गुरुवार, मई 28, 2015
आऊट ऑफ सिलेबस और बोर्ड एक्जाम!!
सोमवार, मई 25, 2015
आखिर ये अच्छे दिन हैं क्या? : फील गुड फेक्टर
अच्छे दिन आने वाले है! अच्छे दिन आने वाले हैं!
वो रोज रोज सुनता तो था मगर दिन था कि वैसे ही निकलता जैसे पहले निकलता था. कई बार तो वो सुबह जल्दी जाग जाता कि कहीं अच्छे दिन आकर लौट न जायें और उसकी मुलाकात ही न हो पाये. मगर अच्छे दिन का कुछ अता पता न चला और देखते सुनते इन्तजार करते पूरा बरस निकल गया.
थक कर उसने सोचा कि आज स्कूल में मास्साब से पूछेगा. क्या पता शायद अच्छे दिन आये हों और वो पहचान ही न पाया हो. अच्छा परखने का भी तो कोई न कोई गुर तो होता ही होगा.
मास्साब! ये अच्छा क्या होता है? ८ वीं कक्षा को वो नादान बालक अपने मास्साब से पूछ रहा है.
बेटा!! अच्छा वो होता है जो अच्छा होता है, समझे? मास्साब समझा रहे हैं.
लेकिन मास्साब, वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ कि अच्छा होता क्या है?
मास्साब तो मास्साब!! जैसी कि मास्साब लोगों की आदत होती है वो तुरंत ही नाराज हो गये कि एक तो पढ़ाई लिखाई में तुम्हारा मन नहीं लगता उस पर से बहस करते हो. छोटी छोटी बात समझ नहीं आती. चलो, इसको ऐसे समझो कि अच्छा वो होता है जो बुरा नहीं होता है.
याने कि जो बुरा नहीं है वो अच्छा होता है. तो मास्साब, बुरा क्या होता है? बालक की बाल सुलभ जिज्ञासा तो मानो मँहगाई हो गई हो कि हर हाल में बढ़ती ही जा रही थी.
और मास्साब का गुस्सा अब और उबाल पर था मगर एक मर्यादा और एक कर्तव्य कि बच्चों की जिज्ञासा का निराकरण का जिम्मा उन पर है, उन्हें अपने असली रुप में आने से रोके हुए था. उन्हें किसी ज्ञानी का ब्रह्म वाक्य भी याद आ गया कि अगर आप किसी को कुछ समझा नहीं पा रहे हैं तो उसे कन्फ्यूज कर दिजिये. बस इसी ज्ञान के तिनके को थामे उन्होंने फिर ज्ञान वितरण के अथाह सागर में छलाँग मारी और लगे तैरने..
देखो बालक, इतनी सरल सी बात तुम्हें समझ में नहीं आ रही है..इसे ऐसे समझो कि अच्छा वो होता है जो बुरा नहीं होता और बुरा वो होता है जो अच्छा नहीं होता. समझे?
बालक मुँह बाये एक आम आदमी की मुद्रा में, बिना पलक झपकाये मास्साब को देख रहा था और मास्साब गुस्से के साथ साथ उसकी मन्द बुद्दि पर तरस खाते हुए आगे बोले..
वैसे एक बात तुमको बताऊँ कि अगर कुछ अच्छा है न..तो बताना नहीं पड़ता ..वो खुद ही समझ में आ जाता है और अगर बुरा है तो भी उसकी बुराई खुद ही उजागर हो जाती है... उदाहरण के लिए जैसे सोचो.. मिठाई...वो अच्छी होती है इसमें बताना कैसा और गोबर, वो बुरा होता है..खुद ही समझ में आ जाता है न!! अब तो तुमको पक्का समझ आ गया होगा..
मास्साब अपने समझाने की कला पर मुग्द्ध बिहारी की नायिका की आत्म मुग्द्धता के मोड में चले गये मुस्कराते हुए.
लेकिन बालक तो मानो डॉलर की कीमत हुआ हो..हाथ आने को तैयार ही नहीं..
मास्साब!! मेरे दादा जी को शुगर की बीमारी है और अम्मा कहती है कि उनके लिए मिठाई बुरी है और फिर गोबर से तो हमारा आंगन रोज लीपा जाता है..दादी कहती हैं इससे स्वच्छता का वास होता है और स्वास्थय के लिए बहुत लाभकारी होता है. हमारा परिवार तो इसे स्वच्छता अभियान का हिस्सा मानता है.
मास्साब की झुंझलाहट और गुस्से की लगाम अब लगभग छूटने की कागार पर थी मगर फिर भी..एक कोशिश और करते हुए वो बोले..देखो बच्चे, सब मौके मौके की बात है, कभी वो ही बात किसी के लिए अच्छी होती है तो वो ही बात किसी और के लिए बुरी हो जाती है..अगर तुम सब कुछ बुरा बुरा महसूस करने की ठान लो जैसा तुम दिल्ली प्रदेश की सरकार की तकरार में देख रहे हो..तो अच्छा भी बुरा ही लगेगा और इसके इतर अगर अच्छा अच्छा सा महसूस करने की आदत डाल लो तो बुराई में भी अच्छाई का वास महसूस करोगे..
बालक के मुँह में जुबान न जाने कैसे फिसल गई कि ’याने अच्छा बुरा अगर हमारे महसूस करने की कला का ही नाम है तो कोई सरकार क्या अच्छा लाने की बात करती है..और पहले के किस बुरे को बदलने की बात करती है? और...’
बालक अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि मास्साब के सब्र का बाँध टूट पड़ा और उसके साथ ही वो अपनी बेंत लिए टूट पड़े उस बालक पर...और कुटाई के साथ साथ एक ही प्रश्न बार बार...बोल, समझ आया कि नहीं कि और समझाऊँ?
बालक भौचक्का सा..पूर्णतः भ्रमित...बस कुटाई से बचने के लिए..कहता रहा कि मास्साब!! समझ आ गया!
तभी दूर कहीं कलेक्टरेट के मैदान से लाऊड स्पीकर पर किसी बहुत बड़े नेता की आवाज सुनाई दी:
’मितरों, एक बरस में अच्छे दिन आ गये हैं, है कि नहीं?’
समवेद स्वर गूँजे ..आ गये!!
मितरों!! बुरे दिन चले गये कि नहीं?
समवेद स्वर गूँजे ..चले गये!!
मितरों!! जो बुरा काम करते हैं मैने उनके लिए अच्छे दिन की गारंटी नहीं दी थी कभी!!
और इधर ये बालक अपनी बेंत से हुई कुटाई के दर्द को सहलाते हुए सोच रहा था कि शायद उसने मास्साब से पूछ कर बुरा काम कर दिया इसलिए उसकी अच्छे दिनों से मुलाकात नहीं हो पा रही है..
आगे से ध्यान रखेगा और अच्छा अच्छा महसूसस करेगा..
शायद उसमें ही फील गुड फेक्टर मिसिंग है!!
-समीर लाल ’समीर’
रविवार, मई 17, 2015
देश में विकास- यू आर माई रोल मॉडल पापा!!
पापा, ये अंकल तो देश का विकास करने वाले थे फिर बार बार विदेश क्यूँ चले जाते हैं?
बेटा, वो क्या है न, कहते हैं विदेश में संभावना बसती है, उसी को तलाशने जाते हैं.
अरे, संभावना तो फ्रेन्डस कॉलोनी में रहती है. मेरे साथ पढ़ती है मेरे स्कूल में. वो तो कभी विदेश गई भी नहीं तो फिर उसे तलाशने विदेश क्यूँ जाते हैं बार बार. मेरे स्कूल में ही आकर मिल लें.
बेटा, समझने की कोशिश करो. ये वो वाली संभावना नहीं है जो तुम समझ रहे हो. ये वो वाली संभावना है जिसे सिर्फ वो समझ रहे हैं और जिसके मिल जाने पर उनके हिसाब से इस देश का विकास होगा.
याने पापा, देश के विकास के लिए, देश में बसी संभावना जिसका पता मुझे तक मालूम है वो किसी काम की नहीं और उसकी दो कौड़ी की औकात नहीं और विदेश में बसी संभावना, जिसकी तलाश में नित प्रति माह विदेश विदेश भटक रहे हैं वो विकास की लहर ला देगी.. याने जैसे हमारा योग कसरत और चाईना का योग – योगा ताई ची..सेल्फी तो बनती है ताई ची के नाम...मगर ये बात कुछ समझ नहीं आई. पापा ठीक से समझाओ न!! प्लीज!
अच्छा इसे ऐसे समझो कि अगर जिस संभावना की तलाश विदेशी धरती पर करने नित यात्रायें की जा रही हैं. नये मित्र बनाये जा रहे हैं ..ओबामा ..बराक हो जा रहे हैं और जिन्पिंग ..झाई..इन लन्गोटिया मित्रों के गप्प सटाके के दौर में...अगर उस संभावना की एक झलक भी मिल गई तो बस हर तरफ देश में विकास ही विकास नजर आयेगा और तब ये और जोर शोर से नई नई संभावनायें तलाशते और ज्यादा विदेशों में नजर आयेंगे.
मगर पापा, पता कैसे चलेगा कि विकास आ गया?
बेटा, कुछ विकास तो तुम अपने मानसिक स्तर पर देख ही रहे हो..जिन देशों के नाम तुमने सुने भी न थे..इस अंकल की यात्राओं ने और टीवी वालों की मेहरबानी ने तुमको कंठस्थ करा दिये हैं..जैसे शैशल्स, मंगोलिया आदि आदि..अभी और बहुत सारे सीखोगे हर हफ्ते एक नये देश का नाम...
