रमेश बाबू के साथ आज हम चाय की दुकान पर बैठे थे, रमेश बाबू बातूनी आदमी और हम चुप रहने वाले, हमने अखबार उठा लिया और पढ़ने लगे.मगर रमेश बाबू ... वो कहाँ किसीको चुप रहने दें......कहने लगे कि--- का समीर बाबू... टीवी,मोबाईल, नेट के जमाने मे भी ई ..आर्ट फ़िलम की तरह अखबारे में घुसे रहते हैं ...कभी मौर्डनियाईयेगा कि नहीं? अख़बारों का अब भी कोई मतलब है?
बस, उनके ऐसे ही प्रस्न हमें बर्दाश्त नहीं होते तो हम कहे कि रमेश बाबू, मतलब काहे नहीं है जी अखबार का? यात्रा करना बिल्कुले छोड़ दिये का ? चप्पल काहे में लपेट के धरियेगा.. कपड़ों के बीच वी आई पी सूटकेस में?? बताईये बताईये..और जानिये कि अगर रेल( जैसा कि होइबे करता है ), विलम्ब से चल रही हो और पूरा स्टेशन यात्रियों से खचाखच भरा हो , तब बैठियेगा काहे पर?... कि खड़े खड़े ही आठ घंटा गुजार देंगे?... भीड़ एसन ही तो लग नहीं गई होगी?. आये दिन की पार्टी रैली में से एक यह भी है. सब दिल्ली जायेंगे. अब गई आपकी रिज़र्व सीट भी. उनसे झगड़ियेगा? गुंडा लोगों से..अरे नहीं नहीं, नेता लोगों से? वैसे तो एक ही बात है. तब काहे पर बैठ कर सफर करेंगे? यही अखबार न काम आयेगा…बोलिए....बोलिए ...
चलिए, नहीं जाईये कहीं घूमने फिरने..घर में ही गतियाये किताबें पढ़ते रहिये तो आले में बिना अखबार बिछाये किताबें सजाईयेगा? बताईये-इका.. कौनो आल्टरनेट है?.. और फिर उ... किताब पर तो जिल्द भी इसी से न चढ़ाते हैं कि भूरा पन्ना खरीद के लाते हैं??
गरमी का हालत नहीं देखे हैं का , रमेश बाबू? अभी करंट चला जाएगा तब पढ़ते रहियेगा किताब. बता दे रहे हैं.... कि तब ई अखबार ही काम आयेगा पंखा झलने के.
हमरे गांव की नुक्कड़ पर उ गुमटी वाला तो इसी की पूँगी बना कर चना/चबेना बेचता है सदियों से. काहे गरीब के पेट का ख्याल नहीं आया आपको?..चलिए, न आया होगा इतना संवेदनशील हृदय नहीं होगा. मरने दिजिये उसको भी भूखा. जब चना उगाने वालों को मरने दिये सब लोग, किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी तो इन बेचने वालों की क्या बिसात. इसी अखबार में न छपा था?-- कि कितने किसान आत्महत्या कर लिए थे? बताईये जरा कितने थे? टीवी न्यूज तो रिवाईंड नहीं न कर पायेंगे मगर पुराना अखबार तो बता ही देगा, जरा खोजिये तो.
जाने दिजिये, कहाँ मन खट्टा करियेगा मगर वो छुटकु तो घर में है न..जरा उसकी अम्मा से पूछियेगा...कितने काम आता है अखबार..केतन डायपर घर में खराब करियेगा केतन डायपर घर में खराब करियेगा जी गवैंठी शहरी लेखक...लिख लिख के और कविता गा कर टाटा बिड़ला तो नहिये हो जायेंगे. फिर कैसे अफोर्ड करियेगा? दो जून की रोटी आ रही है लिख लिख कर, इतना ही तरक्की लेखक के लिए एतिहासिक मानिये, कम से कम हिन्दी में और तनि ये भी पूछिएगा कि सिगड़ी काहे से जलाएगी?...और उ महंगावाला सारी...रेसमी के बीच में का धरती है?.....कभी देखे हैं? अउर कभी ड्रायक्लीन/प्रेस को कपड़ा दिए है का? उ धोबी का रखता है कपड़ा का बीच में? अउर जो कभी पिकनिक-विकनिक गए हो तो ई तो जानते ही होंगे कि काहे में खाए थे पूड़ी-सब्जी अउर जो पानी नहीं था तो हाथ भी तो साफ़ करे ही होंगे न....अब कहिए त..अखबारों का कोई मतलब है कि नहीं? ......
