सोमवार, जुलाई 29, 2013

जन्मदिन पर गुरुदेव का आशीष!!

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उफ़ क्यों याद दिलाता कोई

उम्र ढल रही धीरे धीरे

गाकर गीत जनम दिन वाले

और बजा कर ढोल मजीरे

लेकिन जग की रीत यही है

औपचारिकी होना ही है

घिसा हुआ वह हैपी हैपी

रोना सबको रोना ही है

लेकिन कुछ ऐसे भी तो हैं

सदा लीक से हट कर चलते

दोपहरी का दीपक बन कर

नौका एक रात की खेते

उनसे ही ले  नाधुर प्रेरणा

मुझको केवल यह कहना है

हर दिन, उगते सूरज जैसे

दीप्तिमान तुमको रहना है

आंधी,बरसातें,झंझाएं

कोई बाधा बन ना पाए

दिवस आज का बरस पूर्ण यह

गीत आपके ही दोहराये.

सादर

शुभकामनाओं सहित

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राकेश खंडेलवाल

http://geetkalash.blogspot.ca/

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सोमवार, जुलाई 01, 2013

पहाड़ के उस पार….इस बार मेरी आवाज़ में

सुनिये:

समीर लाल ’समीर’ की आवाज में उनकी एक कविता

 

मेरे कमरे की खिड़की से दिखता

वो ऊँचा पहाड़

बचपन गुजरा सोचते कि

पहाड़ के उस पार होगा

कैसा एक नया संसार...

होंगे जाने कैसे लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

आज इतने बरसों बाद

पहाड़ के इस पार बैठा

सोचता हूँ उस पार को

जिस पार गुज़रा था मेरा बचपन...

कुछ धुँधली धुँधली सी स्मृति लिए

याद करने की कोशिश में कि

कैसे था वहाँ का संसार..

कैसे थे वो लोग...

क्या तुमसे थे?

क्या मुझसे थे?

इसी द्वन्द में उलझा

उग आता है

एक नया ख्याल

जहन में मेरे

दूर

क्षितिज को छूते आसमान को देख...

कि आसमान के उस पार

जहाँ जाना है हमें एक रोज

कैसा होगा वो नया संसार...

होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

पहुँचुंगा जब वहाँ...

कौन जाने कह पाऊँगा

तब वहाँ की बातें..

कुछ ऐसे ही या कि

बनी रहेगी वो तिलस्मि

यूँ ही अनन्त तक

अनन्त को चाह लिए!!

बच रहेंगे अधूरे सपने इस जिन्दगी के

जाने कब तक...जाने कहाँ तक...

तब कहता हूँ..

“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा

वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, जून 18, 2013

हरे सपने...एक कहानी..मेरी आवाज़ में..

उसे भी सपने आते थे. वो भी देखती थी सपने जबकि उसे मनाही थी सपने देखने की.

माँ के पेट के भीतर ही थी तब वो खूब लात चलाती, यह सोचकर कि माँ को लगेगा लड़का है. लेकिन माँ न जाने कैसे जान गई थी कि लड़की ही है. माँ ने उसे तभी हिदायत दे दी थी कि उसे सपने देखने की इजाजत नहीं है. अगर गलती से दिख भी जाये तो उनका जिक्र करने या उन्हें साकार करने की कोशिशों की तो कतई भी इजाजत नहीं. ऐसा सोचना भी एक पाप होगा.

जन्म के साथ साथ यही हिदायतें माँ लगातार दोहराती रही,  लेकिन सपनों पर आजतक किसका जोर चला है जो अब उसका चल जाता… वो देखा करती थी सपने. मगर न जाने क्यों उसके सपनों का रंग होता हमेशा हरा, गहरा हरा....सपने....हाँ..वो देखा करती... हरे सपने. जितना वो सपनों में उतरती वो उतने ही ज्यादा और ज्यादा हरे होते जाते.

समय बीतता रहा. सपने अधिक और अधिक हरे होते चले गये. स्कूल जाती तो सहेलियाँ अपने सपनों के बारे में बताती, गुलाबी और नीले सपनों की बात करतीं. मगर वो चुप ही रहती. बस, सुना करती और मन ही मन आश्चर्य करती कि उसके सपने हमेशा हरे क्यूँ होते हैं? उसे गुलाबी और नीले सपने क्यूँ नहीं आते? उसके सपने रंग बिरंगे क्यूँ नहीं होते...हमेशा..बस..हरे...एकदम गहरे हरे.... हरे सपने... सपनों के बारे में बात करने या बताने की तो उसे सख्त मनाही थी. आज से नहीं, बल्कि तब से जब वो माँ की कोख में थी.

चार बेटों वाले घर की अकेली लड़की, बहन होती तो शायद चुपके से कुछ सपने बाँट लेती उसके साथ, लेकिन वो भी नहीं. माँ से बांटने का तो प्रश्न ही न था. उसने ही तो.. सपने देखने को भी सख्ती से मना कर रखा था. क्या पता वो खुद भी कभी सपने देखती थी या नहीं..मगर बहैसयित माँ....नहीं, उसने यह इज़ाजत उसे कभी नहीं दी...कभी नहीं...तब भी नहीं..जब वो कोख में थी.

बहुत मन करता था उसका...उन हरे सपनों को जागते हुए बांटने का. उन्हें जीने का. उन्हें साकार होता देखने का. यह सब होता तो था मगर उन्हीं हरे सपनों के भीतर... एक हरे सपने के भीतर बंटता... एक और दूसरा हरा सपना. एक हरे सपने के बीच... सपने में ही सच होता.. दूसरा हरा सपना. हरे के भीतर हरा, उस हरे को और गाढ़ा कर जाता. उसे लगता कि वो एक हरे पानी की झील में डूब रही है. एकदम स्थिर झील. कोई हलचल नहीं. जिसकी सीमा रेखा तय है. साहिल तो है ....मगर उसका कोई सहारा नहीं...डूब जाना ही मानों तकदीर हो उसकी...उस हरे पानी की झील में..

कई बार कोशिश की सपनों में दूसरा रंग खोजने की. शायद कभी गुलाबी या फिर नीला रंग दिख जाये. हल्का सा ही सही. जितना खोजती, उतना ज्यादा गहराता जाता हरा रंग और तब हार कर उसने छोड़ दिया था किसी भी और रंग की अपनी तलाश को सपनों में. सपने हरे ही रहे, गहरे हरे. रंग बिरंगे सपनों के सपने उसके भीतर ही कैद रहे.... कभी जुबान तक आने की हिम्मत न जुटा पाये और न कभी वह सोच पाई उन्हें साकार होते देखने की बात को. माँ की हिदायत हमेशा याद रहती.

स्कूल खत्म हुआ. कालेज जाने लगी लेकिन सपने पूर्ववत आते रहे वैसे ही हरे रंग के और दफन होते रहे उसके भीतर...क्योंकि उन्हें मनाही थी बाहर निकलने की, किसी से भी बताये जाने की... या कोई साकार रुप लेने की.

