जब से पत्नी गुजरी, हर सुबह एक अलग तरह से जागती है, आज वो खिड़की से आते एक सर्द झोकें के साथ दालान में बैठे बेटे बहु की फुसफुसाहट की आवाज के साथ जागी.
आज देर तक सो गया अन्यथा बेटे बहु के जागने के पहले ही मैं दालान में पहुँच जाता हूँ और फिर जब वो जाग कर बाहर आते हैं, तब तक मैं अखबार का पहला पन्ना लगभग पढ़ चुका होता हूँ. बेटे के आते ही मैं न जाने किस अनजान भयवश अखबार उसके आगे उसके पढ़ने के लिए कर देता हूँ. वह अखबार हाथ से लेते हुए कहता भी है कि नहीं, आप पहले पढ़ लीजिये मगर मेरे एक आग्रह पर वो पढ़ने लगता है. हालांकि अखबार मेरे शहर का है, जहाँ मुझे रोज रहना है और उसे कल को चले जाना है मगर फिर भी. कहीं टोक न दे कि आपके पास तो सारा दिन है पढ़ने को. लगभग रोज सुबह की चाय इस तरह साथ होती है. बस, सिर्फ यही एक ऐसा समय होता है जब सिर्फ हम साथ बैठे होते हैं.
बेटा बहु कुछ दिनों की छुट्टियाँ बिताने घर आये हैं. कहते तो हैं कि मेरे साथ समय बिताने आये हैं लेकिन अक्सर ही दोनों अपने कमरे में बंद टीवी देखते रहते हैं या फिर कहीं अपने दोस्तों के साथ बाहर सिनेमा देखने या होटल गये होते हैं. हर बार मुझे समझा देते हैं कि मुझे साथ इसलिए नहीं लेकर जाते कि मैं थक जाऊँगा या मुझे तकलीफ होगी या बाहर ठंड बहुत है.
फुसफुसाहट से नींद खुलते ही न जाने क्यूँ मुझे लगा कि जैसे वो मेरे बारे में ही बात कर रहे होंगे. मैं उठकर खिड़की से सटकर खड़ा हो गया और उनकी बातें सुनने लगा. अपने किसी दोस्त के परिवार की चर्चा कर रहे थे और उन बातों पर हँस रहे थे. एकाएक नौकर चाय लेकर पहुँचा तो बहु ने उससे पूछा कि बाबू जी जागे नहीं क्या? कमरा बंद करके सोता हूँ तो नौकर को पता ही न था कि मैं जाग गया हूँ. उसने कह दिया कि अभी सोये हैं.
मैं आशान्वित था कि अब मेरा जिक्र आ गया है तो नौकर के हटते ही मेरी बात होगी. न जाने क्यूँ मुझे हमेशा लगता है कि पीठ पीछे ये मेरे बारे में बात करते हैं. मैं १५ मिनट तक जड़ खड़ा रहा और खिड़की के पीछे.से एक एक बात सुनता रहा किन्तु मेरा जिक्र न आया और फिर दोनों किसी बात पर हँसते हुए उठे और अपने कमरे में चले गये.
तब मैं कमरे के बाहर आया और दालान में आकर कुर्सी खींच कर बैठ गया और अखबार पढ़ने लगा. नौकर चाय ले आया.
रोज जिस चाय की उष्मा से मुझे उर्जा मिलती थी, स्फूर्ति मिलती थी और मैं तरोताजा हो जाया करता था, आज वही उष्मा मेरे भीतर अंगार सी उतर रही थी और न जाने कैसी अजब सी कमजोरी का अहसास करा रही थी.
गुलाबी ठंडक वाली सुबह की शीतल बयार मेरे शरीर को जला रही थी और मैं पसीने में भीगा यह सोच रहा था कि अब कल सुबह ही बेटे बहु के साथ बैठना हो पायेगा.
