गुरुवार, मार्च 31, 2011

ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!

पिछली भारत यात्रा के दौरान सायंकालीन महफिलों में लाल और बवाल की संगत नित का नियम सा थीं. उसी माहौल में एक शाम यह रचना लिखी गई और फिर बाद में बवाल ने इसे गा कर जब सुनाया तो सभी झूम उठे. रिकार्डिंग तो उस वक्त नहीं हो पाई मगर बवाल का वादा था कि आप कनाडा पहुँचो और बस, रिकार्डिंग आपके ईमेल में होगी.

तब से ईमेल में आँख गड़ाये बैठे हैं. चलिये, कोई बात नहीं.

वाकिफ तो हूँ उनकी आदत से, मुकर जाने की,
न जाने क्यूँ फिर भी इन्तजार किये जाता हूँ मैं..

रिकार्डिंग फिर कभी आ जायेगी और तब सुना दी जायेगी. अभी तो आप पढ़्कर इस रचना का आनन्द लें.

drink

ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए, ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!

तौल रहा है लिए तराजू, किन बातों में कितना दम है...
जा बैठा मधुशाला में वो, सोच रहा ये कितने गम हैं...
भूल गया था शायद वो यह, इस गम का कारण भी हम हैं...

अपने ही कर्मों के फल का
ये अभिशाप न टाला जाए!!

ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए, ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!

क्यूँ उसका दिवानापन है, भला किसी की वो अपनी है..
जग जाहिर सी यह बात रही कि वो तो बस एक ठगनी है...
होश लूट कर ले जायेगी, इतनी ही उसकी करनी है....

मदहोशी की राह दिखा कर
कब वो गुम हो बाला जाए!!

ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए, ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!

जाने कितने गम के मारे, इसकी धुन पर नाच रहे हैं
जैसे ही मदहोशी टूटी, फिर अपना गम बांच रहे हैं..
अब तक किसका गम हर पाई, क्यूँ न इसको जांच रहे हैं...

दर्देगम जो और बढ़ा दे
वो मर्ज ही न पाला जाए!!

ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए, ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!

फूलों की जो गंध चुरा ले, और भौरों सा झूम रहा हो..
गम से जिसका न (कु)कोई नाता, खुशियाँ देने घूम रहा हो..
देखी जो गैरों की खुशियाँ, अपनी किस्मत चूम रहा हो..

उसी प्याले में पैमाना
भर भर करके ढाला जाए!

ओ साथी! वो मधुशाला आए, ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!

-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, मार्च 27, 2011

ब्लॉग बेहतर या किताब...परिवर्तन की बयार- भाग २

नोट: राजस्थान पत्रिका के १३ मार्च के अंक में कुछ काट-छांट के बाद प्रकाशित मेरा आलेख. यह आलेख सूचनार्थ ’अपनी माटी वेब पत्रिका’ द्वारा भी छापा गया.

आलेख

नित बहस जारी है साहित्य/ किताब/ पत्रिकायें/चिट्ठा/ अन्तर्जाल. जाने क्या सिद्ध किये जाने की पुरजोर कोशिश. कौन बेहतर, कौन आगे और कौन बाजी जीतेगा.

अभी बहुत समय नहीं बीता है जब आदरणीय श्रीलाल शुक्ल जी की कालजयी पुस्तक ’राग दरबारी’ को नेट पर एक ब्लॉग के माध्यम से लाये जाने का प्रयास किया गया था. इस हेतु आदरणीय़ श्रीलाल शुक्ल जी ने मौखिक स्वीकृति भी दे दी थी. निश्चित ही यह स्वीकृति देते वक्त उनके मन में एक चिट्ठाकार कहलाने का लोभ तो नहीं ही रहा होगा. अगर कोई मंशा होगी तो मात्र इतनी कि इस कालजयी रचना को और अधिक लोग पढ़ें. यूँ भी बिना नेट पर आये उसे पढ़ने वालो की कोई कमी नहीं है फिर भी. उस दौर में मैने भी राग दरबारी को नेट पर लाने के इस अभियान में इसके टंकण में सहयोग कर यथा संभव योगदान किया था और भाई अनूप शुक्ल जी, जो कि इस अभियान के सूत्रधार थे, ने अपनी बात कहते हुए स्पष्ट किया था कि ’किताब नेट पर पूरी उपलब्ध होने पर भी खरीदने वाले इसे खरीदकर पढ़ेंगे ही। इसके नेट पर उपलब्ध होने पर इसकी बिक्री में इजाफ़ा ही होगा, कमी नहीं आयेगी।’

उस दौर में जब हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का ज़ज्बा लिए मात्र मुट्ठीभर १२५ चिट्ठाकार सक्रिय थे और आज भी, जब यह संख्या ३०००० पार कर चुकी है, एक कोशिश हमेशा होती है कि जो साहित्य किताबों में उपलब्ध है या बंद है, उसे अन्तर्जाल पर लाया जाये और एक ऐसे माध्यम पर दर्ज कर दिया जाये जो सर्व सुलभ है और दीर्घजीवी है. विभिन्न आयोजनों के दौरान चाहे फिर वो इलाहाबाद या वर्धा का हिन्दी विश्वविद्यालय का ब्लॉग सम्मेलन रहा हो या अन्य कोई, सभी में प्रख्यात साहित्यकारों को अन्तर्जाल से जोड़ने के प्रयास हुए हैं और यह प्रयास सर्वविदित भी हैं और सर्वमान्य भी. मैने स्वयं भी कितने ही सेमिनारों ,गोष्ठियों और सम्मेलनो के माध्यम से जाने कितने ख्याति लब्ध साहित्यकरों से अन्तर्जाल पर आने का निवेदन किया है और यहाँ तक पेशकश की है कि अगर उम्र के इस पड़ाव में वो नई तकनीक सीखने में असहज महसुस करते हों तो हमें अनुमति दें ताकि हम उनकी रचनायें अन्तर्जाल के माध्यम से सुलभ करायें. 

कुछ स्वभाविक उम्रजनित, अक्षमताओं जनित एवं अहमजनित विरोध भी अन्तर्जाल की ओर आने की दिशा में रहा है मगर वह तो हर परिवर्तन का स्वभाव है और वो पीढ़ी विशेष के प्रस्थान के साथ ही प्रस्थित होगा. उसका कोई विशेष प्रभाव भी नहीं होता मात्र चर्चा के अलावा. चर्चा अवश्य आवश्यक एवं आकर्षक होती है क्यूँकि उसमें विशिष्ट व्यक्ति की स्टेटस की विशिष्टता होती है न कि विचारों की.