अच्छा ये बताईये रमेश बबू, उस रोज जब आप राधेश्याम जी के पिता जी की अर्थी के संग मुँह लटकाये गमगीन मरघटाई चले जा रहे थे, तो कहाँ से जाने थे?-- कि उनके पिता जी गुजर गये. अखबार से ही न... कि कोई लाऊड स्पीकर पर घोषणा हुई थी? या जी टी वी वाला दिखाया था?. जानते तो हैं आप कि जाना कितना जरुरी है, आप नहीं जायेंगे तो ऐसा हादसा सब के साथ होना है, कभी आप के साथ भी होगा तो क्या अकेले ढोकर ले जाईयेगा खुद को?या चलकर जाइयेगा ?.. . बिना अखबार पढ़े तो न जान पाईयेगा कि शहर में कब कौन पहचान का बैकुंठ के राजमार्ग पर चल पड़ा. कभी पुण्य तिथि मिस करियेगा तो कभी तेहरवीं. अकबका कर बस मुँह-बाये हाय हाय करते रहियेगा- कि हम तो जानबे नई करे ....
देखबे करता हूँ कि आप सिनेमा भी बड़े शौक से देखते हैं- आँख मिचका मिचका कर. आखिर तीन घंटे का समय बिना किसी से मूंह छिपाये गुजर भी जाता है, बिना ग्लानि के. तब बताईये कि कहाँ देखियेगा कि कौन सिनेमा कहाँ खेला जा रहा है. टॉकिज टॉकिज तो नहिये घूमियेगा अपनी खटारा स्कूटर लेकर बीबी को बैठाये.
किसी को हम तो खैर नहीं बतायेंगे आपके बारे में मगर आप तो हमें बता ही दिजिये कि सब कर लेंगे मगर सट्टे का नम्बर कहाँ से मिलायेंगे?. हम तो सुने हैं कि पिछले ३० दिन के नम्बर से आप चार्ट बना कर अगले दिन का बड़ा सिद्ध नम्बर निकालते हैं, उसका क्या?
वैसे आपको बता देते है कि ऐसा किसी प्रिंट मिडिया के पत्रकार से मत कह दिजियेगा. उनको बड़ी ठेस पहुँचेगी. आप क्या समझते हैं कि कहीं और वो क्लर्की कर लेंगे. पगार तो बराबर की पा ही जायेंगे मगर वो जो पुलिस और सरकारी अधिकारियों को चमका कर गठरी पाते थे वो क्या आप देंगे? अरे, खुद का तो ठिकाना नहीं, उनको क्या दिजियेगा? उत्ती मोटी गठरी देने लायक जो आप होते तो एसन बात करते भला? और जो देते भी त गठरी को कपड़ा में लपेटते का?
एक बात और बतायें रमेश बाबू, कभी किसी मध्यम वर्गीय भले मानस से पूछियेगा. वो भले ही १५० रुपया अखबार खरीदने में खर्च कर देता हो महिने भर में मगर तीन महिने बाद जब उसे रद्दी वाले को झीक झीक कर के बेच कर ६० रुपये पाता है, उस वक्त उसको जिस आलोकिक सुख की अनुभूति होती है?... वो अद्वितीय है. अह्हा!! आनन्दम आनन्दम!! क्या उसका यह जरा सा सुख भी छीन कर ही मानियेगा?
चौराहा सूना करवाईयेगा क्या? आधा लोग तो चाय-पान की दुकान पर सुबह इक्कठा ही इसलिए होता है कि फ्री का अखबार पढ़ लिया जायेगा. एक पन्ना तू, एक मैं और फिर बदल कर. फिर उस पर चर्चा. कितना अच्छा लगता है चहल पहल देखे है? चौराहे पर. मगर आप कहाँ बर्दाश्त कर पा रहे हैं. न खुदे रौनक पैदा करते है, न कौनो रौनक बच रहने देना चाहते हैं.
कभी सोचे है कि बड़े सरकारी अधिकारी दफ्तर जा कर क्या करेंगे अगर अखबार नहीं आयेगा? मख्खी मारेंगे क्या? मख्खी मारने की तनख्वाह मिलती है भला?और जो उनको नाक-कान में सरसराहट हुई तो बैठे-बैठे .... कितना जरुरी है उनके लिए अखबार.
और फिर जरा ऊँचा दिखने की आपकी ख्वाहिश तो जाने कबकी मर गई है. मरी क्या, थी ही नहीं मगर जिनमें है, उनको तो अंग्रजी का फायनेनशियल टाईम पढ़ते पढ़ते पब्लिक पलेस में जगह जगह अंडरलाईन करने दिजिये. उनकी अभिजात्यता से भी कौनो दुश्मनी है क्या? उ क्या बिगाड़े हैं आपका?