बाकी सही मायने में विकास को समझने के लिए..ऐसे समझो कि जब एक सुबह तुम जागो और सुनो कि तुम्हारा शहर अब तुम्हारा वाला शहर न होकर स्मार्ट शहर हो गया है याने कि इत्ता स्मार्ट कि आत्म हत्या करने के लिए अब न तो तुम्हें खेतिहर होने की जरुरत महसूस हो, न खेत की और न खराब मौसम का इन्तजार करना पड़े और हर जगह ये कर जाने के कारण स्मार्टली खड़े नजर आयें..तो समझ लेना कि विकास ने दस्तक दे दी है....
याने जब तुम्हारी ट्रेन एक्सप्रेस, पैसेंन्जर, सुपर फास्ट से स्मार्ट होकर बुलेट हो जाये मतलब कि वो ३०० किमी प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ तो सकती हैं मगर उसके दौड़ने के लिए जरुरी ट्रेक अभी स्मार्ट होने के इन्तजार में हैं और उसे स्मार्ट बनाने वाली संभावना अभी तलाशी जाना बाकी है... जब बड़ी बड़ी विदेशी संभावनाओं की उत्साहित संताने मेक इन इंडिया का नारा लगाते लगाते आधारभूत जरुरतों जैसे बिजली, पानी, सड़क आदि के स्मार्ट होने के इन्तजार में ब्यूरोक्रेसी से लड़ते हुए एक किसान की तरह अच्छे दिनों के इन्तजार में किसी पेड़ से लटक कर अपनी हर योजनाओं का गला घोंट स्मार्टली वापस लौट जायें - उन्हीं संभावनाओं के पास, जहाँ से वो आई थीं- खुद को संभावनाओं के साथ पुनः तलाशे जाने के लिए. तो समझ जाना विकास आ गया है.
जब आत्म हत्या और हत्या समकक्ष हो जाये और पोस्टमार्टम का इन्तजार न करे और स्मार्ट सिस्टम पहले से उनके हो सकने का कारण बता सके...और कारण भी ऐसा जिसकी वजह से केस में आगे किसी इन्वेस्टीगेशन की जरुरत को नकारा जा सके ...तब समझ लेना विकास आ गया.
जब गांव इतने स्मार्ट विलेज और ग्रमीण इतने स्मार्ट विलेजर हो जाये कि वो इस बात को समझने लगे कि लैण्ड का स्मार्ट इस्तेमाल एग्रीकल्चर के लिए उपलब्ध कराना न होकर एक्विजिशन के लिए उपलब्ध कराना होता है...तब समझ लेना कि संभावना की तलाश का बीज विकास का फल बन कर बाजार में बिकने को तैयार है.
पापा, मुझे तो अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा..भला विदेश में संभावना तलाशने से देश में किसी का विकास कैसे हो सकता है. कोई उदाहरण देकर समझाईये न!!
ओके, चलो इसे ऐसे देखो- तुम्हारे चाचा संभावनाओं की तलाश में कुछ बरस पहले सपरिवार विदेश में जा बसे थे- है न!!
और मैं देश में नौकरी करता रहा. तुम्हारे दादा जी धीरे धीरे अशक्त और बुढ़े हो गये...और तुम्हारे चाचा विदेश में संभावनाओं की तलाश के साथ व्यस्त...
बस!! मौका देखकर और तुम्हारे दादा के अशक्तता का फायदा उठाते हुये, तुम्हारे दादा की जिस जायदाद का आधा हिस्सा मुझे मिलना था वो पूरा मैने अपने नाम करा और बेच बाच कर सब अपना कर लिया...स्मार्टली! ये कहलाता है स्मार्ट विकास!!
देखा न कैसे तुम्हारे चाचा की विदेश में संभावनाओं की तलाश ने मुझे देश में ही रहते हुए दुगना विकास करा दिया..अब आया समझ में तुमको?
जी पापा, अब बिल्कुल समझ में आ गया....भईया भी कह रहा था कि बड़ा होकर वो कम्प्यूटर इंजीनियर बनेगा और विदेश जायेगा... तब तक तो आप भी बुढ़े हो जाओगे और मै भी भईया के विदेश में संभावना तलाशने की वजह से, आपके बुढ़ापे का फायदा उठाकर, आपकी जायदाद का मालिक बन कर दुगना विकसित हो जाऊँगा...
इतना ज्यादा विकसित और स्मार्ट कि आपको बिल्कुल तकलीफ न हो इसलिए नर्सिंग वाली सुविधायुक्त रिटायरमेन्ट होम में आपको स्पेशल कमरा दिलवाऊँगा ...क्यूँकि आप मेरे स्वीट और स्मार्ट पापा हो!!
लव यू पापा!!
यूँ आर माई रोल मॉडल पापा!!
-समीर लाल ’समीर’
रविवार, मई 10, 2015
गरीबों को सहारा नहीं, शाक्ति चाहिये!!!
दुआ, प्रार्थना, शुभकामना, मंगलकामना, बेस्ट विशेस आदि सब एक ही चीज के अलग अलग नाम हैं और हमारे देश में हर बंदे के पास बहुतायत में उपलब्ध. फिर चाहे आप स्कूल में प्रवेश लेने जा रहे हों, परीक्षा देने जा रहे हों, परीक्षा का परिणाम देखने जा रहे हों, बीमार हों, खुश हों, इंटरव्यू के लिए जा रहे हों, शादी के लिए जीवन साथी की तलाश हो, शादी हो रही हो, बच्चा होने वाला हो, पुलिस पकड़ के ले जाये, मुकदमा चल रहा हो, या जो कुछ भी आप सोच सकें कि आप के साथ अच्छा या बुरा घट सकता है, आपके जानने वालों की दुआयें, उनकी प्रार्थना, उनकी शुभकामनायें आपके मांगे या बिन मांगे सदैव आपके लिए आतुर रहती हैं और मौका लगते ही तत्परता से आपकी तरफ उछाल दी जाती है.
भाई जी, हमारी दुआयें आपके साथ हैं. सब अच्छा होगा या हम आपके लिए प्रार्थना करेंगे या आपकी खुशी यूँ ही सतत बनी रहे, हमारी मंगलकामनायें. आप अपने दुख में और अपनी खुशी में मित्रों और परिचितों की दुआयें और शुभकामनायें ले लेकर थक जाओगे मगर देने वाले कभी नहीं थकते.
उनके पास और कुछ हो न हो, दुआओं और प्रार्थनाओं का तो मानो कारु का खजाना होता है- बस लुटाते चलो मगर खजाना है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा.
अक्सर दुआ प्राप्त करने वाला लोगों और परिचितों की आत्मियता देखकर भावुक भी हो उठता है. अति परेशानी या ढेर सारी खुशी के पल में एक समानता तो होती है कि दोनों ही आपके सामान्य सोचने समझने की शक्ति पर परदा डाल देते हैं और ऐसे में इस तरह से परिचितों की दुआओं से आत्मियता की गलतफहमी हो भावुक हो जाना स्वभाविक भी है.
असल में सामान्य मानसिक अवस्था में यदि इन दुआओं का आप सही सही आंकलन करें तब इसके निहितार्थ को आप समझ पायेंगे मगर इतना समय भला किसके पास है कि आंकलन करे. जैसे ही कोई स्वयं सामान्य मानसिक अवस्था को प्राप्त करता है तो वो खुद इसी खजाने को लुटाने में लग लेता है. मानों की जैसे कर्जा चुका रहा हो. भाई साहब, आप मेरी मुसीबत के समय कितनी दुआयें कर रहे थे, मैं आज भी भूला नहीं हूँ. आज आप पर मुसीबत आई है, तो मैं तहे दिल दुआ करता हूँ कि आप की मुसीबत भी जल्द टले. उसे उसकी दुआ में तहे दिल का सूद जोड़कर वापस करके वैसी ही कुछ तसल्ली मिलती है जैसे किसी कब्ज से परेशान मरीज को पेट साफ हो जाने पर. एक जन्नती अहसास!!
जब आपके उपर सबसे बड़ी मुसीबत टपकती है जैसे कि परिवार में किसी अपने की मृत्यु, तब इस दुआ में ईश्वर से आपको एवं आपके परिवार को इस गहन दुख को सहने की शक्ति देने की बोनस प्रार्थना भी चिपका दी जाती है मगर स्वरुप वही दुआ वाला होता है याने कि इससे आगे और किसी सहारे की उम्मीद न करने का लाल लाल सिगनल.
दुआओं का मार्केट शायद इसी लिए हर वक्त सजा बजा रहता है क्यूँकि इसमें जेब से तो कुछ लगना जाना है नहीं और अहसान लदान मन भर का. शायद इसी दुआ के मार्केट सा सार समझाने पुरनिया ज्ञानी ये हिन्दी का मुहावरा छाप गये होंगे:
’हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा आये’
दरअसल अगर गहराई से देखा जाये तो जैसे ही आप सामने वाले को दुआओं की पुड़िया पकड़ाते हो, वैसे ही आप उसके मन में आने वाले या आ सकने वाले ऐसे किसी भी अन्य मदद के विचार को, जिसकी वो आपसे आशा कर सकता था, खुले आम भ्रूण हत्या कर देते हो और वो भी इस तरह से कि हत्या की जगह मिस कैरेज कहलाये.