परिवर्तन सृष्टि का नियम है और यह निरन्तर जारी रहता है. जिन्दगी में अगर आगे बढ़ना है तो परिवर्तन के साथ कदमताल मिला कर इसे आत्मसात करना होगा.जो अपनी झूठी मान प्रतिष्ठा के चलते उपजे अहंकारवश या उम्रजनित अक्षमताओं की दुहाई देते हुए मजबूरीवश ऐसा नहीं कर पाते, उन्हें अपने पीछे छूट जाने का एवं अस्तित्व को बचाये रखने का भय घेर लेता है. अक्सर जीवन के उस पड़ाव में समय भी कम बचा होने का अहसास होता है अतः नई चीज सीखकर उसे आत्मसात करने की रुचि और उत्साह भी नहीं बच रहता. यही पीढ़ा और खीज असहय हो कुंठा का रुप धारण कर विरोध के रुप में चिंघाड़ती है जिसकी बुनियाद खोखली होती है अतः स्वर तीव्र.

किन्तु ऐसे में भी बहुतेरे आत्म संतोषी विरोध का स्वर न उठा अपने आपको अतीत की यादों में कैद कर जीवन गुजार देते हैं. यूँ भी अतीत की यादें स्वभावतः रुमानियत का एक मखमली लिहाफ ओढ़े सुकून देती हैं और निरुद्देश्य जीवन को खुश होने का एक मौका हाथ लग जाता है भले ही और कुछ हासिल हो न हो. ऐसे लोग ही गाहे बगाहे कहते पाये जाते हैं कि हमारा समय गोल्डन समय था, अब तो जमाना को न जाने क्या हो गया है और भविष्य गर्त में जाता नजर आता है. ऐसे स्वभाव के हर कल ने सदियों से भविष्य को गर्त में ही जाते देखा है. उम्र के इस पड़ाव में यह पीढ़ियाँ भूल चुकी होती हैं कि कभी वह भी ऐसे ही किसी परिवर्तन के वाहक थे जिसे उनके पूर्वज गर्त में जाना कहते कह्ते इस धरा से सिधार गये.

इस तरह से अपने अस्तित्व को परिवर्तन की आँधी से बचाने के लिए अतीत रुपी खम्भे को पकड़े रहना या विरोध में चिल्ला उठना मात्र उन्हें आत्म संतुष्टी देता है किन्तु परिवर्तन होकर रहता है. न कभी समय रुका है और न कभी परिवर्तन की बयार- युग बदलते हैं. विरोध पीढ़ियों की विदाई के साथ रुखसत होता जाता है और जन्म लेता रहता है एक नया विरोध, एक नई पीढ़ी का, एक नये परिवर्तन के लिए, जिसका स्वागत कर रही होती है एक नई पीढ़ी, बहुत उम्मीदों के साथ.

परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत हो तो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं. वह उस रुकन को नेस्तनाबूत करने की तैयारी कर रहा होता है, जिसे हम ठहराव मान भ्रमित होते है. यह भ्रम भी क्षणिक ही होता है और देखते देखते ढह जाता है वह रुकन का कारण और प्रयास, वह खो देता है अपना अस्तित्व और बह निकलता है नदिया का प्रवाह अपनी मंजिल की ओर किसी सागर मे मिल उसका हिस्सा बन जाने के लिए या नये प्रवाह/ परिवर्तन को एक स्पेस प्रदान करने के लिए.

आज अभिव्यक्ति के माध्यमों में होते परिवर्तनों और प्रिन्ट/ अन्तर्जाल के बीच छिड़ी जंग देख बस यूँ ही इन विचारों ने शब्द रुप लिया और आपके विचार हेतु प्रस्तुत हो गये.

अन्तर्जाल पर कविता कोष, अभिव्यक्ति, अनुभूति, साहित्य शिल्पी, हिन्दी विकीपिडियागद्यकोष  आदि सभी साहित्य को अन्तर्जाल पर सर्व सुलभ कराने के अभियान के उदाहरण है, जो अपने चरम पर हैं. यहाँ तक कि हमारे ब्लॉग बंधुओं के साझा भागीरथी प्रयासों से राम चरित मानस ब्लॉग स्वरुप में ऑन लाईन किया गया और भरसक मुस्कराते हुए वाह वाही भी ली गई. यह साधुवादी प्रयास था भी इस योग्य.

यदि इस पर गहन विचार किया जाये तो यह तय है कि यह सब जो कार्य किया जा रहा है वो एक उज्जवल भविष्य के निर्माण को दृष्टिगत रख कर किया जा रहा है. इसका तात्कालिक लाभ तो मात्र एक छोटा सा वर्ग उठा रहा है.

आंकड़ों पर नजर डालें तो आज विश्व की मात्र १५% आबादी अन्तर्जाल का प्रयोग कर रही है और इन उपयोगकर्ताओं में भारत ७वें स्थान पर है, जहाँ इसका उपयोग करने वालों की संख्या पूरी आबादी का मात्र २.५०% ही है याने ९७.५०% आबादी का हिस्सा अभी भी अन्तर्जाल से कोई सारोकार नहीं रखता. अगर विकास की दर बहुत त्वरित भी रही तो भी आने वाले २० सालों में यह प्रतिशत बहुत बढ़ा तो चार गुना हो जायेगा याने तब भी ९०% आबादी अन्तर्जाल का उपयोग नहीं कर रही होगी. हालांकि प्रतिशत के बदले यदि संख्या के आधार पर आंका जाये तो यही १०% आबादी की संख्या, कई बड़े देशों की आबादी से अधिक ही होगी, जो की एक बहुत संतोष का विषय है और अन्तर्जाल पर हिन्दी को समृद्ध करने के लिए जूझते लोगों के लिए उत्साहित करने वाला तथ्य है. आने वाले समय में यही संख्या अन्तर्जाल पर हिन्दी से संबंधित पृष्ठों से व्यवसायिक लाभ दिलवाने का भी काम करेगी. हिन्दी किताबों का व्यवसायिक पक्ष तो खैर किसी से क्या छिपा है. वैसे यह १०% का आंकड़ा मैं एकदम आशावादी दृष्टिकोण अपना कर कह रहा हूँ.

ऐसे में एक बहुत बड़ा वर्ग निश्चित रुप से ऐसा बच रह जाता है, जिसे साहित्य एवं पठन पाठन में तो रुचि है किन्तु अन्तर्जाल से कोई संबंध नहीं है. इस वर्ग की जरुरतें पूरी करने हेतु किताबें, पत्रिकाएँ, अखबार आदि ही मुख्य भूमिका निभाते रहेंगे, यह भी तय है.