कालेज में एक नया माहौल मिला. नये दोस्त बने. सपनों के बाहर भी एक दुनिया बनी, जो हरी नहीं थी. वह रंग बिरंगी थी. वो उड़ चली उसमें. पहली बार जाना ...कि डूब कर कैसे उड़ा जाता है.. बिना पंखों के. वो भूल गई.. कि जिसे दरवाजा खोलने तक की इजाजत न हो ...उसे बाहर निकलने की अलग से मनाही की जरुरत कहाँ. वो तो स्वतः ही समझ लेने वाली बात है. किन्तु रंगों का आकर्षण ...उसे बहा ले गया.. अपने संग... उसे उड़ा ले गया अपने संग.

फिर वह दिन भी आया ...जब तह दर तह दमित सपनों का दबाव इतना बढ़ा.. कि वो एक ज्वालामुखी के विस्फोट की शक्ल में... लावा बनकर बाहर बह निकला.. सब कुछ जलाता और उस शाम वो अपने रंगों की दुनिया में समा गई ....और भाग निकली..... अपने सपनों से बाहर उग रहे.. एक ऐसे रंग के साथ, जो हरा नहीं था.

उस शाम बस्ती में कहर बरपा. दंगा घिर आया... सुबह के साथ ही दो लाशें बिछी मिली चौराहे पर. एक उसकी खुद की... और एक उसकी जिसके साथ वह भाग निकली थी. नहीं दिखा कहीं वो हरा रंग ....और न ही गुलाबी या नीला. बस दोनों रक्त की लालिमा में सने थे....

वो निकल पड़ी अपनी लाश को छोड़... उस दुनिया में जाने के लिए, जो रंग बिरंगी है. जहाँ सभी रंग सभी के लिए हैं. एक बार पलट कर उसने देखा था अपनी लाश की तरफ.... रक्त की लालिमा में लिपटा हरा रंग.... हरे सपनों की कब्रगाह...उसका खुद का बदन...अब वह जान चुकी थी अपने हरे सपनों का रहस्य.... उसका नाम था... शबाना ...

एक नजर उसने बगल में पड़ी लाश पर भी डाली. रोहित.. अपनी लाश के भीतर अब भी... जिन्दगी तलाश रहा था.

वह मुस्कराई उसकी नादानी पर ...और चल पड़ी अपनी नई दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ने... उसे कोई मलाल न था.

आज बहुत खुश थी वो. ...अपने हरे सपनों को.. अपने ही बदन की कब्र में दफना कर...

 

सुनिये मेरी में:

समीर लाल की आवाज में उनकी लिखी कहानी- हरे सपने
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रविवार, जून 02, 2013

देखता हूँ मुड़ कर

इसे पढ़िये और एक नया प्रयोग किया है तो सुनिये यू ट्यूब पर….

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देखता हूँ मुड़ कर

और

सोचता हूं उम्र की इस दहलीज़ तक

पहुँचने के लिए

सीढ़ी दर सीढ़ी का सफर

सीढ़ी कहूँ इन्हें या

कहूँ वक्त के साथ

नित बनते बिगड़ते रिश्तों की

कहानी की इक किताब के पन्ने

या कह दूँ इसे

कुछ पा लेने

और कुछ खो देने की

हिसाब की बही..

जी चाहता है

उन्हीं सीढ़ियों तक लौट

किसी सीढ़ी पर कुछ देर बैठूँ सुकूँ से

तनिक सुस्ताऊँ

कहीं कुछ याद कर मुस्कराऊँ और

कुछ सीढ़ियों को अनदेखा कर

बस यूँ ही लाँघ जाऊँ...

कितने पन्नों को सहेज

छिपा लूँ अपने दिल में

और कुछ पन्नों को

अलग कर दूँ किताब से..

याद आते हैं

कुछ अनायास दर्द देकर खो गये

और कुछ बेवजह निर्लज्ज मुझसे आ जुड़े पल

चलो!! मिटा दूँ इन्हें उस हिसाब की बही से

बस! अक्सर यूँ जी चाहता है मेरा...

मगर ये जिन्दगी!!

कुछ मिटता नहीं

कुछ भूलता नहीं

सब दर्ज रहता है

यहीं कहीं आस पास

उन्हीं सीढ़ियों में दफन

जिन्दा सांस लेता...

कि किताब के पन्ने

आँधी में फड़फड़ाते हों जैसे!!

-समीर लाल ’समीर’

लिंक यू ट्यूब का:

 

समीर लाल ’समीर’
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शुक्रवार, मई 17, 2013

मैच फिक्सिंग: सरकार इस्तिफा दे!

इतना बड़ा खुलासा. लाखों करोड़ों रुपयों का लेन देन और साथ में सेक्स स्कैंडल.

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श्री शांत के साथ साथ दो और खिलाड़ी. खिलाड़ियों समेत कई अन्यों पर शक की सुई. विपक्ष फिर भी चुप. आप की पार्टी तक चुप. ओए, क्या हो गया है इनको?? इतना चुप तो पहले कभी न थे ये...

हद हो गई आश्चर्य में डालने की. कलमाड़ी तो खुद से खेले भी नहीं थे कॉमन वेल्थ में, तो खेल की दिशा तो खैर क्या मोड़ते या बदलते, उस पर से इस मंहगाई के जमाने में उन्हें मात्र अपनी सूखी सेलरी के अलावा केवल कमीशन का आसरा जीवन बसर करने के लिए. सेलरी के सिवाय, न तो घूस घूस खेलने की हर क्रिकेट मैच की तरह फीस, न ही घूस के खेल में मैन ऑफ द मैच घोषित हो जाने के बावजूद क्रिकेट की तरह इनामों की बारिश, न ही माडलिंग के अलग से रोल और पैसे, न किसी प्रॉडक्ट के ब्राण्ड एम्बेस्डरी से कमाई. मगर उनके पैसे खा जाने पर इतना हल्ला. लोकपाल बिल, जेल और बस, मात्र एक डिमाण्ड- सरकार इस्तिफा दे.

टू जी, हैलीकाप्टर, बोफोर्स, गैंग रेप, बिजली के भाव, सरबजीत की मौत, शाराबी को शहीद का दर्जा, नल में पानी का आभाव, टूटी सड़क, पटवारी की सौ रुपये की घूस- हर बात में सरकार इस्तिफा दे. प्रधान मंत्री नैतिक जिम्मेदारी लें.