जब कोई आपकी परेशानी सुन कर या जान कर यह कहे कि आप चिन्ता मत करिये मैं आपके लिए दुआ करुँगा और मेरॊ शुभकामनाएँ आपके साथ है तो उसका का सीधा सीधा अर्थ यह जान लिजिये कि वो कह रहा है कि यार, आप अपनी परेशानी से खुद निपटो, हम कोई मदद नहीं कर पायेंगे और न ही हमारे पास इतना समय और अपके लिए इतने संसाधन है कि हम आपके साथ आयें और समय खराब करें. आप कृपया निकल लो और जब सब ठीक ठाक हो जाये और उस खुशी में मिठाई बाँटों तो हमें दर किनार न कर दो इसलिए ये दुआओं की पुड़िया साथ लेते जाओ.
हाल ही में जब हमारे प्रधान मंत्री जी जन सुरक्षा की तीन तीन योजनाओं की घोषणा करने लगे, जैसे कि दुर्घटना बीमा, पेंशन एवं जीवन बीमा के लिए प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना एवं प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना- जिसमें पैसे आपके ही लगने है और उसी के आधार पर आगे आपको लाभ प्राप्त करना है, तब उनका ओजपूर्ण अंदाज भी कुछ ऐसा ही दुआओं और प्रार्थना वाला नजर आया. इसका सार उन्होंने अपने भाषण के शुरुआती ब्रह्म वाक्य में ही दे दिया जब उन्होंने कहा कि गरीब को सहारा नहीं, शक्ति चाहिये.
और बस मैं सोचने को मजबूर हुआ कि चलो, अब सरकार भी हम आम जनों जैसे ही दुआ करने में लग गई है और अधिक जरुरत पड़ने पर आपको और आपके परिवार को शक्ति प्रदान करने हेतु प्रार्थना में.
याने कि अब आप अपने हाल से खुद निपटिये और सरकार आपकी मुसीबतों से निपटने के लिए दुआ और उस हेतु आपको शक्ति प्रदान करने हेतु प्रार्थना करेगी.
मौके का इन्तजार करो कि जब ये ही लोग पाँच साल बाद आपके पास अपनी चुनाव जीतने की मुसीबत को लेकर आयें तो आप सूद समेत तहे दिल से दुआ देना, बस!!
वोट किसे दोगे ये क्यूँ बतायें! ये तो गुप्त मतदान के परिणाम बतायेंगे.
-समीर लाल ’समीर’
-चित्र गुगल साभार..
गुरुवार, अप्रैल 30, 2015
त्रासद मानसिकता
अभी लम्हा पहले, जैसे ही अपने थके शरीर को कुछ आराम देने की एक ख्वाहिश लिए उसने पलंग पर लेट आँख मूँदी ही थी कि उसे लगा कि मानो कई सारी रेलगाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई उसके मकान के नीचे से गुजरी हों...आँख खोली तो देखा पूरा मकान और उसकी हर दीवार उस धड़धड़ाहट से जैसे काँप उठी हो...न कभी सोचा होगा और न कभी अहसासा होगा इस धड़धड़ाहट को तो दहल कर काँप जाना ऐसे में एकदम लाज़मी सा है.
उसने महसूस किया अपने सीने पर आ गिरी छत की उस बीम का वजन कि इंच भर मौत से दूर...सांसे दफन होने की कगार पर..और खिड़की से आती कोहराम की आवाजें..हृदय विदारक क्रंदन के बीच...पदचापों की भागती चित्कार...जाने कौन कहाँ कैसे दफन होगा..कौन से अरमान...कौन से सपने...क्या कोई सोचता होगा इस मंजर के बीच...एक जिन्दगी की भीख मांगती मौत से फरियाद करती जुबां...चुप चुप सी घुँटी हुई आवाज...
चलते चलते एक विचार...कि इस जीवन से..जाने क्या किसने पाया होगा और जाने क्या किसने खोया होगा, कौन किस अपराध बोध तले क्या महसूस करता होगा की सोच से आगे ...आज सोच मजबूर हुई होगी...इस जीवन से...मात्र जी लेने की एक ऐसी तमन्ना लिए..और आती एक साँस...
और वो भी एक और इन्तजार में कि कैसे ले लूँ एक सांस और....
त्रासदी से गुजरती मानसिकता कभी सुकूं नहीं तलाशती...
उसकी सोच के परे की बात है सुकूँ और शांति जैसी शब्दावलि....
उसे तलाश होती है तो बस इतनी कि त्रासदी का असर कुछ कम हो जाये...
दुर्गति की गति को थोड़ा विराम मिल जाये..और वो जी सके एक और पल..चाहे जैसा भी पल..
एक अगला पल..जिसका उसे न अंदाज है और न ही कोई अरमान कि कैसा गुजरेगा वो पल..
मगर वो पल आये बस इतनी सी चाह...चाह कहें कि एक मात्र बचा विकल्प..
सुकूँ और शांति से भरे बेहतर पलों को जीने की चाह सिर्फ बेहतर पलों में जीते लोगों का शगल है ..
वरना तो किसी तरह जी पायें..बस इतना सा है सारा आसमान..कहने को मुठ्ठी भर आसमान...
मगर सोचें तो चिड़िया की चोंच में सिमटा सारा जहां..न जाने कितनों का..
उस जहां में जहाँ अब इन्सानों के नाम बदले है नम्बरों में..मृतक क्रमांक ७७८... मृतक क्रमांक ९७१ ..मजहब ..न मालूम..और सरकारी इन्तजाम...सब एक साथ जले और राख हो गये!!
सड़कों पर सबके लिए एक सा कैंडिल लाईट विज़ल..एक से फूल..एक से आँसूं..और एक सी राजनीति..
कुछ गहरे उतर कर सोचो तो...
एक दौड़ क्यूँ..
अगर ठौर ये..
फिर कहर क्यूँ?
-रुको, सोचो...
कुछ पल को जी लो जरा!!
-समीर लाल ’समीर’
रविवार, मार्च 01, 2015
अदृश्य दृश्य
दफ्तर आते जाते अक्सर ही ट्रेन की उपरी मंजिल में बैठ जाता हूं. घोषित ’शांत क्षेत्र’ है अर्थात आपसी बातचीत, फोन आदि की अनुमति नहीं है. अक्सर मरघट की सी शांति की बात याद आती है इस जगह. मगर जब आप किसी से बात नहीं कर रहे होते तो मन के भीतर ही भीतर कितनी सारी बातचीत कर रहे होते हैं यह देखने वाले जान ही नहीं सकते. ऐसी बातें जो यूँ तो शायद ही कर पायें कभी मगर दोनों पात्र खुद ही के भीतर आपस में प्रश्न उत्तर करते, झगड़ते, विवाद करते, जबाब माँगते, उलझन सुलझाते, हँसते और जाने क्या क्या और एकाएक आप खुद को डपट देते हैं कि ये क्या पागलपन है, खुद ही उलझे हो अपने भीतर ही भीतर बातचीत में खुद को भ्रमित करते उसी स्वनिर्मित भ्रम की दुनिया में जो तुमने खुद ही गढ़ ली है बिना कुछ देखे, बिना कुछ जाने.
खुद की झिड़की सुन सकपकाया सा देखने लगता हूँ खिड़की से बाहर. भागती इमारतें, पेड़, सड़के और ठहरा हुआ मैं. भागती ट्रेन के भीतर बैठे यही अहसास कि सब कुछ भाग रहा है और थिर हूँ मैं और थमा हुआ है वक्त मेरा कि एकाएक नजरों की सामने से भागती इमारतें, पेड़ सब बदल जाते हैं कुछ चेहरों में, कुछ ऐसे स्थानों में जो यादों में कहीं दफन हैं और फिर बातचीत का सिलसिला शुरु- वही प्रश्न उत्तर, वही झगड़े, वही विवाद, वही उलझाव सुलझाव, हँसी ठहाके, क्रुदन, खुशबू का अहसास, साथ गुजारे पल और फिर वही खुद को खुद की झिड़की. चेहरे के बदलते भाव और फिर वही खिड़की के बाहर दिखते बदलते अदृश्य दृश्य.
कोई भीड़ में तन्हा और कोई अकेला ही भीड़..समय वही..वक्त का तकाजा जुदा जुदा..
डंडी से ढोल पीटता बाप
और दो बाँसों के बीच
बँधी रस्सी पर
संभल संभल पर खुद को संभालती
डगमग डगमग करतब दिखाती
परिवार के पेट की खातिर
मैली कुचैली फ्राक में छोटी नटनी गुड़िया..
तालियाँ बजाते तमाशबीन...
याद करता हूँ नजारा
और
उतर पड़ता हूँ मन के भीतर
यादों की डोर पर
संभल संभल कर कदम जमाते
कुछ दूर चलने की नाकाम कोशिश
सुनाई देती है खुद की झिड़क
और लौट आता हूँ फिर अपनी
आज की दुनिया में..
कल फिर इन्हीं राहों से गुजरने के लिए...
-समीर लाल ’समीर’
चित्र साभार मित्र प्रशांत के ब्लॉग से
सोमवार, जनवरी 05, 2015
सुनहरी चाबुक
अगर आपके पास घोड़ा है तो जाहिर सी बात है चाबुक तो होगी ही. अब वो चाबुक हैसियत के मुताबिक बाजार से खरीदी गई हो या पतली सी लकड़ी के सामने सूत की डोरी बाँधकर घर में बनाई गई हो या पेड़ की डंगाल तोड़ कर पत्तियाँ हटाकर यूँ ही बना ली गई हो. भले ही किसी भी तरह से हासिल की गई हो, चाबुक तो चाबुक ही रहेगी जो हर घोड़े के मालिक के पास होती है. याने घोड़ा है तो चाबुक तो पक्का होगी ही. मगर इसके उलट यदि किसी के पास चाबुक है तो घोड़ा भी होगा ही- यह मान लेना ९०% मामलों में गलत ही साबित होगा.
