तनेजा जी मित्र हैं अतः ये बात जोर देकर साधिकार कहते हैं, ’अमां, तुम समझते नहीं. हम जहाँ हैं, वहाँ शहर की चारों दिशाओं से आकर सड़कें खत्म हो जाती है.’
दरअसल, हम कुछ मित्र रोज ही शाम को शहर के चौक बाज़ार के कॉफी हाऊस में बैठ कर कॉफी पीते-समय गुजारा करते थे. मेरा मानना होता कि इस चौराहे पर आकर सड़कें खत्म नहीं होती बल्कि इस चौराहे पर आप कहीं से भी आयें, आपको चार विकल्प मिलते हैं कि अगर चाहो तो जिस राह आये हो उसी राह वापस लौट जाओ या फिर अन्य तीन में से कोई सी चुन कर नई मंजिल की ओर बढ़ जाओ. जीवन में भी न जाने कितने ही ऐसे चौराहे मिलते हैं. कुछ उसे राह का ख्त्म हो जाना मान मंजिल मान लेते हैं तो कुछ नई मंजिल तक पहुँचने के लिए उपस्थित विकल्प. स्थितियाँ सभी के लिए एक सी उपस्थित होती हैं बस यह आपकी सोच पर आधारित है कि आप उसे किस रुप में लेते हैं, मै हमेशा तीन में से विकल्प तलाश कर नई मंजिल की ओर बढ़ चलता हूँ।.
मित्र मंडली में सभी को पता रहता था कि शाम की महफिल कॉफी हाऊस में जमेगी. जैसे जैसे जिसे दिन भर के काम से निवृत हो कर समय मिलता जाता, आकर वहाँ जम जाता. वो कोने वाली १२ कुर्सियों से घिरी टेबल नित हमारा इन्तजार करती. सफेद कोट और पैन्ट में हरी बेल्ट और फुनगी वाली टोपी लगाया वेटर ’श्रीनि’ भी लगभग तय था और वो जानता था कि कौन कैसी कॉफी पीता है. उसे यह भी पता था कि तिवारी जी कॉफी के साथ दो ब्रेड बटर स्लाईस भी लेते हैं और अग्रवाल जी ८.३० बजे के आसपास डोसा खाकर घर लौटते हैं क्यूँकि वो घर पर अकेले ही रहते हैं और खाना बनाने के लिए उनके पास न तो व्यवस्था है और न हुनर. अग्रवाल जी अक्सर दुखी मन से कहते सुने जाते थे कि काश!! रसोई भी देश की सरकार के समान होती तो झंझट ही खत्म हो जाता, बिना व्यवस्था और हुनर के भी चल ही जाती.
मैं सोचा करता था कि श्रीनि का पूरा नाम शायद कभी माँ बाप ने बड़े जतन से श्रीनिवास रखा होगा लेकिन फिर खुद ही प्यारवश और सुविधा के लिए घर में श्रीनि पुकारने लगे होंगे. पूछने पर उसने बताया कि नहीं, उसका पूरा नाम वैंकटैय्या श्रीनिवासन है और ’श्रीनि’ श्रीनिवासन से निकला है. मुझे अचरज हुआ कि श्रीनि ही क्यूँ, वैंकी क्यूँ नहीं? अव्वल तो नाम उसका, मुझे अचरज करने की क्या वजह? किन्तु कॉफी हाऊस में खाली बैठे हिन्दुस्तानी, उनसे और आशा भी क्या की जा सकती है जबकि व्यस्त हिन्दुस्तानी तक उन्हीं बातों में व्यस्त हैं, जिनसे उनका कुछ लेना देना नहीं. फिर भी श्रीनि ने ही निराकरण भी किया कि उसके बड़े भाई का नाम वैंकटैय्या राधाकृष्णन है और ’पहले आओ, पहले पाओ’ की स्कीम में उसने वैंकी पर अधिकार जमाया हुआ है.