मगर आज इतने बड़े स्कैंडल में विपक्ष की भूमिका फिक्स सी सिखती है- जिसमें सारे चैनल जान दिये दे रहे हैं पिछले २४ घंटों से- हर पहले से ज्ञात सट्टेबाजी की जानकारी को सनसनीखेज खुलासा बताते हुए. ड्रामेबाजी में जाने किस किस अज्ञानी को पकड़े स्ट्रिंग ऑपरेशन की शूटिंग में व्यस्त- जहां सटोरीया और पंटर और बुकी की परिभाषा गलत बताई जा रही है. इतना बड़ा बुकी, इनको इन्टरव्यू देते हुए कोड लैग्वेज की जानकारी देते हुए- ५०० करोड़ को कोड में ५०० पेटी बताता है और सारी दुनिया जानती है कि इसे उस कोड भाषा (क्या वाकई में वो कोड है??) में ५०० खोखे कहते हैं – ५०० पेटी ५०० लाख को कहते हैं. मगर हड़बड़ी बताने की ऐसी कि कोई एडिट तो क्या करता इन सब खुलासों को. बस चला दी खबर. बुला ली पैनल और लगे सवाल पर सवाल करने. जैसे ही कोई पेनल का सदस्य कोई लॉजिकल बात करे जो इनके खुलासे को काटती हो या उसे गलत साबित करे तो उसे समय की कमी बता कर तुरंत छोटी सी ब्रेक और फिर ब्रेक से लौट कर आये तो वो बंदा ही गुम. गज़ब!! मानो श्रीशान्त की मकर का तौलिया- इस ओवर में है और देखते देखते अगले ओवर में गुम.

जिस दिल्ली के पुलिस मुखिया को कल तक यही चैनल नकारा घोषित कर विदा कुये जाने की तैयारी करवाये दे रहे थे वही आज इन्हीं के कारण इस खुलासे के बाद हीरो का स्टार दर्जा हासिल किये नये खुलासों के साथ आने की तैयारी में हैं. स्टारडम तो ऐसा ही होता है. आज है- कल नहीं -परसों फिर हासिल. अमिताभ होना आसान नहीं. बहुत कुछ फिक्स करना होता है.

अब तक शक हो रहा है कि विपक्ष भी शामिल है इस मामले में वरना ऐसा कौन सा मामला इस लेवल का रहा है जिसमें सरकार से इस्तिफा न मांगा गया हो.

आई पी एल फिक्स- अंडरवर्ल्ड शामिल- लड़कियों का इस्तेमाल. किसी का कहना कि आई पी एल बना ही सट्टेबाजी के लिए है. आई पी एल सट्टेबाजी की धूरी. एकाएक सट्टेबाजों की देश भर में धरपकड़- जैसे कल तक इस बारे में पुलिस को कुछ मालूम ही नहिम था. धन्यवाद मिडिया, आपने पुलिस को सूचना दे दी वरना उनको कौन बताता और वो कैसे जान पाते.

सिद्धु कहते हैं कि सांसदों के घोटालों के बाद भी अगर संसद पाक साफ है तो फिर आई पी एल अपवित्र कैसे? शायद—न न पक्का ही ये बी जे पी के सांसद हैं. वो ही बी जे पी- जिसे सरकार से इस्तिफा चाहिये क्यूँकि ...क्यूँकि क्या. बस चाहिये.

हालात कुछ ऐसे बन गये हैं कि अब अगर कोइ खिलाड़ी बैटिंग या बॉलिंग के पहले- ईश्वर को याद करने के लिए आँख बंद कर हाथ जोड़ ले..तो लोग अनुमान लगा लेंगे कि इसका मतलब इशारा कर दिया कि ये फिक्स वाली खेल है. सर खुजाये, टावेल हिलाये, रिस्ट बैंड घुमाये, जूते का फीता बांधे, पसीना पोंछे..हो गया इशारा..लग गया सट्टा.

ये तो वही हालात हो गये हैं कि जैसे रिश्तेदारों पर से विश्वास हट गया है बच्चियों को माँ बापों के- बार बार मीडिया पर सुन सुन कर कि ९७% बलात्कारों में घर के लोग शामिल रहते हैं.

जो मानसिक दहशत इन रेप केसों ने आम परिवारों में पैदा की है उससे आई पी एल देखते हुए, कुछ देर को ही सही, वो माँ बाप उस दहशत को भूल खुश हो लेते थे, वो भी अब उनके हिस्से से जाता रहा. क्या देखें जो पहले से फिक्स है- कैसा एक्साईटमेन्ट और कैसा खेल!! बाकी तो टी वी पर मनोरंजन के लिए कुछ आता नहीं....

आज के इस सफर में

हाय! ये कैसी दिशा है,

हाय! ये कैसी हवा है,

जिस तरफ निकलता हूँ

किश्ती डूबती है मेरी ही!!

और वो हँसते हुए कहता है

नौसिखिया निकला ये नाविक भी!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, मई 05, 2013

हे नीलकंठ मेरे!!

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एक अंगारा उठाया था कर्तव्यों का

जलती हुई जिन्दगी की आग से,

हथेली में रख फोड़ा उसे

फिर बिखेर दिया जमीन पर...

अपनी ही राह में, जिस पर चलना था मुझे

टुकड़े टुकड़े दहकती साँसों के साथ और

जल उठी पूरी धरा इन पैरों के तले...

चलता रहा मैं जुनूनी आवाज़ लगाता

या हुसैन या अली की!!!

ज्यूँ कि उठाया हो ताजिया मर्यादाओं का

पीटता मैं अपनी छाती मगर

तलवे अहसासते उस जलन में गुदगुदी

तेरी नियामतों की,

आँख मुस्कराने के लिए बहा देती

दो बूँद आँसूं..

ले लो तुम उन्हें

चरणामृत समझ

अँजुरी में अपनी

और उतार लो कंठ से

कह उठूँ मैं तुम्हें

हे नीलकंठ मेरे!!

-सोच है इस बार

कि अब ये प्रीत अमर हो जाये मेरी!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, अप्रैल 28, 2013

मेरी कविता- नई इबारत!!!

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मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो तुमको मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो सबको मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो समाज को मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो मजहब को मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैंने

उन सब बातों के लिए

जो आलोचकों को मान्य न थी..

मेरी कविता- इन सब मान्यताओं की

निबाह की इबारत बनी

अब मेरी कहाँ रही

वो बदल कर ढल गई है

एक ऐसे नये रुप में जो

काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन में

प्रकाशित किए जा सकने के लिए

मेरी कविता अब इस नये रुप में

काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ सम्मान से

सम्मानित किए जा सकने के लिए..

-कर दो न प्लीज़, अब और कितना बदलूँ मैं!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, अप्रैल 23, 2013

मैं वही अँधेरों का आदमी…

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तुमने छुड़ा कर हाथ मेरा

जो पीछे छोड़ दिये थे अँधेरे

उनसे अभ्यस्त होती मेरी ये आँखे

आज जरा सी टिमटिमटाहट से

उस दीपक की, जो बुझने को है अभी

चौंधिया जाती है...

और मेरा बाँया हाथ....

जिस ओर बैठा कर थमवा दिया था हाथ

उस ब्राह्मण ने मेरा तुम्हारे हाथ में

ये कहते हुए कि हे वामहस्थिनी!!

जगमग होगा भविष्य तेरा

शायद कहा होगा चन्द रुपयों की चाहत में

दक्षिणा स्वरुप कि जी सके वो

और उसका परिवार उस रोज..

