बसंत मुहाने पर है. बसंत कोई विकास
नहीं है, यह अच्छा बंदा है. कहता है तो आता है. आता है दिखता है. दिखता है तो इतना मनोहारी और सुहाना होता है कि
मन खिल उठता है. धरती महक उठती है. बाबा बेलेन्टाईन धंधे से लग लेते हैं. उनके लिए ये मौसम वैसा ही है जैसे घोड़ी के लिए
शादी का सीज़न. बाकी समय तो कोई पूछता ही नहीं. मगर शादी के समय धंधे का ये हाल, कि एक ही टाईम के लिए पांच पांच बुकिंग. मूँह मांगी कीमत
लो. एक ही शाम में पांच पांच बारात लगवा कर ही थोड़ा आराम मिलता है. १४ दिसम्बर से १४
जनवरी तक देवताओं का सोना, जब हिन्दुओं में शादियाँ नहीं की जाती हैं, शादी के लिए
इन्तजार कर रहे जोड़ों से ज्यादा घोड़ियों को अखरता होगा. मुझे उनकी भाषा नहीं आती वरना उनसे पुछवा कर
सिद्ध कर देता कि मैं सही हूँ.
खैर, आती तो मुझे विकास की भी भाषा नहीं है वरना
उससे पुछवा कर भी साबित कर देता कि उसका कोई प्लान नहीं है अभी आने का. प्लान तो छोड़ो, न्यौता तक नहीं
मिला है. वो अमरीका में रहता है. न्यौता मिलेगा तो छुट्टी अप्लाई करेगा. फिर वीसा मिले न मिले? उस पर से ऑफ सीजन में टिकिट सस्ती होती है और
न्यौता फुल सीजन का..उतने पैसे हों न हों..बुलाने वाले की तरह फकीर भी तो नहीं हैं कि
झोला उठाया और चल दिये. बीबी से पूछना होगा, बच्चों की सोचना होगा, तब निकल पायेगा..एक लम्बा समय लगता है प्लानिंग में किसी को
विदेश से देश जाने में.. और वो बिना न्यौता भेजे चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं..वो देखो, विकास आ रहा है? कोई देश से
विदेश तो जाना नहीं है कि हवाई जहाज उठाया और चल दिये, साथ ही रास्ते में शादी और अटेंड कर ली..
बसंत का माहौल जबरदस्त मन
मस्त कर देने वाला होता है. एकदम रंग बिरंगा. कवि कविता गढ़ने लगते हैं और प्रेमी प्रीत के
सागर में गोते लगाने लगते हैं. हमारा एक घर होगा..हम तुम ..बस और कोई नहीं. हमारे छोटे छोटे बच्चे होंगे..अब इनसे कोई पूछे
कि तुम्हीं नोखे के हो क्या भाई? ऐसी क्या बहादुरी बतिया रहे हो..बच्चे तो सभी के छोटे छोटे होते हैं..बाद में बड़े होते
हैं. तब वह झल्ला गये, कहने लगे ..देश में आज भी देख लिजिये जाकर उनको..५० के होने को आये मगर अभी भी छोटे बच्चे ही
हैं. लोग बता रहे हैं कि जल्दी जल्दी सीख रहे हैं. पिरधान जी बनेंगे आगे.
बसंत को इन्हीं गुणों के
कारण ऋतुओं का राजा कहा गया होगा. मैं बसंत को राजा ही नहीं बल्कि राजा साहेब मानता हूँ. साहेब लग जाने से
पोजीशन में जान आ जाती है. वरना तो इंजीनियर भी मैकेनिक नजर आये. मात्र राजा कह देने से कभी- का हो बाबू, रज्जा बनारसी!! का भी भ्रम हो
सकता है. दुनिया बदली है अतः आपको भी इसी तरह अपनी सोच बदलना होगी. तो राजा साहेब की याद आते ही आजकल के बदले लोकतंत्र
की याद आती है. राजे रजवाड़े खत्म करके लोकतंत्र बनाया गया था. जनता की सरकार, जनता के द्वारा, जनता के लिए. आजकल सरकार की जगह राजा साहेब बन रहे हैं. जनता के राजा
साहेब, जनता के द्वारा, जनता की ऐसी तैसी करने के लिए.
बसंत को तो मानो कि वो
चुनावी घोषणा पत्र है अंग्रेजी में एलेक्शन मेनीफेस्टो...
जो मनभावना तस्वीरें
दिखाता है. छोटे छोटे बच्चों की आस लगाये लोगों को बड़ा सा विकास लाकर देने की बात करता है. हर तरफ वादों की
ऐसी हरी भरी वादी सजाता है कि बेरुखे से बेरुखे दिल वाला गीत गा उठे, कवित्त रचने लगे. ऐसा कह कर मैं
कविता को ऐरा गैरा नहीं ठहरा रहा हूँ मगर जैसा कि मैने पहले कहा कि जमाना बदला है
तो हमें बदलना होगा. अब प्रेम कविता रचने के बसंत की दरकार नहीं है. जरुरी है कि आपका
एक फेसबुक का पन्ना हो और उस पर जाकर कबूतर बोला गुटर गू.. तुम सुनना आई लव यू...लिख आयें, लोग उसे स्वयं प्रेम कविता का दर्जा दे लेंगे. दिया ही है न
इसीलिए.. ईमानदार और जनहित की पैरोकार सरकार का दर्जा. अपनो से चार लाईक ही तो चटकवाने हैं.
बसंत की चकाचौंध में
अंधियाये आज हम ऐसा राजा चुनने के आदी हो गये हैं जिसे हम छू भी नहीं सकते. वो हमारे बीच ज़ेड
सिक्यूरिटी में आता है, मानो कि हम ही उसके लिए सबसे बड़ा खतरा हों. वो हमसे बात नहीं
करता, वो बात कहता है. फरमान जारी करता है. ताली बजा बजा कर अपनी ही प्रजा का मजाक उड़ाता
है. खुद को फकीर बताता है और दिन में पांच बार डिजाईनर पोषाक बदलता है. ताजा इतिहास गवाह
है कि सफल व्यक्ति जो अपने निवेशकों और चुनने वालों की चिंता करता है, वह कोशिश करके
बेवजह के डिसिजन को दूर रहता हैं..चाहे एप्पल का स्टीव जाब्स हो, फेसबुक का जुकरबर्ग, अमरीका का ओबामा, भारत के गांधी..रोज एक ही पोषाक पहनते थे..भले उनकी तादाद कुछ भी हो...मगर उन्हें इस बात पर समय कभी खराब नहीं करना
पड़ता था कि अब कौन सी पोषाक पहनूँ?
सही ही है कि बसंत के बाद
चिलचिलाता ग्रीष्म का मौसम जला कर रख देता है वो सारे सपने, वो सारे कवित्त, वो सारी हरियाली, वो सारे प्रीत के हिचकोले जो बह जाते हैं जीवन
की हकीकत से जूझते हुए पसीने में..दिवा स्वप्नों की इतनी सी ही उम्र है और मगर हम!!!!
हम उन बसंत रुपी चुनावी
प्रलोभनों वाले दिवा स्वपनों के साकार होने का इन्तजार कर रहे हैं.
जमाना बदला है तो शायद
कभी बबूल का पेड़ बोने पर भी आम आ जायें!!
एक उम्मीद ही तो है.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह
सवेरे में २१ जनवरी,२०१८ के अंक में:
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