जमाने में बहुत कुछ नहीं बदला, उनमें से एक बात यह भी नहीं बदली कि तब भी टिकिट के ब्लैकिये तबीयत से पुलिस की मिलिभगत में कारोबार करते थे और आज भी. अमिताभ की किसी भी नई फिल्म के शुरुवाती हफ्ते उनके लिए धन्धे का व्यस्त समय होते थे.
अब का पता नहीं मगर तब अमिताभ का ऐसा क्रेज होता था कि कालेज के आधे से ज्यादा लड़के, जिसमें हम खुद भी शामिल थे, कान को ढके बाल के साथ उल्टा सेवन वाली कलम रखा करते थे. फिल्म खत्म होने पर यही वीर दोनों हाथ पाकेट में डाले सर झुकाये टहलते हुए निकलते थे मानो खुद ही अमिताभ हों. हर चेहरे पर उसी के समान गुस्सा और एक विद्रोह का भाव.
हमारे साथ पढ़ते थे नीरज शर्मा. एक मात्र योग्यता के आधार पर कि वह ६ फुट से कुछ ज्यादा थे, वो अपने आप को अमिताभ बच्चन समझते थे. वही स्टाईल बिल्कुल कॉपी. शायद शीशा देखने के आदी न रहे होंगे तो मुगालते में पलते रहे.
हम दोस्तों का सच्चा झूठा प्रोत्साहन तो साथ रहता ही था बाफर्ज, सब उसे अमित कह कर ही पुकारते थे और वह दिन भी आ गया, जब वो एक ऑर्केस्ट्रा के साथ अमिताभ बच्चन की नकल करते मंच पर नज़र आने लगे. मंच की चकाचौंध, स्टाईल ,चश्मा, बाल आदि में वो वाकई अमिताभ सा ही लगता था दर्शक दीर्घा से.
देखा, प्रोत्साहन का नतीजा!!
यह सूत्र जीवन हर क्षेत्र में लागू होता है. लेखक या कवि लिख रहा है, माना कि नया है और बहुत अच्छा न भी लिख रहा हो मगर एक मुगालते में तो है ही कि वो लेखक है या कवि है. ६ फुट से ज्यादा होने की तरह एकाध क्वालिटी तो है ही तभी तो कम्प्यूटर पर लिख पा रहा है ब्लॉग खोल कर. उसे भी लाइम लाईट में लाओ भाई.
जरुरत है बस तुम्हारे प्रोत्साहन की और तुम हो कि अपनी लेखनी पर फूले पिचके मूँह फुलाये बैठे हो. कुछ बोलते ही नहीं. कभी अपने शुरुवाती लेखन को भी देखना और फिर आज का. क्या शुरु से ही ऐसा ही लिख रहे हो. फिर?? वो भी नया आया है लेखन में जैसे कभी तुम आये थे. बस, दरकार है उसे तुम्हारे प्रोत्साहन की.
भय मत खाओ कि वो तुम्हें पीछे छोड़ कर आगे निकल जायेगा. सो तो अपने इस दंभ के तले यूँ भी छूट जाओगे. विश्वास करो प्रोत्साहन देने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा मगर उसका बहुत कुछ बन जायेगा.
बस, आज इतना ही. किसी की ईमेल आई है जिसने ब्लॉग जगत में आई टिप्पणियों की मंदी और पुराने लिख्खाड़ों द्वारा नये लोगों के ब्लॉग पर टिप्पणी न देने पर चिन्ता और मायूसी जाहिर की गई है. बात उनकी सही लगी, तो निवेदन दर्ज कर दिया.
अब, पिछली पोस्ट पर पूछी गई पहेली:
पहली बात तो उस आलेख का उदगम स्थल था निशान्त मिश्र जी का ब्लॉग हिन्दी जेन पर २९ मई को पूछी गई पहेली पर आई बेनामी जी की टिप्पणी.
पहेली के चित्र:

का सही जबाब:
ऊपर: श्री ज्ञान दत्त पांडे
चश्मा: श्री अजीत वडनेकर
नीचे: डॉ अनुराग आर्या

विजेता रहे:
प्रथम: ताऊ रामपुरिया

द्वितीय: सैयद
तीसरे नम्बर पर: संजय तिवारी ’संजू’
चौथे: श्री ज्ञान दत्त पांडे जी
विजेताओं को बधाई.
सभी प्रतिभागियों का बहुत आभार और बधाई.
चलते चलते:
तीन चार पोस्ट पहले कविता पर एक टिप्पणी आई:
’सहनीय रचना’
हम चकित. सब इतनी तारीफ मचाये हैं और ये भाई जी कह रहे हैं ’सहनीय रचना’. रात भर जागे रहे कि ये क्या हुआ. फिर एकाएक सुबह के सूरज के साथ दिमाग खुला कि टंकण त्रुटि के चलते ’सराहनीय रचना’ की जगह ’सहनीय रचना’ लिख गया होगा. बस, पूरे उत्साह से टिप्पणीकर्ता को ईमेल लिखी गई और निवेदन किया गया कि शायद टंकण त्रुटि रह गई है और प्रोत्साहन की आदत के चलते जोड़ दिया कि अक्सर जल्दबाजी में ऐसा हो जाता है. जबाब आने में जरा भी समय नहीं लगा. लिखा कि ’भाई उड़न जी, आपसे सहमत हूँ कि जल्दबाजी में ऐसा हो जाना संभव है किन्तु यह टिप्पणी तो जल्दबाजी में नहीं लिखी है. दरअसल मैं वही कहना चाह रहा था जो आप पढ़ रहे हैं.
अब??
अब क्या-रिजेक्ट-मॉडरेशन का फायदा उठा लिया. इसीलिए कहता हूँ कि मॉडरेशन लगाओ. यह तो अच्छी सलाह थी जिसने मुझे अपनी रचनाओं पर पुनर्विचार का मौका दिया, बस जरा दंभ आड़े आ गया. इन्सान हूँ और गलत फैसले लेना इन्सानी स्वभाव, मैं कैसे अछूता रह सकता हूँ तो हो गया गलत फैसला रिजेक्ट करने का. मगर अक्सर लोग उट पटांग बातें लिख कर भाग जाते हैं, यहाँ तक की गाली गलोज भी. उसे तो आप कंट्रोल कर ही सकते हो मॉडरेशन से बात बढ़ाने की बजाये.