जोल के साथ एवं संपूर्ण खेल भावना के साथ, सब ठेकेदार, नेता, अधिकारी रह रहे हैं, खा रहे हैं, पी रहे हैं..ऐश कर रहे हैं...

मिला दिया..

पूरे भारत की इज्जत को मिट्टी में मिला दिया..मिला रहे हैं. पूरा विश्व जान रहा है कि भारत का सदी का सबसे बड़ा घोटाला इसी कॉमन वेल्थ (साझा संपति) के माध्यम से हो रहा है..इतना ही नहीं, फिर से कहा...

मिला दिया………….

मिला दिया न मिट्टी में पूरे भारत की तरक्की का सपना भी इज्जत के साथ साथ. हे हे, मिला दिया..ले ठेंगा, जो करना हो सो कर लो..सब मिले हैं, सबको मिला लिया..सबको मिला दिया..तुम कुछ नहीं कर सकते..बस गीत सुनो..सुरबद्ध..रहमान की आवाज में..

रूकना रूकना रूकना रूकना रूकना नहीं

रुकना मत..सुनते रहो..अभी समय बाकी है..अभी तो हम और खायेंगे..रुकेंगे नहीं..मना किया है - रुकना नहीं..खाते चलो..अभी समय बचा है. बाद में ऐसा मौका हाथ नहीं लगेगा..बस, एक महिना और...

हारना हारना हारना हारना हारना नहीं

जो हारा वो बेवकूफ कहालायेगा..उसने एक करोड़ बनाया, तुम दो करोड़ बनाओ और जीत जाओ..यही होड़ है सब अधिकारियों, नेताओं और ठेकेदारों में....हारना मत..जीतना ही ध्येय है. जीत कर दिखा दो...हारना नहीं..

चलो न सिर्फ

सिर्फ चलते रहने से कुछ न होगा..साथ साथ कमाते चलो...चलो न सिर्फ..याने कमाओ भी...खाओ भी..खिलाओ भी...पैसा खिलाओ, दावत खिलाओ..शराब पिलाओ..मजे कराओ..खूब कमाओ..मगर सिर्फ चलो नहीं.

करो न सिर्फ

काम सिर्फ दिखावे को करो कि काम चल जाये...बाद किसने देखा है. सिर्फ करते रहे तो करते ही रह जाओगे..मैदान मारो...लगे कि काम कर रहे हो मगर तुम तो याद रखो कि अपना ही नहीं, अपने परिवार और आने वाली पुश्तों का इन्तजाम कर रहे हो..

मैदान मारो !!

मैदान मार गये तो बाद में कोई कुछ नहीं पूछने वाला वरना पछताओगे...यहाँ तक कि जो पकड़ायेंगे वो वहीं होंगे जिन्होंने मैदान नहीं मारा होगा मारना तो दूर देखा भी न होगा.. पूछ उसी की होगी जो मैदान मार जाये. हमेशा मैदान मारा ही विजेता कहलाता है...एक बार मैदान मार लो फिर

Lets go

Lets go

- Lets go to Switzerland...वहीं जमा करा देंगे. घूम भी लेंगे. सेकेन्ड हनीमून भी मना लेना..वहाँ के जमा पैसे की चर्चा भले ही कितनी भी हो जाये मगर होता जाता कुछ नहीं...बस, Lets go..हल्ला मचता रहेगा कि पैसा वापस आ रहा है..आयेगा जायेगा कुछ नहीं..इत्मिनान से जमा कराओ...

जियो, उठो, बढ़ो, जीतो

जियो, उठो, बढ़ो, जीतो…..

यही काम आयेगा...सारी दुनिया कहेगी जियो..जब जेब में पैसा होगा...वैसे भी बिना पैसे कैसे जिओ..बेकार है..फिर जब पैसा हो तो उठो..तब भला बैठेगा कौन..जब बैठना नहीं है तो बढ़ो.. बढ़ चल बेटा पैसे भर कर जेब में...तभी तू जीता कहलायेगा...कहता हूँ न जीतो..तब जियो..वरना मरा हुआ तो बाकी का हिन्दुस्तान है ही..उनके लिए थोड़ी न है कि

ओ यारों ये इंडिया बुला लिया

--ये सिर्फ उनके लिए है जिन्हें हमने बेवकूफ बना कर बुला लिया है..अपना काम बन गया अब हारे या जीतें...मगर शुभकामना तो दे ही सकते हैं कॉमन वेल्थ गेम्स की.

इसीलिए तो इस बार नहीं कहा ’ जय हो’ ..खुद को तो हम जानते ही हैं. बेवकूफ बनाते हैं, बेवकूफ हैं नहीं.

पूरा गाना तो और भी है मगर इतना ही काफी है कम्पलीट बात समझ आने को. पूरा पढ़ना चाहो तो यहाँ क्लिक कर लो, मगर इससे ज्यादा निष्कर्ष क्या निकालोगे??