दरअसल यही चाबुक मनुष्य को, जो कि मूलतः स्वभाव से आलसी होता है, घोड़े के समान उर्जावान बनाती है. अधिकतर सरकारी दफ्तर इसी चाबुक के आभाव में पटे पड़े हैं आलसी शूरवीरों से. घोड़े अगर आलस्य की चादर ओढ़ लें तो गधों की श्रेणी में आ जाते हैं.
चाबुक का कार्य मुख्यत: घोड़ों को घोड़ा बनाये रख उन्हें नियंत्रण में रखने का है. चाबुक यह नहीं जानती कि वो जिस घोड़े पर बरस रही है, वो उच्च नस्ली है या आम नस्ल का घोड़ा- वो सब पर एक सी बरसती है. उसका बरसना मौसम ज्ञानी नहीं, चाबुकधारी निर्धारित करते हैं कि कितना कब कहाँ और कैसे बरसना है.
वैसे ही घोड़े, चाहे नस्ली हों या आम, नहीं जानते कि चाबुक सुनहरी धागे वाली महंगी है या घर पर बनी हुई है या डंगाल से तोड़ कर बनाई गई- वो तो बस उसके बरसने के अंदाज पर निहाल हो दौड़ते, मुड़ते और ठहरते हैं.
मगर चाबुकधारियों का अपना एक अलग जहान है, जहाँ चाबुकधारी की औकात चाबुक की क्वालिटी से आंकी जाने लगी. इसका महात्म ऐसा हो चला कि चाबुकधारी बजरंगी मठाधीष अब अपने चाबुक फैशन डिज़ानर्स से बनवाने लगे. पहले वाली सूत की डोरी लगी चाबुक मठाधीषों को निम्न श्रेणी की नजर आने लगी. हालांकि घोड़े इस बात से अब तक अनभिज्ञ ही हैं कि वो किस चाबुक से हकाले जा रहे हैं. उन्हें तो बस हकाले जाने से मतलब है.
चाबुक का करिश्मा ऐसा कि हकालना रोको और बस देखो घोड़ों को खच्चर और गधों में तबदील होते. आलसी, कामचोर और धूप में सूखी घास को देश के बाहर जमा धन मान कर सूख कर काँटा हो जाने वाले. खुशहाली की दरिया को, हरी घास समझ कर, चर जाने की गलतफहमी पाल मोटे होकर खुश हो जाने वाले गधे.
चाबुक रुकी और बस, हर हरे भरे खेत में मुँह मारना मानो इनका जन्म सिद्ध अधिकार हो. जहाँ से जितना चर पाओ..भरते जाओ. लीद जमा करा दो विदेशों में. कोई जान ही नहीं पायेगा कि क्या चरा और क्या निकाला.
नये घोड़ों की नई नसल भी हरी घास और चने की खुद के लिए आवंटित खुराक छोड़ कर चाबुक के आभाव में यत्र तत्र सर्वत्र मुँह मारने की फिराक में निकल पड़ती है और खा अघा कर गधा बन जाने की होड़ में नित नये कीर्तिमान स्थापित करने में लग गौरवांवित हुई जाती है.
बहुत जरुरी है कि मठाधीष चाहे डिज़ाईनर चाबुक ही लिये रहे, क्या फर्क पड़ता है एक चुटकी नमक किनारे कर देने से, पर इतना ध्यान रखे कि चाबुक लहरती रहे, गरजती रहे और बरसती रहे. चाबुक चलाना भी तो अपने आप में एक कला ही है. कभी डोरी हवा में नचाओ, कभी हड्डे पर मार करके डराओ और कभी सच में शरीर पर बरसाओ. जब जैसा मौका हो, जब कहीं भटकन का अहसास हो, पुनः रास्ते पर लाने का हुनर ज्ञात रहे बस. ज्ञात हुनर अज्ञात अभिलाषाओं की भंवर में डूब न जाये कहीं.
अंत में उद्देश्य तो यही है अगर विकास का मार्ग चुना है तो हर घोड़े जो हांके जायें वो इसी विकास मार्ग पर बने रहें. हर भटकन पर चाबुक बरसती रहे और बजरंगी मठाधीष घोड़े संभालने में यही न भूल बैठे कि उनका मुख्य कार्य विकास का मार्ग प्रश्सत करना है न कि घोड़ों को संभालने की कला में दक्षता हासिल करना. थोड़ा सा विवेचन जरुरी है वरना घोड़ा संभाल सीना फुलाये घुमते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा मात्र मति भ्रम के.
यूँ तो अभी चिन्ता का विषय यह है नहीं क्यूँकि सबसे बड़े अस्तबल के मठाधीष अभी यही सीखने की कोशिश में जुटे हैं कि चाबुक डोरी की तरफ से पकड़ कर चलाते हैं या लकड़ी की तरफ से. सीख भी जायेंगे तो ऐसे न जाने कितने ही प्रश्न उनकी राह में खुद मुँह बाये नजर आयेंगे. ये बात न तो वो जानते है और न ही उनकी जननी और न ही उनके सलाहकार!! खुदा उन पर रहम करे भी तो क्या? और हम दुआ करें भी तो क्या?
पुराने छुटपुट क्षेत्रिय अस्तबल के घोड़े जो पूर्णतः गधे हो चुके थे, पुनः मात्र विरोध के उद्देशय से एकजुट हो घोड़ा बनने की लम्बी तैयारी में है. अभी तो चार साल हैं. गधे और खच्चर बन चुके घोड़ों को च्यवनप्रास खिलाया जा रहा है. फिर से उन्हें घोड़ा बनाये जाने की पुरजोर तैयारी की जा रही है. उनके तथाकथित मठाधीषों के चाबुक भी डिजानर भले न भी हों तो भी फैशनेबल तो है ही..और फिर पहले ही बता दिया है कि चाबुक तो चाबुक होता है- घोड़े इसमें फरक नहीं करते. मगर उनकी समस्या यह है घोड़े से गधे बने को तो आप फिर से चचच- चाबुक, चना और च्यवनप्राश के भरोसे घोड़ा बना सकते हैं मगर जो शुरु से गधा रहा हो और मात्र हरी घास और चने के जुगाड़ में आया हो, उसको कैसे बदलोगे? उनका कहना है कि कोशिश करने में क्या बुराई है अतः उन्हें शुभकामनायें तो दी ही जा सकती हैं.
पर फिर भी- जब इत्ते सारे एकजुट मुट्ठी बाँधेगे तो खुले पंजे से तो मजबूत हो ही जायेगे अतः चेताया. ये मुझ भारतीय मूल का, भारत के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने का एक छोटा सा प्रयास ही मान लिजिये.
बस, घोड़े सरपट भागें. दिशा निर्धारित रहे- और चाबुक तनी तो क्या बाधा है जो विकास मार्ग पर कोई गतिरोध बनें.
तानो अपनी सुनहरी चाबुक हे महारथी- घर वापसी का नहीं विकास प्राप्ति का मार्ग प्रस्शत रखो!! घर वापसी स्वतः इसी राजमार्ग से हो जायेगी. मेरा विश्वास कीजिये.
हे महारथी- बरसाओ चाबुक!!
सट्टाक!!
रविवार, सितंबर 21, 2014
तितली
तितली
उस रोज ऊगी थी
बगीचे मे मेरे
गुलाब को चूमते..
आ बैठती थी काँधे पर मेरे
अपनापन पहचान
बगीचे की खुशबू से..
अब बड़ी हुई
और उड़ चली
आज शाम
रंगबिरंगी ईठलाती..
इन्तजार मेरा कहता है कि
कह सुबह वो
फिर लौटेगी उपवन मे मेरे...
कौन जाने!!
कि महज एक सोच
हर उन बुजुर्ग आँखों की...
-समीर लाल ’समीर’
सोमवार, सितंबर 01, 2014
डॉ कुमार विश्वास: हिन्दी कविता के मंच का कोहिनूर
पिछले महिने जुलाई २०१४ में जिस दिन डॉ कुमार विश्वास अमेरीका पहुँचे, उसी सुबह उनसे फोन पर बात हुई. पता चला कि अमेरीका और कनाडा के १४ अलग अलग शहरों में हो रहे कार्यक्रमों में टोरंटो में कार्यक्रम भी शामिल है. पिछले साल भी २०१३ में डॉक्टर कुमार विश्वास कनाडा आये थे और एक शानदार शाम तालियों की गड़गाड़हट के बीच हास्य व्यंग्य की फुहार के साथ बीती थी. उसी शाम कनाडा के इमीग्रेशन मिनिस्टर जेसन कैनी भी कार्यक्रम में आये थे और हिन्दी के चेहतों की भीड़ जो डॉ विश्वास को सुनने के लिए उमड़ी थी को देख और डॉ कुमार विश्वास की खास मांग पर उन्होंने कार्यक्रम में ही ऑटारियो के स्कूलों में हिन्दी को एक वैक्लपिक विषय में शामिल करने की घोषणा कर दी थी. वो खुद भी तब से डॉक्टर कुमार विश्वास के फैन हो गये थे. आश्चर्य लगा कि ऐसे कवि का २० दिन बाद कार्यक्रम है और कहीं कोई चर्चा नहीं और न ही विज्ञापन आदि.