क्या क्या बताया जाये आपको रमेश बाबू, सारे नेता लोगों की रैली में चार ठो लोग इक्कठा हो जायें बिना अखबार के तो बहुत बड़ी बात मानियेगा. कहिये तो लिख कर दे दें.
अच्छा रमेश बाबू, जरा गंभीरता से सोचियेगा कभी कि जवान बिटिया के लिए लड़का तलाशते असफल थका हारा मजबूर बाप अपनी माँ और बीबी के ताने या फिर बेटे की स्कूल की बड़ी फीस चुकाने के बाद खाली जेब लिए अपने बेटे से नये फैशन को वाहियात बताते नई जिन्स के लिए नकारता खीजा हुआ मध्यमवर्गीय बाप, इसी अखबार में तो मुँह छिपा कर अपनी हताशा और खीज को ढांक अपने मुखिया होने की रक्षा करता है.
ये वो ही अखबार है जो हर भिनसारे दुनिया भर के बड़े बड़े दुखों को मुख्य पृष्ट पर छाप कर लोगों को अहसास दिलाता है कि तुम्हारा दुख कितना छोटा है और उन्हें हौसला देता है अपने दुखों को भूल एक और दिन हिम्मत से जीने का.
कितनी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी निभाता है हमारा यह अखबार.
यह भला कभी भी अपनी प्रासंगिगता खो सकता है?
आप नहीं न समझ पायेंगे!!! रमेश बाबू!! आप तो चाय पिजिये!
वो
रोज मुझे पढ़ती है
कभी मेरे दुख
कभी खुशियाँ
कभी रंगीनियाँ
तो कभी
काले हर्फों में दर्ज
मेरे अवसाद
और
फिर
सर झटक कर
मगन हो जाती है
अपनी किसी और दुनिया में...
अखबारों की भला उम्र ही कितनी होती है!!!
-समीर लाल ’समीर’
122 टिप्पणियां:
kamal ka likha kaya kahne ....
एक अखबार, फायदा हज्जार!
अखबार पुराण बहुतै उम्दा लगा.
बहुत सही है .... एक अखबार, फायदा हज्जार!
अख़बारों में समाचारों के साथ एक चिंतन-पक्ष भी होता है ,उसके लेखों में ,और पत्रों में ,साथ ही जीवन के कुछ अन्य पक्षों के लिए भी उपयोगी सामग्री .दूसरों का दृष्टिकोण समझने और अपना बनाने में भी सहायक हैं.
अख़बारों में समाचारों के साथ एक चिंतन-पक्ष भी होता है ,उसके लेखों में ,और पत्रों में ,साथ ही जीवन के कुछ अन्य पक्षों के लिए भी उपयोगी सामग्री .दूसरों का दृष्टिकोण समझने और अपना बनाने में भी सहायक हैं.
अखबार की जगह इन्टरनेट कभी नहीं ले सकता ...प्रमाणित कर दिया आपने ...
कविता अच्छी लगी अखबार हो या कोई इंसान!
जापान ही दुनियाँ का पहला देश है जिसने इस्लाम को प्रतिबंधित किया.
बहुत अच्छा, एक बार पढ़ना शुरू किया तो रुका ही नहीं गया, आपकी पुस्तक भी खरीदनी ही पड़ेगी, फ्लिप्कार्ट पर उपलब्ध है क्या?
जापान ही दुनियाँ का पहला देश है जिसने इस्लाम को प्रतिबंधित किया.
बहुतै उम्दा ...अखबार वालों से एडिटर का आफर है क्या ....
:-)
शुभकामनायें !!
अखबारों में खबरों के अलावा इतनी खबरें छिपी हैं, समझिये न रमेश बाबू।
bahut hi badhiyaa
और इस आलेख को भी छपना चाहिए-किसी अखबार में!
जबरदस्त मौलिक रचना!मुला दुःख केवल इस बात का कि वो साठ रूपया घरवाली झटकती है :)
जबरदस्त मौलिक रचना!मुला दुःख केवल इस बात का कि वो साठ रूपया घरवाली झटकती है :)
यह पेपर का इशू भी मजेदार लिखा आपने,यह कभी कभी टिशू पेपर का भी काम करता है...
अभी तो इतने ही और गिनाए जा सकते हैं अखबार के उपयोग। अब बींदनी सब्जी काहे पे रख के साफ करेगी अउर हम कार के काँच काहे से साफ करेंगे जी?
