आजकल ये टेली मार्केटिंग वाले भी न!! गजब होशियार हो गये हैं यहाँ पर. सब कंपनियों ने भारत और पाकिस्तान के बंदे रख लिये हैं और यहाँ रह रहे देसियों के घर पर हिन्दी में बात करवाते हैं टेली मार्केटिंग के लिये. बड़ी स्टाईल से आपके नाम के साथ भाई साहब या जी लगाकर बात शुरु करते हैं कि समीर भईया!! हम समझते हैं कि किसी पुराने परिचीत का फोन है.
जबाब देते हैं कि, 'हाँ, कौन?' ..वो कहता है 'नम्सकार भईया, कैसे हैं, मैं संदीप' . हम याद करने की कोशिश कर रहे हैं कि यह कौन बिछड़ा साथी मिल गया. इतने प्यार से उसने भईया पुकारा कि हमारी तो आँख ही भर आई. लगा कि उसको दो मिनट गले लगा कर रो लूँ. तब तक वो शुरु हो जाता है, 'भईया, एक जरुरी काम है...और बस शुरु'.अब तो धीरे धीरे पता लगने लगा है कि बंदा टेली मार्केटिंग का है तो अब जान जाते हैं. कुछ दिन पहले हमारी जब इनसे बात हुई तो बड़ी मजेदार स्थिती बन गई, आप भी देखें इस चर्चा को:
फोन की घंटी बजती है और हम फोन उठाते हैं.
टेली मार्केटियर (टेमा): ' समीर भाई'
हम: 'हाँ, बोल रहा हूँ.'
टेमा: 'कैसे हो भईया. मैं विकास बोल रहा हूँ वेन्कूवर से.'
हम तुरंत समझ गये, हो न हो, बंदा टेमा ही है. फिर भी शरीफ आदमी हैं तो पूछ लिया, 'हाँ, बोलो.'
टेमा: ' भईया, हमारी कम्पनी फायर प्लेस की चिमनी साफ करने का कान्ट्रेक्ट लेती है'
अब तो बात साफ हो गई थी. हमने भी ठान लिया कि आज इनसे ठीक से बात कर ही ली जाये.
हम: 'अरे वाह, ये तो बहुत अच्छा है और तुम तो इतनी बढ़िया हिन्दी बोल रहे हो. मजा आ गया तुमसे बात करके.'
अपनी तारीफ सुन कर टेमा जी फुले नहीं समा रहे थे, कहने लगे,' अरे भाई साहब, हम भारत के हैं. हिन्दी से हमें बहुत लगाव है. आप भी तो हिन्दी एकदम साफ बोल रहे हैं.'
हमने कहा, ' तब तो तुम हिन्दी की कविता वगैरह भी सुनते होगे.'
टेमा, 'क्यूँ नहीं, कविता तो मुझे बहुत पसंद है.'
वो झूठ कह रहा था. मैं उसकी आवाज से भांप गया था. मगर उसे माल बेचना है, हां में हां मिलाना उसकी मजबूरी थी. हमने इसी मजबूरी का फायदा उठाया.
'चलो, तो तुमको एक कविता सुनाता हूँ. एकदम ताजी. अभी तक किसी मंच से नहीं पढ़ी.'
इधर काफी दिनों से गये भी नहीं हैं किसी कवि सम्मेलन में, तो मन कर भी रहा था कि कोई पकड़ में आये जो बिना प्रतिकार के वाहवाही करते हुए कविता सुनें. कवि सम्मेलन में भी अधिकतर दूसरे अच्छे सधे कवियों को सुनने के चक्कर में लोग हमें भी सुनते है बिना प्रतिकार किये.
टेमा:' अच्छा, तो आप कविता करते हैं?'
हम:'तब क्या. तो सुनाऊँ?'
टेमा:'ठीक है. सुनाईये, वैसे मेरे दफ्तर का समय है यह.'
हम:' हमारा भी कविता करने का समय है यह. नहीं सुनना है तो फोन रख दें, हम दूसरा श्रोता खोजें.'
बेचारा!! धंधा भी जो न करवा दे. मन मार कर तैयार हो गया सुनने को.
