सोमवार, जून 25, 2012

यादों में परसाई जी: ‘व्यंग्य यात्रा’

‘व्यंग्य यात्रा’ का हरिशंकर परसाई की साहित्यिक यात्रा पर केंद्रित अंक का पहला खंड प्रकाशित होकर अपने पाठकों तक पहुंच गया है। 192 पृष्ठ के इस अंक में मेरा भी संस्मरण है, आप भी पढ़ें:

vyangyayatra

तब शायद छठवीं कक्षा में रहा हूँगा. स्वतंत्रता दिवस के उत्सव के दौरान स्कूल की तरफ से लेखन प्रतियोगिता रखी गई थी जिसमें अपने स्कूल, शिक्षक के बारे में आलेख, कहानी, कविता कुछ भी लिखकर जमा की जानी थी. १५ अगस्त से एक सप्ताह पहले ही प्रतियोगिता हो गई और कापियाँ जमा करा ली गई.

एक घंटे का समय दिया गया था. मुझे कुछ न सूझा तो एक कहानी लिखी अपने शिक्षक के बारे में, जो पढ़ाते कम थे मगर प्राचार्य महोदय की खुशामद में दिन बिता देते थे. कभी उनके लिए सब्जी खरीदने जाते, कभी उनके लिए पान चाय का इन्तजाम करते. खुद भी पूरे समय पान खाते रहते थे. प्राचार्य जी की उन पर विशेष कृपा रहती थी. मैने उन्हें सच्चा आदर्श शिक्षक बताया कि इस तरह से शिक्षण कार्य करके आप अपना स्थान स्कूल में विशिष्ट बना सकते हैं अन्यथा सिर्फ पढ़ाते हुए जीवन में क्या रस है. अंत मैने किया था कि यदि मैं शिक्षक बना तो इनके समान बनूँगा और पान खाऊँगा. और भी जितना कुछ उनकी रंगीन कमीज, ट्यूसन क्लास, स्कूटर और स्टाईल के बारे में एक घंटे में लिख पाया, लिख डाला. बस, नाम नहीं लिया उनका मगर पढ़कर कोई भी समझ सकता था कि किसके बारे में लिखा है.

प्रतियोगिता में जीतने की कोई उम्मीद तो थी नहीं बल्कि यह अंदेशा जरुर था कि अगर उन मास्साब ने पढ़ लिया तो पिटाई जरुर होगी. मन ही मन बहाने सोचता रहता कि क्या बोल कर बचना है कि आपके बारे में नहीं लिखा था. क्लास ६ से लेकर ८ तक के विद्यार्थी एक ग्रुप में रखे गये थे. १०० से ज्यादा प्रतियोगियों के बीच मेरा तो खैर क्या होना था, बस अपनी प्रतिभागिता दर्ज करानी थी सो करवा दिया.

१५ अगस्त को आयोजन के दौरान विजेता घोषित होने थे और उन्हें पुरुस्कार देने हरि शंकर परसाई जी आ रहे थे. परसाई जी शहर के जाने पहचाने लोगों में अपना नाम रखते थे. अक्सर पिताजी और उनके दोस्तों से उनका नाम सुना था और उन्हें परसाई जी को अखबार में पढ़कर हँसते देखा था. एक उत्सुक्ता तो थी ही उन्हें देखने की. बस, प्रथम पंक्ति में बैठ गया. परसाई जी कुरता पायजाम पहने आये और मंच पर प्राचार्य महोदय के साथ बैठे.

झंडा वादन, जन गन मन, मिष्ठान वितरण हुआ और फिर फुल माला, सरस्वति वंदन के साथ कार्यक्रम शुरु हुआ. प्राचार्य महोदय का भाषण हुआ. कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए और फिर परसाई जी अपना अभिभाषण देने आये.

अपने भाषण के दौरान ही जहाँ उन्होंने अच्छी शिक्षा दीक्षा पर जोर दिया, वहीं एक जागरुक नागरीक बन अपने आस पास हो रहे गलत कार्यों पर ऊँगली उठाने की बात की और इस हेतु कलम और कलमकारों की सजग भूमिका पर प्रकाश डालते हुए उद्धरण देते हुए मेरा नाम ले डाला और मुझे मंच पर आने को कहा.

मैं तो समझ ही नहीं पाया कि ऐसा मैने क्या कर दिया. मुझे प्रतियोगिता में अपने लिखे पर प्रथम पुरुस्कार देते हुए उन्होंने मेरे लिखे को व्यंग्य बताया और कहा कि ऐसा लिखने के लिए साहस की जरुरत होती है और यह हर जागरुक नागरिक का कर्तव्य है.

फिर कार्यक्रम के बाद उन्होंने मुझे खूब पढ़ने, पाठय पुस्तक के इतर भी अन्य पुस्तकों को पढ़ने और लिखने आदि की समझाईश देकर आशीर्वाद दिया.

उम्र के उस पठाव में कुछ खास तो समझ नहीं आया किन्तु यह जरुर अहसास हुआ कि इतने बड़े आदमी और नामी लेखक ने मुझको सराहा है. मैं खुशी से फूला न समाता था. पिता जी और परिवार को जब बताया तो उन्हें जैसे विश्वास ही न हुआ. सब बहुत खुश हुए.

फिर सालों निकल गये. पढ़ाई के इतर छोटा मोटा लेखन भी न हुआ और पढ़ना भी नहीं. बीच बीच में कभी कभी शहर के कार्यक्रमों में पिता जी के साथ जाता रहा और परसाई जी होते तो उन्हें देखता रहा.

फिर सी ए बन कर जबलपुर में ही प्रेक्टीस शुरु की तो दफ्तर नेपियर टाऊन में परसाई जी के घर के पास ही था. एक शाम जाने क्या सोच कर उनके घर मिलने पहुँच गया. परसाई जी की तबीयत ठीक न थी और वो लेटे हुए थे.

धीरे से अपनी चिर गंभीर मुद्रा में उन्होंने मुझे देखा और पूछा, “कहिये?”

मैने उन्हें अपना सी ए वाला कार्ड पकडाया और चरण स्पर्श किये. वो ध्यान से कार्ड देखने के बाद धीरे से मुस्कराये और कहने लगे कि आप जैसे लोगों से तो हमारा क्या वास्ता? पैसा हो तो हिसाब बनवायें. कोई और दर खटखटाईये जनाब. इसी मोहल्ले में आपकी सेवा लेने लायक बहुत से हैं और यह कह कर वो जोर से हँसने लगे.

मैं झेंप गया और कहा कि सर, आपके दर्शन हेतु आया था बस. आपने मुझे पहचाना नहीं.

कहने लगे कि आज की दुनिया में बिना प्रसाद की उम्मीद में तो कोई दर्शन करने मंदिर भी नहीं जाता और आप यहाँ? वे पुनः हँसे.

मैने उन्हें याद दिलाया कि कैसे स्कूल की प्रतियोगिता में उन्होंने मुझे पुरुस्कार दिया था तो वह तुरंत बोले – अरे, तो तुम पान खाते हुए आते और कहते कि स्कूल में मास्साब हो गया हूँ, प्राचार्य महोदय की कृपा बनी हुई है- तब तो पहचान पाता. फिर एक बार वही हँसी.

मैं तो उनकी याददाश्त का कायल हो गया. इतना पढ़ने लिखने वाला इन्सान, इतने वर्षों बाद मेरे उस छिट्पुट लेखन का मसौदा याद रखे हुए है. नतमस्तक हो गया मैं.

फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि इधर कुछ लिखते हो?

मेरे न कहने पर और नई प्रेक्टिस की व्यस्तता के बहाने का सहारा लेने पर बहुत देर ध्यान से मुझे देखते रहे और कहा कि जीवन जीने के लिए वह भी जरुरी है किन्तु जीवन का असली आनन्द लेने के लिए और एक जागरुक नागरिक होने के कर्तव्य निभाने के लिए लिखना भी जरुरी है. लिखा करो समय निकाल कर.

मैने भी सहमति में सर हिला दिया. वो मुस्कराये-शायद समझ गये होंगे कि मैं झूठ सहमति दर्ज कर रहा हूँ.

फिर तो अक्सर ही उनके यहाँ जाना होता. बार बार वो लिखने पर जोर देते और मैं सहमति में सिर हिला कर आ जाता. वो कहते कि तुममें प्रतिभा है. तुम अच्छा लिख सकते हो मगर कोशिश तुमको ही करना पड़ेगी. उसमें तो मैं कुछ नहीं कर सकता.

उनकी बीमारी के दौरान काफी काफी देर उनके पास बैठा रहता. एक सुकून सा मिलता. उनसे मिलने आने जाने वालों का सिलसिला हमेशा ही होता. मैं उनके किस्से सुनता रहता और उनकी जिन्दा दिली पर नत मस्तक रहता.

मैं एक बार हमारे एक परिचित के घर बैठा था. परसाई जी का भी उनके घर आना जाना था. परसाई जी उसी बीच भेड़ाघाट से लौट कर उनके घर आये. जब तक चाय पानी का इन्तजाम होता, परसाई जी ने उनसे एक कागज पैन माँगा और लिखने बैठे गये. कुछ ही देर में उनका आलेख तैयार था जिसे उन्होंने मेरे परिचित के बेटे को देकर अखबार के दफ्तर में छपने भेज दिया. इतना फटाफट लिख देना वो भी इतना पैना-शायद उन जैसे महाज्ञानियों के ही बस की बात है. लिखते भी तो मुद्रा वैसी ही धीर गंभीर होती- लगता ही नहीं इनके लेखन में कितना हास्य का पुट लिए करारा कटाक्ष होगा.

समय उड़ता रहा और जिस दिन परसाई जी इस दुनिया से विदा हुए, मैं शहर में नहीं था. पूरा शहर स्तब्ध था. साहित्यजगत को एक भारी धक्का लगा था. लगभग एक हफ्ते बाद लौटा, तो खबर सुनकर जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. आज भी जब उनको पढ़ता हूँ तो अहसासता हूँ कि जैसे परसाई जी बाजू में बैठे अपने किस्से सुना रहे हैं.

अब मेरा नियमित लेखन हो रहा है. परसाई जी को न जाने कितनी कितनी बार पढ़ चुका और बार बार पढ़ता हूँ और हर बार यही ख्याल आता है कि काश!! उनके रहते कलम उठा ली होती तो उनके मार्गदर्शन में आज लेखनी की धार ही दूसरी होती. मगर कब किसी को किस्मत से ज्यादा मिलता है.

लेकिन आज भी जब कलम उठाता हूँ तो परसाई जी नजर आ जाते हैं ख्यालों में यह कहते: जीवन का असली आनन्द लेने के लिए और एक जागरुक नागरिक होने के कर्तव्य निभाने के लिए लिखना भी जरुरी है. लिखा करो समय निकाल कर.

हमारा वो युग आज जैसा डिजिटल युग क्यूँ न हुआ यह भी एक मलाल रहता है हर वक्त वरना न जाने उनके सानिध्य की कितनी तस्वीरें दिल के साथ दीवारों पर भी सजा कर रखता.

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शुक्रवार, जून 08, 2012

कोहरे के आगोश में...

मैं उससे कहता कि यह सड़क मेरे घर जाती है- फिर सोचता कि भला सड़क भी कहीं जाती है. जाते तो हम आप हैं. एक जोरदार ठहाका लगाता और अपनी ही बेवकूफी को उस ठहाके की आवाज से बुनी चादर के नीचे छिपा देता.

फिर तो हर बेवकूफियाँ यूँ ही ठहाकों में छुपाने की मानो आदत सी हो गई. आदत भी ऐसी कि जैसे सांस लेते हों. बिना किसी प्रयास के, बस यूँ ही सहज भाव से. इधर बेवकूफी की नहीं कि उधर ठहाके लगा उठे और सोचते रहे कि इसकी आवाज में सब दब छुप गया- अब भला कौन जान पायेगा?

यूँ गर कोई समझ भी जाये तो हँस तो चुके ही है, कह लेंगे मजाक किया था.

उम्र का बहाव रुकता नहीं और तब जब आप बहते बहते दूर चले आये हों इस बहाव में तो एकाएक ख्याल आता है कि वाकई, एक मजाक ही तो किया था. अब ठहाका उठाने का मन नहीं करता. एक उदासी घेर लेती है ऐसी सोच पर. और उस उदासी की वजह सोचो- तो फिर वहीं ठहाका- बिना किसी प्रयस के- सहज ही.

कहाँ चलता है रास्ता? कहाँ जाती है सड़क? वो तो जहाँ है वहीं ठहरी होती है. हम जब चलते हैं तब भी ठहरे से. सुबह जहाँ से शुरु हों- शाम बीतते फिर उसी बिन्दु पर.

हासिल- एक दिन गुजरा हुआ. हाँ, दिन चलता है. चलते चलते गुजर जाता है- जैसे की हमारी सोच, हमारे अरमान, हमारी चाहतें. सब चलती हैं- गुजर जाती हैं. ठहर जाता हूँ मैं- जाने किस ख्याल में डूबा- उस रुके हुए रास्ते पर- सड़क कह रहा था न उसे. जो जाती थी मेरी घर तक.

वो कहता कि सड़क जाती है वहाँ जो जगह वो जानती है. अनजान मंजिलों पर तो हम उड़ कर जाते हैं सड़क के सहारे. एक अरमान थामें.

मगर सड़क जायेगी घर तक. तो मेरी सड़क क्यूँ नहीं जाती मेरे उस घर तक- जहाँ खेला था बचपन, जहाँ संजोये थे सपने- अपने खून वाले रिश्तों के साथ.

कहते हैं फिर कि वो जाती है उन जगहों पर जिसे वो जानती है.

बताते हैं कि सड़क के उस मुहाने पर जहाँ मेरा घर होता था, अब एक मकान रहता है. मकान नहीं पहचानती सड़क- घर रहा नहीं. कई बरस हुए उसे गुजरे.

तो खो गया फिर उस रुकी सड़क के उस मोड़ पर- जहाँ से सुबह चलता हूँ और शाम फिर वहीं नजर आता हूँ इस अजब शहर में- जो खोया रहता है बारहों महिने- छुपा हुआ कोहरे की चादर में. किसी बेवकूफी को ढापने का उसका यह तरीका तो नहीं?? एक ठहाका लगाता हूँ- ये मेरा तरीका पीछा नहीं छोड़ता और रास्ता है कि चलता नहीं.

तो कुछ कदमों पर समुन्दर है और पलटता हूँ तो पहाड़ी की ऊँचाई...जिसे छिल छिल कर बनाये छितराये चौखटे मकान...अलग अलग बेढब रंगों के...कहते हैं यह सुन्दरता है सेन फ्रान्सिसको की..हा हा!! मेरा ठहाका फिर उठता है और यह शहर- छिपा देता है उसे भी अपनी कोहरे की चादर की परत में...और मैं गुनगुनाता हूँ अपनी ताजी गज़ल.....

गज़ल जरा डूब कर सुनना तो सुनाई देगी इसी कोलाज़ की झंकार धड़कन धड़कन:

 

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भले हों दूरियाँ कितनी कभी घर छोड़ मत देना

हैं जो ये खून के रिश्ते , उन्हें तुम तोड़ मत देना

 

उसी घर के ही आँगन में बसी है याद बचपन की

खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना

 

गमकती खुशबू कमरे में उतरती है झरोखे से

वो डाली मोंगरे वाली कभी तुम तोड़ मत देना

 

बरसती खुशियाँ तुम पर हों रहो हर हाल में हँसते

मिले कोई दुख का मारा तो नज़र को मोड़ मत देना

 

पड़ी है नीचे सीढ़ी के पिता की वो छड़ी अब भी

सहारा उनकी यादों का कहीं तुम तोड़ मत देना

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मई 29, 2012

एक समय जो गुजर जाने को है

एक बार फिर- तीन कविताओं के साथ प्रस्तुत. शायद जल्द नियमित हो जाऊँ इस उम्मीद के साथ. एक नये उपक्रम को अंजाम देने की चाहत में कुछ पुरानी नियमित दिनचर्या से दूर:

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-१-

कह तो गये...