किसी ने सही ही कहा है कि अक्षमतायें और असुरक्षा की भावना अपने साथ कितनी ही आशंकायें लेकर आती हैं
न जाने कहाँ से छा गये ये कुहांसे
खुशी हो किसी की, हुए हम रुआँसे
सुबह आ के धीरे से कहती है हमसे
चलो जाग जाओ, कि बाकी हैं सांसे...
-समीर लाल ’समीर’
पिछले अंक:
पीले पन्नों पर दर्ज हरे हर्फ : एक बुजुर्ग की डायरी-१
चितरंजन अस्पताल का कमरा नं. ४११: एक बुजुर्ग की डायरी-२
नोट: संभवतः यह नोस्ट्स कल को किसी उपन्यास का हिस्सा बनें…..
73 टिप्पणियां:
असक्षमतायें और असुरक्षा की भावना अपने साथ कितनी ही आशंकायें लेकर आती हैं
कितनी गहरी और सच्ची बात है....
जीना ही होगा,
बात हो न हो,
रात हो न हो,
रिश्तों में प्यास,हो न हो।
हृदय को कब हटायेगा,
उन्हे यह कब बतायेगा,
नहीं तुझ पर टिकी दुनिया,
मेरा भी ईश आयेगा।
जीना ही होगा।
आपकी पोस्ट पढ़ बस बह गया। आभार।
गुलाबी ठंडक वाली सुबह की शीतल बयार मेरे शरीर को जला रही थी और मैं पसीने में भीगा यह सोच रहा था कि अब कल सुबह ही बेटे बहु के साथ बैठना हो पायेगा
" इस पीड़ा को आखिर कौन समझ पायेगा..."
regards
बहुत मार्मिक पोस्ट, जाने क्यूँ ज्यादातर लोग यह भूल जाते हैं कि एकदिन वो भी बूढ़े होंगे ... असुरक्षा की भावना उन्हें भी घेर लेगी ...
बहुत वेदना छुपी है इस लेख में..
हर दिन नये एहसास को जन्म देती है जिन्दगी.
चलो अब जाग जाओ कि बाकि है सांसे...
उत्तम.
समीर जी ,स्थिति का निरूपण बहुत सही है -देख सुनकर दुख होता है .
पिछली पीढ़ी के बुज़ुर्ग ऐसे दयनीय नहीं थे .अब भी वे शुरू से सचेत रहें अपने अधिकार छोड़ न दें और अपनी ज़रूरत भर के निर्वाह हेतु पैसा ,अपने ढंग से रहने की चर्या ,थोड़ी सामाजिकता आदि में अपनी सामर्थ्य बनाए रखने का प्रयत्न करें तो यह स्थिति नहीं आये .
:):):)
pranam.
कितनी स्वाभाविक आशंकाएं ...?? हिला दिया आपने ...
जियेंगे हम भी शायद ...
:-(
इसीलिए,पत्नी को 'जीवन'साथी कहा गया है।
समीर जी ...
बुजुर्ग की डायरी के तीनों पन्ने एक साथ पढ़े ...आपने एक बुजुर्ग की ज़िंदगी को इन पन्नों में बहुत सूक्ष्मता से जिया है ...हर लफ्ज़ जैसे एक बुजुर्ग की रूह से निकला हो ...और जब ऐसे क्षण खुद की ज़िंदगी में भी कभी कभी महसूस होते हों तो आपका यह लिखा मन को झकझोर भी देता है ...
बहुत मार्मिक पोस्ट...
मैने सोचा ये उसने आपसे मेरे लिये कहा है। बुढापे मे कितना कुछ सहन करना पडता है जब कि साहस जवाब दे चुका होता है। मार्मिक अभिव्यक्ति। शुभकामनायें।
dukhad tasveer
kitna nireeh ho jata hai aadmi kabhi-kabhi.bhawbhini aapbeeti.
चलो अब जाग जाओ कि बाकि है सांसे...
पीड़ा की शहनाई की यही धुन सबसे अच्छी लगती है!
--
बहुत सुन्दर पोस्ट लिखी है आपने!
