मंगलवार, दिसंबर 18, 2012

खुशियाँ मनाइये कि मेरा रेप नहीं हुआ!!!

rape

 

पापा,

आप खुशियाँ मनाइये

एक उत्सव सा माहौल सजा

कि आपने मुझे खत्म करवा दिया था

भ्रूण मे ही

मेरी माँ के

वरना शायद आज मैं भी

जूझ रही होती....

जीवन मृत्यु के संधर्ष में...

अपनी अस्मत लुटा

उन घिनौने पिशाचों के

पंजों की चपेट में आ..

रिस रिस बूँद बूँद

रुकती सांस को गिनती

ढूँढती... इक जबाब

जिसे यह देश खोजता है आज

असहाय सा!!!

कितना अज़ब सा प्रश्न चिन्ह है यह!!

कोई जबाब होगा क्या कभी!!

कि निरिह मैं..

छोड़ दूँगी अंतिम सांस अपनी

एक जबाब के तलाश में!!!

और तुम कहते

बेटी तेरा देश पराया

बाबुल को न करियो याद!!

 

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, नवंबर 19, 2012

अधूरे सपने- अधूरी चाहतें!!

mountains

मेरे कमरे की खिड़की से दिखता

वो ऊँचा पहाड़

बचपन गुजरा सोचते कि

पहाड़ के उस पार होगा

कैसा एक नया संसार...

होंगे जाने कैसे लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

आज इतने बरसों बाद

पहाड़ के इस पार बैठा

सोचता हूँ उस पार को

जिस पार गुज़रा था मेरा बचपन...

कुछ धुँधले चेहरों की स्मृति लिए

याद करने की कोशिश में कि

कैसे थे वो लोग...

क्या तुमसे थे?

क्या मुझसे थे?

तो फिर आज नया ख्याल उग आता है

जहन में मेरे

दूर

क्षितिज को छूते आसमान को देख...

कि आसमान के उस पार

जहाँ जाना है हमें एक रोज

कैसा होगा वो नया संसार...

होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

पहुँच जाऊँगा जब वहाँ...

कौन जाने बता पाऊँगा तब यहाँ..

कुछ ऐसे ही या कि

चलती जायेगी वो तिलस्मि

यूँ ही अनन्त तक

अनन्त को चाह लिए!!

बच रहेंगे अधूरे सपने इस जिन्दगी के

जाने कब तक...जाने कहाँ तक...

तभी अपनी एक गज़ल में

एक शेर कहा था मैने

“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा

वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अक्तूबर 29, 2012

बन जाओ मेरी कविता का शीर्षक तुम!!

 

बन जाओ मेरी

पुस्तक का शीर्षक....

जो है ३६५ पन्नों की...

वर्ष के दिन की गिनती

और

यह संख्या..

जाने क्यूँ एक से हैं...

लगे है ज्यूँ करती हों

दिल की धड़कन

और हाथ घड़ी में

टिक टिक चलती

सैकेंड की सुई

जुगलबंदी...

और इसका हर पन्ना...

खाली...

मगर भरा भरा सा

अलिखित इबारतों से..

फिर भी..

कुछ लिखे जाने के इन्तजार में...

खूब बिकेगी यह पुस्तक...

हाथों हाथ

बिक पाना ही चाहत है

और बिक जाना ही मंजिल..

वही तब बन जाता है मानक

उसकी लोकप्रियता का..

कि कितना बिक पाये..

हर हिन्दुस्तानी

जोड़ सकेगा

खुद को इससे...

और पढ सकेगा

हर पन्ने पर

अपनी कहानी....

जो कभी लिखी न गई...

मगर पढ़ी गई है लाखों बार

और अब भी इन्तजार मे है

अपने लिखे जाने के...

बोलो..

बनोगी..

मेरी पुस्तक का शीर्षक??

हाँ कहो

तो

शीर्षक रख दूँगा....

तुम!!!

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अक्तूबर 08, 2012

पुरुषवादी आम और उपेक्षिता नारी

देश को जब अपनी नजर से देखता हूँ तो पाता हूँ कि यहाँ मात्र दो तरह के लोग रहते हैं- एक तो वो जो आम हैं और दूसरे वो जो आम नहीं हैं. आम तो खैर आम ही हैं- कच्चे हुए तो चटनी बनी और पके हुए हों तो चूसे गये. मगर जो आम नहीं हैं वो होते हैं खास. जिनका काम है चटखारे लेकर आम की चटनी खाना या फिर आम को चूस कर मस्त रहना.

आम की क्या औकात कि खुद को बांटे या बंटाये मगर खास की परेशानी यह तय करना रहती हैं कि उनमें से कौन चटनी खाये, कौन चूसे, कौन टुकड़े बना कर कांटे से खाये और कौन आम का मिल्कशेक पिये, गुठली किसके हिस्से जाये और गूदा किसके तो उन्होंने आम न होने की वजह से खास होने के बावजूद अनेक वर्ग इस खास वर्ग के भीतर ही बना डाले जैसे ब्राह्मण- जो कि यूँ भी श्रेष्ठ नवाजे गये मगर चैन कहाँ तो कोई सरयूपारणी ब्राह्मण तो कोई कान्यकुब्ज ब्राह्मण तो कोई कुछ हो श्रेष्ठ में श्रेष्ठतम के गुणा भाग में लग गये.

तो खास में कुछ तो वो हो गये जो खास हैं, कुछ वो हो गये जो खासों के खास हैं, कुछ वो जो खासमखास हैं और उन सब के उपर वो जो इसलिए सुपर खास हैं क्यूँकि वो उस परिवार में जन्में हैं जहाँ से खासों की पैदावार की ट्यूबवैल में पानी छोड़ा जाता है. वहाँ से पानी की सप्लाई बंद तो दो मिनट में खास की फसल झूलस कर खाक में मिल जाये और वो खास तो क्या, आम कहलाने के काबिल भी न रहे और फिर जिस लोक में मात्र दो वर्ग हों- एक तो वो जो आम है और दूसरे वो जो आम नहीं हैं, उसमें ऐसे लोगों को क्या कहा जायेगा जो दोनों में ही न हों- अब मैं क्या बताऊँ.

खुद को दूसरे से बेहतर बताना, दूसरे को नीचे गिरा कर खुद को ऊँचा महसूस करना, चटनी खाने वाले वर्ग के होते हुए भी मौका ताड़ कर दूसरे का आम चूस लेने की हरकत- चलो, लालच के चलते इसे नजर अंदाज भी कर दें तो आम के मिल्कशेक वाले वर्ग का चुपचाप चटनी चाट लेना और पकड़े जाने पर आँखें दिखाना और फिर ढीट की तरह मक्कारी भरी हँसी– यह सब भरे पेट की नौटंकियाँ हैं और उन्हीं को सुहाती भी हैं जो आम नहीं हैं.

वे ही राजा हैं, वे ही राज करते हैं, वे ही आम के भविष्य निर्धारक हैं कि चटनी बनाई जाये या चूसा जाये या मिल्कशेक बने. वो लगभग भगवान टाइप ही हैं आम लोगों के लिए. हालांकि ये आम लोग ही उन लोगों में से पसंद करते हैं जो आम नहीं हैं कि इस बार इनमें से कौन तय करेगा कि हमारी चटनी बनाई जाये या फिर हमें चूसा जाये या कुछ और. मगर चुनना होता है उनमें से ही जो आम नहीं हैं.

बाड़े के इस पार ये सब खेल तमाशे करने की अनुमति नहीं हैं अर्थात तुम्हारा काम है चुनना तो बस चुनो. चुने जाने की हसरत कभी दिल में न पालो. इस तरह के सपने देखना ठीक वैसा ही सपना है जैसा कि हमारे राष्ट्र को भ्रष्टाचार मुक्त देखना. ऐसा नहीं कि ऐसे सपनों को देखने की घटनायें होती ही नहीं हैं मगर विद्वानों नें इसे नादानी की श्रेणी में रखा है और नादानी का हश्र तो जगजाहिर है ही. करना चाहे तो करे कोई मगर खायेगा अपने मुँह की. और ऐसी हरकत करने वाला आम जब यह सोचता है कि मेरी इस जुर्रत से वो डर गया जो आम नहीं है तो इसका साफ अर्थ हैं कि वो उनको और उनके नाटकों को अभी समझ ही नहीं पाया है. यही शातिराना अदाज तो उन्हें उस श्रेणी में रखता है जिसे हम कहते हैं कि वो आम नहीं हैं.. वो ऐसे में इन आमों की नादानी पर बंद कमरों में हँसते हैं, मजाक उड़ाते हैं और ये आम कुछ दिन कूद फांद कर अपने मुँह की खाकर चुपचाप बैठ जाते हैं.

शास्त्रों में आमों की इस तरह की हिमाकत को बौराना की संज्ञा दी गई है. ये वो बौर नहीं है जिनसे आम आते हैं, इसका अर्थ होता है – पगलाना या जैसे कई शब्द अंग्रेजी में अपना ज्यादा अच्छा अर्थ बता देते हैं तो अंग्रेजी में इस कृत्य को स्टूपिडिटी कहते हैं और कर्ता को स्टूपिड और थोड़ा बिना बुरा लगाये कहना हो तो क्रेजी.

और फिर बौराई हुई नादानी में गल्तियाँ न हो ये कैसे हो सकता है वरना तो समझदारी ही कहलाती. तो ऐसे में बौराया हुआ आम यह तक भूल जाता है कि आम में स्त्री और पुरुष दोनों ही होते हैं. आम आम होता है मगर पुरुष चाहे आम हो या आम न हो, कहीं न कहीं अपनी पुरुष प्रधानता वाली और पुरुष सत्ता वाली मानसिकता की मूँछ तान ही देता है और बौराई हुई इस हरकत में एकाएक कह उठता है कि ’मैं आम आदमी हूँ’

अगर सोच में विस्तार दिया जाता और पुरुष मानसिकता से उपर उठने का समय निकाल पाते तो शायद कह देते कि ’मैं आम जनता हूँ’

वही हाल प्रकाश झा की आने वाली फिल्म ’चक्रव्हूय’ के विवादित गाने में देख रहा हूँ कि ’आम आदमी की जेब हो गई है सफाचट’ – इसमें भी महिलाओं को भुला दिया गया. मगर नारी- समर्पण और समर्थन के भाव देखिये कि गाने की शुरुवात में फिर भी नाचीं- जस्ट टू सपोर्ट. जबकि गाने के हिसाब से तो उनकी जेब भी सफाचट नहीं हुई. ऐसे में महिलाओं को भूल जाना- कितनी बुरी बात है.

इसी गाने में टाटा, बिड़ला, अम्बानी और बाटा को भी लपेटा है. नारी तो चुप है अभी मगर बिड़ला ने तो कानूनी नोटिस भेज भी दिया है. कल को अम्बानी भी भेजेंगे , परसों टाटा भी लेकिन बाटा तो गाने की तुकबंदी मिलवाने में जबरदस्ती लपेटे में आ गये वरना तो वो बेचारे तो भारत के हैं भी नहीं. कहाँ चेक रीपब्लिक की कम्पनी और घराना, कहाँ स्विटजरलैण्ड में हेड ऑफिस और कहाँ भारत के गाने में देश को काटने का आरोप.

मुझे लगता है एक नोटिस अगर नारी समुदाय की तरफ से उपेक्षा करने के उपलक्ष्य में थमा दिया जाये तो वो भी साथ साथ ही जबाब पा जाये.

वो सब कहाँ है जो नारी सशक्तिकरण की आवाज उठाते थे. जो नारी की तनिक उपेक्षा पर दहाड़े लगाया करतीं थी. जागो जी, हमें किसी से कोई दुश्मनी तो है नहीं बस, जो दिख जाये वो लिख जाये, सो धर्म निभाया.

यूँ भी नारी उपेक्षित रहे इस बात को यह कलम कैसे बर्दाश्त करे.

 

aam Aadmi

चलते- चलते:

इस इन्सां के दिल में कुछ है इस इन्सां ने बोला कुछ

गिने गये जो दुख में चुप थे अधिक मिले सुख में भी चुप

सच छुपता है झूठ के अंदर या झूठ गया था सच में छुप

जो कहता था सच ही हरदम, उस दर्पण का आगाज़ भी चुप

समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अक्तूबर 01, 2012

गाँधी जी का टूटा चश्मा

जब चपरासी रामलाल जाले हटाता, धूल झाड़ता कबाड़घर के पिछले हिस्से में गाँधी जी की मूर्ति को खोजता हुआ पहुँचा तो उड़ती धूल के मारे गाँधी जी की मूर्ति को जोरो की छींक आ गई. अब छड़ी सँभाले कि चश्मा या इस बुढ़ापे में खुद को..चश्मा आँख से छटक कर टूट गया. गुस्से के मारे लगा कि रामलाल को तमाचा जड़ दें मगर फिर वो अपनी अहिंसा के पुजारी वाली डीग्री याद आ गई तो मुस्कराने लगे. सोचने लगे कि एक चश्मा और होता तो वो भी इसके आगे कर देता कि चल, इसे भी फोड़ ले. मेरा क्या जाता है? जितने ज्यादा चश्में होंगे, उतने ज्यादा लंदन से नीलाम होंगे. मुस्कराते हुए बोले- कहो रामलाल, कैसे आना हुआ? पूरे साल भर बाद दिख रहे हो?

Gandhiji

गाँधी जी की मूर्ति को सामने बोलता देख रामलाल बोला-चलो बापू साहेब, बुलावा है. नई पार्टी बन रही है. नये मूल्यों के साथ- नये जमाने की-नये लोग हैं- नया इस्टाईल है-गाते बजाते हैं-हल्ला मचाते हैं-एक अलग तरह की पार्टी बना रहे हैं जिसमें पार्टी के भीतर ही पार्टी का लोकपाल होगा. आज आपका जन्म दिन है, आपके सामने आपका नाम लेकर बनायेंगे. नहा लो, नये कपड़े पहने लो और चलो, फटाफट. बहुत भीड़ लगने वाली है. आपको नई पार्टी की योजनाओं, प्रत्याशियों और भविष्य को शुभकामनाएँ देनी हैं. याद आया आपको - ये वो ही लोग हैं जिनका कल तक आपके नाम से आंदोलन चलता था और आपका एकदम खास भक्त इनका नेता था- अब थोड़ा आपके भक्त से खटपट हो चली है. कुछ चंदे वगैरह का हिसाब किताब और कुछ महत्वाकांक्षा की उड़ान. खैर, आप तो जानते ही हो कि ऐसा ही होता आया है हमेशा. आपके लिए भला नया क्या है- आप तो हमेशा से ऐसी घटनाओं के साक्षी रहे हो- साबरमती के संत!

गाँधी जी बोले, देख भई रामलाल. एक तो तू ज्यादा चुटकी न लिया कर ये संत वंत बोल कर. बस, आज का ही दिन तो होता है जब मैं थोड़ा बिजी हो जाता हूँ. हर सरकारी दफ्तर से लेकर हर भ्रष्ट से शिष्ट मंडल तक लोग मेरी पूछ परक करके अपने इमानदार और कर्तव्यनिष्ट होने का प्रमाण देते हैं. ऐसे में ये एक और...कह दो भई इनसे कि कल रख लेंगे कार्यक्रम. नई पार्टी ही तो है- आज नहीं जन्मी तो क्या- कल जन्म ले लेगी. रंग तो २०१४ में ही दिखाना है. एक दिन में क्या घाटा हो जायेगा? मेरा भी एक के बदले दो दिन मन बहला रहेगा.

रामलाल उखड़ पड़ा. कहने लगा एक तो साल भर आपको कोई पूछता नहीं. चुपचाप यहाँ पड़े रहते हो. आज पूछ रहे हैं तो आप भाव खा रहे हो कि आज नहीं कल. तो सुन लिजिये- यह कोई आपसे निवेदन या प्रार्थना नहीं है. बस, बुलाया है और आपको चलना है. आदेश ही मानो इसे.