हाँ, वही बाँया हाथ आज बढ़ उठता है

बुझाने उस त्य़ँ भी बुझती लौ को दीपक की...

और बुझा करके उसे

खुद जल कर रोशन हो उठता हूँ मैं

जगमग जगमग बुझ जाने को

मगर खुद की रोशनी में अचकचाये

आँख मिचमिचाता मैं

उठा लेता हूँ एक पत्थर

उसी बाँये हाथ से...

फोड़ देने को दर्पण...जो सामने है मेरे

कि खुल सकें ये आँखें..

देखो....यही तो तुम कहती थी कि

कितना अजीब है

यह अँधेरों का जहान...

नहीं बर्दाश्त कर पाता

खुद का रोशन होना भी!!

-मैं फिर खो जाता हूँ अँधेरों में..

मैं हूँ ही अँधेरों का आदमी...

न बर्दाश्त कर पा सकने वाला, खुद के साये को भी!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मार्च 05, 2013

चचा का यूँ गुजर जाना....हाय!!

चचा मेरे - नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान और लोग उन्हें प्यार से गालिब कहते थे- वो १८६९ में क्या निकले कि तड़प कर रह गये उनके चाहने वाले अच्छा पढ़ने को...आज मुझे लगा कि भतीजा हूँ भले ही नाम समीर लाल ’समीर’ है ऊउर लोग प्यार से समीर बुलाते हैं..तो भी दायित्व तो बनता है- कुछ तो फर्ज़ निभाना होगा भतीजा होने का.

बस, इसी बोझ तले-दबे दबे…करहाते..पेश है तीन ठो...पहला शेर तो खैर कालजयी होना ही है...दम साध के दाद उठाना....वरना प्रश्न पढ़ने वाले की समझ पर उठ जायेगा कि समझ नहीं पाया..और वो होगे आप- यह तय जानो!! J

नफरत की इन्तहां का, यह हाल देख ’समीर’

जब भी मिलते हैं, गले लग जाते हैं तपाक से..

 

अब अगला चचा को याद करते:

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वो पूछते हैं हमसे, क्या हाल-ए-दिल सनम

कुछ गमज़दां थे गालिब, कुछ गमज़दां हैं हम...

 

और फिर ...बस, यूँ ही...कुछ आज के समय पर कुछ कह आने को मन कर आया भतीजे का...चचा तो खैर त्रिवेणी (गुलज़ार साहेब की विधा) का शौक रखते नहीं थे..... मगर उससे भतीजे ने कब सीमा आंकी है… Smile

 

यारों कि इल्तज़ा है कि कुछ कहानियाँ अपनी आवाज़ में सुनाऊँ..

हाल पता हैं फिर लोग तड़पेंगे मिलने को, और मैं मिल न पाऊँ

-इतना भी अमिताभ हुआ जाना, अभी हाल तो मुझे मंजूर नहीं.

 

और अब चलते चलते अपने भी मन कुछ कह जाऊँ (एक का तो अधिकार बनता है भतीजा हूँ आखिर)  तो यह लिजिये:

 

मंहगाई के इस दौर में भी, वो ईमानदारी से कमाता है..

हर वक्त खुश रहता है, हँसता है और खिलखिलाता है...

-बुजुर्गों का कहना है, वो कोई सिरफिरा नज़र आता है.

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, फ़रवरी 27, 2013

जीत: अब लौट भी तुम आओ

एक लघु कथा - जीत:
वह सफेद कार में था...
उसने रफ्तार बढ़ा दी...नीली कार पीछे छूटी..फिर पीली वाली...
एक धुन सी सवार हुई कि सबसे जीत जाना है.
वह रफ्तार बढ़ाता गया. जाने कितनी कारें पीछे छूटती चली गईं.
कुछ देर बाद एक मोड़ पर उसकी कार और उसका शरीर क्षत विक्षत पड़ा मिला.
मृत शरीर रह गया, वो सबसे आगे निकल गया- जाने कहाँ?
ये कैसी जीत?
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एक कविता- अब लौट भी तुम आओ:
मेरी बाँसुरी की सरगम
वो भी हो गई है मद्धम
कोई जाकर उसे बता दे
कि रुठा हुआ है मौसम....
अब लौट भी तुम आओ
कि ठहरा हुआ है सावन!!
-समीर लाल ’समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, फ़रवरी 20, 2013

मतवाली बेखौफ़ गज़ल

बस कोशिश थी कि कुछ कहें मगर जब बात बिगड़नी होती है तो यूँ बिगड़ती है कि साधे नहीं सधती....काफिया उखड़ा बार बार...कोई बात नही....माईने ही उखड़ गया कि जिसे शिद्दत से चाहा उसे ही कुर्बान कर देने को तैयार...खैर, यही तो है मतवाला पन- यही तो दीवानापन...पढ़ ही लिजिये...सुधार, व्याकरण आदि तो खैर चलता रहेगा...सुधार बता देंगे तो कोशिश होगी कि आगे महफिलों में सुधार कर पढ़ी जाये वरना तो आजकल की महफिलें...किस बात पर दाद मिलेगी ...ये तो आप पर निर्भर हैं...शेर पर नहीं.

जबकि लोग लिख रहे हैं कि फलाने गुरु का आशीर्वाद प्राप्त गज़ल...तब ऐसे में बेआशीष गज़ल का लुत्फ उठायें….और कुछ नहीं तो हिम्मत की दाद दे देना Smile

 

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आज इस धूप पर हम भी, जरा अहसान कर देंगे

कि मेहनत का पसीना भी, इसी के नाम कर देंगे.

जरा पलकें झुका ली जो, मेरी महबूब ने थक कर

जहाँ जगने को थी सुबह, वहीं पर शाम कर देंगे

अजब सा हौसला मेरा, अजब सी हसरतें दिल में

जिसे चाहा था शिद्दत से, उसे कुर्बान कर देंगे.

अगर मज़हब बना रोड़ा, प्रेम की राह में अपने

इबारत लेके भजनों की, बुलंद अज़ान कर देंगे.

लिखे ’समीर’ ने अपने, प्यार के गीत में किस्से

ये सारे प्यार के दुश्मन, उसे बदनाम कर देंगे.

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, जनवरी 20, 2013

आहिस्ता आहिस्ता!!

past

सफ़हा दर सफ़हा

लम्हा दर लम्हा

बरस दर बरस

दर्ज होता रहा

किताब में मेरे दिल की

तुम्हारे मेरे साथ की

यादों का सफर

और मैं

अपने दायित्वों का निर्वहन करता

चलता रहा इस जीवन डगर पर

लादे उस किताब को अपनी पुश्त पर...

कि कभी फुरसत में

मुस्करा लूँगा फिर

पढ़ कर उन यादों को

किश्त दर किश्त

आहिस्ता आहिस्ता!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, दिसंबर 18, 2012

खुशियाँ मनाइये कि मेरा रेप नहीं हुआ!!!