उत्तेजना में आकर

युवा मन के भाव जताने...

धूप

कोई आईना नहीं..

बस अंधकार को मिटा

राह देखने का साधन...

तो फिर..

मिट्टी के कसोरे में

भरो कडुवा तेल..

बना लो रुई की बाती

रगड़ कर हथेलियों में..

और सुलगा उसे

चकमक पत्थर को घिस...

पुकार लेना...

सूरज!!!

कहो!!

पुकार सकोगे यूँ??

नहीं न!!

तभी तो कहता हूँ मैं...

गाँधी को समझ पाने के लिए

एक उम्र चाहिये!!

युवा उत्तेजना से

अनर्गल प्रलाप के सिवाय

क्या पा जाऊँगा मैं इस बाबत!!

-२-

एक चश्मा

उन वादियों के बीच

उतरता है सोच में..

मानिंद

चश्मा

तेरी आँखों की

नम गहराई में..

चौंधियाता है

इन आँखों को..

गर न पहनूँ...

वो चश्मा...

जो खरीदा था तुमने..

मेरे वास्ते..

 

-३-

कि सोचता हू मैं.. कहानी पढ़ूँ... 
कुछ जाम गले से उतारुँ..और
फिर एक कहानी गढ़ूँ...
कि गीत सुन लूँ कोई...
कि गीत गुन लूँ कोई..
और ओढ़ लूँ एक नई शक्शियत..
बदल जाऊँ इन उपकरणों की दुनिया में..
बन एक नया उपकरण...
अचम्भित कर दूँ तुम्हें!!!
बात- एक जाम की...
बात- तेरे नाम की...

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

सेन फ्रेन्सिसको से कविता...

एक सप्ताह गुजर चुका है सेन फ्रेन्सिसको आये. एक सप्ताह होटल में और रहना है फिर एक किराये का अपार्टमेन्ट ले लिया है, उसमें शिफ्ट हो जायेंगे. नजदीक ही है. ३० मिनट लगेंगे दफ्तर पहुँचने में. यूँ कर शायद ६ माह गुजारना हो यहाँ कि कौन जाने- शायद और ज्यादा. एक साल-हम्म!! जितना किस्मत में यहाँ रहना बदा होगा- रहेंगे. टोरंटो तो लौटना है ही. घर मकान वहीं है. सो तो भारत में भी है- तो वाया टोरेंटो- उम्र के पड़ाव निर्धारित करेंगे यह सब कि कब और कहाँ.
फिलहाल इस एतिहासिक शहर सेन फ्रेन्सिसको से लिखी और फेस बुक पर इस बीच मेरे द्वारा चढ़ा दी गई कुछ पंक्तियाँ – चाहें तो ३ कवितायें कह लें...अभिव्यक्ति...अनुभूति...विचार...भाव!!! आपकी इच्छा- हम तो छाप ही रहे हैं.
आगे कभी आपको इस शहर की गलियाँ, सड़कें और तापमान के साथ इसका चेहरा और व्यवहार पढ़वायेंगे. फिलहाल तो यह पढ़ें:
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--१—
वो पूछता है मुझसे
मिरा हाल और के
मैं हूँ कहाँ- इन दिनों
इस रोज!!
क्या कह पाता –
सो लिखा.. मौन
क्या हाल किसी दीवाने का
और क्या पता किसी बंजारे का...
जो कि समझ सको - तुम हे ज्ञानी
हम रमता जोगी औ’ बहता पानी!!

--२—
वो तोड़ती पत्थर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर
वो तोड़ती पत्थर...
दो बूँद पसीना....
सुखा पाने की कोशिश
घूप दिखा ..
ज्यूँ सूखता हो चद्दर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर
ज्यूँ सूखता हो चद्दर...
बदल गये युग......
मात्र कुछ पलों में...
निराला गुजरे..
हुए छिन्न तार...
लुटी इस्मत...
वो पहने था खद्दर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर....
वो पहने था खद्दर...

(आदरणीय निराला जी की रचना से प्रेरित और उनको नमन करते हुए आभारी)
(गुरुदेव राकेश खण्डेलवाल का सुझाव अमल करते हुए निराला जी से क्षमायाचना की जगह उपरोक्त कथन)

--३--
हूँ......न!!
क्या?
एक नई कविता..
वाह!!
खुद बुनी??
हूँ..सहारा उन बिम्बों का...
जो “न” कहे गये हैं
इस्तेमाल को समाज में...
समाज...अपरिभाषित...
हमेशा की तरह...
एक उहापोह..कोई जबाब...
फिर भी...हूँ..
ह्म्म!!.............लोग वाह कहते हैं..
लोग उफन भी जाते हैं...ह्म्म!!
फायदा कहीं...वाह! आह!
जो हासिल इक मंजिल
मात्र ऐसे कि कोई कहे...
वाह!! आह!!
एक नई कविता..
एक उलझी कविता..
एक अनसुलझी कविता..
ताकतवर,,,,बोल्ड अंग्रेजी में..
बोल्ड...या क्लीन बोल्ड हिन्दी में...
भाषा का तमाशा!!
एक नई कविता..
नई या पुरानी..
हू केयर्स!!
डैम!!!
-समीर लाल ’समीर’
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सोमवार, अप्रैल 02, 2012

शान्ताराम-एक नज़र!!

फरवरी १४, तब मैने लिखा था कि शायद १७०० पन्नों की ई बुक शान्ताराम की शुरुवात ही है- वाकई ९८८ पन्नों की पुस्तक- परन्तु ईबुक में पन्ने बढ़ जाते हैं. आज १ अप्रेल- खत्म हुई पुस्तक. मानो एक युग का अन्त हुआ. यह ४५ दिन- सुबह शाम ४५-४५ मिनट इस पुस्तक का अध्ययन चलता रहा- सप्ताहंत छोड़ कर. बस और ट्रेन में-ऑफिस जाते और आते वक्त. आस पास का कुछ ध्यान न रहता. बस, पुस्तक में मन रचा बसा रहता. लेखन की महारत ऐसी, कि लगे पुस्तक के साथ उसी जगह खड़े हैं, जहाँ घटना घट रही है. कभी कहानी में गोली चलती, तो इतनी जीवंत कि मैं कँधा किनारे कर लेता गोली से बचने के लिए. एक एक महक- एक एक दृष्य़ जीवंत- अंत तक.

कहानी का नायक लिनबाबा उर्फ शान्ताराम, उसका आस्ट्रेलिया से जेल तोड़कर भारत का सफर, प्रभाकर नामक एक भले टूरिस्ट गाईड बालक के साथ मुलाकात, मुम्बई में आजीविका के लिए गैरकानूनी कामों में जुड़ना, महाराष्ट्र में प्रभाकर के गांव की ६ माह की यात्रा, पुनः मुम्बई वापसी, दोस्तों की मण्डली, झोपड़पट्टी में जाकर रहना, वहाँ के गरीबों के लिए क्लिनिक चलाना, मुम्बई के गैंगस्टरों से जुड़ना, उनके साथ काम करना, आर्थर रोड़ जेल की यात्रा और यातना, कालरा नामक गर्लफ्रेण्ड का बनना, मैडेम जाहू के चुंगल से कालरा के कहने पर लीसा को वेश्यावृति से उबाराना, लीसा का दोस्त बन जाना और फिर फिल्मों में विदेशी एक्स्ट्रा स्पलाई करने में उसके साथ पार्टनरशीप, मुम्बई के माफिया डॉन का खास हो जाना, उसके साथ पासपोर्ट, करेन्सी का धन्धा, ड्रग्स में डूब जाना और फिर उबरना, अफगानिस्तान में पाकिस्तान के रास्ते मुजाहिद्दुन लड़ाकों को मुम्बई माफिया डॉन के साथ अस्त्र शस्त्र पहुँचाना, दोस्तों के मर्डर और मौतें, खून खाराबा, लड़ाई झगड़े, दिल से जुड़ते बेनामी रिश्ते, कुछ रिश्तों को वो नाम देना जिनसे पहले किनारा कर आया, क्रिमन्लस की जिन्दगी के अनेक पहलूओं पर नजर डालती पुस्तक पूरे समय अपने साथ बाँधे रखती है. पुस्तक में रोमांच है, रोमान्स है, एक्शन, स्टंट, क्राईम से लेकर धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब कुछ है.

फिर भी न जाने क्यूँ-अंत तक पहुँचते हुए ऐसा लगता है कि युवाओं को जो जिन्दगी की लड़ाई की शुरुवात कर रहे हैं- उन्हें इस पुस्तक को नहीं पढ़ना चाहिये. मेरी यही व्यक्तिगत सोच है. शायद क्राईम की दुनिया का ग्लैमर किसी को भा ना जाये, यह डर लगता रहा पुस्तक खत्म करके.

अंत भी ऐसा होता कि किए की सजा भुगत रहा हो तो भी बेहतर होता किन्तु अंत एक खुला छूट गया है इतनी बड़ी पुस्तक होने के बाद भी. अंत बहुत जल्दबाजी में समेटा गया लगा- अन्यथा एक पुस्तक का उद्देश्य कि समाज को कुछ अच्छा संदेश देकर जाये, वो अवश्य पूरा किया जा सकता था.

फिर भी लेखनशैली, व्याख्या, एक एक संदर्भ पर बगैर कौतोही बरते विस्तार से विवरण तो सीख लेने लायक है. तो मिलीजुली प्रतिक्रिया यही है कि इसे एक लेखक की दृष्टि से लेखन की सीख लेने के लिए अवश्य पढ़ना चाहिये किन्तु पुनः वही भय- कहीं कोई युवा इसके प्रभाव में बहक न जाये.

Shantaram

पुस्तक पढ़ते पढ़ते-उसमें जाने अनजानों से बनते जुड़ते रिश्तों को अहसासते कुछ पंक्तियाँ यूँ भी उभरी:

काश!! कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!..

अजनबीपन..

परिचय की ओट में

सिर छुपाये बैठा

और

उस अजनबीपन की नदिया

जिन पर बनते हैं

रिश्तों के पुल

बिलकुल

नदिया पर बने

पत्थर के पुल की तरह ..

टूट भी जाये

वो पुल...

या

तने रहें दृढ संकल्पित...

नदिया बहती रहती है

अपनी धुन में...

कल कल- छल छल!!!

जैसे कोई भी रिश्ता

अविरल..

अविचल..

और निश्छल.....

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मार्च 27, 2012

सुना है तुम सभ्य हो..

हिन्दुस्तान की समस्या यह नहीं है कि हम क्या करते हैं? जो हम करते हैं वह मानव स्वभाव है, वो कोई समस्या नहीं.. सारी दुनिया वही करती है मगर समस्या यह है कि हम जो भी करते हैं अति में करते हैं. यही हमें औरों से अलग विशिष्ट पहचान देता है. विशिष्टता नामी और बदनामी दोनों की ही होती है.

ज्ञानी तो हर हिन्दुस्तानी होता ही है. हो न हो मगर मानता तो है ही. शायद ही कोई ऐसा हिन्दुस्तानी हो जिसे आप अपनी कैसी भी कठिन से कठिन समस्या या बीमारी बतायें और वो सलाह न दे. चाहे फ़िर आपको मात्र खरोच आई हो,या पेट दर्द हो,,केंसर हुआ हो, एडस हो जाये, हर हिन्दुस्तानी के पास हर मर्ज की देशी विदेशी दवा का नुस्खा जेब में हाजिर मिलेगा. करेले से लेकर लहसुन, अर्जुन की छाल से लेकर इसबगोल की भूसी तक, मंत्र से केले में भस्म भर कर पीलिया के ईलाज तक, आरंडी के बीज से लेकर सौंफ के पानी से गठिया वात के ईलाज की, बुखार में बिना वजह जाने क्रोसिन से कॉम्बीफ्लेम तक और तो और एन्टीबायोटिक भी बिना खून के जांच के और मिर्चे और नीबू शहद विनेगर के घोल से हार्ट ब्लॉकेड खोलने का तरीका तक बताने को लोग हर क्षण तैयार बैठे हैं.

पीलिया का ईलाज तो मंत्र से ऐसा करते हैं कि हाथ धुलवा कर परात भर पानी में पूरा पीला पानी उतार देते हैं. गले में कंठा पहना कर उसे नाभी तक चार दिन में पहुँचा देना तो हर पीलिया रोगी जानता है. गुप्त समस्याओं के चूरण और शिलाजीत की गोली देना तो लगता है कि भारतीयों के मौलिक अधिकार में से एक है.

आप समस्या बताने चलें और उसके पहले हर समस्या का उपाय और सलाह हाजिर. दिल्ली शिफ्ट होना हो,या फिर आपको विदेश जाना हो,जन्म मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाना हो या पासपोर्ट,. पान की दुकान पर अनजान सलाह देकर निकल जायेगा और आप सोचते रह जायेंगे कि यह बंदा कौन था. सब के सब देवीय शक्ति लिए घूमते हैं चप्प्पल फटकाते गली गली. उनकी सलाह पर चलता तो सचिन कब का सौ शतक लगा चुका होता. अन्ना भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेक चुके होते और भारत अमेरीका से ज्यादा विकसित राष्ट्र होता. मगर सलाह देते देते इतना अति कर गये कि लोगों ने उनकी सलाह ही सुनना बन्द कर दी. मगर वो सलाह देने से अब भी बाज नहीं आते.

कोई डॉक्टर का पता नहीं बताता और न ही डाईग्नोसिस सेंटर का. हड्डी में दर्द- पुत्तुर में जाकर अंडा मलवा लो. सांस भरती है, केरल जाकर जिन्दा मछली वाला ईलाज करा लो, केंसर है- हिसार वाले बाबा जी की रोटी खा लो...पगला गये हो मतलब गधे से कम तो होगे नहीं..फलाने खेत की घास चर लो....न सुधार दिखे तो लोकसभा का चुनाव लड़ लो...सारे साथी एक जगह तो ईक्कठे हो लोगे कम से कम..हद है सलाहकारी की.

कहीं तो रुको...हर व्यवसाय के गुर जानने वाले अलग अलग विशेषज्ञ है, उन्हें मौका तो दो. मगर मौका देते तब हो जब बाकी सलाहकारी से निपट कर आखिरी दिनों मे पहुँचते हो. कोई राह बच नहीं रहती. अब विशेषज्ञ कोई भगवान तो है नहीं कि हर बिगड़ी स्थिति ठीक ही कर दे. जब शुरुवात थी तब मित्रों का साथ निभाते रहे और अंत में कोसने को विशेषज्ञ बचा.

सलाहकारी के क्षेत्र में अति- ज्ञान उपजाने में अति.

भारत के इंजिनियर विश्व को अपनी सेवायें देकर लुभाने क्या लगे कि उनकी ऐसी खेती शुरु हुई कि पान की दुकानों से ज्यादा इंजिनियरिंग कालेज खुल गये. बेटा नालायक निकल जाये तो उसे पहले एल एल बी करवाते थे और अब इंजिनियरिंग. बात डिमांड एंड सप्लाई की है जी.