-अब क्या है भई, सुनना भी है गाना तो लो सुनो:

नोट: यह भावार्थ मेरी दिमागी अटकल के हिसाब से है. हो सकता है गलत हो और मुझे बचपन याद आ जाये जीरो अंक प्राप्त करके.

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रविवार, अगस्त 29, 2010

चकमित पत्नी!!

एक दिन अजय , हमारे एक मित्र  मिले. फुटबाल का मैच देखने आये थे. एक आँख दबा कर मुस्कराते हुए अजय ने खुलासा किया कि पत्नी से छिपा कर आया है. पत्नी से कह दिया है कि दफ्तर का काम है. यह बात अजय ने पूरे मैच के दौरान अलग अलग विषयों पर छिड़ी बातचीत के दौरान तीन बार बताई.

वहाँ हम सब मिलाकर करीब पाँच मित्र थे और हमारे एक मित्र विकास पत्नी से अनुमति न मिल पाने के कारण नहीं आये थे.  अजय ने विकास को शिद्दत से अव्वल दर्जे का बेवकूफ ठहराया और कहा कि उसे अकल ही नहीं है कि पत्नी को कैसे चकमा देना है. हालांकि यह अकल तो हममे भी नहीं है किन्तु चूँकि हम वहाँ मौजूद थे, अतः इस इल्जाम से बच गये.

अगले दिन विकास मिला तो हमने उसे अजय के बारे में भी बताया कि कैसे वो पत्नी को चकमा देकर आया था, तुम भी क्यूँ नहीं कुछ तरीके सीखते कि ऐसे मौको पर निकल सको? वरना तो सीधे सरल तरीके से कौन सी पत्नी अकेले किसी को दोस्तों के साथ मौज मनाने जाने देगी. विकास बोला कि जब तुम लोग मैच देखने गये थे तो अजय की वाईफ तो हमारे घर आई थी और मेरी पत्नी से उसने पूछा भी कि भाई साहब मैच देखने नहीं गये अजय के साथ?

पता नहीं कौन किसको चकमा दे रहा है मगर अजय यह सोचते रहे कि उन्होंने पत्नी को चकमा दे दिया और उधर पत्नी जानबूझ कर चकमित रही.

वैसे इस बात के लिए महिला शक्ति को नमन करता हूँ (यूँ तो हर बात के लिए करता हूँ) कि भगवान और भारतीय पुलिस के बाद यदि कोई है जो जब तक खुद न चाह ले, आप उससे छिपा कर कुछ नहीं कर सकते, तो वो सिर्फ माँ और पत्नी ही है. अकसर हम प्रफुल्लित होते हैं, शादी के पहले माँ को बेवकूफ बना कर और शादी के बाद पत्नी को किन्तु यकीन जानिये वो सिर्फ आपका आत्मविश्वास और सम्मान बरकरार रखने के लिए बेवकूफ बनती है वरना वो पूरी बात तब ही जान चुकी होती है जिस वक्त चकमा देने के विचारमात्र आपके दिमाग में जनम लेता है.

वही हाल तो भारतीय पुलिस का है. चोरी और अपराध तो बहुत बाद में होते हैं मगर उसकी पूरी खबर इनको पहले से होती है. अगर ये ठान लें तो अपराध हो ही नहीं सकते.

भारतीय पुलिस कानून की मर्यादा एवं संविधान का सम्मान एवं उन सबके उपर अपनी उपरी कमाई बनाये रखने के लिए मेरी बात से जरुर इन्कार करेगी और वो ही हाल माँ और पत्नियों का होगा जो एक पुरुष की मर्यादा का सम्मान एवं उसका अह्म भाव बरकरार रखने के लिए इस बात को शायद न मानें, मगर है तो ऐसा ही.

तो अगली बार जब माँ या पत्नी को चकमा देने का ख्याल मन में आये तो याद रखना और एक बार सोच कर देखना कि कौन किसको चकमा दे रहा है और किसने किसको बेवकूफ बनाया.

अब ये देखो बेचारे ने कैसे आँसूं बहाते हुए प्रीत की पाती लिखी है.

चलो, इसी बात पर गज़ल के नाम पर एक चकमा :)  बताना जरुर कि चकमा दे पाया कि नहीं वरना फिर उपर भारतीय पुलिस, माँ और पत्नी के साथ हिन्दी ब्लॉगर भी शामिल किया जाये:

मंत्र कुछ सिद्ध  जाप लें तो चलें
तिलक माथे पे थाप लें तो चलें

सुनते हैं बस्ती फिर जली है कोई
चलो हम आग ताप लें तो चलें

मिली है पांच साल को  कुर्सी
नोट दिन-रात छाप लें तो चलें

जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं
कफन ख़ुद अपना नाप लें तो चलें

आम लोगों में अब रहें क्यूँ ’समीर’
पाल आस्तीं में सांप लें तो चलें

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अगस्त 25, 2010

शीर्षक की तलाश!

 

एक किताब का शीर्षक तलाश रहा हूँ कि क्या रखूँ?