तब उस शाम मित्रों के बीच चर्चा का विषय यही बना कि आखिर भारत में हम अधिकतर हर व्यक्ति के दो नाम रखने में क्यूँ विश्वास रखते हैं. एक घर का, एक बाहर का. माना कि घर में उस व्यक्ति को ज्यादा बार बुलाने में/पुकारने में मेहनत कम करना पड़े तो नाम छोटा करके या प्यार वाला नाम पुकार कर काम चला सकते हैं तो फिर बाहर वालों से ऐसी क्या दुश्मनी कि उनसे ज्यादा मेहनत करवाने की ठान बैठे. उनके लिए भी वही प्यारा वाला नाम रख छोड़ते?
किन्हीं मित्र का कहना था कि वो तो छोटे नाम से हम स्नेहवश एवं अपनेपन के कारण पुकारते हैं. मैं समझ नहीं पाता कि फिर बाहर वालों से आप बाई डिफाल्ट ऐसा ही क्यूँ मान कर चल रहे हैं कि वो स्नेहवश न पुकारेगा या अपनेपन से पेश न आयेगा. यह तो कुछ कुछ पूर्वाग्रह पाल लेने जैसा हुआ.
पूरी शाम गुजरी वैसी ही और जैसी कि उस कॉफी हाउस में अधिकतर शामें गुजरती थीं, कोई निष्कर्ष न निकला दो नामों के औचित्य पर और बस मान लिया गया कि ऐसा ही होता है तो होता है. इसमें बहस कैसी?
सभी मुस्कराते हुए घर लौट लिए, मानों संसद से लौटते सांसद हों. निष्कर्ष निकले या न निकले, कोई फर्क नहीं पड़ता-दिन निकल जाना चाहिये, बस!!
यूँ ही कुछ और:
बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
-समीर लाल ’समीर’
68 टिप्पणियां:
यह हुई न काम की बात!
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बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
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कमाल की क्षणिका है!
काफ़ी हाउस को मिनी संसद ही मान कर चलिए। मुफ़्त की गर्मागर्म बहस के साथ काफ़ी का एक कप दो-तीन घंटे तो चल ही जाता है।
अगले दिन फ़िर वही संसद लग जाती है नियत समय पर।
कहीं कोई आपको उडी अंकल न बना डाले ,बोले तो उड़न तश्तरी अंकल ..जैसे मुझे कुछ लोग शरारत वश मछली अंकल कह देते हैं -मगर फिकर नात समीर भाई ,मर्म इसी बात में छुपा है गुलाब तो गुलाब ही रहेगा पुकारो चाहे जिस भी नाम से ...
अब तो सोचना पड़ेगा कि चौराहे पर सभी रास्ते खत्म हो जाते हैं या फिर अन्य तीन विकल्प मिल जाते हैं...
शाम होते ही जब कभी लापरवाह हो चाती है कोई एक खिड़की तो दूसरी खिड़कियाँ होशियारी से अंधेरे की चादर ओढ़ लेती हैं। फुसफुसाती हैं आपस में ..
बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
...उम्दा पंक्तियाँ मिलीं तो इसी में उलझ कर लिख दिया।
अधिकतर लोग पड़ाव को मुकाम समझ कर जीवन गुजार देते हैं।
बातो-बातो में आप गज़ब की बात कार जाते हो.
और इन चार लाईनों का अर्थ तो आप ही से समझना पड़ेगा:-
"बड़ी बेशऊर होती है वो लडकियां .
जो...................................
कभी खुद को जिताने की खातिर,
हर एक दांव जो आजमाए
मशूर भाई
लडकियां नहीं ...खिड़कियाँ..... :)
दो नाम, दो रास्ते...
दो रंग दुनिया के और दो रास्ते,
दो रंग जीवन के और दो रास्ते,
सोच समझ के पांव रखे,
समझा दो हर दीवाने को,
इक रस्ता मंदिर को जाए,
इक जाए मयखाने को,
रास्ता भूल न जाए,
राही धोखा न खाए,
दो रंग दुनिया के और दो रास्ते,
दो रंग जीवन के और दो रास्ते,
जय हिंद...