यह पहली बार देखने में आ रहा था कि मुझे पता करना पड़े कि डॉक्टर कुमार विश्वास का कार्यक्रम कहाँ होना है अन्यथा तो हिन्दी का कोई भी कवि भारत से आये तो कम से ३ महिने पहले से १०-१२ बार ईमेल तो आ ही जाती हैं कि आपको आना है और इतने प्रयासों और विज्ञापनों के बाद भी अच्छा कार्यक्रम कविता का उसे मान लिया जाता है जिसमें २५० से ३०० लोग आ जायें. लगभग ५० आमंत्रित और २०० लोग २० ऑलर की टिकिट खरीद कर.
खैर, पता करके आयोजकों को फोन किया तो पता चला कि कार्यक्रम ब्राम्पटन नामक क्षेत्र में रखा गया है और पूरा बिक (सोल्ड आऊट) है इसलिए विज्ञापन आदि नहीं कर रहे हैं. मैने जानना चाहा कि आखिर कितने की टिकिट थी जो इतनी तेजी से सारी बिक गई. पता चला कि हॉल की क्षमता सीमित है और सिर्फ ६०० टिकिट बेचना था १०० डॉलर प्रति टिकिट के हिसाब से. डॉ कुमार विश्वास का नाम सुनते ही बिना विज्ञापन कें एक मूँह की बात से दूसरे मूँह की बात जुड़ते ही ६०० टिकिट बिक गये और अब तो सबको मना करना पड़ रहा है.
मैं आश्चर्य में था कि एक हिन्दी का कवि अकेले कविता पढ़ेगा और यहॉ आ बसे हिन्दी समझने वाले लोग जो बॉलीवुड के धुनों पर शाहरुख या मीका, हनी सिंह, बब्बू मान आदि के नाच गाने पर झूमने का आदी है वो हिन्दी कविता सुनने के लिए १०० डॉलर का टिकिट देकर आ रहे हैं.
कानों को विश्वास तो न हुआ क्यूंकि अभी पिछले हफ्ते ही यानी जैसे वादक के अन्तर्राष्ट्रीय कनसर्ट को ६० डॉलर की टिकिट देकर सुनकर आया था. मैने मित्रो को बताया तो वो सब भी जिद करने लगे कि हमें भी चलना है डॉ विश्वास को सुनने और १०० डॉलर की टिकिट जरुर ले लेंगे. मैने आयोजकों से निवेदन किया कि भई हमारे कुछ परिवार और मित्र भी उनके दीवाने हैं और फिर डॉ कुमार विश्वास का रोज तो आना होता नहीं है अतः कैसे भी प्रबंध कर सीटें बढ़वाईये. यह भी तय था कि कार्यक्रम के एक दिन पूर्व जब टीवी और रेडियो वाले डॉक्टर कुमार विश्वास का इन्टरव्यू लेंगे तब एकाएक न जाने कितने लोगों को और मालूम चल जायेगा और किस किस को मना कर दिल तोड़ते जायेंगे बहुत निवेदन के बाद वो लोग माने और १०० कुर्सियाँ अलग से बढ़वाई गईं. हाल में चलने फिरने की जगह भी बच न रही.
हालांकि आयोजक उनका होटल बुक करा कर उन्हें एयरपोर्ट पर स्वागत हेतु हाजिर थे मगर पहले एक दिन डॉक्टर कुमार विश्वास हमारे परिवारिक संबंधों के चलते हमारे घर पर ही ठहरे. होटल का रुम उनके आगमन का इन्तजार में रुका रहा. अगले दिन रात को वह अपने होटल में शिफ्ट हो गये क्यूँकि उसके अगले दिन उनका कार्यक्रम होना था.
कार्यक्रम ठीक ८.३० बजे शाम शुरु हुआ. डॉक्टर कुमार विश्वास तालियों की गड़गाहट के बीच सिक्यूरीटी के घेरे में मंच पर पहुँचे वरना तो उनके चहेतों के बीच से गुजर मंच तक पहुँच पाना ही मुमकिन न हो पाता २ घंटे तक और फिर अपनी बातों और कविताओं का ऐसा जादू छेड़ा कि न सिर्फ भारत के विभिन्न प्रांतों से यहाँ आ बसे श्रोता बल्कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, बंगलादेश, नेपाल आदि देशों से कनाडा में आ बसे हिन्दी समझने वाले बॉलीवुड के नाच गानों पर थिरकने वाले लोग डॉक्टर कुमार विश्वास को मगन होकर सुनते रहे. श्रोताओं की भीड़ प्रांजल हिन्दी के शुद्ध गीत:
हो काल-गति से परे चिरंतन , अभी वहाँ थे अभी यहीं हो.. ,
कभी धरा पर, कभी गगन में, कभी कहीं थे, कभी कहीं हो.. ,
तुम्हारी राधा को भान है तुम सकल चराचर में हो उपस्थित,
बस एक मेरा है भाग्य मोहन !कि जिस में हो कर भी तुम नहीं हो..
जैसी रचना मंत्रमुग्ध होकर न सिर्फ सुनती रही बल्कि
मांग की सिन्दुर रेखा...बाँ
सुरी चली आओ…. जैसे गीतों की मांग कर उन्हें जी भर कर तालियों के माध्यम से सराहती रही. एक के बाद एक नायाब मुक्तक, गीत, गज़ल और वाकिये सुनाते तालियों और हँसी ठहाकों के बीच जब डॉक्टर साहब ने अपने चिर परिचित अंदाज में डॉ बशीर बद्र साहब का यह शेर कहा:
मुसाफिर है हम भी, मुसाफिर हो तुम भी,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।
तब घड़ी पर नजर गई. अरे, १०:३० बज गये. २:३० घंटे तक अकेले ऐसी समा बाँधे रहे कि पता ही नहीं चला और कार्यक्रम खत्म भी हो गया.
डॉक्टर कुमार विश्वास होटल लौट गये और हम वहाँ आयोजकों को बधाई देते चर्चारत हो लिए. हालांकि हॉल, साऊन्ड, डॆकोरेशन आदि यहाँ काफी मँहगे होते हैं मगर फिर भी लग रहा था कि आयोजकों ने अच्छा कमाया होगा. जिज्ञासु हिन्दुस्तानी स्वभाव कैसे चुपचाप चले आते. आयोजकों की कमाई का मोटा मोटा अंदाजा तो लगाना ही था अतः बात बढ़ाते हुए अपनी तरफ से ही पूछ लिए कि सुना है डॉ साहब तो काफी पैसा लेते हैं २,००० डॉलर से कम तो क्या लिए होंगे. आयोजकों की हँसी से लगा कि मैने कोई बहुत बड़ी बेवकूफी के बात कर दी. कहने लगे २,००० की जगह ३,००० में भी बुलवा दिजिये तो आपको उन्हें बुलवाने भर के ३,००० हम अपनी तरफ से दे देंगे. तब भी अभी जितना दे रहे हैं उसमें आप से ज्यादा हम बचा लेंगे. तब पता लगा कि ये हिन्दी का कवि अब १०,००० डॉलर में दो घंटे लिए मंच पर आकर कविता पढ़ता है. साथ में पाँच सितारा होटल में रुकना और बिजनेस क्लास का टिकिट. आजतक सुनते आये थे कि बहुत बड़े कविता के हस्ताक्षर भी यहाँ ५०० से १००० डॉलर की रेन्ज में आ जाते हैं तब इनके विषय में ये जानकर एक तरफ तो विस्मय की स्थिति और दूसरी तरफ अपार खुशी कि कुछ तो अलग है इनमें जो आज इन ऊँचाईयों पर आ कर खड़े हैं.
हिन्दी कविता के इतिहास में कब किसने सोचा होगा कि यह विधा भी कभी इस तरह धन वर्षा करवा सकती है इसके साधक पर. तय है कि यह अकेली हिन्दी कविता तो हो नहीं सकती. इसके साथ न जाने और क्या क्या जैसे ब्रेन्डींग, मार्केटिंग, बोलने और पढ़ने की विशिष्ट शैली, अथक परिश्रम और उन सबके आगे माँ शारदा का वरद हस्त- तब जाकर एक डॉक्टर कुमार विश्वास बनता है.
वाह!! डॉक्टर कुमार विश्वास!! हिन्दी कविता के मंच को ऐसा आयाम देने के लिए और इस मुकाम पर पहुँचाने के लिए साधुवाद, अनेक बधाई एवं हार्दिक शुभकामनायें.
अगले साल फिर इन्तजार रहेगा आपका इस टोरंटो शहर को.
-समीर लाल ’समीर’
बुधवार, जुलाई 30, 2014
दूर बहुत दूर…
दूर बहुत दूर
मगर मेरे दिल के आस पास
कई दरियाओं के पार
मेरी यादों में बसा
वो शहर रहता है..
जहाँ गुजरा था मेरा बचपन
जिसकी सड़को पर मैं जवान हुआ
वहाँ अब यूँ तो अपना कहने को
कुछ भी नहीं है बाकी
लेकिन उस शहर की गलियों से
मेरा कुछ ऐसा नाता है
कि शाम जब ढलता है सूरज
एक अक्स उस पूरे शहर का
मेरे जहन में उतर आता है...
जाने क्या क्या याद दिलाता है..
और मेरी नजरों के सामने से
अब तक का बीता सारा जीवन
एक पल में गुजर जाता है..
-समीर लाल ’समीर’
रविवार, अप्रैल 20, 2014
कतरा कतरा
कभी जिन यादो से दिन,
खिल कर संवर जाता था..
