बुधवार, नवंबर 23, 2011

रंग बिरंगी दुनिया के बेरंग सफहे!!

तब मैं उसे आप पुकारता और वो मुझे आप.

नया नया परिचय था. पन्ने पन्ने चढ़ता है प्यार का नशा...आँख पढ़ पायें वो स्तर अभी नहीं पहुँचा था.

वो कहती मुझे कि आप पियानो पर कोई धुन सुनायेंगे. कहती तो क्या एक आदेश सा करती. जानती थी कि मैं मना नहीं कर पाऊँगा.

काली सफेद पियानो की बीट- मैं महसूसता कि मैं उसे और खुद को झंकार दे रहा हूँ.

डूब कर बजाता - जाने क्या किन्तु वो मुग्ध हो मुझे ताकती.

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परिचय का दायरा बढ़ता गया और हमारे बीच दूरियाँ कम होती गईं. अब हम आप से तुम तक का सफर पूरा कर चुके थे. सांसों में फायर प्लेस से ज्यादा गर्मी होती है, यह भी जान गये थे कितु फिर भी फायर प्लेस से टिके टिके- बर्फीली रातों में...जाने क्यों, किसी अनजान दुनिया में डूबना- बस, एक वाईन का ग्लास थामे- उसे लुभाता. हम देखते एक दूसरे को-वाईन का सुरुर-डूबो ले जाता सागर की उस तलहटी मे जहाँ एक अलग दूनिया बसती है. रंग बिरंगी मछलियाँ. कुछ छोटी कुछ बड़ी. कोरल की रंग बिरंगे जिंदा पत्थरों वाली दुनिया. सांस लेते पत्थर. अचंम्भों और रंगो की एक तिलस्मी- बिना गहरे उतरे जान पाना कतई संभव नहीं.

बिना कुछ कहे पियानों की धुन पर मैं सब कुछ कहता...हाँ, सब कुछ- वो भी जिन्हें शायद शब्द न कह पायें बस एक अहसास की धुन ही कह सकती है वो सब और वो- मंत्र मुग्ध सी सब कुछ समझ जाती. इस हद तक कि शायद शब्दों में कहता तो सागर की लहरों के हिचकोले ही होते जो साहिल पर लाते और वापस ले जाते. मानो कि कोई खेल खेल रहे हों. इस तरह समझ जाना भी एक ऐसी गहन अनुभूति की दरकार रखता है जो शायद कभी ही संभव हो आम इन्सानों के बीच.

संगत और सानिध्य का असर ऐसा कि नजरें पढ़ना सीख गये- जान जाते कि क्या चाहत है और क्या कहना है. शब्दों का सामर्थय बौना हुआ या मेरा शब्दकोश. अब तक नहीं जान पाया.

एक दूसरे को इतना करीब से जाना मगर जाना देर से. तब तक और न जाने कितना जान गये थे एक दूसरे के बारे में..हमेशा देर कर देता हूँ मैं- शायर मुनीर नियाज़ी साहेब  याद आये मगर फिर वही-देर से..उनके अशआर:

हमेशा देर कर देता हूँ मैं, हर काम करने में.

जरुरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

मदद करनी हो उसकी, यार की ढ़ाढ़स बंधाना हो,
बहुत देहरीना रस्तों पर, किसी से मिलने जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

बदलते मौसमों की सैर में, दिल को लगाना हो,
किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

किसी को मौत से पहले, किसी गम से बचाना हो,
हकीकत और थी कुछ, उसको जाके ये बताना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

कब कह गये नियाज़ी साहेब- शायद मेरे लिए. गुजर गये कह कर वे- फिर मैं सोचता हूँ:

लिख कर पढ़ाता हूँ जब
दास्तां अपनी...
पढ़ती है और गुनगुनाती है वो...
पढ़ती है आँखों में सच्चाई....
सिहर जाती है वो...
बिखर जाती है वो....

समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, नवंबर 17, 2011

फोकस न लूज करो, मि.मल्टी-टास्कर!!!