समीर जी ,बहुत बढ़िया पोस्ट , मज़ा आ गया पढ़ कर
सच है जो मज़ा अख़बार पढ़ने का है वो किसी दूसरे माध्यम में कहाँ
बधाई और धन्यवाद
samir ji
समीर जी मैं टिपण्णी इसलिए नहीं कर रहा की आपने बढ़िया लिखा. ये बात बार बार कहने की जरुरत नहीं आप उच्च श्रेणी के लेखक हैं. बस मैं आज आपको एक सच्चा सेकुलर कांग्रेसी होने की बधाई देना चाहता हूँ. मेरी बधाई स्वीकार करें.
अखबार के इतने सारे उपयोग ....नेट तो कतई नहीं ले सकता अखबार की जगह ..
कभी मेरे दुख
कभी खुशियाँ
कभी रंगीनियाँ
तो कभी
काले हर्फों में दर्ज
मेरे अवसाद..
गहन मंथन ...अच्छी लगी रचना
एक पन्नी अखबार की कीमत तुम क्या जानो रमेस बाबू...
जय हिंद...
24 घंटॆ के टेलीविज़न चैनलों के बीच भी सुबह का अखबार अपनी सार्थकता बनाये हुये है।
बहुत खूब लिखा आपने!
are bhai , Biwi ki ulahna sunne se bachne ke liye akhbar me muh chupana bhi to padta hai, aur kabhi ulahna sunne ka man ho to bhi to akhbar hi kaam aata hai , hai ki na !
so true ...kinda sad !
कितनी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी निभाता है हमारा यह अखबार....
बहुत बढ़िया...
मध्यमवर्गीय बाप, इसी अखबार में तो मुँह छिपा कर अपनी हताशा और खीज को ढांक अपने मुखिया होने की रक्षा करता है.
छोटी-छोटी चीजों को उठाकर आप कितनी गहरी बात कह जाते हैं।
प्रणाम स्वीकार करें
हम तो ऑफिस में रोटी भी अखबार में ही लपेटकर लाते हैं जी
और नाई की दुकान पर अपने नम्बर आने का इंतजार करना मुश्किल हो जाये, जो अखबार ना हो तो
प्रणाम
तुम्हारा दुख कितना छोटा है और उन्हें हौसला देता है अपने दुखों को भूल एक और दिन हिम्मत से जीने का.....
अखबारों की भला उम्र ही कितनी होती है!!!
कितनी बड़ी बात...फिर भी उम्र भर जीने का हौसला देते हैं... "मौर्डनियाईयेगा " अच्छा लगा....
बहुत ही गहरी और विचारणीय बात सामने रखी है आपने.इंटरनेट और टी वी आज हमारे जीवन का भले ही एक अंग बन चुके हैं लेकिन सुबह की पहली चाय का असली मज़ा अखबार के संग ही मिलता है.
अखबारों का महत्त्व कभी खत्म नहीं होगा.
सादर
अखबारनामा के क्या कहने? कोई कोना नहीं छूटा। बहुत ही वजनदार।
http://amit-nivedit.blogspot.com/2010/11/blog-post_22.html
अख़बार के फ़ायदों पर खूब लिखा आपने...
साथ ही -
फिर
सर झटक कर मगन हो जाती है
अपनी किसी और दुनिया में...
अखबारों की भला उम्र ही कितनी होती है!!!...
के साथ खबरों के प्रति आम दृष्टिकोण भी याद दिला दिया...
बहुत बहुत बधाई।
आपको आपकी फोटो सहित राजस्थान पत्रिका में छपने पर बधाई ! अभी अभी ही पुराना अखबार देखने पर पता चला (घर पे तो पत्रिका आता नहीं )
विचारशुन्यजी के इशारे को समझिये, ना समझ पाए तो मैं निवेदित करना चाहुंगा कि वे सलीम खानजी की विषयांतरित और जापानी सुनामी के परिपेक्ष्य में बेहूदी टिपण्णी के सन्दर्भ में, विचार शून्य जी ने आपको सच्चा सेकुलर कांग्रेसी कहा है
शानदार लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम !
अरे जेई बात तो लोग समझते नहीं हैं... बताइए तो...
बहुतै बढ़िया लिखो है...
अख़बारों की उम्र ही कितनी होती है ...
मेडिया से ज़्यादा ही होती है .... नशे की तरह ... बीबी की तरह ... लत लग जाती ही तो छूटती नही ....
मस्त लिखा है समी भाई ...
हम तो कभी गिने ही नही , आपतो बहुत फायदा गिना दिये ।
सच कहे आप रद्दी के पैसे से जौन आननद मिलत है , ओहका तो का कहने ।
यह बात पक्की है कि आपने मौज लेने के लिए लिखा है,
लेकिन मैं खुद प्रिंट मीडिया से जुड़ा हूं, लगातार खबरें लिखता हूं, उन लोगों की खबर भी लिखता हूं जो अखबार नहीं खरीदते, उनके लिए भी जो अखबार खरीदते हैं और पढ़ते नहीं है, उन युवाओं के लिए भी जिन्होंने नेट और इलेक््ट्रॉनिक के चक्कर में अखबार को अभी पढ़ना भी शुरू नहीं किया है....