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पापा,

आप खुशियाँ मनाइये

एक उत्सव सा माहौल सजा

कि आपने मुझे खत्म करवा दिया था

भ्रूण मे ही

मेरी माँ के

वरना शायद आज मैं भी

जूझ रही होती....

जीवन मृत्यु के संधर्ष में...

अपनी अस्मत लुटा

उन घिनौने पिशाचों के

पंजों की चपेट में आ..

रिस रिस बूँद बूँद

रुकती सांस को गिनती

ढूँढती... इक जबाब

जिसे यह देश खोजता है आज

असहाय सा!!!

कितना अज़ब सा प्रश्न चिन्ह है यह!!

कोई जबाब होगा क्या कभी!!

कि निरिह मैं..

छोड़ दूँगी अंतिम सांस अपनी

एक जबाब के तलाश में!!!

और तुम कहते

बेटी तेरा देश पराया

बाबुल को न करियो याद!!

 

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, नवंबर 19, 2012

अधूरे सपने- अधूरी चाहतें!!

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मेरे कमरे की खिड़की से दिखता

वो ऊँचा पहाड़

बचपन गुजरा सोचते कि

पहाड़ के उस पार होगा

कैसा एक नया संसार...

होंगे जाने कैसे लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

आज इतने बरसों बाद

पहाड़ के इस पार बैठा

सोचता हूँ उस पार को

जिस पार गुज़रा था मेरा बचपन...

कुछ धुँधले चेहरों की स्मृति लिए

याद करने की कोशिश में कि

कैसे थे वो लोग...

क्या तुमसे थे?

क्या मुझसे थे?

तो फिर आज नया ख्याल उग आता है

जहन में मेरे

दूर

क्षितिज को छूते आसमान को देख...

कि आसमान के उस पार

जहाँ जाना है हमें एक रोज

कैसा होगा वो नया संसार...

होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

पहुँच जाऊँगा जब वहाँ...

कौन जाने बता पाऊँगा तब यहाँ..

कुछ ऐसे ही या कि

चलती जायेगी वो तिलस्मि

यूँ ही अनन्त तक

अनन्त को चाह लिए!!

बच रहेंगे अधूरे सपने इस जिन्दगी के

जाने कब तक...जाने कहाँ तक...

तभी अपनी एक गज़ल में

एक शेर कहा था मैने

“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा

वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अक्टूबर 29, 2012

बन जाओ मेरी कविता का शीर्षक तुम!!

 

बन जाओ मेरी

पुस्तक का शीर्षक....

जो है ३६५ पन्नों की...

वर्ष के दिन की गिनती

और

यह संख्या..

जाने क्यूँ एक से हैं...

लगे है ज्यूँ करती हों

दिल की धड़कन

और हाथ घड़ी में

टिक टिक चलती

सैकेंड की सुई

जुगलबंदी...

और इसका हर पन्ना...

खाली...

मगर भरा भरा सा

अलिखित इबारतों से..

फिर भी..

कुछ लिखे जाने के इन्तजार में...

खूब बिकेगी यह पुस्तक...

हाथों हाथ

बिक पाना ही चाहत है

और बिक जाना ही मंजिल..

वही तब बन जाता है मानक

उसकी लोकप्रियता का..

कि कितना बिक पाये..

हर हिन्दुस्तानी

जोड़ सकेगा

खुद को इससे...

और पढ सकेगा

हर पन्ने पर

अपनी कहानी....

जो कभी लिखी न गई...

मगर पढ़ी गई है लाखों बार

और अब भी इन्तजार मे है

अपने लिखे जाने के...

बोलो..

बनोगी..

मेरी पुस्तक का शीर्षक??

हाँ कहो

तो

शीर्षक रख दूँगा....

तुम!!!

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अक्टूबर 08, 2012

पुरुषवादी आम और उपेक्षिता नारी

देश को जब अपनी नजर से देखता हूँ तो पाता हूँ कि यहाँ मात्र दो तरह के लोग रहते हैं- एक तो वो जो आम हैं और दूसरे वो जो आम नहीं हैं. आम तो खैर आम ही हैं- कच्चे हुए तो चटनी बनी और पके हुए हों तो चूसे गये. मगर जो आम नहीं हैं वो होते हैं खास. जिनका काम है चटखारे लेकर आम की चटनी खाना या फिर आम को चूस कर मस्त रहना.

आम की क्या औकात कि खुद को बांटे या बंटाये मगर खास की परेशानी यह तय करना रहती हैं कि उनमें से कौन चटनी खाये, कौन चूसे, कौन टुकड़े बना कर कांटे से खाये और कौन आम का मिल्कशेक पिये, गुठली किसके हिस्से जाये और गूदा किसके तो उन्होंने आम न होने की वजह से खास होने के बावजूद अनेक वर्ग इस खास वर्ग के भीतर ही बना डाले जैसे ब्राह्मण- जो कि यूँ भी श्रेष्ठ नवाजे गये मगर चैन कहाँ तो कोई सरयूपारणी ब्राह्मण तो कोई कान्यकुब्ज ब्राह्मण तो कोई कुछ हो श्रेष्ठ में श्रेष्ठतम के गुणा भाग में लग गये.

तो खास में कुछ तो वो हो गये जो खास हैं, कुछ वो हो गये जो खासों के खास हैं, कुछ वो जो खासमखास हैं और उन सब के उपर वो जो इसलिए सुपर खास हैं क्यूँकि वो उस परिवार में जन्में हैं जहाँ से खासों की पैदावार की ट्यूबवैल में पानी छोड़ा जाता है. वहाँ से पानी की सप्लाई बंद तो दो मिनट में खास की फसल झूलस कर खाक में मिल जाये और वो खास तो क्या, आम कहलाने के काबिल भी न रहे और फिर जिस लोक में मात्र दो वर्ग हों- एक तो वो जो आम है और दूसरे वो जो आम नहीं हैं, उसमें ऐसे लोगों को क्या कहा जायेगा जो दोनों में ही न हों- अब मैं क्या बताऊँ.

खुद को दूसरे से बेहतर बताना, दूसरे को नीचे गिरा कर खुद को ऊँचा महसूस करना, चटनी खाने वाले वर्ग के होते हुए भी मौका ताड़ कर दूसरे का आम चूस लेने की हरकत- चलो, लालच के चलते इसे नजर अंदाज भी कर दें तो आम के मिल्कशेक वाले वर्ग का चुपचाप चटनी चाट लेना और पकड़े जाने पर आँखें दिखाना और फिर ढीट की तरह मक्कारी भरी हँसी– यह सब भरे पेट की नौटंकियाँ हैं और उन्हीं को सुहाती भी हैं जो आम नहीं हैं.

वे ही राजा हैं, वे ही राज करते हैं, वे ही आम के भविष्य निर्धारक हैं कि चटनी बनाई जाये या चूसा जाये या मिल्कशेक बने. वो लगभग भगवान टाइप ही हैं आम लोगों के लिए. हालांकि ये आम लोग ही उन लोगों में से पसंद करते हैं जो आम नहीं हैं कि इस बार इनमें से कौन तय करेगा कि हमारी चटनी बनाई जाये या फिर हमें चूसा जाये या कुछ और. मगर चुनना होता है उनमें से ही जो आम नहीं हैं.