सारे भारत की जनता से उन लोगों ने पार्टी बनाने के लिए पूछ लिया है और सबने उनसे पर्सनली कह दिया है कि आप पार्टी बनाईये- आपकी जरुरत है. इसके बावजूद आप हैं कि नकशे ही नहिं मिल रहे- हद है बापू!!

गाँधी जी ने परेशान होते हुए पूछा कि सारी जनता से कैसे पूछ लिया भई उन्होंने वो भी बिना वोट डलवाये?

रामलाल ने मुस्कराते हुए कहा कि बापू, आप तो बिल्कुले बुढ़ पुरनिया हो गये. इतना भी नहीं जानते कि उन्होंने फेसबुक से बताया था और खूब लोगों नें लाइक चटकाया. आजकल तो ऐसे ही पूछा जाता है. अब तो एस एम एस का फंडा भी बासी हो गया.

गाँधी जी सकपका गये. कहने लगे- मैं क्या जानूँ? मेरा तो फेसबुक एकाउन्ट है नहीं- चल भई, तू कहता है तो चलता हूँ. मगर मेरा चश्मा तो बनवा दे. वरना उनका घोषणा पत्र पढ़े बिना उन्हें कैसे आशीर्वाद दूँगा?

रामलाल हँसने लगा- अरे बापू, इतनी जल्दी भला कोई घोषणा पत्र बनता है. अभी चार दिन पहले तो बात हुई पार्टी बनाने की जब आपके खास वाले से मतभेद हुआ. सब कार्यक्रम पहले से तय है. आप वहाँ मंच पर विराजमान रहेंगे. आपका माल्यार्पण होगा. ततपश्चयात वो आपको घोषणा पत्र (कोरे कागज का पुलिंदा) पकड़ायेंगे. आप अपना बिना शीशे का चश्मा पहने उसे देखने का नाटक करियेगा और फिर कह दिजियेगा कि मुझे इससे बहुत उम्मीद है इनसे. मैं इन्हें आशीष देता हूँ. ये एक नव भारत का निर्माण करेंगे. अब अच्छा या बुरा- ये तो आपने कहा नहीं- होगा तो नव ही. आप सेफ रहोगे और पूजे जाते रहोगे तो नो टेंसन- बस, चले चलो- मैं हूँ न!!

दूर बैठी जनता को क्या समझ आयेगा कि घोषणा पत्र भी कोरा है और आपके चश्में में भी शीशा नहीं है.

गाँधी जी बोले कि रामलाल ऐसा तो मैं सभी पार्टियों के साथ करता आया हूँ मगर तू तो कह रहा था कि यह नई पार्टी है- नये मूल्यों के साथ- नये जमाने की-एक अलग तरह की जिसमें पार्टी के भीतर ही पार्टी का लोकपाल होगा.

अरे बापू, सभी तो एक न एक दिन नये थे. सभी कुछ नया ही करने आये थे..वो तो धीरे धीरे पुराने हो जाते हैं. ये भी हो जायेंगे.

बस, इनमें एक नई चीज आपने सही पकड़ी- पार्टी के भीतर ही पार्टी का लोकपाल होगा. आपन दरोगा- आपन थाना- अब डर काहे का!!

गाँधी जी रामलाल को देख मुस्कराये. रामलाल उन्हें देख कर एक आँख दबाता है...और चल पड़ते हैं गाँधी जी नई धोती पहने...बिना शीशे का चश्मा ..एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ से रामलाल का कँधा थामे...पार्टी घोषणा स्थल की ओर. कोशिश रही कि कोई टूटा चश्मा न देख ले.

चलते चलते:

कुछ तारे आकाश में चुप हैं, कुछ तारे पाताल में चुप

कुछ तारों का हाल देखकर, हम भी चुप और तुम भी चुप...

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 30, 2012

गुरुदेव को बधाई एवं मेरी एक गज़ल

आज गुरुदेव राकेश खण्डेलवाल जी की ५००वीं ब्लॉग पोस्ट दर्ज हुई. मन प्रसन्न हो गया. एक लम्बा सफर-५०० एक से बढ़कर एक अद्भुत गीत. जो उनका एक बार रसास्वादन कर ले तो हमेशा के लिए मुरीद हो जाये उनका. मुझ पर तो राकेश जी का वरद हस्त शुरु से ही है. सोचा, क्यूँ न आप भी गीत कलश  पर जाकर उनके गीतों का आनन्द लें और उन्हें बधाई एवं शुभकामनाएँ दें.

इसी मौके पर उन्हीं का आशीर्वाद प्राप्त मेरी एक गज़ल:

1

तेरी मेरी दास्तां अब, हम कभी लिखते नहीं..

गीत जिनमें सादगी हो, अब यहाँ बिकते नहीं....

सांस छोड़ी थी जो अबके, वो अगर वापस न हो

उसके आगे जिन्दगी के दांव कोई टिकते नहीं...

हो इरादे नेक कितने, और हौसले भी हों बुलंद..

खोट का है दौर, ये सिक्के यहाँ चलते नहीं...

है ये वादा साथ चल तू, सब बदल डालूँगा मैं,

चल पुराने रास्तों पर, कुछ भी नया रचते नहीं...

मुश्किलें मूँह मोड़ने से, खत्म हो जाती अगर

लोग सीधे मूँह हों जिनके, इस डगर दिखते नहीं...

मैं वो दरिया जो कभी, सागर तलक पहुँचा नहीं,

सियासती इस खेल में हम, जिक्रे गुमां रखते नहीं...

-समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, सितंबर 13, 2012

सूक्ष्म कथायें: कौव्वी की आधी चोंच

इधर फिर कुछ झैन कथायें पढ़ने का संयोग बना. तीन लाईन की कहानी, २५ लाईन के विचार देती. जो पढ़े, वो पढ़े कम, समझे ज्यादा और फिर अलग अलग मतलब लगाये अपनी बुद्धि के अनुरुप और खुश रहे. भीषण दर्शन. बस, मन किया कि फिर से कुछ उसी तरह की कोशिश की जाये.

 

पिछली दिल्ली यात्रा के दौरान एक सरकारी भवन की खिड़की से ली गई कौव्वों की तस्वीर

kw

भाग-१

नीम के पेड़ की डाली पर एक कौव्वा और एक कौव्वी- कई बरसों से बसेरा करते थे.

एक रोज सुहाने मौसम से वशीभूत दोनों चोंच चोंच खेल रहे थे.

कौव्वी की चोंच खेल खेल में टूट गई.

कौव्वे ने उसे देखकर मूँह बनाया और उड़ गया.

(इति)

भाग-२

उदास तन्हा कौव्वी यहाँ वहाँ फिरती और अकेलेपन के दुख में चिल्लाती. मिथिला के एक आंगन में एक चंदन के पेड़ पर चिल्लाती कौव्वी की आवाज़ सुनकर विरहिणी कहती है कि यदि आज पिया आ गए तो मैं तुम्हारी चोंच सोने से मढ़वा दूंगी. मंत्री पिया को आना ही था सो पटना एक्स्प्रेस से सुबह सुबह आ गये. साथ नई डील में बनाये कुछ खोके भी लाये. विरहणी नें बताया कि मोबाईल नेटवर्क बंद होने के दौरान इसी कौव्वी नें तुम्हारे आने की शुभ सूचना दी थी. चूँकि वादा मंत्री जी का नहीं बल्कि उनकी पत्नी का किया हुआ था अतः वादे के अनुरुप कौव्वी की आधी वाली चोंच सोने से मढ़वा दी गई. कौव्वे के पास जब उड़ते उड़ते यह खबर पहुँची तो कौव्वा उड़ कर वापस आ गया और कौव्वी के साथ पुनः रहने लगा.

(इति)

भाग -३

सोने से मढ़ी कौव्वी की चोंच देखते हुए एकाएक कौव्वे को अपनी चतुराई वाले स्वभाव की याद हो आई. कौव्वे ने अपनी योजना कौव्वी को कान में कह सुनाई. फिर कौव्वे ने खरोंच खरोंच कर कौव्वी की चोंच से सोना निकाल लिया और पेड़ की खोह में छिपाकर नई विरहणी की तलाश में दोनों निकल पड़े. खूब उड़े और खूब उड़े. पल पल जमाना बदला नज़र आता रहा. अब न तो कोई विरहणी मिलती और न किसी अंगना चंदन का पेड़.

नये जमाने के सक्षम औरत आदमी आज अपनी ही चोंच सोने से मढ़वाये घूम रहे हैं और कौव्वा कौव्वी अचरज से उन्हें देख रहे हैं.

(इति)

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रविवार, सितंबर 09, 2012

मुझे उस पेड़ का दर्द मालूम है.....

मोदी...फिर नीतिश कुमार...अब बाल ठाकरे ने सुषमा स्वराज का नाम प्रधान मंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया....अडवाणी का नाम तो खैर है ही...राहुल का नाम दूसरी तरफ से तय है...मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के बाद.... अन्य दिशाओं से मुलायम, लालू, ममता के नाम भी बीच बीच में उछलेंगे ही...

बाबा जी और टीम अन्ना तो खो खो खेल कर बैठ जायेंगे...उनसे सब निश्चिंत हैं इस क्यू में...वो देश की राय ही लेते और अपनी राय तय करते ही समय बिता देंगे और देश अपनी राय उपर वाली लिस्ट पर दे देगा चुनाव में...फिर उसी ओटन में खोजबीन करते...

किसी ने कहा कि सुषमा एल एल बी हैं...पढ़ी लिखी हैं...क्या बुराई है?

नितीश इंजिनीयर हैं..साफ सुथरी छवि है...क्या बुराई है?

अडवाणी जी अनुभवी हैं- क्या बुराई है?

राहुल युवा हैं- उर्जा से भरपूर...क्या बुराई है?

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कोई मेरा नाम भी तो लो...सी ए हूँ...पढ़ा लिखा तो कहलाया ही...छवि भी लगभग साफ सुथरी है...उर्जावान भी ठीकठाक ही हूँ...अनुभव तो खैर बेटे का नाम है ही...तो अपनी सत्ता के अन्तर्गत आय़ा...तस्वीर भी चिन्तनशील व्यक्तित्व की दिख रही है...क्या बुराई है? और चाहिये भी क्या....जान ले लोगे क्या बच्चे की प्रधान मंत्री बनाने के लिए??

ले लो मेरा नाम...प्लीज़...ये सारे भी तो नाम ही हैं...बनना बनाना तो जिसे है वो तय है ही...लिस्ट में नाम रहे तो अच्छा लगता है...कोई नया नाम आये उसके पहले इनक्लूड करवा दो मेरा नाम......जल्दी...यहीं सहमती दर्ज करो....

कहीं सुना था:

एक पेड पर एक उल्लू बैठा करता था ,
एक दिन पेड काट दिया गया
पेड बहुत खुश हुआ
मगर उस की खुशी मिट्टी में मिल गयी
क्योंकि..........................
... पेड को काट कर उसकी एक मंत्री की कुर्सी बना दी गई
और इतिहास गवाही देने को तैयार है
"आज भी उस पर ...............एक उल्लू ही बैठा हुआ है '

मेरी चाह मात्र पेड की किस्मत बदल देने की है....आपकी किस्मत तो बदलना मेरे क्या, भगवान के बस में भी नहीं!!!

उड़ चला जिस रोज परिंदा, कुछ न बोला चुप रहा
पर वो एक नम डाल मुझको, पेड़ पर दिखती तो है....

(इस शेर की पहली पंक्ति किसी और की है…नाम भूल गया हूँ.)

इतना ही काफी जान लो मित्रों...कि कम से कम मैं देख तो पा रहा हूँ....ले दो नाम मेरा भी...शायद कुछ बदलने को हो!!!

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मंगलवार, सितंबर 04, 2012

तारीखें क्या थीं.....चलो!!! तुम बताओ!!

वो दूर से भागता हुआ आया था इतनी सुबह...शायर की भाषा में अल सुबह और गर मैं कहूँ तो कहूँगा सुबह तो इसे क्या..क्यूँकि अभी तो रात की गिरी ओस मिली भी नहीं थी उस उगने को तैयार होते सूरज की किरणों से...विलिन हो जाने को उसके भीतर- खो देने को अपना अस्तित्व उसकी विराटता में समाहित हो कर खुशी खुशी.

 

red-rose

देखा था मैने कि वो हांफ रहा था मगर कोशिश थी कि सामान्य नज़र आये और कोई सुन भी न पाये उसकी हंफाई.... दिखी थी मुझे ....उसकी दोनों मुठ्ठियाँ भिंची हुई थी और चेहरे पर एक विजयी मुस्कान......एक दिव्य मुस्कान सी शायद अगर मेरी सोच के परे किसी भी और परिपेक्ष्य में उसे लिया जाये तो...मगर मुझे वो उसकी वो मुस्कान एक झेंपी सी मुस्कान लगी.. जब मैने उससे कहा कि क्या ले आये हो इस मुठ्ठी में बंद कर के ..जरा मुट्ठी तो खोलो...अभी तो सूरज भी आँख ही मल रहा है और तुम भागते हुए इतनी दूर से जाने क्या बंद कर लाये हो इन छोटी सी मुट्ठियों में...मुझे मालूम है कि कुछ अनजगे सपने होंगे सुबह जागने को आतुर-इस सोच के साथ कि शायद सच हो जायें.,..दिखाओ न...हम भी तो देखें...

खोल दो न अपनी मुट्ठी......

वो फिर झेंपा और धीरे से...कुछ सकुचाते हुए...कुछ शरमाते हुए..आखिर खोल ही दिये अपनी दोनों मुठ्ठियाँ में भरे वो अनजगे सपने… मेरे सामने...और वो सपने आँख मलते अकबका कर जागे.. मुझे दिखा कुछ खून......सूर्ख लाल खून.. उसकी कोमल हथेलियों से रिसता हुआ और छोटे छोटे ढेर सारे काँटे गुलाब के..छितराये हुए उन नाजुक हथेलियों पर..कुछ चुभे हुए तो कुछ बिखरे बिखरे हुए से....न चुभ पाने से उदास...मायूस...

-अरे, ये क्या?- इन्हें क्यूँ ले आये हो मेरे पास? मुझे तो गुलाब पसंद हैं और तुम ..ये काँटे  .. ये कैसा मजाक है? मैं भला इन काँटों का क्या करुँगी? और ये खून?...तुम जानते हो न...मुझे खून देखना पसंद नहीं है..खून देखना मुझे बर्दाश्त नहीं होता...लहु का वो लाल रंग...एक बेहोशॊ सी छा जाती है मुझ पर..

यह लाल रंग..याद दिलाता है मुझे उस सिंदूर की...जो पोंछा गया था बिना उसकी किसी गल्ती के...उसके आदमी के अतिशय शराब पीकर लीवर से दुश्मनी भजा लेने की एवज में...उस जलती चिता के सामने...समाज से डायन का दर्जा प्राप्त करते..समाज की नजर में जो निगल गई थी अपने पति को.....बस!! एक पुरुष प्रधान समाज...यूँ लांछित करता है अबला को..उफ्फ!

तुम कहते कि मुझे पता है कि खून तुमसे बर्दाश्त नहीं होता मगर तुम्हारी पसंद वो सुर्ख लाल गुलाब है. मै नहीं चाहता कि तुम्हें वो जरा भी बासी मिले तो चलो मेरे साथ अब और तोड़ लो ताज़ा ताज़ा उस गुलाब को ..एकदम उसकी लाल सुर्खियत के साथ...बिना कोई रंगत खोये...

बस, इस कोशिश में तुम्हे कोई काँटा न चुभे  .तुम्हारी ऊँगली से खून न बहे..वरना कैसे बर्दाश्त कर पाओगी तुम...और तुम कर भी लो तो मैं..

बस यही एक कोशिश रही है मेरी..कि... मेरा खून जो रिसा है हथेली से मेरी...वो रखेगा उस गुलाब का रंग..सुर्ख लाल...जो पसंद है तुम्हें..ओ मेरी पाकीज़ा गज़ल!!