आमतौर पर मेरे चारों ओर ऐसे लोग होते हैं जिन्हें खबरों से फायदा होता है या जो खबरों में बने रहने से फायदा उठाते हैं,
इसके बावजूद मेरा ध्यान आम आदमी पर होता है, उसे नहीं पता कि सरकार की नई पॉलिसी या किसी शीर्ष सरकारी अधिकारी की कारस्तानी से उसे क्या नुकसान होने वाला है, मैं उसकी खबर बनाता हूं
उस खबर पर कुछ असर होता है, कभी अधिक तो कभी कम...
और वापस जाकर पूछता हूं कि कैसा लगा मेरा प्रयास,
दस में से नौ बार जवाब मिलता है मैंने हैडिंग तो पढ़ी थी, लेकिन पूरी स्टोरी अब पढूंगा.. मेरा दावा है वह जो पीडि़त होने वाला था, कभी पूरी स्टोरी नहीं पढ़ता...
गम्भीर पत्रकारिता के बीच यह टीस अन्दर तक है कि अब अखबार का वह जमाना नहीं है जो आजादी के आंदोलन और बाद में तीव्र राजनीतिक गतिविधियों के बीच रहा होगा....
किसी बड़ी घटना या दुर्घटना के विश्लेषण के समय कुछ लोग जरूर अखबार देखते हैं... लेकिन अधिकांश लोगों के लिए यह अब भी सुबह के समय घर में आ पड़ने वाले आवश्यक अथवा अनावश्यक खर्च की तरह है, कभी बन्द भी कर दिया तो कभी सर्वेयर के कहने पर शुरू भी कर दिया... अधिक फर्क नहीं पड़ता...
अखबार का एक पहलू यह भी...
http://amit-nivedit.blogspot.com/2010/11/blog-post_22.html
हर दिन उम्मीदों के नये सबेरा के साथ ताजा अखबार.
"चप्पल काहे में लपेट के धरियेगा.. कपड़ों के बीच वी आई पी सूटकेस में?? बताईये बताईये.."
हा-हा-हा-हा .... एकदम सटीक उपयोग बताया !
@ अखबार क्या सिर्फ पढ़ा जाता है, जो नेट से काम चल जाये?
इस पर एक नज़्म के दो पंक्तियां अर्ज़ है
“आप क्या ग़ौर से पढती हैं मेरे चेहरे को,
छोड़िए मैं तो हूं अखबार पुराने कल का का”
तो यही फ़र्क़ है। अखबार तो पुराना होकर भी रद्दी की रैक पर रहता है, और कबार साफ़ करते समय काम में आता है, कुछ दे जाता है।
और नेट ... पेज पुराना पड़ने लगे तो लोग रिफ़्रेश का बटन दबा देते हैं, या डिलिट कर देते हैं।
"अखबारों की भला उम्र ही कितनी होती है!!!"
बहुत अच्छा लिखा है जी आपने...!!!
अखबार का नजरिया... अखबार लिख पाता तो शायद अपने बारे में ऐसा ही कुछ लिखता ...बहुत खूब पकड़ा अखबार को आपने ... ... अखबार का इस्तेमाल और इसका दर्द ..उम्र ही कितनी है अखबार की...
अति सुन्दर लेख और कविता अद्वित्य
ट्रेन पर बड़ा काम आता है अखबार... ट्रेन लेट है तो टाइम पास कीजिये 'रंगीन पन्ना' पढ़ के अंदर बोगी में सीट न मिले (या मिले भी तो रेलवे के सफाई विभाग की विशेष कृपा वाली) तो इकोनोमी वाला पन्ना बिछा के बैठ जाइए.. स्थानीय वाले पेज पर झाल-मूरी रखके खाते हुए एडिटोरियल पेज पढके आसपास माहौल क्रियेट कीजिये और फिर ऐसा मुंह बनाते हुए कि जैसे उससे बेहतर कॉलम तो आप लिख सकते हैं, उसी पेज से मुंह पोछकर फेंक दीजिए... :)
kya baat hai sameer ji aap to shaa gaye. kabhi gaal sehla rahe ho to kabhi chamaat laga rahe ho
bahut khoob.
poem bhi mashaallah
aur ramesh babu ka to jeena muhaal kar diya aapne aur chaye bhi nahi peene d. jabki aap bolte bahut kam hai na...... ;)
akhbar jo ki ek aam aadami ke bar bar aata kam-------bahut umda ....
jai babab banaras.......