मेरी पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ का विमोचन करते हुए प्रख्यात साहित्यकार श्री ज्ञानरंजन नें अपने उदबोधन में कहा भी था कि ’समीर लाल, एक बड़े और निर्माता ब्लॉगर के रुप में जाने जाते हैं. मेरा इस दुनिया से परिचय कम है. रुचि भी कम है. मैं इस नई दुनिया को हूबहू और जस का तस स्वीकार नहीं करता. अगर विचारधारा के अंत को स्वीकार भी कर लें, तो भी विचार कल्पना, अन्वेषण, कविता, सौंदर्य, इतिहास की दुनिया की एक डिज़ाइन हमारे पास है. यह हमारा मानक है, हमारी स्लेट भरी हुई है.
मेरे लिए काबुल के खंडहरों के बीच एक छोटी सी बची हुई किताब की दुकान आज भी रोमांचकारी है. मेरे लिए यह भी एक रोमांचकारी खबर है कि अपना नया काम करने के लिए विख्यात लेखक मारक्वेज़ ने अपना पुराना टाइपराईटर निकाल लिया है. कहना यह है कि समीर लाल ने जब यह उपन्यास लिखा, या अपनी कविताएं तो उन्हें एक ऐसे संसार में आना पड़ा जो न तो समाप्त हुआ है, न खस्ताहाल है, न उसकी विदाई हो रही है. इस किताब का, जो नावलेट की शक्ल में लिखा गया है, इसके शब्दों का, इसकी लिपि के छापे का संसार में कोई विकल्प नहीं है. यहां बतायें कि ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते."

गौर तलब है कि उनका मानना है कि "ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते." मैं इससे भी आगे की बात कहता हूँ कि दोनों ही वर्तमान में एक दूसरे के पूरक हैं.

आज अन्तर्जाल पर हो रहे प्रयासों को आमजन तक पहुँचाने के लिए प्रिन्ट माध्यमों की जरुरत है, वहीं किताबों, पत्रिकाओं, अखबारों आदि को अपनी पहुँच बढ़ाने के लिए अन्तर्जाल की जरुरत है. जो लोग प्रिन्ट माध्यमों में ब्लॉग की खबर छपने पर खुश हो रहे ब्लॉगरों की खुशी देख उनकी खिल्ली उड़ाने में मगन रहते हैं वो यह भूलवश एवं खुद न छप पाने की आत्म कुंठा से उबरने हेतु ही ऐसा कर रहे हैं, ऐसा मेरा मानना है.

निश्चित ही अन्तर्जाल एक त्वरित, तेज, और व्यापक माध्यम है तो इसके प्रारुप का आधार भी वैसा ही है फिलहाल तो. अन्तर्जाल पर छोटी छोटी प्रस्तुतियाँ जो कम समय में त्वरित रुप से पढ़ी जा सकें, ज्यादा लोकप्रियता हासिल कर लेती हैं. लोगों को लुभाती भी हैं और सुहाती भी हैं. बोझिल और लम्बें आलेख हेतु फिलहाल शायद विषय वस्तु विशेष से संबंधित विशिष्ट उत्सुक्ता रखने वाले वर्ग (इन्टरेस्टेड ग्रुप) को छोड़ किसी के पास समय नहीं है. अतः सीमित शब्दों और पैराग्राफों में बँधे छोटे छोटे आलेख लोकप्रियता का मुकाम हासिल कर लेते हैं हालाँकि यह कोई मानक नहीं है किन्तु फिर भी कम से कम आज तो ऐसा ही होता है .

ठीक इसके विपरीत किताबों की दुनिया में, पाठक समय निकाल कर विस्तार ढ़ूँढ़ता है चाहे वो दृष्यांकन का विस्तार हो या कथानक का.

ब्लॉग का पाठक टिप्पणी या प्रतिक्रिया यह जानते हुए और लिखने के लिए लिखता है कि वो पढ़ी जायेगी, न सिर्फ लेखक के द्वारा बल्कि अन्य पाठकों के द्वारा भी, जो उस टिप्पणी के आधार पर ही टिप्पणीकर्ता का व्यक्तित्व आंकलन करेंगे, यह विशिष्टता शायद इस वजह से भी हो कि वर्तमान में चिट्ठे के पाठक खासतौर पर टिप्पणीकर्ता स्वयं भी अधिकतर चिट्ठाकार ही हैं और उन्हें भी अपनी रचनायें एवं कृतियाँ इन्हीं पाठकों को पढ़वाना होता है.

इससे इतर किताब और पत्रिकाओं का पाठक टिप्पणी लिखता नहीं, पठन के साथ मन ही मन बुनता चलता है और फिर पठन समाप्ति पर अपनी इस बुनावट को काल्पनिक तौर पर निहार कर लेखक एवं उसके लेखन के विषय में एक धारणा स्थापित कर भूल जाता है. उसी लेखक की अगली कृति पर जब उसकी नज़र पड़ती हैं और तो वो उस लेखक के प्रति अपनी अतीत में स्थापित अवधारणाओं को खंगालता है.

यह एक बहुत बड़ा अंतर है अन्तर्जाल पर चिट्ठा अवलोकन और वास्तविक जगत के पुस्तकावलोकन में, जिसे निश्चित ही विचार में लिया जाना चाहिये.

इस आधार पर देखें तो एक दूसरे की पूरक होते हुए भी दोनों फिलहाल अलग अलग दुनिया हैं और निश्चित ही उनमें कोई टकराहट नहीं होना चाहिये और अगर अभियानित धारा के विपरीत धारा में कोई प्रयास होता है, जो कि समय की मांग है, जैसे अन्तर्जाल पर उपलब्ध सामग्री का किताबीकरण, तो ऐसे में इस विचारधारा और आधार को ध्यान में लेना ही होगा. साथ ही ऐसी विपरीत धारा का स्वागत भी होना चाहिये.

अतः ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्टों को, जो भले ही ब्लॉग के दृष्टिकोण से अपने आप में पूरी तरह मुक्कमल भी नजर आयें, उन्हें अगर अन्तर्जाल से बाहर रह रहे वर्ग तक पहुँचाने का प्रयास हो तो इस विचार को मद्दे नजर रखते हुए उसी प्रारुप में निकालना ज्यादा श्रेयकर होगा जिस रुप में वो किताब पाठक को अधिक आकर्षित करे. ब्लॉग में अलग अलग समय पर प्रकाशित हुई रचनायें आपस में जोड़ जुड़ाव करके एक ही स्थान पर पढ़ी जा सकती हैं, रिफरेन्स दिये जा सकते हैं मगर किताबों की दुनिया के लिए यह उपयुक्त तरीका नहीं कहलायेगा. किताबों में दृष्टांत दिये जाते हैं और अन्तर्जाल पर लिंक.