निख्खटू से निख्खटू बेटा बेटी आज जब कुछ नहीं कर पा रहे तो इंजिनियर बन जा रहे हैं. ऐसे में वकील कौन बनेगा...चलो, वो कोई और बन जायेगा तो ठेकेदार कौन बनेगा.चलो, वो भी कोई न कोई बन जाये तो नेता कौन बनेगा...फिर तो कोई बचेगा ही नहीं फिर साईकिल और हाथी चुनाव चिन्ह का क्या दोष. निकॄष्ट मे से निकॄष्ट्तम चुनना भी तो हम भारतीयों की ही पहचान है.

अति की सीमा देखनी हो तो टी वी पर भारतीय सिरियल की महिमा देखिये. जरा सी टी आर पी मिल भर जाये फिर तो मानो सिरियल ने अमरत्व प्राप्त कर लिया. उस सिरियल के हीरो हीरोईन वैसे के वैसे ही टमाटर बने रहेंगे और आप समय के साथ अपना सर धुनेंगे कि सिरियल देखते देखते बाल काले से सफेद हो गये, संख्या में भी आधे से अधिक विदा हो चुके और बच्चे स्कूल से कालेज में जा चुके मगर सिरियल है कि चले ही जा रहा है. ये तब तक नहीं मानते जब तक बढ़ी हुई टी आर पी घट कर शून्य न हो जाये. फिर वो चाहे प्रतिज्ञा हो या छोटी बहु...छोटी बहु कायदे से अब तक सास बन कर भी गुजर भी चुकी होती मगर अति की महिमा कि छोटी बहु अभी तक छोटी बहु ही है.

बुराई कितनी भी बुरी हो या चाहे गंधाती हो मगर हर बुराई में भी एक न एक अच्छाई तो होती ही है. कम से कम इसी बात का महत्व समझ कर ही पाकिस्तान से सिरियल समय पर खत्म करना सीख लें. अब उनके ही सिरियल ’धूप किनारे’ की हिन्दी कॉपी ’कुछ तो लोग कहेंगे’ को भी उसी राह पर ले चल पड़े हैं..देखना अति करके ही मानेंगे. अभी तो ऐसा ही लग रहा है.

वही हाल परिवारवाद का है राजनिति में-पांचवी पीढ़ी तैयार है जी हुजूरी करवाने को..तैयार क्या है-करवा ही रही है. छटवीं भी इस उ.प्र. विधानसभा में हल्की सी झलक दिखाई ही गई अपनी मम्मी के साथ मंच पर. कुछ अति तो इसमें भी है. इतनी विकल्पहीनता की दुहाई भी ठीक नहीं.

हम भारतीय जानते हैं दुर्गति की गति को धीमा करना..काश!! सीख पाते इसकी दिशा बदल कर बेहतरी के तरफ ले जाना.

होली आई. हर साल आती है. अब बधाई का सिलसिला ऐसा शुरु हुआ कि उसकी भी अति हो ली है इस होली पर. फेस बुक पर आये तो हर घंटे बधाई ही दिये जा रहे हैं. हर बार हमको टैग कर देते हैं. अब उस पर जो कमेंट आयें सारे हमारे ईमेल में. रंग तो एक बार नहा लो तो छूट जाये. छूटना ही होगा आखिर नकली रंग की भी तो अति है. मगर हम ईमेल साफ ही किये जा रहे हैं और टैग हैं कि खत्म ही नहीं हो रहे. मुबारकबाद में टैगिंग कैसी? वो तो हम यूँ भी ले लेंगे- अब टैग करके क्या साबित करना चाह रहे हो भाई.

एक सज्जन ने मुबारकबाद भेजी और सी सी में १२०० ईमेल एड्रेस...अब वे सारे जबाब देंगे और हम १२०० ईमेल की सफाई करने में जुटे नजर आयेंगे. मानो हमें होली खेलना ही नहीं है बस नगर निगम ने जमादार की नौकरी दी है कि चलो, ईमेल की सफाई करो.

बक्शो मित्र. माना तुम अच्छे कार्टून बना लेते हो, फोटोशॉप में काट छांट कर इसकी तस्वीर उसकी बना देते हो..तुकबंदी कर मुक्तक रच लेते हो, बधाई संदेश देने के नये आयाम गढ़ लेते हो मगर उन सब से उपर..यह टैगिंग क्यूँ करते हो? यह फेस बुक की सुविधा है या मेरी दुविधा.

ईमेल में सीसी के बाद ठीक नीचे बीसीसी भी है,,वो तुम्हारी मोतियाबिंदी आँखें क्यूँ नहीं देख पाती? कहीं तो तुम यह तो दिखाना नहीं चाह रहे कि तुम्हारी पहुँच कहाँ कहाँ तक है? पहुँच से होता क्या है? मात्र तिहाड़ में बेहतर सुविधा और अच्छी सैल. रहोगे तो तिहाड़ में ही और कहलाओगे तो अपराधी ही.

अति बन्द करो,प्लीज!!

दो चार करोड खा जाओ- वादा है कि कोई हिदुस्तानी जो जुबां भी खोले..हम आदी हैं मान कर चलते हैं कि इतनी तो बनती है. मगर अब २००० करोड़ खा जाओगे एक खेल आयोजन में और सोचो कि सब चुप रह जायेंगे हमेशा की तरह- तो यह तो तुम्हारी ही बेवकूफी कहलाई. इतनी अति भी कैसे बर्दाश्त करें?

कलमाड़ी न बनो, कनुमोजी भी न बनो, तेलगी का फेस बुक से क्या लेना देना, २ जी को राजनिति में रहने दो, ईमेल को इससे दूर रखो....यहाँ तो अति न करो वैसी.

वरना एक दिन फेसबुक पर भी एक अन्ना जन्म लेगा...ईमेल पर बाबा रामदेव रामलीला करेंगे सलवार सूट पहन कर...प्रशासन अपनी चाल चलेगा और फिर...तुम कहोगे कि यह ठीक नहीं हुआ...

ऐसी नौबत ही क्यूँ लाते हो...पहले ही संभल जाओ!!!

excessive

सुना है तुम सभ्य हो..

कभी शहर में रहे नहीं...

फिर यह विष कहाँ से पाया...

आश्चर्य में मत डालो मित्र..

मैं अज्ञेय नहीं हूँ...

हो तो तुम भी साँप नहीं!!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मार्च 20, 2012

बस!! यूँ ही एक गज़ल बन गई..

इधर व्यस्तता के दौर में समय समय पर आस पास देखते, अखबार पढ़ते, टीवी देखते तरह तरह के विचार आते गये और मैं उन्हें अलग अलग कागज पर लिखता रहा.

कभी घर के पिछली सर्दी में बर्फीले तूफान के दौरान पानी से हुए एक्सीडेन्ट के बाद का रीनोवेशन होते समय यहाँ के मकानों की लकड़ी की दीवारें देख और ऐसे मौके पर कुछ याद आते पुराने रिश्ते, कभी अनजानों के द्वारा अभिभूत करता अपनापन, कभी वेलेन्टाईन डे, मदर डे आदि पर होती चहल पहल देख, तो कभी भारत की खबरें- वहाँ का राष्ट्रव्यापि आन्दोलन, चुनाव, नेताओं की कूटनितियाँ, चालबाजी, तो इस बीच जापान में आये भूकम्प और सुनामी की तबाही का मंजर.

हर बार एक नया भाव, बस दर्ज करता चला गया और आज जब पलटाया उन कागज के पन्नों को तो लगा कि एक गज़ल बन गई जो मेरी हर बात, वो हर भाव जो इस दौरान उठे, कह रही है.

बस, मन किया कि आपसे साझा करुँ:

Tsunamis

पत्थर बिन दीवार बनाना, इन्सानों ने सीख लिया

पत्थर दिल इन्सान बनाना, भगवानों ने सीख लिया.

 

दूर हुए सब रिश्ते-नाते,दूर हुआ मिलना-जुलना

अपनों का किरदार निभाना बेगानों ने सीख लिया

 

प्रेम के इजहारों के दिन भी, त्यौहारों में बदले हैं

इनसे भी अब लाभ कमाना, बाज़ारों ने सीख लिया

 

कौन है हमको लूटने वाला काश कभी हम जान सकें

खादी में भी खुद को छुपाना मक्कारों ने सीख लिया

 

घड़ियाली आंसू बहते हैं, संसद के गलियारों में

ज्यूँ मछली से प्यार जताना, मछुआरों ने सीख लिया

 

एक नहीं लाखों मरते हैं, धरती के इक कंपन से

ढेरों कुनबे साथ जलाना, शमशानों ने सीख लिया

 

डोल गई दिल्ली की सत्ता, ऐसा मतिभ्रम खूब हुआ

जनता को ही मूर्ख बनाना, सरकारों ने सीख लिया.

-समीर लाल 'समीर'

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सोमवार, मार्च 12, 2012

अतिथि- तुम कब जाओगे..मात्र फिल्म नहीं, एक हकीकत!!

कहते हैं कि दर्द अपनों संग बांट लेने से कम हो जाता है, सो बांट ले रहे हैं वरना बांटने जैसा कुछ है नहीं.

कुछ माह पूर्व भारत से फोन आया था. उस तरफ से आवाज आई कि कैसे हैं भाई साहब..ठीक थे सो बता दिया कि ठीक हैं. उसने बताया कि वो भारत में मेरे पड़ोस वाले शर्मा जी का भतीजा है और कनाडा आ रहा है तीन चार दिन रह कर चला जायेगा फिर चार महिने बाद परिवार को लेकर आयेगा. कोई आश्चर्य नहीं हुआ. अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं. फिर शर्मा जी तो पुराने मित्र ठहरे हमारे तो औपचारिकतावश हमने इनसे कह दिया कि अब तीन चार दिन के लिए कहाँ भटकोगे. घर पर ही रुक जाओ. उसने भी उतनी ही औपचारिकतावश थोड़ा सकुचाते हुए बात मान ली. कहता था कि आपकी बात नहीं मानूँगा तो चाचा जी गुस्सा हो जायेंगे. सिर्फ आपको ही जानता हूँ कनाडा में.

फिर अन्य बातों के बाद उसने कहा कि आपके घर तक आऊँगा कैसे? उनके कनाडा पहुँचने का दिन रविवार था तो हमने कह दिया कि एयरपोर्ट पर हम आ जायेंगे आपको लेने. बहुत खुश हो गया वह, उसकी बाँछे खिल गई. यूँ भी ऐसे न जाने कितने ऐसे मेहमानों को एयरपोर्ट से ला चुका हूँ जिनसे पहली बार एयरपोर्ट पर ही मिला हूँ...अब उसकी बारी थी- पूछने लगा कि आपके लिए कुछ लाना है क्या भाई साहब या भाभी से पूछ लिजिये, उनके लिए कुछ लाना हो तो. अब क्या कहते- कह दिया कि नहीं, कुछ विशेष तो नहीं चाहिये. सोचा कि दिल्ली से डोडा मिठाई और ड्यूटी फ्री से बॉटल तो खुद ही लोग समझ कर ले आते हैं, उससे ज्यादा क्या बोलना. हमेशा ही तो गेस्ट आते हैं. कभी बोलना कहाँ पड़ता, अपने आप ही लेते आते हैं बेचारे....सो फोन बन्द और हमारा इन्तजार शुरु रविवार का.

ईमेल से उसने फोटो और अपनी फ्लाईट वगैरह बता दी थी, तो रविवार को उसे एयरपोर्ट पर देखते ही पहचान गये.एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही साकेत (यही नाम है उसका) ठंड से कांपने लगा. मैने उससे कहा कि गर्म जैकेट निकाल लो अपने सामान से. ठंड बहुत है.

वो कहने लगा कि दिल्ली में तो बहुत गर्मी थी और यहाँ इतनी ठंड का अंदाजा नहीं था.. तो गरम कपड़े लाया ही नहीं है. खैर, कार में हीटिंग तेज कर दी. सोचा कि कल उसे बाजार लेते जायेंगे तो खरीद लेगा.

घर पहुँचते ही उसने भाभी जी को पैर छूकर और सुन्दर बता कर प्रसन्न कर दिया. बातूनी ऐसा कि पूछो मत!! लगातार बात करता जाये. एक बार जो शुरु हुआ तो बन्द होने का नाम ही नहीं ले रहा था..तुरंत घुलमिल गया. भाभी जी मैं प्याज काट देता हूँ. मैं चिकन बना देता हूँ और न जाने क्या क्या..प्याज तो क्या कटवाते मगर उस चक्कर में चिकन तुरंत बनाना पड़ा क्यूँकि पत्नी ने तो शर्मा जी सुनकर शाकाहारी भोजन बनाया था.

उनको कमरा दिखा दिया गया. बाथरुम दिखा दिया. नहाने घुसा तो पूरे एक घंटे नहाता रहा और जब वो निकला तो मुझे लगा कि शैम्पू और बॉडी वाश से मानो नहाया न हो, पी गया हो. एकदम नई नई बोतलों में आधे से भी ज्यादा समाप्त. मेहमानों के बाथरुम में वैसे भी नया ही रखा जाता है. शैविंग क्रीम भी बंदे ने तबीयत से लगाई और ऑफ्टर शेव से तो जैसे डुबकी लगा कर निकला हो. पूरा बाथरुम गमक रहा था. खुद से मेरे ड्रेसिंग रुम में आकर परफ्यूम लगा लिया वो भी वो वाला जो मैं खुद भी कभी कभार पार्टी आदि में जाने के लिए इस्तेमाल करता हूँ.

फिर टहलते हुए पहुँच गया मेरे बार तक. अरे वाह, आप तो बहुत शौकीन हैं भाई साहब. कौन कौन सी रखे हैं? और बस, ब्लैक लेबल की बोतल उठाकर प्रसन्नता से गिलास बनाने लगा. मुझसे भी पूछा कि आपके लिए भी बनाऊँ? बनाना तो था ही हाँ कर दी. फ्रिज से बरफ, सोडा निकाल कर शुरु हो गये.

यहाँ वैसे भी ड्रिंक्स के साथ ज्यादा स्नैकिंग की आदत नहीं होती मगर अब वो- भाभी जी, जरा दो चार अंडे की भुर्जी बना दिजिये तो मजा ही आ जाये. क्या बढ़िया खाना महक रहा है. इतनी खुशबू से ही पता लग रहा है कि आप बहुत अच्छा खाना बनाती है और फिर भाई साहब की काया तो खुद गवाही दे रही है कि आप कितना लजीज बनाती होंगी. ये लो, बात बात में हमें मोटा भी बोल गया.

उधर उनकी भाभी जी अपनी तारीफ सुनकर भरपूर प्रसन्न. कौन महिला न होगी भला. खूब रच कर अंडे की भुजिया बनी. तब तक उन्हें ड्रिंक्स के साथ भारत में पकोड़े खाते थे, भी याद आ गया सो वो भी मांग बैठे. प्याज, मिरची, पालक के पत्ते की भजिया तली गई.

शाम ७ बजे से पीना शुरु किया तो रात ग्यारह बज गये. हम तो दो से ज्यादा पी नहीं पाते मगर वो मोर्चा संभाले रहे जब तक की बोतल में बस हमारे अगले दिन के लिए दो ही पैग न बचे रह गये.

तब खाना खाया गया. तारीफ कर करके भरपूर खाया. पत्नी ने भी तारीफ सुन सुन कर घी लगा लगा कर गरम गरम रोटियाँ खिलाईं. तब वो सोने चले.