बस. मत देख इस खून को जो रिसा है मेरी हथेली से लाल रंग का.....और बरकरार रख मुझसे विश्वास का वो रिश्ता ..जिसे लेकर हम साथ चले थे उस रोज...और जिसे सीने से लगाये ही हम बिछड़े थे उस रोज...

याद है न वो दोनों दिन...तारीखें क्या थी वो दोनों.....चलो!!! तुम बताओ!!

 

है यार मेरा अपना शाईर जो मेरे दिल के अंदर रहता है

तड़प के वो है पूछ रहा, तू आखिर जिन्दा कैसे रहता है

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अगस्त 08, 2012

वो हमसफर था....

मेरे हमसफर मेरा साथ दे, मैं बहुत दिनों से उदास हूँ..

मेरे गीत को कोई साज दे, मैं बहुत दिनों से उदास हूँ

मुझे हाल तिरा जो दे सके मुझे उस खबर की तलाश है

मेरी बात का तू ही जबाब दे, मैं बहुत दिनों से उदास हूँ...

 

- तो उस रोज जबाब आ ही गया....और चल पड़े हम- “सेन फ्रान्सिस्को की धुँध के आगोश से निकल..प्रशान्त महासागर से उठते उन ठंडी हवाओं के झोकों को जेहन में समेटे...पहाड़ों की चढ़ाई और ढलान के मस्त कर देने वाले आलम से निकल जो मानो चुपके से समझाईश देता था रोज साथ चलते चलते- जिन्दगी के उतार और चढ़ाव को खुशी खुशी झेल नित नई सीख लेने को –शुरु में उस चढ़ान से कोफ्त भी होता- थकान भी होती और सांस भी फूलती मगर इस तसल्ली के साथ कि चलो, अभी चढ़ान है तो क्या- शाम लौटते में ढलान होगी...तो चेहरा मुस्करा उठता...काश, जिन्दगी को भी ऐसे ही मुस्कराते जिये चले जाते हम- सिखा दिया सेन फ्रान्सिस्को ने यह फलसफा यूँ”,

2012-08-06 08.51.35

- चल दिये हम अपने घर टोरंटो वापस......पता ही नहीं चला कि कब चार महिने यूँ ही गुजर गये- खैर पता तो तब भी न चला था जब जिन्दगी के इतने बरस भी यूँ ही उतार चढ़ाव झेलते गुजरे मगर कोशिश तो फिर भी रही इस सीख सी..मुस्कराते हुए गुजर जाने की.

- तो अलविदा सेन फेन्सिस्को!! अलविदा बे एरिया- अलविदा ओ पहाड़...अलविदा समुन्द्र...अलविदा वो धुँध कि जिसके साये में खोया खोया फिरता था मैं जाने कहाँ कहाँ.. बुनते हुए कुछ चमकीले ख्वाब.. इस शहर की वादियों में..

- एक अजब सा शहर... बेहद अमीरी और बेहद गरीबी के बीच सामन्जस्य बैठाता..एक तरफ बेपनाह दिमाग (फर्टाईल ब्रेन) कि सिलिकोन वैली के नाम से विश्व विख्यात..वहीं शहर के बीचों बीच अमेरीका की क्राईम केपिटल ओकलैण्ड..अपराधों का गढ़..अपराधियों की जन्नत....एक तरफ फैशन के जबरदस्त हस्ताक्षर तो दूसरी तरफ ड्रग्स और एड्स की मार...सब एक साथ खुली आँख देखता.... ये शहर जो परिशां फिर भी न था..याद तो आओगे तुम ओ सेन फ्रान्सिस्को..और याद रहेंगे सदा वो साथी..जो करीब हुए यहाँ....कहीं दफ्तर में .. तो कहीं मुशायरों में.. तो कभी परिवार के साथ तो कभी दोस्तों में यूँ ही...

- तब कहता हूँ किसी शायर की बात मौके पर....

 

बिछड़ते वक्त उन आँखों में थी हमारी गज़ल

गज़ल भी वो जो किसी को कभी सुनाई न थी..

कि धूप छांव का आलम रहा

जुदाई न थी

वो हमसफर था....

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, जुलाई 20, 2012

वो वाली गज़ल..

पिछले आलेख के साथ वादा था कि गज़ल पूरी सुनाऊंगा तो पढ़िये पूरी…और हाँ. मेरी आवाज में सुनना हो तो कमेंट करो..अगली पोस्ट में गा कर सुनायेंगे एक अलग अंदाज में..मगर कहो तो::

 

2012-07-13 19.48.21

 

दर्द सबका हर सके वो मुस्कान होना चाहिये...

इंसान के भीतर भी इक इंसान होना चाहिये.

 

भूल जाते हम सदा ही दुश्मनों के वार को

हर गली में अब यहाँ, शमशान होना चाहिये..

 

रोज मरते हैं हजारों, मंहगाई की इस मार से

भूख उनको ना लगे, वरदान होना चाहिये..

 

दूर कर दे भाई को, माँ बाप के प्रस्थान पर

अब नहीं ऐसा कहीं, स्थान होना चाहिये...

 

जिसकी शिरकत देख के, अब जा छुपा है ’समीर’

कह रहा है वो मेरा, सम्मान होना चाहिये..

 

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, जुलाई 02, 2012

विज्ञान और कला: एक अध्ययन

अमरीका/कनाडा में रहना अलग बात है और भारत में रहना अलग. इससे भला कौन न सहमत होगा. जो न होगा वो मूर्ख कहलायेगा और मूर्ख कहलाना किसी भी भारतीय को मंजूर नहीं- वो बिना अपनी इच्छा के भी सहमत हो जायेगा मगर मूर्ख नहीं कहलवायेगा खुद को. तो कोई अमरीकी या कनेडीयन ही होगा कम से कम इस मामले में तो जो मूर्ख नवाज़ा जायेगा.

अमरीका, कनाडा जैसे देशों में रहना एक विज्ञान है, यहाँ रहने के अपने घोषित और स्थापित तरीके है, जो सीखे जा सकते हैं ठीक उसी तरह जैसे कि विज्ञान की कोई सी भी अन्य बातें- किताबों से या ज्ञानियों से जानकर. कैसे उठना है, कैसे बैठना है, कैसे सोना है, कैसे बिजली का स्विच उल्टा ऑन करना है, कब क्या करना है, सड़क पर किस तरफ चलना है- सब तय है.

मगर भारत में रहना- ओह!! यह एक कला है. इस हेतु आपका कलाकार होना आवश्यक है. और कलाकार बनते नहीं, पैदा होते हैं.

भारत में रह पाना, वो भी हर हाल में खुशी खुशी- यह एक जन्म जात गुण है, ईश्वर की कृपा है आप पर- कृपा ही नहीं- अतिशय कृपा है- इस कला को कोई सिखा नहीं सकता- इसे कोई सीख नहीं सकता. यह जन्मजात गुण है- वरदान है.

बिजली अगर चली जाये तो- दुनिया के किसी भी देश के वाशिंदे बिजली के दफ्तर में फोन करके पता करते हैं कि क्या समस्या है?.... और भारत एक ऐसा देश है जहाँ..घर से निकल कर ये देखते हैं कि पड़ोसी के घर भी गई है या नहीं? अगर पड़ोसी की भी गई है तो सब सही- जब उनकी आयेगी तो अपनी भी आ जायेगी..इसमें चिन्ता क्या करना!! फोन तो पड़ोसी करेगा ही बिजली के दफ्तर में.

ऐसी मानसिकता पैदा नहीं की जा सकती सिखा कर- यह पैदाईशी ही हो सकती है.....जन्मजात!! हिन्दू धर्म के समान- आप हिन्दू बस पैदा हो सकते हैं., बन नहीं सकते! पैदा हो जाओ- फिर भले ही गोश्त खाओ या मल्लिछ हो जाओ- रहोगे हिन्दू ही....

कलाकार भी ऐसे कि उन्हें नर्तक की श्रेणी के निपुण कलाकार से कम तो आप आंक ही नहीं सकते. नर्तक - कोई कत्थक नाच रहा है, कोई नागालैण्ड का नृत्य करने में मगन है, कोई भांगडा, तो कोई डिस्को, कोई बीच सड़क में बैण्ड बाजे के साथ नागिन नाच में मूँह में रुमाल दबाये झूमे जा रहा है- मगर हैं सब नर्तक - एक कलाकार. अपने स्वयं की दुश्वारियों को धुँए में उड़ा बेगानी शादी में दीवाने कलाकार- सब एक से बढ़कर एक. कोई किसी से कम नहीं. कर के दिखा दो किसी को कम साबित तो मानें की- हम किसी से कम नहीं की तर्ज पर नाचते.

kalaakar

अभ्यास से कला को मात्र तराशा जा सकता है. गुरु अभ्यास करा सकता है मगर कला का बीज यदि आपके भीतर जन्मजात नहीं है तो गुरु लाख सर पटक ले, कुछ नहीं हासिल होगा. यूँ भी सभी अपने आप में गुरु हैं तो कोई दूसरा गुरु कौन और क्या सिखायेगा?

कैसा भी विषय हो- विषय की स्पेलिंग न लिख पायेंगे मगर बोलेंगे जरुर कि हमसे पूछा होता तो हम बता देते या हमसे पूछते तो सही मगर तुम अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं तो क्या मदद करें तुम्हारी?

खैर, गुरुओं की कोशिश से शायद मुझ जैसा गायक तैयार हो भी जाये तो उसे भला कौन कभी गायक मानेगा. कविता गाने लायक गुजर भी नहीं है बरसों के अभ्यास के बाद भी. जन्मजात वो गायन का बीज ही नहीं है, तो भला कौन से गायन का पेड़ लहलहायेगा.

जनकवि वृंद की पंक्ति:

होनहार बिरवान के, होत चीकने पात...

कितनी सटीक बैठती है हम कलाकारों पर..भारत में रहने की कला हर वहाँ पैदा होने वाले बच्चे के चेहरे पर देखी जा सकती है – बिल्कुल चीकने पात सा चेहरा. पैदा होते ही फिट- धूल, मिट्टी, गरमी, पसीना, मच्छर, बारिश, कीचड़, हार्न भौंपूं की आवाजें, भीड़ भड्ड़क्का, डाक्टर के यहाँ मारा मारी और इन सबके बीच चल निकलती है जीवन की गाड़ी मुस्कराते हुए. हँसते खेलते हर विषमताओं के बीच प्रसन्न, मस्त मना- एक भारतीय.

फिर तो मारा मारियों की फेहरिस्त है एक के बाद एक – एक पूरा सिलसिला- नित प्रति दिन- प्रति पल- स्कूल के एडमीशन से लेकर कालेज में रिजर्वेशन तक, नौकरी में रिकमन्डेशन से लेकर विभागीय प्रमोशन तक, अपनी सुलझे किसी तरह तो उसी ट्रेक में फिर अगली पुश्त खड़ी नजर आये और फिर उसे उसी तरह सुलझाओ जैसे कभी आपके माँ बाप ने आपके लिए सुलझाया था- जन्मजात गुण पाकर... चैन मिनट भर को नहीं और उसमें भी प्रसन्न. हँसते मुस्कराते, चाय पीते, समोसा- पान खाते, सामने वाले की खिल्ली उड़ाते हम. ऐसे कलाकार कि भगवान भी भारतीयों को देखकर सोचता होगा- अरे, ये मैने क्या किया? ये क्या बना दिया?

और हर भारतीय गली गली नुक्कड़ नुक्कड़ मंदिर पर शीश नंवाये उसकी खिल्ली उड़ाता नजर आ जायेगा- आज बहुत खुश होगे तुम? (अमिताभ स्टाईल ऑफ दीवार)

लो- और खुश हो लो- १०१ रुपये के लड्डू खाओ!!

और भगवान- सॉरी मोड में- बगलें झांकते- यंत्रवत प्रसाद खाये चले जा रहे हैं. जब अति हो जाती है तो दूध भी पीने लगते हैं. सारा देश उमड़ पड़ता है ये देखने कि भगवान दूध पी रहे हैं और कलाकारी के वरदान की तरह- यह कृपा भी भगवान मात्र भारतीयों पर करते हैं कि बाल्टी पर बाल्टी दूध पिये चले जाते हैं मात्र भक्तों की खातिर -सिर्फ इसलिए कि भक्त कलाकार हैं.. मीडिया याने कि देश (हाथी के दांत की तरह वाला देश- दिखाने वाला) - बस, हो लेता है दूधमय!! लो, भगवान ने दूध पी लिया- हम तर गये. कल से जिन्दगी आसान- तो मुस्करा दो. सो तो यूँ भी मुस्करा रहे थे.

मीडिया जानती है कि कब मुस्करवाना है और कब रुलवाना. टी आर पी का खेल आमदनी का नुस्ख़ा है. कोई जिये या मरे- टी आर पी बढ़नी चाहिये..यह मीडिया में कलाकारी का मंत्र है.

याद है न इस मीडिया का खेल- आज आपके गुण दिखा कर टी आर पी बटोरेगा. कल आपके ही दुर्गुण दिखा कर टी आर पी बटोरेगा. बस, लक्ष्मी की कृपा आती रहे- रुके न!! फिर भले इमली की चटनी डाल कर समोसे खाने का उपाय हो या गरीबों में फल बांट देने का... अन्य कलाकारों की तरह भारतीय मीडिया भी सब करेगा- और हम सब कलाकार देखकर तली पीटेंगे. हंसेंगे- मुस्करायेंगे और मस्ती में खा पी कर सो जायेंगे.

यूँ भी कलाकारों की अपनी एक अलग सी दुनिया होती है. भारत में जब पूछो किसी से भी कि क्या हाल है? कैसा चल रहा है? बस एक जबाब- हमारी छोड़ो, अपनी सुनाओ? सामने वाले ने अगर अपना दुख बखान कर दिया, तो अपना दुख तो यूँ भी इतना छोटा हो चलेगा कि सुख सा नजर आयेगा. और सामने वाले यदि सुख बखाना तो मन ही मन मान लेंगे कि जलाने के लिए झूठ बखान रहा है. बेवकूफ समझता है सामने वाले को. फिर अगले की मुस्कराते हुए कि पूछा जाये ’क्या हाल हैं?’

आप खुद सोच कर देखें कि कला और कलाकारी की चरमावस्था- जो मेहनत कर पढ़ लिख कर तैयार होते हैं वो सरकारी नौकरी करते हैं और जो बिना पढे लिखे किसी काबिल नहीं वो उन पर राज करते हैं. यही पढ़े लिखे लोग उन्हें चुन चुन का अपना नेता बनाते हैं और बात बात में उनसे मुँह की खाते हैं फिर भी हे हे कर मुस्कराते हुए उनकी ही जी हुजूरी बजाते हैं. कलाकारी का इससे बेहतर नमूना तो और भला क्या पेश करुँ- आप तो खुद कलाकार हो, समझते हो सारी बातें. मैने तो बस ख्याल आया- तो दर्ज कर दिया है- हम कलाकारों के लिए. विज्ञान आधारित और तर्क संगत मानसिकता तो यही कहेगी कि राज और मार्गदर्शन तो पढ़े लिखे, जानकार को करना चाहिये मगर कला जो न करवा दे, कम है.

इस कलाकारी को मानने मनवाने के चक्कर में विज्ञान तो न जाने कहाँ रह गया बातचीत में. तभी शायद कहा गया होगा कि एक कलाकार तो वैज्ञानिक बनाया जा सकता है, पढ़ा लिखा कर, सिखा कर- बनाया क्या जा सकते है, बनाया जा ही रहा है हर दिन- भर भर हवाई जहाज भारत से आकर अमरीका/ कनाडा में सफलतापूर्वक बस ही रहे हैं. मगर एक वैज्ञानिक को जिसमें कला के बीज जन्मजात न हो, कलाकार नहीं बनाया जा सकता. कहाँ दिखता है अमरीका/कनाडा का जन्मा गोरा बन्दा या बन्दी, भारत जाकर बसते.