अंत में तो लेखक, प्रस्तुतकर्ता और साहित्यकार का निर्णय ही अंतिम और सर्वमान्य होगा, सही या गलत, अच्छे या बुरे का निर्णय भी पाठक ही करेगा,  इस पर टीका टिप्पणी कैसी?

यह तो सिर्फ एक विचार है जो विमर्श मांगता है.

Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, मार्च 22, 2011

बेवकूफियों का पुलिंदा

पिछले दिनों वन्दना जी का ईमेल आया कि देर से इत्तला करने की माफी और जल्दी से जल्दी अपनी कोई ऐसी बेवकूफी का प्रसंग भज दें, जो यादगार बन गई हो, होली पर छापना है.

एक बार विचारा तो चारों तरफ अपनी बेवकूफियों का भंडार ही भंडार छितरा नजर आया. शायद नॉन बेवकूफी यादगार पूछी होती तो भेजने में समय लगता. तुरंत भेज दी. छप भी गई. अगर वहाँ न देखी हो तो यहाँ देख लें:

***************************

एक दिन दफ्तर जाने के लिए सुबह सुबह ट्रेन पकड़ी. भीड़ तो काफी थी किन्तु बैठने के लिए सीट मिल गई. अब तक ट्रेन पूरी भर चुकी थी, शायद अगले स्टेशन से पकड़ते तो खड़े खड़े ही जाना पड़ता एक घंटे ऑफिस तक.

अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो बहुत से लोग और चढ़े. अब ट्रेन में भी कुच्च्मकुच्चा हो गई. ऐसे में शिष्टाचारवश लोग किसी बुजुर्ग या गर्भवति महिला या छोटे बच्चों के साथ आई महिला के लिए जगह खाली कर देते हैं और खुद खड़े हो जाते हैं. मेरे बाजू में भी एक महिला आ कर खड़ी हुई. देखा तो गर्भवति महिला थी अतः मैं अपनी सीट से खड़ा होकर उनसे आग्रह करने लगा कि आप बैठ जाईये.

उस महिला ने मुझसे कहा कि नहीं, मैं ठीक हूँ. आप बैठिये.

मैने पुनः निवेदन किया कि आप गर्भवति हैं, आपको इतनी दूर खड़े खड़े यात्रा नहीं करना चाहिये, आप बैठ जाईये. देर तक खड़े रहना स्वास्थय और आने वाले बेबी के लिए ठीक नहीं है.

उसने चौंकते हुए मुझे देखा और बोली- मैं..गर्भवति...यू मस्ट बी किडिंग (आप जरुर मजाक कर रहे होंगे) और वो मुँह बनाकर डिब्बे के दूसरी तरफ चली गई.

मैं झेंपा सा अपने आस पड़ोस वालों को देखने लगा. सभी मुस्करा रहे थे. मैने तो बस उसका पेट देख अंदाजा लगाया था. काश, मैं मोटी महिला और गर्भवति महिला का स्पष्ट भेद जानता होता.

मगर अब हो भी क्या सकता था-बेवकूफी तो कर ही बैठे थे. सो अपना सा मुँह लिए वापस बैठ गए सर झुकाये और राम-राम करते रहे, कि जल्दी से जल्दी मेरा स्टेशन आये और मैं उतर कर गुम हो जाऊँ भीड़ में.

आज भी जब यह वाकिया याद आता है तो अपनी बेवकूफी पर एक बार फिर शरम आ जाती है.

fat and pregnant

चलते चलते:

कभी न रहा शर्मिंदा मैं, नमालूम वाणियों की सूफियों से
मगर मैं बच नहीं पाया, गुजर कर अपनी बेवकूफियों से...

और फिर:

खाली बैठा

आज

रोजानामचा (ट्रायल बैलेन्स) बनाता रहा

अपनी समझदारी

और

बेवकूफियों का...

बेवकूफियों का पलड़ा

भारी निकला...

और

अपने हल्केपन को भूल

समझदारियाँ

भरती रहीं

अपनी समझ की

दंभ भरी

उड़ान......

-कितने कमजर्फ होते हैं यह गुब्बारे
जो चंद साँसों में फूल जाते हैं....
थोड़ा ऊपर उठ जायें तो
औकात भूल जाते हैं... (शायर नामालूम)

-संस्मरण द्वारा समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, मार्च 14, 2011

अखबार क्या सिर्फ पढ़ा जाता है, जो नेट से काम चल जाये?

रमेश बाबू के साथ आज हम चाय की दुकान पर बैठे थे, रमेश बाबू बातूनी आदमी और हम चुप रहने वाले, हमने अखबार उठा लिया और पढ़ने लगे.मगर रमेश बाबू ... वो कहाँ किसीको चुप रहने दें......कहने लगे कि--- का समीर बाबू... टीवी,मोबाईल, नेट के जमाने मे भी ई ..आर्ट फ़िलम की तरह अखबारे में घुसे रहते हैं ...कभी मौर्डनियाईयेगा कि नहीं? अख़बारों का अब भी कोई मतलब है?

बस, उनके ऐसे ही प्रस्न हमें बर्दाश्त नहीं होते तो हम कहे कि रमेश बाबू, मतलब काहे नहीं है जी अखबार का? यात्रा करना बिल्कुले छोड़ दिये का ? चप्पल काहे में लपेट के धरियेगा.. कपड़ों के बीच वी आई पी सूटकेस में?? बताईये बताईये..और जानिये कि अगर रेल( जैसा कि होइबे करता है ), विलम्ब से चल रही हो और पूरा स्टेशन यात्रियों से खचाखच भरा हो , तब बैठियेगा काहे पर?... कि खड़े खड़े ही आठ घंटा गुजार देंगे?... भीड़ एसन ही तो लग नहीं गई होगी?. आये दिन की पार्टी रैली में से एक यह भी है. सब दिल्ली जायेंगे. अब गई आपकी रिज़र्व सीट भी. उनसे झगड़ियेगा? गुंडा लोगों से..अरे नहीं नहीं, नेता लोगों से? वैसे तो एक ही बात है. तब काहे पर बैठ कर सफर करेंगे? यही अखबार न काम आयेगा…बोलिए....बोलिए ...

चलिए, नहीं जाईये कहीं घूमने फिरने..घर में ही गतियाये किताबें पढ़ते रहिये तो आले में बिना अखबार बिछाये किताबें सजाईयेगा? बताईये-इका.. कौनो आल्टरनेट है?.. और फिर उ... किताब पर तो जिल्द भी इसी से न चढ़ाते हैं कि भूरा पन्ना खरीद के लाते हैं??