अगले दिन की मैने छुट्टी ली हुई थी. जब तक मैं सो कर उठा वो ठंड में ही बाहर टहलने निकल गया था. मैने सोचा कि इतनी ठंड में कैसे निकल पाया होगा बेचारा मगर वो लौटा तो मेरा ब्रेण्ड न्यू, खास पार्टियों के लिए खरीदा स्पेशल जैकेट पहने था. साथ में ही मेरी गरम टोपी, और दस्ताने भी पहने हुए थे. आते ही पूछा भाभी, कैसा लग रहा हूँ? भाई साहब मोटे दिखते जरुर हैं मगर उनका जैकेट देखिये मुझे कितना फिट आया है. खुद को मोटा तो वो कहने से रहा.

फिर नाश्ता- भाभी जी, बस, अंडा पराठे बना दो तो मजा आ जाये. साथ में दूध कार्नफ्लेक्स. फिर मैने उससे पूछा कि बाजार चलें. कुछ तुमको खरीदना हो तो खरीद लो. मुझे लग रहा था कि जैकेट परफ्यूम वगैरह तो खरीदना होगा ही उसे. मगर वो कहाँ जाने वाले. कहने लगा कि अब दो दिन को तो हैं मात्र. क्या खरीदें, क्या बेचें. यूँ भी यहाँ सब इतना मंहगा होता है कि हम यहाँ खरीदने लगे तो दीवाला ही निकल जायेगा.

रात देर हो गई थी तो उम्मीद थी सुबह बैग वगैरह खोलेगा- तब मिठाई ड्रिंक वगैरह निकालेगा. मगर सुबह क्या दिन भर खाते, हमारे साथ जगह जगह घूमते शाम हो गई, कहीं कॉफी पी गई तो कहीं बर्गर तो कभी आईसक्रीम मगर उनका पर्स नहीं निकला- उस पर से तुर्रा यह कि कितना मँहगा है, हम तो बर्बाद हुए जा रहे हैं. दुनिया में दाम खर्चने की बजाय मात्र सुनकर बर्बाद होते उस पहले शक्स को देखा - सब जस का तस. उस पर से तारीफ भी करते जाये कि आप लोगों ने भारत की संस्कृति को बचा कर रखा है यहाँ भी. मेहमान को तो पे ही नहीं करने देते. अरे, करोगे, जब न करने देंगे कि छीन कर पे कर दें??

रात वोडका की बोतल उठा ली कि रोज स्कॉच पीना ठीक नहीं. आज वोदका पीते हैं. मैने तो वो ही बची स्कॉच के दो पैग किनारे कर लिए. और इन्होंने पुनः पूरी श्रृद्धा और लगन से बोतल खत्म करते हुए दो पैग हमारे लिए छोड़ दिये. कभी हरी मटर तल कर तो कभी कोफ्ता तो कभी मटन कबाब- जैसे कि मेनु घर से बनाकर निकला हो- डिमांड और तारीफ कर कर बनवाता रहा और छक कर खाता रहा.

अगले दिन मेरे बाथरुम से आकर शैम्पू भी ले गया कि वहाँ खत्म हो गया है.

चार दिन चार महिने से गुजरे. चौथे दिन मन तो किया कि बस से एयरपोर्ट भेज दूँ मगर जैकेट मेरी पहने था. सोचा कि एयरपोर्ट में घुसने के बाद तो जरुरत रहेगी नहीं तो लौटा देगा वरना गई जैकेट हाथ से. चलते चलते मफलर भी लपेट लिया जो पत्नी ने शादी की सालगिरह पर मुझे दिया था. दस्ताने और टोपी तो खैर पहने ही था मेरी वाली. पत्नी उसके लिए गिफ्ट खरीद लाई थी. उसे भी कार में रख हम दोनों चल पड़े उसे छोड़ने.

एयरपोर्ट पर सामान चैक इन कराया. चरण स्पर्श - वंदन और ये चले साकेत शर्मा जी. हमें ठगे से उनको जाते देखते रहे और दूर तक नजर आती रही मेरी वो प्यारी जैकेट. छोड़ कर लौटने लगे तो देखा कि गिफ्ट तो पत्नी ने उसे दिया ही नहीं. हाथ में ही पैकेट थामी थी.

मैने पूछा तो बता रही थी कि सोचा था कि अगर जैकेट और मफलर वापस दे जायेगा तो ही दूँगी. मैं भी उसकी होशियारी पर प्रसन्नता जाहिर करने के सिवाय क्या करता. कुछ तो बचा. मुझे मालूम है जब भारत जाऊँगा-तब भी उसका पर्स जब्त ही रहेगा कि भाई साहब, अब आपके डालर के सामने हम क्या निकालें. यूँ भी आप बाहर से आये हैं, हमें पे थोड़े न करने देंगे.

विदेश में रहने वालों के लिए यह मंजर बहुत आम है- यहाँ वो आयें तो अतिथि और हम वहाँ जायें तो डॉलर कमाने वाले!! दोनों तरफ से लूजर और यूँ भी अपनी जमीन से तो लूजर हैं ही!!!

बस, घर लौट कर कुछ यूँ अपने आप रच गया:

nashta

मैं उस पर ज़रा क्या मेहरबान हो गया

अपने ही घर में खुद का, मेहमान हो गया

वो झूम झूम कर नहाया ऐसे सुबह सवेरे

कतरे भर पानी के लिए मैं परेशाँ हो गया.

अंडे की भुर्जी खाने की जिद थी नाश्ते में

डायटिंग का फैसला मेरा यों कुरबान हो गया

खाने की प्लेट देखिये, सदियों की भूख हो

देखा जो ये नजारा, तो मैं हैरान हो गया

वो जब चला तो सूट भी मेरा पहन चला

खातिरदारी में ’समीर’ आज नीलाम हो गया..

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, मार्च 02, 2012

६ साल पूरे हुए और हम जहाँ के तहाँ: मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

जब ३ मार्च २००६ को अपना ब्लॉग शुरु किया था तो बताया गया था कि बस एक साल की मेहनत और फिर इससे कमाई शुरु हो जायेगी. बड़े मन से जुटे. फिर साल दर साल बीतते गये. हर साल यही उम्मीद कहीं न कहीं बँधाई गई कि अगले साल से ...कमाई शुरु.

आज ६ साल बीत गये. मगर लोगों की बात सुन आज भी आशांवित हूँ कि बस, अगले साल से कमाई शुरु होने वाली है और फिर नौकरी छोड़ो और बस, दिन भर ब्लॉगिंग...जितना करोगे, उतना मजा...उतनी कमाई...क्या बात है!!

आज हो गये हैं ६ साल पूरे इस ब्लॉग का नशा लगे. समय के पंख दिखते नहीं मगर इस तरह अहसास तो करा ही देते है. फोटो वही पुराना लगाया हुआ है ६ साल पहले का. यही विडंबना है अधेड़ावस्था की कि जवानी का जाना मानो स्वीकार ही न हो...कई बार सोचता हूँ कि इससे बेहतर तो राजनिति मे उतर जाऊँ...वहाँ स्वीकार्य है चिर युवा रहना....आडवानी जी जैसे युवा अब भी प्रधान मंत्री बनने का स्वपन पाले लगे ही हैं रथ यात्रा निकालने में तो हमारी स्थिति तो थोड़ी बेहतर ही कहलायेगी.

खैर यह सब छोड़ें..६ साल के ब्लॉगर की कविता पढ़े...बधाई दें, मुस्करायें या जो मन आये सो करें मगर शुभकामनाएँ तो दे ही जायें:

कभी मन में था कि साहित्यकार कहलाऊँ ब्लॉग लिख लिख कर...हा हा...ब्लॉग और साहित्य...कितने न मुस्करा देंगे..अनभिज्ञ एवं बेवकूफ...मगर मैं चुप रहूँगा...क्यूँ कुछ कह कर अपने संबंध खराब करुँ....अब मन नहीं हैं साहित्यकार कहलाने का...मगर मन पर तो लोभ ने कब्जा जमाया हुआ है..उसका क्या करुँ...इस कविता में दृष्य देखें तो शायद आपका मन भी बदले:

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मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

बूँद एक चली

छोड़ बादल को

प्रसन्न मन

मिलेगी नीचे धरा पर

एक तत्काल बनी नाली में

जहाँ तेरती होंगी

नन्ही नन्ही किश्तियाँ

कागज़ की

वहीं

बनायेगी साथी बून्दों को

दोस्त अपना...

खेलेगी, गुनगुनायेगी

उमंगों में डूब

उन के साथ

गली में अक्स्मात बनी

एक नाली खुश हुई

आकर मिलेंगीं और बून्दें

तो वह मिल सकेगी

शहर भर की नालियों के संग..

पूछेगी हाल सारे शहर का...

गपियायेगी..खिलखिलायेगी और

मिलेंगी

इक नदिया में जाकर

नदी खुश थी

उमड़ती हुई धाराओं से मिल

जा सकेगी वह

उस गहरे सागर तक

जहाँ आती हैं सब नदियाँ उसकी तरह

बाँटेगी उनकी खुशियाँ..

हँस लेगी उनके साथ..

रहेगी खुश...

और सागर...

समाहित कर सबको अपने भीतर

शांत और गंभीर.....

फिर एक दिन एक हिस्सा

बन जाता वाष्प...

सूर्य की उष्मा से...

और उठ जा मिलती

उष्मा से बनी वाष्पकिरणें...बूँदें...

पुनः उन्हीं बादलोंमें...

जीवन के

अनवरत गतिक्रम सी

एकाएक एक बूँद रो उठती है

इस बार विदा होते...

कहीं मैं नाली की जगह

सीप में न समा जाऊँ...

मैं मोती बनना नहीं चाहती...

माना मोती कीमती होता है पर

मुझे...हाँ.....मुझे

फिर वापस आना है

अपनों से मिलने

और बनाये रखनी है

अपने होने की अस्मिता

आज फिर एक बार

आँख नम है मेरी...

मुझे वापस आना है...

अपनों में मिल जाना है!!!!

-मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, फ़रवरी 26, 2012

जागा हूँ फक्त चैन से सोने के लिए

आज शनिवार की रात है तारीख: फरवरी २५, सन २०१२.

अच्छी नींद लेना मूल अधिकारों में से एक- सुप्रीम कोर्ट

 

यही खबर थी जो आजतक के आज के ट्रिकर पर चल रही थी. तुरंत ही आज के इन्टरनेट पर भी देखी यही खबर. देख-सुन कर लगा कि मानो हनुमान जी को समुन्दर की किनारे खड़ा करके याद दिलाया जा रहा हो कि तुम उड़ सकते हो. उड़ो मित्र, उड़ो.

बहुत अच्छा किया जो आज सुप्रीम कोर्ट ने बतला दिया वरना हम तो अपने और बहुत से अधिकारों की तरह इसे भी भुला बैठे थे. अच्छी नींद- यह क्या होता है? हम जानते ही नहीं थे.

गरमी की उमस भरी रात- और रात भर बिजली गुम और पास के बजबजाते नाले में जन्में नुकीले डंक वाले मच्छरों का आतंकी हमला. ओह!! मेरे मूल अधिकार पर हमला. केस दर्ज करना ही पड़ेगा. ऐसे कैसे भला एक मच्छर मेरे मूल अधिकारों का हनन कर सकता है, कैसे बिजली विभाग इसका हनन कर सकता है. गरमी की इतनी जुर्रत कि सुप्रीम कोर्ट से प्राप्त मेरे मूल अधिकार पर हमला करे.

अब भुगतेंगे यह सब. रिपोर्ट लिखाये बिना तो मैं मानूँगा नहीं. जेल की चक्की पीसेंगे यह तीनों, तब अक्ल ठिकाने आयेगी. पचास बार सोचेंगी इनकी पुश्तें भी मेरी नींद खराब करने के पहले.

वैसे मूल अधिकार तो और भी कई सारे लगते हैं जैसे खुल कर अपने विचार रखना (चाहे फेसबुक पर ही क्यूँ न हो), बिना भय के घूमना, शांति से रहना, स्वच्छ हवा में सांस लेना, शुद्ध खाद्य सामग्री प्राप्त करना, अपनी योग्यता के आधार पर मेरिट से नौकरी प्राप्त करना आदि मगर ये सब अभी पेंडिंग भी रख दूँ तो भी अच्छी नींद लेने को तो सुपर मान्यता मिल गई है. इसके लिए तो अब मैं जाग गया हूँ. सोच लेना कि मेरी नींद डिस्टर्ब हुई तो मैं जागा हूँ. फट से शिकायत दर्ज करुँगा. जेल भिजवाये बिना मानूँगा नहीं. पता नहीं पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना मूल अधिकार है कि नहीं? खैर, वो तो मैं चैक कर लूँगा वरना ले देकर तो दर्ज तो हो ही जायेगी रिपोर्ट.

और सबकी भी लिस्ट बना रहा हूँ- सबकी शिकायत लगाऊँगा.

नगर निगम सुबह ५ से ५:३० बजे तक बस पानी देते हो, मेरी नींद खराब करते हो. संभल जाओ, बक्शने वाला नहीं हूँ अब मैं तुम्हें.

और आयकर वालों- कितना टेंशन देते हो यार. जरा सा कमाया नहीं कि बस तुम सपने में आकर नींद तोड़ देते हो. तुमसे तो मैं बहुत समय से नाराज हूँ- तुम तो बचोगे नहीं अब. बस, अब गिनती के दिन बचे हैं तुम्हारे. सुन रहे हो- अब मैं आ रहा हूँ. तुम तो भला क्या आओगे अब- मैं ही आ जाता हूँ.

और हाँ, तुम- बहुत बड़े स्कूल के प्रिंसपल बनते हो. मेरे बच्चे के एडमीशन को अटका दिया मेरा टेस्ट लेकर. मेरी बेईज्जती करवाई मेरी ही बीबी, बच्चों की नजर में- कितनी रात करवट बदलते गुजरी. नोट हैं मेरे पास सारी तारीखें. अब जागो तुम-जेल में. बस, तैयारी में जुट जाओ जेल जाने की.

बाकी लोग भी संभल जाओ- जरा भी मेरी नींद में विध्न पड़ा और बस समझ लेना कि बचोगे नहीं.

बहुतेरे हैं मेरी नजर की रडार पर. एक वो नालायक चौकीदार- जिसे मैने ही रखा है कि इत्मिनान से सो पाऊँ. वो रात भर सीटी बजा बजा कर चिल्लाता घुमता है- जागते रहो, जागते रहो. अरे, अगर हमें जागते ही रहना होता तो क्या मुझे पागल कुत्ता काटे है जो तुम्हें पगार दे रहा हूँ. तुम कोई मंत्री या धर्म गुरु तो हो नहीं कि बेवजह तुमको चढ़ावा चढ़ायें और अपने मूल अधिकार वाले अधिकार प्राप्त कर प्रसन्न हो लें. चौकीदार हो चौकीदार की तरह रहो- यह अधिकार मूल अधिकारों से उपर सिर्फ मंत्रियों और धर्म गुरुओं को प्राप्त है.

आज कुछ संविधान की पुस्तकें निकालता हूँ. सारे मूल अधिकारों की लिस्ट बनाता हूँ. फिर देखो कैसी बारह बजाता हूँ सब की.

अब मैं पूरी तरह से जाग गया हूँ इत्मिनान से सोने के लिए.

आज जागा हूँ मैं, फक्त चैन से सोने के लिए

कुछ अधिकार मिले हैं फिर उन्हें खोने के लिए.

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, फ़रवरी 21, 2012

साहित्य में संतई की राह...

मेरे मनोभावों का अनवरत अथक प्रवाह बना रहता है. और फ़िर शुरू हो जाती है एक खोज - एक प्रयास - उन्हें बेहतरीन शब्दों का जामा पहनाने की. उन्हें कुछ इस तरह कागज पर उतार देने की चाहत कि पढ़ने वाला हर पाठक खो जाये उसमें- डूब जाये उसमें.