अब चश्मा नहीं चढाओ तो क्या-क्या दिख जाता है!
और दूसरी लाइन तो पढने में ही नहीं आयी !!
-M.HASHMI
http://aatm-manthan.com
ड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......badhiyaa
हर सफल बैठक का निष्कर्ष होता है, अगली बैठक कब और कहो होगी.
आपकी चर्चा गोष्ठी कोई संसद से कम नहीं .बस कभी कमी न हो उसमें, तो मधुर 'वाद' की.समीर जी वाद में तो आपको महारथ हासिल ही है."ऐसी वाणी बोलिए" पर फिर बहा दीजिए न कुछ 'वाद' की मोहक समीर.
सभी मुस्कराते हुए घर लौट लिए, मानों संसद से लौटते सांसद हों. निष्कर्ष निकले या न निकले, कोई फर्क नहीं पड़ता-दिन निकल जाना चाहिये, बस!!
सहजता से किया गया करारा व्यंग ...क्षणिका में गहन बात कह दी ..बहुत अच्छी पोस्ट
बहुत खूब ....।
कॉफ़ी हाउस का वाग्विलास किसी महत्वपूर्ण विषय पर न हो तो भी ,विचारों को उद्वेलित कर जाता है .कुछ नई खाद ,कुछ नई खुराक और कुछ नई ऊर्जा मन में रचनात्मक हलचल तो जगा ही देती है .याद करने से अब भी कहीं कुछ सक्रिय हो जाता होगा ..तभी यह लेखन ..!
कुछ हो ,खिड़कियां बंद करने से भी तो काम नहीं चलता !
चौरस्ता - घूमो फिरो कहीं पर, चाय काफी यहीं पर.
बहुत अच्छा लिखा आपने अंकल जी..
_______________
पाखी बनी परी...आसमां की सैर करने चलेंगें क्या !!
बेशऊर खिडकियाँ---- बिम्ब बहुत अच्छा लगा। पोस्ट की खासियत इसी मे छुपी है। शुभकामनायें।
कभी खुद को जिताने की खातिर अपनों को हारा हुआ दिखाए ...
क्या खूब !
अपना नजरिया तय करता है की राहें सभी ख़त्म हुई या तीन नयी राहें दिखाई दे गयी ..
लाजवाब !
.
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
Very touching lines !
.
आपने अपना तीसरा नाम नहीं बताया....दो तो हमें मालूम है...Sameer and Sam :)
बात तो सोचने वाली है ... शायद अपने कुछ ज्यादा प्यार से पुकारेंगे यही सोच कर दूसरा नाम रखा होगा ...
बातों ही बातों में दिलचस्प मोड़ दिया है ... बहुत खूब ....
achha laga apaka coffee house ka chintan.
बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
बहुत बढिया
बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
......
क्या बात है. काफी हाउस और बेसिरपैर की बहस. बस मिलने का बहाना और कुछ नहीं. बीते दिनों की याद दिला दी. बधाई.
SAMEER SAAB
PRANAM !
ROCHAK PRASTUTI .
SAADAR
रास्ता समाप्त नहीं होता चौराहे पर,
चौराहे पर नये रास्ते मिल जाते हैं।
प्रेरक
प्रणाम स्वीकार करें
BADEE BESHOOR HOTEE HAIN
VO KHIDKIYAN
JO BHEETAR KAA NAZAARAA
DIKHLAAYEN
BAHUT KHOOB ! IN DO PANKTIYON
KE NAAZUK KHYAAL MEIN DIMAAG TO
KYA DIL BHEE KHO GAYAA HAI .
दो नाम --ये हमारा प्यार दिखाने का तरीका है ।
शोर्ट नाम के साथ ऊ लगा दो तो देखो कितना मज़ा आता है । जैसे राजू , शालू ---।
लेकिन सबके साथ नहीं ।
आदरणीय समीर लाल जी क्षमा करें
गुस्ताखी कर रहा हूँ
ेंवो शाम जरुर बहुत सुन्दर होगी जब आप कॉफी हाऊस थे!सही है या नहीं!