आज सोचता हूँ
वही बचपन,
वही स्पर्श,
वही नाते,
उतारता हूँ जब
दिल के कागज पर वो यादें
और उनकी जिन्दा गवाह वो मकां..
कि कतरा कतरा हुआ
कागज भी बिखर जाता है..
एक लम्हा गुजरता है
और
कितना कुछ बदल जाता है..
-समीर लाल ’समीर’
रविवार, मार्च 09, 2014
आज क्या हुआ होगा...मेरे देश में
आज सुबह रोज की तरह ही ६ बजे से कुछ सैकेंड पहले ही नींद खुली. हमेशा सुबह ६ बजे का अलार्म लगा होता है मगर एक आदत ऐसी बन गई है कि मैं उसके चन्द सैकेन्ड पहले उठकर अलार्म को बजने ही नहीं देता...साल में एकाध बार ही बजा होगा. जब यह लिख रहा हूँ तो मुझे लगता है कि बीच बीच यूँ ही चैक कर लेना चाहिये कि अलार्म काम कर भी रहा है या नहीं वरना किसी पर बहुत ज्यादा भरोसे में रहने से कभी धोखा ही न हो जाये.
कमरा तो हीटिंग से गरम था मगर बन्द खिड़की से झांक कर देखा तो हल्की हल्की बरफ गिर रही थी जो रात भर से गिरते गिरते पैर धंसा देने लायक तो इक्कठा हो ही गई थी. कुछ रोज पहले आईस स्ट्राम आया था, उसकी बरफ अब तक पूरी तरह से गली भी न थी और उसकी फिसलन जगह जगह बरकार थी. डर था आज की इस बरफ के फुओं के नीचे वो आईस की टुकड़े तो दिखेंगे भी नहीं और उस पर पैर पड़ा नहीं कि आप फिसले. और अगर आप फिसले तो हड्डी का टूटना लगभग तय है. बहुत संभलना होगा. बरफ का जूता ..थोड़ी मदद जरुर मिल जायेगी उससे मगर कितनी देर थामेगा वो भी भला... कदम तो अपने खुद ही संभालना होगा...जूते पर सीमित भरोसा ही किया जा सकता है!
यूँ तो घर से बस स्टॉप की दूरी मात्र पाँच मिनट पैदल की है मगर जब तापमान हो -२० और हवा के बहाव के संग विंड चिल को गिनते हुए -३५ तब ऐसे हालातों में बरफ के भारी भारी जूते पहने, सूट के उपर से लम्बा चौड़ा भारी भरकम जैकेट लादे,दस्ताने, टोपी, गले से नाक तक सब कुछ ढ़कता मफलर, चश्मा और चुल्लु भर पानी सोखकर मर जाने वाले मुहावरे वाली निकली चुटकी भर नाक कि सांस आती जाती भर रहे किसी तरह, ऐसे में इन सबके साथ सामनजस्य बैठाते धीरे धीरे कदम रखते १५ से २० मिनट तो लग ही जाते हैं स्टॉप तक पहुँचने में. तब तक नाक की चोंच जो खुली हुई थी वो बरफ हो चुकी होती है जिसे स्टॉप में घुस कर जब तक कुछ देर गरम न कर लो, पोंछना मना रहता है वरना स्नो बाईट से नाक ही कट कर अलग हो जायेगी. त्वचा के छिद्रों में भरा पानी बरफ बन जाता है तो और क्या आशा की जा सकती है, नाक का कटना हमारे यहाँ वैसे भी पूरे खानदान को एफेक्ट करता है और इसे शास्त्रों में बहुत बुरा माना गया है अतः मैं तो पौंछता ही नहीं जब तक दफ्तर पहुँच कर १० मिनट हीटिंग में न बैठ लूँ. किस किस को समझाऊँगा देश में कि यह नाक कर्मों से नहीं सर्दी से कटी है बस पौंछ देने के चक्कर में.
बस में चढ़कर, हालांकि हीटिंग होती है मगर बार बार रुकने और दरवाजा खुलने से जीत ठंड की ही होती है, दुबके सहमें से एक कोना थामे स्टेशन पहुँचते हैं तो फिर वही तीन मिनट और मौसम की बदौलत १० मिनट का खुले में पैदल सफर...स्टेशन भी कुछ दूर तक गरम और ढका होता है फिर वही खुला खुला सा...ढका हिस्सा भीड़ घेर चुकी होती है और आप -३५ में खुले में राम नाम जपते हुए ट्रेन के आने के इन्तजार में लग जाते हैं..कई बार आस पास खड़े इन गोरों को देखकर सोचता हूँ कि राम नाम न सही, ऐसी स्थितियों में ये भी तो कुछ न कुछ जपते ही होंगे..कौन जाने और करना क्या है,,,मगर वही जिज्ञासु स्वभाव ..हम हिन्दुस्तानियों का.
चार पांच मिनट बाद ट्रेन का आना ऐसा लगता है कि जैसे कोई जीवनरक्षक आ गया हो एकाएक.. ट्रेन में बैठते ही हीटिंग में एक एक करके टोपी, दस्ताने और जैकेट उतरना शुरु..वरना तो लू लग जाये उस हीटिंग में. ट्रेन के भीतर की गरमी से बाहर बरफ को गिरते देखना बहुत मनमोहक लगता है बिल्कुल बचपन से देखते आये कलेंन्डर में बनी बर्फ और मकानों की तस्वीर सा. मगर भीतर जिस चेहरे पर नजर पड़ जाये उसे ही देखकर लगे कि अभी अभी मौत के मूँह से निकल कर आया है और अब चैन मिला है उसे. ट्रेन की दो मंजिल, यूँ तो सभी ओर इतने सारे लोगों के बावजूद एकदम सन्नाटा होता हैं मगर ऊपर वाली मंजिल ऑफिसियली क्वाईट जोन होती है याने नो फोन, नो बातचीत...एकदम शांत..कई बार लगता है कि किसी की मय्यत में आये हैं. यही सोचकर आँसू गिरने को होते हैं कि तब तक ख्याल आ जाता है कि दफ्तर जा रहे हैं तो बस मुस्करा कर रह जाते हैं. वैसे तो देश में अब लोग मय्यत तक में भी ठठा कर हँसने से गुरेज नहीं करते मगर हम साथ वो पुराने वाले संस्कार जो लाये थे वो वैसे ही बरकरार है, बदल पाने का मौका ही नहीं लगा वक्त के साथ.
मैं अक्सर इस शांत समय और माहौल का उपयोग अपने आई-पैड पर कहानियाँ, पत्रिकायें आदि पढ़ने में करता हूँ. बीच बीच में थोड़ा इधर उधर भी नजर पड़ ही जाती है और पाता हूँ कि कुछ महिलायें और नवयुवतियाँ, जो कि मेरे समान ही आई पैड और आई फोन धारक हैं अक्सर कैमरे को फ्रंट मोड मे कर के उसमें देख देख कर मेक अप कर रही है. माना कि सुबह सुबह घर में सजने धजने का समय नहीं मिल पाता होगा मगर, जो काम दो रुपये का आईना कर दे उसके लिए ७०० डॉलर का आई पैड और आई फोन. लेकिन फैशन परस्ति के इस युग में मैं कौन होता हूँ उन्हें रोकने वाला. कई बार तो खीज कर मैने भी अपने आई पैड में देखकर कंघी कर डाली कि कोई मुझे कम न समझे हालांकि बाद में याद आया कि कंघी करने जितने तो बाल ही नहीं बचे सर पर...शायद इसीलिए वो पड़ोस की सीट पर बैठी लड़की हंसी होगी.
आज दफ्तर जाना टाल पाता तो टाल देता..एक तो १०२ बुखार..उस पर से जुकाम. ऑफिस जाना जरुरी था तो चल दिये. लेकिन दफ्तर में कुछ जरुरी मीटिंग वगैरह निपटा कर एक सरकारी कर्मचारी की तर्ज पर पहला मौका लगते ही घर की लिए निकल पड़ा. निकलने की जल्दी बाजी में, जो दफ्तर पहुँच कर बरफ का जूता उतार कर नार्मल वाला जूता पहन लेते हैं, वो ही नार्मल जूता पहने निकल पड़े. बिल्डींग के अन्दर चलते चलते जब स्टेशन पहुँचे तो ख्याल आया – अरे, जूता तो बदला ही नहीं. अब जूता बदलने वापस दफ्तर जाओ तो ट्रेन छूटे और फिर एक घंटे बाद की ट्रेन मिले या ऐसे ही निकल लो संभल संभल कर...तो समय पर घर पहुँच कर आराम किया जाये..सो निकल लिए संभल संभल कर,..कई बार गिरते गिरते बचे..कभी किसी को गिराते गिराते बचे मगर आ ही गये अपने घर वाले स्टेशन पर ट्रेन में सवार होकर,,आई पैड पर भटकते..कहानियों की दुनिया में खोये..कनखियों से अड़ोस पड़ोस का नजारा देखते..
घर वाले स्टेशन पर उतरे तो हवा जबरदस्त चल रही थी..घर ले जाने वाली बस अभी तक आई नहीं थी. पहली बार अहसासा कि लोग ठंड में कैसे मर जाते होंगे. वो तो समय रहते बस आ गई वरना जैकेट, टोपी, दस्ताने के बावजूद पैन्ट को भेदती ठंड ने तो लगभग प्राण ले ही लिए थे...बस...बच ही गये...आगे से थर्मल पहना करुँगा..आज तय ही कर लिया...उम्र के बदलते पढ़ाव को पहचानना भी तो जरुरी है.