आजकल कुछ शब्द लोग बड़ी वजनदारी और धड़ल्ले से बेझिझक इस्तेमाल करते हैं. ऐसा ही एक शब्द है - 'मल्टी टास्कर'. एक समय में एक से अधिक कार्य पूरी क्षमता और लगन से कर पाने की कला. नौकरी के लिए जितने आवेदन आते हैं- सब मल्टी टास्कर, सब टीम प्लेयर, सब सेल्फ स्टार्टर. मुझे लगता है ये योग्यतायें तो हर इन्सान में होती हैं, फिर भी लिखकर न बताओ तो बात पूरी नहीं होती. लिखकर बताने की जरुरत तो होनी नहीं चाहिये.

समय का क्या है. उसका तो काम ही करवट लेना है. आज एक ली है, तो कल दूसरी लेगा. कल को लोग यह न लिखने लग जायें कि दोनों पैर से चलने वाला, कान से सुनने वाला, आँख से देखने वाला. मेरे हिसाब से इस तरह की योग्यतायें होना स्वाभाविक है, न हो तो लिख कर बताओ, तब तो बात में दम भी नजर आये और बात भी  समझ में आती है. जैसे एक आँख से नहीं दिखता है, टीम प्लेयर नहीं हूँ आदि. मगर अपनी कमी कौन उजागर करे, ये मानव स्वभाव है.

मल्टी टास्कर और टीम प्लेयर पर याद आया अपने अन्ना का नाम. आजकल वो भी मल्टी आंदोलनकारी होने में लगे हैं. टीम प्लेयर का चक्कर ऐसा फँसा कि टीम बदलने की तैयारी में जुटना पड़ा. जिन बातों का विरोध करने के लिए टीम गठित कर हल्ला बोला था, इन दिनों खुद टीम ही उस दलदल में फंसी नजर आ रही है. कोई अपना इन्कम टैक्स का बकाया प्रधान मंत्री कार्यालय में भर रहा है मानो इन्कम टैक्स वालों ने मांगा बस हो और लेने से इन्कार कर रहे हों..तो कोई हवाई यात्रा से हेराफेरी वाला धन लौटाने की पेशकश लिए घूम रहा है. उधर राजा और कलमाड़ी इनकी हरकतें देख तिहाड़ में बैठे दलील दे रहे हैं कि इन्होंने तो हेराफेरी का धन खुद की ट्रस्ट में जमा कर कह दिया कि गरीबों के लिए धरे हैं, इसलिए यह भ्रष्टाचार नहीं है. अन्ना और केजरीवाल ने हाँ में हाँ भी मिला दी टीम प्लेयर होने के नाते और हम, जिसने सारी कमाई खुद की ट्रस्ट में न जमा कर स्विस बैंक जैसे सार्वजनिक स्थल में रखी ताकि भविष्य में जब अमेरीका के मौजूदा हालात देखते हुए वहाँ गरीबों की बाढ़ आयेगी, तो उनकी मदद करेंगे. जब हवाई जहाज वाली हेराफेरी इस कारण से हेराफेरी नहीं है तो हमारा तो बहुत ही बड़ा पुण्य करम कहलाया. हमें तो जेल की बजाये भारत रत्न दिया जाना चाहिये.

सांसद खरीदी में भी एक किड़नी मरीज को बेवजह जेल और उस मार्फत अस्पताल में जबरन रहना पड़ा जबकि उन्होंने हर सांसद को पैसा देते समय कान में साफ कह दिया था कि इस पैसे से गरीबों की मदद करना, पुण्य कार्य होता है.

ऐसे हालातों में जब कलमाड़ी और राजा के साथ साथ कनीमोझी तक भारत रत्न की आस बैठे लगाये हैं तो अन्ना, द मल्टी आंदोलनकारी (उनका तो टास्क ही आंदोलन है) सचिन को भारत रत्न दिलवाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं. माना सचिन तेंदुलकर काबिल है मगर भारत रत्न किसे मिले और किसे नहीं, यह तय करना अन्ना के पाले में कब जा पहुँचा. शुरु हुए भ्रष्टाचार से, पहुँच गये कांग्रेस को हरवाने और आगे भी हरवाते रहने का जिम्मा अपने नाजुक काँधों पर उठा लिया यदि मन मुताबिक बिल न आया तो. फिर अब ये भारत रत्न. कभी कभी तो लगता है कि कल को फलाने को मंत्री बनाओ, वरना आंदोलन. मुम्बई से हमारे गांव सीधे फ्लाईट, वरना आंदोलन...आंदोलन करने के लिए मुद्दों की कमी तो है नहीं- नाले से नदी तक मुद्दों कें अंबार हैं मगर बस, जब से चेहरा फोकस में आया है, उनका फोकस लूज़ होता देख कर अफसोस सा होता है. अरे भई, बायोडाटा में एक शब्द और बढ़ाओ- वेल फोक्सड. मल्टी टास्कर का अर्थ यह तो होता नहीं है कि सारे टास्क बिलोर कर रख दूँगा बल्कि जैसे कि पहले कहा है यह एक समय में एक से अधिक कार्य पूरी क्षमता और लगन से कर पाने की कला है. जिसके लिए फोकस्ड अप्रोच की जरुरत होती है.