चलते चलते- मेरी आने वाली गज़ल के मुखड़े से एक त्रिवेणीनुमा चित्र इस आलेख को पूरा करता:

दर्द सबका हर सके वो मुस्कान होना चाहिये...

इंसान के भीतर भी एक इंसान होना चाहिये.

-इंसानी खाल में छिपे कुछ भेड़िये देखें हैं मैने!!

-समीर लाल 'समीर'

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सोमवार, जून 25, 2012

यादों में परसाई जी: ‘व्यंग्य यात्रा’

‘व्यंग्य यात्रा’ का हरिशंकर परसाई की साहित्यिक यात्रा पर केंद्रित अंक का पहला खंड प्रकाशित होकर अपने पाठकों तक पहुंच गया है। 192 पृष्ठ के इस अंक में मेरा भी संस्मरण है, आप भी पढ़ें:

vyangyayatra

तब शायद छठवीं कक्षा में रहा हूँगा. स्वतंत्रता दिवस के उत्सव के दौरान स्कूल की तरफ से लेखन प्रतियोगिता रखी गई थी जिसमें अपने स्कूल, शिक्षक के बारे में आलेख, कहानी, कविता कुछ भी लिखकर जमा की जानी थी. १५ अगस्त से एक सप्ताह पहले ही प्रतियोगिता हो गई और कापियाँ जमा करा ली गई.

एक घंटे का समय दिया गया था. मुझे कुछ न सूझा तो एक कहानी लिखी अपने शिक्षक के बारे में, जो पढ़ाते कम थे मगर प्राचार्य महोदय की खुशामद में दिन बिता देते थे. कभी उनके लिए सब्जी खरीदने जाते, कभी उनके लिए पान चाय का इन्तजाम करते. खुद भी पूरे समय पान खाते रहते थे. प्राचार्य जी की उन पर विशेष कृपा रहती थी. मैने उन्हें सच्चा आदर्श शिक्षक बताया कि इस तरह से शिक्षण कार्य करके आप अपना स्थान स्कूल में विशिष्ट बना सकते हैं अन्यथा सिर्फ पढ़ाते हुए जीवन में क्या रस है. अंत मैने किया था कि यदि मैं शिक्षक बना तो इनके समान बनूँगा और पान खाऊँगा. और भी जितना कुछ उनकी रंगीन कमीज, ट्यूसन क्लास, स्कूटर और स्टाईल के बारे में एक घंटे में लिख पाया, लिख डाला. बस, नाम नहीं लिया उनका मगर पढ़कर कोई भी समझ सकता था कि किसके बारे में लिखा है.

प्रतियोगिता में जीतने की कोई उम्मीद तो थी नहीं बल्कि यह अंदेशा जरुर था कि अगर उन मास्साब ने पढ़ लिया तो पिटाई जरुर होगी. मन ही मन बहाने सोचता रहता कि क्या बोल कर बचना है कि आपके बारे में नहीं लिखा था. क्लास ६ से लेकर ८ तक के विद्यार्थी एक ग्रुप में रखे गये थे. १०० से ज्यादा प्रतियोगियों के बीच मेरा तो खैर क्या होना था, बस अपनी प्रतिभागिता दर्ज करानी थी सो करवा दिया.

१५ अगस्त को आयोजन के दौरान विजेता घोषित होने थे और उन्हें पुरुस्कार देने हरि शंकर परसाई जी आ रहे थे. परसाई जी शहर के जाने पहचाने लोगों में अपना नाम रखते थे. अक्सर पिताजी और उनके दोस्तों से उनका नाम सुना था और उन्हें परसाई जी को अखबार में पढ़कर हँसते देखा था. एक उत्सुक्ता तो थी ही उन्हें देखने की. बस, प्रथम पंक्ति में बैठ गया. परसाई जी कुरता पायजाम पहने आये और मंच पर प्राचार्य महोदय के साथ बैठे.

झंडा वादन, जन गन मन, मिष्ठान वितरण हुआ और फिर फुल माला, सरस्वति वंदन के साथ कार्यक्रम शुरु हुआ. प्राचार्य महोदय का भाषण हुआ. कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए और फिर परसाई जी अपना अभिभाषण देने आये.

अपने भाषण के दौरान ही जहाँ उन्होंने अच्छी शिक्षा दीक्षा पर जोर दिया, वहीं एक जागरुक नागरीक बन अपने आस पास हो रहे गलत कार्यों पर ऊँगली उठाने की बात की और इस हेतु कलम और कलमकारों की सजग भूमिका पर प्रकाश डालते हुए उद्धरण देते हुए मेरा नाम ले डाला और मुझे मंच पर आने को कहा.

मैं तो समझ ही नहीं पाया कि ऐसा मैने क्या कर दिया. मुझे प्रतियोगिता में अपने लिखे पर प्रथम पुरुस्कार देते हुए उन्होंने मेरे लिखे को व्यंग्य बताया और कहा कि ऐसा लिखने के लिए साहस की जरुरत होती है और यह हर जागरुक नागरिक का कर्तव्य है.

फिर कार्यक्रम के बाद उन्होंने मुझे खूब पढ़ने, पाठय पुस्तक के इतर भी अन्य पुस्तकों को पढ़ने और लिखने आदि की समझाईश देकर आशीर्वाद दिया.

उम्र के उस पठाव में कुछ खास तो समझ नहीं आया किन्तु यह जरुर अहसास हुआ कि इतने बड़े आदमी और नामी लेखक ने मुझको सराहा है. मैं खुशी से फूला न समाता था. पिता जी और परिवार को जब बताया तो उन्हें जैसे विश्वास ही न हुआ. सब बहुत खुश हुए.

फिर सालों निकल गये. पढ़ाई के इतर छोटा मोटा लेखन भी न हुआ और पढ़ना भी नहीं. बीच बीच में कभी कभी शहर के कार्यक्रमों में पिता जी के साथ जाता रहा और परसाई जी होते तो उन्हें देखता रहा.

फिर सी ए बन कर जबलपुर में ही प्रेक्टीस शुरु की तो दफ्तर नेपियर टाऊन में परसाई जी के घर के पास ही था. एक शाम जाने क्या सोच कर उनके घर मिलने पहुँच गया. परसाई जी की तबीयत ठीक न थी और वो लेटे हुए थे.

धीरे से अपनी चिर गंभीर मुद्रा में उन्होंने मुझे देखा और पूछा, “कहिये?”

मैने उन्हें अपना सी ए वाला कार्ड पकडाया और चरण स्पर्श किये. वो ध्यान से कार्ड देखने के बाद धीरे से मुस्कराये और कहने लगे कि आप जैसे लोगों से तो हमारा क्या वास्ता? पैसा हो तो हिसाब बनवायें. कोई और दर खटखटाईये जनाब. इसी मोहल्ले में आपकी सेवा लेने लायक बहुत से हैं और यह कह कर वो जोर से हँसने लगे.

मैं झेंप गया और कहा कि सर, आपके दर्शन हेतु आया था बस. आपने मुझे पहचाना नहीं.

कहने लगे कि आज की दुनिया में बिना प्रसाद की उम्मीद में तो कोई दर्शन करने मंदिर भी नहीं जाता और आप यहाँ? वे पुनः हँसे.

मैने उन्हें याद दिलाया कि कैसे स्कूल की प्रतियोगिता में उन्होंने मुझे पुरुस्कार दिया था तो वह तुरंत बोले – अरे, तो तुम पान खाते हुए आते और कहते कि स्कूल में मास्साब हो गया हूँ, प्राचार्य महोदय की कृपा बनी हुई है- तब तो पहचान पाता. फिर एक बार वही हँसी.

मैं तो उनकी याददाश्त का कायल हो गया. इतना पढ़ने लिखने वाला इन्सान, इतने वर्षों बाद मेरे उस छिट्पुट लेखन का मसौदा याद रखे हुए है. नतमस्तक हो गया मैं.

फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि इधर कुछ लिखते हो?

मेरे न कहने पर और नई प्रेक्टिस की व्यस्तता के बहाने का सहारा लेने पर बहुत देर ध्यान से मुझे देखते रहे और कहा कि जीवन जीने के लिए वह भी जरुरी है किन्तु जीवन का असली आनन्द लेने के लिए और एक जागरुक नागरिक होने के कर्तव्य निभाने के लिए लिखना भी जरुरी है. लिखा करो समय निकाल कर.

मैने भी सहमति में सर हिला दिया. वो मुस्कराये-शायद समझ गये होंगे कि मैं झूठ सहमति दर्ज कर रहा हूँ.

फिर तो अक्सर ही उनके यहाँ जाना होता. बार बार वो लिखने पर जोर देते और मैं सहमति में सिर हिला कर आ जाता. वो कहते कि तुममें प्रतिभा है. तुम अच्छा लिख सकते हो मगर कोशिश तुमको ही करना पड़ेगी. उसमें तो मैं कुछ नहीं कर सकता.

उनकी बीमारी के दौरान काफी काफी देर उनके पास बैठा रहता. एक सुकून सा मिलता. उनसे मिलने आने जाने वालों का सिलसिला हमेशा ही होता. मैं उनके किस्से सुनता रहता और उनकी जिन्दा दिली पर नत मस्तक रहता.

मैं एक बार हमारे एक परिचित के घर बैठा था. परसाई जी का भी उनके घर आना जाना था. परसाई जी उसी बीच भेड़ाघाट से लौट कर उनके घर आये. जब तक चाय पानी का इन्तजाम होता, परसाई जी ने उनसे एक कागज पैन माँगा और लिखने बैठे गये. कुछ ही देर में उनका आलेख तैयार था जिसे उन्होंने मेरे परिचित के बेटे को देकर अखबार के दफ्तर में छपने भेज दिया. इतना फटाफट लिख देना वो भी इतना पैना-शायद उन जैसे महाज्ञानियों के ही बस की बात है. लिखते भी तो मुद्रा वैसी ही धीर गंभीर होती- लगता ही नहीं इनके लेखन में कितना हास्य का पुट लिए करारा कटाक्ष होगा.

समय उड़ता रहा और जिस दिन परसाई जी इस दुनिया से विदा हुए, मैं शहर में नहीं था. पूरा शहर स्तब्ध था. साहित्यजगत को एक भारी धक्का लगा था. लगभग एक हफ्ते बाद लौटा, तो खबर सुनकर जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. आज भी जब उनको पढ़ता हूँ तो अहसासता हूँ कि जैसे परसाई जी बाजू में बैठे अपने किस्से सुना रहे हैं.

अब मेरा नियमित लेखन हो रहा है. परसाई जी को न जाने कितनी कितनी बार पढ़ चुका और बार बार पढ़ता हूँ और हर बार यही ख्याल आता है कि काश!! उनके रहते कलम उठा ली होती तो उनके मार्गदर्शन में आज लेखनी की धार ही दूसरी होती. मगर कब किसी को किस्मत से ज्यादा मिलता है.

लेकिन आज भी जब कलम उठाता हूँ तो परसाई जी नजर आ जाते हैं ख्यालों में यह कहते: जीवन का असली आनन्द लेने के लिए और एक जागरुक नागरिक होने के कर्तव्य निभाने के लिए लिखना भी जरुरी है. लिखा करो समय निकाल कर.

हमारा वो युग आज जैसा डिजिटल युग क्यूँ न हुआ यह भी एक मलाल रहता है हर वक्त वरना न जाने उनके सानिध्य की कितनी तस्वीरें दिल के साथ दीवारों पर भी सजा कर रखता.

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शुक्रवार, जून 08, 2012

कोहरे के आगोश में...

मैं उससे कहता कि यह सड़क मेरे घर जाती है- फिर सोचता कि भला सड़क भी कहीं जाती है. जाते तो हम आप हैं. एक जोरदार ठहाका लगाता और अपनी ही बेवकूफी को उस ठहाके की आवाज से बुनी चादर के नीचे छिपा देता.

फिर तो हर बेवकूफियाँ यूँ ही ठहाकों में छुपाने की मानो आदत सी हो गई. आदत भी ऐसी कि जैसे सांस लेते हों. बिना किसी प्रयास के, बस यूँ ही सहज भाव से. इधर बेवकूफी की नहीं कि उधर ठहाके लगा उठे और सोचते रहे कि इसकी आवाज में सब दब छुप गया- अब भला कौन जान पायेगा?

यूँ गर कोई समझ भी जाये तो हँस तो चुके ही है, कह लेंगे मजाक किया था.

उम्र का बहाव रुकता नहीं और तब जब आप बहते बहते दूर चले आये हों इस बहाव में तो एकाएक ख्याल आता है कि वाकई, एक मजाक ही तो किया था. अब ठहाका उठाने का मन नहीं करता. एक उदासी घेर लेती है ऐसी सोच पर. और उस उदासी की वजह सोचो- तो फिर वहीं ठहाका- बिना किसी प्रयस के- सहज ही.

कहाँ चलता है रास्ता? कहाँ जाती है सड़क? वो तो जहाँ है वहीं ठहरी होती है. हम जब चलते हैं तब भी ठहरे से. सुबह जहाँ से शुरु हों- शाम बीतते फिर उसी बिन्दु पर.

हासिल- एक दिन गुजरा हुआ. हाँ, दिन चलता है. चलते चलते गुजर जाता है- जैसे की हमारी सोच, हमारे अरमान, हमारी चाहतें. सब चलती हैं- गुजर जाती हैं. ठहर जाता हूँ मैं- जाने किस ख्याल में डूबा- उस रुके हुए रास्ते पर- सड़क कह रहा था न उसे. जो जाती थी मेरी घर तक.

वो कहता कि सड़क जाती है वहाँ जो जगह वो जानती है. अनजान मंजिलों पर तो हम उड़ कर जाते हैं सड़क के सहारे. एक अरमान थामें.

मगर सड़क जायेगी घर तक. तो मेरी सड़क क्यूँ नहीं जाती मेरे उस घर तक- जहाँ खेला था बचपन, जहाँ संजोये थे सपने- अपने खून वाले रिश्तों के साथ.

कहते हैं फिर कि वो जाती है उन जगहों पर जिसे वो जानती है.

बताते हैं कि सड़क के उस मुहाने पर जहाँ मेरा घर होता था, अब एक मकान रहता है. मकान नहीं पहचानती सड़क- घर रहा नहीं. कई बरस हुए उसे गुजरे.

तो खो गया फिर उस रुकी सड़क के उस मोड़ पर- जहाँ से सुबह चलता हूँ और शाम फिर वहीं नजर आता हूँ इस अजब शहर में- जो खोया रहता है बारहों महिने- छुपा हुआ कोहरे की चादर में. किसी बेवकूफी को ढापने का उसका यह तरीका तो नहीं?? एक ठहाका लगाता हूँ- ये मेरा तरीका पीछा नहीं छोड़ता और रास्ता है कि चलता नहीं.

तो कुछ कदमों पर समुन्दर है और पलटता हूँ तो पहाड़ी की ऊँचाई...जिसे छिल छिल कर बनाये छितराये चौखटे मकान...अलग अलग बेढब रंगों के...कहते हैं यह सुन्दरता है सेन फ्रान्सिसको की..हा हा!! मेरा ठहाका फिर उठता है और यह शहर- छिपा देता है उसे भी अपनी कोहरे की चादर की परत में...और मैं गुनगुनाता हूँ अपनी ताजी गज़ल.....

गज़ल जरा डूब कर सुनना तो सुनाई देगी इसी कोलाज़ की झंकार धड़कन धड़कन:

 

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भले हों दूरियाँ कितनी कभी घर छोड़ मत देना

हैं जो ये खून के रिश्ते , उन्हें तुम तोड़ मत देना

 

उसी घर के ही आँगन में बसी है याद बचपन की

खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना

 

गमकती खुशबू कमरे में उतरती है झरोखे से

वो डाली मोंगरे वाली कभी तुम तोड़ मत देना

 

बरसती खुशियाँ तुम पर हों रहो हर हाल में हँसते

मिले कोई दुख का मारा तो नज़र को मोड़ मत देना

 

पड़ी है नीचे सीढ़ी के पिता की वो छड़ी अब भी

सहारा उनकी यादों का कहीं तुम तोड़ मत देना

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मई 29, 2012

एक समय जो गुजर जाने को है

एक बार फिर- तीन कविताओं के साथ प्रस्तुत. शायद जल्द नियमित हो जाऊँ इस उम्मीद के साथ. एक नये उपक्रम को अंजाम देने की चाहत में कुछ पुरानी नियमित दिनचर्या से दूर:

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-१-

कह तो गये...