बस ने घर के पास वहीं बस स्टॉप पर उतारा जहाँ रोज उतारती है मगर आज बस स्टॉप से घर आने में शरीर कुल्फी हो गया...क्यूँकि अबकी तो बरफ के जूते भी नहीं पहने थे. बस, चुनाव २०१४ पर चल रही नित नई खबरों को चल कर टीवी पर मोदी का भाषण तो केजरीवाल का नया आरोप आदि देख लेने की चाहत संबल बनी रही...तो घर तक खुद को घसीटते चले आये और किसी तरह एक हाथ से दूसरा हाथ पकड़ घंटी बजा दी.
घर में घुसे तो शरीर और आवाज दोनों लगभग जम चुके थी. पत्नी समझ गई तो हमें पिघलाने के लिए फायर प्लेस के सामने बैठाया गया, बैठाया तो क्या गया लगभग रखा ही गया ताकि हम होश में आ जायें तो वो अपनी बात कह पायें वरना तो कुल्फी बनो कि आइस क्रीम, किसी को क्या लेना देना...समय के साथ खुद ही पिघल लोगे.
आह!! प्यार मोहब्बत में वो इस तरह कहर ढाते हैं...
आज बदले बदले हुए से मेरे सरकार नजर आते हैं..
हमें फायर प्लेस के सामने पिघलवा कर पूछा गया कि ठीक तो हो? हम मंशा समझ ही न पाये और कह बैठे कि हाँ, ठीक हैं!!
बस, फिर क्या- घर के सामने की बरफ हटाने से लेकर अदरक वाली चाय बनाने तक का जिम्मा हम पर आ टिका क्यूँकि बाकी सबकी तबीयत खराब है. सब मौसमी बुखार और जुकाम से पीड़ित. हमसे किसी ने पूछा ही नहीं कि तुम्हारी तबीयत कैसी है और जल्दी क्यूँ आये?
बताया गया कि शाम का खाना पूरा बना रखा है, उसकी चिन्ता मत करना..बस, करेले वाली अपनी स्टाईल की सब्जी और बना लो. थोड़ा सा कुंदरु छौंक देना...चावल चढ़ा दो और दाल तो फट से बना ही लेते हो..उसे प्याज लहसून से बघार देना. रोटी तो वैसे भी इस मौसम में कौन खायेगा मगर आपको खाना हो तो बाजार की नान रखी है वो गरम कर लेना...मैं सोचता ही रह गया कि जब ये सब करना बाकी है तो फिर खाना कौन सा बना रखा है? जिसका जिक्र करके बात की शुरुवात की गई थी.
खैर, ये सब कुछ जीवनचर्या का हिस्सा है, इसमें बहस कैसी? बहस तो जब दिल्ली में नहीं होती इनसे उनसे समर्थन लेते तो हमने तो इनकी कभी खुले आम इत्ती बुराई भी नहीं की है कि बहस न करने में शरम आये!!
समय बलवान है,,,वक्त महान है..कल और ज्यादा ठंड की भविष्यवाणी है मगर परसों से सब सामान्य है!! सामान्य याने – १० वगैरह. -३० से -१० में आने पर वैसी ही राहत लगती है जैसे पैट्रोल का दाम ५ रुपये बढ़ा कर २ रुपये कम कर देने में.
वैसे इन सबके बीच एक बात सोचने वाली है कि न तो मुझे दिल्ली से कुछ लेना देना, न केजरीवाल से, न कांग्रेस से...न मोदी से...न लोकसभा २०१४ के चुनाव से- टोरंटो में रहता हूँ...कनाडा का नागरिक हूँ मगर मन है कि भारत भागता है हर पल...वहाँ क्या हो रहा है..किसकी सरकार बन रही है,,,किसकी सरकार गिर रही है,,,.किसी ने सही ही कहा है...कि आप एक भारतीय को तो भारत से बाहर निकाल सकते हो मगर भारत को उस भारतीय के बाहर कभी नहीं निकाल सकते!!
रविवार, जनवरी 05, 2014
आँटी पुलिस बुला लेगी- गंदी बात गंदी बात!!
कनाडा की शाम को आजतक पर “दिल्ली की आप सरकार की सबसे कम उम्र की महिला व बाल विकास मंत्री राखी बिड़ला” (बाकी मंत्रियों के लिए मात्र विभाग के साथ मंत्री लिए देने से भी चल जाता है) की कार पर हुए धातक हमले, जिसमें संयोग से वे पूरी तरह सुरक्षित रहीं, के चरम के बारे में पढ़ रहा था; हल्ले गुल्ले के बाद समाचार का निष्कर्ष अंतिम पैरा में:
क्या बच्चे की गेंद से टूटा गाड़ी का शीशा?
सूत्रों के हवाले से पता चला है कि कार का शीशा क्रिकेट खेल रहे एक बच्चे की गेंद से टूटा था. घटना के बाद हुई पुलिस पूछताछ से ये बात सामने आई है कि इलाके में एक घर की छत पर क्रिकेट खेल रहे बच्चे की गेंद से कार का शीशा क्रेक हुआ. बताया जा रहा है कि घटना के तुरंत बाद बच्चे के पिता ने सबके बीच माफी भी मांग ली थी. लेकिन इसके बावजूद मंत्री साहिबा थाने पहुंच गईं और बच्चे की घटना को छिपाते हुए शिकायत दर्ज करा दी. इसके अलावा राखी के पिता पर भी बच्चे के परिवार को अपशब्द कहने के आरोप लगाए जा रहे हैं.
अब ऐसे में हमारे जैसे जाबांज टिप्पणीकार, जिनका २५-५० जगह टिप्पणी करने के बाद ही खाना पचता हो वो चुप कैसे बैठा रहे भला तो फटाक से टिप्पणी लिखी:
आमजन के बीच जाने के फायदे:मंगोलपुरी में बच्चों को खेल के मैदान मुहैय्या कराये जायेगे ताकि वो छत पर क्रिकेट खेल कर कार के कांच न फोंडें.
और मंगोलपुरी के बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए:
कांच फोड़ना- गंदी बात, गंदी बात!! आंटी पुलिस बुला लेगी, गंदी बात गंदी बात- तब भी न माने टिंकू जिया मेरा टिंकू जिया..
और हिट सब्मिट.
ओए, ये क्या? टिप्पणी ही नहीं गई और एरर मैसेज : Please remove inappropriate words: गंदी गंदी गंदी गंदी
अब बताओ भला? गाना लिख रहे हैं जो गली गली बज रहा है न्यू ईयर पर. इनने खुद न्यू ईयर की पार्टी कवरेज में न जाने कित्ती बार दिखाया होगा मगर बस, सही कहते हैं समरथ को न दोष गुसांई:
आप करें तो रासलीला और हम करें तो करेक्टर ढीला.
खैर, टिप्पणी न करें और भूल जाये तब तो नींद ही न पड़े हम जैसे टिप्पणी शुरवीरों को. आज भी याद है वो जमाना जब ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं जा पाती थी तो ईमेल और फोन करके अगले को बताया करते थे कि चैक करो, क्यूँ तुम्हारे ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं जा रही. और फिर वही टिप्पणी उसे ईमेल से भेजते थे कि मेरे नाम से छाप लो, तब जाकर चैन मिलता था.
अतः टिप्प्णी बदली और गंदी को Roman में लिखा Gandi, फिर से नहीं गया. जो एरर मैसेज आया वो आप वहाँ खुद Gandi बात टाईप करके सब्मिट करके देख लो, मुझसे न बताया जा पायेगा.
अंत में उसे बदला Bad बात Bad बात से..तो हमारे स्पैल चैकर, जो अबतक सुकबुकाये से बैठे थे, एकाएक होशियार हो चले और उसे ठीक करके कहने लगे Do You mean ’Bed N Bath’ –कनाडा की बड़ी भारी चेन शॉप है बैड़ एन्ड बाथ आईटम्स की.
खैर, जैसे तैसे कमेंट भेज भाज कर फुरसत हुए हैं तब से जब चाहे ई मेल खोलो तो, चाहे कोई भी साईट ब्राउज करो तो दनादन जो विज्ञापन गुगल महाराज की कृपा से आ रहे हैं, हमारी तो घिघ्घी ही बंध गई है और तुरंत न सही तो कुछ देर में पत्नी की निगाह उन पर पड़ेगी ही. बाहर -२५ डीग्री तापमान और बर्फ का तूफान आया है. आप मेरी स्थिति की कल्पना करें: विज्ञापन के नमूने:
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Aunties in your area- Privacy Assured- No Police Records
और
Bad Aunties in your area- looking for you – इसे देखने के बाद तो मोटल क्यूँ देख रहे थे, ये पूछने की भी जरुरत कहाँ?
आपसे सलाह ये चाहिये कि खुद ही सामान पैक कर के निकल लूँ कि इन्तजार करुँ निकाले जाने का? कम्प्यूटर फार्मेट करने पर भी गुगल तो मेरी आई डी नोट किये बैठे ही हैं.
इस बार बच गये तो ऐसी टिप्पणी करना ही नहीं है आगे से भले ही खाना पचे या न पचे. अपच ही बेहतर है इस -२५ डीग्री वाली तूफानी ठंडी रात में घर से निकाले जाने से.
वहाँ तो खैर आप पार्टी वाले बच कर निकल ही लेंगे कि हमने कहा ही नहीं कि हमला हुआ था.
रविवार, नवंबर 17, 2013
नारे और भाषण लिखवा लो- नारे और भाषण की दुकान
हमारी एक नई घोषणा!!