बाड़े के इस पार ये सब खेल तमाशे करने की अनुमति नहीं हैं अर्थात तुम्हारा काम है चुनना तो बस चुनो. चुने जाने की हसरत कभी दिल में न पालो. इस तरह के सपने देखना ठीक वैसा ही सपना है जैसा कि हमारे राष्ट्र को भ्रष्टाचार मुक्त देखना. ऐसा नहीं कि ऐसे सपनों को देखने की घटनायें होती ही नहीं हैं मगर विद्वानों नें इसे नादानी की श्रेणी में रखा है और नादानी का हश्र तो जगजाहिर है ही. करना चाहे तो करे कोई मगर खायेगा अपने मुँह की. और ऐसी हरकत करने वाला आम जब यह सोचता है कि मेरी इस जुर्रत से वो डर गया जो आम नहीं है तो इसका साफ अर्थ हैं कि वो उनको और उनके नाटकों को अभी समझ ही नहीं पाया है. यही शातिराना अदाज तो उन्हें उस श्रेणी में रखता है जिसे हम कहते हैं कि वो आम नहीं हैं.. वो ऐसे में इन आमों की नादानी पर बंद कमरों में हँसते हैं, मजाक उड़ाते हैं और ये आम कुछ दिन कूद फांद कर अपने मुँह की खाकर चुपचाप बैठ जाते हैं.

शास्त्रों में आमों की इस तरह की हिमाकत को बौराना की संज्ञा दी गई है. ये वो बौर नहीं है जिनसे आम आते हैं, इसका अर्थ होता है – पगलाना या जैसे कई शब्द अंग्रेजी में अपना ज्यादा अच्छा अर्थ बता देते हैं तो अंग्रेजी में इस कृत्य को स्टूपिडिटी कहते हैं और कर्ता को स्टूपिड और थोड़ा बिना बुरा लगाये कहना हो तो क्रेजी.

और फिर बौराई हुई नादानी में गल्तियाँ न हो ये कैसे हो सकता है वरना तो समझदारी ही कहलाती. तो ऐसे में बौराया हुआ आम यह तक भूल जाता है कि आम में स्त्री और पुरुष दोनों ही होते हैं. आम आम होता है मगर पुरुष चाहे आम हो या आम न हो, कहीं न कहीं अपनी पुरुष प्रधानता वाली और पुरुष सत्ता वाली मानसिकता की मूँछ तान ही देता है और बौराई हुई इस हरकत में एकाएक कह उठता है कि ’मैं आम आदमी हूँ’

अगर सोच में विस्तार दिया जाता और पुरुष मानसिकता से उपर उठने का समय निकाल पाते तो शायद कह देते कि ’मैं आम जनता हूँ’

वही हाल प्रकाश झा की आने वाली फिल्म ’चक्रव्हूय’ के विवादित गाने में देख रहा हूँ कि ’आम आदमी की जेब हो गई है सफाचट’ – इसमें भी महिलाओं को भुला दिया गया. मगर नारी- समर्पण और समर्थन के भाव देखिये कि गाने की शुरुवात में फिर भी नाचीं- जस्ट टू सपोर्ट. जबकि गाने के हिसाब से तो उनकी जेब भी सफाचट नहीं हुई. ऐसे में महिलाओं को भूल जाना- कितनी बुरी बात है.

इसी गाने में टाटा, बिड़ला, अम्बानी और बाटा को भी लपेटा है. नारी तो चुप है अभी मगर बिड़ला ने तो कानूनी नोटिस भेज भी दिया है. कल को अम्बानी भी भेजेंगे , परसों टाटा भी लेकिन बाटा तो गाने की तुकबंदी मिलवाने में जबरदस्ती लपेटे में आ गये वरना तो वो बेचारे तो भारत के हैं भी नहीं. कहाँ चेक रीपब्लिक की कम्पनी और घराना, कहाँ स्विटजरलैण्ड में हेड ऑफिस और कहाँ भारत के गाने में देश को काटने का आरोप.

मुझे लगता है एक नोटिस अगर नारी समुदाय की तरफ से उपेक्षा करने के उपलक्ष्य में थमा दिया जाये तो वो भी साथ साथ ही जबाब पा जाये.

वो सब कहाँ है जो नारी सशक्तिकरण की आवाज उठाते थे. जो नारी की तनिक उपेक्षा पर दहाड़े लगाया करतीं थी. जागो जी, हमें किसी से कोई दुश्मनी तो है नहीं बस, जो दिख जाये वो लिख जाये, सो धर्म निभाया.

यूँ भी नारी उपेक्षित रहे इस बात को यह कलम कैसे बर्दाश्त करे.

 

aam Aadmi

चलते- चलते:

इस इन्सां के दिल में कुछ है इस इन्सां ने बोला कुछ

गिने गये जो दुख में चुप थे अधिक मिले सुख में भी चुप

सच छुपता है झूठ के अंदर या झूठ गया था सच में छुप

जो कहता था सच ही हरदम, उस दर्पण का आगाज़ भी चुप

समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अक्टूबर 01, 2012

गाँधी जी का टूटा चश्मा

जब चपरासी रामलाल जाले हटाता, धूल झाड़ता कबाड़घर के पिछले हिस्से में गाँधी जी की मूर्ति को खोजता हुआ पहुँचा तो उड़ती धूल के मारे गाँधी जी की मूर्ति को जोरो की छींक आ गई. अब छड़ी सँभाले कि चश्मा या इस बुढ़ापे में खुद को..चश्मा आँख से छटक कर टूट गया. गुस्से के मारे लगा कि रामलाल को तमाचा जड़ दें मगर फिर वो अपनी अहिंसा के पुजारी वाली डीग्री याद आ गई तो मुस्कराने लगे. सोचने लगे कि एक चश्मा और होता तो वो भी इसके आगे कर देता कि चल, इसे भी फोड़ ले. मेरा क्या जाता है? जितने ज्यादा चश्में होंगे, उतने ज्यादा लंदन से नीलाम होंगे. मुस्कराते हुए बोले- कहो रामलाल, कैसे आना हुआ? पूरे साल भर बाद दिख रहे हो?

