मेरी कविता
बदल दी है मैने
उन सब बातों के लिए
जो तुमको मान्य न थी...
मेरी कविता
बदल दी है मैने
उन सब बातों के लिए
जो सबको मान्य न थी...
मेरी कविता
बदल दी है मैने
उन सब बातों के लिए
जो समाज को मान्य न थी...
मेरी कविता
बदल दी है मैने
उन सब बातों के लिए
जो मजहब को मान्य न थी...
मेरी कविता
बदल दी है मैंने
उन सब बातों के लिए
जो आलोचकों को मान्य न थी..
मेरी कविता- इन सब मान्यताओं की
निबाह की इबारत बनी
अब मेरी कहाँ रही
वो बदल कर ढल गई है
एक ऐसे नये रुप में जो
काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन में
प्रकाशित किए जा सकने के लिए
मेरी कविता अब इस नये रुप में
काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ सम्मान से
सम्मानित किए जा सकने के लिए..
-कर दो न प्लीज़, अब और कितना बदलूँ मैं!!
-समीर लाल ’समीर’