शब्दों की तलाश में एक भटकन, शुद्ध व्याकरण देने की एक चाह और कुछ ऐसा गढ़ जाने की उत्कंठा कि मानो एक ऐसा कुछ लिख और रच जाये, जिसे लोग उत्कृष्ट साहित्य का दर्जा दें.

अंतहीन तलाश-शत-प्रतिशत दे देने की चाह में एक अजीब सी एक कसमसाहट और उठा लेता हूँ एक बीड़ा कि कुछ और पढ़ूँ- कुछ नया पढ़ूँ तो शायद राह मिले.

इसी मशक्कत में कुछ आलेखों से गुजरता हूँ, कुछ गज़लें पढ़ता हूँ, कुछ कवितायें गुनगुनाते हुए बाँचता हूँ, कुछ कहानियों में डूब जाता हूँ और पाता हूँ- अरे, ऐसा ही तो कुछ मैं कहना चाहता था, जिनके लिए मुझे शब्दों की तलाश थी. वही सब तो है यह. शायद मेरी सोच ही विचार तरंगों में बदल हवा में बह निकली होगी और न जाने कितनों ने उसे पकड़ा होगा. कुछ उसे शब्द रुप दे गये और मैं- भटकता रहा उस शत प्रतिशत उम्दा दे जाने की मृगतृष्णा को गले लगाये.

इस दौर में समझ पाया कि जरुरत है कह जाने की. जरुरत है पढ़ जाने की. जरुरत है अपने शब्द कोष को इतना समृद्ध बनाने की कि भटकन सीमित हो. कुछ बेहतर रचा जा सके. कोई जरुरी नहीं कि दुनिया की नजरों में शत प्रतिशत हो. मेरी अपनी नजरों में अपनी काबिलियत के अनुसार जरुर शत प्रतिशत खरा उतरे. कम से कम अपनी काबिलियत का इस्तेमाल करने में काहिलियत को कोई स्थान न दूँ. आलस्य को अपने आस पास न फटकने दूँ.

शब्द कोष भी नित समृद्ध होता जाये ऐसा प्रयास करुँ- यह कोई वस्तु तो है नहीं कि एक दिन में क्रय कर खजाना भर जाए... प्रयास, पठन, कुछ नया सीख लेने की ललक इस दौलत को शनैः शनैः जमा करने की कुँजी है. फिर जितना उपयोग करुँगा, उतना ही समृद्ध होती चलेगी यह दौलत और उतना ही भरता जायेगा यह खजाना.

शायद यही इस खजाने को अर्थ (रुपये-पैसे) से अलग भलाई और मानवता के समकक्ष लाकर खड़ा करता है. जानना होगा मुझे. उठानी होगी पुनः अपनी कलम. थामनी ही होगी कुछ नई पुस्तकें पठन हेतु और नित नया कुछ जोड़ना होगा इस खजाने में. सिर्फ जोड़ देना ही काफी न होकर उसे जाहिर भी करते रहना होगा अपने लेखन के माध्यम से. फिर वो कथा हो, कहानी हो, गज़ल हो या काव्य. विधा कोई सी भी हो, होती तो भावों की अभिव्यक्ति ही.

ऐसा नहीं कि मेरे पास शब्द न थे मगर बेहतर शब्दों की तलाश में भटकता रहा और लोग रचते चले गये. मेरे भाव किसी और की कलम से शब्द पा गये. मेरे विचार, मेरे भाव मेरे न होकर उस कलमकार के हो गये, जो उन्हें शब्द दे गया. वही मौलिक रचयिता कहलायेगा. भाव किसी की जागीर नहीं. एक से भाव एक ही समय में कई दिलों में उगते है. अब कौन उसे उकेर दे- कौन उन्हें अमल में ले आये- बस, उसी की कीमत है. और फिर एक से ही भाव जब अलग अलग तरफ, अलग अलग दिलों में एक साथ उठते और शब्द पाते हैं तब भी जुदा शैलियाँ उन्हें जुदा रखने में सफल रहती है. उनकी मौलिकता बनाये रखती हैं.

मैं डरता हूँ शायद अपनी काबिलियत पर मुझे भरोसा नहीं- ठीक उन्हीं साधु सन्तों सा जो जिन्दगी क्या है-इसकी तलाश में जिन्दगी को सही तरीके से जीने को छोड़- उससे जूझने की कला को तिलांजली दे जंगल जंगल भटकते हैं इस प्रश्न की तलाश में- जिन्दगी क्या है? ये आत्म हत्या जैसा ही प्रयास है- डर कर भाग जाने का. इस बीच न जाने कितनी जिन्दगियाँ अपनी अपनी तरह जिन्दगी जी कर गुजर जाती हैं. शायद पुनर्जन्म में विश्वास करें तो पुनः जीने चली आती हैं और उन साधु सन्तों की भटकन जारी रहती है- एक उथली सी समझाईश भी देने को तत्पर कि जिन्दगी क्या है? कैसे उचित जीवन जिएँ? क्या वो उचित जीवन जी पाये या अंततः वो भी उसी मोह माया के चुँगल में आ जकड़े.

बस रुप बदला- बन गये सन्त बनिस्बत कि एक आम जिन्दगी से जूझता आदमी. क्या अन्तर रह गया उनमें और एक भ्रष्ट्राचारी नेता, एक व्यापारी, और जाने कितने ऐसे आश्रमों में-एक निकृष्ट व्याभिचारी में.

साहित्य के क्षेत्र में भी जाने कितने ही ऐसे सन्त हैं जो अपना अपना मठ खोले बैठे हैं. उनके भीतर के लेखक को तो जाने कब का मार दिया है उन्होंने खुद ही. अब मात्र प्रवचन बच रहा है कि ऐसा लिखा जा रहा है, वैसा लिखा जा रहा है. साहित्य का स्तर गिरता जा रहा है आदि आदि. सन्त का दर्जा जो न बुलवा दे सो कम. बस, लिखना त्याग दिया है कि कोई उनका आंकलन न कर डाले.

ऐसे सन्त तो कायर कहलाये, एक भयभीत व्यक्तित्व, एक भगोड़ा.

नहीं, मैं ऐसा सन्त होना नहीं चाहता. मेरे भीतर का लेखक आत्म हत्या नहीं कर सकता- यह कायरता है. बदलना होगा मुझे. भटकन और तलाश की बजाय एक सजग प्रयास करना होगा अपने शब्दकोष को समृद्ध करने का- अपनी लेखनी को मजबूत करने का- समय रहते.

इसी भटकन में, पंकज सुबीर जी के तरही मुशायरे के लिए लिखी गज़ल जब तक तैयार हुई- मुशायरा खत्म हो चुका था और मैं भटकता हुआ जब तक अपना कलाम हाजिर करता- कुछ शेष न बचा था. अतः सोचा, आज यहीं से सुनाता चलूँ.

old tree

तरही मुशायरे का मिसरा था:

“इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में”

इसी मिसरे को लेकर इस बहर में पूरी गज़ल लिखना था. शायद, अब तैयार है. आदरणीय प्राण शर्मा जी का विशिष्ट आशीष इस गज़ल को प्राप्त हुआ है- अब आप तय करें:

शुक्र है के वो निशानी है अभी तक गाँव में

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

गाड़ी,बंगला,शान-ओ-शौकत माना के हासिल नहीं

पर बड़ों की हर निशानी है अभी तक गाँव में

भोर,संध्या,सांझ हो, या हो वो रातों का सफ़र

खुल हवायें गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में

हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में

सादगी ही सादगी है जिस तरफ भी देखिए

सादगी की आबदारी* है अभी तक गाँव में

साथ मेरे जाता तो ए काश तू भी देखता

निष्कपट सी जिंदगानी है अभी तक गाँव में

छोड़ कर तू जा रहा है ए ` समीर ` इतना तो जान

रोटी - सब्ज़ी , दाना - पानी है अभी तक गाँव में

 

*आबदारी – चमक

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

बुरा हाल है ये मेरी जिन्दगी का...

इधर कुछ दिनों से खाली समय में किताबों में डूबा हूँ. न लिख पाने के लिए एक बेहतरीन आड़ कि अभी पढ़ने में व्यस्त हूँ.

हाथ में आई पैड है और उस पर खुली है “शान्ताराम”. नाम से तो शुद्ध हिन्दी तो क्या, मराठी की किताब लगती है मगर है अंग्रेजी में. ईबुक के हिसाब से १७०० पन्नों की है और पढ़ते हुए अबतक लगभग २५० पन्नों के पार आ पाया हूँ मैं.

शायद २५० पन्ने शुरुआत ही है. अभी अभी नामकरण हुआ है न्यूजीलैण्ड के लिन का (जो मुंबई में आकर लिनबाबा हुआ), लिनबाबा से “शान्ताराम”. बहुत चाव से लिन अपने नये नाम शान्ताराम को महाराष्ट्र के एक गांव में आत्मसात कर रहा है जिसका अर्थ है शान्ति का प्रतीक और मैं अब जब शान्ताराम के मुंबई प्रवास और फिर रेल और राज्य परिवहन की बस में सुन्दर गांव की यात्रा को पढ़ रहा हूँ तो अपने मुंबई के ५ वर्षीय प्रवास और अनेक बस और रेल यात्राओं की याद में डूब पुस्तक से इतर न जाने किस दुनिया में खो जाता हूँ. पठन रुक रुक कर चलता है मगर रुकन में भी जीवंतता है. एकदम जिन्दा ठहराव...लहराता हुआ- बल खाता हुआ एक इठलाती नदी के प्रवाह सा- जिसके बहाव में भी नजरों का ठहराव है.

ऐसे लेखकों को पढ़कर लगता है कि कितना थमकर लिखते हैं हर मौके पर- हर दृष्य और वृतांत को इतना जिन्दा करते हुए कि अगर फूल का महकना लिखेंगे तो ऐसा कि आप तक उस फूल की महक आने लगती हैं. माहौल महक उठता है.

नित पढ़ते हुए कुछ गाना सुनते रहने की आदत भी लगी हुई है. अक्सर तो यह कमान फरीदा खानम, आबीदा परवीन, नूरजहां, मुन्नी बेगम, मेंहदी हसन, बड़े गुलाम अली खां साहब आदि संभाले रहते हैं- एक अपनेपन सा अहसासते हुए जी भर कर सुनाते हैं अपने कलाम..पिछले दिनों रेशमा नें भी खूब सुर साधे- जी भर कर जी बहलाया- शुक्रिया रेशमा.

आज मन था सुनने का तो सोचा कि औरों को मौका न देने से कहीं जालिम न कहलाया जाऊँ. तो आज इन पहुँचे हुए नामों को आराम देने की ठानी और मौका दिया सबा बलरामपुरी को. सबा ने भी उसी तरह अपनेपन से मुस्कराते हुए अपने दिलकश अन्दाज में सुनाया:

अजब हाल है मेरे दिल की खुशी का

हुआ है करम मुझ पे जब से किसी का

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

सबा की आवाज की खनक, अजीब से एक बेचैनी, एक कसक और कसमसाहट के साथ ही उसकी लेखनी मुझे खींच कर ले गई उस अपनी जिन्दगी की खुशनुमा वादी में..जहाँ शायद भाव यूँ ही गुनगुनाये थे मगर शब्द कहाँ थे तब मेरे पास.न ही सबा की लेखनी की बेसाखियाँ हासिल थी उस वक्त....जिसकी मल्लिका सबा निकली. वो यादें तो मेरी थीं और हैं भी. उन पर सबा का कोई अधिकार नहीं तो उनमें डूबा मैं तैरता रहा मैं हरपल तुम्हें याद करता...गुनगुनाता:

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

दुआएँ यूँ कहाँ सब की पूरी होती हैं. मेरी न हुई तो कोई अजूबा नहीं. अजूबा तो दुआओं के पूरा होने पर होता है अबकी दुनिया में. मानों खुशी के पल खुशनसीबी हो और दुख तो लाजिमी हैं.

मैं सोचता ही रहा और फिर डूब गया शान्ताराम की कहानी में जो भाग रहा था डर कर कि सुन्दर गांव में नदी का स्तर मानसून में एकाएक बढ़ रहा है और शायद गांव डूब ही न जाये. वो गांव के निवासियों को जब सचेत करता है तो सारे गांव वाले हँसते हैं उसकी सोच पर. सब निश्चिंत हैं कि आजतक वो नदी इतना बढ़ी ही नहीं कि गांव डूब जाये. उन्हें वो स्तर भी मालूम था कि जहाँ तक नदी ज्यादा से ज्यादा बढ़ सकती है.

न्यूजीलैण्ड में रहते भी शान्ताराम को ऐसे किसी विज्ञान का ज्ञान ही नहीं हो सका जो ऐतिहासिक आधार पर ऐसा कुछ निर्णय निकाल पाये. भारत की स्थापित न जाने कितनी मान्यताओं के आगे विज्ञान यूँ भी हमेशा बौना और पानी ही भरता नजर आया है और इस बार भी पानी उस स्तर के उपर न जा पाया. लिनबाबा उर्फ शान्ताराम नतमस्तक है उन भारतीय मान्यताओं के आगे. मैं तो खुद ही नतमस्तक था. उसी भूमि पर पैदा हुआ था तो मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ...

सबा है कि छोटे छोटे मिसरे सरल शब्दों मे बहर में गाये जा रही है:

मेरा दिल न तोड़ो जरा इतना सोचो

मुनासिब नहीं तोड़ना दिल किसी का...

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

छा गई सबा और उसकी आवाज दिलो दिमाग पर...याद आ गया बरसों बाद उस दिन तुम्हारा मुझको अपने फेस बुक की मित्रों की सूची में शामिल करना इस संदेश के साथ: “हे बड्डी, ग्रेट टू सी यू हियर..रीयली लाँग टाईम..काइन्ड ऑफ पॉज़.... वाह्टस अप- हाउज़ लाईफ ट्रीटिंग यू-होप आल ईज़ वेल”

हूँ ह...पॉज कि रीस्टार्ट आफ्टर ए फुल स्टॉप? नो आईडिया!!!

भूल ही चुका था मैं यूँ तो अपनी दैनिक साधारण सी बहती हुई जिन्दगी में..कभी ज्वार आये भी तो उससे उबर जाना सीख ही गया था स्वतः ही..जिन्दगी सब सिखा देती है..यही तो खूबी है जिन्दगी में...जिसके कारण दुनिया पूजती है इसे..कायल है इसकी. मन कर रहा है कि फेस बुक में तुम्हारी वाल पर जाकर सबा की ही पंक्तियाँ लिख दूँ और थैंक्यू कह दूँ सबा को मुझे रेस्क्यू करने के लिए...बचाने के लिए:

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

जाने क्या सोच रुक जाता हूँ और बिना कोशिश हाथ आँख पोंछने बढ़ जाते हैं. आँख और हाथ का भी यह अजब रिश्ता आज भी समझ के बाहर है मगर है तो एक रिश्ता. ...अनजाना सा..अबूझा सा,,,हाथ आँखों को नम पाता है..शायद सबा को सुन रहा होगा वो भी मेरे साथ:

अभी आप वाकिफ नहीं दोस्ती से

न इजहार फरमाईये दोस्ती का...

शायद आप तो क्या, हम भी कभी अब वाकिफ न हो पायेंगे. वक्त जो गुजरना था...गुजर गया. बेहतर है मिट्टी डालें उस पर. मगर हमेशा बेहतर ही हो तो जिन्दगी सरल न हो जाये? जिन्दगी तो जूझने का नाम है ऐसा बुजुर्गवार कह गये हैं. गालिब भी कहते थे तो हम क्या और किस खेत की मूली हैं...