वैसे तो कुछ फार्मुले पता चले हैं बेस्ट सेलर बनाने के. कहते हैं इसके लिए शीर्षक का बहुत महत्व है. वही तो सबसे पहले आकर्षित करता है पाठक को किताब खरीदने के लिए.

मुझे समझाया गया कि शीर्षक कभी सीधा मत रखो वरना न तो किताब कोई खरीदेगा और न ही कोई आपको साहित्यकार मानेगा.

उदाहरण देते हुए उन अनुभवी सज्जन (साहित्यकार)(बेस्ट सेलर) ने बताया कि जैसे अगर उपन्यास का नाम मम्मी (Mummy) या बहन(Sister) रखो तो कौन खरीदेगा भला. शीर्षक को happening बनाओ. जैसे मम्मी की जगह लिखो, माई फादर्स वाईफ (My Father's Wife) और बहन की जगह माई मदर्स डॉटर (My Mother's Daughter).

पड़ोसन लिखने में वो बात कहाँ जो नेबर्स वाईफ लिखने में है.

याद आता है कि यूँ भी गुलाब लिख देने पर जेहन में अक्स लाल गुलाब का ही उभरता है मगर ’लाल गुलाब’ लिखने की बात अलग है. एकदम स्पष्ट.

अब चूँकि किताब तो छपवानी ही है और हिन्दी में भला क्या बेस्ट सेलर-दो चार बेच लो तो कम से कम अपने पेड प्रकाशक के तो बेस्ट सेलर हो ही लिए. विश्व के न सही, देश के ही सही, वरना प्रदेश, शहर, मोहल्ला, कहीं के तो हो ही लेंगे, तब क्यूँ न ऐसा ही कुछ भड़कीला शीर्षक तलाशा जाये. आखिर संतोषी जीव हैं.

वैसे बाँये हाथ से लिखता हूँ तो ख्याल आया था कि ऐसा कुछ रख दूँ: ’बाँये हाथ में लड़खड़ाती कलम’ या ’उल्टे हाथ में सीधी कलम’- कैसा रहेगा?

आप सोच रहे होगे कि भई, कहानी तो बताओ जिसका शीर्षक रखना है..कैसी बातें पूछते हैं आप? उनसे कुछ तो सीखो जो पुस्तक की प्रस्तावना या पुस्तक के बारे में दो शब्द (चार पन्नों में) तक बिना पुस्तक पढ़े या देखे लिख डालते हैं. मुद्दा इतना है कि आप उन्हें कितना जानते हैं.

तो कहानी- उसकी चिन्ता न करें. एक पैराग्राफ शीर्षक आधारित कहीं भी एडजस्ट करके जस्टीफाई कर देंगे, आप तो बस जरा तड़कता भड़कता शीर्षक बताओ और यह गज़ल पढ़ो. महावीर ब्लॉग पर कुछ समय पूर्व छप चुकी है.

अकेले चले हो किधर धीरे-धीरे
युं ही क्या कटेगा सफ़र धीरे-धीरे

दुआओं की खातिर किये थे जो सज़दे
सभी को दिखेगा असर धीरे-धीरे

पिलाई है तुमने जो आँखों से मदिरा
चढ़ेगी वो बन के ज़हर धीरे-धीरे

रहूँगी मैं ज़िंदा सजन बिन तुम्हारे
चलेगी ये सांसें मगर धीरे-धीरे

नहीं मैंने सोचा, जुदा तुमसे होकर
कि बरपेगा ऐसा क़हर धीरे-धीरे

उसे बोलते हैं नज़र का मिलाना
खुशी से मिली हो नज़र धीरे-धीरे

कभी तो कहो प्यार से बात मन की
बना लो मुझे हमसफ़र धीरे-धीरे

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, अगस्त 22, 2010

एक सफ़हा

कुछ जरुरत से ज्यादा व्यस्तताओं ने घेर रखा है. बस, दो दिन और फिर सब पूर्ववत!!

page

 

कुछ उधड़े कुछ जुड़े रिश्ते
चन्द पोशीदा से ज़ज्बात
धुँधली पड़ती कुछ यादें
दिल के फ्रेम में जड़ी
धूल खाई दो चार तस्वीरें
पुश्त पर लदी
मेरे अरमानों को थामे
पैबंद लगी एक गठरी..
आँगन वाले नीम के नीचे पड़ा
तेरी पायल से टूटा घुंघरु...
खिड़की से दिखता
एक मुट्ठी भूरा आसमान
बस! इतना है मेरा
पूरा जहान!!

-एक सफ़हा काफी है
मेरी कहानी कहने को.

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अगस्त 18, 2010

एक बेहतरीन कलाकार, गायक एवं इंसान: मिलिये इनसे

आज आपको मिलवाता हूँ एक बेहतरीन कलाकार, गायक और उससे भी उपर एक बेहतरीन इन्सान श्री राजेन्द्र स्वर्णकार से. न कभी मुलाकात हुई, न कभी बात. बस, इन्टरनेट और ब्लॉग के माध्यम से परिचय हुआ और एक आत्मियता का रिश्ता कायम हो गया.