Gandhiji

गाँधी जी की मूर्ति को सामने बोलता देख रामलाल बोला-चलो बापू साहेब, बुलावा है. नई पार्टी बन रही है. नये मूल्यों के साथ- नये जमाने की-नये लोग हैं- नया इस्टाईल है-गाते बजाते हैं-हल्ला मचाते हैं-एक अलग तरह की पार्टी बना रहे हैं जिसमें पार्टी के भीतर ही पार्टी का लोकपाल होगा. आज आपका जन्म दिन है, आपके सामने आपका नाम लेकर बनायेंगे. नहा लो, नये कपड़े पहने लो और चलो, फटाफट. बहुत भीड़ लगने वाली है. आपको नई पार्टी की योजनाओं, प्रत्याशियों और भविष्य को शुभकामनाएँ देनी हैं. याद आया आपको - ये वो ही लोग हैं जिनका कल तक आपके नाम से आंदोलन चलता था और आपका एकदम खास भक्त इनका नेता था- अब थोड़ा आपके भक्त से खटपट हो चली है. कुछ चंदे वगैरह का हिसाब किताब और कुछ महत्वाकांक्षा की उड़ान. खैर, आप तो जानते ही हो कि ऐसा ही होता आया है हमेशा. आपके लिए भला नया क्या है- आप तो हमेशा से ऐसी घटनाओं के साक्षी रहे हो- साबरमती के संत!

गाँधी जी बोले, देख भई रामलाल. एक तो तू ज्यादा चुटकी न लिया कर ये संत वंत बोल कर. बस, आज का ही दिन तो होता है जब मैं थोड़ा बिजी हो जाता हूँ. हर सरकारी दफ्तर से लेकर हर भ्रष्ट से शिष्ट मंडल तक लोग मेरी पूछ परक करके अपने इमानदार और कर्तव्यनिष्ट होने का प्रमाण देते हैं. ऐसे में ये एक और...कह दो भई इनसे कि कल रख लेंगे कार्यक्रम. नई पार्टी ही तो है- आज नहीं जन्मी तो क्या- कल जन्म ले लेगी. रंग तो २०१४ में ही दिखाना है. एक दिन में क्या घाटा हो जायेगा? मेरा भी एक के बदले दो दिन मन बहला रहेगा.

रामलाल उखड़ पड़ा. कहने लगा एक तो साल भर आपको कोई पूछता नहीं. चुपचाप यहाँ पड़े रहते हो. आज पूछ रहे हैं तो आप भाव खा रहे हो कि आज नहीं कल. तो सुन लिजिये- यह कोई आपसे निवेदन या प्रार्थना नहीं है. बस, बुलाया है और आपको चलना है. आदेश ही मानो इसे.

सारे भारत की जनता से उन लोगों ने पार्टी बनाने के लिए पूछ लिया है और सबने उनसे पर्सनली कह दिया है कि आप पार्टी बनाईये- आपकी जरुरत है. इसके बावजूद आप हैं कि नकशे ही नहिं मिल रहे- हद है बापू!!

गाँधी जी ने परेशान होते हुए पूछा कि सारी जनता से कैसे पूछ लिया भई उन्होंने वो भी बिना वोट डलवाये?

रामलाल ने मुस्कराते हुए कहा कि बापू, आप तो बिल्कुले बुढ़ पुरनिया हो गये. इतना भी नहीं जानते कि उन्होंने फेसबुक से बताया था और खूब लोगों नें लाइक चटकाया. आजकल तो ऐसे ही पूछा जाता है. अब तो एस एम एस का फंडा भी बासी हो गया.

गाँधी जी सकपका गये. कहने लगे- मैं क्या जानूँ? मेरा तो फेसबुक एकाउन्ट है नहीं- चल भई, तू कहता है तो चलता हूँ. मगर मेरा चश्मा तो बनवा दे. वरना उनका घोषणा पत्र पढ़े बिना उन्हें कैसे आशीर्वाद दूँगा?

रामलाल हँसने लगा- अरे बापू, इतनी जल्दी भला कोई घोषणा पत्र बनता है. अभी चार दिन पहले तो बात हुई पार्टी बनाने की जब आपके खास वाले से मतभेद हुआ. सब कार्यक्रम पहले से तय है. आप वहाँ मंच पर विराजमान रहेंगे. आपका माल्यार्पण होगा. ततपश्चयात वो आपको घोषणा पत्र (कोरे कागज का पुलिंदा) पकड़ायेंगे. आप अपना बिना शीशे का चश्मा पहने उसे देखने का नाटक करियेगा और फिर कह दिजियेगा कि मुझे इससे बहुत उम्मीद है इनसे. मैं इन्हें आशीष देता हूँ. ये एक नव भारत का निर्माण करेंगे. अब अच्छा या बुरा- ये तो आपने कहा नहीं- होगा तो नव ही. आप सेफ रहोगे और पूजे जाते रहोगे तो नो टेंसन- बस, चले चलो- मैं हूँ न!!

दूर बैठी जनता को क्या समझ आयेगा कि घोषणा पत्र भी कोरा है और आपके चश्में में भी शीशा नहीं है.

गाँधी जी बोले कि रामलाल ऐसा तो मैं सभी पार्टियों के साथ करता आया हूँ मगर तू तो कह रहा था कि यह नई पार्टी है- नये मूल्यों के साथ- नये जमाने की-एक अलग तरह की जिसमें पार्टी के भीतर ही पार्टी का लोकपाल होगा.

अरे बापू, सभी तो एक न एक दिन नये थे. सभी कुछ नया ही करने आये थे..वो तो धीरे धीरे पुराने हो जाते हैं. ये भी हो जायेंगे.

बस, इनमें एक नई चीज आपने सही पकड़ी- पार्टी के भीतर ही पार्टी का लोकपाल होगा. आपन दरोगा- आपन थाना- अब डर काहे का!!

गाँधी जी रामलाल को देख मुस्कराये. रामलाल उन्हें देख कर एक आँख दबाता है...और चल पड़ते हैं गाँधी जी नई धोती पहने...बिना शीशे का चश्मा ..एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ से रामलाल का कँधा थामे...पार्टी घोषणा स्थल की ओर. कोशिश रही कि कोई टूटा चश्मा न देख ले.

चलते चलते:

कुछ तारे आकाश में चुप हैं, कुछ तारे पाताल में चुप

कुछ तारों का हाल देखकर, हम भी चुप और तुम भी चुप...

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 30, 2012

गुरुदेव को बधाई एवं मेरी एक गज़ल

आज गुरुदेव राकेश खण्डेलवाल जी की ५००वीं ब्लॉग पोस्ट दर्ज हुई. मन प्रसन्न हो गया. एक लम्बा सफर-५०० एक से बढ़कर एक अद्भुत गीत. जो उनका एक बार रसास्वादन कर ले तो हमेशा के लिए मुरीद हो जाये उनका. मुझ पर तो राकेश जी का वरद हस्त शुरु से ही है. सोचा, क्यूँ न आप भी गीत कलश  पर जाकर उनके गीतों का आनन्द लें और उन्हें बधाई एवं शुभकामनाएँ दें.

इसी मौके पर उन्हीं का आशीर्वाद प्राप्त मेरी एक गज़ल:

1

तेरी मेरी दास्तां अब, हम कभी लिखते नहीं..

गीत जिनमें सादगी हो, अब यहाँ बिकते नहीं....

सांस छोड़ी थी जो अबके, वो अगर वापस न हो

उसके आगे जिन्दगी के दांव कोई टिकते नहीं...