गरमी का हालत नहीं देखे हैं का , रमेश बाबू? अभी करंट चला जाएगा तब पढ़ते रहियेगा किताब. बता दे रहे हैं.... कि तब ई अखबार ही काम आयेगा पंखा झलने के.

हमरे गांव की नुक्कड़ पर उ गुमटी वाला तो इसी की पूँगी बना कर चना/चबेना बेचता है सदियों से. काहे गरीब के पेट का ख्याल नहीं आया आपको?..चलिए, न आया होगा इतना संवेदनशील हृदय नहीं होगा. मरने दिजिये उसको भी भूखा. जब चना उगाने वालों को मरने दिये सब लोग, किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी तो इन बेचने वालों की क्या बिसात. इसी अखबार में न छपा था?-- कि कितने किसान आत्महत्या कर लिए थे? बताईये जरा कितने थे? टीवी न्यूज तो रिवाईंड नहीं न कर पायेंगे मगर पुराना अखबार तो बता ही देगा, जरा खोजिये तो.

जाने दिजिये, कहाँ मन खट्टा करियेगा मगर वो छुटकु तो घर में है न..जरा उसकी अम्मा से पूछियेगा...कितने काम आता है अखबार..केतन डायपर घर में खराब करियेगा केतन डायपर घर में खराब करियेगा जी गवैंठी शहरी लेखक...लिख लिख के और कविता गा कर टाटा बिड़ला तो नहिये हो जायेंगे. फिर कैसे अफोर्ड करियेगा? दो जून की रोटी आ रही है लिख लिख कर, इतना ही तरक्की लेखक के लिए एतिहासिक मानिये, कम से कम हिन्दी में और तनि ये भी पूछिएगा कि सिगड़ी काहे से जलाएगी?...और उ महंगावाला सारी...रेसमी के बीच में का धरती है?.....कभी देखे हैं? अउर कभी ड्रायक्लीन/प्रेस को कपड़ा दिए है का? उ धोबी का रखता है कपड़ा का बीच में? अउर जो कभी पिकनिक-विकनिक गए हो तो ई तो जानते ही होंगे कि काहे में खाए थे पूड़ी-सब्जी अउर जो पानी नहीं था तो हाथ भी तो साफ़ करे ही होंगे न....अब कहिए त..अखबारों का कोई मतलब है कि नहीं? ......

अच्छा ये बताईये रमेश बबू, उस रोज जब आप राधेश्याम जी के पिता जी की अर्थी के संग मुँह लटकाये गमगीन मरघटाई चले जा रहे थे, तो कहाँ से जाने थे?-- कि उनके पिता जी गुजर गये. अखबार से ही न... कि कोई लाऊड स्पीकर पर घोषणा हुई थी? या जी टी वी वाला दिखाया था?. जानते तो हैं आप कि जाना कितना जरुरी है, आप नहीं जायेंगे तो ऐसा हादसा सब के साथ होना है, कभी आप के साथ भी होगा तो क्या अकेले ढोकर ले जाईयेगा खुद को?या चलकर जाइयेगा ?.. . बिना अखबार पढ़े तो न जान पाईयेगा कि शहर में कब कौन पहचान का बैकुंठ के राजमार्ग पर चल पड़ा. कभी पुण्य तिथि मिस करियेगा तो कभी तेहरवीं. अकबका कर बस मुँह-बाये हाय हाय करते रहियेगा- कि हम तो जानबे नई करे ....

देखबे करता हूँ कि आप सिनेमा भी बड़े शौक से देखते हैं- आँख मिचका मिचका कर. आखिर तीन घंटे का समय बिना किसी से मूंह छिपाये गुजर भी जाता है, बिना ग्लानि के. तब बताईये कि कहाँ देखियेगा कि कौन सिनेमा कहाँ खेला जा रहा है. टॉकिज टॉकिज तो नहिये घूमियेगा अपनी खटारा स्कूटर लेकर बीबी को बैठाये.

किसी को हम तो खैर नहीं बतायेंगे आपके बारे में मगर आप तो हमें बता ही दिजिये कि सब कर लेंगे मगर सट्टे का नम्बर कहाँ से मिलायेंगे?. हम तो सुने हैं कि पिछले ३० दिन के नम्बर से आप चार्ट बना कर अगले दिन का बड़ा सिद्ध नम्बर निकालते हैं, उसका क्या?

वैसे आपको बता देते है कि ऐसा किसी प्रिंट मिडिया के पत्रकार से मत कह दिजियेगा. उनको बड़ी ठेस पहुँचेगी. आप क्या समझते हैं कि कहीं और वो क्लर्की कर लेंगे. पगार तो बराबर की पा ही जायेंगे मगर वो जो पुलिस और सरकारी अधिकारियों को चमका कर गठरी पाते थे वो क्या आप देंगे? अरे, खुद का तो ठिकाना नहीं, उनको क्या दिजियेगा? उत्ती मोटी गठरी देने लायक जो आप होते तो एसन बात करते भला? और जो देते भी त गठरी को कपड़ा में लपेटते का?

एक बात और बतायें रमेश बाबू, कभी किसी मध्यम वर्गीय भले मानस से पूछियेगा. वो भले ही १५० रुपया अखबार खरीदने में खर्च कर देता हो महिने भर में मगर तीन महिने बाद जब उसे रद्दी वाले को झीक झीक कर के बेच कर ६० रुपये पाता है, उस वक्त उसको जिस आलोकिक सुख की अनुभूति होती है?... वो अद्वितीय है. अह्हा!! आनन्दम आनन्दम!! क्या उसका यह जरा सा सुख भी छीन कर ही मानियेगा?

चौराहा सूना करवाईयेगा क्या? आधा लोग तो चाय-पान की दुकान पर सुबह इक्कठा ही इसलिए होता है कि फ्री का अखबार पढ़ लिया जायेगा. एक पन्ना तू, एक मैं और फिर बदल कर. फिर उस पर चर्चा. कितना अच्छा लगता है चहल पहल देखे है? चौराहे पर. मगर आप कहाँ बर्दाश्त कर पा रहे हैं. न खुदे रौनक पैदा करते है, न कौनो रौनक बच रहने देना चाहते हैं.

कभी सोचे है कि बड़े सरकारी अधिकारी दफ्तर जा कर क्या करेंगे अगर अखबार नहीं आयेगा? मख्खी मारेंगे क्या? मख्खी मारने की तनख्वाह मिलती है भला?और जो उनको नाक-कान में सरसराहट हुई तो बैठे-बैठे .... कितना जरुरी है उनके लिए अखबार.