सिलसिला जारी रहा और उन्होंने एक दिन अपनी पसंद से मेरे दो गीतों को अपनी आवाज में रिकार्ड करके भेजा. गीत सुनने के बाद आप सबको सुनवाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया और आज वही प्रस्तुत करता हूँ.

भाई राजेन्द्र स्वर्णकार का ब्लॉग शस्वरं है और उस ब्लॉग पर उनकी एक से एक बेहतरीन कृतियाँ उपलब्ध हैं. उनका परिचय, उन्हीं की जुबानी:

मोम हूं , यूं ही पिघलते एक दिन गल जाऊंगा फ़िर भी शायद मैं कहीं जलता हुआ रह जाऊंगा... मूलतः काव्य-सृजक हूं। काव्य की हर विधा में मां सरस्वती की कृपा से लेखनी निरंतर सक्रिय रहती है। अब तक 2500 से अधिक छंदबद्ध गीत ग़ज़ल कवित्त सवैये कुंडलियां दोहे सोरठे हिंदी राजस्थानी उर्दू ब्रज भोजपुरी भाषा में लिखे जा चुके हैं मेरी लेखनी द्वारा । 300 से भी ज़्यादा मेरी स्वनिर्मित मौलिक धुनें भी हैं । मंच के मीठे गीतकार-ग़ज़लकार के रूप में अनेक गांवों-शहरों में काव्यपाठ और मान-सम्मान । आकाशवाणी से भी रचनाओं का नियमित प्रसारण । 100 से ज़्यादा पत्र - पत्रिकाओं में 1000 से अधिक रचनाएं प्रकाशित हैं । अब तक दो पुस्तकें प्रकाशित हैं- राजस्थानी में एक ग़ज़ल संग्रह रूई मायीं सूई वर्ष 2002 में आया था , हिंदी में आईनों में देखिए वर्ष 2004 में । कोई 5-6 पुस्तकें अभी प्रकाशन-प्रक्रिया मे हैं! स्वय की रचनाएं स्वयं की धुनों में स्वयं के स्वर में रिकॉर्डिंग का वृहद्-विशाल कार्य भी जारी है। चित्रकारी रंगकर्म संगीत गायन मीनाकारी के अलावा shortwave listening और DXing करते हुए अनेक देशों से निबंध लेखन सामान्यज्ञान संगीत और चित्र प्रतियोगिताओं में लगभग सौ बार पुरस्कृत हो चुका हूं । CRI द्वारा चीनी दूतावास में पुरस्कृत-सम्मानित … … और यह सिलसिला जारी है … !!

तो चलिए अब आपको अपने दोनों गीत उनके स्वर में:

गीत

मैं जो भी गीत गाता हूँ, वही मेरी कहानी है
मचल जो सामने आती, वही मेरी जवानी है
मैं ऐसा था नहीं पहले, मुझे हालात ने बदला
कोई नाजुक बदन लड़की, मेरे ख्वाबों की रानी है.

नहीं उसको बुलाता मैं, मगर वो रोज आती है
मेरी रातों की नींदों में, प्यार के गीत गाती है
मेरी आँखें जो खुलती हैं, अजब अहसास होता है
नमी आँखों में होती है, वो मुझसे दूर जाती है.

मगर ये ख्वाब की दुनिया, हकीकत हो नहीं सकती
थिरकती है जो सपने में, वो मेरी हो नहीं सकती
भुला कर बात यह सारी, हमेशा ख्वाब देखे हैं
न हो दीदार गर उसके, तो कविता हो नहीं सकती.

-समीर लाल ’समीर’

गज़ल: (यह गज़ल एकदम ताजा है, जो आपने अभी तक नहीं पढ़ी है.)

हमारी महफिल में आज आ कर, हमीं को हमसे मिला रहे हो.
अभी तो तुमसे जमीं न संभली, क्यूँ आसमां को हिला रहे हो.

तुम्हें यह लगता है बिन तुम्हारे, यूँ महफिलें क्यूँ सजी हुई हैं
हमें जलाने की कोशिशों में, क्यूँ खुद को ही तुम जला रहे हो.

गमे जुदाई में जो तुम्हारी, है वो ही हालत हमारी होगी
तुम्हें तो हम यूँ मना भी लेंगे, हमें क्यूँ आखिर रुला रहे हो

तुम्हें मुबारक तुम्हारी शोहरत, हमें भला क्या मलाल होगा
ये नाम बख़्शा है जिसने उसको मिटा के दे क्या सिला रहे हो.

नशा तुम्हारी आँख में जो, डूबा डूबा कर ये होश ले लो
न जाने क्यूँ मैकदे में लाकर, मुझे तुम इतना पिला रहे हो.