GADYA KE SAATH PADYA KE TAAL - MEL
BITHAANE MEIN AAP PRVEEN HAIN .
AAPKEE LEKHNI SE EK AUR VICHAARNIY RACHNA HAI .
Raat ke shaant vatavaran mein
aapkee " dekhoon to chloon" ke
20 pages bade pyar aur tanmayta se
padh gayaa . Rachnaa ko pathniy
banaanaa aap khoob jaante hain !
जी हां, उपन्यास का हिस्सा बनना ही चाहिये।
बहुत गंभीरता दिखी जो मर्म को छूती है।
जीवन के इस पक्ष के बारे में चिंतन करवाती सार्थक पोस्ट ...!
वृद्धावस्था का सचित्र चित्रण किया है आपने। इस अवस्था में उन्हे परिवार का साथ आवश्यक हो जाता है,वे चाहते हैं कोई उन्हे पूछे। लेकिन होता इसका विपरीत है।
आभार
baza farmaya... akshamtayein asuraksha lekar aatin hain...apane bhi paraye lagne lagte hain...mere pita ji purana akhbaar pasand nahin karte...mujhe bhi subah kharab karne ki aadat nahin...
kisis ranjish ko hava do ki mai jinda hoon abhi...
chahe bete se akhbaar chhinna hi pad jaye...lekh ke saath-saath kavita bhi bahut khubsoorat hai...
बहुत ही संजीदा पोस्ट... पूरी रवानगी से पढ़ गया एक ही बार में....
मैंने भी ऐसे दर्द को समझा है .. जबकि सब कुछ होते हुवे भी जोड़े के साथी के बिना असुरक्षा की भावना आ जाती है... तब वे बाते जो पहले ज्यादा मतलब नहीं रखतीं थी वो यकायक उसमे भी बदलाव दिखने लगते हैं.... अकेलापन बहुत ... यह मैंने अपने माँ के बाद पिता जी को देखा ... बहुत दर्द होता है... खैर ...
आपकी पोस्ट बहुत मार्मिक सी लगी .. तो ऐसा ही एक चेहरा पिता का नजर आया ...
सादर ...
कल चर्चामंच में डायरी का ये पन्ना होगा ...आभार
भावुक कर देने वाले चित्रण।
उम्र से पहले भविष्य का लेख लिखना एक कवि की कल्पनाशक्ति दर्शाता है ।
बहुत सुन्दर वर्णन किया है एक बुजुर्ग की दिनचर्या का ।
सोचने के लिये बहुत कुछ है इस पोस्ट में. काश, वे बैटे-बहू भी पढ सकें इस पोस्ट को, जिनके द्वारा बुज़ुर्ग उपेक्षित होते हैं.
यह तो हर वृद्ध की व्यथा है। कल हो न हो :(
आपकी रचना पढ़कर सबसे पहले यह बात मन में आई कि साहित्यिक पत्रिकाओं से अलग भी उच्च कोटि का साहित्य रचा जा रहा है.
मैं पिछले कुछ महीनों से ज़रूरी काम में व्यस्त थी इसलिए लिखने का वक़्त नहीं मिला और आपके ब्लॉग पर नहीं आ सकी!
बहुत मार्मिक पोस्ट! बेहतरीन प्रस्तुती!
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति !!
wow,awesome.
बहुत वेदना है आपकी इन बातों में ...
वृद्धावस्था गहरी असुरक्षा का भाव भी लाती है ..
समय आ गया है की भारतीय समाज में भी वृद्धों की देखभाल को सिर्फ परिवार की नहीं , वर्ण समाज की जिम्मेदारी के रुप मे लिया जाए !
sach kaha asurksha ki bhawna na jaane kaya 2 kara deti hai....ye to soch hai...likhte rahiye bahut hi acha likha ha han jarur eak din ye dil ko sparsh kar dene vaala upnyas bangega...shubhkamnayen
.