वाह रे समाचार-पत्र !!
बिना पात्रता के ही कभी भी कोई भी चाटने लग जाता है.
अखबार का इतना फायदा तो खुद अखबार को भी मालूम नहीं होगा ।
जे बात अखबार का एके काम भूल गये हैं आप विदेशी लोग के कभी कभी पोछने के काम भी आता है भाई
भाई ये अखबार वालों ने क्या कोई पेटी सेटी भिजवा दी है । :)
वैसे अख़बारों के रहते तो अब इंटरनेट की भी ज़रुरत महसूस नहीं होती । :) :)
बढ़िया हास्य व्यंग लेख ।
Bahut sare to hamen bhi pata nahi the.
---------
पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?
aadarniy sir
bahut bahut hi behatreen tareeke se akhbaar ki mahima ka bkhaan kiya hai.
itni gahrai se to ham soch bhi nahi sakte the.
behad umda abhi vykti
sadar dhanyvaad
poonam
एक मुहावरा है सर, आज का अखबार चाट डाला :)
bina akhbaar padi chain kahan milta.. aur dheere dheere yah netnuma akhbaar bhi ek adat se ban rahi hai..
bahut badiya prastuti...
अखबार न होता तो पेड न्यूज कैसे होती. लाला कैसे बनते-बिगड़ते. बहुत फायदे हैं..
भई नेट की सामग्री तो एक क्लिक में गायब हो जा सकती है मगर अखबार में तो जो छप गया सो रहेगा।
का समीर साहेब, सिर्सकबा देखते ही अखबार का केतना धांसू-धांसू आईडिया देमाग में आया था पर आप एक्को नाहीं न छोड़े.
बहुते बढ़िया रहा.
बहुत रोचक अन्दाज़ में आपने अखबार का महत्व बताया है । ये सच है भी कि खबरों का महत्व न समझने वाले भी एक आदत की तरह ही अखबार पढ जाते हैं ।
सादर .....
@@एक बात और बतायें रमेश बाबू, कभी किसी मध्यम वर्गीय भले मानस से पूछियेगा. वो भले ही १५० रुपया अखबार खरीदने में खर्च कर देता हो महिने भर में मगर तीन महिने बाद जब उसे रद्दी वाले को झीक झीक कर के बेच कर ६० रुपये पाता है, उस वक्त उसको जिस आलोकिक सुख की अनुभूति होती है?... वो अद्वितीय है. अह्हा!! आनन्दम आनन्दम!! क्या उसका यह जरा सा सुख भी छीन कर ही मानियेगा?...
इस सुख की याद काहे दिला रहे हैं?
wah...gazab ka lekh,gazab ki kavita..
अखबार ने अपनी मर्मव्यथा आपसे कहवा ली....आपसे सुपात्र और कौन मिलता इसे...
बहुत अच्छी प्रस्तुति !! धन्यवाद
बहुत ही बढ़िया अखबार-विवेचन
blog jagat ke utkrisht lekhan ka namoona hai ye vyangya post.. waah sir
भाई समीर जी सुंदर पोस्ट होली की रंग बिरंगी शुभकामनाएं |
अखबार एक फ़ायदे अनेक ......अखबार का विकल्प अभी तो सम्भव नही . लेकिन रोज़ कितने पेड कट्ते होंगे अखबार के कागज़ के लिये यह खोजने की बात है
एक सुन्दर प्रस्तुति!
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
बहुत ही गहरी बात सामने रखी है
अखबारों का महत्त्व कभी खत्म नहीं होगा.
अति सुन्दर लेख और कविता
कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
माफ़ी चाहता हूँ
bade hi rochak dhang se akhbaar ki upyogita samjhane ke liye badhai...parsai ji padhte to khush ho jaate...ka batai baua lekhwa bautai majedaar lagal...
तलवार की अपनी उपयोगिता है और सुई की अपनी।
'देखि बडेन को लघु न दीजे डारि।'
दोनों की तुलना बमानी है। समझदारी इसी में है कि दोनो का समुचित उपयोग करते रहा जाए।
अखबार के उपयोग का इनसाइक्लोपीडिया उपलब्ध कराने क लिए धन्यवाद।
अखबारों की प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं होगी |
अखबार ही तो इस गाने की याद दिला रहा है ,
"आज की ताजा खबर ,आज की ताजा खबर
सुनो बाबूजी इधर ,सुनो लालाजी इधर ,
आज की ताजा खबर "
अति सुंदर लेख.अपनी दुर्गति कराता हुआ अखबार
केवल विज्ञापनों की वजह से ही अभी जिन्दा है.