हम शुरु हुए हिदायत देते हुए, 'ध्यान से सुनियेगा' . उसने कहा, 'जी, जरुर'
'इक धुँआ धुँआ सा चेहरा
जुल्फों का रंग सुनहरा
वो धुँधली सी कुछ यादें
कर जाती रात सबेरा।
इक धुँआ धुँआ सा चेहरा……'
वो बेचारा चुपचाप दूसरी तरफ से कान लगाये सुन रहा था. हम इतना पढ़ने के बाद रुके और पूछा,' हो कि नहीं.'
टेमा:' सुन रहा हूँ, भाई.'
हमने कहा 'आह वाह, कुछ प्रतिक्रिया तो करते रहो.'
वो कहने लगा 'जी, जरुर'
हमने फिर से लाईनें दोहराना शुरु की. जब तक दाद न मिले, कवि में आगे बढ़ने का उत्साह ही नहीं आता. लगता है, पत्थर को कविता सुना रहे हैं.
'इक धुँआ धुँआ सा चेहरा
जुल्फों का रंग सुनहरा'
उसने कहा, 'ह्म्म'
हम आगे बढ़े:
'वो धुँधली सी कुछ यादें
कर जाती रात सबेरा।
इक धुँआ धुँआ सा चेहरा……'
वो कहने लगा, 'वाह, वेरी गुड..अच्छा लिखा है. सही है'
हमारा तो दिमाग ही घूम गया. हमने कहा, 'सुनो, ज्यादा मास्साब बनने की कोशिश मत करो. कोई परीक्षा नहीं दे रहे हैं कि कॉपी जांचने बैठ गये. गुड, वेरी गुड-अच्छा लिखा है. सही है, गलत है..अरे कविता को कविता की तरह सुनो, वाह वाह करो.'
टेमा, 'सॉरी, मेरा मतलब वही था.'
हमने कहा, 'मतलब था तो पहेली क्यूँ बूझा रहे हो.साफ साफ कहो न, वाह वाह.'
वो कहने लगा 'जी, जरुर'
हम फिर शुरु हुए:
'कभी नाम लिया न मेरा
फिर भी रिश्ता है गहरा'
टेमा, 'वाह!'
'कभी नाम लिया न मेरा
फिर भी रिश्ता है गहरा
नींदों से मुझे जगाता
जो ख्वाब दिखा, इक तेरा।
इक धुँआ धुँआ सा चेहरा……'
टेमा, 'वाह! वाह! मजा आ गया.' यह उसने फिर धंधा पाने की मजबूरीवश झूठ कहा, उसकी आवाज के वजन से हम जान गये. मगर अब घोड़ा अगर घास पर रहम खाये तो खाये क्या. रहम से तो पेट नहीं भरता. हम जारी रहे:
'वहाँ फूल है अब भी खिलते
जिस जगह कभी दिल मिलते'
टेमा, 'वाह!' और अब उसकी सहनशीलता जबाब दे रही थी. उसकी पूरे संयम बरतने की तमाम कोशिशें बेकार होती नजर आने लगीं और वो भूले से पूछ बैठा कि 'भईया, लगता है कविता बहुत लम्बी है. अभी काफी बाकी है क्या?'
हमें तो समझो कि गुस्सा ही आ गया. हमने कहा, 'बेटा, जब सांसद कोटे में अमरीका/कनाडा आने के लिये निकलते हैं (कबुतरबाजी) और सांसद साहब तुम्हें खुद छोड़ने जा रहे हों तब रास्ते भर उनसे नहीं पूछना चाहिये कि बड़ी लम्बी दूरी है और अभी कितना बाकी है. ऐसे में बस चुपचाप पड़े रहते हैं,-आने वाली चकाचौंध भरी खुशनुमा जिंदगी के बारे में सोचते हुये (भले ही पहुंच कर कुछ भी हो). ऐसे में सफर आसानी से कट जाता है.तुमको तो पहुँच कर वहीं रुक जाना है.उस सांसद की तकलीफ सोचो. उसे तो तुम्हें सही सलामत पहुँचा कर अकेले ही सारे पासपोर्ट लेकर तुरंत लौटना है. फिर एक बार की बात हो तो भूल भी जाओ कि चलो, थकान निकल जायेगी. उस बेचारे को फिर अगली खेप ले जानी है और फिर अकेले लौटना है. यह सतत करते रहना है और तुम एक तरफा यात्रा को लेकर रो रहे हो कि कितनी लंबी यात्रा है. तुम वैष्णव जन (हिन्दी में इसको कायदे का आदमी कहते हैं) हो ही नहीं सकते- गांधी जी गाया करते थे कि वैष्णव जन को दिन्हे कहिये जी, पीर पराई जाने रे!! तुम्हे तो दूसरों के दर्द का अहसास ही नहीं.