बुज़ुर्ग की डायरी के पन्नों को पढ़कर मन उदास हो गया । विद्धावस्था में मन अनेक आशंकाओं से घिर जाता है । ऐसे में बहुत ज़रूरी है परिवार के युवा एवं बच्चे उनके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएं.
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न जाने कहाँ से छा गये ये कुहांसे
खुशी हो किसी की, हुए हम रुआँसे
सुबह आ के धीरे से कहती है हमसे
चलो जाग जाओ, कि बाकी हैं सांसे...
बहुत ही भावमय करती यह पंक्तियां ...नि:शब्द करती प्रस्तुति ...आभार ।।
'वृद्धाश्रम' का दिनोदिन बढते जाना ही दर्शाता है कि वृद्धों की उपेच्छा परिवारों में बढती जा रही है.
वास्तव में जीवन को शायद चार आश्रम ब्रहमचर्य,गृहस्थ ,वानप्रस्थ और सन्यास में इसीलये बांटा गया .ताकि अंत समय सन्यास में रह कर व्यक्ति परिवार से ध्यान हटा केवल आत्मानुसंधान की तरफ ही केंद्रित हो.क्योंकि इसके बाद तो शरीर को छोड़ते समय तो सभी रिश्तों को तिलांजलि देनी होती है.
पिछले दोनों भागों को पढ़ा.. एक बेहतरीन श्रृंखला बुनने के चरण में है... मैं कुछ टिप्पणी नहीं कर सकता.... बस बेहतरीन है...
एक कटु सत्य है जिससे सभी को आगे पीछे रूबरू होना ही है. बहुत मार्मिक.
रामराम.
बेहतरीन ! बुजुर्गों के प्रति घटती संवेदना चिंता का विषय है इस विश्व के लिए... सादर
bahut hi marmik kahani
jivan ki vastvikta hai yah to,
बुजुर्गों की पीडा को आखिर कौन समझेगा?
इस मार्मिक कहानी के लिये मेरी शुभकामनाएं कबूल किजिये, तिवारी साहब का सलाम.
अक्षमतायें और असुरक्षा की भावना अपने साथ कितनी ही आशंकायें लेकर आती हैं
.
हमेशा की तरह हकीकत के करीब
sochne par majboor karti prabhaavshali rachna.
समीर जी आपने एक उम्रदराज पिता के मन की आशंकाओं को कैसे महसूस किया पता नहीं लेकिन चित्रण अच्छा है . आपको सम्मान मिल रहा है 30 अपेरैल को बहुत बहुत बधाई
अक्षमतायें और असुरक्षा की भावना अपने साथ कितनी ही आशंकायें लेकर आती हैं...
शब्दशः सत्य है....
सर्जना जी
बहुत आभार आपका. आप सबका स्नेह है.
'एक बुज़ुर्ग की डायरी' के तीनों संस्मरण आज एक साथ पढ़े और मन द्रवित हो गया ! जीवन के इसी दौर से हम भी गुजर रहे हैं जबकि बच्चे बाहर हैं और चिंता, प्यार, आदर मान सब कुछ रहते हुए भी महसूस होता है कि उनके पास वक्त शायद कम ही है ! आज नहीं तो कल इन्हीं परिस्थितियों से हम सबको दो चार होना पडेगा ! एक गहन उदासी से मन भर गया है ! संवेदना से भरपूर एक सार्थक आलेख ! बधाई एवं शुभकामनायें !
बहुत मार्मिक पोस्ट...
वाह अंकल जी, अगले उपन्यास की अभी से तैयारी...
किसी ने सही ही कहा है कि अक्षमतायें और असुरक्षा की भावना अपने साथ कितनी ही आशंकायें लेकर आती हैं...
उम्र के इस पड़ाव पर आदमी अपने आप को कितना लाचार और असुरक्षित पाता है..बहुत गहन चिंतन और आज के समय की सच्चाई..लगा यह आज के हरेक बुजुर्ग की कहानी है..आभार
jeena ise ka naam hai..... yeh prakarati ka niyam hai pyar ke badle pyar -----nahi to lachaar...
jai baba banaras...