हम भी आपकी 'टिपण्णी' की खातिर ही ब्लॉग जगत में अभी जिन्दा हैं,वर्ना तो ...राम नाम सत्य है,सत्य बोलो गत्य है .
"ऐसी वाणी बोलिए" सिसक रही है अभी भी आपकी टिपण्णी के बैगर.क्या कहेंगे समीर बाboo ?
वाह जी,
मज्जा आ गया.. एक अखबार के फायदे हज़ार...
ज़िन्दगी के छोटे-छोटे पहलू में अख़बार छुपा है जानते थे, पर आज एक ही जगह सब पढ़कर बहुत बढ़िया लगा..
आभार
चलती दुनिया पर आपके विचार का इंतज़ार
अब समझ आया कि आज सुबह अखबार इतना इतरा क्यों रहा था, हाथ में थम ही नहीं रहा था.आपने तो उसका हर गुण गिना दिया.अखबार की कॉलर होती तो जरूर ऊपर कर लेता.
घुघूती बासूती
'एक सोलह-पेजी अखबार की कीमत आप क्या जाने रमेश बाबू ?' वैसे विश्वसनीयता के मामले में अखबार अभी भी आगे हैं और वे हमारे जीवन के अंग-से हैं...मुझे तो रोज़ दस-बीस अखबार भी मिल जाएँ तो भूख शांत नहीं होती !
एक अनछुए पहलू को बड़े सलीके से,हमरी बोली में प्रस्तुत किया है !आभार !
लेख और कविता ....दोनों अद्वितीय |
आजकल चिठ्ठाजगत सही काम नही कर रहा है। क्या उपाय करूं।
रमेश को बाबू को अखबार के ऐसन कमाल के फायदे बता दिए हैं के देख रहा हूँ बाज़ार से वो ही नहीं बहुत से लोग अखबार पे अखबार खरीदे जा रहे हैं...:-)
गज़ब की पोस्ट है ...ठीक आप जैसी ही.
इस बार होली पे आपको याद करके जो सामने आया उसे खूब रंग लगायेंगे...कसम से...आपसे न मिल पाने की पूरी भडांस निकालने का इरादा है...देखते हैं कौन फंसता है चंगुल में ...ही ही ही ही
नीरज
@ अखिलेश जी
सब इन्तजार कर रहे हैं,आप भी करिये....
तब तक:
http://hamarivani.com/
एवं
http://www.apnablog.co.in/
से काम चलाते रहें.
हर चीज़ की अपनी अपनी अहमियत है कोई दूसरा उसकी जगह कैसे ले सकता है? गहन चिन्तन किया अखबार पर भी। मै तो रोज़ रजाई मे बैठ कर अखाबार के ऊपर प्लेट रख कर खाना खाती हूँ अखबार नही होगा तो खाने का आनन्द अधूरा रह जायेगा। अखबार की जगह कोई नही ले सकता।बधाई
akhbaar ke faayde hajaar wakai badhiya post
अरे बाप रे। अखबार की इतनी सारी खुबियॉ।
होली की शुभकामनाएॅ।
:)..........ye smile aapke liye..!
happy holi bhaiya!
उडन तश्तरी जी,
वेबसाईट पर बहुत सारे एकाउंट आ गए हैं ईसलिए ब्लागींग के लिए ज्यादा टाईम नही मिलता है, कई बार सर्वर भी क्रैश हो जाता है तब कई दिए एसे ही बेकार चले जाते हैं
अख़बार तो मनन करने और गुनने की भी चीज है, नेट तो बस सरसरी तौर पर जानकारी देकर रह जाते हैं. शानदार पोस्ट के लिए बधाई.
होली की भी आपको सपरिवार बधाइयाँ.
आपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
देख लूँ तो चलूँ .. पढ़ी ..बहुत स्मूथली आगे बड़ते गए उसमे पता ही नहीं चला की इतनी तेजी से हम आगे बड गए जबकि एक बड़े तुलनातमक पह्लूवो पर भी पूरा नजरिया गया .... बहुत कुछ समझने को मिला ... मुझे बहुत पसंद आई किताब ... बहुत ही सुन्दर रचना है ..अभी कुछ पन्ने शेष हैं ... आपका आभार ...:))
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति. सच अख़बार खबर के साथ साथ बहुत कुछ देता है. समाज में इसके इस योगदानों को भुलाया नहीं जा सकता..
वाह क्या कहने, समीर भाई.बहुत बढिया...
आपको और आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
बिलकुल सही लिखा है, इन अख़बारों का तो कोई आप्सन ही नहीं है जी
ही...ही.... :)
ईतना हिम्म्त कहां से लाउंगा :)
Holee kee dheron shubhkamnayen!