उत्तेजना में आकर

युवा मन के भाव जताने...

धूप

कोई आईना नहीं..

बस अंधकार को मिटा

राह देखने का साधन...

तो फिर..

मिट्टी के कसोरे में

भरो कडुवा तेल..

बना लो रुई की बाती

रगड़ कर हथेलियों में..

और सुलगा उसे

चकमक पत्थर को घिस...

पुकार लेना...

सूरज!!!

कहो!!

पुकार सकोगे यूँ??

नहीं न!!

तभी तो कहता हूँ मैं...

गाँधी को समझ पाने के लिए

एक उम्र चाहिये!!

युवा उत्तेजना से

अनर्गल प्रलाप के सिवाय

क्या पा जाऊँगा मैं इस बाबत!!

-२-

एक चश्मा

उन वादियों के बीच

उतरता है सोच में..

मानिंद

चश्मा

तेरी आँखों की

नम गहराई में..

चौंधियाता है

इन आँखों को..

गर न पहनूँ...

वो चश्मा...

जो खरीदा था तुमने..

मेरे वास्ते..

 

-३-

कि सोचता हू मैं.. कहानी पढ़ूँ... 
कुछ जाम गले से उतारुँ..और
फिर एक कहानी गढ़ूँ...
कि गीत सुन लूँ कोई...
कि गीत गुन लूँ कोई..
और ओढ़ लूँ एक नई शक्शियत..
बदल जाऊँ इन उपकरणों की दुनिया में..
बन एक नया उपकरण...
अचम्भित कर दूँ तुम्हें!!!
बात- एक जाम की...
बात- तेरे नाम की...

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

सेन फ्रेन्सिसको से कविता...

एक सप्ताह गुजर चुका है सेन फ्रेन्सिसको आये. एक सप्ताह होटल में और रहना है फिर एक किराये का अपार्टमेन्ट ले लिया है, उसमें शिफ्ट हो जायेंगे. नजदीक ही है. ३० मिनट लगेंगे दफ्तर पहुँचने में. यूँ कर शायद ६ माह गुजारना हो यहाँ कि कौन जाने- शायद और ज्यादा. एक साल-हम्म!! जितना किस्मत में यहाँ रहना बदा होगा- रहेंगे. टोरंटो तो लौटना है ही. घर मकान वहीं है. सो तो भारत में भी है- तो वाया टोरेंटो- उम्र के पड़ाव निर्धारित करेंगे यह सब कि कब और कहाँ.
फिलहाल इस एतिहासिक शहर सेन फ्रेन्सिसको से लिखी और फेस बुक पर इस बीच मेरे द्वारा चढ़ा दी गई कुछ पंक्तियाँ – चाहें तो ३ कवितायें कह लें...अभिव्यक्ति...अनुभूति...विचार...भाव!!! आपकी इच्छा- हम तो छाप ही रहे हैं.
आगे कभी आपको इस शहर की गलियाँ, सड़कें और तापमान के साथ इसका चेहरा और व्यवहार पढ़वायेंगे. फिलहाल तो यह पढ़ें:
gcBridge
--१—
वो पूछता है मुझसे
मिरा हाल और के
मैं हूँ कहाँ- इन दिनों
इस रोज!!
क्या कह पाता –
सो लिखा.. मौन
क्या हाल किसी दीवाने का
और क्या पता किसी बंजारे का...
जो कि समझ सको - तुम हे ज्ञानी
हम रमता जोगी औ’ बहता पानी!!

--२—
वो तोड़ती पत्थर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर
वो तोड़ती पत्थर...
दो बूँद पसीना....
सुखा पाने की कोशिश
घूप दिखा ..
ज्यूँ सूखता हो चद्दर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर
ज्यूँ सूखता हो चद्दर...
बदल गये युग......
मात्र कुछ पलों में...
निराला गुजरे..
हुए छिन्न तार...
लुटी इस्मत...
वो पहने था खद्दर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर....
वो पहने था खद्दर...

(आदरणीय निराला जी की रचना से प्रेरित और उनको नमन करते हुए आभारी)
(गुरुदेव राकेश खण्डेलवाल का सुझाव अमल करते हुए निराला जी से क्षमायाचना की जगह उपरोक्त कथन)

--३--
हूँ......न!!
क्या?
एक नई कविता..
वाह!!
खुद बुनी??
हूँ..सहारा उन बिम्बों का...
जो “न” कहे गये हैं
इस्तेमाल को समाज में...
समाज...अपरिभाषित...
हमेशा की तरह...
एक उहापोह..कोई जबाब...
फिर भी...हूँ..
ह्म्म!!.............लोग वाह कहते हैं..
लोग उफन भी जाते हैं...ह्म्म!!
फायदा कहीं...वाह! आह!
जो हासिल इक मंजिल
मात्र ऐसे कि कोई कहे...
वाह!! आह!!
एक नई कविता..
एक उलझी कविता..
एक अनसुलझी कविता..
ताकतवर,,,,बोल्ड अंग्रेजी में..
बोल्ड...या क्लीन बोल्ड हिन्दी में...
भाषा का तमाशा!!
एक नई कविता..
नई या पुरानी..
हू केयर्स!!
डैम!!!
-समीर लाल ’समीर’
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सोमवार, अप्रैल 02, 2012

शान्ताराम-एक नज़र!!

फरवरी १४, तब मैने लिखा था कि शायद १७०० पन्नों की ई बुक शान्ताराम की शुरुवात ही है- वाकई ९८८ पन्नों की पुस्तक- परन्तु ईबुक में पन्ने बढ़ जाते हैं. आज १ अप्रेल- खत्म हुई पुस्तक. मानो एक युग का अन्त हुआ. यह ४५ दिन- सुबह शाम ४५-४५ मिनट इस पुस्तक का अध्ययन चलता रहा- सप्ताहंत छोड़ कर. बस और ट्रेन में-ऑफिस जाते और आते वक्त. आस पास का कुछ ध्यान न रहता. बस, पुस्तक में मन रचा बसा रहता. लेखन की महारत ऐसी, कि लगे पुस्तक के साथ उसी जगह खड़े हैं, जहाँ घटना घट रही है. कभी कहानी में गोली चलती, तो इतनी जीवंत कि मैं कँधा किनारे कर लेता गोली से बचने के लिए. एक एक महक- एक एक दृष्य़ जीवंत- अंत तक.

कहानी का नायक लिनबाबा उर्फ शान्ताराम, उसका आस्ट्रेलिया से जेल तोड़कर भारत का सफर, प्रभाकर नामक एक भले टूरिस्ट गाईड बालक के साथ मुलाकात, मुम्बई में आजीविका के लिए गैरकानूनी कामों में जुड़ना, महाराष्ट्र में प्रभाकर के गांव की ६ माह की यात्रा, पुनः मुम्बई वापसी, दोस्तों की मण्डली, झोपड़पट्टी में जाकर रहना, वहाँ के गरीबों के लिए क्लिनिक चलाना, मुम्बई के गैंगस्टरों से जुड़ना, उनके साथ काम करना, आर्थर रोड़ जेल की यात्रा और यातना, कालरा नामक गर्लफ्रेण्ड का बनना, मैडेम जाहू के चुंगल से कालरा के कहने पर लीसा को वेश्यावृति से उबाराना, लीसा का दोस्त बन जाना और फिर फिल्मों में विदेशी एक्स्ट्रा स्पलाई करने में उसके साथ पार्टनरशीप, मुम्बई के माफिया डॉन का खास हो जाना, उसके साथ पासपोर्ट, करेन्सी का धन्धा, ड्रग्स में डूब जाना और फिर उबरना, अफगानिस्तान में पाकिस्तान के रास्ते मुजाहिद्दुन लड़ाकों को मुम्बई माफिया डॉन के साथ अस्त्र शस्त्र पहुँचाना, दोस्तों के मर्डर और मौतें, खून खाराबा, लड़ाई झगड़े, दिल से जुड़ते बेनामी रिश्ते, कुछ रिश्तों को वो नाम देना जिनसे पहले किनारा कर आया, क्रिमन्लस की जिन्दगी के अनेक पहलूओं पर नजर डालती पुस्तक पूरे समय अपने साथ बाँधे रखती है. पुस्तक में रोमांच है, रोमान्स है, एक्शन, स्टंट, क्राईम से लेकर धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब कुछ है.

फिर भी न जाने क्यूँ-अंत तक पहुँचते हुए ऐसा लगता है कि युवाओं को जो जिन्दगी की लड़ाई की शुरुवात कर रहे हैं- उन्हें इस पुस्तक को नहीं पढ़ना चाहिये. मेरी यही व्यक्तिगत सोच है. शायद क्राईम की दुनिया का ग्लैमर किसी को भा ना जाये, यह डर लगता रहा पुस्तक खत्म करके.

अंत भी ऐसा होता कि किए की सजा भुगत रहा हो तो भी बेहतर होता किन्तु अंत एक खुला छूट गया है इतनी बड़ी पुस्तक होने के बाद भी. अंत बहुत जल्दबाजी में समेटा गया लगा- अन्यथा एक पुस्तक का उद्देश्य कि समाज को कुछ अच्छा संदेश देकर जाये, वो अवश्य पूरा किया जा सकता था.

फिर भी लेखनशैली, व्याख्या, एक एक संदर्भ पर बगैर कौतोही बरते विस्तार से विवरण तो सीख लेने लायक है. तो मिलीजुली प्रतिक्रिया यही है कि इसे एक लेखक की दृष्टि से लेखन की सीख लेने के लिए अवश्य पढ़ना चाहिये किन्तु पुनः वही भय- कहीं कोई युवा इसके प्रभाव में बहक न जाये.

Shantaram

पुस्तक पढ़ते पढ़ते-उसमें जाने अनजानों से बनते जुड़ते रिश्तों को अहसासते कुछ पंक्तियाँ यूँ भी उभरी:

काश!! कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!..

अजनबीपन..

परिचय की ओट में

सिर छुपाये बैठा

और

उस अजनबीपन की नदिया

जिन पर बनते हैं

रिश्तों के पुल

बिलकुल

नदिया पर बने

पत्थर के पुल की तरह ..

टूट भी जाये

वो पुल...

या

तने रहें दृढ संकल्पित...

नदिया बहती रहती है

अपनी धुन में...

कल कल- छल छल!!!

जैसे कोई भी रिश्ता

अविरल..

अविचल..

और निश्छल.....

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मार्च 27, 2012

सुना है तुम सभ्य हो..

हिन्दुस्तान की समस्या यह नहीं है कि हम क्या करते हैं? जो हम करते हैं वह मानव स्वभाव है, वो कोई समस्या नहीं.. सारी दुनिया वही करती है मगर समस्या यह है कि हम जो भी करते हैं अति में करते हैं. यही हमें औरों से अलग विशिष्ट पहचान देता है. विशिष्टता नामी और बदनामी दोनों की ही होती है.

ज्ञानी तो हर हिन्दुस्तानी होता ही है. हो न हो मगर मानता तो है ही. शायद ही कोई ऐसा हिन्दुस्तानी हो जिसे आप अपनी कैसी भी कठिन से कठिन समस्या या बीमारी बतायें और वो सलाह न दे. चाहे फ़िर आपको मात्र खरोच आई हो,या पेट दर्द हो,,केंसर हुआ हो, एडस हो जाये, हर हिन्दुस्तानी के पास हर मर्ज की देशी विदेशी दवा का नुस्खा जेब में हाजिर मिलेगा. करेले से लेकर लहसुन, अर्जुन की छाल से लेकर इसबगोल की भूसी तक, मंत्र से केले में भस्म भर कर पीलिया के ईलाज तक, आरंडी के बीज से लेकर सौंफ के पानी से गठिया वात के ईलाज की, बुखार में बिना वजह जाने क्रोसिन से कॉम्बीफ्लेम तक और तो और एन्टीबायोटिक भी बिना खून के जांच के और मिर्चे और नीबू शहद विनेगर के घोल से हार्ट ब्लॉकेड खोलने का तरीका तक बताने को लोग हर क्षण तैयार बैठे हैं.

पीलिया का ईलाज तो मंत्र से ऐसा करते हैं कि हाथ धुलवा कर परात भर पानी में पूरा पीला पानी उतार देते हैं. गले में कंठा पहना कर उसे नाभी तक चार दिन में पहुँचा देना तो हर पीलिया रोगी जानता है. गुप्त समस्याओं के चूरण और शिलाजीत की गोली देना तो लगता है कि भारतीयों के मौलिक अधिकार में से एक है.

आप समस्या बताने चलें और उसके पहले हर समस्या का उपाय और सलाह हाजिर. दिल्ली शिफ्ट होना हो,या फिर आपको विदेश जाना हो,जन्म मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाना हो या पासपोर्ट,. पान की दुकान पर अनजान सलाह देकर निकल जायेगा और आप सोचते रह जायेंगे कि यह बंदा कौन था. सब के सब देवीय शक्ति लिए घूमते हैं चप्प्पल फटकाते गली गली. उनकी सलाह पर चलता तो सचिन कब का सौ शतक लगा चुका होता. अन्ना भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेक चुके होते और भारत अमेरीका से ज्यादा विकसित राष्ट्र होता. मगर सलाह देते देते इतना अति कर गये कि लोगों ने उनकी सलाह ही सुनना बन्द कर दी. मगर वो सलाह देने से अब भी बाज नहीं आते.

कोई डॉक्टर का पता नहीं बताता और न ही डाईग्नोसिस सेंटर का. हड्डी में दर्द- पुत्तुर में जाकर अंडा मलवा लो. सांस भरती है, केरल जाकर जिन्दा मछली वाला ईलाज करा लो, केंसर है- हिसार वाले बाबा जी की रोटी खा लो...पगला गये हो मतलब गधे से कम तो होगे नहीं..फलाने खेत की घास चर लो....न सुधार दिखे तो लोकसभा का चुनाव लड़ लो...सारे साथी एक जगह तो ईक्कठे हो लोगे कम से कम..हद है सलाहकारी की.

कहीं तो रुको...हर व्यवसाय के गुर जानने वाले अलग अलग विशेषज्ञ है, उन्हें मौका तो दो. मगर मौका देते तब हो जब बाकी सलाहकारी से निपट कर आखिरी दिनों मे पहुँचते हो. कोई राह बच नहीं रहती. अब विशेषज्ञ कोई भगवान तो है नहीं कि हर बिगड़ी स्थिति ठीक ही कर दे. जब शुरुवात थी तब मित्रों का साथ निभाते रहे और अंत में कोसने को विशेषज्ञ बचा.

सलाहकारी के क्षेत्र में अति- ज्ञान उपजाने में अति.

भारत के इंजिनियर विश्व को अपनी सेवायें देकर लुभाने क्या लगे कि उनकी ऐसी खेती शुरु हुई कि पान की दुकानों से ज्यादा इंजिनियरिंग कालेज खुल गये. बेटा नालायक निकल जाये तो उसे पहले एल एल बी करवाते थे और अब इंजिनियरिंग. बात डिमांड एंड सप्लाई की है जी.

निख्खटू से निख्खटू बेटा बेटी आज जब कुछ नहीं कर पा रहे तो इंजिनियर बन जा रहे हैं. ऐसे में वकील कौन बनेगा...चलो, वो कोई और बन जायेगा तो ठेकेदार कौन बनेगा.चलो, वो भी कोई न कोई बन जाये तो नेता कौन बनेगा...फिर तो कोई बचेगा ही नहीं फिर साईकिल और हाथी चुनाव चिन्ह का क्या दोष. निकॄष्ट मे से निकॄष्ट्तम चुनना भी तो हम भारतीयों की ही पहचान है.