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एक हमें देखो, मल्टी टास्कर होते हुए भी जबसे नई नौकरी ली है (हालांकि अब तो नई क्या- दो महिने से ज्यादा पुरानी हो गई है), ऐसा फोकस साधे हैं कि लिखना पढ़ना सब छूटा है. न ब्लॉग, न साहित्य. वैसे सच्चाई तो ये है कि चाहो, तो समय भी निकल ही आयेगा. खाना खाना नहीं छूटा, सोना नहीं छूटा, घूमना नहीं छूटा. लिखनें में आलस को कैसे छिपायें तो नई नौकरी की आड़ से बेहतर और कोई बहाना क्या हो सकता है. मौन व्रत साधना अभी सीखा नहीं है.

शायद जल्द ही आलस की चादर से बाहर निकलूँ इसीलिए आज कुछ भी लिख ही डाला है. शायद जागने के पहले की अंगड़ाई की तरह साबित हो...शायद लिखत पढ़त जोर पकड़े. फोकस तो साधे हुए हैं.

अक्सर ही जब मन के भावो को
शब्दों में ढाल नहीं पाता हूँ मैं...
किसी बहाने की आड़ ले
बहुत धीमे से मुस्कराता हूँ मैं...

समीर लाल 'समीर'

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बुधवार, नवंबर 09, 2011

कड़वा वाला हनी!!!

चेहरा पढ़ने की आदत ऐसी कि चाहूँ भी तो छूटती नहीं. दफ्तर से निकलता हूँ. ट्रेन में बैठते ही सामने बैठे लोगों पर नजर जाती है और बस शुरु आदतन चेहरा पढ़ना. पढ़ना तो क्या, एक अंदाज ही रहता है अपनी तरफ से अपने लिए. किसी को बताना तो होता नहीं कि एकदम सही सही ही पढ़ा हो. हालांकि जिनको बताना होता है वो भी हाथ देख कर कितना सही सही बताते हैं, यह तो जग जाहिर है. ढेरों अनुभव रोज होते हैं, धीरे धीरे सुनाता चलूँगा.

सामने की सीट पर एक गोरी महिला आ बैठी है. मेरी नजर मेरे लैपटॉप पर है मगर बस दिखाने के लिए. दरअसल, लैपटॉप तो एक आड़ ही समझो, देख तो उसका ही चेहरा रहा हूँ. हूँ पैदाईशी भारतीय, संस्कृति आड़े आती है कि सीधे कैसे देख लूँ एक अनजान अपरिचिता को. मगर फिर वही, हूँ तो पैदाईशी भारतीय, तरीका निकाल ही लिया, लैपटॉप की आड़ से. तिनके की आड़ शास्त्रों में और चिन्दी की आड़ हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्रियों में काफी मानी गई है तो लैपटॉप की स्क्रीन तो बहुत ही बड़ी आड़ कहलाई. संस्कृति हो या कानून या सेंसर बोर्ड, जो कुछ रोकने का जितना बड़ा प्रबंध करते हैं, उसमें हम उतना ही बड़ा छेद बनाने का हुनर रखते हैं. यूँ तो अक्सर ऐसा परदा बुनते समय ही ऐसे छेद छोड़ देने की प्रथा रही है. कानून बनाने वाले हम, कानून तोड़ने वाले हम, कानून का अपनी सुविधा के लिए पालन करने वाले हम- हम याने हम भारतीय!!!