शान्ताराम जूझ रहा है..एक भगोड़ा..जिसकी तलाश है न्यूजीलैण्ड की पुलिस को. जमीन छूट जाने की कसक उसे भी है और मजबूरी यह है की कि कैद उसे मंजूर नहीं. कैद की यातना से भागा है..एक आजाद सांस लेने..वो किसे नसीब है भला जीते जी..जमीन की खुशबू से कौन मुक्त हुआ है भला...रिश्तों की गर्माहट को कैसे छोड़ सकता है कोई...बुलाते हैं वो रिश्ते और महक के थपेड़े....खींचते है वो...

सोचता हूँ हालात तो मेरे भी वो ही हैं...मुझे तो कैद का भी डर नहीं...फिर क्यूँ नहीं लौट पाता हूँ मैं..उस मिट्टी की सौंधी खुशबू के पास..अपने रिश्तों की गरमाहट के बीच...उस मधुवन में...क्या मजबूरी है...जाने क्या...सोच के परे रुका हूँ इस पार....एक अनसुलझ उधेड़बून में...अबूझ पहेली को सुलझाता....

सबा कह रही है:

बुरा हाल है ये तेरी जिन्दगी का...

-समीर लाल “समीर”

आप भी सुनें सबा बलरामपुरी को, शायद मुझ सा ही कुछ अहसास कर पायें:

 

सबा बलरामपुरी
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रविवार, फ़रवरी 05, 2012

आलस्य का साम्राज्य और उसके बाशिन्दे

शनिवार की अलसाई सुबह.

सोचा था आज सुबह उठकर कुछ लिखूँगा. ऐसा लिखूँगा, वैसा लिखूँगा. जाने क्या क्या विचार आते रहे थे रात सोने से पूर्व. शायद पूरी सोच को कागज पर उतारने लग जाऊँ तो एक रोचक उपन्यास से कम तो क्या वृतांत होगा.

मगर इधर कुछ समय से वक्त की कमी ने ऐसा हाथ थामा है कि मौका ही नहीं लगता कुछ लिखने के लिए. सोच, भाव, विचार सब भीतर ही ठहरे रह जाते हैं, शब्द रुप लेने को तड़पते. इसी तड़पन में न जाने कितने विचार दम तोड़ देते हैं और न जाने कितने खो जाते हैं इस उमड़ती घुमड़ती भीड़ में.

किसी ने प्रश्न उठाया था तो बताना भी फर्ज समझता हूँ कि ऐसा नहीं है कि विचार या भाव चुक गये हों. उनका तो व्यस्तता के संग चोली दामन का साथ है. लबलबा कर भावों का समुन्द्र भरा है मगर उन्हें सहेज कर करीने से शब्दों का जामा पहनाना- एकांत मांगता है. एक स्थिरता मांगता है. समय मांगता है. एकाग्रता मांगता है. इनमें से एक की भी कमी बर्दाश्त नहीं कर पाता एक सधा आलेख या कहानी या फिर कविता.

लेटे लेटे गाना सुन रहा हूँ. फरीदा गा रही है:

सारी दुनिया के रंज और गम देकर

मुस्कराने की बात करते हो...

दिल जलाने की बात करते हो

आशियाने की बात करते हो!!!

और ईमेल में पत्रों का अंबार लगा याद आता है- चाहने वाले, यार, दोस्त पूछ रहे है नित- क्या बात है आजकल कुछ नया नहीं लिख रहे हो? सब ठीक तो है?

pen-paper

क्या जबाब दूँ?

समय की कमी का बहाना कब तक दोहराऊँ?

खाना खाना, नहाना, सोना तो बंद नहीं हुआ. सांस लेना और छोड़ना भी पूर्ववत जारी है तो क्या वक्त की कमी की मार खाने को सिर्फ लेखन ही मिला. वक्त की कमी या फिर इसे आलस्य कहूँ. मौसमी आलस्य. बदली बन कर बीच बीच में छाता रहता है. कभी भावों का अंधड़ आयेगा. आलस्य के बादल छटेंगे और शायद तब लेखन उतर आये कागज पर सज संवर कर.

यानि एक अनुरुप मौसम का इन्तजार कलम उठाने से पहले. मानो इन्तजार हो कि एक टेबल लग जाये, एक टेबल लैम्प जल जाये, कुछ खाली सफेद पन्ने जमा दिये जायें तो लेखन शुरु हो. बस सब कुछ स्वतः हो जाये और स्वयं कोई प्रयास न करना पड़े. स्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए. यह तो एक लेखक का धर्म न हुआ. यह अनुचित है.

निश्चित ही खुद को व्यवस्थित करना होगा. समय का प्रबंधन नये परिवेश में पुनः एक नये ढांचे के अनुरुप करना होगा. कुछ सप्रयास बदलना होगा खुद को. एक धर्म अपनाया है तो उसका पालन करना होगा. यूँ ही अव्यवथित, बिना किसी मनोयोग के, बिना किसी उचित प्रयोजन के कब तक चला जा सकता है.

यूँ तो पठन कार्य भी टला हुआ था किन्तु इधर कुछ विश्व प्रसिद्ध लेखकों की किताबें उठा ली हैं बहुत उम्मीद से. शायद उनका पठन पुनः कुछ उकसाये नया रच डालने को. यूँ भी लेखन के पठन की अनिवार्यता को मैं शुरु से अहम दर्जा देता रहा हूँ.

मेरा सदा ही मानना रहा है कि एक पंक्ति लेखन की पात्रता ही तब हासिल होती है, जब आप १०० पढ़ चुके हों. वरना तो हमेशा एकरस और उथला सा ही लेखन शेष रहेगा. कोई सार न होगा उस लेखन का.

व्यस्त जीवन शैली के बीच वृहद पठन, संवेदनशीलता, खुली मानसिकता, जागरुक नजरें और सचेत कान- ये ही आवश्यक अंग हैं बेहतर लेखन के. शैली तो आपकी खुद की ही होती है और भाषा- सभी भाषाओं की अपनी अहमियत है. तो पठन को भी संकीर्णता से परे विभिन्न भाषाओं के लेखकों के पास तक ले जाना होगा.

एक निर्देशन है खुद को स्वयं के लिए- सप्रयास इसमें ढलना होगा. देखें, कहाँ तक पहुँचते हैं.

फरीदा का गायन अब भी जारी है:

हमको अपनी खबर नहीं यारों

तुम जमाने की बात करते हो...

दिल जलाने की बात करते हो

आशियाने की बात करते हो!!!

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, जनवरी 02, 2012

नीलोफर की आँख- एक किताब!!!

उसकी आँखों में एक किताब रहती थी.

एक कहानी की किताब-- लाल डोरे वाली.

जिसकी कहानियों में होती थी एक खारे पानी की झील, जिसमें तैरती रहती थी कड़वी यादों की छोटी-बड़ी मछलियाँ. बड़ी मछली छोटी मछली का पीछा करती, तड़पाती और खा जाती.

लाल डोरे की पकड़ ढीली पड़ती और छलक जाती खारे पानी की झील से एक बूँद-बहने को- उन हालातों के मरुथल में जो आ-आ कर ठहर जाते तुम्हारे गालों पर छीनने उसकी रुमानियत और रंगीनी.

एक बूँद से- न मरुथल गीला होता और न समझ पाता कि कुछ बदला है.. सब कुछ पूर्ववत... दिन ब दिन बस ढलती जाती  नूरानी चेहरे की रंगीनियत और रुमानियाँ. मानो जैसे कोई वस्त्र अत्याधिक बार धुल जाने से खो बैठा हो अपनी आभा और चमक.

जलते दहकते गमों और दुखों के शोले टकराते उस झील से और उठता धुँए का बादल. जैसे कोहरा सा छा गया हो. ओढ़ लेती तुम/वो उस कोहरे की चादर को परत दर परत, न जाने किससे क्या छुपाने को. नजर आता कांतिहीन और दूर कहीं गहराई में डूबा धुँधला सा चेहरा.. बाँध लेती अपने आसपास कटीलें अनुभवों की बाढ़... किसी को इजाजत नहीं कि उसे लाँध कर उसके आसपास भी पहुँचे और कर लेती खुद को नितांत अकेला...

अकेलेपन की दुश्वारियाँ और दर्द तो सिर्फ वही अहसास सकता है, जो अकेले रहने को मजबूर हुआ... भीड़ में एकाकीपन की तलाश वहीं सुख देती है जो पहाड़ पर घूमने आये सैलानियों के चेहरे पर देखी जा सकती है.... पहाड़ की जिन्दगी जीने को मजबूर,वहाँ के रहवासी ही उन तकलीफों और दुश्वारियों को समझते हैं- जो पहाड़ की जिन्दगी पेश करती है.....

वो उनसे जूझती. सब सहन करती- कोई उसे पागल कहता तो कुछ लोग कहते कि किसी प्रेतात्मा का साया पड़ गया उस पर. नंगे सर तालाब वाले बरगद के नीचे से देर रात गुजर गई थी. कोई नहीं समझ पाता कि किस-किस ने उसे कैसे-कैसे दुख दिये हैं. कितने ही साये, देर रात गये उसे रौंदते रहते  और वो मजबूर ठीक से सिसक भी न पाती ....  अगर इसको ही प्रेत कहते हैं, तब तो यह प्रेतों की नगरी कहलाई...

मेरी कोशिश रंग लाई थी-- एक बार ..जब मैंने अपनी नजरों को पैना किया...देखा तुम्हारे लिहाफ को.जिस पर देखी थी मैने एक कतार लाल चीटियों की..तुम्हें भक्षने को आतुर...और मैं सफ़ल हुआ था चीर पाने में तुम्हारा कोहरे वाला लिहाफ..... तुम तक पहुँचने के लिए.

और तुमने कहा था ...ये कैसी दीवानगी है....तुम मानोगे नहीं!! है न!!

.....न!!! --कहा था मैंने

तुम हँस दी थी खामोशी ओढे़...उफ़्फ़!!वो खामोश उदास-सी.. कैसी अजब हँसीं...

.क्या सच में...तुम पूछती..और मैं चुप हो झुका लेता सर अपना तुम्हारे काँधे पर -कि अब कुछ ऊँगलियाँ तैरेंगी मेरी बालों में? ...

एक सुकून की चाहत...

और पाता कि तुम ओढ़ रही हो एक और परत उस कोहरे वाली चादर की!!!

Effective golden-brown make-up

उन झील सी गहरी आँखों में

सजते कुछ ख्वाब

मिटते कुछ ख्वाब.

अजब है ये दुनिया...

कमबख्त!! इन ख्वाबों की!!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, दिसंबर 20, 2011

ये कौन मसीहा निकसा है….

anhasketch

 

एक कोशिश करता रहता हूँ
मैं बस.. मैं.. नहीं
कुछ और हो जाऊँ

उलझन उलझन तैर रहा हूँ
जाने क्या से क्या हो जाऊँ

कभी सोचता धूप बनूँ मैं
या पेड़ों की छाया हो जाऊँ..

कभी लगा कि बनूँ आसमां
या फिर धरा हरी हो जाऊँ..

लू के मैं बनूँ गरम थपेड़े
या सौंधी सौंधी नमीं माटी की हो जाऊँ...

नदिया बन झर झर बहूँ
या पहाड़ एक बुलन्द हो जाऊँ

कहानी लिखूँ, कविता रचूँ
या तुकबंदी कर कवि हो जाऊँ...

सोचा कि कोयल हो जाऊँ
या कोयल की धुन में खो जाऊँ

सीना मानिंद फौलाद रखूँ
या मोम सरीखा दिल रख कर
पर पीड़ा पर रो आऊँ...

कुछ राज दफन कर लूँ दिल में
या बिगुल बजा आह्वान करुँ

या बदलूँ इन हालातों को
और नैतिकता का सम्मान करुँ

कि भीड़ अकेला बन जाऊँ..
अनशन कर अभिमान करुँ...

फिर तुम आना और कह देना
ये कौन मसीहा निकसा है

जब दमित करें आवाज मेरी
हो मौन-फकीरा फिरता है...

यूँ याद रखेगा जग मुझको
कि आने वाली नस्लों को
मैं याद बना भयभीत करुँ
समझौता करना जीवन है..
ऐसा कानों में गीत भरुँ...

फिर कौन मसीहा जागेगा..
षड़यंत्रों के इस जाले में..
घिर करके यूँ डर जाने को....
यूँ मौन धरे मर जाने को...

-समीर लाल ’समीर’



चित्र साभार: गुगल
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सोमवार, दिसंबर 12, 2011

पत्थर दिल इंसान....

झील के किनारे टहलते टहलते...तुम उठाकर थाम लेती हाथ में एक पत्थर और कुछ अलग से अंदाज में फेंकती झील के ठहरे पानी में...

पत्थर झील के पानी की सतह टकराता और डूबने की बजाये फिर उछलता...

कभी तीन तो कभी चार बार सतह पर टकराते हुए उछलते हुए अंततः डूब जाता वो पत्थर उस झील की गहराई में निराश हो कर.

तुम्हें देखकर मैं भी कोशिश करता पत्थर फेंकने की, तो ऐसा लगता कि मानो पत्थर ही खुश हो गया हो मेरा हाथ छुड़ा कर..मेरा साथ छोड़ कर...दूर जाकर गिरता पानी में...और डूब जाता गहराई में फिर कभी न दिखने को. उसमें कोई उत्साह नहीं मुझे फिर से उछलकर देखने का और न डूबने से बचने की कोशिश ,न कोई अभिलाषा कि फिर से थाम लूँ मैं शायद उसे.

तुम खिलखिला कर हँस पड़ती और मैं अपनी झेंप में एक और पत्थर उछालता पानी में- मगर होना क्या था. हर बार वही- उसका दूर जाकर पानी में डूब जाना बिना उछले.

StonesThrow (1)

सोचता हूँ वैसे ही जब साथ छोड़ा तुमने मेरा और उछाल फेंका मुझे गम और तनहाई के इस अथाह सागर में..आज तक एक अनजान उम्मीद को थामें..सतह से टकराता और उछलता बस चला जा रहा हूँ मैं..डूब नहीं पाया निराश हो कर....यादों की धड़कन की धुन आशा बन कर एक सुर लहरी सी सुनाई देती है..और एक बार फिर सतह से कुछ ऊपर उछल कर आगे बढ़ जाता हूँ मैं...एक अभिलाषा बाकी है अभी कि शायद फिर साथ मिलेगा तुम्हारा और तुम फिर थाम लोगी हाथों में अपने मेरा हाथ.

याद करता हूँ अपनी ही लिखी बात:

पत्थरों में
नहीं होता है दिल...
हाँ!!
पत्थर दिल इंसान
और
उनका वजूद
दिख जाता है अक्सर ही
आस पास
अपने!!

-समीर लाल 'समीर'

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मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

जिंदा कविता!!

एक गुलाब भेजता हूँ तुमको.

मैं तो हो नहीं सकता तुम्हारे आस पास. न तो ऐसा दस्तूर है जमाने का और न हीं मौका. कौन इसे सही मानेगा- तुम भी नहीं मानोगी कि मैं तुम्हारे आस पास आऊँ भी.

ये गुलाब देखेगा तुमको.

अभी तो खुशबू है इसमें बाकी- फिर सूख जायेगा जल्दी ही मगर मेरी कविता.... जो भेज रहा हूँ साथ...पढ़ लेना वक्त निकाल कर... तब...ये भर देगी हर बार एक ताज़गी भरी खुशबू उस गुलाब में- हर बार- तुम्हारा दिन एक खुशबूदार दिन बनाने के लिए...

इतना हक तो है मुझे कि तुम्हें खुश देख सकूँ और अहसासूँ तुम्हारी खुशिया!..कुछ पल को ही सही- खुश हो जाने के लिए!!!