एक अखबार ने देखो कैसा किया है कमाल,
इस बहाने 'मनसा वाचा कर्मणा' पर आप आये,
और दे डाली टिपण्णी बेमिशाल
ब्लोगर जन ने भी इसी बदोलत
आपकी पोस्ट पर टिप्पणिओं से मचाया है धमाल.
एक अखबार ने देखो कैसा किया है कमाल.
मेरे ब्लॉग पर आपके आने का बहुत बहुत आभार.
आपको, और सभी ब्लोगर जन को होली की
हार्दिक शुभ कामनाएँ.
हफ़्तों तक खाते रहो, गुझिया ले ले स्वाद.
मगर कभी मत भूलना,नाम भक्त प्रहलाद.
होली की हार्दिक शुभकामनायें.
भजन करो भोजन करो गाओ ताल तरंग।
मन मेरो लागे रहे सब ब्लोगर के संग॥
होलिका (अपने अंतर के कलुष) के दहन और वसन्तोसव पर्व की शुभकामनाएँ!
आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनायें।
होली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं। ईश्वर से यही कामना है कि यह पर्व आपके मन के अवगुणों को जला कर भस्म कर जाए और आपके जीवन में खुशियों के रंग बिखराए।
आइए इस शुभ अवसर पर वृक्षों को असामयिक मौत से बचाएं तथा अनजाने में होने वाले पाप से लोगों को अवगत कराएं।
होली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं। ईश्वर से यही कामना है कि यह पर्व आपके मन के अवगुणों को जला कर भस्म कर जाए और आपके जीवन में खुशियों के रंग बिखराए।
आइए इस शुभ अवसर पर वृक्षों को असामयिक मौत से बचाएं तथा अनजाने में होने वाले पाप से लोगों को अवगत कराएं।
एकदम सही ,अखबार तो हमरे जिनगी का हिस्सा है
सर झटक कर
मगन हो जाती है
अपनी किसी और दुनिया में...
अखबारों की भला उम्र ही कितनी होती है!!!
bahut gahri baat kah daali is rachna ke madhyam se ,haapy holi aapko .sabhi mitro ko ..
आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं । ठाकुरजी श्रीराधामुकुंदबिहारी आप सभी के जीवन में अपनी कृपा का रंग हमेशा बरसाते रहें।
अखबार की उपयोगिता पर कमाल का लेख..कविता बहुत सुन्दर...होली की हार्दिक शुभकामनायें!
होली कि हार्दिक शुभकामनाये !
होली की हार्दिक मंगलकामनायें....
आपको होली की शुभकामनाएँ
प्रहलाद की भावना अपनाएँ
एक मालिक के गुण गाएँ
उसी को अपना शीश नवाएँ
मौसम बदलने पर होली की ख़शियों की मुबारकबाद
सभी को .
एक अखबार, फायदा हज्जार|
होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|
बहुत सुन्दर ज्ञानवर्धक प्रस्तुति
आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएं
आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएं
होली का त्यौहार आपके सुखद जीवन और सुखी परिवार में और भी रंग विरंगी खुशयां बिखेरे यही कामना
रंग-पर्व पर हार्दिक बधाई.
chaliye aapne to sudh li :)
holi ki shibhkamnayen!
बहुत बढ़िया बात कही है आपने ... अरे अखबार की जगह कभी ये कम्प्युटर ले सकता है भला !
आपको और आपके परिवार को होली की शुभकामनायें !
चाय पी ली है। और तीन अखबार में से एक बन्द करने का मन था - यह पढ़ कर वह इरादा मुल्तवी कर दिया है।
अद्वितीय है. अह्हा!! आनन्दम आनन्दम!!
aapki hi post se churaya hai maine yah comment...
अंकल आप तो रियली ग्रेट ही हो। कहाँ से कहाँ आपकी ये उड़नतशतरी पहोच जाती है ? आय कांट बिलीव। बहुत मजा आया लेख पढ़कर और उसमे जो संदेस था वो भी पढ़कर।
कहीं पर मैनें पढ़ा कि आप दादू बन गये हो। आपको बहुत बहुत बधाई और होली पर भी शुभकामनायें।
समीर जी, बधाई स्वीकार करें की आपके इस लेख को समाचार पत्र स्थान मिला. शायद यहीं कारण रहा की आपका यह लेख मुझे बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर खिंच लाया. पूरा लेख पढ़ा और पढ़ कर दिल गार्डन-गार्डन हो गया. आपकी भाषा इस लेख में जहाँ बहुत खूब जच रही है वहीँ आपकी लेखनी ने तो कमाल ही कर दिया. बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं.
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