अति की सीमा देखनी हो तो टी वी पर भारतीय सिरियल की महिमा देखिये. जरा सी टी आर पी मिल भर जाये फिर तो मानो सिरियल ने अमरत्व प्राप्त कर लिया. उस सिरियल के हीरो हीरोईन वैसे के वैसे ही टमाटर बने रहेंगे और आप समय के साथ अपना सर धुनेंगे कि सिरियल देखते देखते बाल काले से सफेद हो गये, संख्या में भी आधे से अधिक विदा हो चुके और बच्चे स्कूल से कालेज में जा चुके मगर सिरियल है कि चले ही जा रहा है. ये तब तक नहीं मानते जब तक बढ़ी हुई टी आर पी घट कर शून्य न हो जाये. फिर वो चाहे प्रतिज्ञा हो या छोटी बहु...छोटी बहु कायदे से अब तक सास बन कर भी गुजर भी चुकी होती मगर अति की महिमा कि छोटी बहु अभी तक छोटी बहु ही है.

बुराई कितनी भी बुरी हो या चाहे गंधाती हो मगर हर बुराई में भी एक न एक अच्छाई तो होती ही है. कम से कम इसी बात का महत्व समझ कर ही पाकिस्तान से सिरियल समय पर खत्म करना सीख लें. अब उनके ही सिरियल ’धूप किनारे’ की हिन्दी कॉपी ’कुछ तो लोग कहेंगे’ को भी उसी राह पर ले चल पड़े हैं..देखना अति करके ही मानेंगे. अभी तो ऐसा ही लग रहा है.

वही हाल परिवारवाद का है राजनिति में-पांचवी पीढ़ी तैयार है जी हुजूरी करवाने को..तैयार क्या है-करवा ही रही है. छटवीं भी इस उ.प्र. विधानसभा में हल्की सी झलक दिखाई ही गई अपनी मम्मी के साथ मंच पर. कुछ अति तो इसमें भी है. इतनी विकल्पहीनता की दुहाई भी ठीक नहीं.

हम भारतीय जानते हैं दुर्गति की गति को धीमा करना..काश!! सीख पाते इसकी दिशा बदल कर बेहतरी के तरफ ले जाना.

होली आई. हर साल आती है. अब बधाई का सिलसिला ऐसा शुरु हुआ कि उसकी भी अति हो ली है इस होली पर. फेस बुक पर आये तो हर घंटे बधाई ही दिये जा रहे हैं. हर बार हमको टैग कर देते हैं. अब उस पर जो कमेंट आयें सारे हमारे ईमेल में. रंग तो एक बार नहा लो तो छूट जाये. छूटना ही होगा आखिर नकली रंग की भी तो अति है. मगर हम ईमेल साफ ही किये जा रहे हैं और टैग हैं कि खत्म ही नहीं हो रहे. मुबारकबाद में टैगिंग कैसी? वो तो हम यूँ भी ले लेंगे- अब टैग करके क्या साबित करना चाह रहे हो भाई.

एक सज्जन ने मुबारकबाद भेजी और सी सी में १२०० ईमेल एड्रेस...अब वे सारे जबाब देंगे और हम १२०० ईमेल की सफाई करने में जुटे नजर आयेंगे. मानो हमें होली खेलना ही नहीं है बस नगर निगम ने जमादार की नौकरी दी है कि चलो, ईमेल की सफाई करो.

बक्शो मित्र. माना तुम अच्छे कार्टून बना लेते हो, फोटोशॉप में काट छांट कर इसकी तस्वीर उसकी बना देते हो..तुकबंदी कर मुक्तक रच लेते हो, बधाई संदेश देने के नये आयाम गढ़ लेते हो मगर उन सब से उपर..यह टैगिंग क्यूँ करते हो? यह फेस बुक की सुविधा है या मेरी दुविधा.

ईमेल में सीसी के बाद ठीक नीचे बीसीसी भी है,,वो तुम्हारी मोतियाबिंदी आँखें क्यूँ नहीं देख पाती? कहीं तो तुम यह तो दिखाना नहीं चाह रहे कि तुम्हारी पहुँच कहाँ कहाँ तक है? पहुँच से होता क्या है? मात्र तिहाड़ में बेहतर सुविधा और अच्छी सैल. रहोगे तो तिहाड़ में ही और कहलाओगे तो अपराधी ही.

अति बन्द करो,प्लीज!!

दो चार करोड खा जाओ- वादा है कि कोई हिदुस्तानी जो जुबां भी खोले..हम आदी हैं मान कर चलते हैं कि इतनी तो बनती है. मगर अब २००० करोड़ खा जाओगे एक खेल आयोजन में और सोचो कि सब चुप रह जायेंगे हमेशा की तरह- तो यह तो तुम्हारी ही बेवकूफी कहलाई. इतनी अति भी कैसे बर्दाश्त करें?

कलमाड़ी न बनो, कनुमोजी भी न बनो, तेलगी का फेस बुक से क्या लेना देना, २ जी को राजनिति में रहने दो, ईमेल को इससे दूर रखो....यहाँ तो अति न करो वैसी.

वरना एक दिन फेसबुक पर भी एक अन्ना जन्म लेगा...ईमेल पर बाबा रामदेव रामलीला करेंगे सलवार सूट पहन कर...प्रशासन अपनी चाल चलेगा और फिर...तुम कहोगे कि यह ठीक नहीं हुआ...

ऐसी नौबत ही क्यूँ लाते हो...पहले ही संभल जाओ!!!

excessive

सुना है तुम सभ्य हो..

कभी शहर में रहे नहीं...

फिर यह विष कहाँ से पाया...

आश्चर्य में मत डालो मित्र..

मैं अज्ञेय नहीं हूँ...

हो तो तुम भी साँप नहीं!!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मार्च 20, 2012

बस!! यूँ ही एक गज़ल बन गई..

इधर व्यस्तता के दौर में समय समय पर आस पास देखते, अखबार पढ़ते, टीवी देखते तरह तरह के विचार आते गये और मैं उन्हें अलग अलग कागज पर लिखता रहा.

कभी घर के पिछली सर्दी में बर्फीले तूफान के दौरान पानी से हुए एक्सीडेन्ट के बाद का रीनोवेशन होते समय यहाँ के मकानों की लकड़ी की दीवारें देख और ऐसे मौके पर कुछ याद आते पुराने रिश्ते, कभी अनजानों के द्वारा अभिभूत करता अपनापन, कभी वेलेन्टाईन डे, मदर डे आदि पर होती चहल पहल देख, तो कभी भारत की खबरें- वहाँ का राष्ट्रव्यापि आन्दोलन, चुनाव, नेताओं की कूटनितियाँ, चालबाजी, तो इस बीच जापान में आये भूकम्प और सुनामी की तबाही का मंजर.

हर बार एक नया भाव, बस दर्ज करता चला गया और आज जब पलटाया उन कागज के पन्नों को तो लगा कि एक गज़ल बन गई जो मेरी हर बात, वो हर भाव जो इस दौरान उठे, कह रही है.

बस, मन किया कि आपसे साझा करुँ:

Tsunamis

पत्थर बिन दीवार बनाना, इन्सानों ने सीख लिया

पत्थर दिल इन्सान बनाना, भगवानों ने सीख लिया.

 

दूर हुए सब रिश्ते-नाते,दूर हुआ मिलना-जुलना

अपनों का किरदार निभाना बेगानों ने सीख लिया

 

प्रेम के इजहारों के दिन भी, त्यौहारों में बदले हैं

इनसे भी अब लाभ कमाना, बाज़ारों ने सीख लिया

 

कौन है हमको लूटने वाला काश कभी हम जान सकें

खादी में भी खुद को छुपाना मक्कारों ने सीख लिया

 

घड़ियाली आंसू बहते हैं, संसद के गलियारों में

ज्यूँ मछली से प्यार जताना, मछुआरों ने सीख लिया

 

एक नहीं लाखों मरते हैं, धरती के इक कंपन से

ढेरों कुनबे साथ जलाना, शमशानों ने सीख लिया

 

डोल गई दिल्ली की सत्ता, ऐसा मतिभ्रम खूब हुआ

जनता को ही मूर्ख बनाना, सरकारों ने सीख लिया.

-समीर लाल 'समीर'

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सोमवार, मार्च 12, 2012

अतिथि- तुम कब जाओगे..मात्र फिल्म नहीं, एक हकीकत!!

कहते हैं कि दर्द अपनों संग बांट लेने से कम हो जाता है, सो बांट ले रहे हैं वरना बांटने जैसा कुछ है नहीं.

कुछ माह पूर्व भारत से फोन आया था. उस तरफ से आवाज आई कि कैसे हैं भाई साहब..ठीक थे सो बता दिया कि ठीक हैं. उसने बताया कि वो भारत में मेरे पड़ोस वाले शर्मा जी का भतीजा है और कनाडा आ रहा है तीन चार दिन रह कर चला जायेगा फिर चार महिने बाद परिवार को लेकर आयेगा. कोई आश्चर्य नहीं हुआ. अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं. फिर शर्मा जी तो पुराने मित्र ठहरे हमारे तो औपचारिकतावश हमने इनसे कह दिया कि अब तीन चार दिन के लिए कहाँ भटकोगे. घर पर ही रुक जाओ. उसने भी उतनी ही औपचारिकतावश थोड़ा सकुचाते हुए बात मान ली. कहता था कि आपकी बात नहीं मानूँगा तो चाचा जी गुस्सा हो जायेंगे. सिर्फ आपको ही जानता हूँ कनाडा में.

फिर अन्य बातों के बाद उसने कहा कि आपके घर तक आऊँगा कैसे? उनके कनाडा पहुँचने का दिन रविवार था तो हमने कह दिया कि एयरपोर्ट पर हम आ जायेंगे आपको लेने. बहुत खुश हो गया वह, उसकी बाँछे खिल गई. यूँ भी ऐसे न जाने कितने ऐसे मेहमानों को एयरपोर्ट से ला चुका हूँ जिनसे पहली बार एयरपोर्ट पर ही मिला हूँ...अब उसकी बारी थी- पूछने लगा कि आपके लिए कुछ लाना है क्या भाई साहब या भाभी से पूछ लिजिये, उनके लिए कुछ लाना हो तो. अब क्या कहते- कह दिया कि नहीं, कुछ विशेष तो नहीं चाहिये. सोचा कि दिल्ली से डोडा मिठाई और ड्यूटी फ्री से बॉटल तो खुद ही लोग समझ कर ले आते हैं, उससे ज्यादा क्या बोलना. हमेशा ही तो गेस्ट आते हैं. कभी बोलना कहाँ पड़ता, अपने आप ही लेते आते हैं बेचारे....सो फोन बन्द और हमारा इन्तजार शुरु रविवार का.

ईमेल से उसने फोटो और अपनी फ्लाईट वगैरह बता दी थी, तो रविवार को उसे एयरपोर्ट पर देखते ही पहचान गये.एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही साकेत (यही नाम है उसका) ठंड से कांपने लगा. मैने उससे कहा कि गर्म जैकेट निकाल लो अपने सामान से. ठंड बहुत है.

वो कहने लगा कि दिल्ली में तो बहुत गर्मी थी और यहाँ इतनी ठंड का अंदाजा नहीं था.. तो गरम कपड़े लाया ही नहीं है. खैर, कार में हीटिंग तेज कर दी. सोचा कि कल उसे बाजार लेते जायेंगे तो खरीद लेगा.

घर पहुँचते ही उसने भाभी जी को पैर छूकर और सुन्दर बता कर प्रसन्न कर दिया. बातूनी ऐसा कि पूछो मत!! लगातार बात करता जाये. एक बार जो शुरु हुआ तो बन्द होने का नाम ही नहीं ले रहा था..तुरंत घुलमिल गया. भाभी जी मैं प्याज काट देता हूँ. मैं चिकन बना देता हूँ और न जाने क्या क्या..प्याज तो क्या कटवाते मगर उस चक्कर में चिकन तुरंत बनाना पड़ा क्यूँकि पत्नी ने तो शर्मा जी सुनकर शाकाहारी भोजन बनाया था.

उनको कमरा दिखा दिया गया. बाथरुम दिखा दिया. नहाने घुसा तो पूरे एक घंटे नहाता रहा और जब वो निकला तो मुझे लगा कि शैम्पू और बॉडी वाश से मानो नहाया न हो, पी गया हो. एकदम नई नई बोतलों में आधे से भी ज्यादा समाप्त. मेहमानों के बाथरुम में वैसे भी नया ही रखा जाता है. शैविंग क्रीम भी बंदे ने तबीयत से लगाई और ऑफ्टर शेव से तो जैसे डुबकी लगा कर निकला हो. पूरा बाथरुम गमक रहा था. खुद से मेरे ड्रेसिंग रुम में आकर परफ्यूम लगा लिया वो भी वो वाला जो मैं खुद भी कभी कभार पार्टी आदि में जाने के लिए इस्तेमाल करता हूँ.

फिर टहलते हुए पहुँच गया मेरे बार तक. अरे वाह, आप तो बहुत शौकीन हैं भाई साहब. कौन कौन सी रखे हैं? और बस, ब्लैक लेबल की बोतल उठाकर प्रसन्नता से गिलास बनाने लगा. मुझसे भी पूछा कि आपके लिए भी बनाऊँ? बनाना तो था ही हाँ कर दी. फ्रिज से बरफ, सोडा निकाल कर शुरु हो गये.

यहाँ वैसे भी ड्रिंक्स के साथ ज्यादा स्नैकिंग की आदत नहीं होती मगर अब वो- भाभी जी, जरा दो चार अंडे की भुर्जी बना दिजिये तो मजा ही आ जाये. क्या बढ़िया खाना महक रहा है. इतनी खुशबू से ही पता लग रहा है कि आप बहुत अच्छा खाना बनाती है और फिर भाई साहब की काया तो खुद गवाही दे रही है कि आप कितना लजीज बनाती होंगी. ये लो, बात बात में हमें मोटा भी बोल गया.

उधर उनकी भाभी जी अपनी तारीफ सुनकर भरपूर प्रसन्न. कौन महिला न होगी भला. खूब रच कर अंडे की भुजिया बनी. तब तक उन्हें ड्रिंक्स के साथ भारत में पकोड़े खाते थे, भी याद आ गया सो वो भी मांग बैठे. प्याज, मिरची, पालक के पत्ते की भजिया तली गई.

शाम ७ बजे से पीना शुरु किया तो रात ग्यारह बज गये. हम तो दो से ज्यादा पी नहीं पाते मगर वो मोर्चा संभाले रहे जब तक की बोतल में बस हमारे अगले दिन के लिए दो ही पैग न बचे रह गये.

तब खाना खाया गया. तारीफ कर करके भरपूर खाया. पत्नी ने भी तारीफ सुन सुन कर घी लगा लगा कर गरम गरम रोटियाँ खिलाईं. तब वो सोने चले.

अगले दिन की मैने छुट्टी ली हुई थी. जब तक मैं सो कर उठा वो ठंड में ही बाहर टहलने निकल गया था. मैने सोचा कि इतनी ठंड में कैसे निकल पाया होगा बेचारा मगर वो लौटा तो मेरा ब्रेण्ड न्यू, खास पार्टियों के लिए खरीदा स्पेशल जैकेट पहने था. साथ में ही मेरी गरम टोपी, और दस्ताने भी पहने हुए थे. आते ही पूछा भाभी, कैसा लग रहा हूँ? भाई साहब मोटे दिखते जरुर हैं मगर उनका जैकेट देखिये मुझे कितना फिट आया है. खुद को मोटा तो वो कहने से रहा.