newspaperlady

उसने हाथ में अखबार खोला हुआ है और नजर ऐसे गड़ाये है जैसे अगर वो खबर उसने न पढ़ी तो अखबार वालों का तो क्या कहना, खबर पैदा करने वालों के यत्न बेकार चले जायेंगे. ओबामा का अमेरीका को ग्रेटेस्ट कहना या अन्ना की कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की घुड़की, सब इनके पढ़े बिना नकारा ही साबित होने वाला है. खैर, इस महिला की किस्मत ही कहो कि ये दोनों खबर तो यूँ भी नकारा साबित होना ही है. मगर इतनी गहन तन्मयता प्रदर्शित होने के बावजूद, मेरा चेहरा पढ़ने का अनुभव और वो भी जब चेहरा महिला का हो- कोई मजाक तो है नहीं. फट से ताड़ लिया कि महिला की नजर जरुर अखबार पर है मगर वो सोच कुछ और रही है. अंदाजा एकदम सही निकला- दो ही मिनट में उसने अपने पर्स से फोन निकाला और जाने किससे बात करने लग गई- हाय हनी, मैं अभी सोच रही थी कि आज तुम मुझको लेने स्टेशन आ जाओ तो ग्रासरी करते हुए घर चलें. दूध भी खत्म हुआ है और कल के लिए ब्रेड भी नहीं है. और हाँ, बेटू ने होमवर्क कर लिया कि नहीं?

वैसे भी हनी शब्द सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं कि एक शब्द किसी आदमी को कितना बेवकूफ बना सकता है कि वो फिर हर बात पर सिर्फ हाँ ही करता है. मानो हनी, हनी न हुआ-रुपया हो गया हो जिसके आगे हमारा हर नेता हाँ ही बोलता है.

एकाएक अखबार की खबर ध्यान से पढ़ते तो यह नहीं हो जाता. निश्चित ही विचार मन में आया होगा कि ग्रासरी करना है, बेटू का होमवर्क होना है. ट्रेन से उतर कर बस लेकर घर जाये- फिर उस सो काल्ड हनी के साथ बाजार जाये- बेवजह समय खराब होगा, उससे अच्छा उसे स्टेशन बुला ले तो सहूलियत रहेगी. तब जाकर फोन किया होगा.

फिर फोन रखने के बाद पुनः वैसे ही नजर गड़ गई अखबार में. मैं अब भी जान रहा था कि वो अखबार में खबर नहीं पढ़ रही है...अनुभव से बड़ा भला कौन सा ज्ञान हो सकता है.

मुश्किल से दो मिनट बीते होंगे कि उसने फोन पर फिर रीडायल दबाया...हाँ हनी, एक बात तो कहना मैं भूल ही गई- स्टेशन आते समय मेरा वो ब्लैक जैकेट लेते आना, जिसमें जेब पर व्हाईट क्यूट सा फ्लावर बना है. ड्राईक्लिनर को रास्ते में दे देंगे.

गरीब हनी शायद हम सा ही, हम सा क्या- ९०% पतियों सा- कोई निरिह प्राणी रहा होगा जिसे पत्नी का जैकेट कौन सा और कहाँ टंगा होता है, न मालूम होगा और पूछ बैठा होगा कि कौन सा वाला?

फिर तो दस मिनट इस तरफ से जो फायरिंग चली कि तुमको तो ये तक नहीं मालूम कि मैं क्या पहनती हूँ..फलाना फलाना...टॉय टॉय...यू डोंट लव मी एट ऑल..मुझे पता है...जाने क्या क्या!!....मेरे तो कान ही सुन्न हो गये. उसकी आवाज में मुझे अपनी पत्नी की आवाज सुनाई देती रही. एकाएक उसका चेहरा भी मेरी पत्नी के समान हो गया....ओह!!

स्टेशन आ गया, और मैं हकबकाया सा ट्रेन से उतर कर बाहर आ गया. पत्नी कार लिए इन्तजार कर रही थी.

पूछ रही है कि इतने सहमे से क्यूँ हो- क्या ऑफिस में कुछ हुआ?

लगता है वो भी चेहरा पढ़ना सीख रही है. सही ही हो ये कोई जरुरी तो नहीं!!! वरना तो हमारे ज्योतिषियों की दुकान ही बंद हो जाये एक दिन में...

सात समुन्दर कोशिश करके हार गये
मैं अपने आँसू से ही पूरा भीगा हूँ...
गुरु मंत्र स्कूलों वाले सीमित थे
जो भी सीखा ठोकर खाकर सीखा हूँ

-समीर लाल ’समीर’

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