बेटा, जब सांसद कोटे में अमरीका/कनाडा आने के लिये निकलते हैं (कबुतरबाजी) और सांसद साहब तुम्हें खुद छोड़ने जा रहे हों तब रास्ते भर उनसे नहीं पूछना चाहिये कि बड़ी लम्बी दूरी है और अभी कितना बाकी है. ऐसे में बस चुपचाप पड़े रहते हैं,-आने वाली चकाचौंध भरी खुशनुमा जिंदगी के बारे में सोचते हुये (भले ही पहुंच कर कुछ भी हो). ऐसे में सफर आसानी से कट जाता है.
अरे, हमने इतनी मेहनत से कविता सोची, प्लाट बनाया, यहाँ वहाँ से शाब्द बटोरे और लिखी एक कविता. वो भी श्रृंगार रस में, जो हमारा फिल्ड भी नहीं है. और तुम्हें हूं हूं, वाह वाह करना भारी पड़ रहा है. कहते हो, कितनी लंबी कविता है, कब खत्म होगी. बेगेरत इंसान!! कुछ तो दूसरों की तकलीफ समझ. तब पता लगेगा कि तेरी तकलीफ तो कुछ भी नहीं.
वैसे तुम्हें बता दूँ कि कविता सुनने वाला भी कविता खत्म होने के सुनहले और खुशनुमा अहसास के सहारे ही आह, वाह करते हुये कविता के सफर का समय काटता है. कविता खत्म होने का अहसास भी अमरीका/कनाडा की सो-काल्ड चकाचौंध भरी जिन्दगी से कम नहीं होता. कविता सुनने वालों की सबकी अपनी अपनी मजबूरी होती है, जिसके तहत वो अपने कविता सुनने का यह खतरनाक समय काटता है. अब मजबूरियां भी कैसी- कोई अपनी सुनाने के लिये सुनता है. कोई संबंध बनाने के लिये सुनता है.सहारा का कर्मचारी अपने साहब को खुश करने के लिये सुनता है (इन पर हमें बड़ी दया आती है, यह निस्वार्थ और निशुल्क सेवा है बिना सर्विस एग्रीमेन्ट के). महामंत्री-मुख्यमंत्री महानायक के चापलूसी में उसे सुनते हैं और महानायक बाकियों को अपनी सुनाने के लिये सुनते हैं. कितना सही कहा गया है किसी ज्ञानी के द्वारा -तू मेरी पीठ खूजा, मैं तेरी. लेकिन सुनते सब हैं, चाहे जो वजह हो. कोई भी बीच मे रुक कर नहीं पूछता कि 'कितनी लंबी कविता है, अभी कितनी बची है.' देखते नहीं क्या, जब कविता खत्म होती है, तो कितनी खुशी से लोग बच्चों की तरह उछल उछल कर ताली बजाते हैं बच्चों की तरह. तुम क्या सोचते हो कि उन्हें कविता पसंद आई. इसी खुशफहमी में सभी कवि जिंदा हैं. दरअसल, वो कविता खत्म होने का उत्सव मना रहे होते है, ताली बजा बजा कर. उन्हें समझो भाई.
हमने कहते रहे, 'अभी तो शुरु की है. अभी तो भाव पूरे मुकाम पर भी नहीं पहुँचे हैं. उसके बाद समा बँधेगी'
अब उससे रहा नहीं गया. कहने लगा, 'भाई साहब, यह तो जबरदस्ती है. किसी को सुनना हो या न सुनना हो, आप सुनाये जा रहे हैं. मेरी इतनी अधिक भी साहित्य मे रुचि नहीं है और आप जबरदस्ती किये जा रहे हैं.'
हमने कहा, 'शुरु किसने की थी?'
वो बोला, 'क्या, मैने कहाँ जबरदस्ती की? मैं तो चिमनी साफ करने की बात कर रहा था. और आप मुझे साहित्य सुना रहे हैं जिससे मुझे कोई लगाव नहीं.'
हमने उससे कहा, 'नाराज क्यूँ होते हो, तुम्हें साहित्य से कुछ लेना देना नहीं है तो मुझे ही चिमनी से क्या लेना देना है. मेरे यहाँ तो गैस वाली फायर प्लेस है, उसमें तो चिमनी होती ही नहीं. मगर तुम फिर भी लगे हो. तो जबरदस्ती किसने शुरु की, मैने कि तुमने?'