और फिर जरा ऊँचा दिखने की आपकी ख्वाहिश तो जाने कबकी मर गई है. मरी क्या, थी ही नहीं मगर जिनमें है, उनको तो अंग्रजी का फायनेनशियल टाईम पढ़ते पढ़ते पब्लिक पलेस में जगह जगह अंडरलाईन करने दिजिये. उनकी अभिजात्यता से भी कौनो दुश्मनी है क्या? उ क्या बिगाड़े हैं आपका?

क्या क्या बताया जाये आपको रमेश बाबू, सारे नेता लोगों की रैली में चार ठो लोग इक्कठा हो जायें बिना अखबार के तो बहुत बड़ी बात मानियेगा. कहिये तो लिख कर दे दें.

अच्छा रमेश बाबू, जरा गंभीरता से सोचियेगा कभी कि जवान बिटिया के लिए लड़का तलाशते असफल थका हारा मजबूर बाप अपनी माँ और बीबी के ताने या फिर बेटे की स्कूल की बड़ी फीस चुकाने के बाद खाली जेब लिए अपने बेटे से नये फैशन को वाहियात बताते नई जिन्स के लिए नकारता खीजा हुआ मध्यमवर्गीय बाप, इसी अखबार में तो मुँह छिपा कर अपनी हताशा और खीज को ढांक अपने मुखिया होने की रक्षा करता है.

ये वो ही अखबार है जो हर भिनसारे दुनिया भर के बड़े बड़े दुखों को मुख्य पृष्ट पर छाप कर लोगों को अहसास दिलाता है कि तुम्हारा दुख कितना छोटा है और उन्हें हौसला देता है अपने दुखों को भूल एक और दिन हिम्मत से जीने का.

कितनी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी निभाता है हमारा यह अखबार.

यह भला कभी भी अपनी प्रासंगिगता खो सकता है?

आप नहीं न समझ पायेंगे!!! रमेश बाबू!! आप तो चाय पिजिये!


Akhbaar


वो

रोज मुझे पढ़ती है

कभी मेरे दुख

कभी खुशियाँ

कभी रंगीनियाँ

तो कभी

काले हर्फों में दर्ज

मेरे अवसाद

और

फिर

सर झटक कर

मगन हो जाती है

अपनी किसी और दुनिया में...

अखबारों की भला उम्र ही कितनी होती है!!!

-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, मार्च 09, 2011

आशंकित मन: एक बुजुर्ग की डायरी-३

जब से पत्नी गुजरी, हर सुबह एक अलग तरह से जागती है, आज वो खिड़की से आते एक सर्द झोकें के साथ दालान में बैठे बेटे बहु की फुसफुसाहट की आवाज के साथ जागी.

आज देर तक सो गया अन्यथा बेटे बहु के जागने के पहले ही मैं दालान में पहुँच जाता हूँ और फिर जब वो जाग कर बाहर आते हैं, तब तक मैं अखबार का पहला पन्ना लगभग पढ़ चुका होता हूँ. बेटे के आते ही मैं न जाने किस अनजान भयवश अखबार उसके आगे उसके पढ़ने के लिए कर देता हूँ. वह अखबार हाथ से लेते हुए कहता भी है कि नहीं, आप पहले पढ़ लीजिये मगर मेरे एक आग्रह पर वो पढ़ने लगता है. हालांकि अखबार मेरे शहर का है, जहाँ मुझे रोज रहना है और उसे कल को चले जाना है मगर फिर भी. कहीं टोक न दे कि आपके पास तो सारा दिन है पढ़ने को. लगभग रोज सुबह की चाय इस तरह साथ होती है. बस, सिर्फ यही एक ऐसा समय होता है जब सिर्फ हम साथ बैठे होते हैं.

oldman2

बेटा बहु कुछ दिनों की छुट्टियाँ बिताने घर आये हैं. कहते तो हैं कि मेरे साथ समय बिताने आये हैं लेकिन अक्सर ही दोनों अपने कमरे में बंद टीवी देखते रहते हैं या फिर कहीं अपने दोस्तों के साथ बाहर सिनेमा देखने या होटल गये होते हैं. हर बार मुझे समझा देते हैं कि मुझे साथ इसलिए नहीं लेकर जाते कि मैं थक जाऊँगा या मुझे तकलीफ होगी या बाहर ठंड बहुत है.

फुसफुसाहट से नींद खुलते ही न जाने क्यूँ मुझे लगा कि जैसे वो मेरे बारे में ही बात कर रहे होंगे. मैं उठकर खिड़की से सटकर खड़ा हो गया और उनकी बातें सुनने लगा. अपने किसी दोस्त के परिवार की चर्चा कर रहे थे और उन बातों पर हँस रहे थे. एकाएक नौकर चाय लेकर पहुँचा तो बहु ने उससे पूछा कि बाबू जी जागे नहीं क्या? कमरा बंद करके सोता हूँ तो नौकर को पता ही न था कि मैं जाग गया हूँ. उसने कह दिया कि अभी सोये हैं.

मैं आशान्वित था कि अब मेरा जिक्र आ गया है तो नौकर के हटते ही मेरी बात होगी. न जाने क्यूँ मुझे हमेशा लगता है कि पीठ पीछे ये मेरे बारे में बात करते हैं. मैं १५ मिनट तक जड़ खड़ा रहा और खिड़की के पीछे.से एक एक बात सुनता रहा किन्तु मेरा जिक्र न आया और फिर दोनों किसी बात पर हँसते हुए उठे और अपने कमरे में चले गये.

तब मैं कमरे के बाहर आया और दालान में आकर कुर्सी खींच कर बैठ गया और अखबार पढ़ने लगा. नौकर चाय ले आया.

रोज जिस चाय की उष्मा से मुझे उर्जा मिलती थी, स्फूर्ति मिलती थी और मैं तरोताजा हो जाया करता था, आज वही उष्मा मेरे भीतर अंगार सी उतर रही थी और न जाने कैसी अजब सी कमजोरी का अहसास करा रही थी.

गुलाबी ठंडक वाली सुबह की शीतल बयार मेरे शरीर को जला रही थी और मैं पसीने में भीगा यह सोच रहा था कि अब कल सुबह ही बेटे बहु के साथ बैठना हो पायेगा.

किसी ने सही ही कहा है कि अक्षमतायें और असुरक्षा की भावना अपने साथ कितनी ही आशंकायें लेकर आती हैं

न जाने कहाँ से छा गये ये कुहांसे
खुशी हो किसी की, हुए हम रुआँसे
सुबह आ के धीरे से कहती है हमसे
चलो जाग जाओ, कि बाकी हैं सांसे...