हवा की जो तुम सदायें सुन लो, हमारी आहट सुनाई देगी
समीर तेरे ही सामने है, ये किसको फिर तुम बुला रहे हो

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, अगस्त 15, 2010

मुद्दतों बाद….

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

आज एक गज़ल, जो चंद रोज पहले महावीर ब्लॉग पर छपी थी. महवीर ब्लॉग से अपनी गज़ल का छपना एक गौरव की अनुभूति देता है, बहुत आभार महावीर जी एवं प्राण जी का इस इस स्नेह के लिए. देखें इस गज़ल को, एक अलग तरह का प्रयोग है हर शेर के शुरुवात में मुद्दतों बाद के इस्तेमाल का:

 

 

मुद्दतों बाद उसे दूर से जाते देखा
धूप को आज यूँ ही नज़रें चुराते देखा

मुद्दतों बाद हुई आज ये कैसी हालत
आँख को बेवज़ह आंसू भी बहाते देखा

मुद्दतों बाद दिखे हैं वो जनाबे आली
वोट के वास्ते सर उनको झुकाते देखा

मुद्दतों बाद खुली नींद तो पाया हमने
खुद को सोने का बड़ा दाम चुकाते देखा

मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा

मुद्दतों बाद कोई आने लगा अपने सा
रात भर ख्वाब में मैंने उसे आते देखा

मुद्दतों बाद किसीने यूँ पुकारा है "समीर"
खुद ही खुद से पहचान कराते देखा

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अगस्त 11, 2010

कुत्ते- कैसे कैसे?

अन्तर तो खुली आँखों दिखता ही है हर तरफ. तुलना करने की बात ही नहीं है कनाडा और भारत.

मेरा देश भारत मेरा है, उसकी भला क्या तुलना करना और क्यूँ करना?

मगर अब रहता तो कनाडा में हूँ, न चाहते हुए भी स्पष्ट अंतरों पर निगाह टिक ही जाती है, जबकि मैं ऐसा कतई चाहता नहीं. यही तो वजह भी बनता होगा कि हर बार जब भारत जाता हूँ तो सोचता हूँ कि अब लौट कर नहीं आऊँगा और मात्र दो महिने में लगने लगता है कि लौट चलो यार, अब बहुत हुआ.

खैर, यह उहापोह की स्थिति तो बनती बिगड़ती रहती है हर प्रवासी के साथ. यहाँ रहो तो वहाँ, वहाँ जाओ तो यहाँ.

एक बात, यहाँ गलियों में बड़ा सन्नाटा रहता है. मेरे जबलपुर की मुख्य सड़को से बड़ी, साफ सुथरी और गढ्ढा रहित. गाड़ी लेकर चलो, तो आदतन मजा ही नहीं आता. न गढ्ढे, न धूम धड़ाक. गाड़ी चलाते हुए काफी पी रहे हैं मानो ड्राईंग रुम में बैठे हों. सफर में सफर न करें तो कैसा सफर. आदतें तो वो ही हैं न, जो बचपन से पड़ी हैं. फिर मजा कैसे आयेगा.

हाँ तो बात थी गलियों का सन्नाटा. सन्नाटा ऐसा जैसे मनहूसियत पसरी हो. न कहीं से लाऊड स्पीकर बजने की आवाज आती होती है, न दूर मंदिर में होती अखण्ड रामायण के पाठ की आवाज, न जोर जोर से झगड़ते दो लोगों की, न सब्जी वाले की पुकार और न ही रद्दी खरीदने वाला. वैसे तो गली कहना ही इसकी बेज्जती है.  कुत्ता विहिन गलियाँ विधवा की मांग सी सूनी लगती हैं. ठंडी रात में कई बार डर सा लग जाता है कि कहीं मर तो नहीं गये जो शमशान में सोये हैं. न कुत्ता रो रहा है, न ही कोई धत धत बोलता सुनाई दे रहा है. हड़बड़ा कर उठ बैठता हूँ. जब खुद को चिकोटी काट कर दर्द अहसास लेता हूँ तो संतोष हो जाता है कि घर पर ही हूँ, अभी मरा नहीं.

गाड़ियाँ भी निकलती हैं सड़क से. न हार्न, न दीगर कोई आवाज. न गाली गलौज ओवर टेक करने के लिए. अजब गाड़ियाँ है. आवाज क्या सारी भारत एक्सपोर्ट कर दी ट्रक और टैम्पो के लिए? इत्ते भुख्खड़ हो क्या कि आवाज एक्सपोर्ट करके जीवन यापन कर रहे हो.

गलियों में कुत्ते न दिखने का अर्थ यह नहीं कि यहाँ कुत्ते नहीं होते मगर सिर्फ घरों में होते हैं. न जाने कैसे संस्कार हैं उनके? न तो भौंकते हैं और न काटते हैं? कई बार तो उनसे निवेदन करने का मन करता है जब कोई उन्हें घुमाने निकलता है कि हे प्रभु!! आपकी मधुर वाणी सुने एक अरसा बीता. एक बार, बस एक बार, कृपा करते और भौंक देते. जीवन भर आभारी रहूँगा. मगर कनैडियन कुत्ता, काहे सुने हमारी विनती? इन्सान तो सुनने तैयार नहीं, फिर वो तो कुत्ता है.