हो इरादे नेक कितने, और हौसले भी हों बुलंद..

खोट का है दौर, ये सिक्के यहाँ चलते नहीं...

है ये वादा साथ चल तू, सब बदल डालूँगा मैं,

चल पुराने रास्तों पर, कुछ भी नया रचते नहीं...

मुश्किलें मूँह मोड़ने से, खत्म हो जाती अगर

लोग सीधे मूँह हों जिनके, इस डगर दिखते नहीं...

मैं वो दरिया जो कभी, सागर तलक पहुँचा नहीं,

सियासती इस खेल में हम, जिक्रे गुमां रखते नहीं...

-समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, सितंबर 13, 2012

सूक्ष्म कथायें: कौव्वी की आधी चोंच

इधर फिर कुछ झैन कथायें पढ़ने का संयोग बना. तीन लाईन की कहानी, २५ लाईन के विचार देती. जो पढ़े, वो पढ़े कम, समझे ज्यादा और फिर अलग अलग मतलब लगाये अपनी बुद्धि के अनुरुप और खुश रहे. भीषण दर्शन. बस, मन किया कि फिर से कुछ उसी तरह की कोशिश की जाये.

 

पिछली दिल्ली यात्रा के दौरान एक सरकारी भवन की खिड़की से ली गई कौव्वों की तस्वीर

kw

भाग-१

नीम के पेड़ की डाली पर एक कौव्वा और एक कौव्वी- कई बरसों से बसेरा करते थे.

एक रोज सुहाने मौसम से वशीभूत दोनों चोंच चोंच खेल रहे थे.

कौव्वी की चोंच खेल खेल में टूट गई.

कौव्वे ने उसे देखकर मूँह बनाया और उड़ गया.

(इति)

भाग-२

उदास तन्हा कौव्वी यहाँ वहाँ फिरती और अकेलेपन के दुख में चिल्लाती. मिथिला के एक आंगन में एक चंदन के पेड़ पर चिल्लाती कौव्वी की आवाज़ सुनकर विरहिणी कहती है कि यदि आज पिया आ गए तो मैं तुम्हारी चोंच सोने से मढ़वा दूंगी. मंत्री पिया को आना ही था सो पटना एक्स्प्रेस से सुबह सुबह आ गये. साथ नई डील में बनाये कुछ खोके भी लाये. विरहणी नें बताया कि मोबाईल नेटवर्क बंद होने के दौरान इसी कौव्वी नें तुम्हारे आने की शुभ सूचना दी थी. चूँकि वादा मंत्री जी का नहीं बल्कि उनकी पत्नी का किया हुआ था अतः वादे के अनुरुप कौव्वी की आधी वाली चोंच सोने से मढ़वा दी गई. कौव्वे के पास जब उड़ते उड़ते यह खबर पहुँची तो कौव्वा उड़ कर वापस आ गया और कौव्वी के साथ पुनः रहने लगा.

(इति)

भाग -३

सोने से मढ़ी कौव्वी की चोंच देखते हुए एकाएक कौव्वे को अपनी चतुराई वाले स्वभाव की याद हो आई. कौव्वे ने अपनी योजना कौव्वी को कान में कह सुनाई. फिर कौव्वे ने खरोंच खरोंच कर कौव्वी की चोंच से सोना निकाल लिया और पेड़ की खोह में छिपाकर नई विरहणी की तलाश में दोनों निकल पड़े. खूब उड़े और खूब उड़े. पल पल जमाना बदला नज़र आता रहा. अब न तो कोई विरहणी मिलती और न किसी अंगना चंदन का पेड़.

नये जमाने के सक्षम औरत आदमी आज अपनी ही चोंच सोने से मढ़वाये घूम रहे हैं और कौव्वा कौव्वी अचरज से उन्हें देख रहे हैं.

(इति)

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रविवार, सितंबर 09, 2012

मुझे उस पेड़ का दर्द मालूम है.....

मोदी...फिर नीतिश कुमार...अब बाल ठाकरे ने सुषमा स्वराज का नाम प्रधान मंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया....अडवाणी का नाम तो खैर है ही...राहुल का नाम दूसरी तरफ से तय है...मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के बाद.... अन्य दिशाओं से मुलायम, लालू, ममता के नाम भी बीच बीच में उछलेंगे ही...

बाबा जी और टीम अन्ना तो खो खो खेल कर बैठ जायेंगे...उनसे सब निश्चिंत हैं इस क्यू में...वो देश की राय ही लेते और अपनी राय तय करते ही समय बिता देंगे और देश अपनी राय उपर वाली लिस्ट पर दे देगा चुनाव में...फिर उसी ओटन में खोजबीन करते...

किसी ने कहा कि सुषमा एल एल बी हैं...पढ़ी लिखी हैं...क्या बुराई है?

नितीश इंजिनीयर हैं..साफ सुथरी छवि है...क्या बुराई है?

अडवाणी जी अनुभवी हैं- क्या बुराई है?

राहुल युवा हैं- उर्जा से भरपूर...क्या बुराई है?

sam3

कोई मेरा नाम भी तो लो...सी ए हूँ...पढ़ा लिखा तो कहलाया ही...छवि भी लगभग साफ सुथरी है...उर्जावान भी ठीकठाक ही हूँ...अनुभव तो खैर बेटे का नाम है ही...तो अपनी सत्ता के अन्तर्गत आय़ा...तस्वीर भी चिन्तनशील व्यक्तित्व की दिख रही है...क्या बुराई है? और चाहिये भी क्या....जान ले लोगे क्या बच्चे की प्रधान मंत्री बनाने के लिए??

ले लो मेरा नाम...प्लीज़...ये सारे भी तो नाम ही हैं...बनना बनाना तो जिसे है वो तय है ही...लिस्ट में नाम रहे तो अच्छा लगता है...कोई नया नाम आये उसके पहले इनक्लूड करवा दो मेरा नाम......जल्दी...यहीं सहमती दर्ज करो....

कहीं सुना था:

एक पेड पर एक उल्लू बैठा करता था ,
एक दिन पेड काट दिया गया
पेड बहुत खुश हुआ
मगर उस की खुशी मिट्टी में मिल गयी
क्योंकि..........................
... पेड को काट कर उसकी एक मंत्री की कुर्सी बना दी गई
और इतिहास गवाही देने को तैयार है
"आज भी उस पर ...............एक उल्लू ही बैठा हुआ है '

मेरी चाह मात्र पेड की किस्मत बदल देने की है....आपकी किस्मत तो बदलना मेरे क्या, भगवान के बस में भी नहीं!!!

उड़ चला जिस रोज परिंदा, कुछ न बोला चुप रहा
पर वो एक नम डाल मुझको, पेड़ पर दिखती तो है....

(इस शेर की पहली पंक्ति किसी और की है…नाम भूल गया हूँ.)

इतना ही काफी जान लो मित्रों...कि कम से कम मैं देख तो पा रहा हूँ....ले दो नाम मेरा भी...शायद कुछ बदलने को हो!!!

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