बुजुर्ग की डायरी....अंतस को झकझोरता लेख...
आभार...
man jaane kaisa kaisa ho aaya ..
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे,
जय हिंद...
बहुत मार्मिक पोस्ट
बहुत वेदना छुपी है इस लेख में
आने वाले सच को परिभाषित करती डायरी की यह एंट्री..
किसी ने सही ही कहा है कि अक्षमतायें और असुरक्षा की भावना अपने साथ कितनी ही आशंकायें लेकर आती हैं......
आज ऐसी प्रथा या गासिप का सामान्य विषय हो गया है कि बेटा और बहु बुजुर्ग माता पिता को उपेक्षित ही करेंगे. लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता. बहुत से परिवारों में उन्हें पूरा मान और सम्मान मिलता है. व्यस्तता के कारण कभी कम समय दे पाते हों पर उनके लिए कुछ करने का जज्बा या अपनी जिम्मेदारियों से गुरेज कतई नहीं है. शुभकामना .
क्या बात है समीर जी ......?
ये गंभीर गंभीर लेखन क्यों .....?
सिर्फ लेखन है तो ठीक है ....
वरना हमें तो मस्त मौला समीर जी ही पसंद हैं ...
एक जिंदादिल इंसान ...
जो सबके काम आये ....
a bitter fact..
बहुत भावपूर्ण रचना |सत्य घटना जैसी लगती है |मेरे ब्लॉग पर आ कर प्रोत्साहित करने का लिए आभार
आशा
Dear Samir,
It appears, as if you have penetrated my mind and have expressed MY experinces to a large extent. My situations are very much similar to the imaginary person in your story,but I wonder how you could write such a touchy story at your age!
Sorry for not being able to write in HINDI.
यह आम-घरों की कहानी है.बुजुर्गवार समय के हिसाब से अपने को 'अडजस्ट'नहीं कर पाते और इस तरह बाकी ज़िन्दगी ढोते हैं.''मेरा नाम करेगा रोशन,जग में मेरा राजदुलारा..' गाने वाला बाप कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा लेता है.यह परेशानी तब दुगनी हो जाती है जब पत्नी भी साथ न हो.
एक और कविता इस पर है,''दादाजी, नाराज़ हैं,रोज़ रहा करते हैं.....''
मानव मनोविज्ञान का रोचक पन्ना खोलनेवाली इस पोस्ट ने बडी देर तक विह्वल किए रखा।
Dear Samir,
After having posted my comments yesterday,I noticed two other pages of the Diary,and have gone through these pages immediately,not only once ,but several times.
Since I am also passing through almost identical situations, I feel your main charecter is very TIMID and having a very PASSIMISTIC attitude toward life.I wish you may add a next pageof the Diary, with some modifications, to make him more BOLD, Accommodating,and lesser Passimistic. This would infuse confidence and LIFE in all your readers. I would solicit your views .
दुआ साहब
आपका ईमेल भिजवायें तो कुछ बात चीत करना चाहूँगा इस विषय पर.
सादर
समीर लाल
ek peeda k
ek sukhad anubhooti aur sath me ek ajeeb sa khali pan....bas ek kasmasahat si chhod gayee man me...
हम सब एक दिन वृद्द होंगे .....काश कि "बुद्द होकर वृद्द हों" !!
ये बातें बहुतों के घर में पायी जायेंगी...वैसे मुझे पिछला भाग और ये वाला भाग पढ़ते पढ़ते लगा भी था की ये एक उपन्यास का शकल भी ले सकती है...अंत में आपने लिख भी दिया.
आदरणीय श्रीसमीरलालजी,
बहुत सटीक चित्रण किया है आपने।
वानप्रस्थाश्रममें हर सांस हर बार बाहिर आकर सर्वे करती है, फिरसे भीतर जाऊँ या न जाउँ..!!
और सुबह की चाय कड़वा पानी लगती है,शायद यही बुढ़ापे की नियति होती है?
मार्कण्ड दवे ।
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