 

और फिर नफासत और नाज़ों में पले से कैसा निवेदन? उसे क्या पता निवेदन की महत्ता? उसे तो इतना पता है कि घूमने निकले हैं और जहाँ कहीं भी मन करेगा, मल त्याग लेंगे. मालिक तो साथ चल ही रहा है पोली बैग लिए, वो उठा लेगा और फैक देगा लिटर डिस्पोजल में. ये घर जाकर स्पेशल खाना खायेंगे और कूँ कां करके सो जायेंगे अपने गद्देदार मखमली बिस्तर पर एसी में. चोर यहाँ आने नहीं हैं, इनको भौंकना नहीं है. ये मस्त जिन्दगी है. नो टेन्शन!! कुत्तों को देखकर लगता ही नहीं कि कुत्ता हैं.

 

एक हमारे कुत्ते हैं, जिस पर भौंकना चाहिये, उस पर भौंकते नहीं गरीब भिखारी दिखा तो गली के कोने तो भौंकते हुए खदेड़ देंगे. जो दो रोटी डाल दें, उसके घर के सामने पूरी सेवा भाव से डटे रहेंगे और उसके मन की कुंठा के पर्यायवाची बने हर गुजरती कार पर भौंक भौंक कर झपटते रहेंगे. अक्सर तो उस घर पर आने वाले परिचतों पर ही झपट पड़ेगे. लाख पत्थर मारो, भगाओ मगर दो रोटी की लालसा, बस, उसी गली में परेड. गली हमारी, हम गली के मालिक. गली के कुत्ते, सड़क के कुत्ते, मोहल्ले के कुत्ते-किस नाम से नवाजूँ इन्हें!!

कई बार तो अपने नेताओं को सुनकर कि मैं सड़क का आदमी हूँ,  मुझे लगने लगता है कि अम्मा कितना सही कहती थी कि जिनकी संगत करोगे, वैसे ही हो जाओगे. 

इन नेताओं की हरकते देख आपको नहीं लगता कि वैसे ही हो गये हैं, जैसी संगत मिली. जब सड़क के आदमी हैं तो आकाश वालों की संगत तो मिलने से रही. भरे पेट अघाये कहीं भी भौंक रहे हैं बेवजह, किसी को दौड़ा रहे हैं, कहीं भी शीश नवा रहे हैं और बता रहे हैं दूसरे नेताओं को कुत्ता!!!

अखबार में समाचार छपा था कि किसी बड़े नेता ने किन्हीं दो बड़े नेताओं को “किसी बड़े नेता के कुत्ते” कहा! अगर अलग शब्दों में देखें तो कुत्ते ने कुत्ते को किसी कुत्ते का कुत्ता कहा, फिर इस पर बवाल कैसा?

वैसे तो एक और राज की बात बताता चलूँ कि यहाँ के नेताओं को देख कर भी नहीं लगता कि नेता हैं..खुद ही कार चला कर आयेंगे अकेले और कोई पहचानता भी नहीं तो खुद का परिचय देते हुए मुस्कराते हुए हाथ मिलाने लगेंगे. हद है, ऐसा भी कोई नेता होता है मगर फिर वहीं, यहाँ के कुत्ते देख कर भी तो यही लगता है, ऐसा भी कोई कुत्ता होता है!!

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रविवार, अगस्त 08, 2010

वो रिश्ते..

आज कोई भूमिका नहीं. बस, कुछ ख्याल दिल से उपजे हुए:

cash

 

कहते हैं

रिश्ते खून के होते हैं..

या बनते है दिल से..

न जाने क्यूँ

कोई उन रिश्तों की बात नहीं करता

जो उपजते हैं मजबूरी में

पेट की भूख से

और विलीन हो जाते

जिस्म में कहीं!!

शायद जमाने की

चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें

अँधेरे में देख नहीं पाती!!

या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

-समीर लाल 'समीर'

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बुधवार, अगस्त 04, 2010

कैसी हत्या? – लघु(त्तम) कथा और कविता

डॉक्टर का कमरा.

महिला अपनी एक साल की बेटी को गोद में और सोनोग्राफी की रिपोर्ट हाथ में लिए होने वाली कन्या का गर्भापात कराना चाहती है.
तर्क है छोटी छोटी दो बेटियों को कैसे संभालेगी?

डॉक्टर ने सलाह दी कि लाओ, इस गोद में बैठी बेटी को मार देते हैं. फिर बस एक होने वाली रह जायेगी.

महिला स्त्ब्ध!!

यह तो पाप होगा.