फिर नाश्ता- भाभी जी, बस, अंडा पराठे बना दो तो मजा आ जाये. साथ में दूध कार्नफ्लेक्स. फिर मैने उससे पूछा कि बाजार चलें. कुछ तुमको खरीदना हो तो खरीद लो. मुझे लग रहा था कि जैकेट परफ्यूम वगैरह तो खरीदना होगा ही उसे. मगर वो कहाँ जाने वाले. कहने लगा कि अब दो दिन को तो हैं मात्र. क्या खरीदें, क्या बेचें. यूँ भी यहाँ सब इतना मंहगा होता है कि हम यहाँ खरीदने लगे तो दीवाला ही निकल जायेगा.

रात देर हो गई थी तो उम्मीद थी सुबह बैग वगैरह खोलेगा- तब मिठाई ड्रिंक वगैरह निकालेगा. मगर सुबह क्या दिन भर खाते, हमारे साथ जगह जगह घूमते शाम हो गई, कहीं कॉफी पी गई तो कहीं बर्गर तो कभी आईसक्रीम मगर उनका पर्स नहीं निकला- उस पर से तुर्रा यह कि कितना मँहगा है, हम तो बर्बाद हुए जा रहे हैं. दुनिया में दाम खर्चने की बजाय मात्र सुनकर बर्बाद होते उस पहले शक्स को देखा - सब जस का तस. उस पर से तारीफ भी करते जाये कि आप लोगों ने भारत की संस्कृति को बचा कर रखा है यहाँ भी. मेहमान को तो पे ही नहीं करने देते. अरे, करोगे, जब न करने देंगे कि छीन कर पे कर दें??

रात वोडका की बोतल उठा ली कि रोज स्कॉच पीना ठीक नहीं. आज वोदका पीते हैं. मैने तो वो ही बची स्कॉच के दो पैग किनारे कर लिए. और इन्होंने पुनः पूरी श्रृद्धा और लगन से बोतल खत्म करते हुए दो पैग हमारे लिए छोड़ दिये. कभी हरी मटर तल कर तो कभी कोफ्ता तो कभी मटन कबाब- जैसे कि मेनु घर से बनाकर निकला हो- डिमांड और तारीफ कर कर बनवाता रहा और छक कर खाता रहा.

अगले दिन मेरे बाथरुम से आकर शैम्पू भी ले गया कि वहाँ खत्म हो गया है.

चार दिन चार महिने से गुजरे. चौथे दिन मन तो किया कि बस से एयरपोर्ट भेज दूँ मगर जैकेट मेरी पहने था. सोचा कि एयरपोर्ट में घुसने के बाद तो जरुरत रहेगी नहीं तो लौटा देगा वरना गई जैकेट हाथ से. चलते चलते मफलर भी लपेट लिया जो पत्नी ने शादी की सालगिरह पर मुझे दिया था. दस्ताने और टोपी तो खैर पहने ही था मेरी वाली. पत्नी उसके लिए गिफ्ट खरीद लाई थी. उसे भी कार में रख हम दोनों चल पड़े उसे छोड़ने.

एयरपोर्ट पर सामान चैक इन कराया. चरण स्पर्श - वंदन और ये चले साकेत शर्मा जी. हमें ठगे से उनको जाते देखते रहे और दूर तक नजर आती रही मेरी वो प्यारी जैकेट. छोड़ कर लौटने लगे तो देखा कि गिफ्ट तो पत्नी ने उसे दिया ही नहीं. हाथ में ही पैकेट थामी थी.

मैने पूछा तो बता रही थी कि सोचा था कि अगर जैकेट और मफलर वापस दे जायेगा तो ही दूँगी. मैं भी उसकी होशियारी पर प्रसन्नता जाहिर करने के सिवाय क्या करता. कुछ तो बचा. मुझे मालूम है जब भारत जाऊँगा-तब भी उसका पर्स जब्त ही रहेगा कि भाई साहब, अब आपके डालर के सामने हम क्या निकालें. यूँ भी आप बाहर से आये हैं, हमें पे थोड़े न करने देंगे.

विदेश में रहने वालों के लिए यह मंजर बहुत आम है- यहाँ वो आयें तो अतिथि और हम वहाँ जायें तो डॉलर कमाने वाले!! दोनों तरफ से लूजर और यूँ भी अपनी जमीन से तो लूजर हैं ही!!!

बस, घर लौट कर कुछ यूँ अपने आप रच गया:

nashta

मैं उस पर ज़रा क्या मेहरबान हो गया

अपने ही घर में खुद का, मेहमान हो गया

वो झूम झूम कर नहाया ऐसे सुबह सवेरे

कतरे भर पानी के लिए मैं परेशाँ हो गया.

अंडे की भुर्जी खाने की जिद थी नाश्ते में

डायटिंग का फैसला मेरा यों कुरबान हो गया

खाने की प्लेट देखिये, सदियों की भूख हो

देखा जो ये नजारा, तो मैं हैरान हो गया

वो जब चला तो सूट भी मेरा पहन चला

खातिरदारी में ’समीर’ आज नीलाम हो गया..

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, मार्च 02, 2012

६ साल पूरे हुए और हम जहाँ के तहाँ: मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

जब ३ मार्च २००६ को अपना ब्लॉग शुरु किया था तो बताया गया था कि बस एक साल की मेहनत और फिर इससे कमाई शुरु हो जायेगी. बड़े मन से जुटे. फिर साल दर साल बीतते गये. हर साल यही उम्मीद कहीं न कहीं बँधाई गई कि अगले साल से ...कमाई शुरु.

आज ६ साल बीत गये. मगर लोगों की बात सुन आज भी आशांवित हूँ कि बस, अगले साल से कमाई शुरु होने वाली है और फिर नौकरी छोड़ो और बस, दिन भर ब्लॉगिंग...जितना करोगे, उतना मजा...उतनी कमाई...क्या बात है!!

आज हो गये हैं ६ साल पूरे इस ब्लॉग का नशा लगे. समय के पंख दिखते नहीं मगर इस तरह अहसास तो करा ही देते है. फोटो वही पुराना लगाया हुआ है ६ साल पहले का. यही विडंबना है अधेड़ावस्था की कि जवानी का जाना मानो स्वीकार ही न हो...कई बार सोचता हूँ कि इससे बेहतर तो राजनिति मे उतर जाऊँ...वहाँ स्वीकार्य है चिर युवा रहना....आडवानी जी जैसे युवा अब भी प्रधान मंत्री बनने का स्वपन पाले लगे ही हैं रथ यात्रा निकालने में तो हमारी स्थिति तो थोड़ी बेहतर ही कहलायेगी.

खैर यह सब छोड़ें..६ साल के ब्लॉगर की कविता पढ़े...बधाई दें, मुस्करायें या जो मन आये सो करें मगर शुभकामनाएँ तो दे ही जायें:

कभी मन में था कि साहित्यकार कहलाऊँ ब्लॉग लिख लिख कर...हा हा...ब्लॉग और साहित्य...कितने न मुस्करा देंगे..अनभिज्ञ एवं बेवकूफ...मगर मैं चुप रहूँगा...क्यूँ कुछ कह कर अपने संबंध खराब करुँ....अब मन नहीं हैं साहित्यकार कहलाने का...मगर मन पर तो लोभ ने कब्जा जमाया हुआ है..उसका क्या करुँ...इस कविता में दृष्य देखें तो शायद आपका मन भी बदले:

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मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

बूँद एक चली

छोड़ बादल को

प्रसन्न मन

मिलेगी नीचे धरा पर

एक तत्काल बनी नाली में

जहाँ तेरती होंगी

नन्ही नन्ही किश्तियाँ

कागज़ की

वहीं

बनायेगी साथी बून्दों को

दोस्त अपना...

खेलेगी, गुनगुनायेगी

उमंगों में डूब

उन के साथ

गली में अक्स्मात बनी

एक नाली खुश हुई

आकर मिलेंगीं और बून्दें

तो वह मिल सकेगी

शहर भर की नालियों के संग..

पूछेगी हाल सारे शहर का...

गपियायेगी..खिलखिलायेगी और

मिलेंगी

इक नदिया में जाकर

नदी खुश थी

उमड़ती हुई धाराओं से मिल

जा सकेगी वह

उस गहरे सागर तक

जहाँ आती हैं सब नदियाँ उसकी तरह

बाँटेगी उनकी खुशियाँ..

हँस लेगी उनके साथ..

रहेगी खुश...

और सागर...

समाहित कर सबको अपने भीतर

शांत और गंभीर.....

फिर एक दिन एक हिस्सा

बन जाता वाष्प...

सूर्य की उष्मा से...

और उठ जा मिलती

उष्मा से बनी वाष्पकिरणें...बूँदें...

पुनः उन्हीं बादलोंमें...

जीवन के

अनवरत गतिक्रम सी

एकाएक एक बूँद रो उठती है

इस बार विदा होते...

कहीं मैं नाली की जगह

सीप में न समा जाऊँ...

मैं मोती बनना नहीं चाहती...

माना मोती कीमती होता है पर

मुझे...हाँ.....मुझे

फिर वापस आना है

अपनों से मिलने

और बनाये रखनी है

अपने होने की अस्मिता

आज फिर एक बार

आँख नम है मेरी...

मुझे वापस आना है...

अपनों में मिल जाना है!!!!

-मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, फ़रवरी 26, 2012

जागा हूँ फक्त चैन से सोने के लिए

आज शनिवार की रात है तारीख: फरवरी २५, सन २०१२.

अच्छी नींद लेना मूल अधिकारों में से एक- सुप्रीम कोर्ट

 

यही खबर थी जो आजतक के आज के ट्रिकर पर चल रही थी. तुरंत ही आज के इन्टरनेट पर भी देखी यही खबर. देख-सुन कर लगा कि मानो हनुमान जी को समुन्दर की किनारे खड़ा करके याद दिलाया जा रहा हो कि तुम उड़ सकते हो. उड़ो मित्र, उड़ो.

बहुत अच्छा किया जो आज सुप्रीम कोर्ट ने बतला दिया वरना हम तो अपने और बहुत से अधिकारों की तरह इसे भी भुला बैठे थे. अच्छी नींद- यह क्या होता है? हम जानते ही नहीं थे.

गरमी की उमस भरी रात- और रात भर बिजली गुम और पास के बजबजाते नाले में जन्में नुकीले डंक वाले मच्छरों का आतंकी हमला. ओह!! मेरे मूल अधिकार पर हमला. केस दर्ज करना ही पड़ेगा. ऐसे कैसे भला एक मच्छर मेरे मूल अधिकारों का हनन कर सकता है, कैसे बिजली विभाग इसका हनन कर सकता है. गरमी की इतनी जुर्रत कि सुप्रीम कोर्ट से प्राप्त मेरे मूल अधिकार पर हमला करे.

अब भुगतेंगे यह सब. रिपोर्ट लिखाये बिना तो मैं मानूँगा नहीं. जेल की चक्की पीसेंगे यह तीनों, तब अक्ल ठिकाने आयेगी. पचास बार सोचेंगी इनकी पुश्तें भी मेरी नींद खराब करने के पहले.

वैसे मूल अधिकार तो और भी कई सारे लगते हैं जैसे खुल कर अपने विचार रखना (चाहे फेसबुक पर ही क्यूँ न हो), बिना भय के घूमना, शांति से रहना, स्वच्छ हवा में सांस लेना, शुद्ध खाद्य सामग्री प्राप्त करना, अपनी योग्यता के आधार पर मेरिट से नौकरी प्राप्त करना आदि मगर ये सब अभी पेंडिंग भी रख दूँ तो भी अच्छी नींद लेने को तो सुपर मान्यता मिल गई है. इसके लिए तो अब मैं जाग गया हूँ. सोच लेना कि मेरी नींद डिस्टर्ब हुई तो मैं जागा हूँ. फट से शिकायत दर्ज करुँगा. जेल भिजवाये बिना मानूँगा नहीं. पता नहीं पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना मूल अधिकार है कि नहीं? खैर, वो तो मैं चैक कर लूँगा वरना ले देकर तो दर्ज तो हो ही जायेगी रिपोर्ट.

और सबकी भी लिस्ट बना रहा हूँ- सबकी शिकायत लगाऊँगा.

नगर निगम सुबह ५ से ५:३० बजे तक बस पानी देते हो, मेरी नींद खराब करते हो. संभल जाओ, बक्शने वाला नहीं हूँ अब मैं तुम्हें.

और आयकर वालों- कितना टेंशन देते हो यार. जरा सा कमाया नहीं कि बस तुम सपने में आकर नींद तोड़ देते हो. तुमसे तो मैं बहुत समय से नाराज हूँ- तुम तो बचोगे नहीं अब. बस, अब गिनती के दिन बचे हैं तुम्हारे. सुन रहे हो- अब मैं आ रहा हूँ. तुम तो भला क्या आओगे अब- मैं ही आ जाता हूँ.

और हाँ, तुम- बहुत बड़े स्कूल के प्रिंसपल बनते हो. मेरे बच्चे के एडमीशन को अटका दिया मेरा टेस्ट लेकर. मेरी बेईज्जती करवाई मेरी ही बीबी, बच्चों की नजर में- कितनी रात करवट बदलते गुजरी. नोट हैं मेरे पास सारी तारीखें. अब जागो तुम-जेल में. बस, तैयारी में जुट जाओ जेल जाने की.

बाकी लोग भी संभल जाओ- जरा भी मेरी नींद में विध्न पड़ा और बस समझ लेना कि बचोगे नहीं.

बहुतेरे हैं मेरी नजर की रडार पर. एक वो नालायक चौकीदार- जिसे मैने ही रखा है कि इत्मिनान से सो पाऊँ. वो रात भर सीटी बजा बजा कर चिल्लाता घुमता है- जागते रहो, जागते रहो. अरे, अगर हमें जागते ही रहना होता तो क्या मुझे पागल कुत्ता काटे है जो तुम्हें पगार दे रहा हूँ. तुम कोई मंत्री या धर्म गुरु तो हो नहीं कि बेवजह तुमको चढ़ावा चढ़ायें और अपने मूल अधिकार वाले अधिकार प्राप्त कर प्रसन्न हो लें. चौकीदार हो चौकीदार की तरह रहो- यह अधिकार मूल अधिकारों से उपर सिर्फ मंत्रियों और धर्म गुरुओं को प्राप्त है.

आज कुछ संविधान की पुस्तकें निकालता हूँ. सारे मूल अधिकारों की लिस्ट बनाता हूँ. फिर देखो कैसी बारह बजाता हूँ सब की.

अब मैं पूरी तरह से जाग गया हूँ इत्मिनान से सोने के लिए.

आज जागा हूँ मैं, फक्त चैन से सोने के लिए

कुछ अधिकार मिले हैं फिर उन्हें खोने के लिए.

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, फ़रवरी 21, 2012

साहित्य में संतई की राह...

मेरे मनोभावों का अनवरत अथक प्रवाह बना रहता है. और फ़िर शुरू हो जाती है एक खोज - एक प्रयास - उन्हें बेहतरीन शब्दों का जामा पहनाने की. उन्हें कुछ इस तरह कागज पर उतार देने की चाहत कि पढ़ने वाला हर पाठक खो जाये उसमें- डूब जाये उसमें.

शब्दों की तलाश में एक भटकन, शुद्ध व्याकरण देने की एक चाह और कुछ ऐसा गढ़ जाने की उत्कंठा कि मानो एक ऐसा कुछ लिख और रच जाये, जिसे लोग उत्कृष्ट साहित्य का दर्जा दें.

अंतहीन तलाश-शत-प्रतिशत दे देने की चाह में एक अजीब सी एक कसमसाहट और उठा लेता हूँ एक बीड़ा कि कुछ और पढ़ूँ- कुछ नया पढ़ूँ तो शायद राह मिले.

इसी मशक्कत में कुछ आलेखों से गुजरता हूँ, कुछ गज़लें पढ़ता हूँ, कुछ कवितायें गुनगुनाते हुए बाँचता हूँ, कुछ कहानियों में डूब जाता हूँ और पाता हूँ- अरे, ऐसा ही तो कुछ मैं कहना चाहता था, जिनके लिए मुझे शब्दों की तलाश थी. वही सब तो है यह. शायद मेरी सोच ही विचार तरंगों में बदल हवा में बह निकली होगी और न जाने कितनों ने उसे पकड़ा होगा. कुछ उसे शब्द रुप दे गये और मैं- भटकता रहा उस शत प्रतिशत उम्दा दे जाने की मृगतृष्णा को गले लगाये.