गंजो को तो फिर भी एक बार कल को बाल वापस उग आने की झूठी उम्मीद धराकर कंघी बेची जा सकती है. लेकिन संसद में ईमान की दुकान खोल कर बैठ जाओगे तो भविष्य की उम्मीद में भी कुछ नहीं बिकेगा. भविष्य में भी इसका कोई स्थान नहीं बनने वाला वहाँ पर. एक खरीददार न मिलेगा. तुमसे कहीं ज्यादा तो मुंगफली वाला कमा कर निकल जायेगा. तुम बचे छिलके बीन बीन कर खाना और जीवन यापन करना. अरे, फोन पर अपनी दुकान लगाने के पहले देख पूछ तो लो कि अगले पास चिमनी है भी कि नहीं और तुम सही जगह पर ठेला खड़ा किये हो कि नहीं.
गंजो को तो फिर भी एक बार कल को बाल वापस उग आने की झूठी उम्मीद धराकर कंघी बेची जा सकती है. लेकिन संसद में ईमान की दुकान खोल कर बैठ जाओगे तो भविष्य की उम्मीद में भी कुछ नहीं बिकेगा. भविष्य में भी इसका कोई स्थान नहीं बनने वाला वहाँ पर. एक खरीददार न मिलेगा.
टेमा, 'तो आपको शुरु मे बताना था. मैं आपसे बात ही क्यूँ शुरु करता.'
हमने कहा, 'तो तुम भी तो बता सकते थे कि तुम्हें साहित्य में कोई लगाव नहीं.'
टेमा, 'आपने पूछा ही कहाँ?'
हमने कहा, 'तो तुमने भी कहाँ पूछा था कि हमारे यहाँ चिमनी है कि नहीं. तुम अपना शुरु हुये और हम अपना.'
हम जारी रहे कि ' तुमने मेरा दिल तोड़ दिया. वरना तुम्हारे जैसे ही एक टेमा ने अभी ३-४ दिन पहले मुझे इतना डूब कर सुना, खूब दाद लुटाई, खुल कर दाद दी, वाह वाह की, ताली बजाई और यहाँ तक कि कुछ शेर फिर से सुनाने को कहा. उससे तो मैं इतना खुश हूँ कि अगर कभी राजनैतिक सत्ता के गलियारों मे मेरी पैठ बन पाई तो उसे राज्य सभा का सदस्य जरुर बनवा दूँगा (साहित्य श्रोता श्रेणी में-श्रेणी तो आवश्यकता अनुसार बनती रहती हैं) अन्यथा अगर साहित्यिक सत्ता के गलियारों मे ही घुसपैठ बन पाई तो साहित्य श्रोता रत्न. सभी अपने चाहने वालों के लिये कर रहें है तो मैं क्यूँ नही. यही तो रिवाज़ है. चलो सब छोड़ो. आगे कविता सुनो.'
उसने फोन रख दिया था.
ऐसा मैं अब तक अलग अलग टेमाओं के साथ ५-६ बार कर चुका हूँ. अब बहुत कम फोन आते हैं. शायद उन्होंने हमारे फोन नम्बर पर नोट लगा दिया होगा. 'सावधान, यह आदमी कवि है. इसे फोन न किया जाये. यह जबरदस्ती कविता सुनाता है.'
हमने देखे हैं ऐसे नोट उन फोन नम्बरों पर भी, जो गालियां बकते हैं. उनके यहाँ भी ये लोग फोन नहीं करते. हम सभ्य हैं. हमने यह मुकाम बिना गाली के, कविता से हासिल कर लिया है.
हम कविता विधा को नमन करते हैं.
नोट: अगर आपको अभी भी यह कविता पूरी पढ़ने की इच्छा हो तो यहाँ पढ़िये न!! आप टेमा थोड़े ही न हैं.
डिस्क्लेमर: बस हंसने हंसाने के लिये यह पोस्ट लिखी गई है. यूँ तो हजार बहाने हैं आसूं बहाने के, जो अगली पोस्ट में बहाये जायेंगे. (यह पंक्ति पंगेबाज ने पंगा लेते लेते सुझाई है और हम बिना पंगे से डरे छाप रहे हैं)