आईए और जानिए हमारा एक नया व्यापार.....चुनाव के मौसम में एकदम ताजा.
हमारे यहाँ चुनाव के लिए नारे और भाषण लिखे जाते हैं.
हम एक निष्पक्ष, व्यवसायिक नारेबाजी संस्थान हैं. हमारे यहाँ कोई भेद-भाव, पक्षपात या किसी संप्रदाय विशेष का विरोघ या समर्थन नहीं किया जाता. कृपया नक्कालों से सावधान रहें- हमारी कोई ब्रान्च नहीं है.
हम वही लिखते हैं, जैसी ग्राहक की मांग होती है.
हर पार्टी के लिए,पार्टी के स्तर को देखते हुए- राष्ट्रीय स्तर ,प्रदेश स्तर और नगर के चुनाव क्षेत्र पर आधारित क्षेत्रानुसार नारे लिखे जाते हैं ।
प्रत्याशी स्तर के नारे लिखने में हमें विशेष दक्षता प्राप्त है. एक से बढ़कर एक बाहुबलियों की हमने नारों के माध्यम से संत स्वरुपा छबि स्थापित की है.
संपूर्ण भाषण लिखने के लिए, अति निम्न इतिहास के संदर्भों की गल्ति की गारंटी के साथ, अलग से ठेके लिए जाते हैं.
हमारे भाषण सरल ,सस्ते, सुन्दर और नारे संपूर्ण बहर में होते हैं.
गीत के रुप में नारे एवं पार्टी मुखिया की स्तुति लिखने के अलग से प्रबंध किए जाते हैं, गेयता की गारंटी और विशेष अनुरोध पर कम्पोजर, गायक गायिका का प्रबंध किया जाता है एवं उनके भाव अलग से देय होंगे. रिकार्डिंग स्टूडियों के मात्र रिफरेंस दिये जायेगे. उनका प्रबंध और डील कि जिम्मेदारी आपकी है. हम सिर्फ मदद कर सकते हैं.
हमारे संपर्क में शादियों में सेहरा गाने वाले भूतपूर्व सेहरा गायक भी हैं. आजकल शादी ब्याहों में उनकी जरुरत खत्म हो जाने से आपके स्तुति गान की मंच प्रस्तुति हेतु हम आपका उनसे संपर्क करवा सकते हैं, भाव ताव आपको करना होगा. ((यह काम हम मात्र दलाली के अर्थशास्त्र का पालन करते हुये कमीशन के लिए करते हैं)
हम आपके और आपकी पार्टी के फेवर से लेकर सामने वाले प्रत्याशी एवं पार्टी के विरोध में नारे लिखते हैं.
हमारी संस्थान का ध्येय: ’जैसा दाम, वैसा काम’
चुनाव जिताने की हमारी गारंटी नहीं है. हम सिर्फ असरदार नारे और भाषण लिखते हैं.
नीचे मात्र उदाहरण हेतु कुछ नारे दिये जा रहे हैं. जो बहर में न लगे, उन्हें मुक्त नव कविता की श्रेणी में रख कर पढ़ा जाये.
जैसे की बिल्डर के मॉडल होम पर बिल्डर का अधिकार होता है किन्तु आप चाहें तो उन्हें ऊँचे दाम पर सजा सजाया खरीद सकते हैं वैसे ही निम्न मॉडल नारे भी खरीदे जा सकते हैं.
जब तक आप इन्हें न खरीद लें, कृपया इनका इस्तेमाल न करें. यह कॉपीराईट कानून के उलंघन की श्रेणी में माना जायेगा. चोरी करके बच निकलने की गुजांईश कृपया यहाँ न अजमायें, अपनी यह कला चुनाव जीतने के बाद के लिए बचा कर रखें.
अगर आप नीचे दिये गये नारे खरीदना या नये नारे लिखवाना चाहते हैं तो कृप्या कमेंट कर अपना ईमेल एवं फोन पता प्रदान करें, हम नारेबाज आपसे संपर्क कर मोलभाव कर डील सेटल कर लेंगे.
हमारे संपर्क में चुनाव जीतने के पूजा पाठ एवं हवन, मंत्र बाजी आदि करने वाले धार्मिक महानुभाव भी जेल के भीतर और बाहर दोनों जगह हैं, उसके प्रबंध के लिए अलग से संपर्क करें. जेल के भीतर से भी असरदार अनुष्ठान की गारंटी संत शिरोमणि जी की रहेगी.
विशेष नोट -- संपर्कों का प्रबंध करने का यह काम हम मात्र दलाली के अर्थशास्त्र का पालन करते हुये कमीशन के लिए करते हैं...
कृप्या चुनावी सभा एवं रैलियों के लिए भीड़ जुटाने हेतु हमसे संपर्क न करें. यह कार्य हमारी संस्था ने पिछ्ले चुनाव में मीडिया के द्वारा प्रायोजित सेम भीड़ दोनों पार्टियों की रैली में भेजने के स्ट्रिंग ऑपरेशन में पकड़ाये जाने के बाद से बंद कर दिया है.
कृप्या हमसे एगजिट पोल करवाने की मांग न करें. इससे हमारे सभी प्रत्याशियों के प्रति समदृष्टा होने के मिशन स्टेटमेन्ट को चोट पहुँचने की संभावना बनती है.
कृपया दूसरी पार्टियों और प्रत्याशियों ने हमसे क्या लिखवाया है, उसकी हमसे मांग न करें. हमारा संस्थान राजनैतिक पार्टियों के समान ही आर टी आई के प्रावधानों से मुक्त है. हम इस तरह की जानकारियाँ गोपनीय रखते है किन्तु हमारे लेखन में इस जानकारी का हमारे पास होना आपको लाभ पहुँचायेगा ही.
नोट: गैर चुनावी मौसम में हम अन्य आयोजनों के लिए भी नारे लिखते हैं- जैसे सचिन का अंतिम मैच, फिल्म अवार्ड, कॉर्पोरेट स्लोगन आदि आदि.
मॉडल नारे (उदाहरण हेतु)- कॉपिराईट समीर लाल ’समीर’ उड़न तश्तरी वाले)
बच्चा बोला गोदी में
मुझे भरोसा मोदी मे...
रामराज इस देश में
राम राहुल के भेष में
राहुल वही सितारा है
जनता को जो प्यारा है..
भ्रष्ट गये सब खाई में
जब ’झाडू’ लगी सफाई में...
संघर्ष अभी भी जारी है
अबकी ’आप’ की बारी है.
इतिहास पुनः दोहरायेगा
‘पंजा’ फिर से आयेगा...
नोट: तस्वीर साभार गुगल. किसी को वाजिब कॉपीराईट जैसी आपत्ति हो बता देना- शर्माना नहीं- हटा देंगे.
-समीर लाल ’समीर’
संपर्क साधें: udantashtari@gmail.com
बुधवार, अक्टूबर 02, 2013
कुछ वाँ की.. तो कुछ याँ की...
एक नये तरह का प्रयोग किया है...देखें जरा...कैसी गज़ल निकली है:
कब परिंदो को पता था, आंगनों में भेद का
एक दाना वाँ चुगा था, एक दाना याँ चुगा...
सरहदों से जा के पूछो, कौन किसका खून है
एक कतरा वाँ गिरा था, एक कतरा याँ गिरा..
राज इतना जान लो, तब हर अँधेरा दूर हो
एक दीपक वाँ जला था, एक दीपक याँ जला
आसमां को कब पता था, कौन मांगे है दुआ
एक तारा वाँ गिरा था, एक तारा याँ गिरा
है जमाना लाख बदला, पर न बदला है ’समीर’
दिल तुम्हारा वाँ छुआ था, दिल तुम्हारा याँ छुआ..
-समीर लाल ’समीर’
रविवार, सितंबर 08, 2013
फासला - कोई एक हाथ भर का!!
जब रात आसमान उतरा था
झील के उस पार
अपनी थाली में
सजाये अनगिनित तारे
तब ये ख्वाहिश लिए
कि कुछ झिलमिल तारों को ला
टांक दूँ उन्हें
बदन पर तुम्हारे
तैरा किया था रात भर
उस गहरी नीले पानी की झील में
पहुँच जाने को आसमान के पास
तोड़ लेने को चंद तारे
बच रह गया था फासला
कोई एक हाथ भर का
कि दूर उठी आहट
सूरज के पदचाप की
और फैल गई रक्तिम लाली
पूरे आसमान में
खो गये तारे सभी
कि जैसे खून हुआ हो चौराहे पर
मेरी ख्वाहिशों का अभी
और बंद हो गये हो कपाट
जो झांकते थे चौराहे को कभी...
टूट गया फिर इक सपना..
कहते हैं
हर सपने का आधार होती हैं
कुछ जिन्दा घटनाएँ
कुछ जिन्दा अभिलाषायें..
बीनते हुए टूटे सपने के टुकड़े
जोड़ने की कोशिश उन्हें
उनके आधार से..
कि झील सी गहरी तेरी नीली आँखे
और उसमें तैरते मेरे अरमान
चमकते सितारे मेरी ख्वाहिशों के
माथे पर तुम्हारे पसरी सिन्दूरी लालिमा
और वही तुम्हारे मेरे बीच
कभी न पूरा हो सकने वाला फासला
कोई एक हाथ भर का!!
सोचता हूँ .............
फिर कोई हाथ किसी हाथ से छूटा है कहीं
फिर कोई ख्वाब किसी ख्वाब में टूटा है कहीं..
क्या यही है-आसमान की थाली में, झिलमिलाते तारों का सबब!!
-समीर लाल ’समीर’