इस दौर में समझ पाया कि जरुरत है कह जाने की. जरुरत है पढ़ जाने की. जरुरत है अपने शब्द कोष को इतना समृद्ध बनाने की कि भटकन सीमित हो. कुछ बेहतर रचा जा सके. कोई जरुरी नहीं कि दुनिया की नजरों में शत प्रतिशत हो. मेरी अपनी नजरों में अपनी काबिलियत के अनुसार जरुर शत प्रतिशत खरा उतरे. कम से कम अपनी काबिलियत का इस्तेमाल करने में काहिलियत को कोई स्थान न दूँ. आलस्य को अपने आस पास न फटकने दूँ.

शब्द कोष भी नित समृद्ध होता जाये ऐसा प्रयास करुँ- यह कोई वस्तु तो है नहीं कि एक दिन में क्रय कर खजाना भर जाए... प्रयास, पठन, कुछ नया सीख लेने की ललक इस दौलत को शनैः शनैः जमा करने की कुँजी है. फिर जितना उपयोग करुँगा, उतना ही समृद्ध होती चलेगी यह दौलत और उतना ही भरता जायेगा यह खजाना.

शायद यही इस खजाने को अर्थ (रुपये-पैसे) से अलग भलाई और मानवता के समकक्ष लाकर खड़ा करता है. जानना होगा मुझे. उठानी होगी पुनः अपनी कलम. थामनी ही होगी कुछ नई पुस्तकें पठन हेतु और नित नया कुछ जोड़ना होगा इस खजाने में. सिर्फ जोड़ देना ही काफी न होकर उसे जाहिर भी करते रहना होगा अपने लेखन के माध्यम से. फिर वो कथा हो, कहानी हो, गज़ल हो या काव्य. विधा कोई सी भी हो, होती तो भावों की अभिव्यक्ति ही.

ऐसा नहीं कि मेरे पास शब्द न थे मगर बेहतर शब्दों की तलाश में भटकता रहा और लोग रचते चले गये. मेरे भाव किसी और की कलम से शब्द पा गये. मेरे विचार, मेरे भाव मेरे न होकर उस कलमकार के हो गये, जो उन्हें शब्द दे गया. वही मौलिक रचयिता कहलायेगा. भाव किसी की जागीर नहीं. एक से भाव एक ही समय में कई दिलों में उगते है. अब कौन उसे उकेर दे- कौन उन्हें अमल में ले आये- बस, उसी की कीमत है. और फिर एक से ही भाव जब अलग अलग तरफ, अलग अलग दिलों में एक साथ उठते और शब्द पाते हैं तब भी जुदा शैलियाँ उन्हें जुदा रखने में सफल रहती है. उनकी मौलिकता बनाये रखती हैं.

मैं डरता हूँ शायद अपनी काबिलियत पर मुझे भरोसा नहीं- ठीक उन्हीं साधु सन्तों सा जो जिन्दगी क्या है-इसकी तलाश में जिन्दगी को सही तरीके से जीने को छोड़- उससे जूझने की कला को तिलांजली दे जंगल जंगल भटकते हैं इस प्रश्न की तलाश में- जिन्दगी क्या है? ये आत्म हत्या जैसा ही प्रयास है- डर कर भाग जाने का. इस बीच न जाने कितनी जिन्दगियाँ अपनी अपनी तरह जिन्दगी जी कर गुजर जाती हैं. शायद पुनर्जन्म में विश्वास करें तो पुनः जीने चली आती हैं और उन साधु सन्तों की भटकन जारी रहती है- एक उथली सी समझाईश भी देने को तत्पर कि जिन्दगी क्या है? कैसे उचित जीवन जिएँ? क्या वो उचित जीवन जी पाये या अंततः वो भी उसी मोह माया के चुँगल में आ जकड़े.

बस रुप बदला- बन गये सन्त बनिस्बत कि एक आम जिन्दगी से जूझता आदमी. क्या अन्तर रह गया उनमें और एक भ्रष्ट्राचारी नेता, एक व्यापारी, और जाने कितने ऐसे आश्रमों में-एक निकृष्ट व्याभिचारी में.

साहित्य के क्षेत्र में भी जाने कितने ही ऐसे सन्त हैं जो अपना अपना मठ खोले बैठे हैं. उनके भीतर के लेखक को तो जाने कब का मार दिया है उन्होंने खुद ही. अब मात्र प्रवचन बच रहा है कि ऐसा लिखा जा रहा है, वैसा लिखा जा रहा है. साहित्य का स्तर गिरता जा रहा है आदि आदि. सन्त का दर्जा जो न बुलवा दे सो कम. बस, लिखना त्याग दिया है कि कोई उनका आंकलन न कर डाले.

ऐसे सन्त तो कायर कहलाये, एक भयभीत व्यक्तित्व, एक भगोड़ा.

नहीं, मैं ऐसा सन्त होना नहीं चाहता. मेरे भीतर का लेखक आत्म हत्या नहीं कर सकता- यह कायरता है. बदलना होगा मुझे. भटकन और तलाश की बजाय एक सजग प्रयास करना होगा अपने शब्दकोष को समृद्ध करने का- अपनी लेखनी को मजबूत करने का- समय रहते.

इसी भटकन में, पंकज सुबीर जी के तरही मुशायरे के लिए लिखी गज़ल जब तक तैयार हुई- मुशायरा खत्म हो चुका था और मैं भटकता हुआ जब तक अपना कलाम हाजिर करता- कुछ शेष न बचा था. अतः सोचा, आज यहीं से सुनाता चलूँ.

old tree

तरही मुशायरे का मिसरा था:

“इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में”

इसी मिसरे को लेकर इस बहर में पूरी गज़ल लिखना था. शायद, अब तैयार है. आदरणीय प्राण शर्मा जी का विशिष्ट आशीष इस गज़ल को प्राप्त हुआ है- अब आप तय करें:

शुक्र है के वो निशानी है अभी तक गाँव में

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

गाड़ी,बंगला,शान-ओ-शौकत माना के हासिल नहीं

पर बड़ों की हर निशानी है अभी तक गाँव में

भोर,संध्या,सांझ हो, या हो वो रातों का सफ़र

खुल हवायें गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में

हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में

सादगी ही सादगी है जिस तरफ भी देखिए

सादगी की आबदारी* है अभी तक गाँव में

साथ मेरे जाता तो ए काश तू भी देखता

निष्कपट सी जिंदगानी है अभी तक गाँव में

छोड़ कर तू जा रहा है ए ` समीर ` इतना तो जान

रोटी - सब्ज़ी , दाना - पानी है अभी तक गाँव में

 

*आबदारी – चमक

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

बुरा हाल है ये मेरी जिन्दगी का...

इधर कुछ दिनों से खाली समय में किताबों में डूबा हूँ. न लिख पाने के लिए एक बेहतरीन आड़ कि अभी पढ़ने में व्यस्त हूँ.

हाथ में आई पैड है और उस पर खुली है “शान्ताराम”. नाम से तो शुद्ध हिन्दी तो क्या, मराठी की किताब लगती है मगर है अंग्रेजी में. ईबुक के हिसाब से १७०० पन्नों की है और पढ़ते हुए अबतक लगभग २५० पन्नों के पार आ पाया हूँ मैं.

शायद २५० पन्ने शुरुआत ही है. अभी अभी नामकरण हुआ है न्यूजीलैण्ड के लिन का (जो मुंबई में आकर लिनबाबा हुआ), लिनबाबा से “शान्ताराम”. बहुत चाव से लिन अपने नये नाम शान्ताराम को महाराष्ट्र के एक गांव में आत्मसात कर रहा है जिसका अर्थ है शान्ति का प्रतीक और मैं अब जब शान्ताराम के मुंबई प्रवास और फिर रेल और राज्य परिवहन की बस में सुन्दर गांव की यात्रा को पढ़ रहा हूँ तो अपने मुंबई के ५ वर्षीय प्रवास और अनेक बस और रेल यात्राओं की याद में डूब पुस्तक से इतर न जाने किस दुनिया में खो जाता हूँ. पठन रुक रुक कर चलता है मगर रुकन में भी जीवंतता है. एकदम जिन्दा ठहराव...लहराता हुआ- बल खाता हुआ एक इठलाती नदी के प्रवाह सा- जिसके बहाव में भी नजरों का ठहराव है.

ऐसे लेखकों को पढ़कर लगता है कि कितना थमकर लिखते हैं हर मौके पर- हर दृष्य और वृतांत को इतना जिन्दा करते हुए कि अगर फूल का महकना लिखेंगे तो ऐसा कि आप तक उस फूल की महक आने लगती हैं. माहौल महक उठता है.

नित पढ़ते हुए कुछ गाना सुनते रहने की आदत भी लगी हुई है. अक्सर तो यह कमान फरीदा खानम, आबीदा परवीन, नूरजहां, मुन्नी बेगम, मेंहदी हसन, बड़े गुलाम अली खां साहब आदि संभाले रहते हैं- एक अपनेपन सा अहसासते हुए जी भर कर सुनाते हैं अपने कलाम..पिछले दिनों रेशमा नें भी खूब सुर साधे- जी भर कर जी बहलाया- शुक्रिया रेशमा.

आज मन था सुनने का तो सोचा कि औरों को मौका न देने से कहीं जालिम न कहलाया जाऊँ. तो आज इन पहुँचे हुए नामों को आराम देने की ठानी और मौका दिया सबा बलरामपुरी को. सबा ने भी उसी तरह अपनेपन से मुस्कराते हुए अपने दिलकश अन्दाज में सुनाया:

अजब हाल है मेरे दिल की खुशी का

हुआ है करम मुझ पे जब से किसी का

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

सबा की आवाज की खनक, अजीब से एक बेचैनी, एक कसक और कसमसाहट के साथ ही उसकी लेखनी मुझे खींच कर ले गई उस अपनी जिन्दगी की खुशनुमा वादी में..जहाँ शायद भाव यूँ ही गुनगुनाये थे मगर शब्द कहाँ थे तब मेरे पास.न ही सबा की लेखनी की बेसाखियाँ हासिल थी उस वक्त....जिसकी मल्लिका सबा निकली. वो यादें तो मेरी थीं और हैं भी. उन पर सबा का कोई अधिकार नहीं तो उनमें डूबा मैं तैरता रहा मैं हरपल तुम्हें याद करता...गुनगुनाता:

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

दुआएँ यूँ कहाँ सब की पूरी होती हैं. मेरी न हुई तो कोई अजूबा नहीं. अजूबा तो दुआओं के पूरा होने पर होता है अबकी दुनिया में. मानों खुशी के पल खुशनसीबी हो और दुख तो लाजिमी हैं.

मैं सोचता ही रहा और फिर डूब गया शान्ताराम की कहानी में जो भाग रहा था डर कर कि सुन्दर गांव में नदी का स्तर मानसून में एकाएक बढ़ रहा है और शायद गांव डूब ही न जाये. वो गांव के निवासियों को जब सचेत करता है तो सारे गांव वाले हँसते हैं उसकी सोच पर. सब निश्चिंत हैं कि आजतक वो नदी इतना बढ़ी ही नहीं कि गांव डूब जाये. उन्हें वो स्तर भी मालूम था कि जहाँ तक नदी ज्यादा से ज्यादा बढ़ सकती है.

न्यूजीलैण्ड में रहते भी शान्ताराम को ऐसे किसी विज्ञान का ज्ञान ही नहीं हो सका जो ऐतिहासिक आधार पर ऐसा कुछ निर्णय निकाल पाये. भारत की स्थापित न जाने कितनी मान्यताओं के आगे विज्ञान यूँ भी हमेशा बौना और पानी ही भरता नजर आया है और इस बार भी पानी उस स्तर के उपर न जा पाया. लिनबाबा उर्फ शान्ताराम नतमस्तक है उन भारतीय मान्यताओं के आगे. मैं तो खुद ही नतमस्तक था. उसी भूमि पर पैदा हुआ था तो मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ...

सबा है कि छोटे छोटे मिसरे सरल शब्दों मे बहर में गाये जा रही है:

मेरा दिल न तोड़ो जरा इतना सोचो

मुनासिब नहीं तोड़ना दिल किसी का...

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

छा गई सबा और उसकी आवाज दिलो दिमाग पर...याद आ गया बरसों बाद उस दिन तुम्हारा मुझको अपने फेस बुक की मित्रों की सूची में शामिल करना इस संदेश के साथ: “हे बड्डी, ग्रेट टू सी यू हियर..रीयली लाँग टाईम..काइन्ड ऑफ पॉज़.... वाह्टस अप- हाउज़ लाईफ ट्रीटिंग यू-होप आल ईज़ वेल”

हूँ ह...पॉज कि रीस्टार्ट आफ्टर ए फुल स्टॉप? नो आईडिया!!!

भूल ही चुका था मैं यूँ तो अपनी दैनिक साधारण सी बहती हुई जिन्दगी में..कभी ज्वार आये भी तो उससे उबर जाना सीख ही गया था स्वतः ही..जिन्दगी सब सिखा देती है..यही तो खूबी है जिन्दगी में...जिसके कारण दुनिया पूजती है इसे..कायल है इसकी. मन कर रहा है कि फेस बुक में तुम्हारी वाल पर जाकर सबा की ही पंक्तियाँ लिख दूँ और थैंक्यू कह दूँ सबा को मुझे रेस्क्यू करने के लिए...बचाने के लिए:

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

जाने क्या सोच रुक जाता हूँ और बिना कोशिश हाथ आँख पोंछने बढ़ जाते हैं. आँख और हाथ का भी यह अजब रिश्ता आज भी समझ के बाहर है मगर है तो एक रिश्ता. ...अनजाना सा..अबूझा सा,,,हाथ आँखों को नम पाता है..शायद सबा को सुन रहा होगा वो भी मेरे साथ:

अभी आप वाकिफ नहीं दोस्ती से

न इजहार फरमाईये दोस्ती का...

शायद आप तो क्या, हम भी कभी अब वाकिफ न हो पायेंगे. वक्त जो गुजरना था...गुजर गया. बेहतर है मिट्टी डालें उस पर. मगर हमेशा बेहतर ही हो तो जिन्दगी सरल न हो जाये? जिन्दगी तो जूझने का नाम है ऐसा बुजुर्गवार कह गये हैं. गालिब भी कहते थे तो हम क्या और किस खेत की मूली हैं...

शान्ताराम जूझ रहा है..एक भगोड़ा..जिसकी तलाश है न्यूजीलैण्ड की पुलिस को. जमीन छूट जाने की कसक उसे भी है और मजबूरी यह है की कि कैद उसे मंजूर नहीं. कैद की यातना से भागा है..एक आजाद सांस लेने..वो किसे नसीब है भला जीते जी..जमीन की खुशबू से कौन मुक्त हुआ है भला...रिश्तों की गर्माहट को कैसे छोड़ सकता है कोई...बुलाते हैं वो रिश्ते और महक के थपेड़े....खींचते है वो...

सोचता हूँ हालात तो मेरे भी वो ही हैं...मुझे तो कैद का भी डर नहीं...फिर क्यूँ नहीं लौट पाता हूँ मैं..उस मिट्टी की सौंधी खुशबू के पास..अपने रिश्तों की गरमाहट के बीच...उस मधुवन में...क्या मजबूरी है...जाने क्या...सोच के परे रुका हूँ इस पार....एक अनसुलझ उधेड़बून में...अबूझ पहेली को सुलझाता....

सबा कह रही है:

बुरा हाल है ये तेरी जिन्दगी का...

-समीर लाल “समीर”

आप भी सुनें सबा बलरामपुरी को, शायद मुझ सा ही कुछ अहसास कर पायें:

 

सबा बलरामपुरी
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