आज उसके आँगन से दोनों बेटियों के चहकने के आवाज आती है.

motherdaughter

कोई
हत्या महज हत्या नहीं होती!!
परिस्थिति के अनुरूप
समय की गति में

नहीं होती हत्या
जो  होती हैं बहादुरी
आत्मरक्षा
और
कर्तव्य से प्रेरित

कुछ होती हैं कायरता
लाचारी
और
कमजोरी
जैसे की आत्महत्या

कुछ
मानसिक रुग्णता
यानी कि
विद्वेष, नफ़रत
और
बदले की भावना से जनित

किन्तु

कुछ होती हैं मानसिक विकृतता
भयानक रुप
निरीहता पर प्रहार
जो अक्षम्य है
जैसे की
भ्रूण हत्या!!!

-समीर लाल ’समीर’

(कथा की प्रेरणा एक ईमेल से प्राप्त संदेश है एवं चित्र साभार गुगल)

सूचना:

कुछ दिन पूर्व तरुण जी ने निट्ठला चिंतन पर मेरी पुस्तक बिखरे मोती की शानदार समीक्षा की है, यदि नजर न गई हो तो यहाँ क्लिक करें.

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रविवार, अगस्त 01, 2010

बहुत पहले से उन कदमों की आहट....

आप सभी का जन्म दिन पर दी गई शुभकामनाओं एवं स्नेह के लिए बहुत बहुत आभार.

सूचना

HC_July2010 copy

नए तेवर और नए कलेवर के साथ..''हिन्दी चेतना'' का जुलाई-सितम्बर, २०१० अंक प्रिन्ट हो चुका है. हिन्दी चेतना को आप पढ़ सकते हैं-हिन्दी चेतना या विभोम पर.

इस अंक में प्रकाशित मेरा व्यंग्य आलेख नीचे पढ़िये.

बहुत पहले से उन कदमों की आहट....

footstep

जगजीत सिंह-चित्रा सिंह का गाया "बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते है”...फिराक गोरखपुरी साहब ने यह गाना जाने कब लिखा, किसके लिए लिखा, क्या सोच के लिखा. किसकी तस्वीर सामने थी? मगर रचा तो भारत में गया यह तय है क्यूँकि हमने सुना भी पहली बार वहीं और फिराक साहब रहते भी वहीं थे. यूँ भी उस समय आज की तरह, जैसा की मुझ जैसे लोग कर रहे हैं, भारत की समस्याओं पर भारत के बाहर बैठे कर भारतीयों के द्वारा लिखने का फैशन नहीं आया था.

खैर, बात चल रही है गाने की "बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते है"...

गौरवशाली भविष्यवक्ताओं के महान देश में तो यह मुमकिन हमेशा ही है कि बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लो.

अगले माह मंगल पर शनि की वक्र दृष्टि रहेगी, व्यापार में घाटा पड़ेगा. लो जान ली पहले से उन कदमों की आहट जो अगले महीने आने वाले हैं.

कई तो इन सब भविष्यवाणियों का गणित भी नहीं समझते मगर इस ब्रह्म एवं गुढ़ ज्ञान के आभाव के बावजूद भी आत्मविश्वास का स्तर ऐसा कि वो अपनी बात यहीं से शुरु करते हैं कि अरे, हम तो आपको गारंटी करते हैं कि इस बार बीजेपी सत्ता में आ रही है. न आये तो कहना, जो कहोगे सो हार जायेंगे. अब बीजेपी न आये तो क्या कहें और उनके पास है क्या जो हारेंगे? जहाँ खड़े होकर घोषणा कर रहे हैं उस पान वाले का तो चार महिने का उधार चुका नहीं पा रहे और बात करेंगे कि जो कहो, सो हारे. उनका आत्म विश्वास देख कर कई बार घबराहट होती है मगर ऐसे आत्म विश्वासी हर पान ठेले पर मिल जायेंगे.

मुझे कई बार सही भी लगता है कि बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं... जब अपने देश की पुलिस के बारे में सोचता हूँ.

कोई मर्डर कब होना है? कौन करेगा? किसका होना है? चोरी कहाँ होगी? कौन करेगा? सब पुलिस बहुत पहले से जानती है..मगर अफसोस, यह गाना यहीं खत्म हो जाता है इसलिए शायद वो बाद में नहीं जान पाते कि अपराधी कहाँ गया? बेचारे ढूंढते रह जाते हैं और अपराधी कभी मिलता नहीं.

काश, कोई लिखता कि तू छिपा है कहाँ ये भी हम जान लेते हैं!! तो पुलिस को कितनी सुविधा हो जाती.

मगर लिखने वाले..धत्त, बस इतना लिख कर गुजर लिए और भुगतान देने खड़ा है पूरा भारत देश.

अब देखिये, भविष्यवक्ताओं के ऐसे देश में जहाँ यह गीत लब लब गुनगुनाया जाता हो कि बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं...उस देश में भला देश के तयशुदा भावी प्रधानमंत्री...जो कि युवा शक्ति का नेतृत्व करता हो और जिसे प्रधानमंत्रित्व का विरासती अधिकार हो, उसके कदमों की आहट न जानें. उनका नाम लेना उचित न होगा. हमारे कदम भी तो आहट करते हैं, कहीं वो इनको जान न लें.