मै खुद टूटा हुआ हूँ- न जाने कब तक- कितनी देर में- मुरझा जाऊँगा..मगर यह कविता- यह सनद रहेगी और हर वक्त काम आयेगी...तुम्हारे!!

इसलिए तो नाम दिया है इसे: ’जिंदा कविता’

बस शीर्षक ही तो लिखा है कविता के नाम पर- बाकी तो मौन की भाषा- इसे हर मोहब्बत करने वाला पढ़ पायेगा- तुमने भी तो एक दफा की थी बेइंतिहा मोहब्बत मुझसे...तुम पक्का पढ़ लोगी-

बताना कैसी लगी यह कविता!!!

जो न पढ़ पाये- उसे तुम वैसा ही मूँह बना कर चिढ़ाना- जैसा मुझे कहते वक्त बनाती थी-’दीवाने, इतना भी नहीं जानते??’

मोह लेती थी मुझे तुम्हारी वो अदा!!

sam

कविता:

’जिंदा कविता’

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( कि मैं जब कुछ नहीं लिखता
और सोचता हूँ तुमको...
तो लिख जाती है
ऐसी न जाने कितनी
कवितायें...
जिनमें शब्द नहीं होते
मगर
जो मैं लिखता हूँ अनलिखी ईबारत
बस तुम
पढ़ पाती हो उन्हें...

गुनगुनाते हैं उसे...
हर वो लब....

जो जानते हैं...

मोहब्बत तो बस एक...
अहसासों की कहानी हैं....

किसी दीवाने के लिए
ये नई है....
तो किसी के लिए...
ये पुरानी है....

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, दिसंबर 04, 2011

स्नेह का दूसरा नाम- महावीर शर्मा

महावीर शर्मा जी, एक युग पुरुष, की पुण्य तिथि पर उनके ब्लॉग पर प्रकाशित मेरा संस्मरण (मात्र एक जगह संकलित करने के प्रयास में पुनर्प्रकाशित):

mahaveer

’आपके भाव बहुत प्रभावित करते हैं किन्तु यदि आप गज़ल के व्याकरण पर थोड़ा सा काम कर लें तो आपकी रचनायें गज़ल के रुप और बेहतर प्रभाव छोड़ेंगी. कृप्या अन्यथा न लें. आपसे मिला तो कभी नहीं किन्तु न जाने क्यूँ आपसे एक अपनापन सा लगता है, इसलिए कह गया.’

यह था महावीर जी से पहला परिचय सन २००५ में याहू ग्रुप के ईकविता मंच के द्वारा. नया नया शौक जागा था कविता कहने का. हर विधा में बिना व्याकरण जाने कुछ प्रायस करते रहने का नया शौक. ऐसे वक्त में गज़ल के महाज्ञाता और वरिष्ट का ऐसा आशीष पाकर धन्य हुआ. तुरंत ही जबाब दिया, आभार प्रदर्शन किया और निवेदन किया कि आप अपना फोन नम्बर दें तो चर्चा हो.

हालांकि उन दिनों वो कुछ अस्वस्थ थे किन्तु तुरंत ही जबाब आ गया. न सिर्फ फोन नम्बर बल्कि मेरी एक रचना को गज़ल में परिवर्तित कर उस पर तख्ति कैसे की और सरल शब्दों में उसके व्याकरण का ज्ञान देते हुए. मैं धन्य महसूस कर रहा था और बस, फोन पर चर्चाओं का सिलसिला शुरु हुआ.

पितृतुल्य स्नेह मिला. बात करने में इतने सहज, सौम्य और सरल कि कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि उनसे कभी मुलाकात नहीं है. शीघ्र ही उन्होंने अपने स्नेह से मुझे उस अधिकार का पात्र बना दिया कि जब कुछ ख्याल आते, उन्हें गज़ल की शक्ल में लिख उनके पास भेज देता. कभी इन्तजार नहीं करना पड़ा. तुरंत जबाब आता कि इस पंक्ति को ऐसा कह कर देखो और उस पर मात्राओं का ज्ञान, तख्ति निकालना आदि लगातार चलता रहा.

इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने न तो कभी अपने लगातार गिरते स्वास्थय का अहसास होने दिया और न ही कभी इसके चलते जबाब और सलाह देने में देर की. लगता जैसे ऊँगली पकड़ कर चलना सिखा रहे हैं. उन्हीं के माध्यम से प्राण शर्मा जी जैसे महारथी और गज़ल के सिद्धहस्त से परिचय प्राप्त हुआ और उनसे भी वही अपार स्नेह पा रहा हूँ. कई बार खुद के इतने भाग्यशाली होने पर घमंड में भी आ जाता हूँ और आज प्राण जी हमेशा मेरे पक्ष में ढाल बन कर खड़े नजर आते हैं.

बीच में लन्दन जाना भी हुआ मात्र एक दिन के लिए. महावीर जी से फोन पर चर्चा हुई. उनकी तबीयत कुछ ज्यादा खराब थी उस वक्त और वह अस्पताल ही जा रहे थे. समयाभाव में उस दिन मिलना नहीं हो पाया और उसी दिन मुझे टोरंटो वापस आना था.

वापस आकर जब उनसे फोन पर बात हुई तो जिस तरह से वह भावुक हो उठे कि मैं भी अपने आंसू न रोक पाया. सोचने लगा कि यदि एक दिन और रुक जाता तो शायद मुलाकात हो जाती. मन बना लिया था कि अगली यात्रा में और कुछ हो न हो, महावीर जी से जरुर मुलाकात करुँगा.

इस बीच उनके कहानी वाले ब्लॉग पर मेरी लघुकथा छापी. बिखरे मोती की रिपोर्टों और मेरे अभियान ’धरा बचाओ, पेड़ लगाओ’ के लिंक भी उन्होंने अपने ब्लॉग पर लगा कर सम्मान दिया. फिर एक दिन उनका ही फोन आया कि अपनी गज़लें भेजो, महावीर ब्लॉग पर छापना है. अच्छा लगेगा.

मैं क्या जानता था कि यह अंतिम वार्तालाप है. उन्होंने मेरी दो गज़लें छापी और वही उनके जीते जी उनके महावीर ब्लॉग की आखिरी प्रविष्टियाँ बन गई.

’वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है’ - एक दिन खबर आई कि महावीर जी नहीं रहे. मैं स्तब्ध!! बार बार महावीर ब्लॉग खोलता और सामने होती उनकी अंतिम प्रविष्टी- मेरी दो गज़ले जिन्हें उनके साथ साथ प्राण जी आशीष भी प्राप्त था. जब भी नजर पड़ती, महावीर जी के स्वर कानों में पड़ते कि बहुत बढ़िया लिख रहे हो, लिखते रहो.

आज महावीर जी नहीं है. इस दफा जब लंदन पहुँचा तो याद आया कि बिना महावीर जी मिले न जाने का वादा था, अब वो कैसे पूरा होगा. एक कशिश लिए भारी मन से लंदन से वापस लौट गया.

आज भी जब कुछ लिखता हूँ तो महावीर जी बरबस साथ होने का अहसास जगाते नजर आते हैं सुधरवाते हुए- व्याकरण सिखाते हुए.

दीपक ने जब इस ब्लॉग को पुनः आरम्भ करने का बीड़ा उठाया तो दिल भर आया. इस पुण्य कार्य के लिए दीपक को साधुवाद. प्राण जी भी इस अभियान में अपना वरद हस्त बनाये हैं, उनको भी प्रणाम एवं साधुवाद.

महावीर जी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि. मुझे मालूम है कि आज भी जब भी कुछ लिखता हूँ, वो उस पर अपनी नजर बनाये हैं. आप बहुत याद आते हैं महावीर जी.  

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, नवंबर 23, 2011

रंग बिरंगी दुनिया के बेरंग सफहे!!

तब मैं उसे आप पुकारता और वो मुझे आप.

नया नया परिचय था. पन्ने पन्ने चढ़ता है प्यार का नशा...आँख पढ़ पायें वो स्तर अभी नहीं पहुँचा था.

वो कहती मुझे कि आप पियानो पर कोई धुन सुनायेंगे. कहती तो क्या एक आदेश सा करती. जानती थी कि मैं मना नहीं कर पाऊँगा.

काली सफेद पियानो की बीट- मैं महसूसता कि मैं उसे और खुद को झंकार दे रहा हूँ.

डूब कर बजाता - जाने क्या किन्तु वो मुग्ध हो मुझे ताकती.

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परिचय का दायरा बढ़ता गया और हमारे बीच दूरियाँ कम होती गईं. अब हम आप से तुम तक का सफर पूरा कर चुके थे. सांसों में फायर प्लेस से ज्यादा गर्मी होती है, यह भी जान गये थे कितु फिर भी फायर प्लेस से टिके टिके- बर्फीली रातों में...जाने क्यों, किसी अनजान दुनिया में डूबना- बस, एक वाईन का ग्लास थामे- उसे लुभाता. हम देखते एक दूसरे को-वाईन का सुरुर-डूबो ले जाता सागर की उस तलहटी मे जहाँ एक अलग दूनिया बसती है. रंग बिरंगी मछलियाँ. कुछ छोटी कुछ बड़ी. कोरल की रंग बिरंगे जिंदा पत्थरों वाली दुनिया. सांस लेते पत्थर. अचंम्भों और रंगो की एक तिलस्मी- बिना गहरे उतरे जान पाना कतई संभव नहीं.

बिना कुछ कहे पियानों की धुन पर मैं सब कुछ कहता...हाँ, सब कुछ- वो भी जिन्हें शायद शब्द न कह पायें बस एक अहसास की धुन ही कह सकती है वो सब और वो- मंत्र मुग्ध सी सब कुछ समझ जाती. इस हद तक कि शायद शब्दों में कहता तो सागर की लहरों के हिचकोले ही होते जो साहिल पर लाते और वापस ले जाते. मानो कि कोई खेल खेल रहे हों. इस तरह समझ जाना भी एक ऐसी गहन अनुभूति की दरकार रखता है जो शायद कभी ही संभव हो आम इन्सानों के बीच.

संगत और सानिध्य का असर ऐसा कि नजरें पढ़ना सीख गये- जान जाते कि क्या चाहत है और क्या कहना है. शब्दों का सामर्थय बौना हुआ या मेरा शब्दकोश. अब तक नहीं जान पाया.

एक दूसरे को इतना करीब से जाना मगर जाना देर से. तब तक और न जाने कितना जान गये थे एक दूसरे के बारे में..हमेशा देर कर देता हूँ मैं- शायर मुनीर नियाज़ी साहेब  याद आये मगर फिर वही-देर से..उनके अशआर:

हमेशा देर कर देता हूँ मैं, हर काम करने में.

जरुरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

मदद करनी हो उसकी, यार की ढ़ाढ़स बंधाना हो,
बहुत देहरीना रस्तों पर, किसी से मिलने जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

बदलते मौसमों की सैर में, दिल को लगाना हो,
किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

किसी को मौत से पहले, किसी गम से बचाना हो,
हकीकत और थी कुछ, उसको जाके ये बताना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

कब कह गये नियाज़ी साहेब- शायद मेरे लिए. गुजर गये कह कर वे- फिर मैं सोचता हूँ:

लिख कर पढ़ाता हूँ जब
दास्तां अपनी...
पढ़ती है और गुनगुनाती है वो...
पढ़ती है आँखों में सच्चाई....
सिहर जाती है वो...
बिखर जाती है वो....

समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, नवंबर 17, 2011

फोकस न लूज करो, मि.मल्टी-टास्कर!!!

आजकल कुछ शब्द लोग बड़ी वजनदारी और धड़ल्ले से बेझिझक इस्तेमाल करते हैं. ऐसा ही एक शब्द है - 'मल्टी टास्कर'. एक समय में एक से अधिक कार्य पूरी क्षमता और लगन से कर पाने की कला. नौकरी के लिए जितने आवेदन आते हैं- सब मल्टी टास्कर, सब टीम प्लेयर, सब सेल्फ स्टार्टर. मुझे लगता है ये योग्यतायें तो हर इन्सान में होती हैं, फिर भी लिखकर न बताओ तो बात पूरी नहीं होती. लिखकर बताने की जरुरत तो होनी नहीं चाहिये.

समय का क्या है. उसका तो काम ही करवट लेना है. आज एक ली है, तो कल दूसरी लेगा. कल को लोग यह न लिखने लग जायें कि दोनों पैर से चलने वाला, कान से सुनने वाला, आँख से देखने वाला. मेरे हिसाब से इस तरह की योग्यतायें होना स्वाभाविक है, न हो तो लिख कर बताओ, तब तो बात में दम भी नजर आये और बात भी  समझ में आती है. जैसे एक आँख से नहीं दिखता है, टीम प्लेयर नहीं हूँ आदि. मगर अपनी कमी कौन उजागर करे, ये मानव स्वभाव है.

मल्टी टास्कर और टीम प्लेयर पर याद आया अपने अन्ना का नाम. आजकल वो भी मल्टी आंदोलनकारी होने में लगे हैं. टीम प्लेयर का चक्कर ऐसा फँसा कि टीम बदलने की तैयारी में जुटना पड़ा. जिन बातों का विरोध करने के लिए टीम गठित कर हल्ला बोला था, इन दिनों खुद टीम ही उस दलदल में फंसी नजर आ रही है. कोई अपना इन्कम टैक्स का बकाया प्रधान मंत्री कार्यालय में भर रहा है मानो इन्कम टैक्स वालों ने मांगा बस हो और लेने से इन्कार कर रहे हों..तो कोई हवाई यात्रा से हेराफेरी वाला धन लौटाने की पेशकश लिए घूम रहा है. उधर राजा और कलमाड़ी इनकी हरकतें देख तिहाड़ में बैठे दलील दे रहे हैं कि इन्होंने तो हेराफेरी का धन खुद की ट्रस्ट में जमा कर कह दिया कि गरीबों के लिए धरे हैं, इसलिए यह भ्रष्टाचार नहीं है. अन्ना और केजरीवाल ने हाँ में हाँ भी मिला दी टीम प्लेयर होने के नाते और हम, जिसने सारी कमाई खुद की ट्रस्ट में न जमा कर स्विस बैंक जैसे सार्वजनिक स्थल में रखी ताकि भविष्य में जब अमेरीका के मौजूदा हालात देखते हुए वहाँ गरीबों की बाढ़ आयेगी, तो उनकी मदद करेंगे. जब हवाई जहाज वाली हेराफेरी इस कारण से हेराफेरी नहीं है तो हमारा तो बहुत ही बड़ा पुण्य करम कहलाया. हमें तो जेल की बजाये भारत रत्न दिया जाना चाहिये.

सांसद खरीदी में भी एक किड़नी मरीज को बेवजह जेल और उस मार्फत अस्पताल में जबरन रहना पड़ा जबकि उन्होंने हर सांसद को पैसा देते समय कान में साफ कह दिया था कि इस पैसे से गरीबों की मदद करना, पुण्य कार्य होता है.