-समीर लाल ’समीर’

पिछले अंक:

पीले पन्नों पर दर्ज हरे हर्फ : एक बुजुर्ग की डायरी-१

चितरंजन अस्पताल का कमरा नं. ४११: एक बुजुर्ग की डायरी-२ 

नोट: संभवतः यह नोस्ट्स कल को किसी उपन्यास का हिस्सा बनें…..

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, मार्च 06, 2011

कॉफी हाऊस में शाम…

तनेजा जी मित्र हैं अतः ये बात जोर देकर साधिकार कहते हैं, ’अमां, तुम समझते नहीं. हम जहाँ हैं, वहाँ शहर की चारों दिशाओं से आकर सड़कें खत्म हो जाती है.’

दरअसल, हम कुछ मित्र रोज ही शाम को शहर के चौक बाज़ार के कॉफी हाऊस में बैठ कर कॉफी पीते-समय गुजारा करते थे. मेरा मानना होता कि इस चौराहे पर आकर सड़कें खत्म नहीं होती बल्कि इस चौराहे पर आप कहीं से भी आयें, आपको चार विकल्प मिलते हैं कि अगर चाहो तो जिस राह आये हो उसी राह वापस लौट जाओ या फिर अन्य तीन में से कोई सी चुन कर नई मंजिल की ओर बढ़ जाओ. जीवन में भी न जाने कितने ही ऐसे चौराहे मिलते हैं. कुछ उसे राह का ख्त्म हो जाना मान मंजिल मान लेते हैं तो कुछ नई मंजिल तक पहुँचने के लिए उपस्थित विकल्प. स्थितियाँ सभी के लिए एक सी उपस्थित होती हैं बस यह आपकी सोच पर आधारित है कि आप उसे किस रुप में लेते हैं, मै हमेशा तीन में से विकल्प तलाश कर नई मंजिल की ओर बढ़ चलता हूँ।.

मित्र मंडली में सभी को पता रहता था कि शाम की महफिल कॉफी हाऊस में जमेगी. जैसे जैसे जिसे दिन भर के काम से निवृत हो कर समय मिलता जाता, आकर वहाँ जम जाता. वो कोने वाली १२ कुर्सियों से घिरी टेबल नित हमारा इन्तजार करती. सफेद कोट और पैन्ट में हरी बेल्ट और फुनगी वाली टोपी लगाया वेटर ’श्रीनि’ भी लगभग तय था और वो जानता था कि कौन कैसी कॉफी पीता है. उसे यह भी पता था कि तिवारी जी कॉफी के साथ दो ब्रेड बटर स्लाईस भी लेते हैं और अग्रवाल जी ८.३० बजे के आसपास डोसा खाकर घर लौटते हैं क्यूँकि वो घर पर अकेले ही रहते हैं और खाना बनाने के लिए उनके पास न तो व्यवस्था है और न हुनर. अग्रवाल जी अक्सर दुखी मन से कहते सुने जाते थे कि काश!! रसोई भी देश की सरकार के समान होती तो झंझट ही खत्म हो जाता, बिना व्यवस्था और हुनर के भी चल ही जाती.

मैं सोचा करता था कि श्रीनि का पूरा नाम शायद कभी माँ बाप ने बड़े जतन से श्रीनिवास रखा होगा लेकिन फिर खुद ही प्यारवश और सुविधा के लिए घर में श्रीनि पुकारने लगे होंगे. पूछने पर उसने बताया कि नहीं, उसका पूरा नाम वैंकटैय्या श्रीनिवासन है और ’श्रीनि’ श्रीनिवासन से निकला है. मुझे अचरज हुआ कि श्रीनि ही क्यूँ, वैंकी क्यूँ नहीं? अव्वल तो नाम उसका, मुझे अचरज करने की क्या वजह? किन्तु कॉफी हाऊस में खाली बैठे हिन्दुस्तानी, उनसे और आशा भी क्या की जा सकती है जबकि व्यस्त हिन्दुस्तानी तक उन्हीं बातों में व्यस्त हैं, जिनसे उनका कुछ लेना देना नहीं. फिर भी श्रीनि ने ही निराकरण भी किया कि उसके बड़े भाई का नाम वैंकटैय्या राधाकृष्णन है और ’पहले आओ, पहले पाओ’ की स्कीम में उसने वैंकी पर अधिकार जमाया हुआ है.

तब उस शाम मित्रों के बीच चर्चा का विषय यही बना कि आखिर भारत में हम अधिकतर हर व्यक्ति के दो नाम रखने में क्यूँ विश्वास रखते हैं. एक घर का, एक बाहर का. माना कि घर में उस व्यक्ति को ज्यादा बार बुलाने में/पुकारने में मेहनत कम करना पड़े तो नाम छोटा करके या प्यार वाला नाम पुकार कर काम चला सकते हैं तो फिर बाहर वालों से ऐसी क्या दुश्मनी कि उनसे ज्यादा मेहनत करवाने की ठान बैठे. उनके लिए भी वही प्यारा वाला नाम रख छोड़ते?

किन्हीं मित्र का कहना था कि वो तो छोटे नाम से हम स्नेहवश एवं अपनेपन के कारण पुकारते हैं. मैं समझ नहीं पाता कि फिर बाहर वालों से आप बाई डिफाल्ट ऐसा ही क्यूँ मान कर चल रहे हैं कि वो स्नेहवश न पुकारेगा या अपनेपन से पेश न आयेगा. यह तो कुछ कुछ पूर्वाग्रह पाल लेने जैसा हुआ.

पूरी शाम गुजरी वैसी ही और जैसी कि उस कॉफी हाउस में अधिकतर शामें गुजरती थीं, कोई निष्कर्ष न निकला दो नामों के औचित्य पर और बस मान लिया गया कि ऐसा ही होता है तो होता है. इसमें बहस कैसी?

सभी मुस्कराते हुए घर लौट लिए, मानों संसद से लौटते सांसद हों. निष्कर्ष निकले या न निकले, कोई फर्क नहीं पड़ता-दिन निकल जाना चाहिये, बस!!

 

coffeehouse

यूँ ही कुछ और:

बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...

-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, मार्च 02, 2011

युगपुरुष

उस रात किसी बड़ी किताब का भव्य विमोचन समारोह था. यूँ भी हिन्दी में किताबों के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके लेखक के बड़े या छोटे होने से होता है और लेखक के बड़े या छोटे होने का आंकलन उसके संपर्कों के आधार पर.

बड़े लेखक की बड़ी किताब का विमोचन हो तो विमोचनकर्ता का बड़ा होना भी जाहिर सी बात है. अतः इस समारोह के विमोचनकर्ता भी बहुत बड़े और नामी साहित्यकार थे. वह इतना अच्छा लिखते हैं कि वर्षों से इसी चक्कर में कुछ लिखा ही नहीं (शायद भीतर ही भीतर यह भय सताता हो कि कहीं कमतर न आंक लिए जाये) मगर फिर भी, नाम तो चल ही रहा है.