ऐसा युवा भावी प्रधानमंत्री एकाएक गांवों की हालत और ग्रमीणों की जीवनशैली को जानने की जिज्ञासा लिए एक गांव में अपना हेलिकॉप्टर उतरवा देता है. इस एकाएक और आकस्मिक दौरे के लिए वो गाँव भी और उसका पूरा प्रशासन विगत दो माह से तैयारी में जुटा है. हेलीपैड भी इस आकस्मिक दौरे के तैयार है और जिस गरीब की कुटिया में भईया जी ठहरेंगे वो भी और साथ है पूरा तंत्र भी. पूरे दिन में एक घंटे को बिजली के लिए आदिकाल से तरसते इस गांव में उनके आकस्मिक प्रवास के दौरान अचानक पूरे समय बिजली रहती है और उस कुटिया में पोर्टेबल ए सी से ठंडाई ताकि भईया जी मूंझ की खटिया पर बिछे डनलप के गद्दे पर एक रात सो सकें. चुल्हे पर ग्रमीण द्वारा बना, पी एम लेब से चखने के बाद एप्रूव, खाना खा कर ग्रमीण की हालत की पहचान करने के बाद उस पर संसद में एक घंटे का मार्मिक भाषण दे सकें, भला ऐसे अमर गीतों के बिना कैसे संभव हो पाता कि बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं.....

जाने कब रच गये फिराक साहब...ऐसा गीत काश मैं रच पाता. अमर हो जाता. कालजयी कहलाता.

कल अखबार में पढ़ता था कि कॉमनवेल्थ खेलों में आने वाले विदेशी अथिति और खिलाड़ी शौकीन मिजाज हैं अतः भारत में गैर कानूनी ही सही (मगर वो भी धड़ल्ले से धंधा कर लेते है क्यूँकि उन्हें भी पहले से पुलिस से ही पता होता है कब पुलिस का छापा पड़ने वाला है..याने वो भी बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं...उन्हें गाना आता है) मगर दिल्ली के कोठों की सबकी सहमति से साज सज्जा, फेस लिफ्ट, एयर कन्डिशनिंग आदि की जा रही है, भले ही हमारे जो खिलाड़ी खेलने वाले हैं, वो आज लॉज का पैसा खुद की जेब से भर पसीना बहाते न सिर्फ प्रेक्टिस कर रहे हैं बल्कि गर्मी से और मच्छरों से जुझते सो भी रहे हैं और सस्ते रेस्टॉरेन्ट की तलाश में पैदल भी चल रहे हैं.

उन्हें जितना दैनिक भत्ता मिल रहा है उसमें न तो ए सी रुम लिया जा सकता है, न ढंग का रेस्टॉरेन्ट और न ही सस्ते रेस्टॉरेन्ट तक पहुँचने की टैक्सी. वो भी तो आहट सुन रहे हैं उन कदमों की, जो विदेशों से आने वाले हैं. जाने कैसे हमारे खिलाड़ियों के कदमों में आहट क्यूँ नहीं? शायद इसीलिए हार जाते होंगे चूँकि बिना आहट के चलते हैं भारत के एक आम आदमी की तरह जिसके कदमों में कोई आहट ही नहीं, जो सरकार भले पहले से नहीं, मगर कभी तो सुन पाती. मुझे लगता है कि हमारे खिलाड़ियों को खेल का रियाज़ करने से ज्यादा अपने कदमों से ऐसे चलने का रियाज़ करना चाहिये कि आहट हो और सरकार जान पाये.

शायद राहू, शानि, मंगल की वक्र दृष्टि के विपरीत, आम आदमी पर सरकार और मंत्रियों की वक्र दृष्टि ज्योतिष पंचाग से आऊट ऑफ सिलेबस हो इसीलिए उन पर यह गीत न लागू होता हो कि बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं...
एक अंतरंग खबर यह भी है कि बम्बई, पुणे, बेंगलौर, कलकत्ता, मद्रास जैसे महानगरों की कालगर्ल्स कॉमन वेल्थ गेम्स के समय स्थानीय ग्राहकों के लिए उपलब्ध नहीं हैं..वो भी विदेशी कदमों की आहट जान गई हैं. डॉलर रुपी घूंघरु बँधे कदमों की आहट छन छन बोलती है न...वो ही बहुत पहले से और दूर से ही सुन रही होंगी.

इसी डॉलर घूंघरु ने तो भारत का ब्रेन ड्रेन कर डाला और हम उनकी आहट सुन कर मुग्ध हुए अपने कोठे ठीक कराने में लगे हैं..

इसीलिए तो मेरा भारत महान..जहाँ का हर नेता पहलवान. बस गीत गाना आना चाहिये कि:

बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं...

-समीर लाल ’समीर’

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