आपके सुझाव और संदेश जरुर देना जी
kafi house ke bahaane sansad par achchha vyangy kiya hai aapne
aur antim pnktiyon ka to kahna hi kya
bahut khoob
bahut manoranjak baaten hain.
मेरा मानना हे वही से चारो ओर का रास्ता शुरु होता हे..... बहुत खुब सुरत लगा आप का यह नजरिया भी, धन्यवाद
बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
उम्दा पंक्तियाँ.
अब तो काफी हाउस भी गुजरे ज़माने कि चीज हो जायेगा. ज्यादातर तो बंद भी हो गए है. अबतो एह माहौल किस्से कहानी तक ही सिमट जाएगा.
काफी हाऊस यानि कि मिनी संसद।
ललित जी की बात पर पूर्ण सहमत।
समीर जी बहुत अच्छी पोस्ट और सबसे अच्छी आपकी क्षणिका।
आप का अंदाज़ लोगों से जुड़ा है लेकिन है निराला
Bahut khubsurat lagi panktiyan...aapke likhne ka andaaj to ha hi khubsurat...2 name par charcha pasnd aayi...aabhar
दो नामों की जिन्दगी में बहुधा एक नाम खोने लगता है। मूल चला जाता है, बस ब्याज रह जाता है।
waah
jeevan ka safar kabhi khatm nahin hota... haan ye alag baat hai ki kuchh log naye vaikalpik raaste ko pakad aage badh jaate hain to kuchh usi raaste pe wapas bhi laut jaate hain... par jindgi mein usi chauraste par ek golambar bhi hota hai aur kuchh log aise bhi jo us golambar ke charo taraf ghumte rah jaate hain jaise ki we kisi khunte bandhe hon...
बेहतरीन बहस !
रोचक संसमरण...
दो नाम न हों तो घरवालों और बाहरवालों में अंतर ही क्या रह जाएगा.. फोन पर जब कोइ उधर टिंकू, पिंटू, छोटू, बबलू बोलता है तो अपने आप जवाब मगही/भोजपुरी/अवधी में ही निकलता है... :)
ati sundar.
pranaam sweekaren..
aadarniy sir
aapki ye mitra -mandali wali baat to bahut hi achhi lagi .
isi bahane thoda mitro ka sath aur dhoda man ka halka ho jana bhi ho jaata hai.aapsi baat cheet se v bahas se kai raste aksar nikal aate hain jihen ham aksar dhunte hi rah jaate hai .
aur han! aapkixhanikaten bhi bahut bahut achhi lagin
dhanyvaad sahit---
poonam
'अव्वल तो नाम उसका, मुझे अचरज करने की क्या वजह?' अरे समीरजी, दूसरों की खोज-खबर निकालने की यह आदिम प्रवृत्ति ही तो हमारी जीवनी-शक्ति है।
रम्य पोस्ट। ताजगी आ गई पढ कर।
@बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
वाह,लाजवाब.
उपन्यासकार समीर लाल 'समीर' को पढ़ने के बाद
काफी हॉउस का ज़माना अब लुप्त प्राय सा हो गया है...कभी इन्हीं काफी हाउसों में प्रसिद्द रचना कार इकठ्ठे हो कर साहित्य पर सार्थक बहस किया करते थे...समय गुज़ारने के लिए ये सबसे उपयुक्त जगह मानी जाती थी...नव युवक और युवतियां भविष्य के सुनहरे खवाब बुना करते थे...तब फुर्सत के दिन हुआ करते थे...ज़िन्दगी में सुकून था बेकार की भाग दौड़ नहीं थी...आज काफी हॉउस हैं लेकिन अपनी पुरानी आन बान शान खोते जा रहे हैं...विदेशी काफी हॉउस उसकी खाना पूर्ती कर रहे हैं लेकिन पहले सी बात अब कहाँ...बहुत पुराने हसीन दिनों की याद ताज़ा हो गयी आपकी पोस्ट से...