अधिकतर अच्छा लिखने वालों के साथ यही विडंबना है कि वो इतना उत्कृष्ट लिखते हैं, इतना अच्छा लिखते हैं कि कुछ लिख ही नहीं पाते. बरसों बरस बीत जाते हैं उनका अच्छा लिखा पढ़ने को. बस, उनसे दूसरों के बारे में सुनने और पढ़ने के लिए यही मिलता चला जाता है कि फलाने ने अच्छा लिखा और ढिकाने ने खराब. सलाह भी उन्हीं की ओर से लगातार बरसती है कि अच्छा लिखने की कोशिश होना चाहिये साहित्य को धनी बनाने के लिए. वे बिना अपना योगदान देखे, हर वक्त दुखी नजर आते हैं कि आजकल अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और यह चिन्ता का विषय है.

मंचासीन श्रृद्धास्पद विभूतियों में एक तो लेखक स्वयं, फिर मुख्य अतिथी की आसंदी को सुशोभित करते ’सुकलम सम्मान’, २००८ से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार, कविमना, उपन्यासकार, आलोचक माननीय श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री, किताब के प्रकाशक एवं कार्यक्रम के संचालक स्थानीय साहित्यकार एवं कवि श्री विराट स्तंभी जी.

सस्वर सरस्वती पूजन, माल्यार्पण आदि के बाद संचालक महोदय ने माईक संभाला और मुख्य अतिथि का परिचय प्रदान करते हुए स्तुति गान में ऐसा रमे कि यह कह कर मुस्कराने लगे कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री पुरुष नहीं हैं.

इतना कह वह मौन हो गये और मुस्कराते हुए मंच से लोगों के हावभाव देखते रहे. पूरे हॉल में इस सनसनीखेज खुलासे की वजह से सन्नाटा छा गया. सब छिपी आँख एक दूसरे को देखने लगे. संपूर्ण मंच भी असहज सा नजर आने लगा तब श्री विराट स्तंभी जी आगे बोले कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री जी पुरुष नहीं, महापुरुष हैं. तब जाकर सभागृह में जान लौटी. श्री विराट स्तंभी जी के इस बयान से उनके सहज हास्य बोध का परिचय मिला जबकि कर्म एवं नाम से वह वीर रस हेतु प्रख्यात हैं. पूरे सभागृह में करतल ध्वनि की गुंजार उठ खड़ी हुई.

विचार आया कि यदि दो वाक्यों के बीच मौन के दौरान बिजली महारानी की कोप दृष्टि पड़ जाती, तब क्या होता?

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए श्री विराट स्तंभी जी नें अन्य बातों के अलावा यह भी बताया कि माननीय मुख्य अतिथी श्रद्धेय आचार्य श्री चंडिका दत्त शास्त्री  एक व्यक्ति नहीं, अपने आप में संपूर्ण संस्था हैं.

संस्था का नाम सुनते ही मेरी रीढ़ की हड्ड़ी में न जाने क्यूँ एक अरसे से एक सुरसुरी सी दौड़ जाती है. एक चित्र खींच आता है मानस पटल पर किसी संस्था का, जिसे अपने पापों, घोटालों को अंजाम देने के लिए सबसे मुफीद और पावन उपाय मान व्यक्ति, व्यक्ति न रह संस्था में बदल जाता है. फिर गोपनीय वार्षिक बैठक, बेनामी पदाधिकरी और स्वयंभू अध्यक्ष की आसंदी पर विराजमान स्वयं वह.

देश में आजतक जितना संस्थाओं के नाम पर घोटालों को अंजाम दिया गया है, उतना शायद ही कहीं और हुआ हो किन्तु फिर भी यह प्रचलन हर जगह और खास तौर पर ऐसे समारोहों में मुख्य अतिथि के लिए लगातार देखने मिलता रहता है कि वह व्यक्ति नहीं, एक संस्था हो गये हैं.

शायद संस्था ही वह वजह हो जिससे उनका स्टेटस बिना बरसों तक लिखे भी बहुत ऊँचा लिखने वाले का बरकरार रहा आया हो, कौन जाने? संस्था के भीतर की बात जानना तो सरकारी ऑडीटर के लिए भी टेढ़ी खीर ही रहा है अतः भीतर जाने की बजाय वो बाहर के बाहर पैसे लेकर निपटारा करना सदा से सरल उपाय मानता रहा है. यह पुराणों में भी संस्था और ऑडीटर दोनों के लिए ही सहूलियत का मार्ग माना गया है. 

खैर, समारोह बहुत भव्य रहा. उतना ही भव्य मुख्य अतिथि का उदबोधन जिसमें उन्होंने पुनः साहित्य और लेखन के गिरते स्तर पर गहरी चिन्ता जतलाई और इस पुस्तक को इस दिशा में सुधार लाने का एक ऐतिहासिक कदम निरुपित किया.

इस कार्यक्रम के बाद एक और वरिष्ट साहित्यकार की श्रद्धांजलि सभा में जाना था. वहाँ भी श्रद्धांजलियों के दौर में अनेक संदेशों में मृतात्मा को एक व्यक्ति नहीं, युग बताया गया और उनके अवसान को एक युग का पटाक्षेप.

एक युग के भीतर समाप्त होते अनेक युग, हर वरिष्ठ, हर गरिष्ठ के प्रस्थान के साथ एक युग का पटाक्षेप, और एक ऐसे रिक्त का निर्माण, जिसकी भरपाई कभी संभव नहीं. शुरु से आजतक ऐसे रिक्त स्थानों की जिनकी भरपाई संभव न थी, एक एक बिन्दी के आकार का भी गिन लें तो शीघ्र ही, या कौन जाने पूर्व में ही, शायद ही कोई स्थान बचे जो रिक्त न हो.

 

literature

कैसी ये
भीषण त्रासदि
न गरीब बचे,
न अमीर

भाषा
संवेदनशीलता
इन्सानियत
सब जाते रहे....

एक उम्मीद थी जिनसे
लिखेंगे शोकगीत इनपर
उनका भी यूँ गुजर जाना

एक युग की समाप्ति नहीं
तो और क्या है?

-समीर लाल ’समीर’

<< आज उड़न तश्तरी के ५ साल पूरे हुए. इस बीच आपसे प्राप्त स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए हृदय से आभारी. कृपया अपना स्नेह बनाये रखें>>

Indli - Hindi News, Blogs, Links