ऐसे हालातों में जब कलमाड़ी और राजा के साथ साथ कनीमोझी तक भारत रत्न की आस बैठे लगाये हैं तो अन्ना, द मल्टी आंदोलनकारी (उनका तो टास्क ही आंदोलन है) सचिन को भारत रत्न दिलवाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं. माना सचिन तेंदुलकर काबिल है मगर भारत रत्न किसे मिले और किसे नहीं, यह तय करना अन्ना के पाले में कब जा पहुँचा. शुरु हुए भ्रष्टाचार से, पहुँच गये कांग्रेस को हरवाने और आगे भी हरवाते रहने का जिम्मा अपने नाजुक काँधों पर उठा लिया यदि मन मुताबिक बिल न आया तो. फिर अब ये भारत रत्न. कभी कभी तो लगता है कि कल को फलाने को मंत्री बनाओ, वरना आंदोलन. मुम्बई से हमारे गांव सीधे फ्लाईट, वरना आंदोलन...आंदोलन करने के लिए मुद्दों की कमी तो है नहीं- नाले से नदी तक मुद्दों कें अंबार हैं मगर बस, जब से चेहरा फोकस में आया है, उनका फोकस लूज़ होता देख कर अफसोस सा होता है. अरे भई, बायोडाटा में एक शब्द और बढ़ाओ- वेल फोक्सड. मल्टी टास्कर का अर्थ यह तो होता नहीं है कि सारे टास्क बिलोर कर रख दूँगा बल्कि जैसे कि पहले कहा है यह एक समय में एक से अधिक कार्य पूरी क्षमता और लगन से कर पाने की कला है. जिसके लिए फोकस्ड अप्रोच की जरुरत होती है.

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एक हमें देखो, मल्टी टास्कर होते हुए भी जबसे नई नौकरी ली है (हालांकि अब तो नई क्या- दो महिने से ज्यादा पुरानी हो गई है), ऐसा फोकस साधे हैं कि लिखना पढ़ना सब छूटा है. न ब्लॉग, न साहित्य. वैसे सच्चाई तो ये है कि चाहो, तो समय भी निकल ही आयेगा. खाना खाना नहीं छूटा, सोना नहीं छूटा, घूमना नहीं छूटा. लिखनें में आलस को कैसे छिपायें तो नई नौकरी की आड़ से बेहतर और कोई बहाना क्या हो सकता है. मौन व्रत साधना अभी सीखा नहीं है.

शायद जल्द ही आलस की चादर से बाहर निकलूँ इसीलिए आज कुछ भी लिख ही डाला है. शायद जागने के पहले की अंगड़ाई की तरह साबित हो...शायद लिखत पढ़त जोर पकड़े. फोकस तो साधे हुए हैं.

अक्सर ही जब मन के भावो को
शब्दों में ढाल नहीं पाता हूँ मैं...
किसी बहाने की आड़ ले
बहुत धीमे से मुस्कराता हूँ मैं...

समीर लाल 'समीर'

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बुधवार, नवंबर 09, 2011

कड़वा वाला हनी!!!

चेहरा पढ़ने की आदत ऐसी कि चाहूँ भी तो छूटती नहीं. दफ्तर से निकलता हूँ. ट्रेन में बैठते ही सामने बैठे लोगों पर नजर जाती है और बस शुरु आदतन चेहरा पढ़ना. पढ़ना तो क्या, एक अंदाज ही रहता है अपनी तरफ से अपने लिए. किसी को बताना तो होता नहीं कि एकदम सही सही ही पढ़ा हो. हालांकि जिनको बताना होता है वो भी हाथ देख कर कितना सही सही बताते हैं, यह तो जग जाहिर है. ढेरों अनुभव रोज होते हैं, धीरे धीरे सुनाता चलूँगा.

सामने की सीट पर एक गोरी महिला आ बैठी है. मेरी नजर मेरे लैपटॉप पर है मगर बस दिखाने के लिए. दरअसल, लैपटॉप तो एक आड़ ही समझो, देख तो उसका ही चेहरा रहा हूँ. हूँ पैदाईशी भारतीय, संस्कृति आड़े आती है कि सीधे कैसे देख लूँ एक अनजान अपरिचिता को. मगर फिर वही, हूँ तो पैदाईशी भारतीय, तरीका निकाल ही लिया, लैपटॉप की आड़ से. तिनके की आड़ शास्त्रों में और चिन्दी की आड़ हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्रियों में काफी मानी गई है तो लैपटॉप की स्क्रीन तो बहुत ही बड़ी आड़ कहलाई. संस्कृति हो या कानून या सेंसर बोर्ड, जो कुछ रोकने का जितना बड़ा प्रबंध करते हैं, उसमें हम उतना ही बड़ा छेद बनाने का हुनर रखते हैं. यूँ तो अक्सर ऐसा परदा बुनते समय ही ऐसे छेद छोड़ देने की प्रथा रही है. कानून बनाने वाले हम, कानून तोड़ने वाले हम, कानून का अपनी सुविधा के लिए पालन करने वाले हम- हम याने हम भारतीय!!!

newspaperlady

उसने हाथ में अखबार खोला हुआ है और नजर ऐसे गड़ाये है जैसे अगर वो खबर उसने न पढ़ी तो अखबार वालों का तो क्या कहना, खबर पैदा करने वालों के यत्न बेकार चले जायेंगे. ओबामा का अमेरीका को ग्रेटेस्ट कहना या अन्ना की कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की घुड़की, सब इनके पढ़े बिना नकारा ही साबित होने वाला है. खैर, इस महिला की किस्मत ही कहो कि ये दोनों खबर तो यूँ भी नकारा साबित होना ही है. मगर इतनी गहन तन्मयता प्रदर्शित होने के बावजूद, मेरा चेहरा पढ़ने का अनुभव और वो भी जब चेहरा महिला का हो- कोई मजाक तो है नहीं. फट से ताड़ लिया कि महिला की नजर जरुर अखबार पर है मगर वो सोच कुछ और रही है. अंदाजा एकदम सही निकला- दो ही मिनट में उसने अपने पर्स से फोन निकाला और जाने किससे बात करने लग गई- हाय हनी, मैं अभी सोच रही थी कि आज तुम मुझको लेने स्टेशन आ जाओ तो ग्रासरी करते हुए घर चलें. दूध भी खत्म हुआ है और कल के लिए ब्रेड भी नहीं है. और हाँ, बेटू ने होमवर्क कर लिया कि नहीं?

वैसे भी हनी शब्द सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं कि एक शब्द किसी आदमी को कितना बेवकूफ बना सकता है कि वो फिर हर बात पर सिर्फ हाँ ही करता है. मानो हनी, हनी न हुआ-रुपया हो गया हो जिसके आगे हमारा हर नेता हाँ ही बोलता है.

एकाएक अखबार की खबर ध्यान से पढ़ते तो यह नहीं हो जाता. निश्चित ही विचार मन में आया होगा कि ग्रासरी करना है, बेटू का होमवर्क होना है. ट्रेन से उतर कर बस लेकर घर जाये- फिर उस सो काल्ड हनी के साथ बाजार जाये- बेवजह समय खराब होगा, उससे अच्छा उसे स्टेशन बुला ले तो सहूलियत रहेगी. तब जाकर फोन किया होगा.

फिर फोन रखने के बाद पुनः वैसे ही नजर गड़ गई अखबार में. मैं अब भी जान रहा था कि वो अखबार में खबर नहीं पढ़ रही है...अनुभव से बड़ा भला कौन सा ज्ञान हो सकता है.

मुश्किल से दो मिनट बीते होंगे कि उसने फोन पर फिर रीडायल दबाया...हाँ हनी, एक बात तो कहना मैं भूल ही गई- स्टेशन आते समय मेरा वो ब्लैक जैकेट लेते आना, जिसमें जेब पर व्हाईट क्यूट सा फ्लावर बना है. ड्राईक्लिनर को रास्ते में दे देंगे.

गरीब हनी शायद हम सा ही, हम सा क्या- ९०% पतियों सा- कोई निरिह प्राणी रहा होगा जिसे पत्नी का जैकेट कौन सा और कहाँ टंगा होता है, न मालूम होगा और पूछ बैठा होगा कि कौन सा वाला?

फिर तो दस मिनट इस तरफ से जो फायरिंग चली कि तुमको तो ये तक नहीं मालूम कि मैं क्या पहनती हूँ..फलाना फलाना...टॉय टॉय...यू डोंट लव मी एट ऑल..मुझे पता है...जाने क्या क्या!!....मेरे तो कान ही सुन्न हो गये. उसकी आवाज में मुझे अपनी पत्नी की आवाज सुनाई देती रही. एकाएक उसका चेहरा भी मेरी पत्नी के समान हो गया....ओह!!

स्टेशन आ गया, और मैं हकबकाया सा ट्रेन से उतर कर बाहर आ गया. पत्नी कार लिए इन्तजार कर रही थी.

पूछ रही है कि इतने सहमे से क्यूँ हो- क्या ऑफिस में कुछ हुआ?

लगता है वो भी चेहरा पढ़ना सीख रही है. सही ही हो ये कोई जरुरी तो नहीं!!! वरना तो हमारे ज्योतिषियों की दुकान ही बंद हो जाये एक दिन में...

सात समुन्दर कोशिश करके हार गये
मैं अपने आँसू से ही पूरा भीगा हूँ...
गुरु मंत्र स्कूलों वाले सीमित थे
जो भी सीखा ठोकर खाकर सीखा हूँ

-समीर लाल ’समीर’

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शनिवार, अक्टूबर 29, 2011

वाह रे, रथयात्री!!

अपना ही एक फेसबुक नोट सहेजने के लिहाज से यहाँ लेता आया:

जबलपुर से मिर्जापुर जाता मुझ सा आम आदमी राह में आने वाले रोड़े पता करके निकलता था कि कहाँ रोड खराब है...यहाँ तक कि मेरी ससुराल मिर्जापुर में गैरेज थोड़ा नीचा है इसलिए हाई हुड की मारुती वैन के बदले मारुती कार लेकर निकलते ताकि रिश्तेदारों से मुलाकात में विध्न न पड़े और परिवार समुचित दिशा में रिश्तों की सुड्रुढता बनाता चलता रहे सारे रिश्तों को हंसी खुशी निभाते.

और एक वो हैं जो देश चलाने का वादा करते हैं और उसे सही दिशा में दूर तक ले जाने का वादा करते हैं, उनकी हालत देख कर रोना आता है कि अपना रथ तक ले जाना प्लान न कर पाये. न जाने कैसे सलाहकार हैं इनके कि कुछ हजार किलोमीटर की रथ यात्रा का मार्ग भी न भाँप पाये...और पटना में १२.९’ ऊँचे रथ को १२ फुट ऊँचे पुल के नीचे से तोड़ फोड़ कर किसी तरह से निकाल कर खुश हो लिए...हे प्रभु, देश इनके हाथ में न देना...वरना ऐसी तोड़ फोड़ रथ तो बर्दाश्त कर गया, गैरेज में रफू लग कर जुड़ भी गया किसी तरह मगर देश तो गैरेज में रिपेयर नहीं होता..उसका क्या होगा???

अनजान दुविधायें तो सफर का हिस्सा होती ही हैं मगर जिसका पता किया जा सके, उससे तो बचा ही जा सकता है..............

१२.९’ ऊँचा रथ बना है ६ फुट से कम ऊँचें आदमी के लिए जो चाहे जो भी कर ले तो १२.९’ ऊँचा तो कूद कर भी नही छू सकता मगर आज शायद अपनी प्रतिष्ठा का कद नापने का यही तरीका बच रहा है इनके पास...बाकी तो क्या नपवायें ये??

rath

और पिछले दिनों दीपावली का तरही मुशायरा हुआ, उसमें प्रस्तुत गुरुदेव पंकज सुबीर जी का आशीर्वाद प्राप्त मेरी गज़ल:

तेरी मुस्‍कान से खिले हर सू
दीप खुशियों के जल उठे हर सू

आग नफ़रत की  दूर हो दिल से
है दुआ ये अमन रहे हर सू

बूंद से ही बना समंदर है
अब्र ये सोच कर उड़े हर सू

नाम तेरा लिया है जब भी तो
कोई खुश्‍बू बहे, बहे हर सू

था चला यूं ’समीर’ तन्‍हा ही
लोग अपनों से पर मिले हर सू

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, अक्टूबर 14, 2011

ऋतुपर्णा !! मैं बुद्ध हो जाना चाहता हूँ ..

जिस सुबह तुम मुझसे मिलने आने वाली  होगी, उस रात मैं साधु हो तपस्या करने त्रिवेणी पार्क के उसी पेड़ के नीचे बैठूँगा, जिसके नीचे बैठ हमने तुमने कितनी ही शामें गुजारी थी.

मैं सारी रात आँख मूँद कर जागूँगा. तुम ऋतुपर्णा बन कर आना. मैं आँख खोलूँगा, तुम सामने होगी. मैं बुद्ध हो जाऊँगा.

monk_sam

तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब  भाव होगा - तुम पूछोगी कि यह ऋतुपर्णा कौन है?

ऋतुपर्णा !! 

मेरी कहानी की नायिका- उस कहानी की जो कभी लिखी नहीं गई. एक समुद्र सी मेरे भीतर समाई है, जेहन की किसी गहराई तक 

मुझे नहीं लगता कि मैं कभी लिख पाऊँगा उस कहानी को. कुछ पानी के बुलबुले उकेर भी दूँ तो भी समुद्र तो उतना ही बाकी बच रहेगा. क्या फायदा कुछ छींटें उड़ेलने से भी.

ऋतुपर्णा !! 

देखा तो कभी नहीं उसे मगर उसके बालों की खुशबू- उसके बदन की मोहक गंध नथुनों में समाई रहती है हर वक्त. गुलाब की महक मैं नहीं जानता . बस एक गंध- उन बालों की, एक महक-उस बदन की. इतना ही है मेरे लिए खुशबू का संसार.

ऋतुपर्णा !!

देखा तो कभी नहीं उसे मगर पहचानता हूँ उसकी मुस्कराहट को, उसके चमकते चेहरे को. अहसास है मुझे उसके स्पर्श का. एक कोमल स्पर्श. 

ऋतुपर्णा !! 

सब कुछ वैसा ही जैसी की तुम. एक अंतर बस आवाज का. 

ऋतुपर्णा !! 

सुना तो कभी नहीं उसे - बस आवाज पहचानता हूँ. आवाज कुछ बैठी हुई सी.

याद है जब तुम अपनी सहेली की शादी में रात भर मंगलगान गाती रही थी और सुबह तुम्हारी आवाज बैठ गई थी- वही- हाँ बिल्कुल वैसी ही है ऋतुपर्णा की आवाज. मुझे बहुत भाती है. शायद मोहब्बत का तकाजा हो कि प्रेमिका के ऐब भी ऐब न होकर रिझाने लगते हैं.

तुम यूँ करना कि उस रात भी रात भर मंगलगान गाना, जब मैं तपस्या करने बैठूँगा. पावन मौके पर यूँ भी मंगलगान की प्रथा रही है.

जब सुबह तुम आओगी और मुझे पुकारोगी- तो वही आवाज होगी ऋतुपर्णा की...

मैं मुस्कराते हुए आँख खोलूँगा और बुद्ध हो जाऊँगा...

तुम उलझन में पूछोगी कि बुद्ध कैसे हो जाओगे? बुद्ध को तो बोध की प्राप्ति हुई थी.

मैं कहूँगा - बोध?

बोध का अर्थ जानती हो?

उस रोज मैने तुम्हें एक बौद्ध मठ से कुछ किताबों के साथ निकलते देखा. आवाज लगाना चाहता था मगर तब तक तुम ...शायद बहुत देर से वो वहीं कार में बैठा तुम्हारा इन्तजार कर रहा था....

तुम निकल गई अपने पति के साथ कार में बैठ कर तेजी से

मैं आँख मूँदें जाग रहा हूँ न जाने क्यूँ तब से.और मैं.....

मैं बुद्ध हो जाना चाहता हूँ .. 

एक मुद्दत हुई
कि
जागते हुए
सोया हूँ मैं...
जाने किन ख्यालों में
खोया हूँ मैं...

-कुछ बातें अहसास की- लिखी नहीं जाती.

-समीर लाल ’समीर’

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