नीरज
निश्चय ही,परिवार के साथ जो सामीप्य होता है,वह प्रायः बाहर के साथ नहीं हो पाता। इसमें कुछ भी गलत नहीं कि परिवार अपनी संतान का निकनेम बाहर से अलग रखना चाहता है।
श्रीनि में जो चीनी है वो श्रीनिवास में सुवास कहां ??? :)
आपने शायद "हंसी के फव्वारे" वाली बाईट नहीं सुनी एफएम पर। जो बात सुड कहने में है,वह सुदर्शन कहने में कहां!
समीर जी
चकित हूं.इतनी प्रतिक्रियाएं.मैं कहां थी,अब तक. खिड़कियां खुल गईं सारी की सारी भरभराकर. रोचक संस्मरण.एक सांस में पढ गए.और इंतजार..
संस्मरण दिलचस्प है।
क्षणिका कमाल की.....
वाह.....वाह.
badhiya likha hai. hamesha ki tarah.
zindgi ka falsafa ki mudde khatm karna zaruri nahin bas din nikal jana chahiye... coffee house ka sundar chitran... sari duniya ke intellectuals coffee house main hi milte hain lagta hai...
Adarneey Bhai ji,aapke utsahvardhan ke liye hardik dhanyavaad.Aap bhale hi bahar ho par aapka dil hamarey paas hi hai.
uttam abhivyakti,majihui kalam sey ,aur khidikiyon wali lines to note kar lee maoine kahi sanchalan mey kaam ayengee.Bahut sunder.
Aapki upanyasika bhi chahiye,pahli rachna to apney bhej di thi ,isey bhi bhijwane ka kasht kijiye.
asa hai sapariwar swasth honge.
auj,
dr.bhoopendra rewa mp
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ये संस्मरण है या शब्दों की चित्रकारी..?....ग़ज़ब का दृश्य-प्रभाव है आपकी लेखन शैली में. हम तो आपके मुरीद हो गए सर!
----देवेन्द्र गौतम
बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
....क्या बात है...बहुत खूब...लाजवाब....
बात ही बात में अरविंद जी ने तो बड़ा रोचक नाम बताया है - मछली अंकल :)
थोड़ा मॉडर्न स्टाइल से पुकारना हो तो संभवत : 'कॉर्प अंकल' जैसा शब्द बने :)
मस्त पोस्ट है। राप्चिक।
आखिर भारत में हम अधिकतर हर व्यक्ति के दो नाम रखने में क्यूँ विश्वास रखते हैं. एक घर का, एक बाहर का. माना कि घर में उस व्यक्ति को ज्यादा बार बुलाने में/पुकारने में मेहनत कम करना पड़े तो नाम छोटा करके या प्यार वाला नाम पुकार कर काम चला सकते हैं तो फिर बाहर वालों से ऐसी क्या दुश्मनी कि उनसे ज्यादा मेहनत करवाने की ठान बैठे...
इस तरह तो कभी सोचा ही न था...बहुत सही कहा आपने....लेकिन एक दिक्कत है..एक ही नाम रखना पड़े तो अधिकाँश जो छोटे गोल मटोल बच्चों को गोलू मोलू सोनू इत्यादि के नाम से पुकारा जाता है शायद इतने होंगे कि पुकारना पड़ेगा..गोलू ११३२०८९०००.. गोलू ११३२०८९००१ .....
बड़ी बेशऊर होती है वो खिड़कियाँ
जो भीतर का नज़ारा दिखलायें......
कभी खुद को जिताने की खातिर
वो अपनों को ही हारा दिखलायें...
"आपनो की हार में जो अनकही कसक सी है.....वो सच में कही ना जाए "
regards
एक बेहतरीन संस्मरण ! उपरोक्त पोस्ट चंडीगढ़ से प्रकाशित समाचार पत्र ' आज समाज ' के दिनांक ९/३/२०११ के अंक में भी प्रकाशित हुई है
आभार .............
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